एक प्रयाण : राजगोपाल
Ek Prayan : Rajagopal

एक प्रयाण
मधुबाला और कुछ बिखरे प्रसंग



कुछ कह लूँ पहले...

अकेलापन एक शाश्वत अनुभव है. जब प्रयाण के तीसरे चरण में पहुँच जाते हैं तो प्यार के प्रति संवेदना पहले जैसी नहीं होती. साथ रहना और साथ जीना दोनों की परिभाषा बहुत अलग है. ‘मधुबाला’ समय को बाँधने का एक प्रयास है. इस संकलन में अन्य रचनाएँ भी हैं, जो जीवन के बहुत पास हैं. आशा है आपको अच्छी लगेगी. राजगोपाल २२ अप्रैल, २०१८ मेक्सिको सिटी

मधुबाला

तुम बहती रुधिर मेरी, तुम्हे रग-रग में भर डाला, तुमसे ही सीखा मैंने जीवन में मधु लिप्त वर्णमाला, प्यार लिए तुम संग कितनी दूर निकल आया पथिक, फिर भी दिन खुलता है तुम्हारी ही करवट मधुबाला ||१|| अँधेरा छाने लगा है अब तोड़ दिन का उजियाला, सो जाऊं तुम्हे देखते आज वक्ष तले मेरी रसबाला, कुछ देर समय रोक दोहरा लें बीती मीठी बातें, तुम मिलना निर्बन्ध फिर, उस जीवन में मधुबाला ||२|| दिन डूबा और मैंने थकी पीठ पर रात सम्हाला, तारों के बीच प्यार ढूंढता कितने आँसू पी डाला, रात के सन्नाटे में भी अकेला मन नहीं घबराया, परी सी उजाले में जो यहीं खड़ी थी मधुबाला ||३|| आँखों में विश्व लिये और थामे आशाओं का प्याला, झरती छत तले, बरसों दम माप रहा था भूखा मतवाला , आज तो यूँ ही जी गया, पर कोई ‘कल’ दिखा नहीं, मन डरता तो लगता, कभी यहीं मिलेगी मधुबाला ||४|| नाच लेता कभी एक पांव पर, खा कर एक निवाला, चकित होता देख उसे, जो मस्त हुआ पी कर हाला, छिपी रात, फिर ‘कल’ पर जीने का जब प्रश्न उठाती, तो सोचता कभी मिलेगी, हाथ पकड़ ले जाने मधुबाला ||५|| बात किसे कहता मन की, स्वयं को है मैंने पाला, बहे नीर जब, उठा कल्पना, रस मीठे लिख डाला, अपना ही खंड काव्य लिये, नीड़ से टिका ढूंढता रहा, श्रृंगार चुराने शब्दों का, आएगी कभी तो मधुबाला ||६|| दिन बीते, रातें बहकीं कागज़ों पर रंग चढ़ा काला, सपनों का सागर, तब लगता जैसे बहता छोटा नाला, बह जाएगा जीवन कहीं, लिये आस फिर सांसो की, जब मधुमास उड़ा लाएगी, मन से मन तक मधुबाला ||७|| मैं पथिक चलता रहा लिए पांव में दबा छाला, कभी छांव तले रुक कर सोचता, है कोई संगवाला, चढ़ सीढियां न जाने कहाँ जाने की लगी थी धुन, अनायास देखा उस शाम, तो पास खड़ी थी मधुबाला ||८|| मेरी यह परिभाषा, कौन था उस तक पहुँचाने वाला, होती कोई मधु सी जीवन में, सहलाती मन सुरबाला, जी लिया चढ़ती रात, मनु स्मरण कर कल्पनाओं में, चांदनी भी कह गयी, कहीं वही तो नहीं मधुबाला ||९|| ललक उठा मन, उसकी छवि ने उर भर डाला, शचि सी सुन्दर, जगा गई मनोरथ जैसे तपती ज्वाला, हुई वह प्राण सी प्रतिष्ठित, केवल एक ही दृष्टि में, मन से हटी नहीं कभी फिर, दूर खड़ी मधुबाला ||१०|| दिन सरक गए कितने, नहीं सोयी रातें किये उजाला, तन लगी नहीं रसोई, मन पर था उसका ही बोल-बाला, न जाने कहाँ बदरी बन उड़ गयी, धूप में प्यास जगा, कोई दिशा दिखती तो, ढूंढ लेता तारों में भी मधुबाला ||११|| मन विचलित ढूंढता रहा उसे, भर ईप्सा का प्याला, सोचता रहा मैं अकेला, समय ने जीवन कैसा ढाला, ऐसा लगा था उसे पाकर जैसे उमंग फिर लौट आया, पर कितना अंधकार बिखेरा है, छिप कर तुमने मधुबाला ||१२|| लगता मुझे घर में भी, जैसे जी रहा घर से निकाला, दुःख तो बहुत पिया मैंने, और हँसना भी टाला, उम्मीद लिए फिर भी, आज निकल पड़ा हूँ ढूँढने उसे, ईश्वर भी रोये इस संध्या, पर बैठी थी वहाँ मधुबाला ||१३|| मिल जाती वह दुपहर ढले, हो जाता तन-मन निराला, नित देखने उसे मैंने भी, एक जीवंत उपाय निकाला, मैं वक्ता बन उसके सामने, खड़ा बरसों सा अनुभव करता, सुननेवालों से भीड़ में कहीं, लगती थी अलग मधुबाला ||१४|| देखता ही रहा उसे, हुआ मूक मन मतवाला, सोच रहा था कब खुलता उसकी अधरों का ताला, सोचता मुझे देख, कंठ खोल एक प्रश्न तो कभी पूछती, श्रृंगार लिए सब कह जाती, आँखों से ही मधुबाला ||१५|| उसने कुछ पूछा एक शाम तो लगा भाग्य ने कह डाला, उत्तर हूँ मैं प्रश्न का, निथरा भविष्य से प्रेम का हाला, रूचि-सुरुचि पूछा उससे, अब आँखों में आँखें डाल देख सका, बात तो तनिक हुई, पर उतर आई स्वर्ग से मधुबाला ||१६|| भूख भी नहीं लगती अब, पथ भटक गया खानेवाला, मन बांधने लगा महल, रेत में ही हो मतवाला, नहीं आ रहा था कुछ समझ, उसे कैसे पास बुलाऊं, दौड़ता रहा सारी रात धूप में, ऐसी मृगतृष्णा बनी मधुबाला ||१७|| अकेला हुआ मैं फिर, मिला न कोई संग रोनेवाला, जाता कहाँ, लौट आया फिर वहीं, देखने सांध्य-बाला, बीत गए सात दिन, न ही पता उसका, न ही ख़बर कोई, गुम हो गयी अचानक, गगन में उल्का सी मधुबाला ||१८|| आज सुबह सूरज ने, फिर बिछुड़ी स्मृतियों को उबाला, चला मैं फिर बुझा-बुझा सा, लिए मन-जला छाला सोचा मिली नहीं यदि वह, तो जीवन होगा कैसा, मै नि:शब्द हुआ, स्तब्ध रहा, वहां खड़ी थी मधुबाला ||१९|| कहते जीवन मधुर है कितना फिर विरह कहाँ से मैंने पाला, मरीचिका ने पता नहीं, मन में कैसा जादू कर डाला, नाप लिया मैंने यूँ ही, आँखों में पांच मॉस का अन्तराल, ‘कालान्तर’ लिख लिया मैंने, लिए साथ में मधुबाला ||२०|| गुण छिपे थे उसमे कई, मृदु भाव लिए उसे निकाला, वह थी रुचिका पाठक, कहानियों से जुडी सुन्दर बाला, बात कुछ और बढ़ी, मेरी भी सोयी रचनाएँ उछल पड़ीं, एक छोटी रचना ‘कालान्तर’ को भी भा गई मधुबाला ||२१|| प्रतीक्षा थी कि वह समझती, नहीं मैं कोई भ्रमर भोला-भाला, ऐसी रचनाएँ लिख सोचता पहन पाउँगा कल जयमाला, डरा हुआ था मन, पूछता क्या उससे कहानी की आत्मा, मन बांधे आहट सुनता रहा, पास आ रही थी मधुबाला ||२२|| साथ हो चला मैं उसके, जैसे कल पर परदा डाला, चलते कुछ बात चली वैसी, कि ह्रदय हुआ विशाला, एक प्रश्न उठा, जब बिछुड़ना ही अंत है तो जुड़ना कैसा ? रूठी ध्वनि से, आँखें झुकाई चल रही थी मधुबाला ||२३|| दुपहरी में दोनों मौन, कुरेद रहे थे मन का जाला, सुन्दर आँखें, सीपियों से जैसे गुंथ रही थी माला, वह ऊंची टहनी की सुमन, जिसे पाने सभी देखते, मैं निर्निमेष श्रृंगार बांचता रहा, पास बैठी रही मधुबाला ||२४|| सन्नाटा टूटा, लगा ईश्वर ने इसे कितने श्रम से ढाला, सुन्दर आँखें, कोमल कपोलों पर हिलता कान का बाला, पूछ लिया निर्भय हो मैंने, क्या साथ रहोगी जीवन भर, नि:संकोच हाँ कह दी पल में, उँगलियाँ छूती मधुबाला ||२५|| आज लगा, जैसे छू गया हो अधरों से सोम का प्याला, भीग गया मैं, जो अब तक था छन-छन जलने वाला, मन करता मैं सो जाऊं उसकी नीड़ से टिक कर, देखता ही रहा उसे मैं, अब तो भाग्य बनी मधुबाला ||२६|| निहारता रहा कल्पना मनु की, पिरोता फूलों की माला, जब पलकें उठा वह मुस्कुराती, मधु बटोर लेता प्याला, जीवन ठहरा आकर कहाँ, भूख-प्यास छोड़, आँखों में उलझा, चांदनी खिली अब भरी दोपहरी, लहराई वसंत सी मधुबाला ||२७|| शाम हुई ठंडी उँगलियों पर, सूखा मधु-घट का प्याला, चल पड़े दूर हम राह पकड़, गढ़ कर स्मृतियों पर ताला, हर पग पर बातें करते, चले बनाते गगन में घर अपना आज बारी थी रतजगे की, लिए आखों में मेरी मधुबाला ||२८|| देखता रहा मै दूर राह, ओझल हुई नहीं जब तक शशिबाला, लौट गया घर, चढ़ती रात छाता अँधेरा कितना काला, एक प्रश्न उठा कि प्यार तो हुआ, पर अन्तरंग कब होगा उसका, पूछ रहा उत्तर मैं कल से, उसे आज ढूंढ रही थी मधुबाला ||२९|| रात गई, दिन निकला, आँखों ने दबा प्यार और उछाला, पा कर खोने का दर्द अनुभव करता है केवल जीनेवाला, मैं बरसों का अकेला, डरता हूँ नए आयामों में जीने से, कल मिली हो, तुमने कितना जाना है मुझको मधुबाला ||३०|| आप कहता रहा मै उसे ओढ़े अब तक आदर का दुशाला, आज संबोधन बदले, पास आ गए हम लिए प्रेम का प्याला, वह बनी सुरवामिनी और प्यार