डॉ. अलका दूबे : खेल से साहित्य तक की आरोही यात्रा

डॉ. अलका दूबे भारतीय साहित्यिक परिदृश्य में एक ऐसा नाम हैं, जिनकी जीवन-यात्रा संघर्ष, साधना, संवेदना और स्वैच्छिक परिवर्तन की अनुपम मिसाल प्रस्तुत करती है। वाराणसी की सांस्कृतिक-साहित्यिक भूमि पर डॉ. अलका दूबे ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में न केवल अपनी पहचान स्थापित की, बल्कि हर पड़ाव पर यह सिद्ध किया कि प्रतिभा किसी एक दायरे में बँधकर नहीं, बल्कि अनुभवों की बहुलता में निखरती है। उनका जीवन दर्शन, लेखन और शोध कार्य भारतीय ज्ञान परंपरा, हिंदी की प्रवाहमयता, नारी चेतना, सामाजिक सरोकार और विशेष रूप से संत कबीर की विचारधारा के इर्द-गिर्द केंद्रित रहा है।

प्रारंभिक जीवन : ऊर्जा, खेल और अनुशासन का संस्कार

डॉ. अलका दूबे का जन्म 16 जून 1976 को उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले में हुआ। प्रारंभिक जीवन से ही उनके व्यक्तित्व में एक विलक्षण तेज, अनुशासन और नेतृत्व क्षमता के स्पष्ट संकेत दिखाई देने लगे थे। उनका बाल्यकाल सामान्य अध्ययन की सीमाओं से आगे, खेल साधना को समर्पित रहा। वे हॉकी और टेबल टेनिस की राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी रही हैं, जहाँ उन्होंने अपने अदम्य अभ्यास, रणनीतिक सूझ-बूझ और खेल भावना से राज्य और देश का प्रतिनिधित्व किया। हॉकी के मैदान में उनकी तीव्र गति, टीम-समन्वय और आक्रामक खेल शैली ने उन्हें विशिष्ट पहचान दी, वहीं टेबल टेनिस में उनकी एकाग्रता, रिफ़्लेक्स और मानसिक संतुलन ने उन्हें प्रतियोगिताओं में अग्रिम पंक्ति में स्थापित किया। खेलों से प्राप्त यह संस्कार आगे चलकर उनके जीवन के हर क्षेत्र में मार्गदर्शक सिद्ध हुआ—चाहे वह रेलवे सेवा हो, शोध अनुशीलन हो या काव्य-सृजन की सूक्ष्म साधना।

भारतीय रेल सेवा : राजभाषा, सम्मान और कर्तव्य की कर्मभूमि।

राष्ट्रीय खेल स्तर पर सक्रियता के बाद, डॉ. अलका दूबे ने आजीविका के रूप में भारतीय रेल को अपना कार्यक्षेत्र चुना और रेलवे सेवा में योगदान देते हुए भारतीय रेल विभाग में कार्यरत रहीं। यहाँ भी उनका व्यक्तित्व किसी सामान्य नौकरी तक सीमित नहीं रहा। कार्यरत रहते हुए उन्होंने रेलवे में राजभाषा (हिंदी) से संबंधित अनेक प्रतियोगिताओं में विजय प्राप्त की, जिसके माध्यम से उन्होंने हिंदी भाषा के प्रति अपने समर्पण और कौशल का प्रदर्शन किया। हिंदी में उनकी पकड़ केवल साहित्यिक नहीं, बल्कि व्यावहारिक, भाषायी, प्रशासनिक और सांस्कृतिक भी रही, जिसके कारण वे रेलवे के राजभाषा अभियानों और कार्यक्रमों में निरंतर पुरस्कृत और सम्मानित होती रहीं। रेलवे सेवा के दौरान ही उनके भीतर का साहित्यकार सक्रिय रूप से अंकुरित होने लगा। सरकारी कार्यप्रणाली में हिंदी के प्रचार-प्रसार, लेखन प्रतियोगिताओं में पुरस्कार, और रेल विभाग की हिंदी पत्रिकाओं में उनके लेख प्रकाशित होना यह सिद्ध करता है कि वे हिंदी को केवल साहित्यिक भाषा नहीं, बल्कि कर्म, संपर्क और लोक-व्यवहार की भाषा मानती रही हैं।

