घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुंचती है (ग़ज़ल) : दुष्यन्त कुमार


घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुंचती है

घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुंचती है एक नदी जैसे दहानों तक पहुंचती है अब इसे क्या नाम दें , ये बेल देखो तो कल उगी थी आज शानों तक पहुंचती है खिड़कियां, नाचीज़ गलियों से मुख़ातिब है अब लपट शायद मकानों तक पहुंचती है आशियाने को सजाओ तो समझ लेना, बरक कैसे आशियानों तक पहुंचती है तुम हमेशा बदहवासी में गुज़रते हो, बात अपनों से बिगानों तक पहुंचती है सिर्फ़ आंखें ही बची हैं चँद चेहरों में बेज़ुबां सूरत , जुबानों तक पहुंचती है अब मुअज़न की सदाएं कौन सुनता है चीख़-चिल्लाहट अज़ानों तक पहुंचती है (ग़ज़ल-संग्रह 'साये में धूप' में से)

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