धूसर पांडुलिपि (ধূসর পাণ্ডুলিপি) : जीवनानंद दास; अनुवादक - समीर वरण नंदी/सुशील कुमार झा


धूसर पांडुलिपि : अनुवादक - समीर वरण नंदी

मौत से पहले

हमलोग जो पैदल चले हैं, निर्जन खर-खेत पतवार में पौष की संध्या में, देखा है खेत के पार नरम नदी की नारी को फूल बिखेरते कुहासे में जाने कब की गाँव टोले की लड़कियों की तरह जैसे वे हम लोग देखे हैं जो अन्धकार में आकंठ धुँधला जुगनुओं से भरा, जिस खेत में फ़सल नहीं उसकी जड़ में चुपचाप खड़े चाँद को ऐसे जैसे फ़सल के पास भी उसकी कोई इच्छा नहीं। हम लोग जो बैठे हैं, अन्धकार में जाड़े की रात बेहतर जानकर, फूस की छत पर सुना है हमने जो मुग्धरात में डैने का संचार पुराने उल्लू की घ्राण, अन्धकार में फिर कहाँ खो गयी। जानी है हमने जाड़े की अपरूप रात, गहरे आह्लाद से- खेत-खेत डैना तैराने की अश्वत्थ की डाल-डाल पर पुकार रहे बगुले हम लोग जिन्होंने जाना है जीवन का यह सब निभृत कुहक। हम लोग जिन्होंने देखा है शिकारी की गोली से बचकर दिगन्त की नभ्र नील ज्योत्स्ना में उड़ जाते बनहंसों को, हम लोग जो प्यार से धान की बाली पर हाथ रखते हैं, संध्या के काक की तरह आकांक्षा लिए हम लोग जो फिरे हैं घर में, शिशु मुख की गन्ध, घास, धूप, सोनमछली, नक्षत्र, आकाश हम लोगों ने पाये हैं घूम-फिर कर इन्हीं के चिह्न बारहों मास। हम लोगों ने देखे हैं हरे पत्ते को गन्ध के अंधेरे में पीले पड़ते, हिजल लता के जँगले पर प्रकाश और बुलबुलों का खेल, जाड़े की रात में चूहे रेशम की तरह रोम में कण खाते, चावल की धूसर गन्ध लहर रूप में होकर झरती है दोपहर निर्जन मछली की आँख में, पोखर पार हंस संध्या के अंधेरे में मिली नींद की गन्ध मैले हाथों का स्पर्श ले गया उसे। मीनार की तरह मेघ, सुनहली चील का उसके जँगले पर रही पुकार बेंत झाड़ के नीचे गौरैयों के अण्डे जैसे नीले पड़ गये नरम गन्ध से नदी बार-बार किनारे को मलती है खर के छानी की छाया गहम रात की चाँदनी के मैदान में पड़ रही है हवा में झीं-झीं की गन्ध-उजली हवा में बैशाख के प्रान्तर में नीली तोरी के छाती में गाढ़ा रस, गहरी आकांक्षा में दिखाई देते हैं। हम लोग जिन्होंने देखेहैं, निबिड़ बरगद के तले लाल-लाल फल गिरे, निर्जन खेतों का निचाट मुख देखते नदी में जितने नील आकाश हैं वे खोजते-फिरते हैं और कभी नीले आकाश का तल जहाँ तहाँ देखता हूँ, मीठे नैन छाा डालती है पृथ्वी पर, हम लोग जिन्होंने देखे हैं सुपारी की सीढ़ी चढ़ आती है रोज़ संध्या रोज़ सुबह होती है धान की बाली-सी हरी सहज। हम लोग जो समझते हैं, जो बहुत दिन, माह, ऋतु उपरान्त पृथ्वी की वही कन्या पास आकर अन्धेरे में नदी की बात कहती है, हम लोग समझे पथ-घाट-माठ में और भी एक रोशनी है, जिसकी देह पर है शाम की धूसरता, हाथ छोड़कर आँखों से देखने वाली वह रोशनी खड़ी है स्थिर पृथ्वी की कंकावती नदी बहकर पाती है वहाँ म्लान धूप की देह, मरण से पहले और क्या जानना चाहते हैं हम लोग, क्या जानते नहीं? सारी रंगीली कामना की नस में दीवार की तरह खड़ी हो जाती है- धूसर मृत्यु का मुख, एक दिन पृथ्वी पर स्वप्न था-जो सोने से थे, निरूत्तर शान्ति है, जाने कौन मायावती के प्रयोजन के लिए। और क्या जाना है, धूप उतरने पर नन्हें परिन्दों की पुकार सुना नहीं? प्रान्तर के कुहासे में देखा नहीं उड़ गया कौन?

