गीतांजलि रवीन्द्रनाथ ठाकुर अनुवाद रणजीत साहा

Gitanjali Rabindranath Tagore Translator Ranjeet Saha


मेरा मस्तक अपनी चरणधूल तले नत कर दो

मेरा मस्तक अपनी चरण्ढूल तले नत कर दो मेरा सारा अहंकार मेरे अश्रुजल में डुबो दो। अपने मिथ्या गौरव की रक्षा करता मैं अपना ही अपमान करता रहा, अपने ही घेरे का चक्कर काट-काट मैं प्रतिपल बेदम बेकल होता रहा, मेरा सारा अहंकार मेरे अश्रुजल में डुबो दो। अपने कामों में मैं अपने प्रचार से रहूँ दूर मेरे जीवन द्वारा तुम अपनी इच्छा पूरी करो, हे पूर्ण! मैं याचक हूँ तुम्हारी चरम शांति का अपने प्राणों में तुम्हारी परम कांति का, अपने हृदय-कमल दल में ओट मुझे दे दो, मेरा सारा अहंकार मेरे अश्रुजल में डुबो दो।

मैं अनेक वासनाओं को चाहता हूँ प्राणपण से

मैं अनेक वासनाओं को चाहता हूँ प्राणपण से उनसे वंचित कर मुझे बचा लिया तुमने। संचित कर रखूंगा तुम्हारी यह निष्ठुर कृपा जीवन भर अपने। बिना चाहे तुमने दिया है जो दान दीप्त उससे गगन, तन-मन-प्राण, दिन-प्रतिदिन तुमने ग्रहण किया मुझ को उस महादान के योग्य बनाकर इच्छा के अतिरेक जाल से बचाकर मुझे। मैं भूल-भटक कर, कभी पथ पर बढ़ कर आगे चला गया तुम्हारे संघान में दृष्टि-पथ से दूर निकल कर। हाँ, मैं समझ गया, यह भी है तुम्हारी दया उस मिलन की चाह में, इसलिए लौटा देते हो मुझे यह जीवन पूर्ण कर ही गहोगे अपने मिलने के योग्य बना कर अधूरी चाह के संकट से मुझे बचा कर।

कितने अनजानों से तुमने करा दिया मेरा परिचय

कितने अनजानों से तुमने करा दिय मेरा परिचय कितने पराए घरों में दिया मुझे आश्रय। बंधु, तुम दूर को पास और परायों को कर लेते हो अपना। अपना पुराना घर छोड़ निकलता हूँ जब चिंता में बेहाल कि पता नहीं क्या हो अब, हर नवीन में तुम्हीं पुरातन यह बात भूल जाता हूँ। बंधु, तुम दूर को पास और परायों को कर लेते हो अपना। जीवन-मरण में, अखिल भुवन में मुझे जब भी जहाँ गहोगे, ओ, चिरजनम के परिचित प्रिय! तुम्हीं सबसे मिलाओगे। कोई नहीं पराया तुम्हें जान लेने पर नहीं कोई मनाही, नहीं कोई डर सबको साथ मिला कर जाग रहे तुम- मैं तुम्हें देख पाऊँ निरन्तर। बंधु, तुम दूर को पास और परायों को कर लेते हो अपना।

विपदा से मेरी रक्षा करना

विपदा से मेरी रक्षा करना मेरी यह प्रार्थना नहीं, विपदा से मैं डरूँ नहीं, इतना ही करना। दुख-ताप से व्यथित चित्त को भले न दे सको सान्त्वना मैं दुख पर पा सकूँ जय। भले मेरी सहायता न जुटे अपना बल कभी न टूटे, जग में उठाता रहा क्षति और पाई सिर्फ़ वंचना तो भी मन में कभी न मानूँ क्षय। तुम मेरी रक्षा करना यह मेरी नहीं प्रार्थना, पार हो सकूँ बस इतनी शक्ति चाहूँ। मेरा भार हल्का कर भले न दे सको सान्त्वना बोझ वहन कर सकूँ, चाहूँ इतना ही। सुख भरे दिनों में सिर झुकाए तुम्हारा मुख मैं पहचान लूंगा, दुखभरी रातों में समस्त धरा जिस दिन करे वंचना कभी ना करूँ, मैं तुम पर संशय।

अंतर मम विकसित करो

अंतर मम विकसित करो हे अंतरयामी! निर्मल करो, उज्ज्वल करो, सुंदर करो हे! जाग्रत करो, उद्यत करो, निर्भय करो हे! मंगल करो, निरलस नि:संशय करो हे! अंतर मम विकसित करो, हे अंतरयामी। सबके संग युक्त करो, बंधन से मुक्त करो सकल कर्म में संचरित कर निज छंद में शमित करो। मेरा अंतर चरणकमल में निस्पंदित करो हे! नंदित करो, नंदित करो, नंदित करो हे! अंतर मम विकसित करो हे अंतरयामी!

प्रेम में प्राण में गान में गंध में

प्रेम में प्राण में गान में गंध में आलोक और पुलक में हो रह प्लावित निखिल द्युलोक और भूलोक में तुम्हारा अमल निर्मल अमृत बरस रहा झर-झर। दिक-दिगंत के टूट गए आज सारे बंध मूर्तिमान हो उठा, जाग्रत आनंद जीवन हुआ प्राणवान, अमृत में छक कर। कल्याण रस सरवर में चेतना मेरी शतदल सम खिल उठी परम हर्ष से सारा मधु अपना उसके चरणॊं में रख कर। नीरव आलोक में, जागा हृदयांगन में, उदारमना उषा की उदित अरुण कांति में, अलस पड़े कोंपल का आँचल ढला, सरक कर।

तुम नए-नए रूपों में, प्राणों में आओ

तुम नए-नए रूपों में, प्राणों में आओ। आओ, गंधों में, वर्णों में, गानों में आओ। आओ अंगों के पुलक भरे स्पर्श में आओ, आओ अंतर के अमृतमय हर्ष में आओ, आओ मुग्ध मुदित इन नयनों में आओ, तुम नए-नए रूपों में, प्राणों में आओ। आओ निर्मल उज्ज्वल कांत आओ सुंदर स्निग्ध प्रशांत आओ विविध विधानों में आओ। आओ सुख-दुख में, आओ मर्म में, आओ नित्य नैमेत्तिक कर्म में, आओ सभी कर्मों के अवसान में तुम नए-नए रूपों में, प्राणों में आओ।

आज धान खेत की धूप-छाँव में

आज धान खेत की धूप-छाँव में आँख मिचौनी का दाँव । खोल दी किसने, नीलगगन में सफ़ेद बादलों की नाव । आज भौंरे भूल गए मधुपान । उड़ रहे आलोक में उन्मुक्त, आज किस झुरमुट तले नदी तीर पर चकवा चकवी हैं मिलन- प्रमत्त। सुनो आज घर वहीं लौट पाऊँगा मैं आज घर वहीं लौटूंगा ! हाँ आज मैं आकाश फोड़ बाहर का सारा कुछ लूट ले आऊँगा । मानो ज्वार जल में फेनिल राशि पवन निनादित उच्छल हँसी, आज अकाज बजाता बंसी मैं सारा समय काटूंगा ।

आनन्द सागर में आज उठा है ज्वार

आनंद सागर में आज उठा है ज्वार बैठो सब के सब थामो पतवार । आगे बढ़ते चलो, तेज़ी से खेते चलो पतवार । चाहे कितना भी हो भार, दुःखभरी नाव उतारूंगा पार, भले ही प्राण चले जाएँ मैं जाऊँगा लहरों पर हो कर सवार । आनंद सागर में आज उठा है ज्वार। कौन है जो पीछे से करता है सावधान, जो रहा रोक वह कौन है, भय की याद दिला रहा है आज- इन सबसे मैं नहीं अनजान। किसी शाप से, किसी ग्रह दोष से मैं बैठा रहूँगा सुख के बालूचर पर, डोर पाल की कसकर थामे गाता चलूँगा गान। आनंद सागर में आज उठा है ज्वार।

तुम्हारे सोने के थाल में सजाऊंगा आज

तुम्हारे सोने की थाल में सजाऊँगा आज दुःखों की अश्रुधार । ओ जननी मैं गूँथूँगा तुम्हारे । गले का मुक्ताहार । तुम्हारे चरणों के ही पास, पड़ी है चंद्र-सूर्य की माला तुम्हारे वक्ष पर पाएँगे शोभा मेरे दुःखभरे अलंकार । धन और धान्य सभी तेरे माँ इनका क्या करना है बोलो। देना हो तो दे दो मुझको लेना चाहो, वापस ले लो। दुःख ही है मेरे घर की शान, तुम्हें तो है इस रतन का मान तुम अपनी प्रसन्नता से क्रय करती इसका, - यही मेरा अहंकार ।

हमने बांधी है कास की आँटी

हमने बाँधी है कास की आँटी, हरसिंगार की गूँथी माला । नए धान की मंजरियों से सजा लाए हैं डाला। आओ शारदलक्ष्मी, आओ शुभ्र बादलों के अपने रथ पर आओ, आओ निर्मल नील परिपथ पर, आओ विमल श्यामल आलोक से दीप्त वन गिरि पर्वत पर, आओ हिम तुहिन कण स्नात श्वेतकमल का मुकुट धार कर । एकांत कुंज में झरे मालती फूलों की शय्या बिछी हुई है उमड़-घुमड़ आई गंगा के तट पर अपने पंख पसार राजहंस रहे विचर तुम्हारे चरण तले । तुम अपनी स्वर्णवीणा के झंकृत कर तार-तार इसकी मृदु मधुर झंकार से, स्मिति सिक्त सुर विगलित हो उठेगा, त्वरित अश्रुधार में। जो पारसमणि रह-रहकर कुंतल में कौंध उठती है तुम्हारे पलकों तले, करुण विह्वल कर, जब अंतर को सहला जाए जब सारी चिंता सोने में गल जाए, अंधकार आलोक में ढल जाए।

अमल धवल पाल में कैसी

अमल धवल पाल में कैसी मंद मधुर पवन जागी। कभी न देखी मैंने सचमुच तिरती कोई ऐसी डोंगी । किस सागर के पार से लाता पड़ा सुदूर कौन-सा धन । तिर- तिर जाना चाहे मन, इसी तीर पर चाहता है लुटाना चाहा जो कुछ पाया वह सब । पीछे झर-झर बरस रहा जल गरज तरज रहे बादल । झाँक रहा टूटे मेघों की फाँक से अरुण किरण का आँचल । बता दे माझी, कौन है तू किसके सुख-दुःख का धन । यही सोच आकुल है. मन, कौन-से सुर में बँधेगी जंत्री, आज किस मंत्र का होगा गान ।

जब मेरा नैन-भुलैया आया

जब मेरा नैन - भुलैया आया । मेरा हृदय पलकें उठा क्या उसे देख पाया ? शेफाली वन के आसपास झरे फूलों की ढेरी पर ओस से भीगे तृणों पर अपने अरुणाभ चरण रख कर, नैन-भुलैया आया । धूप-छाँही आँचल उसका वन-वन लोट रहा, सारे सुमन देख रहे वही आनन जाने क्या बोल रहे मन ही मन । हम करेंगे तुम्हारा वरण, आनन पर पड़ा आवरण दोनों हाथों से सरका कर, नैन-भुलैया आया। वनदेवी के द्वार-द्वार पर सुन पड़ रही गंभीर शंखध्वनि, आकाश वीणा के तार-तार में झंकृत तुम्हारी आगमनी । बज रहे हैं कहीं स्वर्णनूपुर शायद मेरे अंतर्मन में, सकल भाव में, सभी कर्म में, -शिला गला कर, सुधा ढाल कर, नैन-भुलैया आया ।

जननी, तुम्हारे करुण चरणद्वय

जननी, तुम्हारे करुण चरणद्वय दीख पड़े मुझे अरुण किरण में । जननी, तुम्हारी अमृतमय वाणी भर जाती चुपचाप नीरव गगन में। अखिल भुवन में तुम्हें नवाऊँ माथ शीश झुकाकर सकल कर्म जीवन के साथ, तन-मन-धन आज करूँ अर्पण भक्ति से पूत, धूप-दीप अर्चन में। जननी, तुम्हारे करुण चरणद्वय दीख पड़े मुझे अरुण किरण में।

सारे अग-जग में उदार सुरों में

सारे अग-जग में, उदार सुरों में गूँज रहा आनंद गान, गूँज उठेगा अंतर्मन में ऊँचे स्वर में कब वह गान । वायु जल नम आलोक इन सबसे कब करूँगा प्रेम, हृदय सभा में वे सब के सब कब होंगे शोभायमान । कब इन पलकों के खुलते ही पुलकित हो पाएँगे प्राण, जिस पथ पर चलता जाऊँ मैं पूरे कर सब के अरमान । पास ही हो तुम - कब यह सच सहज मिलेगा जीवन में, स्वतः सभी कर्मों में तुम्हारा नाम होगा गुंजायमान ।

बिछ गए बादलों पर बादल

बिछ गए बादलों पर बादल छाता जा रहा अँधेरा बिठा रखा क्यों तुमने मुझको, इस द्वार पर अकेला । काम-धाम के व्यस्त दिनों में और सारी उलझनों में फिर रहा मारा कई-कई लोगों के बीच आज भी बैठा यहाँ, ले तुम्हारा आसरा बिठा रखा क्यों तुमने मुझको, इस द्वार पर अकेला । अगर न दो दर्शन तुम करके मेरी अवहेला, काटे कैसे कटेगी भला ऐसी बादल वेला । दूर-दूर तक आँखें मल-मल मैं तुम्हें देखता रहता केवल, प्राण मेरे रोते-बिर्राते इस दुस्सह पवन में। बिठा रखा क्यों तुमने मुझको, इस द्वार पर अकेला ।

कहाँ है प्रकाश, कहाँ है उजाला

कहाँ है प्रकाश, कहाँ है उजाला ! अरे विरहानल में जलाओ ज्वाला! न दीप है, न शिखा, क्या यही भाल पर था लिखा- इससे तो बेहतर है मर जाना विरह ज्वाल से जोत जलाओ। वेदना की दूतिका गा रही है गान, 'ओ मेरे प्राण, तुम्हारे लिए जाग रहे भगवान रात्रि के घनांधकार में प्रेमाभिसार के लिए कर रहे तुम्हारा आह्वान, देकर दुःख रखते हैं, जो तुम्हारा मान तुम्हारे लिए जाग रहे भगवान ।' बादलों से भर गया है गगनतल झर-झर बरस रहा बादल जल । इस सघन रात्रि में किसके लिए मेरे प्राण हुए अचानक चंचल, क्यों कर प्राणांतक अंतस्तल झर-झर बरस रहा बादल जल । कौंध जगाती इक पल बिजली आँखों के सम्मुख घनांधकार छाया पता नहीं दूर कहीं किसी गान का जाग उठा है कोई गंभीर सुर, खींच सबके प्राण पथ पर ले आया, आँखों के सम्मुख घनांधकार छाया । कहाँ है प्रकाश, कहाँ है उजाला ! अरे विरहानल में जलाओ ज्वाला! गरज रहा बादल झिंझोड़ती है झंझा- समय बीत जाने पर जा पाऊँगा कैसे, रात है गहरी निकष-सी काली न्योछावर कर प्राण, प्रेम का दीप जला ।

