छोटा सा आकाश : राजगोपाल
Chhota Sa Aakash : Rajagopal

छोटा सा आकाश
कुछ बादलों सी उडती कवितायें



उत्सव

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पूर्णिमा

बादलों से उभरती पूर्णिमा तुम शरद की टपकती सुधा हो बरसों से तुम्हे निहारता जी रहा हूँ तुम ही प्राण हो, मेरे मन की मृदा हो नव कोमल कलियों सी खिली-खिली क्या सोच रही हो अनुराग भरी आ जाओ पास, बंध जाओ अनुबंधन में निचोड़ लें जीवन, जो दूर कहीं है ठहरी तुम तन-मन की आकर्षण मधु सी अधरों में जैसे जम गई तुमसे ही मेरा अस्तित्व बना अब खोयी नहीं है कोई दिशा नयी जनमों तक साथ रहेंगे पुकार लो चाहे हम हों कहीं ईश्वर से माँगा है तुम्हे पास हो तुम तो स्वर्ग है वहीं

परिभाषा

तुम उज्जवल रजनीगंधा अर्धरात्रि की आलोकित शशी उषा की लालिमा सी कोमल तुम पारिजात पर पड़ती आरुषी तुम स्वप्नों की उन्मादिनी प्यार की मधु मन्दाकिनी अधरों की प्रणय प्रद्दुम्नी तुम ही कस्तूरी, कामुक कुमुदिनी कल्पना हो तुम मेरी जीवन की उठती लय हो उम्र का श्रृंगार हो, स्पर्श हो आओ चलें संसार जहाँ सुरमय हो अब समा जाओ धडकनों में जी लें इस जीवन का हर अंश तुम ही तो हो एक रूपवती बस आँखों से न कह देना सारांश

सर्जना

तुम सुबह की हवा जैसी चंचल सर्दियों में शाम की जलती आग हो अधरों पर प्यार की लालिमा लिये क्या तुम मधुमय रजनी का राग हो ? तुम श्रृंगार का पर्याय हो प्यार की अनुभूति हो इस जीवन की सुषुम्ना हो तुम ही सर्जना की प्रतिभूति हो कुछ और पास आ जाओ समय से अब डर लगता है वह निष्ठुर तुम्हे कहीं दूर न ले जाये यही सोच मन हर बार सहम जाता है आओ लग जाओ ह्रदय से बंध जाओ अटूट आलिंगन में चलो निकल जाएँ समय से आगे न जाने कब बिजली कौंध जाये इस गगन में

उत्सव

तुम्हारी यह किशोर सुन्दरता लगती है इतनी कोमल जैसे कोई पल्लव हो कुछ पल जी लूँ तुम्हारी मुस्कराहट में तुम ही तो इस जीवन का उत्सव हो वसंत की रंगों में खिली-खिली तुम पर छाई है यौवन की चंचलता छुपा लूँ ह्रदय में ये प्यार तुम्हारा जैसे सीप में बसी हो कोई सुन्दर मुक्ता पिरो लूँ तुम्हे मुक्ताओं की माला में सवांर लूँ रति की परिभाषा में स्पर्श कर लूँ इन मदिर अधरों को ढँक लूँ इस तम को, कल की आशा में

सुषमा

ये मन क्यों बावला सा तुम्हे ही ढूंढता रहता है तुम सत्य हो और मन-माया भी तुम्हे पाने ये विश्वास क्यों डोलता रहता है तुम प्यार हो जलधि सी गहरी श्रद्धा हो, लिए आकाश सा विस्तार सुषमा, जैसे रति का करती आह्वान हो तुम सुख हो अनुभव सा निराकार कुछ कह दो, इस मन से तुम्हारा प्यार, श्वासों की लय है जब तक प्राण है, तुम हो हर पल तुमसे ही मधुमय है

आरती

तुम जब से जीवन संग मिली हो कड़ी धूप भी अब लगती है वसंत तुम्हे लिए मन उड़ चला है निर्बन्ध तितलियों सा आकाश में अनंत तुम सुन्दर उन्माद भरी क्या मनु की प्रथम कल्पना हो कोई उर पर चढ़ती अमर बेल या कोई उल्का सी बहती सपना हो तुम लिपटी तरुण श्रृंगार में बहती यौवन का मकरंद बिखेरती अधरों पर मोहक पराग लिये किसे देखती हो नित आँखें सवांरती प्रिये तुम आराध्य हो आदि, अंत और प्रकृति हो ईश्वर से सदियों तक माँगा है तुम जीवन-दीप हो, मन की आरती हो

श्रृंगार

स्वर्ग में शचि सी रूपवती प्रज्ञां सुरवामिनी कहाँ उतर आई धरा पर ? हो कोई कल्पना तुम, या फिर कामायनी पारिजात सी खिली इस रजनी में महकती समय को शून्य कर देती तुम जैसे कोई लौ यौवन में दहकती तुमसे ही ये मौसम है घोल दो प्यार भरा अनुराग आँखों से श्रृंगार बरसाओ फूँक दो अधरों से रजनी की आग कहाँ छिपते हैं मेघों के रेले परियों सी कहीं न होना ओझल तुम ही सत्य हो, जीवन हो हवा सी करते रहना स्पर्श हर पल

पहचान

पहली बार तुम्हे देखा तो ऐसा लगा जैसे तुम तपती ज्येष्ठ की छाया हो हो पलाश सी दहकती, सुन्दर तृष्णा, मन मुग्धा, मैं सोचूं तुम कैसी माया हो तुम्हे देखते थकती नहीं यह आँखें कब बरसोगी सघन यौवन बन कर मरीचिका में उलझा मन शिथिल हुआ है भिगो दो सावन सा ये उष्ण तन-हर मधुहास लिये खिल जाओ तुम लज्जा से जल-जल, जैसे सावन की प्रथम कली छू लूँ तुम्हारे मृदुल दलों को भ्रमर बन पा लूँ फिर ये पराग मखमली तुम संध्या की लालिमा अरुण सरोज पर बिखरी मुस्कान तुम रेखा हो पृथा पर भाग्य की दिशा हो कर्मो की, और हो मेरी पहचान

शून्य

क्या सोच रही हो गुमसुम रजनी में प्यार में सिमटी किस शून्य में समायी हो बस एक बार मदिर मुस्कुरा दो इतनी स्तब्ध भी न रहो जैसे परायी हो कभी इन आँखों में झांको तो अनुभव करोगी प्यार का अथाह अधरों को शब्दों से कर दूँ आश्वस्त मांग लूँ उल्का से तुम्हारी हर चाह सोचो, क्या कभी सागर सिकुड़ता है क्या क्षितिज का विस्तार सिमटता है तुम तो सुन्दर हो आकाशगंगा सी क्या कभी तुमसा कोई तारा टूटता है आओ छुप जाओ बाँहों में कुछ कानों में मन की कह लें स्पर्श कर लें उभरती मादकता कुछ देर यूँ ही शरद की चांदनी में रह लें तुम मेरी स्वप्नप्रिया कभी खोना नहीं अँधेरे में तुम हो तो ये संसार है चलें चीर कहीं दूर इस कोहरे में ईश्वर से तुम्हे मांग लूँगा डूब जाना फिर श्रृंगार में चलना चम्पई पंखुड़ियों पर क्षितिज तक कुसुमयी प्यार में

अपना घर

तुम्हे पहली बार देखा तो लगा सपने कितने दूर हैं तुमसे कुछ कह-सुन कर समझा कि साथ जीना कितना मधुर है मन विचलित सा निष्प्राण हुआ दिनों तक तुम्हे ही ढूंढ़ता रहा शक्ति बटोर कर एक दिन तुम्हे मैंने मेरी प्रियतमा कहा जब तुमने शब्द स्वीकार लिया तो मन बावला सम्हल गया तुमसे ही फिर जीवन मिला एक मुट्ठी से ही बन गया महल नया तुम कल की नींव बनी दीवारों में रंग दिया प्यार ये घर तुम्ही ने बनाया है तुम ही लक्ष्मी हो साकार तुम जैसे उषा की पहली किरण ठंडी हवा हो थकी दोपहरी की चांदनी में खिली धवल सरोज हो तुम हो रूप की सिन्धु गहरी सी आओ इस रात को रोक लें मधुभरी अधरों को भिगो लें स्वागत है घर में इस जीवन का बह जाना अब रक्त सा रगों में

प्रतीक्षा

जब तुमसे मिलने हर शाम दिन की कड़ी धूप सह लेते तुम्हारे साथ चार कदम चल लेते और सारी रात खुली आँखों में रह जाते हमेशा आँखों में तुम्हारी प्रतीक्षा रहती छत पर जा तुम्हारी ही राह देखते जब भी तुम दरवाजे पर दस्तक देती आंसू भरे तुम्हे बाँहों में भींच लेते कितना अनिश्चित था सब कुछ फिर भी मन में दबा कुछ विश्वास था दोबारा मिलने की दूरियां बहुत थी पर जी गए, तुम्हारा प्यार जो आस-पास था तुमसे कभी मन भरा नहीं कुछ देर और ठहर जाता दिन तुम्हारा स्पर्श, रूप, रस सब कुछ बटोर कर मांग लेता ईश्वर से तुम्हे नित-दिन

आँसू

तुम श्रृंगार की वसन्त बन खिली जैसे यौवन की कली उतरी चुपके से तन-मन में कर रजनी को भी जग-बावली तुम शिशिर की नवल नलिनी चढ़ती धूप की दहकती पलाश सावन की सुहासिनी गुलनार तुम चांदनी, यह जीवन थका आकाश जब तुम पास नहीं होती हो मन में गहरी बसी रहती हो भूख-प्यास सब बुझा जाती हो आँखों से तुम आंसू सी बहती हो

वरदान

वे दिन भी कितने अच्छे थे जब कहीं दूर साथ तुम्हारे जाते बातों से ही नाप लेते जीवन की परिधि थक कर फिर तुम्हे बाँहों में सुला लेते हम दोनों, कभी गर्म प्याले के बीच तो कभी जी लेते कुछ बहाने से तुम्हारे दफ्तर में कुछ पल बीत जाते फिर लौट आते अपने वीराने में तुम्हारी हर दिन प्रतीक्षा रहती मन गुब्बारा होता जब तुम खिड़की पर आती तुम्हारी गोद में सर रख कर खो जाते तुम्हे देखते, न जाने कब शाम घिर आती कभी तुम्हारे बालों को सहलाते छू लेते अधरों का तपन आभास होता कभी मृदु क्षीर श्रृंग का तुम नीड़ बनी, अमरबेल बना यह जीवन तुम ही प्राची, तुम ही प्रभा हो अरुण कमल सी लिये मुस्कान कितनी सुन्दर सजीव आभरण हो हे भगवन ! तुमसे और कैसा मांगूं वरदान

आभास

तुमसे क्या छिपाऊं मन की बात तुम तो मेरे मन की आरसी हो विधु-विनोदिनी रजनी की रति हो तुम गगन की रमणी जैसी हो सोचता हूँ तुम्हे किताब की तरह पकड़ लूँ शब्दों के तार बना मन में छिपा लूँ गुनगुनाता रहूँ, प्रणय गीत की पंक्ति सा और अधरों में आजीवन तुम्हे बसा लूँ सुबह लगता, तुमसे कितनी दूर हुआ कभी मेरे मन में भी झांक लिया करो वह कल भी आस-पास ही है इस निर्मोही समय से तो कभी डर जाया करो तुम्हे शब्दों में संवारना सुखमय है जिन्हें जी कर कुछ पल सो लेते हैं जब तुम होती हो दूर कहीं इस कविता पर ही आँखें भिगो लेते हैं तुम्हे बहुत प्यार करता हूँ इस बात का तुम आभास कर लो तुमसे ही जीवन है इस सत्य को सांसों में भर लो

सार

चलो आज फिर उन दिनों में जब हम पहली बार मिले थे तुम्हे देख कर मन तो उतावला हुआ पर जाने कब तक होंठ सिले थे   लगा नहीं कि हम कभी साथ हो पाएंगे तुम श्रृंगार से भरी स्वर्ग की अप्सरा तुम्हे माँगा था सब कुछ दे कर पा कर लगा, ये जीवन है कितना गहरा   तुम्हारे आँखों की खुमारी गालों में स्पर्श की गुनगुनाहट अधरों पर प्यार का छिपा आगोश सुनायी देती है,चारों ओर तुम्हारी ही आहट   तुम नहीं तो समय भी स्तब्ध सा रेंगता है जैसे डरा सा बीमार हो कल अकेला न जाने कैसा होगा आज तुम ही तो जीने का सार हो