बना अर्ध्य मेरे जीवन का , विश्वास जगा, पग दिशा मिली, आरती हुई मेरी मधुबाला ||३१|| तुम्हारे आकर्षण ने तो जीवन को धरा पर खींच डाला, आज तुम ही विधा बनी, प्रज्ञां परिणत मेरी शशिबाला, लगता दिन भी छोटा नित तुमसे मिलने, रातें चलती बरसों, हम मीलों साथ चले हर शाम, लेकिन हाथ नहीं छूटता मधुबाला ||३२|| चली जाती जब तुम, जलती रात में उर की ज्वाला, तपन में स्मृतियों की मैं, बना शलभ सा जल जाने वाला, कुछ दिनों में हम अब जाते किस राह पता नहीं, क्या होगा कल, जब डाल से टूटे, बिना तुम्हारे मधुबाला ||३३|| देखते एक-दूसरे को हमने कितना समय बिता डाला, दूर थे बहुत दिन अनुबंधन के,कोई नहीं था पथ बतलानेवाला, कोई एक सम्हल जाता हम दोनों में, तो जीवन लांघ लेते, असमंजस में पड़ी, मेरे पास ही खड़ी है मधुबाला ||३४|| एक ओर अपने घर की चाह, दूसरी ओर मधु का प्याला, मै चक्रव्यूह में फंसा, सोचता कभी कहाँ है वह कल्पित माला, अधरों की आतुरता में, खोजता रहा कहीं मिल जाता काम जहाँ, मन कहता कुछ भी हो, तुम्हे तो पाना ही है मधुबाला ||३५|| आज मेरी लम्बी रचना ने फिर उस पर जादू कर डाला, मन और ठोस हुआ, वह लिपटा जैसे अधरों से प्याला, प्रण किया हमने कि रहेंगे साथ सदा तोड़ सभी आंधी झंझावत, आ पहुंचे हम हाथ पकड, उस राह जहाँ मिली थी मधुबाला ||३६|| लाल अधर लगते, जैसे लपट हो प्यार की ज्वाला, उन्माद है यह तो, कहीं न बन जाये उर का छाला, मन थमा नहीं आज, कि टिक गए होंठ पल भर उसके माथे, बन गया सुख-दुःख मिला कर हाला, आज मेरी मधुबाला ||३७|| इस अनुभव से महक उठा, कुछ खोया मन मतवाला, अब तुमसे दूर हर पल लगता है आग सा जलनेवाला, होंठों का स्पर्श नहीं, तुम्हारे माथे पर मैंने संकल्प है मढ़ा, आकाश तपे या आषाढ़ बहे, तुम्हे नहीं छोडूंगा मधुबाला ||३८|| हमने हथेलियों पर एक-दूसरे का नाम लिख डाला, बंद कर लीं मुट्ठियाँ, गूंथ लिया प्यार का माला, साथ चले तो लगा कुछ दूर नहीं, जीवन बस चार कदम है, मैं अडिग हूँ , तुम कभी न अलग होना मधुबाला ||३९|| कल की भुला, आज मिलें हैं हम, तोड़ अँधेरा सुरबाला, उर में आनंद घुला, जैसे उल्का ने किया उजाला, आज मन उछल पड़ा है, धरा से गगन तक ऊंचा, तुम्हे निमंत्रित करता हूँ, घर आना मेरी मधुबाला ||४०|| पग पड़े घर में तुम्हारे, तो दीवारों ने ढाक उछाला, अर्ध्य सजाये खड़ा हूँ लिए जलते दीपों की माला, देख लो यह छोटा सा घर और हाथ भर की रसोई, झरती छत के नीचे, यही सत्य है मधुबाला ||४१|| लाया मीठे अंगूर ढूंढ कर, बना दृष्टि-भेदक काला, यही है अमोल सत्कार तुम्हारा, मधु-रिसता अंगूरी प्याला, मीठा कर लो मन, जहाँ सच तो है कुछ कड़वा, मुख मोड़ न लेना मुझसे, जीवन यही है मधुबाला ||४२|| मुँह में एक अंगूर छिपा तो, बन गया मादक हाला, तुमने खा ली एक प्रेम से, तो हो गया मैं मतवाला, प्रण करता हूँ मै, भर दूंगा तुम्हे कल अन्न-आभरण से, श्रम मेरा और भाग्य तुम्हारा, हम सुख बोयेंगे मधुबाला ||४३|| तुम सुरवामिनी, कैसे समझोगी जीवन पर पड़ता पाला, धीरे-धीरे गहराता है, ठण्ड में भी नंगे पाँव छाला, फिर पूछता हूँ आज, क्या साथ चल पाओगी लम्बी राह, रात भावनाओं को रख परे, सोचना बात मेरी फिर मधुबाला ||४४|| नयी सुबह के साथ, मन ने फिर खोला ताला, संशय में था पूछूँ कैसे , बुझा कर जलती ज्वाला, उमड़ उठा जब प्यार, टिक गई ह्रदय से नि:शब्द प्रिया, तुम बलप्रदा, महोदरी, सत्या, तुम्हे शत-शत नमन मधुबाला ||४५|| घर से धनी तुम, तोड़ गई कैसे यम काला, सहमा रहता मैं तो, जीवन ने मुझे डर से पाला, समझ गई थी तुम, मैं क्या दे पाता तुम्हे, तुम्हारे जैसा, फिर भी कैसा निर्णय है, तुमने कुछ नहीं माँगा मधुबाला ||४६|| अहंकार नहीं, स्वार्थ नहीं, फ़ेंक दिया कहाँ ऐसी हाला, तुम कल्पना से परे इश्वरी, शुद्ध लौ सी सुरबाला, प्रेम से भी ज्यादा, तुम पर उमड़ रही है श्रद्धा, अब तुम ही समझा दो, क्या है जीवन मधुबाला ||४७|| आज दिन ढलते फिर लौट आई है सांध्यबाला, चांदनी बन बिखरे सपने, और चाँद ने अमृत ढाला, जेठ में भी बादलों के बीच से, ठंडक छाई नभ में, तुम धवल रजनीगंधा सी महकी, दूर दर्द में मधुबाला ||४८|| इतने मोड़ हैं,जीवन में, हिमगिरी से जैसे उतरता नाला, पार कर जायेंगे प्यार में, बहता मन तो होता है मतवाला, देखो अब दूर दोराहे पर, पग तो पड़ने ही वाले हैं, मैं लडखडाता रहा विरह में, पर निर्भीक बढ़ी मधुबाला ||४९|| आज आखिरी संध्या थी, समय ने चुप ही कह डाला, विश्वास था मन में, पर आंसुओं से भर रहा था प्याला, टूटी स्मृतियाँ, अलग हुए शहर दोनों के, पर एक रहे मन, तुम्हे आभास किया हवा सा मैंने, कैसी हो तुम मधुबाला ||५०|| मेरी खिड़की से उड़ता पुष्पक, मन-आसमान चीर डाला, डूबती संध्या सागर किनारे, सहलाता दुःख में खुलता छाला, कितने बार लिखा, रेत पर नाम तुम्हारा, लहरों से लड़ते, तुमने बल दिया, पर समझा नहीं आंसुओं ने मधुबाला ||५१|| शोध करता दिन भर, रात में खुलता मन का ताला, मित्र बना अँधेरा भी, उसके ही साथ ढूंढता सुरबाला, बीते दिन जेब में रख, कल अकेले ही पुकारता रहा तुम्हे, सच कहूँ तो, तुम बिन मृत्यु भी नहीं आती मधुबाला ||५२|| सात दिन बीते, आगे तेईस पड़े थे लटकाए भाला, चुभता था हर पल मुझे, बिना तुम्हारे मेरी शशिबाला, कितनी कहानियां लिखी तुम पर, एक नाम, परिधि, और श्रीपाली, पर कडवा हुआ प्रेम का हाला, बिना तुम्हारे मधुबाला ||५३|| आज पत्र लिखते तुम्हे, मैंने मन मिट्टी सा रौंद डाला, हर शब्द भीग गया, तुम्हारी मधु से जब टिका प्याला, तुम सच से कल्पना बन कर यहाँ छलक रही थी निर्बन्ध, मैं खड़ा आज फिर मन के द्वार, ढूंढ रहा मेरी मधुबाला ||५४|| बीते और कुछ दिन, मुझको केवल स्मृतियों ने पाला, घिर जाता अँधेरा, पर दिखती तुम पास आती सुरबाला, यहाँ ज्येष्ठ में भी बादल छाये, तडपाये घन सावन बरसे, नित हाथ पकड़ चलती है, सड़क से सागर तक मधुबाला || ५५|| कैसी है तृष्णा, लगता है पी जाऊं विष का प्याला, सागर में डूबूं या समा जाऊं भू-तल में, खोल विरह ताला, कौन परिचित यहाँ, हवा से ही कह लेता कुछ मन की, मेरे सब छूटे, तुम ही झांक रही आसमान से मधुबाला ||५६|| तकिया भी भीगा कल रात, देख कर मुझे दुःखवाला, नींद में भी तुम तपती, लिए खड़ी थी मधु का प्याला, सुबह तुम्हारा पत्र मिला, नाच उठा मन वसंत में किलकारते, मन से मन निस्संकोच जुडा है, तुम प्राण बनी हो मधुबाला ||५७|| महक रही है तुम्हारे शब्दों की मधुऋतु सी माला, मन फिर मचला, सागर भी लगा जैसे रस का प्याला, आज तुम हुई अंतर्यामी, मैं अर्चक आसमान ले भागा, दिन ढले आँख मिचौली, कितना खेल खिलाती मधुबाला ||५८|| तुम्हारा पत्र सिरहाने रख नित सपनों को भिगो डाला, प्यासे थे सपने भी, पी लिया तुम्हारे शब्दों का हाला, रह चलते भी पढ़ लेता हूँ तुम्हे पंक्तियों के बीच प्रेयसी, हर शब्द संजीवनी लगी, जलती विरह में मधुबाला ||५९|| पत्र का उत्तर लिख, उसे मुट्ठी में भींच डाला, लिखा पत्र पर नाम कोई, जो पहुंचाती बन सहबाला सुलझा फिर उसकी सिकुडन, धैर्य जुटा पेटी में डाला, मन की बात आज उडी, हवा में लहराती मधुबाला ||६०|| कुछ दिन और रह गए पर दहकती रही ज्वाला, अब थक गया शलभ, जल-जल कर जीनेवाला, छोटे-से जीवन में कितना दर्द छिपा है सुख के भीतर, ह्रदय भेद दिखलाऊंगा, कितने उभरें हैं छालें मधुबाला ||६१|| आज लौट रहा हूँ उछलता,मन-स्मृतियाँ सब बाँध डाला, यही थी पूंजी मेरी, एक प्रयाण लम्बा लांघ डाला, निकल पड़ा मन में किये तैय्यारी तुम्हारे स्वागत की, मन भी भागा रेल की गति से, तुमसे मिलने मधुबाला ||६२|| कुल्हड़ भी होंठों को छूती जैसे हो कंचन का प्याला, आज पटरियों पर बिकती, गर्म चाय भी हुई ठंडी हाला, कितना उन्मादित है