बोध

उजाले-अँधेरे में जाता हूँ-माथे के भीतर स्वप्न नहीं, कोई एक बोध काम करता है, स्वप्न नहीं-शान्ति नहीं-प्रेम नहीं, हृदय में एक बोध जन्म लेता है, मैं उसे हटा नहीं पाता वह मेरे हाथ को रखता अपने हाथ में सब कुछ तुच्छ पशु लगता है- समस्त चिन्ता-प्रार्थना का पूरा समय शून्य लगता है शून्य लगता है कौन चल पाता है सहज आदमी की तरह? कौन रुक पाया है इस उजाले अँधेरे में सहज आदमी की तरह, उसके जैसी भाषा, बात कौन कर पाता है, कोई निश्चय कौन जान पाता है देह का स्वाद उसके जैसा चाहता ही कौन है जानना प्राणों का आह्लाद। उसकी तरह कौन पायेगा सब जैसे बीज बोकर तत्काल फूल जाना चाहते हैं। पर उसमें ऐसा स्वाद कहाँ देह में माटी की गन्ध लीपे देह में पानी की गन्ध लीपे उत्साह से रोशनी की ओर देखकर किसान का कलेजा लेकर और कौन रहेगा जगा पृथ्वी पर? स्वप्न नहीं-शान्ति नहीं-कोई एक बोध काम करता है दिमाग़ में। इधर-उधर राह चलते करना चाहता हूँ, उसकी उपेक्षा मारकर कपाल-क्रिया कर देना चाहता हूँ पर जीवन माथे की तरह वह घूमता रहता है तब भी वह दिमाग़ में हर घड़ी, तब भी आँख में वह हर घड़ी तब भी वह दिल में हर घड़ी चलता हूँ तो वह साथ-साथ हो लेता है। मैं रुकता हूँ- वह भी रुक लेता है, सबके बीच बैठकर भी मैं अपने ही मुद्रा दोष के कारण अकेला हो जाता हूँ सबसे विलग? मेरी आँख में केवल धुंध? मेरे रास्ते में केवल बाधा? पृथ्वी पर जन्मे हैं जो सन्तान के रूप में- वे और सन्तानों को जन्म देते-देते जिनके बीत गये हैं वक़्त या सन्तान पैदा करनी पड़ती ही है जिनको या पृथ्वी के खेत में बीज होते आ रहे हैं जो पैदा करेंगे...पैदा करेंगे करते जाते हैं जो क्या उनकी ही तरह दिल और दिमाग़ मेरा भी है क्या? फिर क्यों हूँ इतना एकाकी? फिर यह कैसा एकाकीपन क्या मैंने जोता नहीं खेत हाथ में लेकर हल बाल्टी उठाये खींचा नहीं जल? हँसुआ लेकर गया नहीं खेत? मछुआरों की तरह घूमता-फिरा हूँ कितने नदी घाट पोखर की जलकुम्भी, काई, घोंघे की गन्ध से महकी नहीं मेरी देह? ये सारे स्वाद, इन्हें पाया है मैंने भी हवा की तरह अबाध बहा है जीवन, नक्षत्र के नीचे लेटकर, सुलाकर मन। एक दिन, ये इच्छाएँ जानी हैं एक दिन-अबोध-अगाध, चला गया हूँ ये सब छोड़-छाड़, देखा है स्त्री की अवहेलना कर देखा है स्त्री को घृणा कर, वह मेरे क़रीब आकर प्यार की, मेरी उपेक्षा कर चली गई, बार-बार बलाने पर भी घृणा से चली गई, फिर भी की साधना तो प्यार की ही की उसकी उपेक्षा की भाषा की उसकी घृणा के आक्रोश की अवहेलना ही की यह कहकर कि ये सब ग्रह हैं, ग्रह-दोष हैं मेरे प्यार के रास्ते में उसने दी बार-बार बाधा इसे मैं गया भूल, फिर भी वह प्यार-रहा कीचड़ और धूल। अब दिमाग़ के अन्दर स्वप्न नहीं-प्रेम नहीं-कोई एक बोध काम करता है। सब देवताओं को छोड़कर लौट आता हूँ अपने प्राणों के पास, अपने हृदय से मैं कहता हूँ- क्यों वह पानी की तरह घुमड़-घुमड़ कर अकेला अपने आप से ही बातें करता है? क्या तुम्हें नहीं कोई अवसाद? रहना आता नहीं शान्ति के साथ? कभी सोयेगा नहीं, चुप सो रहने का स्वाद कभी पायेगा या नहीं नहीं पायेगा आह्लाद? मनुष्य का मुख देखकर मानुषी का मुख देखकर। शिशु का मुख देख कर भी? यह बोध-केवल यही स्वाद पाया वह अगाध-अगाध। संसार छोड़कर आकाश में नक्षत्र-पथ नहीं जाने के वास्ते खाई थी उसने शपथ- देखेगा वह मनुष्य का मुख? देखेगा वह मानुषी का मुख? देखेगा वह शिशु का मुख? उसके आँख की काली शिराओं में ताप उनके कान की बधिरता, मांस के लोथड़े-सी उसकी कूबड़ (यहाँ कवि के अपाहिज पुत्र की ओर संकेत है) सड़े भतुए के छिलके जैसी शक्ल, सड़े खीरे-सा जो कुछ भी मेरे हृदय को मिला वह सब देखूँगा...

निर्जन साक्षर

तुम वह सब नहीं जानती-नहीं जानने पर भी मेरे सारे गीत तुम्हारे लिए हैं, जब झर जाऊँगा हेमन्त के सर्द झोंके में- रास्ते के पत्ते की तरह तब भी तुम मेरी छाती पर सोयी रहोगी? गहरी नींद के घर तृप्त होगा तुम्हारा मन! तुम्हारे इस जीवन की धार क्षय हो जायेगी सब उस दिन? मेरी छाती पर उस रात जमा था जो केवल शिशिर का जल तुम भी केवल क्या यही चाहती थी? उसका स्वाद तुम्हें शान्ति देता? मैं तो झर जाऊँगा-पर अगाध जीवन तुम्हें थामे रखेगा उस दिन भी पृथ्वी पर -मेरे सारे गीत तुम्हारे लिए हैं। हरे मैदान में घास में- आकाश में बिखरा है नीला होकर आकाश-आकाश में, इसके बावजूद जीवन का रंग और क्या खिलाया जा सकता है वे सब छूने-पहचानने पर! एक अजब विस्मय जो पृथ्वी में नहीं रहा-आकाश में भी नहीं उसका स्थान नहीं पहचान पाता उसे समुद्र का जल सारी-सारी रात नक्षत्र के साथ चलकर भी उसे मैं नहीं पाता, किसी एक मानुषी के मन में किसी मनुष्य के भीतर वह चीज़ जो जीवित रहती है हृदय के गहरे गहवर में- नक्षत्र से भी चुप किसी ख़ामोश आसन पर एक मानुषी के मन में, एक मनुष्य के भीतर। एक बार कहकर देश और दिशाओं का देव गूँगा हो पड़ा रहता है-भूल जाता बतियाना, जो आग जल उठी थी-उनकी आँखों के भीतर बुझ जाते हैं, डूब जाते हैं, मिट जाते हैं। फिर पैदा होती नई आकांक्षा, आ जाता नया समय- पुराने नक्षत्रों के दिन बीत जाते नए आ रहे हैं-जानकर भी मेरी छाती से फिर भी क्या गिरा फिसल कर किसी मानुषी के अन्दर? जो प्रेम को पुरोहित बनकर जलाये हैं-छाती के भीतर मैं वही पुरोहित हूँ-वही पुरोहित। जो नक्षत्र मर जाते हैं, उसकी छाती की ठंडक लगती है मेरी देह में- जो तारे जगे हुए हैं उसकी ओर मुँह किये जागी हुई हो तुम- जैसा आकाश जल रहा है उसी तरह मन के आवेग से जागी हुई हो- कोई फै़सला सुनाती हुई तुम हो गई हो-निश्चिन्त। होता रहता है आकाश के नीचे प्रकाश और अग्नि का क्षय, कितने वर्तमान बन जाते व्यथित अतीत- फिर भी छू नहीं गई तुम्हारी छाती को जो नक्षत्र झरते हैं उसकी उदासी जगी हुई पृथ्वी, उनकी घास-तुम्हारा आकाश। जीवन स्वाद लिए जगी हुई हो तुम, क्या मृत्यु की व्यवस्था तुम मुझे दे पाओगी? अपने आकाश में तुम उष्प बनी रहती हो तब भी- बाहरी आकाश के शीत में नक्षत्र होरहे हैं क्षय, नक्षत्र जैसे वक्ष- गिर रहे हैं झर झर क्लान्त हो-होकर-शिशिर कीतरह टप....टप!... तुम नहीं जानती उनका स्वाद- तुम्हें तो बुलाते हैं जीवन अबाध, अगाध जीवन। मैं जब हेमन्त की वर्षा में बरसूँगा, रास्ते के पत्ते की तरह तब भी तुम मेरी छाती में सोयी रहोगी? गहरी नींद के घर में तृप्त होगा तुम्हारा मन! तुम्हारे इस जीवन की धार क्षय हो जायेगी सब उस दिन? मेरी छाती पर उस रात जमा था जो शिशिर का जल- तुमने भी क्या केवल यही चाहा था- उसका स्वाद तुम्हें शान्ति देता। मैं तो हार जाऊँगा-पर अगाध जीवन तुम्ळें रखेगा धरे उस दिन भी पृथ्वी पर- मेरे सारे गीत तुम्हारे लिए हैं।