स्वयंवर

कल की रात पर लेटा दिन आज कितना खुश लग रहा है सबह की हवा भी हंस पड़ी है जैसे हर पल पहचाना लग रहा है तुम्हारे बालों का ऐसे झुकना जैसे हो चढती धूप में घना छाया बदल रही है तितलियों की दिशा तुम कोई उर्वशी हो, या आकर्षक माया कैसे तुम सहज मान गई बरसों साथ रहने की बात मैंने कितने संभल कर कहा था तुमसे डर था कहीं खा न जाऊं मुंह की मात पर तुम ही चित्रगुप्त की लिखी मेरी हथेली की रेखा बन उभरी तुमसे अच्छा और कौन होगा जो जानता हो ये बात गहरी अब तो तुम ही प्राण हो मेरी दृष्टि हो, मन का अम्बर हो दिशा हो, जीवन की साँसे हो तुम ही सर्जना हो, अलौकिक स्वयंवर हो

अर्चना

कौन कहता है कि धरा पर स्वर्ग नहीं है क्या इंद्र ने तुम्हे कभी देखा है सारा देवलोक बादलों की ओट से झांक रहा है कैसे ब्रम्हा ने तुम्हे रचा है तुम कल्पना से भी परे सृष्टि की मनोरम रचना हो हरसिंगार सी सुन्दर, कुमकुम जैसी आकर्षक दहकते दिये सी तुम यौवन की अर्चना हो तुम पूजा की थाल में जैसे सजी मृदुल पंखुड़ियों की हो रंगोली मन मंदिर में बसी लक्ष्मी तुम ही उत्सव हो जैसे वसंत की होली

सोच

तुम उदास होती हो तो दोपहरी भी शाम लगती है कभी आँखों में नमी भी आई तो तो गालों पर सावन बन बरसती हैं तुम तो अरुण कमल सी खिली आँधियों में भी रही हो मुस्कुराती फिर क्यों शून्य निहार रही हो तुम्हे देख तो वसंत भी है हट जाती जीवन में तुमको इतना प्यार दिया जैसे लहरों में लिपटा सागर अथाह धन हो, वैभव हो नभ सी ऊँची सरिता हो, प्यार का लिए अविरल प्रवाह ये तो प्रकृति है, समय की गति है हम दोनों आज साथ हैं क्या यह कम है कल न जाने कौन पहले निकल जाये समय पर चलता, किसका दम है कभी सपने में देखा था गुलाब की पंखुडियां नदी में बहती लगा जैसे मै ही बिखर गया हूँ पर वे तुम तक आ पहुंची मन में तैरती यह प्यार शाश्वत है हम-तुम कहीं कट भी गए पतंग से कहीं तो मिलेंगे आसमान में तुमसे फिर रतिमय सिन्दूरी रंग में

जीवन

तुम इतनी सुन्दर हो कि आँखें तुम पर से हटती नहीं हैं उम्र चाहे जो भी हो तुम्हारे बिना कटती नहीं है बीते दिन आज भी मन कुरेदती हैं जब तुम कंधे से टिकी होती थी तुम्हे छू कर सारे दुःख सिमट जाते थे आँखों में ही सुबह से शाम हो जाती थी याद है जब तुम्हे देख नहीं पाते थे तो सारा दिन कल में ही जी लेते ईश्वर से तुम्हे हर पल मांगते और अकेले में निःशब्द ही रो लेते कभी मन की बात कागज़ पर लिखते कभी उस पर ही नीर बहा लेते तुम्हारी प्रतीक्षा में कभी मन बहल जाता फिर भी तुम नहीं आती, अँधेरा सहा करते कितना कठिन था तुमसे बिछुड़ना लगता जैसे जीवन झुलस गया हो जब तुम लौट आती तो आभास होता फिर मौसम जैसे गुलाबी हो गया हो तुम्हारे बिना कैसे होगा कल अब सम्हलता नहीं मेरा मन है तुम हो तो ये दिन-रात हैं स्पर्श है, प्यार है, उससे बना जीवन है

नव प्रयाण

अटल अखंड धीर-वीर सी, उथली बुनियाद पर खड़ी आकाशदीप सी झंझावत में भी अड़ी तुम कैसे प्यार के लिए जग से लड़ी आखों में कल की दिशा लिए प्रभात के नव-प्रयाण से प्रतिबद्द निकल पड़ी सिंदूर भरी जीवन-रथ पर कल को छोड़, कल की खोज में अनिरुद्ध नव-जीवन का संकल्प लिए फूलों पर पड़ते ये कोमल चरण गढ़ लिए नया घर-मंदिर तुम्हारे प्यार को यहाँ शत-शत नमन

अभिनंदन

वह भी कैसा मोड़ था जहाँ तुम मुझे अनायास ही मिल गई आज तुम्हे पाकर लगा जैसे रात में ही सुबह की दिशा मिल गई क्या तुमने कभी सोचा था हम भी छू पायेंगे आकाश आज हम जहाँ पहुँच सके है वह तुम्हारा ही है विश्वास कितनी छोटी थी तुम, जब मिली मुझसे पर कितनी बड़ी थी हमारी इच्छा कोमल सी तुम और वह लम्बी यात्रा बूढ़े रास्तों पर चल पड़े, जैसे कोई बच्चा बत्तीस बरस तुम्हारे हाथों में हाथ डाल हम सपनों से भी आगे निकल आये पर तुमसा नहीं कोई रूप-रस-रति भरा जो जनमों में कही मिल पाए हम मिले तो ऐसा सुख मिला जैसे जलते हुए सूरज में गहरी छाया तुम लक्ष्मी, ज्ञान की सम्राज्ञी हो तन-मन से ढंकी जैसे मधु भरी माया तुम इस जीवन की आरती अधरों का मदिर बंधन स्वर्ग बन उतरी हो एकाकी पलों में तुम्हारा सदैव है अनंत अभिनन्दन

समर्पण

जब से तुम्हे देखा था ईश्वर से केवल तुम्हे माँगा था दिन-रात मन में विश्वास जगा तुम्हे पाने क्या कुछ नहीं लांघा था किस सोच में डूबी हो बह न जाये आँखों से ये श्रृंगार हम साथ हैं तो क्या बात है तुम्हे ही समर्पित है यह सारा प्यार

तुम्हारा साथ

अब दिन गुलाबी लगने लगे हैं शाम से ही आकाशगंगा दिखने लगी है तुम आ गई हो साथ तो रात भी पहचानी सी लगने लगी है सबसे सहज, सरल, सुन्दर तुम कभी न सोचा कि क्या है इस घर में कितना परिमल है प्यार तुम्हारा स्वागत है तुम्हारा इस छोटे से उर में चल पड़ेंगे कल सुबह कर्मठ से सँवारने तिनकों से परिवार तुम्हारा आँचल ही छत है जीवन का और तुमसे ही है संसार तुम ही हो मेरी आशा जैसे यह विस्तृत समृद्ध गगन मेरी मुग्धा, एक बार अधरों से छू लो धूप भी छिप जाएगी मेघों में सघन

नव्या

अब शाम ढल गई आओ नया संसार बसाते हैं आज कुछ अँधेरे में बातें कर लें फिर एक दिया जलाते हैं भीगे अधरों में डूबे ये पल न जाने कब नयी खुशियाँ लायेंगी तब तक सिमट जाओ आलिंगन में देखें कैसे नयी कलियाँ फूलेंगी तुम सृष्टि में एक और सृष्टि हो सींच रही हो एक और प्राण तुम जैसे फिर से छोटी हो जाओ आओ मांग ले ऐसा ही वरदान तुम तो और भी सुन्दर लग रही हो देखो कोई आ गई अनन्या अब तो हम दोनों के बीच लेटी होगी तुम्हारी जैसी ही नव्या

अभिलाषा

क्या सोच रही हो गुमसुम आओ पल भर प्यार कर लें कुछ आँखों से कह लें अपनी और अधरों को उन्माद से भर लें खिली जलज सी सुन्दर चेहरे को छू लूँ तपती होंठों के चुम्बन से तुम्हे ह्रदय से लगा कर सुख से कुछ पल बिता लूँ हम इस मधुवन में तुम्हारे बालों के घनी छावं में जब लेट कर देखूं स्वर्ग है कहाँ सुन्दरता से तो शशि भी छिप जाये तुमसा कामुक रतिमय कोई और नहीं यहाँ कुछ और पास आ जाओ खो जाएँ तुम्हारी गुनगुनाहट में धन-यश से परे जीवन में साथ सो जाएँ तपती कसमसाहट में तुम्हे शब्दों में कैसे लिख सकता हूँ तुम तो हो प्यार की पहली परिभाषा मै अब तक तुम्हारा रस-रूप देखता ही रहा तुम्हे फिर से पा जाऊं यही है बची अभिलाषा

इतिहास

आज दोबारा देख लूँ तुम्हे दूर से जैसे उन दिनों मन करता था मिलने कितनी गुत्थियाँ सुलझाता था फिर भी तुमसे कुछ कहने में डरता था वे दिन भी क्या दिन थे जब तुमने मुझे स्वीकार लिया छोटे से घर-बार को समझ तुम्हे अपनाने का अधिकार दिया कितनी ठंडक मिलती थी जब बहुत दिनों बाद तुम मिलती थी आज भी याद आती हैं वे चिट्ठियां जिन्हें पढ़ते मेरी हर रात ढलती थी हमने भी जिया है इतिहास की तरह तुम्हे पाने विरह के अनगिनत पल जब रुमाल पर छपे तुम्हारे होंठों से ही पोछ लेते बहते आंसुओं से विचलित पल जब कभी तुम दरवाजे पर आती तो लगता जैसे संसार बदल गया हो कभी तुम्हे गोद में लिटा कर छू पाता तो लगता दुपहरी ही चाँद निकल आया हो आज तुम साथ हो फिर भी वे दिन भूले नहीं भुलाते तुम्हे पाने का कल कितना कठिन था पर ऐसे दिन भी क्या कभी हैं मुरझाते तुम जीवन का ग्रीष्म हो वसंत हो, यौवन की बरसात हो ऋतु रागिनी बन छाई हो दिन-रात प्रिये तुम उत्सव हो, जब साथ हो

मयूरपंखी सपने

तुम सावन सी घुमड़ आई हो लिए आँखों में मयूरपंखी सपने बरस रही हो तन-मन में अब कहाँ जाएँ प्यार में छिपने आ जाओ बाहों में कहीं भीग न जाएँ होंठ इन फुहारों में ठंडी हवा तुम्हे कहीं रोक न ले चलो सिमट जाते हैं यहीं बहारों में पत्तों से टपकती बूंदों सी मधु घोल लें तपती अधरों में कुछ कानों में कह लें और डूब जाएँ इन रात के पहरों में यह रात तो चुपके से निकल जाएगी मन करता है चुरा लूँ तुम्हे समय से देखता रहूँ तुम्हे बरसों तक दर्पण सा और गीत लिखता रहूँ प्रणय के

लौट चलें

तुम कितनी धीर, गंभीर और सुन्दर हो समय से परे बहती मंदाकिनी हो तुम्हे देख कर मैं जुगुनुओं सा भटक जाता हूँ जैसे तुम पूर्णिमा की रतिमय रागिनी हो आज जीवन भार से मुक्त हुए तो मन करता है की तुम्हे फिर खिड़की पर देखूं तपती दोपहरी में प्यासा तुम्हारी प्रतीक्षा करूँ और तुम्हारी गोद में तुम्हे ही लेट कर देखूं आओ लौट चलें फिर उसी जगह जहाँ हमारे प्यार का अंकुर फूटा था मैं फिर तुम्हे फिर ढूँढता फिरूं सड़क पर चलता चलो उन्ही पलों में खो जाएँ जहाँ ये मन लुटा था तुम्हे देखा था कभी सुनहरे रंग में क्या कभी वसंत भी तुमसा था तुमसे ही ऋतुएं हैं, ये उत्सव है चलो प्यार फिर से चख लें कल जैसा था

भय

कहीं तुम दूर न चली जाना छोड़ कर जीवन के इस मोड़ पर क्यों लगता है, हर आहट पर तुम हो कुछ और जी लें समय को तोड़ कर रजनीगंधा के गोल गुलदस्ते कल सपने में चढ़ मन मसल गए दूर खड़ा मैं देखता रहा उन्हें पत्थर पर रखते और अँधेरे में बस गुमसुम आंसू निकल गए मैं अकेला निर्जन में निष्प्राण खड़ा तुम्हे देखता रहा पर छू न सका तुम आस-पास ही थी पर यह कैसी विडंबना कि मै तुमसे कुछ कह न सका प्रकृति तो सच है सब जानते हैं पर तुम्हारे बिना यह जीवन नहीं है चलो जहाँ हो साथ ही चलते हैं तुम हो तो स्वर्ग भी यहीं है

