देखना एक दिन : नरेश मेहता

Dekhna Ek Din : Naresh Mehta


माँ

मैं नहीं जानता क्योंकि नहीं देखा है कभी– पर, जो भी जहाँ भी लीपता होता है गोबर के घर-आँगन, जो भी जहाँ भी प्रतिदिन दुआरे बनाता होता है आटे-कुंकुम से अल्पना, जो भी जहाँ भी लोहे की कड़ाही में छौंकता होता है मैथी की भाजी, जो भी जहाँ भी चिन्ता भरी आँखें लिये निहारता होता है दूर तक का पथ– वही, हाँ, वही है माँ!!

देखना, एक दिन

देखना– यह दिन चुक जाएगा यह सूर्य भी, सूख जाएँगे सभी जल एक दिन, हवा चाहे मातरिश्वा हो नाम को भी नहीं होगी एक दिन, नहीं होगी अग्नि कोई और कैसी ही, और उस दिन नहीं होगी मृत्तिका भी। मगर ऐसा दिन सामूहिक नहीं है भाई! सबका है लेकिन पृथक– वह एक दिन, हो रहा है घटित जो प्रत्येक क्षण प्रत्येक दिन– वह एक दिन।

पुरुषार्थ

गये होंगे निश्चित ही ये पाँव ठाँव-कुठाँव पर, क्या वह तेरी गली नहीं थी? देखे होंगे निश्चित ही इन आँखों ने रूप भरे हाट पर, क्या वह तेरी बाट नहीं थी? किये होंगे निश्चित ही इन हाथों ने भले-बुरे कर्म पर, क्या वह तेरी प्रेरणा नहीं थी? यदि ऐसा नहीं था, सब कुछ मेरा ही था तो फिर मुझे स्वीकार हैं ये सब– क्योंकि मेरे पुरुषार्थ हैं।

कहाँ हुआ?

लिखा तो गया पर, कहना कहाँ हुआ? किससे कहते– तुम यदि होते राह भले ही तपती होती पर बातों के द्रुमदल-मृगजल कुछ तो होते हाँ, नदियाँ थी दिखीं मिलीं भी पर, बहना कहाँ हुआ? किसे दिखाते– कितने पैबन्दोंवाली थी अपनी कथरी राग और वैराग्य बीच हम होते गये विवश भरथरी उतर गया भूषा सा जीवन मन से, तन से चलो बटोही? इस सराय में रहना कहाँ हुआ?

उस दिन

उस दिन हाँ, उस दिन– यदि आँखें देख रही हों पेड़ या कि आकाश देखने देना, यदि अधर बुदबुदाते हों कोई भी नाम बोलने देना, यदि हाथ उठे हों देने को आशीष असीसने देना यदि तत्त्व माँगने आये हों निज तत्त्व उन्हें ले जाने देना; उस दिन हाँ, उस दिन ही सही, पर जागेगा अन्तर बिराजा अवधूत वह जिसे लेना कुछ नहीं है किसी से भी नहीं– केवल देना, देना, देना।

वही है, वह

व्यथा में भी जो गा रहा है गाने दो उसे, वही है वह– जो सबको ले जाएगा उस पर्वत की ओर जिसके शिखर पर स्वयं को उत्सर्ग कर केवल वही सबकी ओर से देखेगा सूर्य को। देखना– हर व्यथा के लिए वह लाएगा मांगकर सूर्य से प्रकाश की अलग-अलग डालियाँ। और बाँट कर ज्योतियाँ हो जाएगा फिर से अनागरिक निःशेष। उसे जाने दो वही है वह– जो व्यथा गाते हुए सूर्य की ओर बढ़ रहा है।

द्वार

द्वार है हर दूरी एक द्वार। यात्राएँ समाहिति के लिए दूरियों के द्वार। फिर चाहे वह यात्रा पंखों की पैरों की पालों की किसी की हो दूरियों के द्वार पर द्वार खुलते ही जाते हैं। यह खुलना ही द्वारों का बन्द होना भी है।

विपर्यय

वर्षा में भीग कर चित्र बदरंग हो गया और तुमने दीवार पर से ही नहीं मन पर से भी उसे उतार दिया– यह मैं था। वर्षा में भीग कर कविता कैसी रंगों नहायी फूल हो आयी और मैंने उसे वृन्त पर ही नहीं अपने में भी धार लिया– यह तुम थीं।

विषमता

तुम्हारे फेरते ही आँख सबने फेर ली है आँख– मेरे इस एकान्त ने भी।

चिड़ियाँ

चिड़ियाँ क्या हैं– उड़ते हुए शब्द हैं बोलते हुए पेड़ हैं आकाश में उड़ती हुई पंक्तियाँ हैं। वन की भाषा है– जो शब्द-शब्द बन उड़ती है गाती है। गाता हुआ वन चिड़ियाँ है तो चुपायी चिड़ियाँ ही तो वन है।

आत्मसमर्पण

स्वतः तो फूल को झरना ही था पर यदि वह सौंप देता अपनी सुगन्ध किन्हीं अँगुलियों को तो सब कुछ बीत जाने पर भी वे अँगुलियाँ जब भी लिखतीं लिखतीं फूल ही।

गन्ध

कमरे में गन्ध थी गुलाब की, पर फूल ने कहा– केवल कल तक ही, आज जो यह गन्ध है वह मेरी नहीं उस स्पर्श की जिसने मेरे फूल को तुममें गुलाब कह टाँका था। क्या तुम उस स्पर्शकर्ता को नहीं जानतीं?

प्रश्न

जब-जब भी बाँधना चाहा जीवन को भाषा में (तात्पर्य सत्य को) वह हँसा– तुम मुझे बाँधना चाहते हो भाषा की मेड़ से, सकोगे बाँध बाढ़ को? अच्छा– तुम इतना ही बता दो वह कौन है (या कौन-कौन हैं) जिसे तुम बारम्बार अपनी कविताओं में सम्बोधित करते हो, क्या है उस सर्वनाम ‘‘तुम’’ की वास्तविक संज्ञा? नहीं बता सकते न? और चले हो जीवन को भाषा में बाँधने क्या नहीं है यह प्रवंचना? स्वत्त्व पर से कवच-कुण्डल चीर कर उतारने जैसा है भाषा में जीवन को बाँधना– (तात्पर्य सत्य को)। बन सकते हो ऐसे निर्भय या निर्विकार?

सम्भ्रम

उस दिन चन्द्रोदय की साक्षी में उड़ती जंगली हवाओं के बीच हमारी गुँथी अँगुलियों में कैसे एक राग-फूल ने जन्म लिया था। देवताओं ने तो नहीं पर आकाश जरूर कुछ-कुछ पुष्प वर्षा करता लग रहा था। पर आज तुम अपने थरथराते व्यक्तित्त्व से उपस्थित ऐसी लग रही थीं जैसे तुमने अपनी अँगुलियों पर से ही नहीं उस राग-स्पर्श को पोंछ डाला है बल्कि वे सुगन्धित अँगुलियाँ ही अपने स्वत्त्व पर से उतार दी हैं और ऋतु-स्नान किये नयी अँगुलियाँ धारे सम्भ्रम में आधे खुले द्वार में लिखी हुई खड़ी हो, जैसे कोई अपरिचिता।