अवसर का गान

1. नींद ले रही है भोर की धूप धान पर शीश रखे यहाँ कार्तिक के खेत में शांत गाँव की तरह मैदान की घास की गंध उसकी छाती में- आँखों में उसकी शिशिर की महक देह के स्वाद की कथा कहती, उसके स्वाद के अवसाद से पक उठा है धान। शाम कोप्रकाश आकर नष्ट कर देगा उसकी साध का समय। चारों ओर अब सुबह- धूप का नरम रंग शिशु के गाल की तरह लाल, मैदानी घास पर शैशव का घ्राण- गाँव-टोले के रास्तों पर क्लान्त उत्सव का आया है आह्वान। चारों ओर झुक आई फ़सल, उसके स्तनों से बूँद-बूँद टपक रहा है शिशिर का जल, दूर-दूर तक फैली सरसों की गंध रह-रह कर तिरती आ रही उल्लू और चूहों की बू से भरे हमारे भण्डार के देश में। झुक आती है देह-धूप यहाँ धान की लाली बनकर धूप आकर चली जाती है उसके होंठों को चूमकर। आह्लाद के अवसाद से भर उठता है मेरा शरीर, चारों ओर छाया, धूप, खण्ड कण, कार्तिक की भीड़ आँख की पूरी भूख मिट जाती है यहाँ, हो रहा है यहाँ स्निग्ध कान मोहल्ले टोले की देह पर लगी हुई है आज रूपशाली-धान बनाती रूपसी के देह की गन्ध। मैं उसी सुन्दरी को देख लेता हूँ-झुकी हुई है नदी के इस पार प्रसव में अब देर नहीं-रूप छलक पड़ता है उसका- शीत आकर नष्ट कर जायेगी उसे। फिर भी आज चुकी नहीं साल की नयी उम्र खेत-खेत में झर रहा कच्ची धूप हाँड़ी का रस मधुमक्खी की गुनगुन की तरह यूँ ही हो रही है आवाज़ बहुत सुबह धूप की बेला में, अलसाई आभा की बेला। पेड़ की छाँव तले मदिरा पर किस भांड ने रचा था छन्द। उसकी सारी कविता को आज पढ़ा जायेगा, आखि़री पन्ने तक राज्य-जय और साम्राज्य की बातें भूलकर माटी के ढेरों तले जो मद दबा है निकाल लेंगे उसकी शीतलता बुला लेंगे मोहल्ले-टोले की विवाहयोग्य कन्याओं को। मैदान की ढलती धूप में नाच होगा- शुरू होगा हेमन्त का स्निग्ध उत्सव। हाथ में हाथ लिए गोल चक्कर में घूम-घूमकर कार्तिक की मीठी धूप में हमारा मुख झुलसेगा बाली धान की गदराई बाली के रंग और स्वाद से भर जायेगी हम सबकी देह न होगा कोई नाराज़ हमें देखकर, कोई नहीं जलेगा भुनेगा हमें देखकर- हमें फुर्सत नहीं है ज़्यादा प्रेम और आह्लाद का अलस समय हम लोगों का बीत जाता है सबसे पहले दूर, नदी की तरह पुकार का एक अन्य घ्राण-अवसाद बुला लेता है हमें और उठा देता है हमें थका सिर और सुस्त हाथ। तब सरसों की गंध खेत से उड़ जाती है धूप गिरने पर। आई है शाम अपनी शान्ति, सादे राह धरे, तब रुक जाता है आलसी गाँव वालों के खेत का तमाशा- हेमन्त का प्रसव हो गया है, आखि़री सन्तान सफे़द मरे हरसिंगार के बिछौने पर, शराब की बूँद ख़त्म हो गयी है इस खेत की मिट्टी के भीतर सारी हरी घास हो गई है सफे़द, हो गया है आकाश धवल, चला गया है गाँव-टोलों की अविवाहित युवतियो ंका दल! 2. बूढ़े उल्लू कोटर से बाहर निकल आये हैं अंधकार को देखकर मैदान के मुख पर, हरे धान के नीचे-माटी के भीतर चले गये हैं चूहे झोपड़ी से चले गये हैं खेतिहर, सरसों के खेत के पास आज रात हममें जागी है पिपासा उर्वर समतलों पर हम लोग खोजते नहीं हैं मरने का स्थान, प्रेम और उसकी चाहत का गान हम लोग गाते-फिरते हैं मोहल्ले-टोले में भांड़ों जैसे धान की फ़सल में जिनका लगा रहता है मन और जो उपेक्षा कर सकते हैं साम्राज्य की जो अवहेलना कर गये हैं पृथ्वी के सारे सिंहासन- हम लोगों के मोहल्ले के वे सारे भांड़- युवराज और राजाओं के हाड़ में जिनके धुल गये हैं हाड़ अंधकार में ढेरों माटी के नीचे पृथ्वी के तल में, दीये की तरह वे निःश्वास जलते हैं बीत नहीं गया उनका समय, पृथ्वी के पुरोहित