आरती

आज भी तुम वैसी ही हो जैसे बरसों पहले मिली थी अब कुछ ज्यादा ही मुझे जान गई हो फिर भी कभी लगती हो बदली सी प्यार तो तुमने असीमित दिया घर को भी जी भर संवारा शुभान्शु को परिवार दिया तुम बन गयी सबकी आँखों का तारा तुमसे सीख ले कोई जीना दुःख-सुख में हमेशा मुस्कुराना तुम्हारे साथ कभी लगा नही डर जीने का तुम्हे असंभव है कभी भुला पाना चढ़ती उम्र तुम्हे और सुन्दर बना गई समय क्या कभी तुम्हे छीन पायेगा तुम तो सांस हो, दिन-रात हो, सर्जना हो तुमसा कोई और नहीं कभी बन पायेगा तुम हमेशा मन में बसी सिंदूरी फूलों से सजी अर्चना हो तुममे आकर्षण है, रूप-रंग, रस है तुम ही सृष्टि हो, ईश्वर की अमर रचना हो तुम मन से निश्छल उडती सारिका स्वर्ग से कहाँ धरा निहारती हो प्यार से समृद्ध, शचि सी सुन्दर केवल मेरी ही आरती हो

एक और ज़िन्दगी

याद है गर्मियों का वह तपता मौसम फिर न जाने हम कभी मिल पाते हमने बहुत सहा है प्यार में इसलिए आज भी तुमसे अलग जी नहीं पाते   जब बिछुड़ते पल भर भी तो अकेले ही रोया करते अगर तुम न मिलती तो हम बहुत पहले ही मर जाते   अब तो एक हाथ का ही सफ़र बाकी है न जाने कब निकल जायेगा तुम ऐसे ही मुस्कुराते रहना यह आखिरी आंसू भी यूँ ही फिसल जायेगा   देखो बुझ न जाये यह प्यार का दिया मै इस लौ को हथेलियों में भींच लूँगा तुम अगर न भी चाहो मिलना दोबारा मैं तो ईश्वर से एक और ज़िन्दगी मांग लूँगा

कस्तूरी

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कल सुबह तक

मैंने जब तुम्हे पहली बार देखा तो लगा कैसी तृष्णा में फंसा पर तुम्हे आँखों के सामने पाया तो न जाने अपने सपनों पर कितना हंसा तुम शचि सी सुन्दर सुरवामिनी मैं पतली टहनी सा पंचतंत्र का ब्राम्हण कैसी विधा है, जो सपनों में माँगा वह उतर आई स्वर्ग से घर-आँगन इतना खिला चेहरा जैसे धवल कमल आँखों में निखरती सुबह की लालिमा चढ़ती दुपहरी से तपते गुलाबी अधर और रात में जैसे उभरती यौवन की गरिमा तुम मेरी रजनीगंधा, मदिर चांदनी इस रात उन्मत्त से छिप कर सो जाएँ हम इन घने बालों के अँधेरे में उलझे कल सुबह तक सपनों में खो जाएँ

कस्तूरी

तुम्हारे होंठों से उठता यौवन कसमसाती साँसों को और तेज कर गया मन करता जैसे अँधेरे को कुछ और सहला लें फिर ढूँढ लें तुममे ही छुपा कुछ नया तुम्हारे रूप-रस को निर्निमेष निहारते चांदनी भी तुम्हे झांकती ढल गयी अधूरी रात को चीर अधरों ने इतना प्यार बिखेरा कि आज भी उड़ती है तुमसे वही कस्तूरी तुम्हारा यह श्रृंगार भरा मौन कर देता है सारा तन-मन गुलाबी तुम जैसे सावन के मेघों से झरती चांदनी तुम्हारे आँचल में रात भी लगती है अजनबी तुम सुरमयी यौवन की मधुशाला कैसे न होगा यह मन उन्मुक्त जब खुल रहा हो झांकता मृदुल अंग आओ जी लें ये पल सुमधुर संयुक्त लगता है सारा समय बटोर कर तुममे ही समा जाऊं जीवन भर छिपा लो मुझको इन नर्म शिखाओं में जी लूँगा तुम्हारी ही साँसों में सन कर तुम्हारा स्पर्श जब रक्त सा दौड़ता है आँखों में श्रृंगार छलकता है नीर सा तुम हो सुरमयी यौवन की कस्तूरी आओ बाँट लें सुख इस उफनते क्षीर का

सांध्यतारा

वह शाम आँखों में कभी नहीं ढली जब तुम रंग गयी थी लालिमा सी उस दिन पास ही निकला सांध्यतारा वह तुम थी मेरी आँखों में सुषमा सी मेरी हर शाम वही होती है चाहे समय आकाश लांघ गया हो पर मै तुम्हे पास देखता रहूँ पल-पल जैसे हर रात चकोर चाँद मांग लाया हो जब भी हम साथ चले हाथ पकड़ कर मुझे लगा इतिहास फिर लौट आया काश हम थाम लेते समय बाँहों में देखो यह हँस कर मन फिर कचोट गया मैं हर करवट तुम्हे देखता रहता हूँ कहीं आँख खुलते अँधेरा न हो जाये तुम हो तो ही हैं ये दिन और रातें डर लगता है कभी ये सांस न सो जाये

तुम ही हो

तुम मेघों से झरती मकरंद पारिजात सी रजनी में महकती रति सावन में लहराती आँखों की क्षणदा तुम ही हो सुन्दर सी मेरी प्रकृति आँखों में अपार विश्वास भरी विजय सिद्ध बनी प्यार भरी नंदिनी अधरों में घुलता यौवन का रंग लगा तुम ही हो श्रृंगार भरी मेरी कामायनी मंजुल मधुर स्वप्नों की तपती वेदी कोमल तन से बिखरता मन का उन्माद आकाशगंगा सी धवल बिखेरती मुस्कान तुम ही हो मेरे प्यार का सुन्दर शंखनाद मेरे मन का कलरव संसार इन पलकों में छिपा है सुनयना आओ तुम्हे माथे पर स्पर्श कर लूँ तुम ही हो मेरे जीवन की सुलक्षणा यह कितनी लम्बी प्रतीक्षा थी आँखों से अधरों तक मेरी प्रियतमा चलो सुबह तक रात की चादर ओढ़ लें और कोई नहीं, तुम ही हो मेरी अरुणिमा

छोटा सा घर

वह छोटा सा घर, उसकी झरती छत और वहां छोटी सी सुन्दर खड़ी तुम सिमट लायी थी स्वर्ग शहर से परे जहाँ छोटी-छोटी खुशियाँ ढूंढ रहे थे हम हम इस जगह से अनजान तो नहीं थे तुम्हे गोद में लिटा कर सहलाया था यहीं कितनी देर अपलक निहारा करता था छू कर तुम्हे मन बहक जाता था कहीं कैसा अदभुत अनुभव था वह स्पर्श जब गुंथी हथेलियाँ छूती गालों को पर तुमने अधरों को रोक रखा था कहा था आज छू लो सिर्फ बालों को क्षितिज नहीं दिखता था तुमसे मिलने पर एक दिन आ मिले उसी छत तले स्वछन्द, निर्भय हो खिड़कियाँ खोले संवारने लगे कल, जहाँ आसमान सा प्यार मिले आज की रात अजब मदहोश हुई फूलों पर बिछ गई तुम्हारी सुन्दरता अब आवरण हटा लो, रात को रोक कर बह जाने दो मधु और अधरों की मादकता

एक बात

कुछ मैंने कहा तुम्हारे मन की बात तुम सब कुछ छोड़ आ गले लग गई कैसे अनकही बातों ने रस घोल दिया जो कानों से मन की अभिलाषा सुलगा गई कुछ बातों ने जो तुम पर बिखेरा गुलाल रात के पहरों में खुलता गया श्रृंगार अँधेरे में कहीं फिसल गए ये अधर सुबह स्पर्श समेट लाया फिर यौवन का सार चादर की सलवटें, वे चूड़ियों के टुकड़े कुछ कह रहें हैं कल रात की बात तुम्हारे गालों पर खिंचती सुन्दर मुस्कुराहट देखो फिर थाम रहीं हैं यौवन का हाथ तुम खिली उषा की प्रथम कली सी रजनी का आँचल उतार आँखों में प्यार लिए बिंदिया पर रख अधरों का सुमुधुर अभिनंदन आओ कुछ और बात करें सपनों को साकार किए

फुहारें

श्वेत शुभ्र सरोज सी कोमल जब तुम पर पड़ती हैं पानी की बूँदें झर-झर बह जाती धवल क्षीर सी बोलो तुम क्या सोच रही हो आँखें मूंदे फुहारें भिगो गई तुम्हारी सुन्दरता और निथर कर आ टिकीं अधरों पर यौवन बह गया सरिता सा वक्ष-गली में तुम ही मधुशाला हो, मेरी मदिर धरोहर रिमझिम सावन शतदलों पर सरकता इठलाता कृष्ण-कुंड में खो गया तुम ही स्वर्ग हो, रस-रूप में रंगी तुमसे ही है जीवन का हर पल नया जब तन पर बिखरी बूँदें सूख गईं तुम श्रृंगार कर रति सा संवर गई देखो प्रणय पुकार रहा ह्रदय फाड़ कर आ जाओ अब तो रात भी बिखर गई

अभिलाषा

उनींदी कर गई रात तुम्हे आँखों में बसा मैं हर करवट तुम्हे ही ढूंढ़ता रहा हर आहट में लगता कि तुम पास आ रही हो और, अँधेरे में बस तुम्हे ही छूता रहा जब कभी तुम पास होती हो मन करता है तुम बाहों में सिमट जाती मै निःशब्द अधरों से सौंदर्य बांचता रहता और यह रात खुली आँखों में कट जाती तुम ऐसे मौन न रहो होंठों को भींचे कुछ समझो इस मन की भाषा आँखों से ही कह दो दबी हुई बात और छलक जाने दो प्यार की अभिलाषा कैसे सम्हल सकता है ये अर्चक मन जब टपक रहा हो मादक मकरंद तुम शचि सी सुंदर यौवन से ढंकी समा जाओ इस रात, करके अपनी आँखें बंद

शचि

किसने देखा है शचि को स्वर्ग में मैंने धरा पर ही खींच लाया अन्तरिक्ष तुमसे ही लिख दी सुन्दरता की परिभाषा तुम ही हो इस जीवन का कल्पवृक्ष तुमसे ही मिला सब सुख-उल्लास तुम ही बनी ज्येष्ठ की छाया सर्दियों में ओढ़ी प्यार की गुनगुनाहट समा गई तन-मन में जैसे यौवन की माया तुम उषा की लालिमा, मन की शक्ति तुम ही जीवन की सजग दिशा तुम थकी शाम की सहलाती साँसे धीमे बंद होती पलकों पर, तुम जैसे उठती निशा छू लो होंठों से एक बार फिर मन करता है कभी न भूलें ऐसा स्पर्श निचोड़ लें इन आँखों की खुमारी आओ जनमों तक बाँट लें ऐसा उत्कर्ष तुमसे कभी आँखें नहीं हटती हैं कैसी सुन्दरता है आकाश सी छायी तुम्हारा चेहरा देखता रहूँ जीवन भर इसलिए आँखों में बरसों से है नमी भर आयी

सुबह से शाम तक

अब तो हम दोनों एक हो गए हाथ पकड़ ताक लूँ तुम्हे पल भर कुछ और करीब आ जाओ तुम अब जी लें शेष साथ चल कर अब से तुम्हारा प्यार सर-आँखों पर अधरों को छू लें आहिस्ता अकेले में बड़ी बिंदी और आँखों तले गदराये गाल कहो तुमसा कौन है इस मेले में आज सुबह इस हाथ की चाय पी लो मधु घोल होंठों को कुछ भिगा लो चलो खुली हवा में टहल आयें कुछ पल फिर लौट कर प्यार अंग से लगा लो तुम्हारी मदिर छवि भूख जगा गयी प्यार ढूँढती अंगुलियाँ वक्ष में उलझीं तुम मुस्कुराती रहो इस प्रणय बेला में यहीं जीवन की कई गुत्थियाँ हैं सुलझीं शाम की उड़ती बयार में चलें कुछ खा लें साथ-साथ खट्टा-मीठा फिर देख लें प्यार भरा चलचित्र और बटोर लें प्यार जो अँधेरे में है आज लुटा

कल से पहले

तुम न जाने कहाँ थी बरसों पहली बार उस दिन मिलने के पहले बात तुमसे और भी पुरानी होती अगर तुम होती इन आखों के तले तुम सा सुन्दर तो चंद्रमा भी नहीं बड़ी आँखें और नवनीत में सने गाल श्रृंगार को संवारती माथे पर बिंदिया चमक उठी जब बिखरा यौवन भरा गुलाल अगर तुम मुझे कल से पहले ही मिलती तो तुम्हे उम्र से ज्यादा जी लिया होता प्यार को कद सा ऊंचा उठता देखता काश, ईश्वर ने हमें कुछ और समय दिया होता तुम्हारी तस्वीर को भी अपलक देखता रहूँ तो लगता है तुम मुस्कुरा रही हो क्या तुमने भी कभी प्यार सोचा था कह दो, इस तरह क्यों मन चुरा रही हो तुम श्रृंगार की रतिमय परिभाषा हो, तुम हो मेरे प्यार की प्रथम कल्पना तुम वैसी ही हो जैसा मैंने सोचा था आओ बसा लें घर, इन आँखों में अपना