मन, भूख भी आज मीलों दूर खड़ी, लगा स्वयं को जीत आया मैं, मिलने तुमसे से मधुबाला ||६३|| रेल रुकी, मैं भागा बाहर,लिए स्मृतियों की माला, खोने का भय, फ़ेंक पेटी में, लगा दिया है ताला, अब तो जीवन लिए साथ, कूद कर बैठा तिपहिये में, घर तो दूर से दिखा, पर दिखी नहीं मधुबाला ||६४|| वह नहीं तो क्या, घर ही कर गया उजियाला, होगी वहीं गालों पर हाथ रखी,मुस्कुराती शशिबाला, कल खिलेगी फिर उषा, लेकर बीते वसंत की सुगंध, उड़ आएगी मुझ तक फिर, मेरी बिछुड़ी मधुबाला ||६५|| मेरा घर वैसा ही था, जैसे बरसों से रखा प्याला, रात नींद नहीं आई, लेटा रहा आँखों में सपने डाला, थकान, विरह, संताप सभी भुला, सुबह को ताकता, पल-पल गिनता सोचता रहा, कब आएगी मधुबाला ||६६|| मैं छत पर खड़ा रहा स्वागत में लिए फूलों की माला, धूप उतरी, एक ही आंसू से भर गया सपनों का प्याला, मैं निर्वासित सा लेट गया भूखी रात में लिए टूटी आशा, मैं क्षितिज देखता ही रहा, आज नहीं आई मधुबाला||६७|| जीवन को जैसे ग्रहण लगा, जाने कब होगा उजियाला, मैं बैठा देखता रहा, अँधेरे ने पल में निगल डाला, लिखी भाग्य में जितनी, बस उतनी ही मिलती खुशियाँ, श्रम, संकट, संताप सभी मुझमे, तुम इनसे परे मधुबाला ||६८|| कल गिर कर भी, सबक नहीं सीखा मन मतवाला, फिर छत पर दौड़ पड़ा, लेकर फीके चाय का प्याला, व्यर्थ कहलाते हैं प्रेमी, दुःख दूर नहीं, तो अकेले ही अच्छे, मैं तो जीवन से हारा, अब तुम ही जीत जाओ मधुबाला ||६९|| स्वागत करती है पीड़ा भी, शलभ जलाकर जैसे दीपमाला, मै थका सीढ़ी पर बैठा, सुलझा रहा था उर का जाला, आज की आशा डूबी, कल का कौन भरोसा है, मन हार कर भी टूटता नहीं, कल अवश्य आना मधुबाला ||७०|| आज झूठा ही निर्मोही बन, स्वयं से ही छल कर डाला, सोचा यही विरक्ति दृष्टिबिन्दु बन, बुला लाएगी सुरबाला, अकस्मात् आहट सी हुई, लगा दुपहरी कैसे चाँद खिला, मैं दंडवत हुआ ईश्वर के आगे, द्वार खड़ी थी मधुबाला ||७१|| क्षीण, क्षुद्र, दुर्बल भावनाएं, टूट गयीं जैसे मिट्टी का प्याला, सुमुखी तुम्हे देख, मन भागा फिर, प्रेम की पाठशाला, पहले ह्रदय से टिकी, फिर गोद में बालों को सहलाता रहा, मैं मन्मथ बना पढता रहा उसे, आज कामायनी हुई मधुबाला ||७२|| मूक बने जड़ से, गुटकते रहे दर्द का निवाला, कितनी बार जलती-बुझती रही मन की ज्वाला, अब सहन नहीं होता, मरीचिका में दिशाहीन सा चलना, शब्द नहीं जगे कुछ कहने, मौन ही रही मधुबाला ||७३|| कहीं काम मिलता तो,खुलता जीवन का बंद ताला, नहीं जानता कौन था वह, सौभाग्य लिए जीनेवाला, जिसे चांदी की थाल में, मिला प्यार परोसा हुआ, निस्संदेह जीना तो है साथ तुम्हारे, जतन करो कोई मधुबाला ||७४|| बदला न जीवन में कुछ भी, चढ़ी न सपनों में माला, बैठे हम उद्विग्न यहाँ, पीते अपने ही आंसुओं की हाला, तुम्हे देख कर, छू कर, संबल मिलता है थक कर जीने का, तुम आद्या, महेश्वरी मन की, सोचो कल की मधुबाला ||७५|| बीता दुःख धोते रहे, आँखों से भर विरह का प्याला, राह मुड रही, यही सोच संकल्प नया फिर ढाला, यह चाह भर गई मुझमे तन-मन की शक्ति नयी, दर्द तो होगा आस-पास ही, पर तुम आती रहना मधुबाला ||७६|| फिर आउंगी कह कर निकल पड़ी मुस्कुराती सांध्यबाला, जग भर बिखरे अंधियारे में, सीख रही थी चलना मृदुबाला, आँखों से ओझल हुई, तो हम जीते उन्नीसवीं सदी में, मूक-बधिर से रहते, एक फ़ोन भी असंभव था मधुबाला ||७७|| यह प्यार क्या आषाढ़ के फूलों की है माला, इनसे जीवन का चित्र बनाया,सांझ ढले रौंद डाला, प्यार का आभास होते ही क्या यह पल है जानेवाला, क्यों खुलते ही बंद होने लगते हैं, द्वार हमारे मधुबाला ||७८|| हम समय बांचते रहे, भर जाता यूँ ही दुविधा का डाला, फिर भी वह आ जाती मिलने, सरका दरवाजे का पाला, उसमे ही है इतनी हिम्मत, कुछ कर जाने की क्षमता, लिखी भाग्य में जो मेरे, वही हाथ मिलेगा मधुबाला ||७९|| वह आई धूप से, जैसे छन-छन तपता प्याला, काँधे पर सर रख, पोंछा आँखों से रिसता तम काला, कुछ शब्द धीमे से फिसले, कह गए सारे बात अच्छे, तुम तो हो नंदिनी मेरी, होगी नियुक्ति तुम्हारी मधुबाला ||८०|| साक्षात्कार हुआ उसका, पर डोला मन मेरा मतवाला, कोई तो द्वार खुला जीवन का, भर जायेगा सुख का प्याला, बस इतना ही बहुत था, हमें कल का स्वागत करने, तुम हो तो मैं हूँ, कोई अहम् बीच नहीं मधुबाला ||८१|| मैं उसकी बालों को सहलाता, सुलझाता रहता उलझी माला, कभी आँखों में झांकता, पी लेता झरोखों से मधु का हाला, अधरों पर प्रतिबंध लगा था, नहीं डालना मुरब्बा उनका, मानता हूँ नियम सदा तुम्हारे, पर देना कभी अवसर मधुबाला ||८२|| उसकी प्रतीक्षा में, सावन नित भिगो जाता मधु-घट का प्याला, फुहारों में छोटा सा घर भी झूमता, सोच तुमसे झरती है हाला, मन उद्विग्न हुआ पल-पल, पर दौड़ता कहाँ किसे कहने, अब तुम आ जाना, खुली है राह मेरी मधुबाला ||८३|| भय तो नहीं, पास ही दिख रहा था, समय आनेवाला, झट निकल पड़ती वह घर से, जब कहता मन मतवाला, कभी बहाने से, तो कभी काम लिए तिपहिये में, भरी धूप में डोलती, बीत जाते कुछ मीठे पल, तुम्हे साथ लिए मधुबाला ||८४|| शरद की रात चांदनी भर रही थी मधु का प्याला, वह नियुक्त हुई पद पर, छलका मन में तपता हाला, कसे बाहुपाश, फिर आया प्यार आँखों के सामने, माथे पर बस अधर टिके, तुम जीत गई मधुबाला ||८५|| पास ही था कार्यक्षेत्र उसका, अब भाग्य ने खोला ताला, मुझे भी कुछ मिला वहीँ, दहकी साथ ही दोनों की ज्वाला, काल प्रबल है प्यार, उससे ही बल मिलता जीवन को, अंधे मोड़ों पर भी, अब हम साथ चलेंगें मधुबाला ||८६|| मेरी रचनाएँ जर्जर हो रही थीं, जैसे फूलों की सूखी माला, जिन्हें पढ़ मन आज भी रोता, भर जाता मधु का प्याला, इन्हें सादर ‘अंकुर ’ संबोधित कर, जनवाणी का मंच दिया, तुम्हे निमंत्रित करता हूँ, आना अवश्य मेरी मधुबाला ||८७|| आयोजन छोटा,पर लौट आया भविष्य जाने वाला, तुम आ गई तो लगा विश्वास कभी नहीं है मरने वाला, तुमने सारी पढ़ लीं थी, अब तो सुन लीं दूसरों से भी, तुम अब कविता से निकल, द्वार सामने आना मधुबाला ||८८|| समाचार पत्रों ने कल, कुछ ‘अंकुर’ का किया उजाला, कतरनें रख लीं मैंने, कल तो मैं ही हूँ पढनेवाला, ढूँढ़ रहा था मैं मृगनयनी,जो दौड़ी छम-छम आँखों में, क्या तुमने स्वजनों से कुछ कहा, कल रात मेरी मधुबाला ||८९|| अब परसों जाना था दूर नयी नियुक्ति में सुरबाला, मै घर ही में चुप बैठा रहा नाखून से कुरेदता प्याला, ईश्वर करे वह लौट आये यहाँ, यही जप रहा आँखें बंद किये, भाग्य ने दिया खाली-खप्पर, पर मैं ढूंढ रहा था मधुबाला ||९०|| शाम सिमटने लगी, नहीं थमा चाय का भी प्याला, फिर भी मन आंधी सा उड़ता रहा, हो उस पर मतवाला , देहरी पर दस्तक सुन मैं दौड़ा, शायद लौटा हो मेरा प्यार, मैं निर्निमेष देखता रहा देहरी, वहां खड़ी थी मधुबाला ||९१|| थकी हुई, कुछ डरी सी थी, धूप में जैसे तड़का प्याला, गौरी बन झट उर पर लेटी, उछल पड़ा शिव भोला-भाला, थकान मिटी, पर कहती काया से, यह कैसा अनुभव था मेरा, क्या कहूँ, तुम खिली फूल सी, पर भ्रमर न देखा मधुबाला ||९२|| जब आँख खुली तो, पास रखा था रस का प्याला, मीठा हो या फीका, आज तो छलका तन-मन से हाला, खुश थे बहुत हम दोनों, साधन जो मिला जीने का धनी, करेंगे फिर नया प्रयास अब, तुम्हे साथ लिए मधुबाला ||९३|| क्षणदा सी स्वर्ग भेद कर, भर गई वह मधु का प्याला, देहरी पार संध्या हो चली ,कब रुका है कोई जानेवाला, लालायित आँखों से उसे देखता रहा, मैं हर्ष-विकंपित सा, सपने आज हुए फिर मतवाले, आना तुम फिर मधुबाला ||९४|| सुबह निकलती और दिन ढले लौटती मेरी सुरबाला, रात थकी वह पिरोती सपनों में प्यार की माला, आती कभी-कभी मुझ तक, निबटा कर