की तरह उन्हें हुआ नहीं भय, प्रणयिनी की तरह वे हुई नहीं हृदयहीन शहर की लड़कियों के नाम कविता लिखकर खेतिहरों की तरह माथे के पसीने से क्लान्त हो उन्होंने काटा नहीं बिताया नहीं समय गहरी माटी में उनका कपाल किसी एक सम्राट के साथ मिला हुआ है आज अँधेरी रात में, युद्ध जीते हुए पाँच फुट ज़मीन पर आज उसकी खोपड़ी करती है अट्टहास! गहरी रात से पहले आकर वेचले गए हैं- उनके दिन का प्रकाश बदल गया है अँधेरे में। ये सारे देहाती कवि गाँव-टोले के भांड- आज इस अंधकार में आयेंगे क्या फिर? उनकी उपजाऊ देह को चूसकर जन्मी है आज खेत में फ़सल, बहुत दिनों से उस गंध को वे चूहे जानते हैं-समझते हैं नरम रात के हाथ झरता है शिशिर का जल। वे सारे उल्लू आज शाम की निश्छलता देखकर अपने ही नाम पुकारे जाते हैं बार-बार मिट्टी केनीचे से वे मृतकों के माथे स्वप्न में हिलते-डोलते करते हैं क्या अद्भुत इशारे ये अंधकार के मच्छर और नक्षत्र जानते हैं। हम भी आये हैं खेत में फ़सल के बुलावे पर सूर्य लोक भरा दिन छोड़कर, पृथ्वी के यश को पीछे फेंककर शहर, बन्दर, बस्ती, कारख़ाना, दियासलाई की तीली से जलकर उतर आये हैं इस खेत में शरीर का अवसाद और हृदय का ज्वर भूल जाने के लिए शीतल चाँद की तरह शिशिर के गीले पथ धर कर हम चलना चाहते हैं फिर मर जाना चाहते हैं दिन मेंप्रकाश के लाल-लाल आग के मुख में जलते हैं पतंगों-से अगाध धान के रस में हम लोगों का मन हम लोग मरना चाहते हैं गँवई कवि मोहल्ले-‘टोले की भांड जैसे। मिट्टी पलटकर चला गया खेतिहर या हल उसका पड़ा हुआ है- पुरानी प्यास जागी हुई है खेत की समय की हाँक लगाता है-हमारे भीतर उल्लू फलता है हेमन्ती धान दोनों पाँव फैलाकर बैठे पृथ्वी की गोद में। आकाश के मीठे पथ पर रुक-रुक कर तिरता जाता है चाँद अवसर है उसका-अबोध की तरह आह्लाद भरा हमारा अन्त होने पर वह चला जायेगा पच्छिम इतना ही समय बचा है इसलिए यह बीत जाए रूप और कामना के गीत गाते। 3. कटे खेत की गन्ध से यहाँ का भंडार भरा है। पृथ्वी की राह कुछ नहीं है, किसी किसान की तरह ज़रूरत नहीं दूर खेतों में जाना बोध अवरोध क्लेश कोलाहल भी सुनने का समय नहीं। नहीं जानना चाहता सम्राट सजे हैं या भांड बने हैं कहीं फिर बेबीलोन टूटकर चूर-चूर हो जाता है मेरी आँख के पास लाना नहीं सैनिकों के मशाल की ज्योति नगाड़े रो लें, उल्लू के पंख की तरह अन्धकार में छुप जाय राज्य, साम्राज्य के साथ यहाँ कोई काम नहीं-उत्साह की व्यथा नहीं उद्यम की नहीं, यहाँ मिट गयी है माथे की गहरी उत्तेजना और भावना आलसी मक्खियों की भिनभिन से भरी होती है खीज भरी सुबह। पृथ्वी मायावी नदी के पार का देश लगती है सुबह की पड़ती धूप चारों ओर से दौड़ती यहाँ जम जाती है ग्रीष्म के समुद्र से आँखों में उनींदे गीत तैर आते हैं यहाँ पलंग पर सोये-सोये बिताऊँगा कुछ दिन नींद की कामना में जगा रहकर। यहाँ चकित होना नहीं पड़ेगा, भयग्रस्त रहने का नहीं समय उद्यम की व्यथा नहीं-यहाँ नहीं है उत्साह का भय यहाँ आकर काम को हाथ नहीं लगाना पड़ता माथे पर चिन्ता की लकीर नहीं पड़ती यहाँ सौन्दर्य आकर रखेगा नहीं हाथ आँख और आँख के ऊपर नहीं मिलेगा प्यार सोचने का कीड़ा मर गया है यहाँ माथे के भीतर आलसी मक्खियों की भिनभिन से भरी होती है खीज भरी सुबह पृथ्वी मायावी नदी के पार का देश लगती है सुबह की पड़ती धूप चारों ओर से दौड़ती यहाँ जम जाती है ग्रीष्म के समुद्र से आँखों में उनींदे गीत तैर आते हैं यहाँ पलंग पर सोये-सोये बिताऊँगा कुछ दिन नींद की कामना में जग कर...