ऐसा क्यों

तुम इतनी मधुर, मदिर सी मन-मंजरी खिली-खिली रहती हो नित-दिन तुम ह्रदय में बसी रहती हो साँसों सी पर कभी क्यों लगता है पल-पल तुम बिन तुम पर बहुत प्यार आता है हर क्षण पर कभी काट जाती है कोई उलझन और अनकही सी छेड़ जाती है झंझावत तोड़ कर मन में इस प्यार का दर्पण सारा दिन निःशब्द बीत जाता है रातें मुँह औंधे कनखियों से झांकती हैं मन कहता है अधरों पर फिर रख दें प्यार फिर भी ये आँखें क्यों ताकती रहती हैं जब भी ऐसा हो तुम न मौन रहना न जाने कितनी बार ये मन रोया है तुमसे विमुख हर पल एक अँधा कुआँ है आओ जगा लें प्यार जो यहीं झूठा ही सोया है आज सुबह तुम्हे बाहों में बटोर कर लूँ अधरों के सहस्त्र स्पर्श तुम ही मेरी सुमति, कुसुमासव कामिनी फिर न टूटेगा कभी इस प्यार का उत्कर्ष

उनींदी सी तुम

दिन भर की थकी आँखें ताकती रहती हैं तुम्हें इस करवट चाहती हैं एक नज़र तुम्हारे अधरों की और इस रजनी में खिलती मुस्कुराहट अँधेरे में निरन्तर पुतलियाँ फाड़े कई बार तुम्हारा श्रृंगार बटोरता हूँ जब कभी तुम आँखें खोलो तो तुम्हे जी भर प्यार कर लूँ सोचता हूँ इतनी उनींदी मत रहो मेरी आरती मन बहुत करता है छूने अधरों को तुम्हारे गालों पर रख दूँ यह उन्माद रोक लूँ सुबह तक,यौवन की लहरों को तुम्हारी नींद मुझे भी प्यारी है तुम कितनी सुन्दर लगती हो रातों में आज ह्रदय से लग कर सो जाओ देखो कैसे प्यार संवरता है इन हाथों से कल रात पर सुबह की रोशनी चढ़ गयी अब अधरों पर रख दो वह चुलबुला सुख संकोच छोड़, खींच लो चादर सूरज के मुँह पर देखने दिन में सपनों का यह मनचला रुख

मखमली रंग

आज लगा वे दिन लौट आयें हैं जब तुमने पहना मखमल का लहंगा तुम पहले जैसे सुन्दर लगने लगी जैसे कोई गुलाब हो यौवन में रंगा होंठों में लाली, आँखों मे गहराते भाव कुछ कह रहे थे चढ़ती रात से तुम्हारे शरीर को आकर देता वह मखमल दिखा रहा है रति, आवरण की ओट में देखो ये कैसे उभर रही है वृत्त पर लहरा रही है, गुदगुदाती यौवन तन बरसने चिकनी हो रही है प्यारी कन्दुकाओं पर थाम लो उन्माद, कहीं अब लगे न सरकने अब ऐसे विमुख होकर न सो जाना पाँव पर से उठता मखमल मन रौंद रहा है तुमसा सुन्दर कोई और नहीं आँखों में फिर क्यों तृष्णा में तन कौंध रहा है अब छू लने दो मृदुल माधुरी अधरों पर रख दो कोई स्पर्श नवेला जाग जाओ बाहों में देती आमंत्रण प्यार का कल तक छोड़ कर नींद को यहीं अकेला

मौसम

यह कैसा मौसम है मादक सा गर्मियों की शाम में बरसता पानी गीला कर गया तन-मन मधुमास सा और घोल रहा प्यार जैसे बात हो कोई पुरानी छिप जाओ बाहों में फुहारों से बच कर मैं तुम्हारे गालों पर बिछी बूँदें पोंछ दूँ कैसे फिसल रही है नाक पर ये बैरी तुम्हारे होंठों पर उन्हें आहिस्ता नोंच लूँ इतनी सुन्दर तुम सृष्टि में मेरी ही हो तुम्हे हवा भी छूती है तो मन मुरझाता है तुम यूँ ही टिकी रहो ह्रदय से हाथ थामे यौवन भी देखो कितना प्यार बरसाता है कैसे फट गया बादल फिर से तुम्हारे पैरों पर भी पानी चढ़ गया ज़मीन भी घुटनों तक रंग झांक गया ये मौसम तो दिखा गया इन्द्रधनुष नया लौट कर पोंछ लो बालों पर बिखरी बूँदें सुखा लें नमी अधरों पर रख कर अधर समा जाएँ इस रात में शिवलिंग सा आज फिर ये सुलगता साथ मनोहर

झांकता नवनीत

आज तुम कितनी सुन्दर लग रही थी नीले आसमान में शरद की इंदु सी आँखें खुली तो तुम्हे देखती ही रह गईं जैसे तुम मचल रही हो लहराती सिन्धु सी तुम्हारे माथे पर कितने चुम्बन गिने कैसे गालों को हथेलियों से कब तक रहे सहलाते तुम्हारे लिए प्यार का कोई परिमाण नहीं सोचता हूँ मैं कभी न सो जाऊं तुम्हे निहारते तुम तक मन पहुंचा जहाज के पंछी सा अब तुम ही हो इस जीवन का आलिंगन अपने वक्ष से लगा लो यह अभिलाषा, और स्पर्श से गुलाबी कर दो यह सूखा मन नीले आवरण से झांकता नवनीत आज अधर छू गया गुलगुला सा भींच लो बाहों में इस आभास को कहीं फूट न जाये असमय यह बुलबुला सा कुछ देर और सहला लूँ उसकी परिधि चख लूँ भ्रमर सा मधु-मकरंद कभी कल्पना की थी क्षीर-सागर की आज कर लूँ उसे इस मुट्ठी में बंद

कुछ और प्यार करें

खिलती सुबह में तुम्हारे माथे पर चुम्बन कितना रूमानी है ये मधुर मिलन देख लूँ तुम्हे जी भर के, न जाना दूर कहीं फिर अगली रात तक न जाने कितना लम्बा है दिन काश सुबह के साथ-साथ तुम साथ होती पर तुम क्यों ढूँढती हो घर में धूल हर कोना नहीं चाहता है नयापन अब कुछ मुस्कुरा दो अधरों में खिला कर फूल आओ, साथ बैठ लो कुछ पल चुपचाप दोहरा लें वे अनुराग भरे दिन कैसे हम कॉफ़ी के प्याले से झांकते बातें कर लेते थे कुछ भी बोले बिन ‘बस’ की पिछली सीटों पर बैठे कैसे छू लेते थे बांधे अपने हाथों को जब तुम बस से उतर कर चली जाती तो मैं लौटता उदास दोहराता तुम्हारी बातों को तुम्हे मैंने बहुत खोया है उन दिनों अब ढलती उम्र में जी भर साथ रह लो छोड घर के काम, ढूंड लो प्यार दिन में, और हम दोनों अकेले हैं आज रात से यह कह दो

मेरी मुक्ता

तुमसे मिलकर ऐसा लगा जैसे तुममे ही समाया है सारा संसार आओ तारों के इस रात में समा जाएँ मांग लें एक टूटते तारे से ढेर सारा प्यार तुमसे ही हैं ये दिन-रात और खुशियाँ थाम लें ये उड़ता समय इस आँखों में चख लें अधरों से बहती मधुशाला जी लें कस्तूरी तुम्हारी नर्म शाखों में डर लगता है कहीं तुम न खो जाओ कितना भी बाँध लें, समय नहीं रुकता लगता है छिपा लूँ मुझमे ये प्यार तुम्हारा जैसे सीप में सजी हो कोई मुक्ता

ये रात अकेली

चलो फिर से ढूंढ लें वह प्यारा सा छूटा आसमान तुम गोद में लेटी रहो मुस्कुराती मैं तुम्हे देखता रहूँ छोड़ सब जग ध्यान तुम जैसे ढलती शाम की महक रात में चढ़ते चाँद सी सुन्दर बिखरती आकाशगंगा सी विस्तृत घुल रही हो तपती अधरों के अन्दर जी लें इस चाँद के टुकड़े को पी लें टपकती सुधा तुम्हारी अधरों से थाम लें यह रात इन आँखों में कह लें कुछ अनकही निशा के इन पहरों में तुम ही मेरी पूर्णिमा, एक छोटी सी सर्जना बंध जाएँ बाहों में, कुछ और दम भर लें छू लें अधरों को बहकती तर्जनी से आओ इस रात हम जी भर प्यार कर लें आज पूछ लें इन ठंडी हवाओं से कहाँ है वह चांदनी, रात का आवरण उतारती देखो दूर गगन में एक तारा टूटा तुम पर हाथ रख, मांग ही लिया मैंने मेरी आरती

कल, आज, और कल

आज भी वही ढलता सूरज उतरती ठण्ड की गुदगुदाहट तुम्हारा प्यार मांग लेने का उल्लास और मेरी ओर आती तुम्हारी आहट दूर से तुम्हे देखने का सुख जैसे हर सुबह तुम्हे करीब से देखता हूँ केवल तुम्हे पाने के वे सपने जिन्हें आज भी शब्दों में संजोता हूँ सब कुछ बदल गया जो कल था वो घर, मुट्ठी भर तुम्हे देखने की कसक तुम्हारी अधरों में यौवन की तपन सब कुछ आँखों में मदिर सा जाता है बहक समय न जाने कैसे क्षितिज लांघ गया वह हमारा पहला प्यार न जाने कहाँ खो गया बच्चों में इतने हम उलझ से गए कि तुम्हारे माथे की लकीरों में कहीं सच सो गया अब बची उम्र भी कम होने लगी है हम हैं तो सोचो न किसी और की बातें रह लें जी भर कर साथ हाथों में हाथ डाल और बाँट ले ये सुबह, दोपहरी और रातें

इन्द्रधनुष

*****

रजनीगंधा

तुममे इतना आकर्षण है कि तुम्हे देखती ये आँखें सूखती भी नहीं हैं निर्निमेष निहारते ही रात घिर आती है यह कैसी तृष्णा है जो आज भी वहीँ है जब पहली बार देखा, तो लगा जैसे तुम शशि हो प्रतिपदा की जो बढ़ती गई ह्रदय में बरसों पूर्णिमा तक और बिखेर गयीं चांदनी, सुधा सी मैंने देखा है एक संसार इन आखों में मुस्कुराहट से खिंचती नयनों की रेखा कितना सुख देती है ये तुम नहीं जानती इन में ही मैंने यह जीवन खिलता देखा मन मुरझा जाता जब ये आँखें नम होतीं बिदाई की वह रात आज भी याद है तुम्हारी आँखों में जितने बरस घुल गये हैं यह सुबह देखो जो बिखरी कल के बाद है उस रात खिली रजनीगंधा की महक में क्या सोच रही थी तुम आँखें मूंदें भीगी पलकों से फिसले जो मोती आज भी मन में झरतीं हैं वे बन बूँदें तुम्हारी आँखों में डबडबाते आंसूं कितना कुछ कह देते हैं मन की बात आँखों में फिर भी है यौवन की लाली आओ ह्रदय के पास मुस्कुराती इस रात

गुलमोहर

उन दिनों मुट्ठी भर समय कैसे हवा सा उड़ जाता था तुम्हारी प्रतीक्षा में ही विचलित ये मन क्या कुछ कर पाता था रंगों भरा वसंत जाने कैसे लुट गया गर्मी की झुलस, ‘कल’ जला रही थी हम जानते थे कि अब सावन ही नहीं कोई और ऋतु भी आस नहीं दिला रही थी वसंत की देहरी से जलती ज्येष्ठ तक तुम्हे नित दिन कितने रंगों में देखा गुलमोहर सी सुन्दर खिली-खिली तुम लग रही थी जैसे छोटी होती समय की रेखा पता नहीं था कल कैसे करवट लेगा बिखर रहे थे वसंत में खिले फूल तुम्हारी आँखों में छा रहे थे काले मेघ रूख गए होंठ और शब्दों पर छा गया धूल तुम कंधे पर टिकी कितना रोयी थी यह कैसी माया है कि अँधेरा नहीं हटता गीली भुजाओं पर तुम्हारे आंसुओं का ऋण है आज भी वह पल क्यों स्मृतियों से नहीं मिटता