अपना काम वहां, पर मैं छत पर टंगा, तुम्हारी बाँट जोहता रहता मधुबाला ||९५|| एक दुपहरी कोई आहट हुई, छूटा हाथ से निवाला, सर पर सूरज, धूप उगल रही थी तपती ज्वाला, झट सांकल खोली मैंने, कोई आड़ खड़ा था मुँह ढांके, पल में प्रकट हुई फिर, घर अन्दर थी मधुबाला ||९६|| स्वर्ग से उतरी सीधी, कैसे पूछूँ तुम्हारा दुःख बाला, दर्द हो रहा था पेट में, पीठ भी हुआ पीड़ा में काला, टूटी खाट संवार दी मैंने, उस पर लेटी वह मुस्कान लिए, मैं पास ही बैठा रहा, सहलाते बाल तुम्हारे मधुबाला ||९७|| लेटी थी वह निशब्द यहाँ, पर झरता रहा मधु का प्याला, मैं चित्र उतारता मन में, उसके अधरों को रंग डाला, कभी सहलाता उसे, कभी खेलता कानों की बाली, अब चाय बना लाया हूँ, अधरों से छू लो मधुबाला ||९८|| तुम रह गई आज यहाँ, तो समय हुआ सुखवाला, अब न जाओ कहीं, पहन लें यहीं फूलों की माला, और नहीं सहती दूरियां, घर चलें या देहरी कानून की, उतावला हूँ मैं तो, सोचना तुम होकर तन्मय मधुबाला ||९९|| मैं भी साथ हो लिया उसके, बन सहयात्री मतवाला, हम नित जाते दूर, साथ बैठते लिए चाय का प्याला, यह आदत सी हो गई अब, हम दोनों के बीच, हम चल लिए बरस भर, वसंत से सर्दियों तक मधुबाला ||१००|| तीन मास और बीते पर मिला चैन न सोनेवाला, अब प्रतिदिन मिल लेते, बाँट लेते मधु का प्याला, काश हम भी विहग होते, बस जाते सुखी किसी बरगद, अब और प्रयत्न चाहिए, तुम साथ मेरा देना मधुबाला ||१०१|| अस्सी का दशक उठा, वसंत ने फिर रंग डाला, समय दौड़ रहा था, हम चलते रहे लिए पांव में छाला, मैंने भी आवेदन किया, होती नियुक्ति तो छंटता कोहरा, बहुत मांगीं मिन्नतें पर, अब भाग्य तुम्हारा है मधुबाला ||१०२|| आज खुश थे हम, हथेलियों पर नाम भी लिख डाला, दोपहर को काम निबटा, हमने एक बाग़ में डेरा डाला, देख रहा था मैं जीवन, उसकी गोद में लेटा, सोचता छोटा सा घर होगा, और वहां मेरी मधुबाला ||१०३|| मन किया कि चढ़ा दूँ, देवी सी प्रतिमा पर माला, मनु की कल्पना से भी परे थी वह सुन्दर सुरबाला, छांव पड़ी, वह झुकी, छू गया क्षीर-बिंदु हथेली से, लगे फूलों के बाण मन्मथ को, फ़ेंक रही थी मधुबाला ||१०४|| हम लौटे सोचते, कैसे भर लें फिर से प्याला, कितना मधु बहा आज, फिर भी मन तरसे हाला, अब माया बनी बयार, मधु महका सांसों में दिन-रात, प्यार जिया है मैंने थोडा, कब साथ जियेंगे मधुबाला ||१०५|| समय ने ली छोटी करवट, नीड़ दूर था बरगद वाला, धूप में भी रंग बदल, उड़ता बादल हुआ काला, कील गड़ी जांघ में, और दाने उभरे चेहरे पर मेरे, कुछ अनहोनी कुछ होनी, दोनों साथ हुए मधुबाला ||१०६|| आई वह कल देखने मुझे, भर गयी फिर मधु-प्याला, कुछ कैसे कर पाती, लगा था होंठों पर जो ताला, शरीर तपने लगा था, अब तो घर जाना निश्चित था, आज रात तुमसे दूर मन बहुत रोया मधुबाला, ||१०७|| निर्वासित सा मैं, स्मृतियों की पिरोता रहा माला, काया तो शुद्ध हो गई, खुशियों पर मिट्टी डाला, मैं ढूंढता रहा तुमसे अलग सूखी डालों पर नीड़ सघन, पर कहीं नीड़ मिला है, कल बतलाता तुम्हे मधुबाला ||१०८|| तुम्हे बिना कहे चल पड़ा लिए हाथ में बरछी-भाला, मैं जीवन से विक्षिप्त,अब किसी से न डरने वाला, कह दिया बड़ों से सीना-ठोंक मेरे मन की अभिलाषा, ग़दर से अब डरता नहीं, लक्ष्य तुम्ही हो मधुबाला ||१०९|| विराम हुआ यहाँ, गिर कर वहां फिर छलका मधु-प्याला, आज साक्षात्कार हुआ मेरा, कुछ बनी बात भ्रम ऐसा पाला, दुःख में भी सुख छिपा , देखा चमत्कार पहली बार ऐसा, मुँह अँधेरे खिली सुबह, तुम बहुत याद आई मधुबाला ||११०|| शांत दोपहरी राजुल का पत्र, मन को फिर भिगो डाला, मुझे पता था वह तुम हो, हर शब्द पीस कर पी डाला, तुम छाई आँखों में जैसे श्रावणी इंद्रधनुष की आभा, सबने तुम्हे यहाँ स्वीकारा, स्वागत है तुम्हारा मधुबाला ||१११|| कुछ और आन पड़ा, काम नहीं है टलने वाला, शोध करना था, पर मन की व्यथा कौन है सुनने वाला, अप्रत्याशित कुचल गया बैरागी, बस एक ही पत्र के तले, करनीं हैं बहुत बातें कल तुमसे, अनुराग भरी मधुबाला ||११२|| दो मास बीत गए तुमसे दूर, सूखा मधु का प्याला, अब तो मन तरस रहा, पीने अधरों की हाला, आज नियुक्ति पत्र मिला, आषाढ़ के पहले पहुंचना था, ईश्वर ने मेरी सुन ली, लो राह तय हुई मधुबाला ||११३|| लौट रहा हूँ कल मैं, दुःख सारे कुएं में डाला, आना प्रिये तुम मिलने, अब खुला है छिपा उजियाला, पहले कुछ और नहीं, बस तुम्हे देखना है जी भर के, प्यासा हूँ तपती ज्येष्ठ में, करना मधु-वर्षा मधुबाला ||११४|| अथक दौड़ रहा मैं जैसे, समय ने जादू कर डाला, छत से टंगा मैं, फिर भी धूप भी नहीं उर जलानेवाला, कब से ताक रहा हूँ तुम्हे, है उत्सव आज हमारा, कहना है बहुत कुछ तुमसे, आड़ नहीं अब मधुबाला ||११५|| दूर तिपहिये में दिखी वह, दौड़ा लिए मैं स्वागत माला, वह स्वप्न भी, जागरण भी, सत्य जैसे मंदिर की ज्वाला, देखता ही रहा उसे मैं, जैसे मिली सुमुखी कोई बरसों में, बना लो आज सजीव हर पल, अम्बुज अधरों से मधुबाला |११६|| गिने नहीं कितनी बार अधरों ने मन रंग डाला, उँगलियाँ विश्वास में उलझीं, आँखों ने देखा कल आनेवाला, गोद में सर रख लेटी, उसे चाँद सा निहारता रहा, अब मैं भी नियुक्त हुआ, इतना ही कह पाया मधुबाला, ||११७|| उसके बालों को सहलाता मैंने बीता सारा जग ढाला, उंगलिया पीछे छोड़ गयी छाप, हटा कान का बाला, कारण मिला जग-कहने, और हमें संबंध जोड़ने का, दोनों हाथों कुबेर मिला,पर लक्ष्मी तुम ही हो मधुबाला ||११८|| दिन लौटा, लौटे पंछी, पिरो एक तार में माला, उड़ना हमें भी है, अब समय नहीं ठहरनेवाला, लक्ष्य मिला, दिशा मिली, अब डरना कैसा झंझावात से, शंखनाद कर दो कल, पहन ढाल तुम मधुबाला ||११९|| छन-छन करता था मन, कैसे बचेगा स्वप्न-भरा प्याला, मन करता, हम ही दौड़ पड़ें घरों में लिए हाथ में माला, आख़िर तह से उठी समस्या, वह जो थी मंझली घर में, देहरी से पाँव उठे पर, हुई पार नहीं मधुबाला ||१२०|| साम-दम-दंड-भेद, कुछ न तोड़ सका प्याला, सुसके चेहरे घूर रहे थे, डाले अधरों पर ताला, घर का आकाश भर गया, छाये गरजते काले बादल, पर मन ऐरावत सा हिला नहीं, शचि थी मेरी मधुबाला ||१२१|| बात उड़ गयी, बातों की जैसे बन गयी हाला, क्या हुआ, रचा भाग्य ने जैसा, कल वैसा ही आनेवाला, हे ईश्वर शक्ति देना, जीवन अभी भी नहीं है अपना, मैंने कहा तुम फिर मिलो तो, कुछ बात बनेगी मधुबाला ||१२२|| मुख भींचे मौन रहना, समय है राह दिखानेवाला, आंसूं बहा नहीं बहेंगें हम, मन में है ऐसा लोहा ढाला, सांत्वना देता रहा उसे, पर उसकी भी प्रतिज्ञा दृढ थी, मिलूंगा मैं सबसे, बस साथ मेरा देना तुम मधुबाला ||१२३|| जब छाता घना अँधियारा, कहीं गगन में होता उजियाला, हम भी निकल जायेंगे, किसी राह गर्व से सुरबाला, मुझे जाना था कल, मिली नौकरी में बन ओह्देवाला, धैर्य बनाये रखना, मैं लौटूंगा साथ तुम्हारे मधुबाला ||१२४|| सारी रात नींद नहीं आई, आँखों तले गहराया काला, आंधी चली, टूटे पल्लव, झुका बरगद का डाला, मैं विजन में संवार रहा था खोया कंचन चमकीला, आगे बढ़ बात करूँगा मैं, अपने परिणय की मधुबाला ||१२५|| एक मास बीत गया, सूख गया मधु-भरा प्याला, मन उफना तुम्हे देखने, फूंक उठी उर की ज्वाला, लिए प्रस्ताव, पौ फटते बस लेकर उन तक पहुंचा, मैंने कर ली पैरवी अपनी, तर्क तुम भी देना मधुबाला ||१२६|| सोचा था मैंने कुछ कोहराम मचेगा, टूटेगा कोई प्याला, पर बात सतयुग सी हुई, हंस कर मुँह मीठा कर डाला, हुआ नहीं विश्वास, सच क्या था और कितना भ्रम मैंने पाला, पर मन तो मक्खन सा निथरा, तुम जैसा ही मधुबाला ||१२७|| पत्र लिख रहा हूँ तुम्हे, जैसे मोतियों की गुंथी माला, कल बीता हर आयाम, विस्तार से तुम्हे