कैंप में

यहाँ वन के पास कैंप लगाये पड़ा हूँ। सारी रात दखिनी हवा में आकाश से चाँद की रोशनी में एक घाई (नागालैण्ड में पाया जाने वाला विशेष हिरण) हिरनी की पुकार सुनाई देती है- किसे पुकारती है वह? कहीं हिरनों का शिकार हो रहा है, वन में आज आये हैं शिकारी मुझे भी उनकी गन्ध आ रही है, बिस्तर पर पड़े-पड़े नींद नहीं आती बसन्त की रात। चारों ओर वन का विस्मय, चैती बयार चाँदनी की रसीली देह, एक घाई हिरनी पुकारती है सारी रात, घने वन में जहाँ उजाला नहीं होता वहाँ से नर मृग उसकी पुकार सुनते हैं, टोह लेते हुए उसकी तरफ़ आते हैं। आज इस विस्मय भरी रात में उनके प्रेम की है घड़ी उनके मन की सखी वन की आड़ लिए-लिए उन्हें बुला रही है चाँदनी में गन्ध और आस्वाद में घुली पिपासा की शान्ति के लिए। कहाँ है बाघ की माँद यह भी नहीं याद, हिरनों के सीने में आज कहीं नहीं ख़ौफ़ नहीं रही संदेह की धूप-छाँह, केवल पिपासा है केवल रोमांच। आज जैसे हिरनी के रूप से चीते की छाती भी विस्मृत है, लालसा, आकांक्षा के साथ प्रेम स्वप्न साकार होते दिखाई देते हैं आज इस बसन्ती रात में, ऐसी है मेरी रात। एक-एक आ रहे हैं हिरन वन का पथ छोड़कर, पानी के शब्द को पीछे फेंककर एक नये आश्वासन की खोज में दाँत-नख की बात भूलकर वन के पास सुन्दरी के पेड़ तले-ज्योत्स्ना में, जैसे मनुष्य आता है स्त्री की नमकीन गन्ध पाकर वैसे ही वे आ रहे हैं। उनका संकेत पा रहा हूँ उनके पाँव की आवाज़ सुनाई पड़ती है इधर चाँदनी में घाई हिरनी पुकारती है। सो, नहीं पाता मैं कि सोये-सोये बन्दूक की आवाज़ सुनता हूँ, फिर बन्दूकें दग़ती हैं चाँद की चाँदनी में घाई हिरनी फिर पुकारती है... हृदय में अवसाद ने जन्म ले लिया है यहाँ अकेला पड़ा रह-रहकर गोली की आवाज़ सुन-सुनकर हिरनों की पुकार सुन-सुनकर। कल लौटेगी हिरनी सुबह के प्रकाश में वह देखेगी- आस-पास मरे पड़े हैं अपने सारे प्रेमी। मनुष्यों ने उन्हें यही दिखाया और सिखाया है। फिर मैं अपने भोजन की थाली में हिरन की गन्ध पाऊँगा ...फिर मांस खाना होगा ख़त्म? ...क्यों होगा? इन हिरनों की बातें सोचकर मैं क्यों दुखी होता हूँ किसी ने बसन्त की विस्मय रात में मुझे भी तो बलाया नहीं, ज्योत्स्ना में- दखिनी हवा में उसी घाई हिरनी की तरह? मेरा मन है एक नर मृग- दुनिया की हिंसा चीते की आँख का आतंक सुन्दर चमकने की सब बातें भूलकर क्या चाहा नहीं था मैंने भी कि खुद को तुम्हें सौंप दूँ? मेरे हृदय का प्यार इसी मृत मृगी की तरह है। मर कर धूल में सन गये हैं सारे मृग और उसी मृगी की तरह तुम भी क्या बच नहीं गई थी? जीवन की विस्मय रात एक किसी बसन्ती रात में। तुमने किससे सीखा। मृत पशुओं की तरह अपना हाड़-मांस लेकर हम लोग भी पड़े रहते हैं? दुःख और वियोग लिए मृत्यु द्वार पर उस मृत मृग की तरह पड़े रहते हैं प्रेम साहस साध और स्वप्न के साथ जीवित रहना बड़ा दुखता है, मैं भी घृणा और मृत्यु नहीं पाता क्या? चलती है दुनाली। घाई हिरनी पुकारती है, मेरी आँखों में नींद नहीं सोया रहकर नितान्त अकेला आहिस्ता-आहिस्ता भुला देनी पड़ती है बंदूक और आवाज़ शिविर में बिस्तर पर रात अपनी दूसरी ही कथा कहती है, जिनकी दुनाली से हिरन मर जाते हैं- हिरन का हाड़-मांस स्वाद और तृप्ति आई है जिनकी थाली में वे भी तुम्हारी तरह हैं, शिविर के बिस्तर पर नींद में सूख रहा है हृदय सोच-सोचकर, सोच-सोचकर। यही व्यथा-यही प्रेम सब तरफ़ बहता है- कहीं कीड़े-मकोड़ों में, कहीं मनुष्य में कहीं सबके जीवन में- बसन्त की चाँदनी में, हैं हम सब भी वही मृत मृग।

मैदान की कहानी - 1

उल्लू खलिहान पहुँची पहली फ़सल हेमन्त के खेत में बरसता है शिशिर का जल। अघ्राण नदी की साँस से हिम हो रहे हैं बाँस पत्ते-भरी घास, आकाश तारे चाँद फेंकता है बर्फ़ीली फुहार धान खेत-मैदान में धुआँ-सा कुहासा। घर गया खेतिहर, उनींदी-सी धरती पाता हूँ टेर- जाने किसकी दो आँखों में नहीं है नींद की ज़रा-सी भी साध। हल्दी के पत्तों की भीड़ में, शिशिर के पंख रगड़े-रगड़े, पंख की दाया पर शाखा ओढ़े, नींद की उनींदी तस्वीरें देख-देख कर सलोने चाँद और मधुर तारों के साथ जगती है अघ्राण रात में वही अकेला पक्षी, याद है आज भी- उस दिन भी इसी तरह-फ़सल पहुँची थी खलिहान, खेत-खेत में झर रहे थे उसी शिशिर के स्वर, कार्तिक की अघ्राण, रात में दूसरे पहर, हल्दी के पत्तों की आड़ में बैठकर, शिशिर में पंख रगड़े-रगड़े, पंख पर शाखा की छाया ओढ़े नींद की उनींदी तस्वीरें देखते हुए, सलोने चाँद और प्यारे तारों के साथ जागा था यही पक्षी अगंध रात में। नदी में साँस से वे रातें भी हो जाती हैं सर्द बाँस पत्ते-हरी घास-आकाश के तारे, बर्फ़-सी फुहार फेंकता चाँद, धान खेत मैदान में जमा धुआँ-सा कुहासा, घर गया खेतिहर उनींदी पृथ्वी में मैंने पाया संकेत जाने किसकी दो आँखों में नहीं थी नींद की ज़रा-सी भी कोई साध।