आज सघन सावन घन मोह से

आज सघन सावन घन मोह से चुपके चुपके चरण बढ़ाते आए नीरव निशा की तरह तुम सबसे आँख चुरा कर । प्रभात ने आज मूँद रखे हैं नयन वृथा पवन का रह-रह आवाहन, ढँक दिया किसने नीलाभ गगन कजराए मेघों को फैला कर । कूजनहीन कानन कुंज द्वार बंद कर, शांत पड़ा है हर घर- ओ एकाकी पथिक, कौन तुम इस निर्जन परिपथ पर । हे प्राण सखा, प्रियतम मेरे, हे मेरे घर का द्वार खुला, मुख दिखला अब मत जाना ठुकरा कर, सपने सा झुठला कर ।

घिर आई आषाढ़ की संध्या

घिर आई आषाढ़ की संध्या फिर बीत गया दिन बंधनहीन वृष्टि की धारा बरसे झर-झर रह-रह कर । बैठ अकेले घर के कोने सोच रहा क्या अनमना-सा जूही वन में सजल पवन गुज़र गई क्या कह-कह कर । बंधनहीन वृष्टि की धारा बरसे झर-झर रह-रह कर । ज्वार उठा है अंतर्मन में आज मिल रहा नहीं किनारा भीगे बनफूलों की सुरभि हूक उठाए प्राणों में। गहन रात में, इन प्रहरों में मैं गाऊँ किन सुर लहरों में, भूल हो कैसी कि भूल जाऊँ सब आकुल व्याकुल हो कर । बंधनहीन वृष्टि की धारा बरसे झर-झर रह-रह कर ।

आज झंझा की रात में है तुम्हारा अभिसार

आज झंझा की रात में है तुम्हारा अभिसार, हे प्राण सखा, हे बंधु मेरे ! रो रहा आकाश, होकर हताश मेरी आँखों में नींद नहीं द्वार खोलकर हे प्रियतम राह निहारूँ बारंबार । हे प्राण सखा, हे बंधु मेरे ! कुछ भी नजर न आए बाहर, पार नदी के दूर-दूर तक - राह तुम्हारी कौन-सी होगी मन के गहन अँधेरे तक। आगे बढ़ कर रहे चीर तुम, यह कैसा गहरा अंधकार और राह कर रहे पार । हे प्राण सखा, हे बंधु मेरे !

जानता हूँ आदिकाल से ही

जानता हूँ आदिकाल से ही तुमने मुझे बहा रक्खा जीवन- प्रवाह में, सहसा कितने घर में पथ में, हे प्रिय, सँजो गए हो प्राणों में कितने हरषन । मेघों की ओट किए कितनी ही बार कैसी मीठी मुस्कान बिखेरे खड़े रहे, अरुण किरण संग चरण बढ़ाकर, तुमने दिया भाल को मेरे शुभ परसन । इन नैनों में पड़े हैं संचित ना जाने, कितने ही काल - काल में, और लोक-लोक में, कितने ही नव-नव में एवं आलोक आलोक में, पाया कितनी बार अरूप का रूप दरसन । कितने ही युग से यह कोई ना जाने, प्राणों को रस में लगे भिगोने, कितने ही सुख-दुःख में और प्रेम-भरे गानों में हुआ है कितने सारे अमृत का रस बरसन ।

तुम कैसे गाते हो गान, ओ गायक गुनी

तुम कैसे गाते हो गान, ओ गायक गुनी ! मैं अवाक् सुनता हूँ, सुनता हूँ केवल । फैला है सुर का आलोक भुवन भर में, सुर की बयार बह चली गगन-भर में, तोड़ हर पाषाण आकुल वेग से बहती जाती है सुरों की ध्वनि । तुम कैसे गाते हो गान, ओ गायक गुनी ! मेरा जी करता है वैसे ही सुर में गाए, किंतु मेरा कंठ न ऐसे सुर पाए । क्या कहना चाहे, कह नहीं पाए हार मान कर यह प्राण मेरा रोए - किस फंदे में फाँस रखा है तुमने- मेरे चतुर्दिक सुरों की कैसी दुनिया बुनी । तुम कैसे गाते हो गान, ओ गायक गुनी !

इस तरह से ओट लेकर छिपने से तो

इस तरह से ओट ले कर छिपने से तो काम नहीं चल पाएगा। अब अंतर्मन में छिप कर बैठे रहो, जान नहीं पाएगा कोई, कुछ बोल नहीं पाएगा। है लुकाछिपी तुम्हारी, पूरे विश्व में, कितना भटका मैं भी, देश-विदेश में अबकी बार बताते जाओ, मेरे मन के कोने में, छिपने पर भी जाओगे पकड़े अब तुम्हारा छल नहीं चल पाएगा। मुझे पता है यह कठोर हृदय मेरा तुम्हारे चरणपात के योग्य नहीं, किंतु सखे, तुम्हारा परस पा कर भला- क्या यह पाषाण- प्राण गल नहीं पाएगा। भले न हो साधना मुझमें किंतु तुम्हारी कृपा के कण से, क्या क्षण-भर में ही नहीं खिलेंगे फूल और फल, क्या तुम्हारी इक चितवन से नहीं फल पाएगा। इस तरह से ओट ले कर छिपने से तो काम नहीं चल पाएगा।

यदि देख न पाऊँ प्रभु तुम को

यदि देख न पाऊँ प्रभु तुमको अब भी इस जीवन में तुम्हें न मैं पा सका यह चुभन रहेगी मन में । जिसे भूल ना पाऊँ और अधिक दुःख पाऊँ, स्वप्न में और शयन में । इस दुनिया के हाट में मेरी जितनी घड़ियाँ बीतीं, मेरे दो हाथों में आया हो जितना धन मैंने कुछ नहीं पाया, एक बात यही रहती है मेरे मन में । जिसे भूल ना पाऊँ और अधिक दुःख पाना चाहूँ । स्वप्न में और शयन में । यदि अलसाकर मैं बैठूं पथ पर, और सेज बिछाने लगूँ, वहीं धूल पर आगे भी पथ तय करने हैं, यह याद रहे मेरे मन में । जिसे भूल ना पाऊँ और अधिक दुःख पाना चाहूँ स्वप्न में और शयन में । मेरे मन में जितनी हो खुशी घर में जितनी चाहे बजे वंशी सजा-धजा लूँ जितना भी घर आयोजन में, मगर तुम्हें मैं ला नहीं पाया, अपने घर-आँगन में, यह बात रहे मेरे मन में ।

विरह तुम्हारा देखूँ अहरह

विरह तुम्हारा देखूँ अहरह जो शोभित है भुवन भवन में । सिंधु में, कानन में, गिरि में, गगन में, कितने ही रूपों में सज्जित है। सारी रात निहारता एक-एक तारा अपलक नयनों से, नीरव खड़ा, श्रावण की वर्षा में, पल्लव दल में तुम्हारा ही विरह झंकृत है। घर-घर आज बहुत है पीड़ित तुम्हारे गहन विरह से दुश्चिंतित, ढेर सारा प्रेम और चाह सँजोए सुख-दुःख और अन्य कामों में। भर विषाद में सारा जीवन सुर कितने तरस गए गानों में, विरह तुम्हारा ही मेरे अंतर में उमग समाहित और संचित है।

लो ढल गई वेला उतरी छाया धरा पर

लो ढल गई वेला, उतरी छाया धरा पर, अब चलो घाट पर कलसी में जल लाएँ भर । जलधारा का यह कल-कल स्वर सांध्य गगन आकुल कर जाए, कोई मुझे पुकार रहा, सुनो उसी स्वर में उस पार पथ पर । अब चलो घाट पर कलसी में जल लाएँ भर । कोई नहीं आता-जाता अब इस विजन पथ पर अरे प्रेम नदी में उठा है ज्वार है उन्मत्त पवन । पता नहीं, अब लौट कभी आना है, या फिर किसी नवीन परिचय में बँध जाना है। वह अनजाना बजा रहा है, घाट किनारे, अपनी वीणा उस नौका पर । अब चलो घाट पर, कलसी में जल लाएँ भर ।

आज भरी बदरी बरस रही है झर-झर

आज भरी बदरी बरस रही है झर-झर फूट पड़ी आकुल धारा आकाश भेद कर वह कहीं नहीं पाती ठहर । हवा के झोंके गरज रहे हैं शाल वन से रह रह कर, जलधाराएँ टेढ़ी-तिरछी मैदानों में दौड़ रही हैं। कौन कर रहा नृत्य आज मेघों के घन जटा जाल को लहरा कर । इस रिमझिम में भाग रहा मन मेरा लोट रहा झंझा के संग- न जाने किसके चरण जा पड़े, आज इस हिय में उठी तरंग । आज किस कोलाहल में भूला, हृदय में जाग उठा है पगला, घर-घर की वह तोड़ अर्गला, कौन है जो इस तरह उन्मत्त आज, घर और बाहर।

प्रभु, तुम्हारे लिए ये नैना जागे

प्रभु, तुम्हारे लिए, ये नैना जागे, दरस न पाए नैन बिछाए, वह भी मन को अच्छा लागे । द्वार पे बैठा धूल में, यह भिखारी मन तुम्हारी करुणा माँगे । कृपा ना पाए तो भी चाहे, वह भी मन को अच्छा लागे । आज के संसार में कितने काम, सुख तमाम निकल गए सब के सब आगे । सखा न पाऊँ तुम्हें ही चाहूँ वह भी मन को अच्छा लागे । चारों ओर सुधा धारा आकुल श्यामल धरा अनुराग में आँसू तागे । दरस न पाए पीड़ा भाए, वह भी मन को अच्छा लागे ।

धन-जन से मैं घिरा हुआ हूँ

धन-जन से मैं घिरा हुआ हूँ तो भी मेरा मन, बस तुमको ही चाहे । अंतर में तुम बैठे हो अंतरयामी मुझे जानता, मुझसे ज़्यादा, मेरा स्वामी, सुख-दुःख, भूलों में भी मेरा मन, बस तुमको ही चाहे । छोड़ नहीं पाया यह अहंकार, जिसे सिर पर लादे घूम रहा हूँ, छोड़ सकूँ तो प्राण बचें मेरे तुम्हें पता है, मेरा मन तुमको ही चाहे । पास है मेरे जितना सब कुछ तुम इसे कब अपने हाथों उठा लोगे, सब कुछ तज कर ही, पाऊँगा मैं तुम्हें- मन, मन-ही-मन बस तुमको ही चाहे ।

हाँ, यही तो है तुम्हारा प्रेम

हाँ, यही तो है तुम्हारा प्रेम ओ प्रिय हृदयहरण, हर पत्ते पर नृत्य निरत आलोक यही धारे स्वर्ण वरण । मेघ मृदु आलस भरे तिर रहे आकाश के ऊपर, देह को जो कर रहा मधुसिक्त है यही अमृत क्षरण ! हाँ, यही तो है तुम्हारा प्रेम ओ प्रिय हृदयहरण ! भोर की आलोक धारा में मेरी आँखें डूब चुकी हैं, तभी तुम्हारी प्रेमिल वाणी मेरे प्राणों तक पहुँची है। हाँ, यही तुम्हारा आनत आनन जिस पर मेरी आँखें ठहरीं, मेरे हृदय ने किया है आज परस तुम्हारा चरण । हाँ, यही तो है तुम्हारा प्रेम ओ प्रिय हृदयहरण !

मैं रहता हूँ टिका यहाँ बस

मैं रहता हूँ टिका यहाँ बस गाने को तुम्हारा गान, देना अपनी जगत् सभा में मुझे भी थोड़ा स्थान । जानता हूँ इस भुवन में नाथ, मैं तुम्हारे काम कोई आ न पाया, सुरों में बजते रहे बस इस काहिल के प्राण । नीरव देवालय में, इस निशा में कर रहा तुम्हारा आराधन, मुझे करो आदेश मैं गाऊँ गान तुम्हारा राजन । भोर में जब आकाश गुँजा कर बजेगी वीणा दिव्य सुरों में, दूर न बैठा रह जाऊँ मैं, देना इतना मान । मैं रहता हूँ टिका यहाँ बस गाने को तुम्हारा गान ।

मेरा भय नष्ट करो

मेरा भय नष्ट करो, मुझको भयमुक्त करो, मेरी ओर तुम अपना वही मुख फेरो । पास रहा, पहचान न पाया किधर देखता, कहाँ देखता, तुम ठहरे मेरे हृदय बिहारी देख हृदय की ओर मुस्कान बिखेरो । मुझसे बोलो, कुछ बात करो मेरी काया का करो परस, अपना दायाँ हाथ बढ़ाओ और मुझे दो ढाढ़स । जितना जानूँ ग़लत जान पड़े जो खोजूँ सो झूठा निकले - हँसना मिथ्या, रोना मिथ्या सम्मुख आ मेरी भ्रांति हरो । मेरा भय नष्ट करो, मुझको भयमुक्त करो ।

इन सबने घेर लिया फिर मेरा मन

इन सबने घेर लिया फिर मेरा मन । उतराया नैनों में फिर वही आवरण । फिर से उड़ने लगी हैं कितनी ही बातें अंतर मेरा कई दिशाओं में भागे, बढ़ती जाएगी यह दाह भी धीरे-धीरे बिसरा दूँ मैं अगर तुम्हारा पुण्य चरण । बसी तुम्हारी नीरव वाणी हृदय तल में, डूब न जाए कहीं जगत् के कोलाहल में । देकर अपनी ओट हमेशा मुझे सहारते रहो मेरे चेतन मन पर बिखेरते रहो निरंतर आलोक भरा यह उदार त्रिभुवन । इन सबने घेर लिया फिर मेरा मन ।

मुझ से मिलने को तुम

मुझसे मिलने को तुम कब से आते रहे चल कर । तुम्हारे ये चंद्र-सूर्य तुम्हें भला कहाँ रख पाते ढँक कर । कितने कालांतर की प्रातः संध्या में बज रहा तुम्हारे चरणों का स्वर, दूत तुम्हारा मेरे अंतर को चुपके से चला गया पुकार कर । ओ रे पथिक आज के दिन जागा मेरे प्राणों में स्पंदन सिहर - सिहर उठता है जैसे रह-रहकर यह हर्षित मन । वही घड़ी आ पहुँची आज, खतम हुआ मेरा सारा काज, आई बहती पवन, हे महाराज, सुरभि तुम्हारी मल कर । मुझसे मिलने को तुम कब से आते रहे चल कर ।