कह डाला, मेंढकों की चिल्लाहट में, कुछ भूला तो कहूँगा मिल कर, घर भी भेजा पत्र, बातें साफ़ आसमान सी हैं मधुबाला ||१२८|| हटकर चट्टानों से ढूंढ लें विकल्प दूसरी सड़क वाला, अनुदेश मिला लांघ जाएँ देहरी, नहीं किसी ने आड़े डाला, मैं अवकाश ले आता हूँ, तुम्हारे घर मांगने हाथ तुम्हारा, प्रश्न है अब देहरी का, मुझे थामे लांघ लेना मधुबाला ||१२९|| सारी रात फटी आँखों में, दौड़ते आसमान को ढाला, सुबह दूर से सड़क पर, चल रहा था आशाओं को पाला, मैं तुम्हारे घर पहुंचा, पारिजात तले तुम आई मुस्कुराती, पग अन्दर तो बढ़े, पर जाने कैसे लौटेंगे मधुबाला ||१३०|| वही पुराना कोलाहल, देहरी पर टूटा विष का प्याला, बड़ी-मंझली पर तर्क-वितर्क, फूंकी फिर मन की ज्वाला, बरामदे पर अचेत हुए हम, पर मन की चेतना शेष रही, हमने ढूँढ ली पगडंडी, लांघ देहरी चल पड़ी मधुबाला ||१३१|| तपता उर, ठंडी काया, क्रोधित मन , सब कैसे भर डाला, निकल पड़े क्वांर की धूप में, छोड़ दुपट्टा वहीं घरवाला, मैंने आज विश्वरूप देखा है, तुम ही विष्णु, नंदिनी मेरी, सुनो, जीवन मुडती सरिता सी, कट कर पत्थरों से मधुबाला ||१३२|| संसृति की विधा यही है, रात तोड़ होता उजियाला, दुपहरी मोहर लगी कागजों पर, टूटा जग का भ्रम-ताला, मुहूर्त भी मिल गया, फिर रात निकल पड़ा मैं ढूंढता सूरज, घर गुत्थियाँ उलझीं, संवाद उठे, पर निर्णय तय था मधुबाला ||१३३|| जीत भी थकी मिली, घरवालों ने फिर पार सम्हाला, बात बड़ों की हुई, फीके सुख में मिठास भर डाला, पंचांग पढ़े, परिणय के दिन निकले, कुछ समझौतों से, अब तैय्यारी करनी थी, जीने की साथ तुम्हारे मधुबाला ||१३४|| मैं आँखें मूँदे सोच रहा था, उस दिन कैसी होगी सुरबाला, जब अधरों पर रंग चढ़ेगा, उठेगी कुंड से मोहक ज्वाला, मैं दौड़ा घनश्याम, खरीदने साड़ियाँ मनभावन, साहब सा सूट भी लिया, तुमने जैसा कहा मधुबाला ||१३५|| आंसुओं पर सहस्त्र चुम्बन, चटक गया आँखों का प्याला, बनेगा विश्व हमारा अब, जैसे सपनों में तुमने ढाला, मेरे तो मुट्ठी भर प्रियजन, तुम्हारा तो सारा गाँव प्रिये, इतने लोगों के समक्ष तुम्हे, मैं अपना कह सकूँगा मधुबाला ||१३६|| दुर्गा सी आँखों के ऊपर, लाल बूंदों की माला, उर तक ऊंची, गोल सुमुखी, सजी जैसे सुरबाला, दावानल सी लग रही थी, लाल आंचल से झांकती पलाश, कोमल पग भरती थामे सहबाला, पास खड़ी थी मधुबाला ||१३७|| उसे देख आज मन गहराया, हास-उमंग भर उलीचा प्याला, ऊपर देव, तले मित्र-बंधुओं ने, देखा शचि पर डलती जयमाला, भाग्य उल्का सा टूटा, मांग लिया उससे हमने जीवन सारा, तुम शाम्भवी, मिटा दी दुःख सारे, बनी उत्कर्षिणी मेरी मधुबाला ||१३८|| तुम न होती तो हर आंसू होता श्रावण सा बहनेवाला, बरसतीं बूँदें सुख की, जब काल-सबल होता है रोनेवाला, कल्याणी बन दिखा रही हो, तुम हँसती मुद्रा मुख की, तुम सबसे लड़ी भावनी बन, नमन तुम्हे चित्रा मधुबाला ||१३९|| तुम ही अनंता,यह जीवन तुम्हे समर्पित कर डाला, जब जग रूठा तुमने ही किया दीप तले उजियाला, सुरसुन्दरी, विश्व में तुम ही हो,जिसने अभिलाषाओं को जीता, संसृति से उभरी शशि सी धवल, कामाक्षी सी हो तुम मधुबाला ||१४०|| साथ हो तुम फिर भी, तुम्हारी तृष्णा में घिरा मैं सुरबाला, पहले धूप से उभरता था, अब होगा तुम्हारे मधु से छाला, भाग्य में उलझा मैं शून्य से उठा, तुमसे अंकों का आभास मिला, अब तो बनेगा मुरब्बा, अधरों का जीवन भर मधुबाला ||१४१|| जीवन-सूत्र बंधा, शांत हुआ हवन, छलका मधु-लिप्त प्याला, हलचल दबी दुपहरी की, संध्या मचली छूने तारों की माला, आज अंतर में बसने, विदा हुई वह सुनती वीणा की धुन पुरानी, छोटा हो या टूटा हो,यह घर तुम्हारा है मधुबाला ||१४२|| चढ़ती रात में फूलों के आसन पर खुली नयी शाला, प्रणय-पाठ की प्रथम पंक्ति,पढ़े तोड़ अधरों का ताला, सन्नाटा चीर झींगुर के बीच, कहीं चिकुर जाल में उलझा मूषक, टपका मधु श्यामल अधरों से, यही सृष्टि है मधुबाला ||१४३|| रात की मिठास लिए नव-प्रभात हुआ भोला-भाला, तुम्हे देखता ही रहा मैं, हाथ में थामे चाय का प्याला, जीवन तो तुम ही हो, फिर भी ढूंढनी है दिशा नयी, मधु छलकाते चलना अब, साथ मेरे तुम मधुबाला ||१४४||

कुछ बिखरे प्रसंग स्मृतियों के टूटते दर्प

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कथा एक रात की

यह दिन भी कितनी जल्दी ढलता है प्रत्युषा में उठता मन जलता है तृष्णा में वह मृग सा दौड़ा जाता है बीती स्मृतियाँ साथ लिए पथ में कहीं थका रसिक ठूंठ से टिका रोता है यह दिन भी कितनी जल्दी ढलता है ||१|| तुम्हे देखने रात से घुटने टेका, श्रांत हुई आंखे सपनों से सेंका, तुम ओझल हो न जाओ कहीं, यह सोच मन बहुत घबराता है, यह दिन भी कितनी जल्दी ढलता है ||२|| लगा उसे भी प्रत्याशा होगी, उर से कृष्ण कक्ष तक भीगी होगी, पर मुझसे मिलने को कौन विकल उसे पता क्या होती मन की चंचलता है, यह दिन भी कितनी जल्दी ढलता है ||३|| रात की बातें साथ लिए सारा, मै लौट चला हूँ जीवन से हारा, तुम्हे संवेदना कैसी, कैसा मन का अभिसार, यह शिथिल प्रश्न जीवंत हुआ हर बार उभरता है, यह दिन भी कितनी जल्दी ढलता है ||४|| दिन डूबा, सूरज लगा है अब अस्त होने बरसों से छाया था जो प्यार ह्रदय में, छिप रहा था अंधकार के भय से, हम निर्भय भीड़ चीर कर निकले थे सुबह अब तक तो प्यार की प्रतिकृति भी लगी है खोने, दिन डूबा, सूरज लगा है अब अस्त होने ||५|| हमने खेला था अधरों से कुंतल तले, कितनी बार सलवटों पर फिर गीले हाथ मले, प्यार के फूलों पर अब धूल की तह सी जमी है, खेल-घिरोंदे छोड़ हम एक-दूसरे पर पीठ किये लगे हैं सोने, दिन डूबा, सूरज लगा है अब अस्त होने ||६|| तुम्हारी गोद में मैंने कितने रंग सजाये, हमने बच्चों के साथ फिर कितने सुर गाये, बरसों के लिपटे स्नेह गर्त से, आज छिटक कर बिखरा है मौन, देखो अपनी ही छाया चली प्राची में विलीन होने, दिन डूबा, सूरज लगा है अब अस्त होने ||७|| हमने सुषमा भर-भर छत बनाया था गगन में नित देख उसे होता था उच्छास तन-मन में, अब दब गया उस बीते जीवन का उत्कर्ष, चालीस वसन्तो की छाजन, अब जैसे लगी है खोने, दिन डूबा, सूरज लगा है अब अस्त होने ||८|| सूरज डूबा, लालिमा उतरी, अब अंत हुआ उजियाला, बुना था एक नीड़ हमने भी साथ-साथ, कोलाहल से दूर गुंथ दोनों के कर्मठ हाथ, पर किसकी है आज प्रतीक्षा इस प्रणय कुंज में, इस अंधकार में तो मौन संगिनी ने डेरा डाला, सूरज डूबा, लालिमा उतरी, अब अंत हुआ उजियाला ||९|| जब साँसे उलझी, छोटा सा दिया जलाया, मन उछला फिर स्तब्ध हुआ, पता नहीं क्या खोया, स्वयं को छल कर कहते, हम प्रेमी हैं विहंगों से निश्छल, कैसा मन, किसकी माया, जीवन भर यह भ्रम पाला, सूरज डूबा, लालिमा उतरी, अब अंत हुआ उजियाला ||१०|| जिसे देख बहते आंसू सूखे, मैंने उर में उसे सजाया, क्यूँ उसकी डाली-डाली सूखी, मन की मृदा से जिसे बनाया, स्वांग भरे सब, जुगनू भी कह रहे स्वयं को आकाशदीप, लहरों पर नीड़ ढूंढ रहा, फिर पंछी कोई लिये गहन उर का छाला, सूरज डूबा, लालिमा उतरी, अब अंत हुआ उजियाला ||११|| कुछ सोचो अपनी भी, क्या खुश हो तुम ऐसे ही, जब पहली बार कुछ बोला, था वह पल क्या वैसे ही, जब काटती थी धार अकेले में, जाना कृपाण की भी होती है भाषा, मुख की माधुरी, मन की मृदुला, फिर क्यूँ कुछ छाया है काला, सूरज डूबा, लालिमा उतरी, अब अंत हुआ उजियाला ||१२|| अंधकार उठा, घुघुआ बोला, अब चल बसी संध्या गगन से, जीवन की थाह जान ली हमने अब तक चलते, कभी जिया, कभी मूर्छित से समय तले जलते, सर लटकाए कभी सोचते धूमकेतु सा कैसा था वह अनुराग, भावनाएं मरीं, आकर्षण टूटा, जिसे अब तक थमा था लगन से, अंधकार उठा, घुघुआ बोला, अब चल बसी संध्या