मैदान की कहानी - 2

रसीला चाँद रसीला चाँद ताक रहा है मेरे मुख की ओर-दायें और बायें परती ज़मीन-घास-फूस-दरार पड़ी ज़मीन, ओस की बूँद। हँसुए-सी टेढ़ी रसीले चाँद की आँख- देख रही है और ऐसी ही जाने कितनी रातें- जिसका कोई लेखा-जोखा नहीं। बोलो चाँद! आकाश तले खेतों में मिट गया है हल का निशान फ़सल काटने का समय आ गया है-कब चला गया। सरसों फल गयी है-फिर तुम क्यों खड़े हो अकेले दायें और बायें घास-पात, परती ज़मीन-ज़मीन में दरार, ओस की बूँद मैं उससे बतियाता हूँ- फ़सल ठीक रही- कितने सरसों झर गये- और बूढ़े हो गये हो तुम भी इस बूढ़ी धरती की तरह। खेत-खेत में हल की फाल मिट गया है कितनी बार-कितनी बार फ़सल काटने का समय आ गया है-चला गया है सरसों पक गयी है-फिर क्यों हो तुम खड़े दायें और बायें, अकेले-अकेले परती ज़मीन घास-पत्ते ज़मीन में दरार- ओस की बूँद।

मैदान की कहानी - 3

कार्तिक के मैदान का चाँद जाग उठता है हृदय में आवेग। बीच या शेष रात के आकश में जब तुम्हें ले आते हैं पहाड़ की तरह वे मेघ। उसी मृत पृथ्वी ने आज रात जिसे छोड़ दिया है फटे-फटे सादे मेघ डरकर भाग गये तरसते बच्चों की तरह आकाश में नक्षत्र जलने के कुछ देर बाद फिर तुम आये मैदान के बीच ओ चाँद! धरती पर जिसे होना नहीं था उस दिन वही हुआ था वह फिर हाथ से निकलकर खो गया और उसी का स्वाद लिए तुम आज समाने खड़े हो। मैदान धरती चारों ओर चुप्पी सरसों काटकर चले गये खेतिहर उनी माटी की बातें-उनके मैदान की कहानी सब छिप जाने पर भी बहुत कुछ शेष रहता है- तुम जानते हो-यह पृथ्वी आज क्या जानती है?

मैदान की कहानी - 4

आखि़री बार उसके साथ जब मैदान में मुलाक़ात हुई थी- तो कहा था-”एक दिन ऐसे ही समय में फिर तम आना- अगर आने की इच्छा रही तो- पच्चीस साल बाद।“ -यह कहकर मैं घर आ गया था। उसके बाद कितने चाँद-सितारे मैदान में मर गये-चूहे, उल्लू- चाँदनी में धान खेत खोज गये आँख बुझे दायें-बायें पड़कर जाने कितने सोये रहे जागा रहा केवल मैं अकेला। नक्षत्र की गति से भी तेज़ चला आ रहा समय लेकिन पच्चीस साल कहाँ बीत पाते हैं? एक बार फिर पीले पड़े तृणों से भरा है मैदान, पत्तों पर सूखे डण्ठलों पर तैर रहा है कुहासा चारों ओर गौरैयों के उजड़े घोंसले ओस से भीगी राहों पर चिड़ियों के अण्डे का खोल, ठंडा-कड़कड़ कुम्हड़े, एक दो सड़े कुम्हड़े लत्ते-पत्ते पर सूखे मकड़े, मकड़ी का टूटा जाला खिली-खिली चाँदनी में पथ दिखाते वे कुछ एक तारे दिखते हैं। हिम आकाश की देह पर खेत मैदान में घूमते रहते हैं चूहे और उल्लू, चावल का कण खाकर आज भी भूख मिटा रहे हैं- पच्चीस साल जाने कब के कट गये।

सहज

मेरे ये गीत तुम आकर कभी सुनोगी नहीं- आज रात मेरी पुकार बह जायेगी हवा में, तब भी मेरा मन गाता है। बुलाने की भाषा नहीं भूलता प्राण में प्यार लिए दुनिया के आगे तारों के कान में गाता हूँ गान। तुम आकर कभी सुनोगी नहीं, मैं जानता हूँ- आज रात मेरी पुकार बह जायेगी हवा में- फिर भी मन गाता है। तुम हो जल और समुद्र की लहर की तरह तुम्हारी देह का वेग- तुम्हारा सहज मन तैरता चला आता है सागर के आगोश में कौन लहर लग गयी थी उसकी छाती में अंधेरे में- कौन-सी लहर उसे लेने आयी थी अंधेरे में- वह नहीं जानता, सागर की रात का जल सागर की लहर हो एक तुम भी। तुम्हें कौन प्यार करता है, तुम्हें क्या किसी ने मन में बसाया है। पानी के वेग के साथ तुम चली जाती हो- उच्छवास लिए गंदला-जल बुलाता रह जाता है। तुम सिर्फ़ एक दिन, एक रात की हो, आदमी और औरत की भीड़ तुम्हें बुलाते हैं दूर-कितनी दूर- किस सागर के किनारे-वन में-मैदान में- या कि आकाश जुड़े उल्का के प्रकाश में तैरती हो या कि जिस आकाश में हँसुए की तरह टेढ़ा चाँद निकल कर छुप जाता है- वहीं है तुम्हारे प्राण की इच्छा, उसी के पास जहाँ पेड़ों की शाखें हिलती हैं- जाड़े की रात में, मृतक के हाथ में सफे़द हाड़ की तरह- जहाँ वन आदिम रात की गंध छाती में लिए अंधेरे में गाते हैं गीत- वहीं हो तुम। निस्संग हृदय के गीत में अंधेरी रात की हवा की तरह एक दिन आकर, दे गयी थी उतना जितना संभव था एक रात के लिए।