आओ, आओ हे सजल घन आओ

आओ आओ हे सजल घन आओ, बादल बरसा जाओ- अपना श्यामल स्नेह विपुल घन इस जीवन में सरसाओ । उतरो गिरि-शिखरों को चूम छाया सघन अरण्य धरा पर, घोर गरज से गगन गुँजा कर तुम दिशा-दिशा छा जाओ । विरहाकुल हैं कदंब वन पुलकित हैं फूल-फूल, विकल हुए रोदन स्वर भरते नदियों के दोनों कूल । आओ अंतर बिहारी आओ, आओ समस्त तृषाहारी आओ, आओ आँखें शीतलकारी आओ, आओ मन में बस जाओ । आओ आओ हे सजल घन आओ, बादल बरसा जाओ ।

जोड़ नहीं पाओगे क्या कुछ तुम इस छंद में

जोड़ नहीं पाओगे क्या कुछ तुम इस छंद में, फिरने या तिरने या टूट कर, बिखरने के आनंद में। कान लगा कर भी सुन ना पाए क्या तुम दिशा-दिशा में और गगन में, कौन-सा सुर बज रहा मरण वीणा पर, तपते तारे, तपता चाँद आग जलाए धधक रहे सब जलने के आनंद में। पागल कर देने वाली -गान के इस तान में कहाँ दौड़ते चले जा रहे, न कोई जाने, पीछे मुड़कर नहीं देखते बँध नहीं पाते किसी बंध में, लुट जाने के पीछे छूट जाने के और संग संग चलने के आनंद में। उसी आनंद के चरण पात से छहों रितुएँ नृत्य में उन्मत्त होतीं और फिर प्लावित हो जाती यह धरा, वर्ण गान गंध में अरे परे रखने, छोड़ देने और मृत्यु के आनंद में।

निशा स्वप्न से पाई मुक्ति

निशा स्वप्न से पाई मुक्ति मुक्ति मिल गई रे, बेड़ी टूट गई रे ! रहा नहीं कोई बोझ हृदय पर आँख खुली, जग हुआ उजागर, हृदय कमल की एक-एक कर पंखुरी फूट गई रे ! तोड़ मेरे घर का यह द्वार तुम मिलने आ गए आखिरकार, नयनाश्रु में डूबी हृदय की वेदना, तुम्हारे चरण तले लोट गई रे ! आकाश से हुआ अरुण आलोक पात किरणों ने भी मेरी ओर बढ़ाया हाथ, टूटी कारा के द्वार, मेरी जय-जयकार गूँज गई रे ! निशा स्वप्न से पाई मुक्ति, मुक्ति मिल गई रे !

आज शरत में कौन अतिथि

आज शरत में कौन अतिथि आया प्राणों के द्वारे- आनंद गान में गा प्राण मेरे आनंद गान गा रे ! नील गगन की नीरव गाथा शिशिर तुहिन भीगी विह्वलता वीणा के हर तार-तार में, आज तुझे पुकारे रे ! धान के खेतों में सोने का गान मिला दे इनमें आज तू वैसी तान सुर नदी की निर्मल धारा में तू अपने सुर तिरने दे रे ! आनंद गान गा प्राण मेरे आनंद गान गा रे !

जो गीत यहाँ गाने आया था

जो गीत यहाँ गाने आया था वह गा न सका, सुर ही साधता रहा आज तक वह चाह दबा न सका। मुझसे सधता नहीं वही सुर मुझे नहीं मिल रहे हैं वे शब्द, प्राणों में ही रही घुमड़ती गाने की आकुलता, खिला नहीं वह फूल आज तक बस बहती रही हवा । मैं देख नहीं पाया उसका मुख और न सुन पाया उसकी वाणी- रह-रहकर सुनता रहता हूँ मैं उसके चरणों की ध्वनि । वह सामने मेरे घर के द्वारे से आता-जाता रहता । मैं आसन उसकी खातिर ही दिन-दिन भर रहा बिछाता दीप जला नहीं पाया घर में, फिर कैसे उसे बुलाता ! मन में मिलन की आस सँजो कर, मैं उसको अब तक पा न सका । जो गीत यहाँ गाने आया था वह गा न सका ।

बैठा उसे सँभालूँ कब तक

बैठा उसे सँभालूँ कब तक, जो खो जाया करता है। अब जाग न पाऊँ निरंतर नाथ, सोच में डूबा सारी रात, चिंतातुर अनिवार । दिवस रात्रि मैं बैठा रहता करके बंद इस घर का द्वार, जो आना चाहे, उसे भगाता शंका में भर, बारंबार । तभी तो कोई आ नहीं पाता मुझ एकाकी के घर-द्वार । बाहर खेल रहा होता है तुम्हारा मोद-भरा संसार । शायद तुमको राह न मिलती आते-आते जाते लौट और जिसे मैं रखना चाहूँ- वह नहीं रुकता - धूल में होता एकाकार । सोच में डूबा सारी रात चिंतातुर अनिवार ।

यह मलिन वसन तजना होगा

यह मलिन वसन तजना होगा तजना ही होगा इस बार- अपना यह मलिन अहंकार- दिन-भर के कामों से अटा धूल में, कितने ही दाग़ों से दाग़दार वैसे ही यह तपा हुआ है, इसे सहना बना है भार । अपना यह मलिन अहंकार । अब तो सारे काम निपट गए दिवस हुआ अवसान, उनके आने की घड़ी आई आशान्वित हैं प्राण । करके पहले स्नान-ध्यान तब परिधान प्रेम का धार, फूल बीनकर संध्या वन के है मुझे गूँथना हार । चले आओ, चले आओ समय रहा पुकार ।

पुलक जगी है तन में

पुलक जगी है तन में नयनों में है मद घनघोर, बाँधी किसने हृदय में मेरे यह राखी की रंगीन डोर । आज नीले गगन तल में, जल-थल में और फूल - फल में, कैसे छितरा दिया तुमने मन मेरा चितचोर । खेल ये कैसा हुआ है मेरा आज तुम्हारे साथ, क्या पाया क्या ढूँढ़ रहा मन सोच न पाऊँ नाथ ! किस बहाने आज यह आनंद अश्रुजल में चाहे रोना, विरह आज मधुर बन कर कर गया प्राण विभोर । पुलक जगी है तन में नयनों में है मद घनघोर ।

प्रभु, आज छुपा कर मत रखना तुम

प्रभु, आज छुपा कर मत रखना तुम अपना दायाँ हाथ। मैं तुमको पहनाने आया राखी, मेरे नाथ! यदि इसे मैं बाँध सकूँ तुम्हारे हाथ, चाहे कोई कहीं भी रहे वह छूट नहीं पाएगा, जुड़ जाएगा बंधन सब के साथ। अपने और पराये में रह नहीं पाए कोई अंतर, पाऊँ तुम को एक बराबर घर हो या कि बाहर । तुमसे हुए वियोग के चलते मैं फिरता रोता- रोता, पल-भर ठहरे, विरह की बेला, तुम्हें पुकारूँ, करो सनाथ । प्रभु, आज छुपा कर मत रखना तुम, अपना दायाँ हाथ।

इस जग के आनंद यज्ञ में मिला निमंत्रण

इस जग के आनंद यज्ञ में मिला निमंत्रण । धन्य हुआ, हुआ धन्य यह मानव जीवन । रूप नगर मेरे दोनों नयन साध मिटाते घूम-घूमकर, उन गंभीर सुरों में मेरे श्रवण हो गए हैं मगन । मुझे मिला है भार, तुम्हारे यज्ञ में मैं बाँसुरी बजाऊँ । प्राणों में गूँथ अपना रुदन- हास मैं घूम-घूम गाऊँ । क्या वही घड़ी है आ पहुँची सभा पहुँचकर दरस तुम्हारा पाऊँ, जयकारे की ध्वनि सुनाता जाऊँ, - है बस यही निवेदन । इस जग के आनंद यज्ञ में मिला निमंत्रण । धन्य हुआ, हुआ धन्य यह मानव जीवन ।

आलोक में आलोकित करो

आलोक में आलोकित करो, हे आलोक के आलोक, उतरो । मेरी आँखों से अंधकार दूर करो, दूर करो। सारी धरा, सारा गगन आनंद-उल्लास में मगन जिस दिशा आँखें फिराऊँ सभी लगें मनभावन । तरुओं के पात-पात में तुम्हारा आलोक भरे प्राण, आलोक यही विहगों के नीड़ गुंजाता है गान । किरण तुम्हारी बड़े स्नेह से बिछी हुई मेरी काया पर विमल करों से सहलाएगी यह मेरा आकुल अंतर ।

मैं तुम्हारे आसन तले धरा पर लोटता रहूंगा

मैं तुम्हारे आसन तले धरा पर लोटता रहूँगा, मैं तुम्हारे चरण रज में, धूल-धूसर हो रहूँगा । क्यों रखते हो दूर इतना सम्मान मुझे दे कर बैठ न जाना मुझे भुला कर यूँ ही तुम जीवन-भर, असम्मान पा कर भी चरणों तक खिंचा चला आऊँगा मैं तुम्हारे चरण रज में, धूल धूसर हो रहूँगा । मैं तुम्हारे यात्री दल में खड़ा रहूँगा सबसे पीछे, तब देना मुझको स्थान प्रभु, सभी जनों के नीचे, कितने लोग चले आते, तुमसे प्रसाद पाने को, कोई चाह नहीं, मैं आया बस दरस तेरा पाने को- कुछ बच जाए अगर अंत तक वही ग्रहण कर लूँगा । मैं तुम्हारे चरण रज में, धूल धूसर हो रहूँगा ।

रूप के सागर मैं पैठा हूँ

रूप के सागर में पैठा हूँ अरूप रतन की चाह लिए, घाट-घाट पर क्या फिरना अब टूटी-फूटी नाव लिए । अब तो वह अवसर आ जाए ज्वारों से टकराना चुक जाए, पैठ सुधा के गहरे तल में अमर बनूँ, मृत्यु की छाँव लिए । कानों से जो गान सुना ना जाए वह गान वहाँ गाया जाता है नित्य, मैं अपने प्राणों की वीणा ले जाऊँगा उसी अतल में भरी सभा के बीच । चिरंतन सुर को स्वर में बाँध शेष गान में उनका ही रोना रो कर, जो नीरव हैं, उनके ही चरणों पर मैं यह नीरव वीणा दूँगा घर ।

एक-एक कर खिली पंखुरी

एक-एक कर खिली पंखुरी दिशा-दिशा में फैली बिखरी कर गया आच्छादित तिमिर का सघन श्यामल जल । स्वर्ण कोष के ठीक मध्य में बैठा हूँ सानंद बंधु मैं, मुझे घेर कर फैल रहा है द्युतिमान शतदल । लहरों का ज्वार उठ रहा गगन में बहती जाए पवन, गूँज रहे हैं चतुर्दिक् गान, नाच-नाच उठे हर तरफ़ प्राण, गगन तलक तन-मन में जाग उठी. हुलस-भरी छुअन । डूब- डूब इस प्राण सागर में प्राणों को भर रहा वक्ष में, घूम-घूम फिर मुझे घेर कर बहती जाए पवन । दसों दिशा आँचल फैला कर, धरा ने किया अंक दान । जहाँ कहीं भी हो कोई प्राणी, धरा सबको बुला लाए, सबके हाथ और सबके पात करती वह अन्नदान । भर उठा है मन गीत और गंध से बैठा हूँ मैं बड़े आनंद से, मुझे ओट दे, बिछा के आँचल धरा ने किया अंक दान। ओ आलोक, तुम्हें नमस्कार क्षमा करो मेरा अपराध, मेरे भाल पर आँक दो पिता का आशीर्वाद । ओ वायु, तुम्हें नमस्कार, मिटे मेरे सारे अवसाद । मेरी काया पर बिखेर दो, पिता का आशीर्वाद । ओ माटी, तुम्हें नमस्कार पूरी हो मेरी सारी साध । फल-फूले सारा घर, मिले पिता का आशीर्वाद ।

यहीं उन्होंने डेरा डाला

यहीं उन्होंने डेरा डाला, हम लोगों के घर में, उनका आसन सजा जतन से भई, मनचाही सज्जा में । गाओ गान आनंद मगन हो, धूल बुहारो झाड़ू से अब, बड़े ध्यान से दूर हटा दो, कूड़े-कचरे सब के सब। फूलों पर जल के छींटे दो भरो फूल साजी में उनका आसन सजा जतन से, भई, मनचाही सज्जा में । वे ठहरेंगे दिवस रात्रि - भर हम लोगों के घर में । पौ फटते मुस्कान उन्हीं की बिखर जाएगी घर में । सुबह-सवेरे आँखें मल कर जब भी नज़र घुमाएँ प्रसन्नता से देख रहे हैं वे, हम सब ऐसा पाएँ । उनकी हँसी बिखेर उजाला फैलेगी पूरे घर में पौ फटते मुस्कान उन्हीं की, बिछल जाएगी घर में । वे एकाकी बैठे रहते हम लोगों के घर में, हम सब कहीं निकल पड़ते जब अपने-अपने चक्कर में। हमें विदा करने को आते छोड़ द्वार तक हरदम - हम प्रमुदित मन से बढ़ जाते गान खुशी से गाते जाते । फिर निपटा कर सारे काम, साँझ ढले जब घर को आते, उन्हें अकेला बैठा पाते हम अपने ही घर में। वे एकाकी जागे रहते हम लोगों के घर में, जब हम गहरी नींद में सोए रहते अपने बिस्तर में । जग में कोई देख न पाए उनकी जोत छुपी रहती है, वह आँचल की ओट लिए सारी रात जला करती है। नींद में जाने कितने सपने आते-जाते रहते हैं, अंधकार में वे मुस्काते हम लोगों के घर में।

निभृत प्राणों का देवता

निभृत प्राणों का देवता जहाँ जाग रहा अकेला, अरे भक्त, वहीं खोलो द्वार- उनके दर्शन कर पाऊँगा । दिन-दिन भटकूँ बाहर रह कर, किसे देखना चाहूँ, बन कर यायावर संध्या वेला की आरती मैं अब तक सीख न पाया। तुम्हारे जीवन के प्रकाश से मैं अपना जीवन दीप जलाऊँगा, ओ पुजारी, आज निभृत में, मैं अपनी थाल सजाऊँगा । जहाँ अखिल की साधना करे पूजालोक की सर्जना, निश्चय ही, मैं वहाँ एक ज्योतिरेख आँकूँगा ।

किस प्रकाश से जला कर प्राण का प्रदीप

किस प्रकाश से जला कर प्राण का प्रदीप उतरते हो इस धरा पर- ओ रे साधक, ओ रे प्रेमी, ओ रे पागल, उतरो धरा पर ! इस आकुल संसार में दुःख-ताप सभी तुम्हारी वीणा के झंकार में, घोर विपद वेला में, किस जननी की मुस्कान देख, तुम हँसते रहते हो ! किसके संधान में हो तुम ! अपने सारे सुखों में आग लगा कर पता नहीं, कहाँ-कहाँ मारे फिरते हो इस तरह व्याकुल बना कर, कौन जाता है तुम्हें रुला कर, क्या जिससे तुम प्रेम किया करते हो ! तुम्हें किसी बात की चिंता नहीं मैं सोचता हूँ, हैं कौन तुम्हारे संगी साथी लेकिन मृत्यु को बिसरा कर तुम किस अनंत प्राणों के सागर में सानंद तिरा करते हो !