गगन से ||१३|| जब लम्बा सन्नाटा छाता, एक टेढ़ा प्रश्न उभरता, सोचो, उत्तर उसका कैसे अन्तरंग में है बस सकता, मन-मूक बने दीवारों पर खोजते कहाँ से आ रही प्रतिध्वनियाँ, कान हुए जैसे अँधा कुआँ, अपने ही शब्द लड़ते रहे पवन से, अंधकार उठा, घुघुआ बोला, अब चल बसी संध्या गगन से ||१४|| कल तक गुनगुनाहट भी लगती जैसे बुलबुल की बोली, कुछ भी कहे-सुने आज तो लगता फिर जल गई होली, करवट लिए रातों में बातें कर लेता दीवार पर टंगी रति से, नि:शब्द ही उसने कुछ कहा, और गिर पड़े आँसू नयन से अंधकार उठा, घुघुआ बोला, अब चल बसी संध्या गगन से ||१५|| समझता था स्मृतियाँ संवार लेती हैं बिखरे पल, जब भावना ही नहीं रही तो कैसी आशा और कैसा छल, बंद किवाड़ों में भी अजनबी हुए हम, सुबह कैसे पारिजात पर चलते, प्यार का मह-प्रयाण उठा, आँखों के सामने, जीवन के गहन से, अंधकार उठा, घुघुआ बोला, अब चल बसी संध्या गगन से ||१६|| रात गहराई रौंद धरा, अँधेरा पल-पल बढ़ता ही जाता, चादर ओढ़े दिखता नहीं था मन का अंतर, पर मन थापेड़ें सहता जैसे ज्वार उठा हो उर के अन्दर, रात भरी सपनों में हंसते-रोते, सुबह फिर रात गयी-बात गहराई, अपनी-अपनी सबकी वेदना, कौन किसे अपना दुःख बतलाता, रात गहराई रौंद धरा, अँधेरा पल-पल बढ़ता ही जाता ||१७|| अँधेरे में चेहरा भी दिखता तपा हुआ चटका प्याली, जिसमे उदासीन सी सिमटी थी स्मृतियों की लाली, होंठ भी कैसे टिकते चटकी दीवार पर, कटने की आशंका तो गहरी थी, दिखता जब कोई राह कहीं, शंकित सा पग है फिसला जाता, रात गहराई रौंद धरा, अँधेरा पल-पल बढ़ता ही जाता ||१८|| डर लगता है चलने में जीवन के इस मरुभूमि पर, कर लेते कुछ उड़ते समझौते, बर्फ रख अपने तलुओं पर, जी रहे हैं अपने ही कांटे लिए, बिन पानी के पौधों सा, फिर भी ताड़ से तने रहना, है प्रबल सत्ता की याद दिलाता, रात गहराई रौंद धरा, अँधेरा पल-पल बढ़ता ही जाता ||१९|| निशा चीर जब जुगुनू चमकते, लगता यहीं-कहीं बिखरी चांदनी, भ्रम ही सही, उदास रातों में भी, कुछ पल तो हो जाते धनी, आँखों पर पट्टी बांधे टटोलते हम दुपहरी में भी रोशनी के स्त्रोत, पास में अँधेरा घना, पर दूर कोई बुझता दीप दिख ही जाता, रात गहराई रौंद धरा, अँधेरा पल-पल बढ़ता ही जाता ||२०|| ठंड बढ़ी, सिहरन चढ़ी, तुम मन की व्यथा क्या समझ पाओगे, पीछे रजकण सी स्मृतियाँ, आगे सूखे पत्ते सा जीवन शेष, सावन सी गिरती-पड़ती आशाएं, और कीचड़ में लिपटा वेश, सब मिल जाना है हर-हर करते, अँधेरे अंतरिक्ष में कहीं, फिर भी उस पथ जाकर और कितनी उम्र उलझ पाओगे, ठंड बढ़ी, सिहरन चढ़ी, तुम मन की व्यथा क्या समझ पाओगे ||२१|| तन का हाहाकार और अधरों पर अटकी चुप्पी मन की, तोडती लय ह्रदय की कहती, यही कहानी है स्वजन की, कस्तूरी उडती थी जिस सुन्दर उपवनसे, वह भी अब हुआ विजन, इतने तोड़-मरोड़ से हुए तन-मन के अष्ट वक्र कैसे सुलझ पाओगे, ठंड बढ़ी, सिहरन चढ़ी, तुम मन की व्यथा क्या समझ पाओगे ||२२|| टूटी खाट पर सिसकता मन अच्छा ही था, तुम्हारी गोद में खेलता प्यार तब बच्चा ही था, दांव-पेंच यह अन्दर-बाहर का छल, पता नहीं था कितना होगा, शलभ भी कैसे पूछे दिया से, मै तुम पर मरुँ तो क्या बुझ पाओगे, ठंड बढ़ी, सिहरन चढ़ी, तुम मन की व्यथा क्या समझ पाओगे ||२३|| देह धरे रह गए, अब मन पर भी अधिकार हारे, आसमान झांकते सारी रात बिताते पैर पसारे, कैसे ह्रदय फाड़ कर दिखाएँ, प्यार का विस्तार तुमको, स्तब्ध ही सही, क्या तुम अन्दर उठता तूफान समझ पाओगी, ठंड बढ़ी, सिहरन चढ़ी, तुम मन की व्यथा क्या समझ पाओगे ||२४|| जाने कब आँख लगी, लगता बंद आँखों में भी बसा है छल, सच है इतिहास झूठ नहीं बोलता, फिर क्यूँ उस पर टिका, वर्तमान है डोलता, दीवार पर टंगी प्रतिमा कहती है, मैं आज भी वही हूँ, पर कुछ तो बदला है, तुममे दिखता नहीं है वह बीता कल, जाने कब आँख लगी, लगता बंद आँखों में भी बसा है छल ||२५|| फिर भी आकर्षित है मन टूटा-फूटा, सपनों ने कितना लूटा फिर भी मोह न छूटा, आज भी तुम्ही मनोरथ हो चाहे मरीचिका में मर जाऊं, कुछ साँसे और बची हैं, हे ईश्वर मुझको देना संबल, जाने कब आँख लगी, लगता बंद आँखों में भी बसा है छल ||२६|| मन मसोसता कभी तो गिरतीं इप्सा की कलियाँ, फिर जाकर चालीस बरस पीछे, बटोरता झरी फलियाँ, उड़ गए घर के छप्पर, मचाया बहुत उत्पात, फिर आज को बदलने, पर मैं हार गया छूने प्यार के छिपे मादक कोमल दल, जाने कब आँख लगी, लगता बंद आँखों में भी बसा है छल ||२७|| लगता लुट गए मेरे नीड़ के संजोए तृण-पात, मै ढूंढता दिन-रात उन्हें और खाता मुँह की घात, मन बावला, वाचाल स्यार सा कुछ कहता या फिर करता, जलते आलिंगन में फिर बरसाता, आँखों से सावन सा जल, जाने कब आँख लगी, लगता बंद आँखों में भी बसा है छल ||२८|| सुबह हुई, कबूतर चहके, उधर गिरजे से घंटे की टन-टन, आँख खुली, दो निर्विकार चेहरे मुड़े थे अपनी करवट, जैसे कल की सब बात गई, चले फिर मुँह धोने अपने तट, यह तो वन सा है, जहाँ सभी कल की भूले, खुश रहते आज ही में, पर यह मानव-मन कल-आज में घिरा, करता सारा दिन खुद से ही अनबन, सुबह हुई, कबूतर चहके, उधर गिरजे से घंटे की टन-टन ||२९|| रसोई में हुई खट-पट, कहती फिर होगा अब सामना, निस्तब्ध बैठे निगल लेते निवाला, पी लेते अपनी भावना, पहले मित्र बने, फिर अहम् भरे दरबान, अब तो मूक बने रहते हैं, कोई आता दौड़ा-दौड़ा भरी दुपहरी, डांट लगा, कर जाता सब खंडन, सुबह हुई, कबूतर चहके, उधर गिरजे से घंटे की टन-टन ||३०|| बच्चों की चिल्लम-चिल्ली, उलझाती यूँ ही कुछ बातों में, वे तो हैं मन के सच्चे, उन्हें क्या पता जो गुज़री बीती रातों में, कभी उन्हें सुलाते सो जाते, कभी संत्री बन इतिहास कुरेदते, सांझ ढले जब बच्चे जाते, फिर सोचते कैसे दें संधि का निमंत्रण, सुबह हुई, कबूतर चहके, उधर गिरजे से घंटे की टन-टन ||३१|| अनिर्णीत से ठहरे हम, घुस जाते एक रजाई के दो कोनों में, पलट दीवारों को देखते, सो जाते नाक बजाते दोनों के, अक्सर नहीं हो पाया कि कुछ कह लेते मन की सोने से पहले, रात ऐसे ही बीत गई, हम उनींदे उठे खींच कर अपना तन, सुबह हुई, कबूतर चहके, उधर गिरजे से घंटे की टन-टन ||३२||

अन्तरंग

बतलाओ कौन करेगा पहले बात मौन मरा कबसे अटका, टूट ह्रदय से जिव्हा में लटका, दरबान सा खड़ा अहम् बीच में, किसे थामता वह अपने हाथ, बतलाओ कौन करेगा पहले बात ||१|| बात एक बनी तो मन फिर उलझा, समय खिंचा पर कुछ न सुलझा, जीवंत प्यार की गर्दन ऐंठ, ढोंग किये कहते हम रहते हैं साथ-साथ, बतलाओ कौन करेगा पहले बात ||२|| मन तो यूँ ही नहीं छिड़ा, दुःख भी सोच-समझ कर भिड़ा, यह रुधिर नहीं जो बहती तन में, संवेदना है, हवा सी छूती सबको और देती मात, बतलाओ कौन करेगा पहले बात ||३|| तन कहता मांग ले प्यार की भीख, पर कानों में उठती मन की चीख, मेरा कोई दोष कैसा, जो कोस रहा है पल-पल, यही खोजते बीत जा रही बस सारी रात, बतलाओ कौन करेगा पहले बात ||४|| रात गहराई, उर जकड़ा, दर्द बढ़ता ही गया, निर्वासित से पड़े रहे अपनी करवट, नींद में भी सहेज लेते अपनी सिलवट, पी जाते फिर अपने ही अन्दर का विष, बिन झरे आंसुओं का परिमाण चढ़ता ही गया, रात गहराई, उर जकड़ा, दर्द बढ़ता ही गया, ||५|| मन कहता मुख से मत बोलो, पीड़ा दौड़ी, कहती मधुकोष मत खोलो, मधु तो सारा नीम चढ़ा, पानी भी कतराए उस पर बहना, मन तो कोमल बेचारा, दोष उस पर मढ़ता ही गया, रात गहराई, उर जकड़ा, दर्द बढ़ता ही गया ||६|| अंधेरे में लगता अब जीवन से सो जाएँ मन के शेष भाव में झर-झर खो जाएँ, बरसों का प्यार कहता आज कौन है किसका, हम थोड़े से सुख पर हुये आतुर, दुःख उधर कुढ़ता ही गया, रात गहराई, उर जकड़ा, दर्द बढ़ता ही