चिड़िया

बासन्ती रात है। मैं बिछौने पर सोया हुआ हूँ- अभी बहुत रात नींद से बोझिल आँखें बन्द नहीं होना चाहतीं। उधर सुनाई पड़ता है समुद्र का हाहाकार सिर के ऊपर स्काईलाइट आकाश में चिड़ियाँ परस्पर बतियातीं आकाश में न जाने कहाँ उड़ जाती हैं? चारों ओर उनके डैनों की गन्ध तैरती है। बसन्त की रात शरीर में भर आया है स्वाद आँखें चाहती नहीं सोना। जंगले से आती है उस नक्षत्र की रोशनी उतरकर, सागर की पनीली हवा में मेरा मन आराम पा रहा है, सब ओर सभी सो रहे हैं- सागर के इस किनारे किसी के आने का समय हुआ है? समुद्र के पार बहुत दूर-और उस पार- किसी एक मेरु पर्वत पर रहती थीं ये चिड़ियाँ बिल्जार्ड की मार से उन्हें समुद्र में उतरना पड़ा था मनुष्य जैसे अपनी मौत की अज्ञानता में उतरता है। बादामी-सुनहले-सफ़ेद फड़फड़ाते डैनों के भीतर रबर जैसी छोटी गेंद बराबर छाती में बन्द उनका जीवन- जैसे रहती है मौत लाखों-लाख मील दूर समुद्र के मुख पर वैसे ही अतल सत्य होकर। जीवन कहीं है-और जीवन का आस्वाद भी है अवश्य। सागर की कर्कश गरज से अलग कहीं नदी का मीठा पानी भी है- कंदुक-सी छाती में रहती है यह बात, कीं पड़ा है पीछे शीत और सामने ही है उम्मीद यही सोचते वे आये हैं। फिर किसी खेत में अपनी प्रिया को लेकर चले जाते हैं- रास्ते में, बातों-बातों में बने रिश्ते के बाद अंडे देने। सागर का बहुत नमक मथने के बाद मिली है यह मिट्टी और मिट्टी की गन्ध प्यार और प्यारी सन्तान, अपना नीड़, बहुत गहरा-गहरा उनका स्वाद। आज इस बासन्ती रात में नींद से बोझिल पलकें मुँदना नहीं चाहतीं, उधर समुद्र का स्वर, स्काईलाइट सर के ऊपर, आकाश में चिड़ियाँ बतिया रही हैं-परस्पर।

गिद्ध

सारी-सारी दोपहर खेत मैदान पर एशिया के आकाश में हाट-घाट बस्ती, निस्तब्ध प्रान्तर जहाँ खेत में दृढ़ नीरवता खड़ी रहती है वहाँ भी आदमी देखता है केवल गिद्ध खा रहे हैं। आकाश से परस्पर एक आकाश की तरह रोशनी से उतारकर उनींदे दिक्पाल बने हाथियों जैसे दुरूह बादल से गिर पड़े हों-पृथ्वी में एशिया के-खेत मैदान पर। कुछ ही क्षण ये त्यक्त पक्षी रुकते हैं, फिर आरोहण अभी काले विशाल डैने ताड़ पर और अभी पहाड़ के शिखर-शिखर-फिर समुद्र पार एक पल पृथ्वी की शोभा को निहारते हैं फिर आँखें थिर कर देते-लाश लेकर कब जहाज़ आ रहा है, बम्बई सागर तट पर। बन्दरगाह अंधकार में भिड़ कर प्रतीक्षा करते हैं, और फिर साफ़ मालाबार में उड़ जाते हैं, फिर किसी ऊँचे मीनार की कगार से- पृथ्वी के पक्षियों को भूलकर उड़ जाते हैं जाने किस मृत्यु के पार... जाने वैतरणी या इस जीवन विच्छेद की खीजभरी कटुता से रोते रहते हैं, मुड़कर कभी न देख घनी नीलिमा में मिल जाते हैं गिद्ध।

स्वप्न के हाथ में

दुनिया भर की परेशानियाँ-देह की बीमारी टीस उठती है दिल में, इसलिए सपनों के हाथ मैं खुद को सौंप देता हूँ। रात-दिन की लहरों पर, जो छायाएँ तैर आती हैं उन्हीं की तह में है मेरा जीवन, यदि हमारे मन में धरे होते केवल स्वप्न के हाथ तो पृथ्वी के दिन-रात का आघात कोई झेल नहीं पाता किसी का दिल बूढ़ा नहीं होता- अगर सब चलते स्वप्न के हाथ धर कर। आकाश छाया की लहर में हिचकोले खाकर पूरे दिन और सारी रात प्रतीक्षा करते-करते पृथ्वी की व्यथा, विरोध और यथार्थ हृदय भूल जाता है सब अन्तर जो चाहता है-भाषा, इच्छा, पृथ्वी के कोने-कोने जाकर जिसे ढूँढ़ता है- स्वप्न में वही सत्य होकर तैर उठता है। मर्म में जितनी तृष्णा है उसी की खोज में छाया और स्वप्न के क़रीब तुम लोग आ जाओ- तुम लोग आ जाओ सब। भूल जाओ- पृथ्वी की व्यथा, आघात-यथार्थ। हमेशा की तरह निराली लहर पर एक-दूसरे का हाथ पकड़ते हैं- उनमें स्वप्न, केवल स्वप्न जन्म लेता है। गोधूलि के धुँधले आकाश में आकांक्षाओं का जन्म-मृत्यु आदि और पृथ्वी के दिन-रात के शोर वह नहीं सुनता। संध्या नदी का जल, पत्थर पर जल धारा आईने की तरह जाग उठते हैं इधर-उधर अपने अन्तर में। उनके भीतर- हर घड़ी, स्वप्न, केवल स्वप्न का जन्म होता है। पृथ्वी की दीवार के पार टेढ़े-मेढ़े अनगिनत अक्षरों में एक बार लिखी थी जो अन्तर की बात- वही सारी व्यर्थता उजाले-अंधेरे में मिटकर, दिन के उजले पथ छोड़कर धूसर स्वप्न के देश में पहुँच जाती है। और हृदयाकांक्षा की नदी लहरें उठाकर तृप्त होती हैं। तृप्त भी होती है तो तुमने नहीं जाना पृथ्वी की दीवार पर अस्पष्ट अक्षरों में लिख नहीं पाये अपने अन्तर की बात उजाले-अंधेरे में सब व्यर्थ हो जाता है। पृथ्वी की यह अधीरता ठहर जाती है हमारे हृदय में व्यथा दूर धूल की राह छोड़कर स्वप्न को ही गले लगा लेते हैं हम उज्ज्वल प्रकाश से भरा दिन बुझ जाता है, मनुष्य की आयु भी समाप्त हो जाती है। पृथ्वी की वही पुरानी कहानी- मिटा देती है उसके तमाम निशान। काल के हाथ मिटा देते हैं और दूसरी सारी चीजे़ं नक्षत्रों की भी आयु पूरी हो जाती है किन्तु स्वप्न जगत- चलता रहता है निरन्तर। धूसर पांडुलिपि : अनुवादक - सुशील कुमार झा