पलाश

तुम चली गयी तो संसार सूना पड़ गया आँखों में मचलती लालसा सूख गयी रात ने जैसे उगते सपने निगल लिए फिर नहीं जगी जीने की कोई भूख नयी झुलसती धूप में वही दुपहरी शांत थी पुराने रास्ते अनजान लग रहे थे गर्म हवा छिपी स्मृतियाँ चांछ रही थी तुम्हे ढूंढते न जाने कितनी रातें जग रहे थे तुम्हारा स्पर्श निराश सा गुदगुदा जाता तुमसे मिलने ये मन पल-पल तरसता कागज़ पर उतरी तुम्हारे होंठों को छू कर इन सूखी आखों से केवल खून ही बरसता मन उजड़ गया था मरुभूमि सा एक पलाश ही खिला था धूप में इस झंझावत में तपते अधरों सा लाल साथ मेरे साँसे थामे रहा तुम्हारे रूप में तुम्हारी प्रतीक्षा में सावन घिर आया भीग गए पलाश, जमीन पर गिरे निष्प्राण हर सुबह अधूरी लगती है, तुम लौट आना कल हे ईश्वर तुम ही देना हमारे प्यार का प्रमाण

हरसिंगार

उषा की पहली किरण दिन का हँसता आयाम आज तुम्हे पा लेने का उत्कर्ष क्या सब कुछ तोड़ गया एक अल्पविराम पिछली रात अँधेरा चीरती आँखें तुम्हे देखती रहीं शून्य में कितनी दूर थी तुम सपनों से मैं दौड़ रहा था निष्प्राण इस अरण्य में बाधाओं से हटकर सबल था मन आज निश्चय था, मांग लूँगा तुम्हारा हाथ सुबह की धुंध में ढूंढ़ता चला वह घर जहाँ झाँक रहा था मन, हो लेने साथ तुम खड़ी थी हरसिंगार तले झरते फूलों से संवारते श्रृंगार बिखरा खुशबू सा मुट्ठी भर प्यार पर इन आँखों में जल रहे थे अंगार जैसे ही दृष्टि पड़ी तुम पर तुम्हारी आँखों में छा गया सावन बरसे आंसूं, प्यार की किरणों से छनकर बाँट लें, इस इन्द्रधनुष से खिलता जीवन आज तुम्हारी आंसुओं में दिशा थी बह जाने की हवा के उस पार हम ढूँढने चल पड़े छोटा सा आसमान पर कुछ हलचल भी हुई थी इस पार

गुलाब

नीले अम्बर की छाया में यह कैसा गुमसुम गुलाब खिला कहाँ छिपा है दर्द अनजाना सा जो फिसला आज आँखों से धुला तुम शशि सी सुन्दर प्यारी मधुमिता प्यार क्यों होता है जग का झुलसाया आ जाओ कुछ पल तो साथ रह लें फिर ढूंढ लेंगे, अँधेरे में भी तुम्हारी छाया सुनहरे गुलाब सा निखरता तुम्हारा यौवन बंद कर लूँ इन पलकों में आँखें मूंदे रख दो तुम्हारे सारे दर्द इस कंधे पर पोंछ लेने दो गालों पर फिसलती ये बूँदें तुम नीरज नयना कभी न रोना आँखों में कभी न लाना सागर सा ज्वार तुम साथ हो तो हर झंझावत बौना है असहनीय है तुम्हारी एक बूँद का भी भार इन आँखों में प्यार काजल सा सजा दें बंद कर लो पलकें, संवार लो सपने सुनहरे तुम लगती हो सावन में खिली धूप सी अब कर दो निर्बन्ध ये अधर श्रृंगार से भरे

गेंदा

आज तुम पर इतना प्यार लुटा झाँक रहा था अन्दर से कल सुबह कोई तुमसा ही होगा सुन्दर यह प्राण नया अब तो रातें भी होंगी तुम्हारी आँखों में खोयी आज मैंने तुममे देखा सृष्टि करीब से छू लिया सपनों का उगता अंकुर मन करता था तुम्हारे पास ही मंडराता रहूँ भ्रमर सा और तुम छेड़ती रहो प्यार के सुर शिशिर में खिले गेंदे के उपवन में आज तुम कितनी सुन्दर लग रही हो कल तुम्हारी ममता गोद में झाँकेगी डरना नहीं तुम तो नंदिनी लग रही हो फिर क्यों गुनगुनाती हो देख लो आज हमको जी भर के तुम क्या जानो दर्द उस ह्रदय का जो डूब रहा है किसी अनजान डर से तुम न घबराना कभी मैं हूँ सदा वक्ष पर प्यार बांधे तुम्हे देता निमंत्रण प्रभा से विभा तक बाँट लूँगा पीड़ा मैं तुम्हारी, चाहे आँखें मूंदे

बिखरे पारिजात

मन पतझड़, आँखों में ज्येष्ठ की आंधी दिन में अँधा सा धूल भरा ये दर्पण शाम ढले, तारों तले, उर-ताल सूना घबराये मन मूक रोये, तुम बिन जीवन कैसा जीवन समय टूट गया तारे सा, कुछ मांगे बिना ही तुम्हे देखते ही देखते कितने बरस सो गए सघन मुड़ कर देखूं तो दिखता है वही सुन्दर चेहरा आओ आज फिर हम उड़ चलें उसी गगन रात बिखर गयी पारिजात सी सपनों में कनखियों से छू गयी तुम्हारी मुस्कान मगन दीवार पर क्यों स्तब्ध है रतिमय प्रणय श्रृंगार तुम तो श्वास हो, सुर हो, समायी मन-आँगन तुम सतरंगी जैसे आँखों से छनता इन्द्रधनुष तुम्हारे मयूरपंखी सपनो में मुस्कुराता मधुवन तुम प्रेयसी, परिणीता, प्यार की पुष्करिणी अधरों से दहका दो रजनी का भीगा तन रात भी भटक जाये कहीं तुम न बिछुड़ना कभी तोड़ प्रकृति की विधा, रख लेना ये मृग-सा-मन मैं तो तुममे ही उलझा हूँ भूल इस संसार को मन मूक रोये, तुम बिन जीवन कैसा जीवन

प्रतिबिम्ब

*****

आज फिर

आज फिर वही पागलपन छा गया है जैसे उन दिनों तुम्हे देखने मैं बेचैन रहता था भीड़ में, घर में, और खुद में भी तुम्हे ही ढूंढ़ता हुआ सहमा रहता था तुम आज भी सामने ऐसे ही बैठी रहो मै तुम्हे दिन-रात यूँ ही देखता रहूँ आज फिर वही पागलपन छा गया है जैसे उन दिनों तुम्हे गोद में लिए निहारता रहता था तुम्हारे बालों को सहलाता गालों को छूता सपने सवांरता रहता था तुम ऐसे ही प्यार से मुस्कुराती रहो मै तुम्हे देख कर यूँ ही जीता रहूँ

उमंग

सागर के लहरों सी मदहोश बहती हवा जैसी तुम चंचल सी मुस्कुराती मन में छा गई हो आज की खुशियों में कल को भुलाती कितनी स्वछन्द इतराती बहक रही हो आज तुमसे कोई जीना सीख ले कैसा उमंग भरा है आँखों में खुमार उठा है कैसा है पागलपन गालों में यौवन है छाया तुम्हारे अधरों में खिलाखिला सा बसा है अपनापन कितनी मनमुग्ध हुई फूलों सी महक रही हो आज तुमसे कोई जीना सीख ले

लौट चलें

आज फिर सुबह खिलखिलाती उठी है सिमट कर रात आँखों में तुमसे ही उजाला है तुम्ही चांदनी में खिलती खुशबू हो पारिजात की शाखों में तुम्हे देख कर उम्र भी लौट आई है चलो फिर से उन दिनों में खो जाएँ कभी शांत तो कभी आंधी सी तुम कैसी हलचल हो तन-मन में समायी तुम कहीं न जाना छिप जाना मेरी आखों में जैसे हो मोती सीप में छिपाई आज बरसों पहले की कसक फिर याद आई है चलो फिर से उन बीती रातों में सो जाएँ

एक बार फिर

तुम आज भी वैसी ही हो पहली दृष्टि में ही मूर्छित कर देने वाली हँसते चेहरे में चाँद सी बिंदी लगाये सब का मन मोह लेने वाली तुम हो तो ये समय भी थम जाये आओ आज फिर से प्यार कर लें क्या कोई सीमा है फटी आँखों से तुम्हे देखते रहने की तुम उमंग हो, जादू हो आशा हो जीवन की कुछ कहने और कुछ समझने की मान जाओ तो हम यहीं रम जाएँ आओ आज फिर से प्यार कर लें

अनुरोध

कभी सोचा था कोई तो होगी जिसे सब कुछ बता सकेंगे तुम मिली तो लगा कि बरसों का सूनापन बस ऐसे ही मिटा लेंगे तुममे तो दुनिया का ज्ञान समाया है कभी मेरे मन की बात भी समझा करो तुम्हे देख कर लगता है निचोड़ कर रख दूँ इस मन की अनकही फिर भी चुपचाप समय निकल जाता है सोचते क्या गलत है और क्या सही तुममे ही ये प्राण समाया है कभी मेरे मन की बात भी समझा करो

सिलसिला

तुम छोटी सी, सहज सुन्दर जब मुझे दिखी तो लगा मुझे क्या तुम्हारी ही खोज है सपनों से सच तक मैंने तुम्हे बांधा फिर भी कुछ खोता हर रोज़ है कहाँ हो अब आ भी जाओ ऐसे कि कभी न टूटे प्यार का ये सिलसिला हम दोनों साथ रहें चाहे कोई और हमसे दूर निकल जाएँ छिपा लो इस प्यार को आँखों में जैसे आंसूं हों रोक लो, कहीं न फिसल जाएँ अब बाँहों में आ भी जाओ ऐसे कि कभी न टूटे प्यार का ये सिलसिला

ये मन रुआंसा

ये ज़िन्दगी है छोटी सी छोटे हैं पल, छोटी हैं आशाएं चलो उम्र भर साथ जी लें मेरा तो सब कुछ तुम्हारा ही है बस थोडा और प्यार इस रात तुम्हारे हाथ पी लें तुम न जाना छोड़कर अभी ये मन रुआंसा कभी भरा नहीं ढेर सा मुस्कुरा लें अभी हम दोनों के बीच ढूंढ लें जिधर है बचा सुख जी नहीं सकते हैं पल भर भी तुम्हारे बिना चाहे जैसा हो जीवन का रुख आ जाओ सब कुछ छोड़कर अभी ये मन रुआंसा कभी भरा नहीं

हलचल

वे दिन याद हैं जब तुमसे मिलने के लिए सारा दिन लुटा देते थे मन को न जाने कितना समझाते तुम्हे देखने और कितना दर्द उठा लेते थे तुमने सब कुछ दिया है फिर भी तुम्हे देख कर होती है अजब सी हलचल पता ही नहीं चला समय कैसे उड़ गया तुम्हारे साथ चलते हुए कितने मौसम बदल गए पर थाम न सके सूरज को ढलते हुए तुमसे बहुत कुछ लिया है फिर भी हर दृष्टि में होती है अजब सी हलचल

उस दर्पण में

तुमसे मिल कर लगता था चलो निकल जाएँ कहीं दूर जहाँ केवल हम हों आज भी मन चाहता है कि तुम्हे छिपा लूँ समय से जहाँ कभी न दिन कम हों तुम मुड़कर यूँ ही देखती रहो ये ज़िन्दगी थम जायें तुम्हारी आखों में तुम बहती हवा सी कभी गर्म, कभी ठंडी गुदगुदाती रहती हो मन में आओ कहीं बैठ जाएँ छांव में दोहराएँ उन पहली बातों को और झांक ले फिर उस दर्पण में तुम प्यार यूँ ही बिखेरती रहो ये पल यहीं जम जायें तुम्हारी आखों में

जो सच है

रात की चादर उठी तो उजाले में तुम्हे देखा खिड़की से छनती धूप सा पिछली रात को भुला तुमने मुस्कुराना सिखा दिया तुम्हारे ही रूप सा आज तुम न होती तो क्या होता हम तो चार कदम भी न चल पाते बड़ी आशाएं और थोडा सा धैर्य समेटे खुली आँखों में समय बांचते रहे अगले कल की खोज में कुछ खुशियाँ कुछ थकान लिए यूँ ही आँखों में सपने सींचते रहे आज तुम न थामती तो क्या होता हम तो ऐसे ही आंसुओं में पल जाते

स्पर्श

*****

प्रतीक्षा

वसंत की कोमल तरुणाई सी तुम, यौवन समेटी खड़ी हो कचनार के तले, देखो ओस भी भिगो गई तुम्हारी उभरी शिखाएं, न जाने कब होगी तुम अनावृत इन नयनो के तले उषा की लालिमा में पारिजात के दलों से टिकी तुम पर फिसलती ओस की एक बूँद अधरों से छू कर झूल रही है क्षीर गिरि पर मैं कर रहा ऐसा साक्षात्कार, निस्तब्ध आँखें मूँद मै श्रृंग पर बैठा देख रहा अविरल प्रवाह झरने का जहाँ भीगता यौवन खोज रहा एक स्पर्श मन भटक रहा मधुकुंड से चिकुर जाल तक भींचने कोमल शिखाएं और कुछ डूबे आकर्ष न जाने कब आत्मसात होगी ये सुधा मन पयोधि लहरों सा टकरा रहा है कगार से अब कल्पना की सीमायें टूट कर बिखर रहीं हैं मै अविचलित, कर रहा प्रणय अनुरोध भीगे बयार से