तुम मेरे हो, अपने हो, पास मेरे ही रहते हो

तुम मेरे हो, अपने हो, पास मेरे ही रहते हो, यह बात मुझे कहने दो, कह लेने दो । तुम में ही मेरे जीवन का है सारा आनंद, यह बात मुझे कहने दो, कह लेने दो । मुझे दो सुधामय सुर, मेरी वाणी करो सुमधुर - तुम मेरे प्रियतम हो यह बात मुझे कह लेने दो । यह अखिल आकाश, धरती तुमसे ही यह भरी-पूरी दिखती, अपने हृदय से आज, यह बात मुझे कह लेने दो । दुखी जान, पास तुम आते क्षुद्र समझ कर, प्यार जताते, अपने इस छोटे मुँह से यह बात मुझे कह लेने दो । तुम मेरे हो अपने हो, पास मेरे ही रहते हो, यह बात मुझे कहने दो, कह लेने दो ।

मुझे झुका दो, मुझे झुका दो

मुझे झुका दो, मुझे झुका दो, तुम अपने चरण तल में- हृदय गला दो, करो विसर्जन मेरा जीवन अश्रुजल में। एकाकी मैं अहंकार के बैठा उच्च शिखर पर, तुम इस पत्थर की वेदी को, आज ढहा कर करो धूल धूसरित पल में । मुझे झुका दो, मुझे झुका दो तुम अपने चरण तल में । क्या लेकर मैं गर्व करूँ इस सारहीन जीवन में रिक्त पड़ा मैं बिना तुम्हारे, अपने भरे भुवन में। दिन-भर के कर्मों में मेरी- चर्चा डूबी अतल में, विफल न हो मेरी संध्या पूजा इसे तुम, परिणत कर दो फल में। मुझे झुका दो, मुझे झुका दो तुम अपने चरण- तल में ।

आज सुरभिसिक्त पवन में

आज सुरभिसिक्त पवन में किसकी खोज में भटक रहा मैं, वन-वन में। आज मचा है कैसा क्रंदन इस विक्षुब्ध सुनील गगन में । बह रहा सुदूर दिगंत में कैसा करुण संगीत कर रहा है मुझे विह्वल और विचलित, ढूँढ़ रहा मैं किसे अपने अंतर्मन में सुरभिसिक्त पवन में । पता नहीं, किस आनंद राग में सुख पाने को उत्सुक यौवन जाग उठा है, आम्र - मंजरी की मधु सुरभि में नवपल्लव के मधु मर्मर में । चंद्रकिरण सुधा सिंचित गगन में अश्रुविगलित परमानंद में अंतर मेरा हुआ पुलकित आज किसकी छुअन में सुरभिसिक्त पवन में। किसकी खोज में भटक रहा मैं, वन-वन में।

आज द्वार पर आ पहुँचा है जीवंत बसंत

आज द्वार पर आ पहुँचा है जीवंत बसंत अपने उदास और अवसाद भरे जीवन में उसे तुम मत झुठलाओ। आज खोल दो हृदय के द्वार सारे अपने और पराये का भूल कर अंतर आज इस संगीत मुखरित आकाश में, अपने सुरभित तरंगों में बिछल कर, अग-जग की सारी दिशाएँ भूल कर तुम चतुर्दिक विपुल माधुरी बिखेरते जाओ। सघन वेदना है हृदय वन में पात-पात में गूँज उठी है आज, देख रही दूर गगन वह किसकी राह व्याकुल वसुंधरा सजी-धजी है आज। मेरे प्राणों में जगी है आज बासंती पवन, द्वार-द्वार पर दस्तक देती भटक रही, क्या माँगती फिर रही सौरभ विह्वल रजनी किसके चरणों में, धरणी तल में जाग रही ओ सुंदर प्रिय कांत ! तुम गंभीर स्वर में किसे पुकार रहे हो ?

अपने सिंहासन से उतर कर

अपने सिंहासन से उतर कर नीचे आ गए तुम - मेरे सूने घर के द्वारे, स्वामी आकर रुक गए तुम । अनमना सा बैठ अकेला मैं गा रहा था गान, शायद तुम तक पहुँचा वह सुर नीचे आ गए तुम - मेरे सूने घर के द्वारे, स्वामी आकर रुक गए तुम । कितने गायक गुनी गा रहे तुम्हारी सभा में गान, मुझ निगुनी के गान को मिला तुम्हारा प्रेमभरा सम्मान । विश्व तान में जुड़ गया जैसे एक करुण सुर ताल, लिये हाथ में वरण माल, नीचे आ गए तुम - मेरे सूने घर के द्वारे, स्वामी आकर रुक गए तुम ।

तुम अब तो मुझे स्वीकारो नाथ

तुम अब तो मुझे स्वीकारो नाथ, मुझको अपना लो। अब की लौट न जाना नाथ, मेरा हृदय हरण कर लो। जो दिन बीते बिना तुम्हारे, कभी न देखा उनको मुड़ कर, वे मिलें धूल में जा कर । अब तुम्हारे आलोक में जीवन सँजो कर मैं जागा करूँ दिन-रात । अब तो मुझे स्वीकारो नाथ, मुझको अपना लो। पड़कर किस आवेश में न जाने किसकी बातों में, रहा भटकता यहाँ-वहाँ कितने पथ-प्रांतरों में। अब सीने से मुझे लगा कर, अपने मुँह से, कान में मेरे कहना सारी बात- अब तो मुझे स्वीकारो नाथ, मुझको अपना लो। कितने कलंक कितने प्रवाद अब भी मन के किसी कोने में हैं बचे हुए उनकी ख़ातिर मुझको मत लौटाना ख़ाली हाथ- उन्हें आग में दहना, नाथ!

जीवन जब सूख जाए

जीवन जब सूख जाए बन करुणा धारा आना। सारी माधुरी छिप जाए, तब गीत सुधा बरसाना । प्रबल रूप धारण करके जब कर्म गरज उठे और चतुर्दिक छा जाए, हृदय प्रांत में, हे नीरव प्रिय, शांत चरण घर आना। जब स्वयं बनकर कृपण पड़ा रहे कोने में दीन हीन मन, द्वार खोल कर हे उदार तुम, राजोत्सव में आना । धूल की ढेरी में जब वासना, राह भुला देती है अंधा बना, तब ओ पवित्र, ओ अनिद्र, तुम रुद्र ज्योति में आना । जीवन जब सूख जाए बन करुणा धारा आना।

अपने इस वाचाल कवि को

अपने इस वाचाल कवि को हे नाथ, अब तो, नीरव कर दो, उसकी हृदय वंशी छीन कर तुम, गंभीर स्वर भर दो। गहन रात्रि के गहरे सुर में तुम वंशी में ऐसी तान भर दो, और सारे ग्रह शशि नक्षत्र को निर्वाक तुम कर दो । बिखरा है मेरा जो कुछ भी जीवन और मरण में, गान के उस तान से जुड़- जा मिले तुम्हारे चरण कण में। कई दिनों की बातें सारी पल-भर में लय हो जाएँगी तब बैठ अकेला सुनूँगा वंशी घोर-अछोर तिमिर में ।

विश्व है जब नींद में मगन

विश्व है जब नींद में मगन और है गगन में अंधकार कौन मेरी वीणा के तार छेड़, दे रहा, इस तरह झंकार । छीन ली है नींद मेरी उठ बैठा मैं तजकर सेज, आँखें मल हर ओर विहारूँ सूना दिख रहा द्वार । गुन-गुन कर गुंजन भर, प्राणों में गूँज उठा, पता नहीं कैसा विपुल स्वर आकुल हो बज उठा । समझ न पाऊँ किस पीड़ा से अंतर ढोता अश्रुभार, किसके गले डालना चाहे, अपना यह कंठहार । कौन मेरी वीणा के तार छेड़, दे रहा, इस तरह झंकार ।

वह तो तुम्हारे पास बैठा था

वह तो पास तुम्हारे बैठा था- तुम फिर भी जागी नहीं । नींद में कैसी पड़ी थी बेसुध, अरी हतभागिनी । आया था वह गहरी रात, वीणा ले कर अपने हाथ, बजा गया सपनों में ही वह कोई गंभीर रागिनी । जगकर देखा दखिन पवन, चली जा रही पगली बन कर, उसकी सुरभि फैल रही थी अंधकार के तन पर । क्यों बीत रही मेरी रजनी, पा कर पास भी पास नहीं, मिला है मेरे वक्ष को कभी उसकी माला का परस नहीं ।

तुम लोगों ने सुनी नहीं क्या

तुम लोगों ने सुनी नहीं क्या, उनके चरणों की आहट देखो, वह आ रहा, आ रहा है। वह हर युग में, पल-पल में और दिवस - रात्रि देखो, वह आता रहा है, आ रहा है। जी भरकर पागलों-सा जितना भी मैंने गाया गान, उसकी ही आगमनी, उन सुरों में गुंजायमान । वह आता रहा है, वह आ रहा है। युग-युग से फागुनी दिनों में वन परिपथ पर, लो, देखो, वह आ रहा, आ रहा है। कितने ही सावनी अँधेरों में, बादल रथ पर देखो, वह आता रहा है, वह आ रहा है। दुःख के बाद, चरम दुःखों में, उनके चरण बजे अंतर में सुख में अपने स्पर्शरतन से जाने कब सहला जाता है। देखा, वह आता रहा है, वह आ रहा है।

मान ली, मान गया मैं हार

मान गया, मान गया मैं हार । जब-जब परे रखा है तुमको, मैं खुद ही हुआ शिकार । मेरे चित्त गगन में तुमको है कौन, तुम्हें जो मूँद रखेगा, कमी सहन होगा नहीं मुझसे मैं समझ गया, हर बार । पीछे-पीछे चलता आया पिछला जीवन, छाया बन कर, यह माया मुझको व्यर्थ बुलाती अपनी वंशी टेर-टेर कर । छूटा उसका संग और साथ, सौंप दिया सब नाथ तुम्हारे हाथ जो कुछ मेरा इस जीवन में, ले आया हूँ, मैं तुम्हारे द्वार ।

एक-एक कर

एक-एक कर सारे जर्जर तार उतारो, नए सिरे से बाँधो अपना यह सितार । उजड़ चुका है दिन का मेला सभा जुड़ेगी संध्या वेला घड़ी हुई उसके आने की, वही छेड़ेगा अंतिम झंकार । नए सिरे से बाँधो अपना यह सितार। गगन घिरा है तिमिर से तुम खोल दो अपने द्वार सप्तलोकों की नीरवता, उतरे तुम्हारे द्वार । इतने दिनों गाता रहा जो गान आज हो जाए उसका अवसान, यह साज है तुम्हारा साज इस भ्रम को दो बिसार ! नए सिरे से बाँधो अपना यह सितार ।

गाते-गाते गान तुम्हारा

गाते-गाते गान तुम्हारा मैं जाने कब निकल पड़ा था पथ पर- वह आज या कल की बात नहीं। यह भी कब का भूल चुका हूँ कब से तुमको चाह रहा था यह अंतर-- वह आज या कल की बात नहीं। निर्झर जैसे बहता जाता पता नहीं, है उसे किसी की चाह, उसी की तरह मैं भी आया जीवन धारा में बहकर- वह आज या कल की बात नहीं । कितने नामों से रहा पुकार कितनी छवियों में दिया उतार, किस आनंद में चलता आया सारे अते-पते बिसरा कर- वह आज या कल की बात नहीं । फूल जैसे किरण की ख़ातिर कितनी रात जगा करता है, ठीक वैसे ही तुम्हारी चाह में हृदय रक्खा है बिछाकर- वह आज या कल की बात नहीं ।

प्रेम तुम्हारा वहन कर सकूँ

प्रेम तुम्हारा वहन कर सकूँ, मुझमें इतनी सामर्थ्य कहाँ ! इस जगती में अधिक हे नाथ, मेरे और तुम्हारे बीच रखा गया इतना अधिक व्यवधान, सुख और दुःख की कितनी बाड़ें - धन, जन और सम्मान । किसी ओर से कभी किसी क्षण मैं लेता हूँ तुमको देख, श्याम घनों की फाँक से जैसे फूट पड़ी हो, किरणों की मृदु रेख । अपना असीम प्रेम भार सौंपते हो वहन करने तुम जिसे, तो सारे पर्दे हटा कर पूरी तरह उन्मुक्त कर दो उसे, उसे छिपा मत रखो घर के किसी कोने में और मत रखो उसका धन, निःस्व बना पथ पर ले आओ, करके उसे अकिंचन । शेष रहे ना उसका कुछ भी मान और अपमान, लाज शरम और भय, उसका सारा कुछ बनो अकेले तुम ही, हे विश्व भुवनमय ! तुम मेरे सम्मुख रहो सदा, केवल तुमसे ही हो पाते परिपूर्ण मेरे प्राण, मिला तुमसे मुझे जितना भी करुणा का दान, उससे मेरा लोभ हो उठा सीमाहीन, अब सारे लोगों को दूर फेंक, मैं आया अपने अंतर में तुमको देने स्थान ।

हे सुंदर आए थे तुम आज प्रात

हे सुंदर आए थे तुम आज प्रात। अरुण वरण पारिजात लिए अपने हाथ । सोई थी जब सारी नगरी, कोई पथिक नहीं था पथ पर, और अकेले चले गए तुम, अपने सोने के रथ पर । करुण दृष्टि डाली तुमने उठा नयन पात, हे सुंदर, आए थे तुम आज प्रात । किस सुरभि से भर उठा था सपना मेरा किस आनंद में सिहर उठा घर का अँधियारा, धूल में लिपटी पड़ी हुई मेरी नीरव वीणा, बज उठी थी अनाहत पाकर कौन-सा आघात । कितनी बार सोचता था बिस्तर से उठकर, आलस तज, दौड़ जाऊँ, मैं बाहर पथ पर, उठ कर मैं बैठा जब, तुम जा चुके थे तब - लगता है अब शायद ही मिले तुम्हारा साथ, हे सुंदर, आए थे तुम आज प्रात ।