गया||७|| बहुप्रतीक्षित मुख पर यह स्नेह चुम्बन, अंतिम है अवसर, मिटा दे सब बीते क्षण, अब न कहना, न सुनना, सब शून्य हुआ जीवन में, छाती पर हाथ धरे, समय लुढकता ही गया, रात गहराई, उर जकड़ा, दर्द बढ़ता ही गया||८|| कुछ गिरा धरा पर, हुआ क्या मुझे भी बतलाओ, दर्द दबोचा, लगता जैसे मल्लों की हो उठा-पटक, आवाज भी मरी, क्या कहता हाथ झटक-झटक, तुम अकेली किस तक पहुँचोगी, सारे तो गए बारी-बारी, समय चढ़ बैठा है यहाँ, तुम दूर कहीं मत जाओ कुछ गिरा धरा पर, हुआ क्या मुझे भी बतलाओ||९|| एक ने घर छोड़ा, दूसरी बरसों हुए विदा हुई, अब जो शेष रहे, उनकी भी गति मृदा हुई, सावन सा बहा दिया सब कुछ, पर एक बूँद न ठहरी चुल्लू में, कौन है अपना, कौन किसी का, चाहे जितनी कसमें खाओ, कुछ गिरा धरा पर, हुआ क्या मुझे भी बतलाओ ||१०|| मुर्गा भी थर्राया, मुझसे ऊंची किसने बांग लगाई, लहराती ध्वनियाँ चीर अस्पताल की गाडी आई, उतर देवगण ले अस्त्र-शस्त्र, दौड़े लेने यम से टक्कर, सोच रहे थे कोई दांव, कहते पहले तुम चुप हो जाओ, कुछ गिरा धरा पर, हुआ क्या मुझे भी बतलाओ||११|| सांस खोजते गहरी, छाती पर कितने घूसें मारे, उधर गले में अटक रहे थे यादों के फांसे सारे, मन की बात मन में ही धंसी रह गई, मचा कोलाहल चारों ओर, बात है गहरी, हे ईश्वर अब तो जागो, तुम न सो जाओ, कुछ गिरा धरा पर, हुआ क्या मुझे भी बतलाओ||१२|| रात गई, उषा पर चढ़ कर आई काली छाया, स्तब्ध हुए सब जैसे कोई प्रलय हुआ, पता नहीं तम-यम से नाता, कैसे यह तय हुआ, जब वर्तमान डूबा, इतिहास उड़ा रहा था स्मृतियाँ, जाने भी दो, अब आंसुओं से जुडती नहीं है टूटी माया रात गई, उषा पर चढ़ कर आई काली छाया ||१३|| मैं तो अब छोड़ चला पार्थिव, स्वतंत्र कर तुम्हे पथ से जो था नीरव, दूर से तुम्हे देखूंगा, और सोचूंगा क्यूँ उभरता था वह मौन, आँखें खोल अँधेरे में, आभास करना मुझमे क्या था जो तुमको भाया, रात गई, उषा पर चढ़ कर आई काली छाया ||१४|| आशायें टूटती हैं जब, मौन सघन घिर जाता, तिरस्कृत हुआ मन बावला, दौड़ा फिर तुम पर आता, तुम्हारी भावना तो मुझसे पहले ही मर चुकी थी, मन लगा कर मैंने तुमसे तो बहुत कुछ जीवन में पाया, रात गई, उषा पर चढ़ कर आई काली छाया ||१५|| पूछ लो समय से तुम भी इन बरसों में कितना खोया, तुम्हे सब कुछ देकर मैंने है आज भी चैन से सोया, मन मूक सा सहता रहा, मै तुम पर उतरा नही खरा, सच कहूँ, तुम्हारे भाग्य और मेरे कर्मों से बनी थी ये काया, रात गई, उषा पर चढ़ कर आई काली छाया ||१६|| एक तुम ही तो थी, न कोई मित्र न भरा परिवार, कौन आता पीछे महा-प्रयाण में, तुम चलती रही साथ छिपी इस प्राण में, ‘हरी-बोल’ सा साश्वत है मेरा प्यार, आत्मा तो तुम ही हो, कभी सोचना, कितना स्नेह था कल तक, और कैसा था अभिसार. एक तुम ही तो थी, न कोई मित्र न भरा परिवार ||१७|| तुम्हारी सूची का कैसा था अनुक्रम, शान्ति मिला या फिर था केवल मन का भ्रम, कभी छोड़ प्रपंच प्यार किया होता मन से, तो दिखता क्या पाया, न हम मूक-बधिर होते, न होते जीते जी निराकार, एक तुम ही तो थी, न कोई मित्र न भरा परिवार ||१८|| सच मुझमे नहीं था कोई आकर्षण, धन से नहीं, मन से भी टूटा दर्पण, उस पर भी अधरों की बाध्यता, फिर क्यूँ ना होता विकर्षण, अब तो रात गई बात गई, कल को भूल आज को करो साकार, एक तुम ही तो थी, न कोई मित्र न भरा परिवार ||१९|| अंत हुआ सब, अब देखो आंच के उस पार, कुछ हासिल आया या करोगी अब भी प्यार पर वार, धीरे-धीरे और गहरा होगा मौन, कभी खनखनाना मेरे शब्दों को, थोडा रो लेना पल भर, जब भी मन पर बढेगा भार, एक तुम ही तो थी, न कोई मित्र न भरा परिवार ||२०|| वह भी देख रहा है, जो होता है अच्छा है, चालीस मन लकड़ियों का चौखट, मन शांत हुआ, अब कैसी घबराहट, जीवन ने बहुत साथ दिया, लेकिन छूटा असमंजस में, प्यार भी छल है, लगता हमेशा जैसे कच्चा है, वह भी देख रहा है, जो होता है अच्छा है ||२१|| उठी आग, लगी पल में धू-धू कर जलने, अब किसे क्यूँ आवाज लगाऊं, लेप काया पर मलने, चटकी उँगलियाँ, हुई पूरी कपाल क्रिया, न रोना मन, अब सोच यह प्यार तो अभी बच्चा है, वह भी देख रहा है, जो होता है अच्छा है ||२२|| सारे स्वांग मरे, पीड़ा से भी मुक्त हुआ, स्मृतियों का गुब्बारा, जाने कहाँ लुप्त हुआ, पहले वेताल में जकड़ा, अनुत्तरित वहीँ घूमता रहा था, कहीं कमी रह गई कोई, क्या करूँ प्यार तो जैसे लच्छा है, वह भी देख रहा है, जो होता है अच्छा है ||२३|| मुझमे ही था प्रज्ञां से उभरा मनोविकार, तुम तो ठहरी व्यावहारिक मनुज साकार, झूठा स्वाभिमान छोड़, कुछ पास आती तो बात अलग होती, तुम्हारा भी मान-सम्मान, मुझसे भारी यह गुच्छा है, वह भी देख रहा है, जो होता है अच्छा है ||२४|| आज रोती रात, अब आकर मुझसे तो कुछ बोल, पग धरे रहे, किसी ने द्वार रोका, दूसरा मिला नहीं, मन फटा, अगणित छेद हुए, पर कोई सिला नहीं, कुछ मै भी बोल लेती उनसे, तो घर की देहरी पार न होती, कर ले संधि आकर, अपने मन से मेरा मन ले तोल, आज रोती रात, अब आकर मुझसे तो कुछ बोल||२५|| जग मिथ्या है, किसको कहते हैं परिवार, रात जैसे दस्यु बनी, हो गई अकेली सब कुछ हार, अपनी ही छाया से डरी दुबक पड़ी हूँ कोने में, सबकी दुनिया अपनी,मटकते सभी स्वार्थ का ओढ़े खोल, आज रोती रात, अब आकर मुझसे तो कुछ बोल||२६|| आज लगा हिसाब बरसों का, क्या खोया-क्या पाया, कितनी रातें पीठ किये पड़े रहे, हासिल कुछ न आया, व्यर्थ हुए आँसू सारे, वह निष्ठुर काल नहीं फिर लौटा, अपनी बात किसे कहती, तुम निर्मोही क्यूँ गए डोल, आज रोती रात, अब आकर मुझसे तो कुछ बोल||२७|| पैरों से बंधा था तुम्हारे, आज नहीं, कब से पलायन, पर सोचा नहीं था, सच का इतना होगा इसका आयतन, मै भी वेताल से टंगी थी, उत्तर बूझूं या प्रश्न करूँ, प्यार भी था, घृणा भी थी, कब देखती मन-पिंजर खोल, आज रोती रात, अब आकर मुझसे तो कुछ बोल||२८|| दिन बीते पर न भूली, मैं थी उनकी मधुबाला, पूछते सभी क्या कभी नहीं हुई अनबन कोई, कहते गर्व से प्यार है, कलह नहीं है मन सोयी, हाथ पकड साथ चलते मीलों निकल आये सफ़र में, अब तो भूख भी मरी, अकेले उतरता नहीं एक निवाला, दिन बीते पर न भूली, मैं थी उनकी मधुबाला ||२९|| पहले बहुत राह देखती उनकी,फिर आँखें थकीं, दिन बीते, आकर्षण टूटा, फिर मन की पात ढंकी, कोमल अधरों से कृष्ण-कुञ्ज तक के धीरे बंद हुए सब द्वार, कुछ दिनों से प्यार ढूंढता भी फिर रहा था, कौन है उसका घरवाला, दिन बीते पर न भूली, मैं थी उनकी मधुबाला ||३०|| मन खिन्न होता जब होती बात प्रणय की, अनछुए ही जीना, यही एक बात जो तय थी, न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म कैसे करते तर्क यहाँ, आपस में सुख ढूंढते, अपना दुःख हमने ही पाला, दिन बीते पर न भूली, मैं थी उनकी मधुबाला ||३१|| हम संवादहीन हुए जैसे-जैसे बरस चढ़े, मूक पड़े रहते अपने चेहरों पर इतिहास मढ़े, संबंध शरीर से टूटा, मन तो बेचारा बुझा पड़ा था, अब अकेली, सोचतीं हूँ थामे चटका हुआ प्याला, दिन बीते पर न भूली, मैं थी उनकी मधुबाला ||३२|| अश्रु बहे तकिये पर, सिसकी छूटी, टूटा एक सपना, जीवन की सच्चाई में गोते खाये, कभी मोती, तो कभी साथ मलबा लाये, कभी तो उभर कर आएगा, भरा दुःख मन से बाहर, कहीं तो होगा आकाशदीप, जो सपनों को कर पाता अपना, अश्रु बहे तकिये पर, सिसकी छूटी, टूटा एक सपना ||३३|| कंठ मरोड़ती सपने में रोने की आहट, निथरते पीड़ा की सच्ची तलछट, आगाह करती कैसी होगी सुबह की मुस्कुराहट, कल ही आभास होगा, और शेष है कितना तपना, अश्रु बहे तकिये पर, सिसकी छूटी, टूटा एक सपना ||३४|| उसने पूछा क्या कोई सपना देखा? क्या कहता मैं, बीच में जो पड़ी थी सीमा रेखा, कह सकता