यौवन

तुम चिर यौवन सी गदराई चितवन में सिमटी श्यामल अधरों में भीगी सी खड़ी हो कहाँ स्वप्नों में लिपटी मै आकाश देखता रहा गुलमोहर के तले दिवास्वप्नों में गदराये आकार हो रहे थे साकार बहती हवा ने गिरा दिए बंधे आवरण कभी सोचा न था कि यही है संसार उज्वल ज्योत्सना में इन कपोलों पर बिछी चंपा की एक पंखुड़ी सरक कर मृदुल श्वेतांग में खो गई कहाँ जाती, ऊपर अधर नीचे अधर, एक मादक एक तरल बस, यौवन की अबाध बहती स्वप्नों में सिमट कर सो गई उर्वशी की कोमल त्वचा ढँक गई चम्पई दलों से स्पर्श की संवेदना से जैसे दावानल भड़क उठी अंदर वह दल श्रृंग से सरकता हुआ श्यामल अधरों में समा गया उत्तेजित हुए अंग और भीग गए पल, सुख सावन से सुन्दर सावन की फुहारों में खिली जलज सी श्वेत कन्दुकाऑ की श्यामल वृत्तों में संवरी चुपके से यौवन को कर रही हो आमंत्रित देखो उस पार आलिंगन कूक रही है कादम्बरी

अनुभव

मन रतिमय मयंक सा घूम रहा इस ऋतु में विचारते कैसे बहुपशों में भर लें दहकती उष्णता और कर लें साक्षात्कार शिवलिंग से सर्जना तक मनु ढूँढ रहा है छिपी कहीं कोई प्रेम की प्रणिता सावन की फुहारों में भीग गया ये मन यौवन झांक रहा श्वेतांगी के इन श्यामल घेरों से देखो यह मुक्ता फिसल रही है हिमगिरी के श्रृंग से करने आलिंगन सागर की उठती लहरों से आज फिर छटें बादलों से चांदनी बिखर गई झुक गई टहनियाँ, खिल गए पलाश रात की करवटों में क्षितिज से टूटा एक तारा आओ मांग ले स्वप्नों से मुट्ठी भर आकाश

हिमपात

रात के कोहरे से झांकता यौवन कैसे थपथपा गया वही चेहरा आज फिर आँखों में अंजन सा समाया आसमान से झरती बर्फ की ठंडक में भी तन तपतापा सा तुम्हारी अधरों पर ठहरा रहा प्यार में भरमाया खिड़की के उस पार सिसकती शाम देख रही है पेड़ों की टहनियों से टपकती हिम कणिकाएँ मन आज जम सा गया है तुम्हारे बिना आओ आलिंगन में भर लें अधरों की मुक्ताएँ तुम्हारी आँखों में प्यार की गुनगुनाहट ठिठुरती ठण्ड में जैसी हो कोई दहकती हाला अधरों से, उभरी शिखाओं तक यौवन मे गदराई तुम ही हो मेरी मधु से भरी मधुबाला मौसम फिर बौराने लगा और पंछी चहकने लगे कुछ अपने गीत गा रहे, कुछ बांचते रहे बीती पीड़ा आओ हम जम जाएँ रेत में शिवलिंग की तरह देखते हुए पेड़ों में इस मैना की रति क्रीडा

स्पर्श

रंगों से सजी आसमान में प्यार की यही छोटी सी पहचान क्षितिज दिखाती है कभी धूप तो कभी छांव में नीड़ के तले कुछ पल तुम्हारी गोद में बीत जाये, हर साँस, बस यही चाहती है लगता है फिर सदियों बाद वसंत छा रहा है कुमुद सी तुम लहलहाती मुस्कुरा रही हो मधुमई मनु नीड़ से टिका तुम्हारी सुगन्ध में सीझा वक्ष तले सपनों की सेज सजा रहा सुरमई वह सोच रहा क्या तुम हो कोई कल्पना या कोई स्पर्श जो रह गई अनछुई

तुम्हारे बिना

हम खुली आँखों में ही उम्र देखते रहे और समय चुपचाप रेंग गया प्यार का वह पहला गुदगुदा स्पर्श आज न जाने निर्मम सा कहाँ फिसल गया तुम्हे पाने और जीने की इच्छा ही आज तक मेरी एक दिशा थी कल जब तुम नहीं होगी तो मैं ढूंढता रहूँगा आसमान में कहीं मेरी एक अनुषा थी तुमसे अलग कैसा मेरा अस्तित्व है मैं अकेला इस जीवन से क्या कहूँ कि मैं सबल हूँ तुम्हारे बिना या फिर तुम्हे निराकार ईश्वर सा देखता रहूँ तुम हमेशा मेरे साथ रहोगी यही विश्वास मेरी हर श्वास है मैं तुम्हे आज मृत्यु से भी मांग लूँगा तुम्हारा प्यार जो मेरे पास है मैं निस्तब्ध आँखें नम किये बैठा रहा उस विस्तार को ताकते जो अनंत था तुम्हारे प्यार के प्रवाह में बहता जा रहा था जा टकराने जहाँ केवल प्राणांत था गहरा रही थी मन में मर्म वेदना पहले तुम मेरा दुःख बांचती रही मैं अकेला रोता रहा तुम्हे खोने के भय से बस अंतर्मन में दुबकी आशा पल सींचती रहीं मन खिंचता रहा स्मृतियाँ उभरती रहीं तुम्हारी बातें, स्पर्श, अधरों पर खिली मुस्कान सब कुछ बादलों के रेलों सा छा गया मन दोहराता रहा हे ईश्वर उसे दे दो अभयदान विस्मृत नहीं हुए हैं वे दिन जब दुग्ध शिखा पर ये हथेलियाँ थम गईं थी और कटि के नीचे चिकुर जाल में अनायास ये उंगलियां गुम गईं थी आज तुम बुझी सी क्यूँ लग रही हो वह चंचलता, आक्रोश, अधरों का स्पर्श कैसे मूर्छित सा सो रहा है तोड़ कर मेरे धैर्य का उत्कर्ष उस द्वार पर ही खड़ा रहा मैं जहाँ तुम लेटी रही निस्तब्ध मुरझाई सी आज मौन, अतीत कुछ कह रहा था कहाँ छिप गई हो तुम अकुलाई सी वही संध्या, घिरता हुआ अंधकार कुछ अस्पष्ट भय का विकार घर कर गया मेरी हर श्वास में मैं निरुत्तर सा बस तुम्हे देखता रहा साकार जैसे भी हो कहीं छुपा हुआ विश्वास जागा जीवन कि अभिराम साधना ही शक्ति बनी आज तुममे ही अपार दैवबल दिखा यही संबल तिमिर में भी अक्षय अर्कृति बनी जब तुम्हे कल प्रभात की सुनहरी किरणों ने अनावृत किया, तन-मन पुनर्जीवित हुआ मन सघन था, भविष्य तरल सा लगने लगा तुम्हारे यौवन से फिर अंग-अंग प्रभावित हुआ मैं तुम्हे हर जगह देखता रहा ऐसा लगा हर दर्पण तुम्हारा ही दर्पण है कल का अंधकार आज धुंधला सा गया और आज तुममे समा रहा चितवन है अच्छा लगा कि तुम लौट आई हो फिर वही मुस्कराहट आज साकार हो गई तुम न उठो, न ही चलो यहाँ- वहाँ फिर भी तुम हो तो हर पल जैसे हुई नयी समय बीत गया यूँ ही तुम्हे देखते हुए तुम्हारी अंतर्ध्वनि रहा मैं निरंतर सुनता श्रद्धा, पाप, पुण्य कुछ भी कह लो इसे तुम आजीवन साथ रहो, यही मैं रहा बुनता छोडो इन उदास बातों को, भूल जाएँ कल के लिऐ आज को आलोकित करें अपने शब्दभेदी बाण रख लें तरकश में अधरों पर फिर नयी मुस्कान अवतरित करें अब कुछ ही दिन दूर रह गए हैं खुशियों के उपवन सजे हैं सुन्दर सभी ने साथ दिया है इस प्रभंजन में हे ईश्वर हमें शक्ति दे मन के अंदर अभी भी शरीर पूरी तरह नहीं संभला कुछ विकार कंठ में चुभता है ये वेदना का अंतिम पड़ाव है फिर देखें कैसे तन का रंग रचता है आज फिर उड़ने लगे तुम्हारे केश मन ही नहीं चहरे का रंग भी खिल गया है यह समय तो राजभोग तृप्त करने का है देखो अधरों में भी मधु घुल गया है दुःख-सुख में हम उठते-गिरते मुड़कर फिर कभी न देखेंगे उस ओर इतना सुख लेकर जीवन के अंतस्थल से चलते जायेंगे दूर क्षितिज के उस छोर तुम्हारी आँखों से उठा इन्द्रधनुष दिशाओं पर तना, मन से जुड़ गया तुम्हारी पीड़ा की स्मृतियाँ कही खो गयीं वह बीता समय न जाने कहाँ उड़ गया कल तारों से जड़ी थी शांत निशा मैं सहमा हुआ निस्तब्ध खड़ा बांधे बाहुपाश देखता रहा कब बिखरेगी प्रभात की किरणें अब आओ जी लें यही मुट्ठी भर आकाश

आँखों में

तुमसे अलग इस एकांत रात में, लुक-छिप कर यौवन की लहरों में, तुम कब आई हो चुपके से गुदगुदाने रजनी के उन पिछले पहरों में तुम्हें देखकर सरिता की लहरों सी मतवाली हलचल रगों में घुल गई उस नीरवता में अलसायी सपनों की कसक तुम्हारे सुन्दर आयामों में मिल गयी तुम्हारे यौवन का वह अनुराग बहती दुग्ध-सी मधु-धारा, प्लावित करती सौरभ विश्वास से भरा तुमको अर्पित है इस जीवन का वैभव सारा। तुम हो तो एकांत में भी अधर उष्ण हैं न सुमन मुरझाये न प्रणय कथा बंद हुई, हूँ मै तुमसे दूर पर आकाश भी है आमोद भरा तुम्हे बाहुपाशों में ले हिम-कणिका भी मकरंद हुई। मैं देख रहा हूँ जो कुछ भी वह तुम हो और तुम्हे ढूंढता मेरा मन तुमसे अलग आज तक जीवन में न है कोई माया, न धरा है कोई धन

कल फिर...

मेरी अक्षय प्रिया तुम ही जीवन हो पहचान सकूँगा क्या अगले जीवन में तुम्हे इस जीवन को तुम सुलझाती आई हो यह प्यार, छिपा आगोश, सब अर्पित है तुम्हे तुम उठ रही हो यौवन का खुमार लिए संदेह नहीं मैं पीता हूँ यह स्पर्श,रूप, रस भरा और मधुकुंद तुम्हारी अविरल सुन्दरता का, हे ईश्वर, मुझसे न छीन लेना ये सच जीवन भरा प्रिये तुम नक्षत्रों सा बिखर न जाना आओ थाम लें इन स्वप्नों का उन्माद भी तुम चली जाओ तो इस उम्र का शेष कहीं अशांत सा भटकता रहेगा जी लेने के बाद भी

साक्षात्कार

तुम्हे साथ लिए चल पड़ा हूँ दशकों से जब तुम थी मृदुल यौवन से अश्रांत हम दोनों यहाँ मिलने के लिये जब डरते और जो भटकते थे भ्रान्त तुम जीवन-सिंधु थी तो मै डूबता-उठता लहरों सा लोल एक नवल प्रभात तुम पास आ गई तो तुम्हे आत्मसात किये पल-पल हुआ अमोल तुम्हारे पुलकित होंठों का स्पर्श परिचित सा नियति का खेल कितने दिनों को अचेत कर गया यही था तुम्हारी सर्जना का इन आँखों से मेल आज भी तुम वैसी ही माया में लिपटी अम्बुज अधरों पर उँगली धरे हुए, मुझे किस कुतूहल से देखती हो क्या जीवन थाम गया है, आँखों में पानी भरे हुए