कार्यरत जीवन में सम्मान पाने के बावजूद, वे अपने भीतर एक गहन बेचैनी महसूस करती रहीं—एक ऐसी पुकार, जो उन्हें नौकरी से आगे किसी बड़े उद्देश्य की ओर बुला रही थी। यही वह समय था, जब उन्होंने यह निश्चय किया कि अब जीवन का अगला अध्याय भाषा-साहित्य-शोध को समर्पित होगा।

शैक्षणिक यात्रा : हिंदी साहित्य और कबीर पर शोध की साधना

साहित्य के प्रति बचपन से रुचि रखने वाली डॉ. अलका दूबे ने रेलवे सेवा के दौरान ही हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूर्ण की। यह निर्णय अपने आप में असाधारण था, क्योंकि वे नौकरी के कठोर अनुशासन और दायित्वों के बीच अध्ययन-साधना को साथ लेकर चल रही थीं।

स्नातकोत्तर के बाद उन्होंने हिंदी के महान संत-कवि कबीरदास को अपने शोध का केंद्र बनाया और उन पर गहन अनुसंधान करते हुए डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। कबीर का साहित्य, दर्शन और सामाजिक क्रांति उनकी वैचारिक पहचान का प्रमुख आधार बना।

कबीर पर शोध केवल एक शैक्षणिक उपलब्धि नहीं थी, बल्कि उनके जीवन का एक वैचारिक रूपांतरण भी था। कबीर की सहजता, निर्भीकता, सत्य का आग्रह, पाखंड का विरोध, लोक-चेतना का स्वर और भाषा की धारा-प्रवाहता—ये सभी तत्व उनके लेखन और व्यक्तित्व में स्थायी रूप से समाहित हो गये।

डॉ. दूबे कबीर के विचारों की केवल अध्येता नहीं, बल्कि कबीर-विचार की संवाहिका और विशिष्ट वक्ता भी हैं। कबीर पर विशिष्ट वक्तव्य देना उनकी प्रमुख विशेषता है। वे कबीर को मात्र संत-कवि नहीं, बल्कि भारतीय समाज की आत्मा का अखंड, निर्भीक और समयातीत स्वर मानती हैं।

साहित्यिक सक्रियता : स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति और काव्य-सृजन की साधना।

साहित्य की पुकार को सर्वोपरि मानते हुए उन्होंने भारतीय रेल सेवा से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली और अपने जीवन को पूर्णतः काव्य-सृजन, शोध, संपादन, ब्लॉगिंग और हिंदी साहित्य के प्रचार-प्रसार को समर्पित कर दिया। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने हिंदी कविताओं की पुस्तक "आरोह" की रचना की, जो उनकी जीवन यात्रा की भाँति ही नीचे से ऊपर की ओर उठती हुई चेतना, नारी-संवेदना, प्रकृति-दर्शन, प्रेम-अनुभूति और जीवन-गणित का काव्यात्मक दस्तावेज़ है। "आरोह" केवल कविताओं का संग्रह नहीं, बल्कि अनुभवों की ऊर्ध्वगामी यात्रा का रूपक है—जहाँ खेल का अनुशासन, जीवन का गणित, स्त्री-मन की चेतना और कबीर का निर्भीक स्वर एक साथ ध्वनित होता है।

उनका लेखन मंचों तक सीमित नहीं है, बल्कि वे डिजिटल माध्यमों पर भी सक्रिय हैं। वे एक प्रतिष्ठित कवियित्री, साहित्यकार, ब्लॉगर, वेबसाइट संचालिका, और कंटेंट राइटर के रूप में हिंदी साहित्य की सेवा में निरंतर संलग्न हैं।

प्रकाशन और साहित्यिक उपस्थिति।

डॉ. अलका दूबे की रचनाएँ देश की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं और संग्रहों में प्रकाशित हुई हैं, जिनमें प्रमुख हैं:

महादेवी वर्मा सम्मान – विश्व हिंदी शोध संवर्धन अकादमी द्वारा प्रदत्त।
सुबह-ए-बनारस द्वारा सम्मानित।
प्रज्ञा श्री सम्मान – प्रज्ञा श्री फाउंडेशन द्वारा प्रदत्त।
बनारस लिट्फेस्ट द्वारा सम्मान प्राप्त।
भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (ICCR) द्वारा प्रकाशित पत्रिका गगनांचल में कविताएँ प्रकाशित।
विश्व हिंदी शोध संवर्धन अकादमी द्वारा प्रकाशित पुस्तक नयी सदी के स्वर में रचना प्रकाशित।
कवितांबरा पत्रिका में रचना प्रकाशित।
पूर्वोत्तर रेलवे की आधिकारिक पत्रिका में कबीर और तुलसी के राम विषयक रचना प्रकाशित।
काशी कवयित्री विशेषांक प्रेमचंद पथ में रचना प्रकाशित।
पूर्वोत्तर रेलवे द्वारा आयोजित राजभाषा कार्यक्रमों में पुरस्कृत एवं सम्मानित।

ये सभी उपलब्धियाँ यह सिद्ध करती हैं कि उनका लेखन केवल व्यक्तिगत अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि हिंदी भाषा, भारतीय दर्शन और नारी चेतना का सशक्त सार्वजनिक स्वर है।

डिजिटल उपस्थिति और संपर्क माध्यम।

डॉ. अलका दूबे आधुनिक समय में हिंदी साहित्य को जन-जन तक पहुँचाने के लिए डिजिटल माध्यमों का सक्रिय उपयोग कर रही हैं। उनके प्रमुख ऑनलाइन मंच:

Facebook Page : साहित्यिक विचार, कविताएँ और विमर्श
Instagram : @dr.alkadubey – काव्य और विचार का मंच
Amazon पर उपलब्ध पुस्तक "आरोह"
ब्लॉग : hindihainhum166 – हिंदी, समाज और साहित्य पर नियमित लेखन
व्यक्तिगत वेबसाइट : dralkadubey.com – साहित्य, शोध और काव्य का आधिकारिक मंच।

लेखन में प्रमुख स्वर : प्रकृति, स्त्री, दर्शन और जीवन का गणित।

डॉ. अलका दूबे की कविताओं में जीवन के सूक्ष्म अनुभव दार्शनिक विस्तार के साथ प्रकट होते हैं। वे प्रकृति को गणित, दर्शन और जीवन-चक्र के रूप में देखती हैं। उनके काव्य में यह प्रश्न बार-बार उभरता है—“क्या बदला नहीं है? क्या नहीं बदलेगा?”—जो उनके जीवन दर्शन का केंद्रीय सूत्र भी है।

वे स्त्री-अस्तित्व पर अत्यंत संवेदनशीलता और वैचारिक दृढ़ता के साथ लिखती हैं। उनकी कविता “सिद्धार्थ ने छोड़ा घर तो बुद्ध हो गये, पर घर छोड़ती स्त्री खो देती है पहचान” यह स्पष्ट करती है कि वे सामाजिक संरचनाओं में नारी-पहचान की विसंगतियों को निर्भीक स्वर में उद्घाटित करती हैं।

उनका काव्य यह भी बताता है कि कठिन से कठिन जीवन-अनुभवों के पीछे प्रकृति का एक सरल, सहज और प्रत्यावर्ती गणित काम करता है—जो मनुष्य को वही लौटाता है, जो उसने प्रकृति को दिया है।

डॉ. अलका दूबे का जीवन यह सिद्ध करता है कि—

खेल मनुष्य को ऊर्जा और अनुशासन देता है।
सेवा मनुष्य को कर्तव्य और समाज से जोड़ती है।
शोध मनुष्य को विचार और गहराई देता है और काव्य मनुष्य को संवेदना और अमरता का स्वर देता है।

वे इन चारों आयामों का सुंदर समन्वय हैं। वे हिंदी साहित्य की धारा-प्रवाहता, भारतीय दर्शन की गहनता, और नारी चेतना की निर्भीकता का प्रतिनिधित्व करती हैं।

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