वैतरणी

ना जाने कब मैं उठ खड़ा हुआ मृत्यु से - कब्र के अंधकार की आगोश से शायद वैतरणी ने छुट्टी दी थी कुछ दिनों की उड़ चलता हूँ धरती की ओर काले पंख फैलाये गिद्ध की तरह सात-दिन और सात-रात उड़ कर भी पा जाऊं शायद उस धरती पर बिखरे प्रेम के आलोक को; शायद वैतरणी ने छुट्टी दी थी कुछ दिनों की बीत गए थे सात दिन – तब भी थी पृथ्वी अंधकार में निमग्न, और था गिद्धों का एक झुंड भी मेरी तरह ही थका-हारा और क्लांत अंतहीन आकाश में आँखें बंद किए निरुद्देश्य मंडराते हुए, देख रहा था पृथ्वी को दिन में और रात में, थके-हारे क्लांत गिद्धों का झुंड पूछा मैंने “देखा था मैंने तुम सबों को वैतरणी के उस पार, जहाँ थी सिर्फ नींद – काली अँधेरी सुनसान रातें – मृत्यु की नदी, तुम्हें भी भाया नहीं क्या इस पृत्वी के हरे घास, अठखेलियाँ करती सूर्य की किरणें, और व्यस्त कठफोरवा” लेकिन अनसुना कर उड़ गया अँधेरे में ही गहरे कुहासे की ओर थके-हारे क्लांत गिद्धों का झुंड रुक गया था तो एक – अपने रंगहीन विस्तृत डैनों को फड़फड़ाते – “जा कहाँ रहे हो? फिर उसी मर्त्यलोक की ओर? कौन रह गया तुम्हारा अब वहाँ?” “सभी तो हैं मेरे सिवा, सुबह ही तो था आया पार करने वैतरणी, प्यार किया जिसे, प्यार पाया जिसका, मेरा सब कुछ तो वहीँ है” क्षणिक गहन विचार, फिर क्लांत-प्राण, उड़ चला फिर से उसी वैतरणी की ओर अपने पंख फैलाए, रोका था मैंने उसे, “देखो उन पेड़ों की शाखाओं को, और उन झुरमुटों के उस पार, बहती है जो एक नदी, देखो उसे, गुजरती है मेरे गाँव से” रुका नहीं, उड़ता रहा बेखबर, गहरे कुहासे की ओर बीत गये सात और दिन, सात और रातें, इसी धरती के अंधकार और प्रकाश में, मैं फिर भी उड़ रहा था, एकाकी, गिद्ध सा काला पंख पसारे, नजर आ रहे थे धरा पर, यादों में अब भी बसा था जिनके, जो चाहते थे मुझे, अगर फिर से पा जाता वही शरीर, बह जाती फिर से वात्सल्य की धारा, रोज सुबह, रोज शाम, ढूंढ ही लेते मुझे फिर से पाकर और भी दुलारते मुझे, और भी, बस और कुछ नहीं, सात दिन और सात रातें और भी, खिड़कियों पर लहराते पर्दे, देखा था उन्हें और सोचता हूँ, कि पा लेता फिर से अगर शरीर, सच हो जाता मेरा प्रेम भी, आज, आश्चर्यचकित था मैं, सिर्फ आश्चर्य नहीं, यादें नहीं, कुछ गलतियाँ भी, कुछ कर्तव्य भी, सात दिन और सात रातें यही सोचता रहा मंडराते हुए धरती पर, मृत्यु कामना ही शाश्वत सत्य है तो, चाहता हूँ फिर से मृत्यु वरण, विस्तीर्ण आकाश में एकाकी विचरता, महाशून्य में, डैनों को फैलाए किसी गिद्ध की तरह, उड़ता चला जा रहा हूँ, कोई विराम नहीं – कोई ठहराव नहीं – कोई सपना नहीं, जहाँ है शान्ति और अविरत नींद – उसी वैतरणी के काले जल की ओर, थके-हारे क्लांत गिद्ध की तरह।

याद है मुझे, आज भी

याद है मुझे, राजा था मैं तब बेबीलोन का, और थी तुम मेरी दासी, शाम के झुटपुटे ने धुंधला दिया था जिन मीनारों को और दिन में बन गए थे जो मैदान कबूतरों के लिए, विलीन हो गए अब वे सब धुयें की तरह नीले बादलों में, पर मिलना तो था हमें दुबारा, क्योंकि जानता था मैं, “आऊँगी, जरुर आऊँगी” कहा था तुमने, हज़ारों साल पहले, समय की इन्हीं वादियों में। आज सुबह ही तो देखा था, जब चहचहा रही थी चिड़ियों का एक झुंड मिश्र के उस नीले आसमान में जानता था उन्हें, दूध की तरह थे सफ़ेद उड़ गये थे वे फिर और विलीन हो गए थे उस विस्तीर्ण आकाश में. क्योंकि प्यार किया था मैंने। खो चुका था जिसे हज़ारों साल पहले नाच उठी वह आज मेरे आँसुओं के सागर पर, बुलबुलों पर, थरथराती – सुन रहा था मैं उसे! और सुन रहा था संगीत, क्या हुआ अगर कमजोर था मैं। पुकारा तो था उसे बार-बार उस सुनसान काले अँधेरे से उसे निकाल ले चलने किसी रोशनी की ओर। आज कौन हैं ये औरतें मुझे घेरे हुए, मेरी पलकों, हाथों, बालों को सहलाती हुयी? खामोशियों की गूँज सी आयी थी वो याद दिलाती हुयी मेरे वज़ूद को, और फिर गुम हो गई थीं कहीं पलक झपकते ही। और (उन्हीं सुनसान रातों में) एक बच्चे के जैसे सो जाता हूँ, अपने को अपने में ही समेट कर।

  • मुख्य पृष्ठ : जीवनानंद दास : बांग्ला कविताएँ हिन्दी में
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)