मेरी चित्रांगी

तुम हर दिन ऋतुओं सी बिखर जाती हो कभी खिली वसंत तो कभी ग्रीष्म सा हो दावानल हथेलियों में बटोर लूँ तुम्हारी ये मुस्कान और आँखें सेंकता रहूँ सारी उम्र थामता हर पल मन कभी नहीं भरा तुम्हे देखते और अपने भी जुड़ गए तुम्हारा अधिकार बाँटने मुझे तुम लगती हो जैसे कल ही मिली हो न जाना कभी दूर कि आँखें सूख जाएँ तुम्हे झांकने मुझे लगा लो तुम्हारे वक्ष से धडकनों में सुनता रहूँ जीवन भर प्यार का ये सिलसिला रक्त सा बहती रहो तुम मुझमे यह शरीर आप ही रहेगा तुमसे हमेशा खिलाखिला तुम जीवनधारा हो, शरीर-श्रेय सब कुछ हो कभी अनायास अँधेरे में आंखे भर आती हैं मुझे अपने चले जाने का डर नहीं लगता पर तुम न खो जाना, यही संशय सताती है तुम श्वांस हो, रक्त हो, मन की दिशा हो चलने का आधार हो, और हो कुछ कर सकने का उत्कर्ष प्यास की सरिता हो, भूख का निवाला हो, प्रिये सिर्फ तुम ही हो मेरे इस जीवन का स्पर्श

कल से आज तक

इस घर में जिधर भी देखूं सिर्फ तुम हो लगता है जैसे हर जड़-चेतन में बस गई हो लहरों पर, ढलती धूप में, सड़कों पर, और न जाने कहां इस बेस्वाद जीभ में भी तुम मीठी रस गई हो अधरों से छू लूँ तुम्हारी माथे की बिंदिया इन हाथों पर थका सा सर रख कर सो जाऊं बंद आँखों में भी तुम्हे ढूंढता हूँ हर पल आज तुम हो और नहीं भी, बताओ मैं कैसे सो जाऊं मन फिर तुम्हे ढूंढ़ता है जब तुम कभी आती थी दरवाजे पर खड़ा देर तक सुना करता तुम्हारी आहट लगता की तुम अब आओगी तो भर लूँ तुम्हे बहुपाशों में देख लूं तुम्हे मन भर के, न जाने कब सजेगी फिर ये चौखट तुम्हे गोद में लेकर हथेलियों से बालों को सहलाता, तुम्हारी आँखों को देखता खो जाता किसी कल्पना में हमेशा लगता था कि तुम अभी न जाओ छोड़ कर आज तुम हो फिर भी यह बात दबी है कहीं भावना में

तुम्हारा चित्र

इस नीरव निशा में यह कैसा जाना सा स्पंदन है तुम कहाँ हो, सजीव सी बढती आ रही हो कोमल बाहें फैलाये, उन्माद से भरी मादक अधरों से आलिंगन गढती जा रही हो तुम ही प्यार का पर्याय हो, प्रणय की परिभाषा हो निर्जन में भी मन से बंधी जैसे परछाई हो श्वासों की लय हो, ह्रदय में छिपी कामायनी हो जन्मों का वरदान हो, जो मुझे मिल पाई हो तुम रति की प्रतिकृति सुन्दर सर्जना हो आरती हो अनुबंध में गुंथे अविरल आलिंगन की जीवन की प्रज्ञां हो, और हो दिशा इस चंचलता की दृष्टि हो, स्वर हो, स्पर्श हो, मुझ जैसे प्रभंजन की जब मैंने तुम्हे आज फिर से देखा दशको बाद लगा चलो फिर से ढूंढ लूँ समय के पांखों में आज तुम वही, मैं वही, पर मुड़कर नए दिखे बस ऐसे ही अनायास बन गया तुम्हारा चित्र आँखों में

आकाशदीप

कब मैंने जाना था कितने पग होती है धरती कितना ऊँचा है आसमान, कैसा है जीवन यह छोटी सी सोच बस यहीं रुक जाती टूटे छत का बूढा सा घर खिड़कियाँ खोले अँधेरा सेंक रहा रात की ओट में आँखें मूंदें चांदनी के सपने देख रहा आज की साँसे कल पर उधार रख कुछ मन की बात ऐसे ही कह जाता पत्रिका की सुन्दरी को ही प्रेयसी समझ आँखों में ही जाने कितना जी लेता कभी सोचता क्या कोई है किसी का भीड़ में भी क्यों पीछा करता है एकांत ऐसा ही कब तक चलता रहूँगा मृतप्राय कब होगा अम्बर मन तले निशांत आज फिर मन कर रहा है जी लें वे दिन एक बार और उन वसंती हवाओं में तुम्हे ढूँढने निकल चलें फिर से एक दौर निर्जन मन की गहराई से जब अँधेरे से उगते सपने ने बांगा हर पत्थर को ईश्वर मान मैंने दिन-रात बस तुम्हे ही माँगा कुछ पन्नों में ही शब्द संवार अपनी ही बातों में गिरकर मुस्कुराता शब्दों से प्यास नही बुझती कौन किसी की सुन कर कंठ सुखाता

आँखों में अंतरिक्ष

*****

अन्वेषण

अँधेरे में अब इन आखों को तुम्हे देखने की आदत सी पड़ गयी है सागर के सीने पर कहीं दूर खुलती सुबह में इस रात तुम्हारे उजाले से छिपती नींद उड़ गयी है आज भी ये मन टूटते तारे से पूछता है तुमने कैसे छू लिया यह अनछुआ सीप कितने मौसम बिखर गए इस पर अचेत पर भी नहीं मिला था कोई बटुक समीप छोटी उम्र से ही ढूंढता रहा अंतरिक्ष में उसे जिसने चाँद को गोद में उगता देखा हो कोई और नहीं वह श्रृंगार तुम ही हो मधु भरी मेरी पृथा हो, भाग्य रेखा हो

सन्नाटा

इस मुस्कराहट की गहराई में कभी सन्नाटा क्यों खिंच जाता है शब्द कुछ कहते नहीं हैं केवल अनछुआ मन मिचलाता है मै नहीं दोहराता हूँ दबे आभास कभी तुम आँखों से अँधेरा बांच लो सर्द रात, मन भी भारी हो जाता है इन झरती आसुंओं से न आंच लो समय चढ़ते प्यार हवा सा तरल हुआ तुम्हे छू कर गुब्बारे सा तन गया उड़ा ले गया हमें नए आसमानों में देखो तुमसा ही दूसरा चाँद बन गया पर तुम न लेना कोई झांझ कभी मन करता है पी लूँ तुम जैसीं हाला तुम्हारा मौन तो चंद्रहास सा चीरता है कभी न होना दूर मुझसे मेरी मधुबाला

नयी सुबह

कितनी दूर आ गए हम पलकों पर समय लिये कभी चुभती धूप तो कहीं छांव घिरी समय के तूल से ये काली बुझती आँखें आज लौट कर तुम्हारे ही आँचल में ठहरीं दिन ढले हवाएं फिर पुरवा हुई मन भीगा कितने सावन तन पर लिये तुम्हारी आँखों में दिख रहा फिर वही क्षितिज जहाँ से चले थे हम हथेलियों में थामे दिए हाथ थाम कर कुरेद लें फिर अंधेरा गिन लें कुछ बिखरे-टूटे तारे अनंत उड़ चलें रात को चीर उस सुबह करीब जहाँ तुम्हे देख हुआ था मन वसंत क्यों ढूंढ रहे हैं हम लहरों पर आकाशदीप तुम साथ हो तो भंवर में भी है किनारा चलो आज फिर निकल चलें हाथ थामे तुम्हे छू कर हर पड़ाव लगता है प्यारा सर्जना को दे मात तुम बन अक्षया समा जाओ मन के अंतर्स्थल में तोड़ दो विधा की परिधि, समय का भय कर दो फिर नव आव्हान इन अधरों के अनल से

आज भी

मीलों छूट गयी वे नर्म हवाएं फिर भी कस्तूरी तन-मन से उडी नहीं समय बादलों सा तैर दूर निकल गया तुम मन में सिन्दूरी मुक्ता सी जड़ी रही तुम्हारी तस्वीरें जो कल से आज तक खिंची प्राण पोषित बातें करती हैं मुझसे अनंत प्रतिपदा के चाँद सी जिजीविषा लिए आँखों में कर जाती हैं बुझती रोशनी फिर जीवंत तुम समय से परे शाश्वत अनुभव हो पास ही रहना आँखों की परिधि से लगी ये मृग सा मन तुम्हे छूने कभी थकता नहीं तुम्हे देखने तो ये आँखें है कब से रतजगी

अधूरा

दूर झांक रहा चाँद बादलों के बीच मन से उठता ज्वार दूरियां बाँध रहा तुम खो न जाना कहीं आकाशगंगा में इस डर में ही जीवन अंतरिक्ष लांघ रहा सब कुछ शून्य लगता है कभी जब तुम्हारे सामने मैं अकेला रहता हूँ हर सुबह तुम में इतिहास झांकता है काश फिर वही शुरुआत हो, सोचता हूँ क्या समय संबंधों को भी बूढ़ा करता है इस उत्तर को ढूंढ़ता मौन उतर आया है बुन देना वही वसंत फिर प्रेयसी बन कर देखो जीवन का कोई अंश बिखर गया है

ऐसा ही

बरसों से मुट्ठी में सिमटा है प्यार फिर भी लगता है कुछ अनछुआ हथेलियाँ कमल सा मिला कर देख लेता हूँ आज, सुबह फिर कितना निष्ठुर हुआ सूरज चढ़ता गया, समय पिघलता गया आँखें जब खुलती तो तुम्हे ही पास पातीं है मन चाहता सदा कोई दबा स्पर्श कुरेद लें पर अधरों की सुषमा तो सोती रहती है कल तक के लिए फिर मधुघट बंद हुए तुमसे क्या कहता मन की मात क्षण भर का मन जुगुनुओं सा परिचय कभी उजाले में टटोल लेना अँधेरे की बात फिर हार कर भी मैं बटोरता हूँ कण-कण टपकती सुधा से भीगी स्पर्श की हर बूँद एक बार फिर लौट आना उस टूटे छत तले जी लेंगे उम्र का शेष पग बांधे आँखें मूँद

संबंध

हो जाये न राह में रात कहीं यही सोच मन उलटे कदम चलता है तुम साथ हो तो अँधेरा यहीं थाम लें फिर भी ये दिन क्यों जल्दी ढलता है तुम मधु हो तो ये मन प्याला है निशा में पग-पग बढ़ता जीवन है जीवन है तो तुम जीने की विधा हो तुमसे ही कल आरम्भ हुआ सृजन है तुम स्पर्श हो तो जीवन आभास है सपनों में भी गुंथ जाता है प्राण तुम तक ही उठतीं सारी आशाएं तह से तुमसे ही हो रहा नीड़ का निर्माण अर्पित है तुमको मेरा जीवन, मेरी आशा सींच दो सावन, ये मन अकेला जलता है न जाना कहीं, दूर बहुत है रात अभी फिर भी ये दिन क्यों जल्दी ढलता है

एक बार फिर

कुछ काले कुछ कपसीले घने छाये सौ बादलों से झांकता एक आसमान फिर याद दिला रहा है वह सूनापन जब मन ढूंढता फिरा तुम्हारी एक मुस्कान झूठ ही सही, फिर देना दस्तक समय पर एक बार और कर लेंगे कसक का आभास गोद में सर रख कर बटोर लेना अंतरिक्ष तुम्हे देखता हुआ मैं यूँ ही जी लूँगा इतिहास इन मुट्ठी भर खुशियों में ही जी लिया तुमने ये छत्तीस कोस का कठिन प्रयाण देखो आज, कल पर सावन सा बरस रहा है अर्थ-समर्थ तुम ही हो इस जीवन का प्रमाण तुम्हारी इन प्रतिपदा जैसी आँखों से देख लो मुस्कुरा कर तो खिल जाये पूर्णिमा कस दो छू कर उर के वीणा के तार दोहरा दो एक बार फिर वही प्रेयसी सी भंगिमा

प्यार की वेला

दिन भर की जलती लालिमा भी उतर गयी चाँद के नीचे से दौड़ रहा बादलों का रेला तुम्हारी अंगड़ाई ने बिखेर दिये हैं तारे अब तो शुरू हुई है प्यार की वेला छोटा सा घर हाथ भर की रसोई तुम्हारा प्यार मिला तो लग गया मेला तुम ही अन्नपूर्णा, मन की रसिका हो अब तो बढ़ रही है प्यार की वेला मन की इच्छाएं सिमट कर एक रेख हुईं हाथों में भाग्य लिए ही मैंने कितना कुछ झेला तुम मिली तो कल दिखा और रेखाएं खिचीं अब तो गदरा रही है प्यार की वेला हम हाथ थामे आ गए हैं क्षितिज के पार अँधेरे से डरता नहीं मैं पर घबराता हूँ अकेला उँगलियों से कस लें हथेलियाँ, प्रतिबद्ध हो कर अब तो बौरा रही है प्यार की वेला