जब तुम्हारे साथ मेरा खेल हुआ करता था

जब तुम्हारे साथ मेरा खेल हुआ करता था, कौन हो तुम, तब किसे पता था ! तब नहीं था भय और मन में लाज की कोई बात भले ही जीवन हो, कितना भी अशांत । तुमने सुबह-सवेरे कितनी बार पुकारा होगा, मानो मैं तुम्हारा अपना ही सखा हूँ, हँसता-गाता दौड़ता-फिरता था तुम्हारे साथ, उन दिनों कितने ही वन और वनांत । हाँ, उन दिनों तुम गाते थे जो गान, तब उनका अर्थ, किसे पता था ! केवल उनके संग गा रहे होते मेरे प्राण, सदा नाचता रहता था, मेरा हृदय अशांत । आज अचानक खेल के अंत में, क्या देख रहा हूँ छवि- स्तब्ध है आकाश, नीरव शशि- रवि, निहारता तुम्हारे चरण आनत नयन है खड़ा सारा भुवन एकांत ।

खुली नाव थामो पतवार

खुली नाव थामो पतवार ! पर कौन उठाए तेरा भार । आगे ही जब जाना है रे, जो छूट गया पीछे, वह धरा रहे- उसे पीठ पर लाद चले तो पड़ा रहना होगा अकेला, किनारे पर मन मार । खींच खींच कर घर का बोझा पार घाट पर ला कर पटका, इसी के चलते भूल गया सब, पड़ा लौटना बारंबार । एक बार फिर पुकारो माझी को डूब जाने दो तुम अपना बोझ सारा, सौंप दो उसके चरणों में जा कर, अपना यह जीवन, पूरी तरह उजाड़ । खुली नाव थामो पतवार ! पर कौन उठाए तेरा भार ।

हृदय खो गया मेरा आज

हृदय खो गया मेरा आज इन मेघों में अनजाने, बरबस दौड़ा चला जा रहा कहाँ किधर ना जाने । वीणा के तारों पर बिजली करती जाती है निरंतर चोट, वक्ष में टंकार भर रहा वज्र किस महातान में । और झुंड - झुंड में सघन श्याम इस अंधकार में, अंग-अंग भींच लिया उसने और बिखर गया प्राण में । नृत्य में उन्मत्त पागल हवा बनी है आज मेरी सखा, वह तनिक न कहना माने, अट्टहास भर चली कहाँ, ना जाने। हृदय खो गया मेरा आज इन मेघों में अनजाने ।

ओ मौन मेरे तुम करो न कोई बात

ओ मौन मेरे, तुम करो न कोई बात तो भी क्या हुआ । हृदय में भर कर रख लूँगा, तुम्हारी नीरवता । स्तब्ध हो कर, रहूँगा पड़ा जैसे रजनी रहती, जला - जला कर तारे अपलक धैर्य बनाए रखती। होगा निश्चय ही प्रभात, अंधकार का होगा नाश, वाणी तुम्हारी स्वर्णधारा- सी होगी प्रवाहित फोड़ कर आकाश । तब पंछी के नीड़ में मेरे, तुम्हारी भाषा में जागेंगे गान, तान में तुम्हारी, खिलाऊँगा सुमन और अपने लता वितान ।

जितनी बार जलाना चाहा दीप

जितनी बार जलाना चाहा दीप वह बुझता रहा बार-बार, मेरे जीवन और तुम्हारे आसन बीच बहुत सघन है अंधकार । उस लता पर जो मूल से ही सूख चली, अब खिलते नहीं फूल, बस उगती है कली, बन सके तुम्हारी सेवा में मेरा यह जीवन वेदना का उपहार । पूजा का गौरव ही है पुण्य विभव इसमें नहीं संदेह का भी लेश, यही परिधान है तुम्हारे आराधक का, लज्जास्पद दीन वेश । इसके उत्सव में नहीं आता कोई इधर, बजती नहीं वंशी, सजता नहीं घर, रोते-धोते ही यह यहाँ बुला ले आया तुमको टूटे मंदिर के द्वार ।

मैं तुम्हें रखूंगा नाथ

मैं तुम्हें रखूँगा नाथ सबकी नज़र बचा कर, कहाँ पाऊँगा अपने ही घर मैं ऐसा पूजाघर । अगर मेरे दिन-रात में अपने सभी हों साथ, करुणा कर तुम अगर बढ़ा दो हाथ, तो उसे रखूँगा थाम कर । देकर मान मैं जुटा लूँ मान मैं वैसा नहीं, पूजा बन जाए कोई अनुष्ठान स्वामी ऐसा नहीं । अगर तुम्हें मैं करता प्रेम, तो स्वयं बजेगा वंशी स्वर, स्वयं ही खिल उठेंगे कुसुम, कानन भर ।

वज्र में बजती तुम्हारी बाँसुरी

वज्र में बजती तुम्हारी बाँसुरी कैसा वह सहज गान । उसी के सुर में जाग उठूँ मैं, दो मुझे ऐसे कान । इतनी जल्दी भूल नहीं पाऊँगा जाग उठेगा उसी प्राण में उन्मत्त अंतर मृत्यु में ही ढँका हुआ है, अंतहीन वह प्राण । वह झंझा बहती है उसी आनंद में, हृदय-बीन के तार-तार पर, सप्त सिंधु और दस दिगंत में, नाच नाच उठती उसी झंकार पर। विच्छिन्न कर मुझे विश्राम से मुझे बहा ले चलो, उसी अथाह में, जहाँ अशांति के अंतर में बसी है शांति महान् । वज्र में भी बजती तुम्हारी बाँसुरी कैसा यह सहज गान ।

करुणा जल से धोना होगा

करुणा जल से धोना होगा मुझे अपना जीवन । वरना छू नहीं पाऊँगा कभी मैं तुम्हारे चरण । तुम्हारे योग्य पूजा की डाली सजाते हुए, क्यों निकल पड़ता है सारा कलुष, फूट कर इसीलिए रख नहीं पाते मेरे प्राण, इसे तुम्हारे चरणों पर । इतने दिनों तक नहीं थी मुझे कोई भी व्यथा, अंग-अंग में समाई हुई थी- मलिनता । आज उस उज्ज्वल घड़ी में क्यों कर मेरा व्याकुल अंतर घुटता है रो-रो कर, अब कभी नहीं देना मुझे करने, धूल में शयन । करुणा जल से धोना होगा मुझे अपना जीवन ।

जब सभा होगी विसर्जित तब

जब सभा होगी विसर्जित तब क्या गाकर अंतिम गान भला मैं जा पाऊँगा। हो सकता है तब रुंधा पड़ा हो गला और तुम्हारी ओर देखता रह जाऊँगा । हाँ, अभी तक मुझसे वह सुर सधा नहीं क्या कभी वह रागिनी बज पाएगी- पीर प्रेम की साध सुनहरी तान, सांध्य गगन में क्या वह बिखरा पाएगी ? इतने दिनों तक साधा है जो सुर जिसे रात-दिन अपना मान, अगर भाग्यवश उस साधना का इसी जनम में हो सके अवसान । जीवन-भर की पूर्ण वाणी और मानस वन में खिला कमल, कर दूँगा उत्सर्ग सागर के निमित्त विश्व गान की धारा में बहा आऊँगा । जब सभा होगी विसर्जित तब, क्या गाकर अंतिम गान भला मैं जा पाऊँगा ।

जीवन भर की वेदना

जीवन-भर की वेदना, अरे, जीवन भर की साधना । आग तुम्हारी धधक कर जल उठे दुर्बल कह कर कभी दया मत करना, हो जितनी भी दाह, मैं चाहूँगा दहना, हो जाए जल कर खाक सारी वासना । जो पुकार अचूक हो, उसमें मुझे पुकारो, उसमें अब कोई देर न होने पाए। बाँध रखा है वक्ष को जिस बेड़ी से वह पीछे छूट जाए, टूट-फूट जाए। धन गरज के साथ तुम्हारा शंख, अब ज़ोर से बज उठे, गर्व गले और निद्रा टूटे जागे गहन चेतना । जीवन भर की वेदना, अरे, जीवन भर की साधना ।

वे आए थे दिन रहते ही मेरे घर पर

वे आए थे दिन रहते ही मेरे घर पर यह कह कर कि- 'पड़े रहेंगे एक किनारे ।' और बताया- 'देवपूजन में हम सभी होंगे सहायक तुम्हारे, और ग्रहण करेंगे थोड़ा-बहुत प्रसाद पूजा के ही बाद।' वे इसी तरह दीन-हीन- क्षीण और मलिन वेश में पड़े रहे संकोचवश, एक कोने में। किंतु रात में देखा- अपने देवालय के पास वही प्रबल रूप कर धारण, मलिन हाथ से पूजा की बलि कर रहे हरण ।

हमें पकड़ कर लेते हैं वसूल, वे महसूल

हमें पकड़ कर लेते हैं वसूल, वे महसूल बीच रास्ते ही, ले कर तुम्हारा नाम, घाट पहुँच कर उतराई देने को पास मेरे नहीं बच पाता एक छदाम । वे तुम्हारे काम करने के बहाने तुले हुए हैं धन- जन सभी मिटाने, जो थोड़ा कुछ बचा है उसका भी, अब हो जाएगा काम तमाम । आज मैंने पहचान लिया है उस प्रपंची छद्म दल को, उन लोगों ने भी जान लिया है मुझ जैसे निर्बल को । कपट वेश को फेंक दिया है, आज लाज शरम सब बेच दिया है, सिर उठाए वह खड़ा है आज राह रोके सरेआम ।

इस चांदनी रात में जाग उठे हैं मेरे प्राण

इस चाँदनी रात में, जाग उठे हैं मेरे प्राण, क्या पा सकूँगा आज, पास तुम्हारे स्थान - मैं देख सकूँगा तुम्हारा अपूर्व सुंदर मुख मेरा उत्सुक हृदय रहेगा उसी ओर उन्मुख, क्या तुम्हारे चरणों के चतुर्दिक बार-बार घूमते फिरेंगे मेरे अश्रु भरे गान ? साहस कर मैं तुम्हारे चरणों पर आज नहीं रख पाया अपना अंतर, मैं नज़रें गड़ा माटी में, संकोच से खड़ा हूँ, कहीं न लौटा दो तुम, मेरा यह दान । मेरा हाथ पकड़ कर अगर स्वयं तुम पास आ कर मुझे कहो, उठ जाने को, तब इन प्राणों की अकूत दरिद्रता का, इसी घड़ी हो जाएगा अवसान।

मैं अपने एकाकी घर की तोड़ कर दीवार

मैं अपने एकाकी घर की तोड़ कर दीवार प्राणों के रथ पर हो कर सवार, विराट् विश्व में कब जा पाऊँगा । प्रबल प्रेम में सब लोगों के बीच उनके हर काम-काज में बढ़ा कर हाथ, हाट-बाट में तुम्हारे साथ, मिल पाऊँगा । प्राणों के रथ पर होकर सवार कब बाहर जा पाऊँगा । सारी जगती की आशा-आकांक्षा में सुख-दुःख के सागर में, इसकी लहराती लहरों में कूद पडूंगा, वक्ष उसका भींच कर । मंद मधुर आघात वेग में अपनी पलकें खोलूँगा तुम्हारे वक्ष पर, विश्व जनों को उनके कलरव स्वर में सुन पाऊँगा । प्राणों के रथ पर हो कर सवार कब बाहर जा पाऊँगा ।

लौटूँगा मैं नहीं अकेला इस तरह

लौटूँगा मैं नहीं अकेला इस तरह अपने ही मन के कोने-अंतरे में- मोह के उन्माद में । तुम्हें अकेले बाहुबंधन में जकड़ कर सँकरे घेरे में कसने पर यह पाया - मैंने ख़ुद को ही फाँस लिया है अपने ही फंदे में । मैं तुमको जब पा लूँगा इस अखिल भुवन में, उसी घड़ी यह हृदय मिलेगा, हृदयराज में। यह मेरा चित्त, है वृंत केवल इसके ऊपर ही, खिला है विश्वकमल- अब तुम दिखला दो उसके ऊपर का पूर्ण प्रकाश ।

मुझे नींद से अगर जगाया आज

मुझे नींद से अगर जगाया आज तुमने नाथ ! तो फिर लौट न जाना, लौटना मत, करना करुण दृग्पात । इन गहन वनों की शाखाओं पर बरस रहे आषाढ़ के बादल झर-झर, मेघ भरा आकाश देख, अलसा कर, सो रही है रात । लौट न जाना, लौटना मत नाथ ! बिजली की अविराम कौंध से नींद गँवा कर बैठे हैं ये प्राण, गाना चाहते हैं गान, वर्षाजल की धारा में साथ-साथ, लौट न जाना, लौटना मत नाथ ! करना करुण दृग्पात । अंतर मेरा अश्रुओं में ढल निकल पड़ा है अंतस्तल से, आकाश के संधान में हुआ आकुल -बढ़ा कर अपने दोनों हाथ । लौट न जाना, लौटना मत नाथ! करना करुण दृग्पात ।

चाहता हूँ, मैं तुम्हें ही चाहता हूँ

चाहता हूँ, मैं तुम्हें ही चाहता हूँ, हाँ, तुम्हें मैं चाहता हूँ, यही बात निरंतर अपने अंतर में- जैसे, मैं दोहराता रहूँ। और जितनी भी पड़ी हैं कामनाओं में घूमती-फिरती हैं दिन में, रात में, सब की सब मिथ्या हैं, झूठी हैं, हाँ, तुम्हें मैं चाहता हूँ। जैसे रात छुपा रखती है अपने में आलोक की प्रार्थना, ठीक वैसे ही, गहन लिप्सा में भी, हाँ, तुम्हें मैं चाहता हूँ। शांति पर करती है झंझा प्रहार जब वह भी प्राणों में प्रशांति चाहती तब, ठीक वैसे ही मैं तुम पर करता आघात, हाँ, तुम्हें मैं चाहता हूँ।

मेरा यह प्रेम न तो कायर है

मेरा यह प्रेम न तो कायर है और न हीन बल- और यह व्याकुल बना क्या, बस, बहाता रहेगा अश्रुजल । मंद मधुर सुख में, शोभा में, क्यों डुबा देता है प्रेम को यह निद्रा में, जागना चाहे यह तुम्हारे संग, इस आनंद में हो कर पागल । नाचता जब भीषण बाना पहने तीव्र ताल पर साज लगते घनघनाने, भागता है त्रास से, भागता संकोच से, संदेह में पड़ कर विह्वल । अपने उसी रुद्र मनोहर देश में, उसका प्रेम मुझे कर ले वरण, क्षुद्र आशा भरा स्वर्ग मेरा वह डुबो दे रसातल। मेरा यह प्रेम न तो कायर है और न हीन बल ।

और अधिक सह लेगा वह आघात मेरा

और अधिक सह लेगा वह आघात मेरा और मुझे भी झेलेगा । तुम और भी ऊँचे सुरों में, जीवन के तारों में झंकार भरो। जो राग जगा जाते हो तुम प्राणों में, अब तक बजा नहीं वह ऊँची तानों में, निष्ठुर पड़ी मूर्च्छना से उन गानों में, मूर्ति संचारो । उस पर नहीं बजेगा केवल करुण राग मृदु मंद स्वरों के खेलों में, प्राणों को, मत व्यर्थ करो। सारे हुताशन जल उठें, सारी झंझाएँ गरज पड़ें, समस्त आकाश को जगा कर, पूर्णता विस्तारो ।