था, सपने में मैंने अपना भाग्य बना देखा, चुप था, देखा है मैंने भी, शब्दों से रिश्तों का ढहना अश्रु बहे तकिये पर, सिसकी छूटी, टूटा एक सपना ||३५|| नींद खुली, लगी नहीं आँख फिर रात गये, मति बनी रही, सोचने लगा अब बात नये, कैसे बताऊँ, क्या मेरे जाने की उसे सच में होगी पीड़ा? कल बनेगी या बिगड़ेगी बात, पता नहीं उसे यह सब कहना, अश्रु बहे तकिये पर, सिसकी छूटी, टूटा एक सपना ||३६|| क्या कहता, स्वप्न भी छल, है यथार्थ भी छल, किसने मेरी बात सुनी, जो इसे मानता, जिसने झेली पीड़ा, गर्त वही जानता, रोता मैं शब्दों में ही, संवाद मुझे चुप कर जाते, बात कभी फिर बन जाती, तो संवारता आनेवाला कल, क्या कहता, स्वप्न भी छल, है यथार्थ भी छल ||३७|| मै तो जड़ हूँ, करता नीरव क्रंदन, नहीं करता हूँ दुःख का आबंटन, घोंघे की तरह अपने ही शंख में घुसा जीता हूँ, कटु-भाषा भी कभी मन को कर जाती वज्र सा अटल, क्या कहता, स्वप्न भी छल, है यथार्थ भी छल ||३८|| ये बहती भावनाएं क्या पसीजेंगीं पत्थर, झूठ नहीं, सच कहूँ, तो फोड़ देंगे सर, अच्छा होगा रो लें निशब्द, सर रख कर इन जड़ तकियों पर, चुप रह कर भी, क्या हम जायेंगे बहल, क्या कहता, स्वप्न भी छल, है यथार्थ भी छल ||३९|| जीवन का क्या भेद बताऊँ, जो दिखता है क्या उसे जताऊँ, प्यार मन भी है, शरीर भी, कोई गुलाब नहीं मरुस्थल का, दुःख तो शाश्वत है, सुख कभी मिल जाता है यूँ ही फिसल, क्या कहता, स्वप्न भी छल, है यथार्थ भी छल ||४०||

मन बावला फिर बोला

ऐसी भी होती है माया किसने जानी बीती यादों से इतना पानी बह गया जैसे सावन की मनमानी फिर ऋतुओं पर रंग चढ़ा जब आँखों पर कल श्रृंगार मढ़ा मरती नहीं है इच्छा, हो कितनी पुरानी ऐसी भी होती है माया किसने जानी ||१|| तुम दिखी क्षितिज में तो वही प्रणय है, साथ नहीं, फिर भी एक ह्रदय है मन तो स्वछन्द हुआ फिरता निर्भय है सपनों में अधर जुड़े सांसें भी तन्मय हैं तुम दूर ही सही पर स्पर्श तो है पहचानी ऐसी भी होती है माया किसने जानी ||२|| प्यार छिपा है किस वक्ष-स्थल में छू गया कुछ मखमली इस कोलाहल में आ जाओ साथ मेरे इस क्रीडा-स्थल में कुछ आँखों से कह लें इस पल में चिकुर जाल में उलझी है इस मन की एक कहानी ऐसी भी होती है माया किसने जानी ||३|| कैसे आँखों में अब आस संभालें इन मरी सीपों में नीर भरे मोतियों पर कितने कालिख ठहरे मन फिर भी रात गए मुस्कुराता उठ सुबह फिर आशाओं से टकराता कहता डूबते किनारे से, बाँध बनाले कैसे आँखों में अब आस संभालें ||४|| कितना जीवंत था इतिहास प्यार का स्पर्श, वही आभास आज ढूढता हूँ दूर कहीं वह पल खुली मुट्ठियों से फिसल जाता फिर कल आओ तुम्हे फिर वैसे ही गले लगा लें कैसे आँखों में अब आस संभालें ||५|| देख लो दोबारा उन आँखों से थाम लो ह्रदय गिरती शाखों से अपने जीवन का शुभ-सुन्दर जो छिपा तुम्हारे वक्ष के अन्दर उसे फिर से अपना भाग्य बना लें कैसे आँखों में अब आस संभालें ||६|| मै प्रायः अपने से पूछा करता सुन्दर, सागर सी विस्तृत मनवाली अन्तरंग में छिपी भोली-भाली वह एक-अकेली आँखों की प्यारी जीवन में छाई वसंत सी सारी फिर भी मन क्यों मुरझाया रहता मै प्रायः अपने से पूछा करता ||७|| उसे देख उमड़ती आशाएं तन-सघन मन खो जाता सपनों में दिन-गहन पहले समय परे अमरबेल सी लहराती अब देख मुझे विमुख क्यों हो जाती कल क्या था जो आज घुट-घुट मरता मै प्रायः अपने से पूछा करता ||८|| छूने का संघर्ष पुरुष की एक ही विधा वह तो है आदि से अंत तक फैली त्रिधा जब शरीर नहीं तो मन है कहाँ छिपा दुःख में भी हँसना है राम की कृपा पर निर्मोही संग सांस भी कैसे भरता मै प्रायः अपने से पूछा करता ||९|| मन टूटा, यह जान कर भी अनजान रहना मत पूछो सुख इतना क्यों सोता है दुःख रतजगा चाँद तले रोता है सर रख कर पल भर लेटूं किस गोद में झरते हैं आंसू कल के आमोद में उस सूखे वसंत की व्यथा कभी न कहना मन टूटा, यह जान कर भी अनजान रहना ||१०|| कितना मदिर घुला था उस चुम्बन में कहीं छिप गया वह खुमार मन में कहाँ ढूँढू मैं वह चाह पुरानी उथली आशाओं की भी है मनमानी दूर खड़ा हर स्पर्श की तपन है सहना मन टूटा, यह जान कर भी अनजान रहना ||११|| आरती की लौ पर शलभ जा जला उसे क्या पता तृष्णा कैसी है भला बीते सपने इतिहास बन मिट्टी सिधारे अब बची साँसों को हम क्या संवारें आह पुरानी, अश्रु पुराने, उनका तो तय है बहना मन टूटा, यह जान कर भी अनजान रहना ||१२|| फिर दुःख कैसा, है नयी यह कोई बात नहीं कितनी बार लहरों को लौटाया फिर भी किनारों पर थपेड़ें खाया निर्लज्ज लहरों सा है यह मन ढूंढ़ता हर खुली किवाड़ में अपनापन मन हंस हुआ, तो कहता कोई साथ नहीं फिर दुःख कैसा, है नयी यह कोई बात नहीं ||१३|| तुम्हे कल कितने रतजगों बाद पाया पाँव पड़े छले पर फिर घिरी तुम्हारी छाया तुम जीवन हुई, संगिनी बनी मेरी आज हँस लिए कल की बना ढ़ेरी दिन में झुलसी काया, पर मन रुका रात वहीँ फिर दुःख कैसा, है नयी यह कोई बात नहीं ||१४|| मन की बात कहूँ तो लगता है ताड़ बना शब्द छिप गए अब गहरे फाड़ मन का तना प्रणय पूछता, तिल में किसने है ताड़ छिपाया टपकी कहाँ है उल्का, आंखों में तो गगन समाया नियम तुम्हारे, बात तुम्हारी, बस हो गयी अब मात यहीं फिर दुःख कैसा, है नयी यह कोई बात नहीं||१५|| क्यों तुमने इस जीवन का इतिहास बनाया वह तो चुपचाप खड़ा था कोने में उलझा था मन की बात लिए रोने में उस पर एक बार फेर लेती अपना हाथ मन मूक क्या कहता व्यथा की बात आज स्पर्श भी उड़ उर में घना छाया क्यों तुमने इस जीवन का इतिहास बनाया ||१६|| पहले धीमे-धीमे कैसे उडती थी कस्तूरी अब वसंत भी गयी, बात भी रही अधूरी कुछ बीती बतियाते तो फिर जी लेते अपनी ही यादों को जीने की कथा सुनाते तुम भूली, पर मन तुम्हारे ही आँखों समाया क्यों तुमने इस जीवन का इतिहास बनाया ||१७|| सपने फिसले जैसे पत्तों से झरता पानी दुबका था वह कोने में, फिर कैसे बनी कहानी करवट लिये गीले नयनों में, किसने रचा यह खेल रात गयी वह बात गयी, अब व्यथा दिन की तू झेल झर जाने दो इन्हें नयनों से, उर में तो है सिन्धु समाया क्यों तुमने इस जीवन का इतिहास बनाया ||१८|| कर लो हिसाब अब तक कितने दुःख पाये जूते पहन ठोकर खाए तो चिल्लाता है जिसके नंगे पांव शूल चुभे वह इठलाता है आज तक गिर कर भी मन की नहीं समझ सका उसे देखते-मरते क्या एक भी पग नहीं थका नित सुबह उसे घूरते मन की कितने खाये कर लो हिसाब अब तक कितने दुःख पाये ||१९|| कितना भी दौड़ लगा, ठहरा सा लगता है जीवन कभी अधर सूखे, कभी आहों से भर जाता मन रस-रूप तो घना दिखा, पर इतिहास बन हाथों बैठा छल गया आज जीवन भी, शून्य में ही मन भारी ऐंठा हाथ न डोले, रस न घोले, देह रहे पथराये कर लो हिसाब अब तक कितने दुःख पाये ||२०|| जग ढूंढे आज भी, कौन हुआ रति का सिद्ध रस-रंग सब मिथ्या, फिर भी मन तो हुआ ऋद्ध कंठ हुआ मध्यम, आँखों में घन घिर आया कुछ तो समझो मै फिर तुम्हारी देहरी पर आया मधु के लिए तरसता, देखो पग भर छाले आये कर लो हिसाब अब तक कितने दुःख पाये ||२१|| अब छूटा जीवन, मेरा मत ध्यान करो समय चला पर मैं तुम तक ही ठहरा तुम्हें देखता हूँ इन आँखों में गहरा लगता है सब कुछ टूटा स्मृतियों में फिर तुम क्यों मेरा निर्माण करो अब छूटा जीवन, मेरा मत ध्यान करो ||२२|| प्यार बांचते कितनी सीमाए लांघ गए अब उर पर भी पत्थर बिछ गए तन-मन जीवन दब डूबा अधर तले फिर आशाओं का क्यों सम्मान करो अब छूटा जीवन, मेरा मत ध्यान करो ||२३|| मैं वही हूँ दशकों पुराना अकेला ताड़ रेत में उगा फिर उसे वहीं दिया गाड़ मरीचिका है सब प्यार शाश्वत कुछ नहीं फिर तुम खुद को न हैरान करो अब छूटा जीवन, मेरा मत ध्यान करो ||२४||