देवता जान कर ही दूर खड़ा रहता मैं

देवता जान कर ही दूर खड़ा रहता मैं, और अपना मान कर आदर नहीं जता पाता। कह कर पिता, चरणों में झुक जाता हूँ, बंधु मान कर, दोनों हाथ पकड़ नहीं पाता । तुम सहज प्रेम से खिंचे चले आते हो, बन कर मेरे, उतर चले आए नीचे, सुख से प्रमुदित और वक्ष में भर कर, मैं साथी कह कर तुम्हें नहीं अपना पाता । तुम भाई हो और भाइयों में भी प्रभु हो, इसीलिए मैं उनकी ओर नहीं तकता, मैं बाँट भाइयों में सारा धन आया हूँ किंतु तुम्हारी मुट्ठी क्यों मैं भर नहीं पाता । सबके सुख-दुःख में दौड़ा-भागा आ जाता मैं, केवल तुम्हारे सामने ही रुक नहीं पाता, रहा झोंकता प्राणों को क्लांतिहीन कामों में लेकिन प्राणसागर में कूद नहीं पाता। देवता जान कर ही दूर खड़ा रहता मैं, और अपना मान कर आदर नहीं जता पाता।

तुम कर रहे जो काम उसमें

तुम कर रहे जो काम उसमें, क्या मुझको अपना हाथ बँटाने नहीं दोगे ? काम करने के दिनों में, तुम मुझे, क्या अपने हाथों मुझको जगा नहीं दोगे ? भले-बुरे उत्थान-पतन में विश्व सदन की जोड़-तोड़ में, पास तुम्हारे खड़ा हो जाऊँ तो क्या तुम अपना परिचय मुझे नहीं दोगे ? सोचा था निर्जन छाया में, आता-जाता जहाँ कोई नहीं, संध्या वेला मुझमें तुममें जान-पहचान होगी वहीं । भटक रहा हूँ अंधकार में एकाकी मैं, वह मिलन लगे, सपना देखा हो जैसे हो रही तुम्हारे हाट में, जहाँ ख़रीद-बिक्री क्या तुम मुझको वहाँ बुला नहीं लोगे ? तुम कर रहे जो काम उसमें, क्या मुझको अपना हाथ बँटाने नहीं दोगे ?

जहाँ तुम्हारी मची हुई है लूट भुवन में

जहाँ तुम्हारी मची हुई है लूट, भुवन में कैसे मेरा हृदय वहाँ तक जा पाएगा? स्वर्ण कलश में सूर्य और नक्षत्र रहे बटोर अविरल ज्योति धारा, बिखरे हैं अनंत प्राण गगनांगन में कैसे मेरा हृदय वहाँ तक जा पाएगा? बैठे हो तुम जहाँ लुटाने दान, कैसे मेरा हृदय वहाँ तक जा पाएगा ? नित्य नवीन रसों में ढाल ढाल कर, जो देता रहता है खुद को निचोड़ कर, वहाँ तलक क्या इस जीवन में, देगी क्या नहीं सुनाई, मेरी पुकार ? जहाँ तुम्हारी मची हुई है लूट, भुवन में कैसे मेरा हृदय वहाँ तक जा पाएगा ?

फूलों जैसा तुम्हीं खिला जाते हो गान

फूलों जैसा तुम्हीं खिला जाते हो गान, नाथ मेरे, यही तो है तुम्हारा दान । उस फूल को देख मैं आनंद में तिरता, देने आता हूँ अपना मान उसे उपहार मैं- और उसे अपने हाथों से उठा, तुम बड़े स्नेह मुस्काते हो- दया दिखा कर प्रभु तुम मेरा रख लेते अभिमान । यदि इसके बाद पूजा वेला के अंत में, यह गान झरकर धूल में मिल जाए, कोई क्षति नहीं होगी - तो भी हथेली से तुम्हारे लुटने और फूटने वाली अजस्र धन धारा यदि मेरे जीवन में पल-भर रुके और खिल सके, तो सार्थक कर जाए, सदा-सदा के लिए मेरे प्राण । फूलों जैसा तुम्हीं खिला जाते हो गान, नाथ मेरे, यही तो है तुम्हारा दान ।

मैं सदा निहारता रहूँ तुम्हारी ओर

मैं सदा निहारता रहूँ तुम्हारी ओर, मेरी यह इच्छा प्रभु, सफल करो प्राणों में । देखता रहूँ, तुम्हें बस देखता रहूँ, और अपने मन की लौ लगाए रहूँ, सारी पीड़ा और सारी आकांक्षा में, सारे दिन के काम-काज के बीच क्षणों में । कितनी ही इच्छाएँ दौड़-दौड़ जाती हैं- दिशा-दिशा के संधानों में । बस यही इच्छा सफल करो प्राणों में । वही इच्छा, एक रात के बाद दूसरी रात उसी एक पीड़ा के हाथों जाग जाग उठती है जो एक दिन को गूँथती जाती, दूसरे दिन से एक के सूत्र से और किसी आनंद गान में । मैं सदा निहारता रहूँ, तुम्हारी ओर, मेरी यह इच्छा प्रभु, सफल करो प्राणों में ।

फिर आ गया आषाढ़ और छा गया गगन

फिर आ गया आषाढ़ और छा गया गगन, बारिश की सोंधी खुशबू फैलाती, बह रही पवन । यह पुरातन हृदय मेरा आज भर कर पुलक में, फिर सवार होना चाहे देखना चाहे नए-नए मेघों का सघन वन । फिर आ गया आषाढ़ और छा गया गगन। रह-रह कर खुले खेत में, मैदानों पर पड़ रही मेघों की छाया, नव तृणों पर। आ गया...आ गया, कह कर नाच उठे हैं प्राण, आ गया...आ गया, सब गा रहे यह गान । नयनों में तिरता आया और छा गया अंतर्मन, फिर आ गया आषाढ़ और छा गया गगन । बारिश की सोंधी खुशबू फैलाती, बह रही पवन।

देख रहा हूँ आज रूप वर्षा का लोगों के बीच

देख रहा हूँ आज रूप वर्षा का लोगों के बीच, चल रही गरजती, पूरी सज-धज के साथ । उसके अंतर में नाच रही गर्जना दौड़ रही वह, तोड़ सभी सीमांत किस ताड़ना से टकराते मेघों के वक्ष परस्पर और कड़क उठती है विद्युत् रेख, वज्र के बीच । देख रहा हूँ आज रूप वर्षा का लोगों के बीच । वे झुंड बाँध कर दूर सुदूर पड़े निकल, कोई नहीं जाने क्यों चल पड़े सदल-बल । तनिक न जाने किस हिमशिखर तल में घोर सावन में पिघल गल वर्षा जल में, वे नहीं जानते कैसा भीषण जीवन-मरण रचा है उनके इन भयंकर उत्सवों के बीच । देख रहा हूँ आज रूप वर्षा का लोगों के बीच । गूंज रही कोई झंझा वाणी ईशान कोण में, कौन भर रहा है कान वहां गंभीर गहन स्वर में। क्या घटित होगा दिगंतराल में मूक व्यथा तिर रही स्तब्ध अंधकार में, निविड़ छाया तल में काली कल्पना, गहन हो उठी है कैसे-कैसे आपात् कर्म के बीच । देख रहा हूँ आज रूप वर्षा का, लोगों के बीच ।

हे मेरे देवता, भर कर मेरी देह और मेरे प्राण

हे मेरे देवता, भर कर मेरी देह और मेरे प्राण, अमृत तुम कौन-सा करना चाहोगे पान? मेरे नयनों में देख पाओ तुम अपनी विश्वछवि, यह साध जुटाए बैठा है तुम्हारा कवि - नीरव रह कर भी मेरे मुग्ध श्रवण में तुम सुब लेना चाहते हो अपने गान । अमृत तुम कौन-सा करना चाहोगे पान ? मेरे अंतर में तुम्हारी सृष्टि ही बसी है, एक विचित्र वाणी जिसमें गूंज रही है। प्रभु उसके ही संग मिल गई प्रीति तुम्हारी, जिसने आ कर जगा दी है, मेरी गीति सारी, तुमने देखा है स्वयं को उस मधुर रस में, मेरे ही द्वारा तुमने अपना किया है दान । हे मेरे देवता, भर कर मेरी देह और मेरे प्राण, अमृत तुम कौन-सा करना चाहोगे पान?

मैं अकेला बाहर निकल पड़ा

मैं अकेला बाहर निकल पड़ा तुम्हारे अभिसार में। कौन साथ-साथ चलता आया मेरे नीरव अंधकार में । जैसे भी हो, मैं चाहता पीछा छुड़ाना उससे मैं लौट जाता हूँ ताकि वह दूर हट जाए, सोचता हूँ, चलो टल गई बला, लेकिन वह बार-बार दिख जाए। वह चलता जाए धरा को कँपकँपाता, है विषम चपल, दुनिया भर की बातों में कहना चाहे, वह अपनी कथा सकल । वह है मेरा अपना ही रूप प्रभु, तो भी उसको तनिक न आती लाज कभी, उसको साथ लिये आऊँ किस मुँह से भला मैं तुम्हारे दरबार में। मैं अकेला बाहर निकल पड़ा, तुम्हारे अभिसार में ।

मैं देख रहा हूँ तुम सबकी ही ओर

मैं देख रहा हूँ तुम सबकी ही ओर, उन सबके बीच मुझे भी दे दो कोई स्थान । इस धूल धूसर धरा पर नीचे, सबसे नीचे ताकि आसन का मूल्य चुकाना नहीं पड़े, जहाँ खींच कर रेख, कुछ बँटा नहीं हो, जहाँ नहीं कोई भेद, मान हो या अपमान । उन सबके बीच मुझे भी दे दो कोई स्थान । जहाँ नहीं रह पाता कोई बाहरी आवरण, अपना परिचय ख़ुद देता हो निरावरण । मेरा है, यह कहने को जहाँ कुछ शेष नहीं रहता, यही सत्य है जहाँ, वहाँ क्या होगा गोपन, जहाँ खड़ा है दैव्य मेरा निर्लज्ज बन, तभी तो भर लाऊँगा मैं, उसका परम दान । मैं देख रहा हूँ तुम सबकी ही ओर, उन सबके बीच मुझे भी दे दो कोई स्थान ।

ख़ुद को अपने सिर पर अब आगे कभी लादा नहीं करूँगा। अपने ही दरवाज़े मैं बन कर कंगाल बैठा नहीं रहूँगा। यह बोझ तुम्हारे पैरों पर पटक कर मैं निकल पड़ूँगा अपमानित - सा, बिना कुछ कहे-सुने फिर उसकी कोई खोज - ख़बर तक नहीं रखूँगा । ख़ुद को अपने सिर पर अब आगे कभी, लादा नहीं करूँगा । मेरी वासना जिसको भी छू लेती है, पलक झपकते बुझ जाता है उसका आलोक । वह अपने उन दोनों गंदे हाथों में जो कुछ लाई है संग, वह अब नहीं चाहिए प्रेम तुम्हारा जिसमें रचा-बसा न हो, उसे मैं अब नहीं सहूँगा । ख़ुद को अपने सिर पर अब आगे कभी, लादा नहीं करूँगा ।

हे मेरे चित्त, इस पुण्य तीर्थ में

हे मेरे चित्त, इस पुण्य तीर्थ में धीरे से जागो । भारत के इस महामानव सागर तट पर । यहाँ खड़े हो, दोनों बाँहें फैलाए नर देवता का नमन करूँ, उदार छंदों में, परमानंद से उनका वंदन करूँ। ध्यानमग्न गंभीर खड़ा है यह भूघर, नदियों की जपमाला लिए यह प्रांतर इस नित्य पावन धरा को देखो, भारत के इस महामानव सागर तट पर । कोई न जाने आह्वान पर किसके कितने-कितने लोगों की न जाने कितनी दुर्वार धाराएँ कहाँ-कहाँ से आईं और समुद्र में हो गई विलीन । यहीं पर आर्य-अनार्य यहीं पर द्राविड़-चीनी- शक, हूण, पठान और मुग़ल दल इसी एक देह में हो गए अंतर्लीन । आज पश्चिम ने खोला द्वार जहाँ से सब लाए उपहार, इन्हें देंगे और लेंगे, मिलेंगे-मिलाएँगे जाएँगे अब नहीं लौट कर, भारत के इस महामानव सागर तट पर ।

जहाँ अधम से अधम और दीन से भी दीन

जहाँ अधम से अधम और दीन से भी दीन बसते हैं, वहाँ तुम्हारे चरण विराजे, सब के पीछे, सब के नीचे वंचित जनों के बीच । मैं जब भी करता हूँ तुमको प्रणाम जाने कहाँ रह जाता है थम कर मेरा प्रणाम, चरण तुम्हारे पहुँच जाते हैं - होता अपमान जहाँ मेरा प्रणाम क्यों पहुँच नहीं पाता वहाँ सब के पीछे, सब के नीचे, वंचित जनों के बीच । अहंकार को मिल नहीं पाता ठौर कहाँ तुम विचरण करते दीन-दरिद्र वेश में अकिंचन बन जहाँ, सब के पीछे, सब के नीचे, वंचित जनों के बीच। धन और मान जुटाकर मैं जहाँ खड़ा, मिले तुम्हारा संग, इस आशा में पड़ा लेकिन तुम रहते हो साथ उन निस्संग लोगों के घर में, जहाँ मेरा हृदय नहीं जा पाता, सब के पीछे, सब के नीचे, वंचित जनों के बीच ।

हे अभागे देश मेरे तुमने किया जिनका अपमान

.......... अज्ञान के अंधकार में छिपा रक्खा है तुमने जिन्हें, तुम्हारा मंगल यश ढाँप कर, उन्होंने भी रचा घोर व्यवधान, होना पड़ेगा अपमान में, तुम्हें उन सबके समान । सहस्राब्दियों से लादे हुए, सिर पर असम्मान का भार, नर में ही विराज रहे नारायण को करते नहीं नमस्कार । फिर भी आँखें मूँदे, क्या वे देख नहीं पाते, उतरा है भूमिगत दीन-हीन पतितों का भगवान । होना पड़ेगा अपमान में, तुम्हें उन सबके समान । क्या तुम देख नहीं पा रहे, द्वार पर मृत्युदूत खड़ा आ कर, उसने तो अभिशाप आँक दिया है तुम्हारे जाति गर्व पर । अगर अब भी सबको नहीं बुलाते, और दूर पड़े रहते हो, बाँध रखा अपने को, चारों ओर से लिए वृथा अभिमान, मृत्युपाश में, चिताभस्म में होना होगा एक समान । हे अभागे देश मेरे, तुमने किया जिनका अपमान, होना पड़ेगा अपमान में, तुम्हें उन सबके समान ।

कभी न छोड़ो, कस कर पकड़ो

कभी न छोड़ो, कस कर पकड़ो, ओ रे, होगी तुम्हारी निश्चय जय । अब छँट चला है अंधकार, ओ रे अब नहीं कोई भय । देखो प्राची के भाल पर घने वनों के अंतराल पर, हुआ है शुक्रतारा उदय, ओ रे अब नहीं कोई भय । ये तो ठहरे सिर्फ़ निशाचर- प्रभात के योग्य नहीं ये सारे, ये हैं बेदम और हताश, आलस और संशय के मारे। आओ, जल्दी बाहर निकलो, आँख उठा कर ऊपर देखो, गगन हो उठा ज्योतिर्मय, ओ रे अब नहीं कोई भय । कभी न छोड़ो, कस कर पकड़ो, ओ रे होगी निश्चय जय ।

दिन ढलने पर मृत्यु जिस दिन

दिन ढलने पर मृत्यु जिस दिन आएगी तुम्हारे द्वार, उस दिन तुम उसे कौन - सा धन सौंपोगे ? अपने अंतर का भरा प्रेम उसके सम्मुख लाकर रक्खूँगा, उसे ख़ाली हाथ विदा नहीं करूँगा- मृत्यु जिस दिन आएगी मेरे द्वार । कितनी ही रातें शरत् एवं बसंत की, कितनी संध्याएँ और अनगिन प्रभात, कितने ही रस बरसे जीवन के कलस में, न जाने कितने ही फल-फूल जिन्हें जी भरकर मेरा अंतर बटोरता रहा, सुख-दुःख के छाया प्रकाश के परस में । जितना कुछ है मेरा संचित धन अब तक के सारे आयोजन, अंतिम घड़ी मैं सजा रखूँगा उन सबको - मृत्यु जिस दिन आएगी मेरे द्वार ।

दया कर और इच्छा कर

दया कर और इच्छा कर, और स्वयं ही छोटा बन कर आओ तुम इस छोटे-से आगार में । फिर तुम्हारी वह माधुरी सुधा तृप्त कर दे मेरी आँखों की क्षुधा, जल में थल में रूप दिखाती कितने ही आकार में। बंधु बन, पिता बन, जननी बन, इच्छा कर छोटा बन आओ मेरे हृदय में । क्या मैं भी अपने इन हाथों विश्वनाथ को वामन कर दूँ- जान सकूँ और तुम्हें बताऊँ इस छोटे परिचय में ।

मैं हूँ राही

मैं हूँ राही, कोई भी मुझे जकड़ कर रख नहीं पाएगा। सुख-दुःख का यह सारा बंधन है झूठ बना-बनाया घर, पीछे कहीं रह जाएगा छूट बोझ विषय का, खींच रहा है मुझको नीचे वह नीचे गिर कर और बिखर जाएगा, कोई भी मुझे जकड़ कर रख नहीं पाएगा। मैं हूँ राही, पथ पर चलता जाता, प्राण भर कर गीत गाता । देह-दुर्ग के खुलते जाएँगे सारे द्वार, टूट जाएँगी वासना की बेड़ियाँ, भला-बुरा जो भी उसके पार लोक- लोकांतर में यह पथिक चलता रहेगा, कोई भी मुझे जकड़ कर रख नहीं पाएगा। मैं हूँ राही, जो भी हैं भार, उन्हें मैं निपटा दूँगा । बुला रहा आकाश, मुझे दूर जाना है, शब्दहीन अनजाने गीत मुझे गाना है, साँझ विहान मेरे प्राणों को टेर रही है- किसकी वंशी ऐसे गंभीर स्वरों में । मैं हूँ राही, पता नहीं, कब मुँह अँधेरे विकल पड़ा था । तब कहीं भी, किसी पंछी ने गाया नहीं था गान बस नन्ही अपलक आँखें कहीं जाग रही थीं अंधकार के पार कहीं कुछ देख रही थीं। मैं हूँ ही किस दिनांत में, कब मैं किसी के घर जा पहुँचूँ ! कौन तारिका दीप जला रही है वहाँ, पवन बिलख रही किस कुसुम की गंध पा कर कौन है वहाँ जो अपने स्निग्ध नयनों से देख रहा मेरी ओर, अनादि काल से । मैं हूँ राही ।

बादलभेदी रथ पर, ध्वजा लहरा कर

बादलभेदी रथ पर, ध्वजा लहरा कर, देखो, वह रहे वहाँ निकल पड़े हैं पथ पर । जल्दी आओ, तुम्हें खींचनी है उस रथ की डोर, कहाँ छिपे हो, घर के कोने में, किस ओर, जाओ, कूद पड़ो तुम भीड़ में, अपनी जगह बना लो, किसी तरह तुम उस में । छूट गया है अगर कहीं घर का कोई काम-काज, उन तमाम बातों को तुमको भूलना है आज । खींचो रस्सी तन से, मन से ज़ोर लगा कर मोह छोड़ दो अपने इन तुच्छ प्राणों का, इसे खींचते चलो अँधेरे से प्रकाश में, नगर- ग्राम में, वन में औ' गिरि पथ पर । रथ के पहिए घूम रहे हैं घनन...घनन, अपने अंतर में तुम सुन पा रहे, वह ध्वनन, रक्त में तुम्हारे, क्यों नाच नहीं उठते प्राण, क्या गा नहीं रहा हृदय, मरणजयी गान ? क्या तुम्हारी आकांक्षा, बाढ़ वेग से हहराती, उस विपुल भविष्य की ओर नहीं बढ़ती जाती ?

भजन-पूजन साधन-आराधन

भजन-पूजन साधन- आराधन सब कुछ यूँ ही पड़ा रहे। देवालय के बंद द्वार के कोने में तू क्यों बैठा है रे ! अंधकार में छिप कर बैठा, निमृत अंतस्तल में, किसका पूजन करता है तू, इतने संगोपन में । आँख खोल कर देख ध्यान से सही, देवता तेरे घर नहीं । वह गए हैं वहाँ, जहाँ धरा गोड़ कर, किसान खेती करते हैं- बना रहे हैं राह, पत्थर तोड़ कर, खट रहे हैं बारहों महीने । धूप और बारिश में सबके साथ, धूल भरे हैं जिनके दोनों हाथ- अपने उजले वस्त्र उतार कर उनकी तरह ही, धूल पर चल आ! कैसी मुक्ति, कहाँ है मुक्ति, कहाँ पड़ी है मुक्ति ? प्रभु स्वयं ही बँधे पड़े हैं .....................

सीमा में ही हे असीम तुम

सीमा में ही हे असीम तुम छेड़ते हो अपना सुर । तभी तुम्हारा प्रकाश बना है, मुझ में इतना मधुर । कितने रंगों में, कितने गंधों में, कितने गानों और कितने छंदों में, हे रूपहीन, रूपलीला में तुम्हारी, जागे यह अंतःपुर । मुझ में विराज रही तुम्हारी, शोभा सुमधुर । मेरा तुमसे मिलन हो सके तो सब बंधन खुल जाएँ सचमुच, विश्व सिंधु की ज्वार-केलि में, लगे डोलने सब कुछ । आलोक में तुम्हारी नहीं दीखती छाया, मुझ में पा लेती है वह काया- मेरे अश्रुजल से धुल कर वह होता सुंदर विधुर । मुझ में विराज रही तुम्हारी शोभा सुमधुर ।

मान भरा पद और शयन सुख

मान भरा पद और शयन सुख, तुम इन्हें न देखो मुड़ कर । तज दो सब कुछ आज ख़ुशी से, निकल चलो अब पथ पर । आओ बंधु, हम सब के सब, एक साथ निकलें बाहर, आज चलेंगे हम सब मिल कर, अपमानित लोगों के घर । भूषण पहनेंगे निंदा के, और काँटों का कंठहार, अपने सिर आँखों पर लेंगे, सारे अपमानों का भार । जहाँ है दुखियों का अंतिम घर, उसी धूलि में रख कर माथ, भर लेंगे आनंद सुधा से, त्याग का यह रिक्त पात्र ।

मेरे इन गानों ने तज दिए

मेरे इन गानों ने तज दिए अपने सारे अलंकार, पास तुम्हारे रखा नहीं मैंने अब किसी साज का अहंकार । अलंकार जो आ जाता है बीच वही मिलन में बाधक बनता, बातें तुम्हारी देता अकारण ढाँक, उसका मुखर झंकार । नहीं ठहरता गर्व मेरे कवि का कभी सम्मुख तुम्हारे, चरण-शरण में आना चाहूँ हे महाकवि, मैं तुम्हारे । बड़े जतन से इस जीवन को, यदि वंशी-सा सरल बनाऊँ, उसके छेदों में भर देना तुम, सुर अपने सारे सँवार । मेरे इन गानों ने तज दिए, अपने सारे अलंकार ।

निंदा, दु:ख और अपमान में

निंदा, दुःख और अपमान में, चाहे जितनी ठोकर खाऊँ, जानता हूँ, कहीं कुछ भी खोने को नहीं पाऊँ । बैठ गया जब मैं धूलि पर, चिंता फिर क्या, आसन पाऊँ, इसी दैन्य में बिना झिझक बस प्रसाद तुम्हारा चाहूँ । लोग कहें कितना अच्छा है, जब मैं सुख में होता, मुझे पता है इन बातों में है कितना ज़्यादा धोखा । इन धोखों को सजा सजा कर, घूम रहा हूँ सिर पर ले कर, पास तुम्हारे आने को भी, समय जुटा नहीं पाऊँ । निंदा, दुःख और अपमान में, चाहे जितनी ठोकर खाऊँ ।

उलझ गए हैं आपस में ही

उलझ गए हैं आपस में ही, मोटे-पतले तार, गूँज न पाए सही सुरों में जीवन वीणा की झंकार । बेसुरी इस जटिलता में, व्यथा विकल हैं प्राण मेरे, गान मेरा अचानक हो जाता अचल बारंबार । इस पीड़ा को झेल रहा कब से मैं अब और नहीं ढो पाता, तुम्हारे सभा पथ की ओर बढ़ता हुआ मैं लाज से मर मर जाता । हैं तुम्हारे जो गुणी गायक उनके सम्मुख बैठ नहीं पाऊँगा मैं खड़ा रहूँगा, सब लोगों के पीछे, जहाँ बाहरी द्वार। उलझ गए हैं आपस में ही मोटे पतले तार, गूँज न पाए सही सुरों में जीवन वीणा की झंकार ।

गाने लायक़ रचा न कोई गान

गाने लायक़ रचा न कोई गान, देने लायक़ रहा नहीं कुछ दान । ऐसा लगता है, सब रह गया बाक़ी, और निरंतर मैं तुमको छलता गया कब हो पाएगा, यह जीवन परिपूर्ण, कब होगा, जीवन की पूजा का अवसान । औरों की मैं कितनी सेवा करता आया, प्राणपण से अर्घ्य भर-भर, और उनमें ढेर सारे सच-झूठ सँजो कर, हूँ मैं कितना दीन, बाद में मिला यही अपमान । तुमसे कुछ भी छिपा नहीं है, तभी जुटा पाता हूँ तुम्हारी पूजा का दुस्साहस, जो भी है सब ले आता चरणों के पास, निरावरण और दीन-हीन यह प्राण । गाने लायक़ रचा न कोई गान, देने लायक़ रहा नहीं कुछ दान ।

मुझ में ही होनी है, लीला तुम्हारी

मुझ में ही होनी है, लीला तुम्हारी, इसीलिए आया मैं बन कर संसारी । इस घर के अब खुल जाएँगे सारे द्वार, हो सकेगा नष्ट सारा अहंकार तुम्हारे इस आनंदमय संसार में मेरा, बाक़ी नहीं रहेगा, अब कोई उधार । बाद में मेरी मृत्यु के, अगर मैं बचा रहा, तो मुझ में ही होगी लीला तुम्हारी । अब सभी वासना हो जाएगी शमित, केवल तुम्हारे प्रेम में होकर समाहित, सुख-दुःख भरे इस विचित्र जीवन में, सिवा तुम्हारे सब कुछ देना है बिसार ।

गान में ही तुम्हारा पाना चाहूंगा संधान

गान में ही तुम्हारा पाना चाहूँगा संधान बाहर मन-ही-मन में, दिन-प्रतिदिन अपने जीवन में। ले चला है गान मुझको, घर-घर में और द्वार-द्वार पर, गानों से ही टोह-टटोल घूमा फिरता मैं, इस भुवन में। उसने कितनी सीख सिखाई, कितनी गोपन राह दिखाई, करवा दी पहचान कि कितने तारे हैं, हृदय गगन में। सुख-दुःख भरे इस विचित्र देश में, रहस्य लोक में घुमा-फिरा, शेष में, साँझ ढले तुम ले आए, किस भवन में।

शेष नहीं होगा तब तक मेरा

शेष नहीं होगा तब तक मेरा, तुम्हारा पा लेना संधान, मेरे जीवन का होगा जब नया विहान । चला जाऊँगा नए जीवन लोक में, नया परिचय जगेगा मेरे दृगपथ में, वह और नवीन होगा, नूतन आलोक में, मैं धारूँगा तब नव मिलन का परिधान । सांत नहीं तुम, तुम्हारी लीला है अपार, तभी तो होती रहती है तुम्हारी लीला बारंबार । नहीं जानता, तुम दोबारा किस वेश में, पथ पर खड़े मिलोगे, हे नाथ मुस्करा कर, और फिर गहोगे हाथ मेरा, पास आ कर, नए-वए भावों से भर, गहराएँगे मेरे प्राण शेष नहीं होगा तब तक मेरा, तुम्हारा पा लेना संधान ।

जब मुझे जकड़ रखते हो आगे और पीछे

जब मुझे जकड़ रखते हो आगे और पीछे, लगता है, अब कभी छूट ना पाऊँगा । और जब मुझको फेंक देते नीचे कभी तुम, लगता है अब कभी खड़ा ना हो पाऊँगा । इसके बाद स्वयं यह बंधन खोल, मुझको अपने आलिंगन में बाँध लेते हो, इन बाँहों के झूले में तुम जीवन-भर, बस इसी तरह संकेत किया करते हो। भय दिखा कर तंद्रा कर जाते क्षय, नींद छुड़ा कर हर लेते हो भय । झलक दिखा कर टेर जगा जाते प्राणों में, इसके बाद कहाँ छिप जाते, किन कोनों में, लगता है, इस बार खो दिया है मैंने लेकिन, मैं संकेत तुम्हारा कहीं से, अवश्य ही पाऊँगा । जब मुझे जकड़ रखते हो आगे और पीछे, लगता है, अब कभी छूट ना पाऊँगा ।

जितने दिन तुम शिशु के जैसे

जितने दिन तुम शिशु के जैसे बने रहोगे बलहीन, अंदर के ही अंतःपुर में पड़े रहोगे उतने दिन । हलकी-सी चोट खा, गिर पड़ोगे, थोड़ी-सी दाह पा, जल मरोगे, धूल ज़रा लगी नहीं कि होगी देह मलीन । जिस दिन तुम में जगेगी शक्ति, भर उठेंगे प्राण, अग्निपूत अमृत जब तुम करोगे पावन । तब बाहर निकल कर दौड़ पड़ना, होने को पवित्र धूल में लोट जाना, बाँध देह से सारे बंधन घूमोगे स्वाधीन - अंदर के ही अंतःपुर में पड़े रहोगे उतने दिन ।

मेरा चित्त तुम में ही नित्य होगा

मेरा चित्त तुम में ही नित्य होगा, सत्य होगा- ओ मेरे सत्य, मेरे लिए वह शुभ दिन कब आएगा ? सत्य, सत्य और सत्य जपा करता हूँ, सारा बुद्धि-विवेक सत्य को सौंप कर मैं सीमाओं के बंधन तोड़ निकल जाऊँगा अखिल विश्व में - हे सत्य, तुम्हारा पूर्ण प्रकाश मैं कब देख पाऊँगा ? तुम्हें दूर रख अपनी इसी मिथ्या में, मैं मरता रहता हूँ। भूतों के साम्राज्य में, मैं क्या-क्या कांड किया करता हूँ। धो-पोंछ कर अपना अहम् मैं तुम में हो जाऊँ विसर्जित हे सत्य, मैं जब तुम्हारा बनूँगा सत्य तभी मैं, बच पाऊँगा, मृत्यु मेरी घटित हो तुम में ऐसी मृत्यु मैं कब मरूँगा !

मैं तुम को अपना प्रभु बना कर रखूँ

मैं तुम को अपना प्रभु बना कर रखूँ, मुझ में मेरा इतना सा अहं भाव रहे शेष । तुम्हें देखता रहता सभी दिशाओं में, सौंप कर सर्वस्व मैं तुमसे मिल जाता, प्रेम तुम्हारा दिवस-निशा जगाए रखे- इतनी-सी इच्छा मेरी रह जाए शेष- मैं तुमको अपना प्रभु बनाए रखूँ। तुम्हें कहीं भी ओट किए ना रहूँ, इतना सा ही मेरा रह जाए शेष । इन प्राणों में पूर्ण होगी लीला तुम्हारी, इसीलिए इस जग से बाँध रखा मुझको, बँधा रहूँगा सतत तुम्हारे भुजापाश में बंधन मेरा इतना सा रह पाए शेष- मैं तुमको अपना प्रभु बना कर रखूँ ।

मेरे प्राणों को भर, जितना भी दिया है

मेरे प्राणों को भर, जितना भी दिया है, इसी घड़ी मर जाऊँ तो भी खेद नहीं होगा । दिवस-रात्रि कितने हीं दुःख और सुख में, कितने ही सुर बजते रहे, इस वक्ष में, कितने ही वेश धर, मेरे घर घुस कर कितने ही रूपों में मेरा मन हरा होगा, इसी घड़ी मर जाऊँ तो भी खेद नहीं होगा। पता है मेरे प्राणों ने तुमको वरा नहीं, मेरा मुझ को संपूर्ण अभी तक मिला नहीं । उसे भाग्य माना है, जो कुछ पाया है, और अंतर को मिला संस्पर्श तुम्हारा, पास हो तुम इतना भर जाना है अब तक- उसी विश्वास तरी पर मुझे पार जाना होगा। इसी घड़ी मर जाऊँ तो भी खेद नहीं होगा ।

अपना मन, अपनी काया को

अपना मन अपनी काया को, मैं चाहता हूँ मिटा देना- इस काली छाया को । उसी आग में फूँक देना, उसी सागर में डुबो देना, उन्हीं चरणों में समो देना, रौंद डालना माया को- अपना मन अपनी काया को । जहाँ जाऊँ उसी एक को पाऊँ, बैठे आसन जमा, यही देख मैं, प्रभु, लाज से मर-मर जाऊँ, तुम हर लो इस गहरी छाया को- अब कोई बाधा नहीं पाओगे, पूर्ण ऐक्य में दीख पड़ेगा, दूर हटा, आया को- अपना मन अपनी काया को ।

जिन्हें हम रखते हैं ढाँक, साथ अपने नाम के

जिन्हें हम रखते हैं ढाँक, साथ अपने नाम के, वह तोड़ देता दम, कारागार में इस नाम के । रात और दिन जितना सारा कुछ मैंने भुला रखा, नाम को अपने नभ में ऊँचे से ऊँचा झुला रखा, इसीलिए अपने नाम के ही अंधकार में, खो बैठा हूँ, सत्य अपना अपने ही आत्म में । धूल पर धूल जमा-जमा कर मैं अपना नाम चढ़ाता जाता, ऊपर और ऊपर। और देखता रह नहीं जाए छेद कहीं उसमें हार नहीं मानता मेरा जी कभी थक कर, मैं जितना करता हूँ इस मिथ्या के लिए जतन उतना ही खोता जाता हूँ, अपना अंतर्मन ।

जितना भी छुड़ाना चाहूँ

जितना भी छुड़ाना चाहूँ बाँध लेती हैं बाधाएँ इन्हें- पीड़ा होती है जब मैं इनसे पिंड छुड़ाता । मुक्ति चाहने पास तुम्हारे आता, और माँगते हुए लाज से मर मर जाता । श्रेयतम तुम ही हो-मेरे जीवन में, यह मैं जानता, और कहीं कोई नहीं, तुम सा मेरा सखा, जैसा भी है, सब कुछ, टूटे-फूटे घर में डाल रखा, और कहीं मैं इसको फेंक नहीं पाता । मेरा हृदय तुम्हें ओट कर, धूल से देता मूँद, बार-बार होता मृत्यु भय, इन धूलों से अंतर्मन में बसा रखा है, जिनसे भाव घृणा का, उनसे भी मैं प्रेम जताता । इनमें ही है बाक़ी, जमा है ढेर सारा छल, कितनी सारी लीपा-पोती, कितना हुआ विफल- मेरा भला उसी में होगा, जब माँगने निकलूँ, तभी मेरे मन में कोई डर समा जाता ।

नहीं जानता कैसे मांगूँ

नहीं जानता कैसे माँगूँ दया तुम्हारी, तो भी अनुकंपा कर देते तुम चरणों में लेकर । मैं जो भी रचता भूला रहता बड़े मजे से करता रहता फल-फूलों से सुख की उपासना, उस धूलभरे क्रीड़ा गृह में घृणा भाव से मत रखना, कृपा कर मुझे जगाना अग्निवज्र चला कर । दुविधाओं के बीच सत्य पड़ा है ढँका तुम्हें छोड़कर कौन है- जो इसे खिला सकता है। मृत्यु भेद कर अमृत बरसा, अतल दैन्य का शून्य भर उठा। पतन की पीड़ा में चेतना बने, विरोध के कोलाहल में, तुम्हारी गंभीर वाणी गूँजे ।

जीवन में जितनी पूजा थी

जीवन में जितनी पूजा थी पूरी नहीं हुई, जानता हूँ फिर भी, वह वृथा नहीं गई। बिना खिले जो फूल झर गए धरा पर, और वह नदी जिसकी धारा, मरुथल में खो गई। मैं जानता हूँ, वह भी कहीं नहीं खोई । जीवन में आज भी जो कुछ पीछे छूटा, जानता हूँ, वह सब - हो नहीं सकता झूठा । मेरा अनागत, मेरा अनाहत, तुम्हारी वीणा के तारों में बज उठते हैं वे सब के सब, मैं जानता हूँ, आवाज़ वह कहीं नहीं खोई । जीवन में जितनी पूजा थी, पूरी नहीं हुई।

जीवन में चिर दिवस

जीवन में चिर दिवस जो रह गया आभास में प्रभात के आलोक में, वह खिलता वहीं प्रकाश में, जीवन का शेष दान जीवन का शेष गान हे देवता, उसे आज मैं रख जाऊँ पास तुम्हारे प्रभात के आलोक में, वह खिलता वहीं प्रकाश में। उसकी बातें कभी शब्द बाँध नहीं सकते, गान और सुर के संग उसे साध नहीं सकते। मेरा वह प्राण सखा किसी मोहक और नवीन रूप में, छिप कर सारे जगत् नयन से चुप बैठा है, विजन वास में- प्रभात के आलोक में, वह खिलता वहीं प्रकाश में। आया हूँ उसको ले कर मैं देश-देश विचरण कर, आजीवन जो गढ़ा या तोड़ा सारा कुछ उससे रहा जुड़ा, सारे भाव सभी कर्मों में, मेरे सारे स्वजनों में निद्रा और सपनों से वह रहा अकेला सबसे- प्रभात के आलोक में, वह खिलता वहीं प्रकाश में। कई बार कितने लोगों ने, चाहा था उनको पाना, बहिरद्वार से लेकिन सबको निष्फल पड़ा लौट जाना । कोई नहीं माँप पाएगा जब होगी तुमसे मेरी पहचान इसी चाह में, वे भी हैं, अपने-अपने आकाश में- प्रभात के आलोक में, वह खिलता वहीं प्रकाश में।

नित्य विवाद तुम्हारे साथ

नित्य विवाद तुम्हारे साथ अब और सहन नहीं होता- दिन-दिन बढ़ता जाता ऋण, अब और वहन नहीं होता। राजसीय परिधान पहन कर तुम्हारी सभा में आए सब के सब, और प्रणाम कर विदा हुए, मैं छुपता फिर रहा, अपमानित होने के डर से मलिन वसन में अपने । किससे अपना दुखड़ा रोॐ हो गया गूँगा मेरा मन, अपनी कोई बात कहूँ तुमसे, इसका साहस जुटा नहीं पाता। इनको अब मत लौटा देना, अपमानों से परे हटा कर, इनको अपने चरण तले तुम चिर सेवक बना रखना।

प्रेम के हाथों पकड़ा जाऊँ

प्रेम के हाथों पकड़ा जाऊँ इसीलिए तैयार बैठा हूँ, बहुत देर हो चुकी, मैं कई अपराधों का दोषी हूँ। विधि-विधान की डोर लिए वे मुझे पकड़ने आते, और मैं बच निकलता हमेशा, उसकी ख़ातिर बड़े तोष से मुझको जो भी सजा मिले - मैं झेलने को तैयार बैठा हूँ। प्रेम के हाथों पकड़ा जाऊँ इसीलिए तैयार बैठा हूँ। मेरी निंदा करते लोग इसे मैं झूठी नहीं कहूँगा- सारी निंदा सर पर धारे, सबके नीचे पड़ा रहूंगा अब शेष हो गई वेला उखड़ा मोल-तोल का मेला, लौट गए वे, जो आए थे मुझे बुलाने-मैं उनको ही नाराज़ किए बैठा हूँ। प्रेम के हाथों पकड़ा जाऊँ इसीलिए तैयार बैठा हूँ।

इस दुनिया में और भी जितने लोग

इस दुनिया में और भी जितने लोग मुझे प्यार किया करते हैं, वे मुझ पर अधिकार जता कर कठिन पाश में मुझे जकड़ रखते हैं। है प्रेम तुम्हारा, सबका बना बसेरा, इसीलिए तुम में ही पाता नूतन धारा, ओझल रह कर भी वहीं जकड़ते दासों को- और उन्हें निर्बंध छोड़ दिया करते हैं। औरों को मैं भूल न जाऊँ तभी वह मुझे अकेला नहीं रखता, दिन पर दिन कटते जाते लेकिन वह कहीं नहीं दिखता। तुम्हें पुकारूँ या न पुकारूँ, संग उसी के रहता जिसमें ख़ुशी मिले, ऐसे ही आह्लाद तुम्हारे मेरी ख़ुशी की चाह में, पंथ निहारा करते हैं।

नाथ, प्रेम दूत तुम भेजोगे कब

नाथ, प्रेम दूत तुम भेजोगे कब- तब जब मेरा सारा द्वंद्व नष्ट हो जाएगा। अन्य लोग जो मेरे घर पर आते मुझ पर जता अधिकार, मुझे धमका जाते, यह कठोर मन द्वार बंद कर रखता - और सभी को लौटा देता, नहीं मानता हार। वह आया तो सारी बाधाएँ हट जाएँगी, वह आया तो सारी बेड़ियाँ टूट जाएँगी, तब घर में जकड़ कर कौन रख पाएगा- देना होगा संकेत ज़रूरी, सुन उसकी पुकार । वह जब भी आता, आता है अकेला, उसके गले में, डोलती रहती है माला- उस माला में बाँध लेगा मुझे भींच जब, मेरा अंतर तब नीरव होकर रह जाएगा। नाथ, प्रेम दूत तुम भेजोगे कब- तब जब मेरा सारा द्वंद्व नष्ट हो जाएगा।

मुझ से इतने गीत गवाए

मुझसे इतने गीत गवाए तुमने कितने छल से, कितने ही सुखकर खेलों में, कितने अश्रुजल से । छूट-छूट जाते हाथों से, पास पहुँच, भागते त्वरा से, प्राणों को पीड़ा से भर कर पल-पल मुझसे इतने गीत गवाए, तुमने कितने छल से । कई तीव्र तारों से तुम अपनी वीणा सजाते, जीवन को शतछिद्र कर तुम वंशी बजाते । तुम्हारे सुरों की लीला से ही, मेरा जीवन हो पाया है अगर विह्वल इस बार इसे नीरव कर, लगा लो अपने चरण तल से। मुझसे इतने गीत गवाए तुमने कितने छल से ।

लगता है अब यही शेष है

लगता है अब यही शेष है, लेकिन कहाँ होना है शेष- फिर तुम्हारी सभा से ही, मिलता है आदेश । नए गान में, नए राग में नए रूप में अंतर जागे, सुर की धारा कहाँ बह चली, उसे मिला नहीं संदेश । सांध्य काल की स्वर्णाभा से, मिला कर तान, किया पूरबी में समापन, मैंने अपना गान । निशीथ रात्रि के गहन सुर में, हो उठे जीवन संपूर्ण फिर से और इसके बाद, मेरे नयनों में- रहे न निद्रालेश । लगता है अब यही शेष है, लेकिन कहाँ होना है शेष-

शेष में ही होता है अशेष

शेष में ही होता है अशेष, बात यही है मेरे मन में, आज मेरे गान के अवसान पर, जाग रही क्षण-क्षण में । सुर हो गया मद्धम, लेकिन यह कभी न चाहे जाए थम, बज रही वीणा अकारण इस घोर नीरव क्षण में । जब आघात तार पर होता, वह सुर में झंकृत होता, जो गान होता है सबसे बड़ा वह होता है सुदूर पड़ा। सारे आलाप थम-थम कर आते, शांत पड़ी वीणा पर, संध्या जैसे दिवस शेष में, गाती मन ही मन में । शेष में ही होता है अशेष, बात यही है मेरे मन में ।

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