कल से पहले

कभी नहीं देखा था खिड़की के बाहर जीवन तह से उठता आंधी सा संसार किसी ने मन पहचाना, कुछ मैंने भी जाना लगता है अन्दर कहीं जाग रहा था प्यार जब सोचूं क्या होता है जीवन में रात जगे मन करता कुल-बुल वक्ष भेद उर के अन्दर कभी नहीं समझा, मन कैसे देख सकेगा प्यार पर सबकी आंखे कहती तुम हो कितनी सुन्दर रात बिसुरती रही अन्दर उजाले की तलाश में आँखें मूँदे ही ढूंढता रहा कहाँ है वह अंत:स्थल तुम मिली तो क्षितिज छू गया क्षण भर में फिर भी सुबह ढूंढता हूँ कहाँ है वह वक्ष-स्थल क्या होता अगर तुम्हे कल से पहले देखा होता मन व्याकुल तुम तक जीवन ले आता तुम में कुछ और विश्व का श्रृंगार बांच लेता और तुम्हे साथ लिए अगला जीवन भी जी लेता

सघन बरसा दो

आँखों में गगन का विस्तार लिए तुम प्यार की किस ओट से देख रही हो मै भी कनखियों से देख लूँ तुम्हारी झांकी कैसे तुम मधु भरी श्रृंगार सेंक रही हो तुम्हे देख कोई कैसे जड़ रह सकता है तुम प्राण हो, चढ़ती श्वासों की लय हो इस पार प्रिये तुम हो, उस पार खड़ा प्यासा मधु सा सघन बरसा दो अधरों में तन्मय हो तुम मेरे जीवन की मीठी रुचिका सुख समय की सुन्दर सुषमा सारी धूप ढंकती बादलों सी चंचल छाया तुम मेरी मधुबाला, तुम पर ये जीवन बलिहारी

उल्का सी तुम

तुम उल्का सी उभरी मन अँधेरे में छू कर तुम्हे चाँद से चन्द्रिका निखरी तुम्हारी आँखों से सारा श्रृंगार समेट मन आँगन रतिमय रजनीगंधा बिखरी कितना प्यार भरा है इन आँखों में ये मूक अधर कैसे कहते मन की बात झरता मधु आँखों से अधरों तक निर्झर तुम सृष्टि हो, शाश्वत जैसे दिन-रात तुम ज्येष्ठ की तपन पर छायी मेघा दहकती तृष्णा पर घन बरसाती सारा निस्तब्ध कुंतल छांह किये गालों पर आँखों से उर को न ताड़ो नयनतारा मन बंध गया है तुमसे एक ही दृष्टि में उठा लें चाँद तारो के तले, करने अभिसार बाँट लें यह रात, तुमसे निखरती चांदनी खींच लें हथेलियों पर तुम्हारा अधिकार

आसमान तक

रात आधी तारों की आकाशगंगा समेटी तुम्हे देख रही धरा बिखराती मधु लजीले तुम घन जीवन तम में भी चमकती रहना अपलक खोले तुम्हारे ये सनीर नयन सजीले इन कोमल अधरों को क्षितिज तक खींच न मुस्कुराओ, देखो गगन उन्मत्त सा बदराया भर दो कुछ प्यार छिपा कर पृथा की रेखाओं में थपक दो तन-मन पल भर जहाँ वसंत है बौराया

अलगाव कैसा

न खो जाने दो इस जीवन को अनंत तुमसे गुंथी उर लय मै फिर से गाऊं ऐसी मुस्कान भरी माया कभी स्वछंद नहीं सोचो क्षणभर, मन के बंधन कैसे अलगाऊँ हाथ थामे तुम्हारा उड़ चला अम्बर पर्यन्त मौन रात, तुम्हे आँखों लिये कितना रोता मधुर प्रतीक्षा जब इस रात तारों सी बिछी तुम बिन, चादर ओढ़े प्रणय भी क्या सोता भावाकुल मन तुम कैसे समझो मधुरिमा तुमसे मनोरंजन नहीं, नियति का संग है तुम कल्पना से सृजित हो जीवंत अनुभूति इस मन के हालाहल से जैसे उठती उमंग है कभी तन गदराये, इस मन में भी झांको सब तुम्हारा है जो कुछ थोडा है मेरा मेरी निस्तब्धता में भी बसता है प्राण प्रिये रोक लो बंद किवाड़ों में फिर से टूटता सवेरा

दिन बीता, रात गयी

जीवन सारा मथ गया दिन बीता, रात गयी, सौ संध्याओं की चांदनी लिये आज भी तुम लगती हो नयी मन तुम में ही उलझ गया दिन बीता, रात गयी, हर सुबह तुम्हे ही देख सोचता आज तो होगी कोई बात नयी तुम्हे नवनीत सा अधरों में लिए दिन बीता, रात गयी, तुम काल भेद आज से आगे बढ़ी मै आज भी रहा तुम्हे ढूंढ़ता वहीँ तुम्हारी पहली दृष्टि पलकों में बंद दिन बीता, रात गयी, करवटों में गिरता-उठता आज भी हर सुबह पाता हूँ तुम्हे नयी

तुम न मिलती तो

तुम न मिलती तो जीवन कैसा होता चीर कर निशा की नीरवता बिखरी तुम पर सुर सुन्दरता मन विचलित सहमा सा सोचता छू लेता तुम्हे बन पवन लहराता तुम न मिलती तो जीवन कैसा होता जलकुम्भी आँखों में प्यार लिये एक दृष्टि देखो अर्चक क्या है मांगता अधरों से रिसता मधु सार लिये अब सुखमय कर दो ये जीवन रीता तुम न मिलती तो जीवन कैसा होता रात आधी सपना मुझसे है कहती तुम्हारी गोद में वक्ष तले सो लेता झीनी आँचल से कल नया विश्व झांकता मेरी सुरबाला तुमसे मै क्यों यूँ ही कहता तुम न मिलती तो जीवन कैसा होता

जब तुम गाती

दूर कहीं जब तुम गाती मधु मथती मन में मुस्कुराती कानों में वे स्मृतियाँ गुनगुनाती कुछ अधरों को अधरों से छूती झुकी आँखों से कितना कह जाती दूर कहीं जब तुम गाती तुम अदभुत दिवास्वप्न हो दिखाती इतनी सुन्दर आँखों में नहीं समाती पृथा में कल्याणी सी भाग्य सजाती धवल मंजरी तुम कितना मन भाती दूर कहीं जब तुम गाती सावन में क्षणदा सी लहराती धूप ढले संध्या बन छा जाती श्रृंगार समेटी जब बालों को सहलाती छू कर तुम्हे निशा निमंत्रण दे जाती दूर कहीं जब तुम गाती

तेरे उर में छिप जाऊं

थक कर अब तेरे उर में छिप जाऊं जीवन का इतिहास लांघ कर ‘कल’ का विस्तार बाँध कर गोद में लेटा सब कुछ पाऊं तुम्हारी ही आँखों में बिछ जाऊं थक कर अब तेरे उर में छिप जाऊं सामने बैठा तुम्हे अनछुए सहलाऊँ बिसरी स्मृतियों की गुत्थियाँ सुलझाऊं सोचूं कैसे प्यार तुम्हे फिर समझाऊँ न जाना दूर, तुम्हारे पग मै अड़ जाऊं थक कर अब तेरे उर में छिप जाऊं लगता है कुछ और उम्र उधार लाऊं तुम्हे नंदिनी बना कर अर्ध्य चढ़ाऊँ रमणीय रमा तुम पर बलिहारी जाऊं समय से दूर तुम्हे कहाँ छिपाऊँ थक कर अब तेरे उर में छिप जाऊं

श्रृंगार तुम्हारा

स्पर्श कर लूं आज श्रृंगार तुम्हारा लज्जित हुआ आज नभ सारा शचि ने भी कनखियों से निहारा कौन सजी धरा पर बन नयनतारा सर्जना सी अविरल स्नेह की धारा स्पर्श कर लूं आज श्रृंगार तुम्हारा यह दिन भी बीत गया एकाकी सारा तुमसे इतिहास भी लगता है दुलारा तुम ही प्रज्ञां, प्राण हो मेरा तुम पर ही मैंने ये जीवन हारा स्पर्श कर लूं आज श्रृंगार तुम्हारा संध्या डूबी, अँधेरे ने आवरण उतारा धूमिल उजाले में उदित हुआ सितारा फूलों पर करवटें लेता ये मन बावरा कह रहा तुमसे थाम लो अनुबंध प्यारा स्पर्श कर लूं आज श्रृंगार तुम्हारा

शाख से टूटी

तुम शाख से आज क्यों दूर हो गयी कब तितली जैसे उंगली पर आ बैठी सूरज थाम हर सुबह देर से उठी नींद में भी आँखों से न हटी फिर ये मणि मुक्ता कैसे चूर हो गयी तुम शाख से आज क्यों दूर हो गयी दशकों पल-पल तुमसे ही जुडा था मन तुम्हारी सुरभि ले उड़ा था अँधेरे में भी दर्द तुम तक ही मुड़ा था फिर कैसे तुम स्पर्श से निष्ठुर हो गयी तुम शाख से आज क्यों दूर हो गयी हर करवट पर मन सिसकता है अनछुआ प्यार रगों में दुखता है स्मृतियाँ लादे मन वक्ष में छिपता है तुम त्रिधा हो, ऐसे क्यों क्रूर हो गयी तुम शाख से आज क्यों दूर हो गयी

अब तो जान लो

फिर भी तुमने नहीं मन की जानी तुमसे क्यों कुछ नहीं कह पाता जलता उर मूक सा सह जाता तुम्हे देख निशब्द रह जाता सोच कर कि तुम मझसे ऊंची ज्ञानी प्यार की चाह तुमको लगती पहचानी फिर भी तुमने नहीं मन की जानी तुम पास आती तो जीवन दिख जाता आँखों में छू कर सपना भी सुख पाता भोर हुए मन पास तुम्हारे मुख लाता मै तुम्हारी सुन्दरता का चिर ध्यानी मन की छोड़ सदा तुम्हारी ही मानी फिर भी तुमने नहीं मन की जानी तुम्हे पृथा में बसा ईश्वर से माँगा हर सुबह खुशियाँ तुम्हारी करवट टांगा तुम्हे पुकारता मन बावला कितना बांगा रति की भाषा तो है जग जानी समझ उसे मै खड़ा उसी राह पुरानी फिर भी तुमने नहीं मन की जानी

नीर झरते तक

आओ, इस रात तुममे इतिहास झांक लूँ फिर आखों में छोटी सी तुम कहीं उल्का सी हो गयी गुम सोने से पहले, संजोए सपनों के लिए तुम्हे नीर झरते तक देख लूँ आओ, इस रात तुममे इतिहास झांक लूँ कैसे आहिस्ता बड़ा हुआ कल न जाने तुम्हे आँखों में लिए पल-पल दिन बीता-रात गयी, ये जीवन भी ठहरा कुछ सुनने, इन अधरों को फिर ताक लूँ आओ, इस रात तुममे इतिहास झांक लूँ मन करता कुछ कहने को कलरव पर क्यों लगती है हर संध्या नीरव संवेदना नहीं है, छूती हवा में भी थोड़ी गर्म ही सही, आशाओं को अब ढांक लूँ आओ, इस रात तुममे इतिहास झांक लूँ

सुरबाला

तुम मेरे जीवन की सुरबाला जब तुम पर मन घना छाया लगा धरा गगन सब बिखरी माया तृष्णा के पीछे रतजगा हो भागा कितना भीग गया मन का प्याला तुम मेरे जीवन की सुरबाला टूटा छत पर आकाश मन भाया छोटा सा जीवन जग झुलसाया तुम मिली तो दर्द तुममे समाया मिट गया उर से अतीत का छाला तुम मेरे जीवन की सुरबाला समय बढ़ा, रात चादर ओढ़े सो गयी दिन चढ़ा, खोजता रहा मैं दिशा नयी पग थके पर आंसू छीन गया कोई घर में तुमने कितना सुख भर डाला तुम मेरे जीवन की सुरबाला

हवा सी तुम

तुम कैसे छू जाती हो हवा सी गुमसुम बंद आँखों में स्मृतियाँ जब टूटी तुमसे अलग दुनिया लगती झूठी तुम ही शाश्वत, जग मिथ्या लूटी तुम प्राण पर चढ़ी अक्षय कुसुम तुम कैसे छू जाती हो हवा सी गुमसुम तुम हो जीवन अनुभवों का रेला प्यार समेटी देखती मधुभावों का मेला फिर भी क्यों हो जाता हूँ मै अकेला पतझड़ में भी मै तुमसे ही खड़ा रहा द्रुम तुम कैसे छू जाती हो हवा सी गुमसुम आज भी छू जाता है वही मधुमास इतिहास नित समय खींच लाता है पास तुम ठहरी तृष्णा, दूर से दिलाती आभास ढूंढता हूँ आज भी वह दिन जो कभी था गुम तुम कैसे छू जाती हो हवा सी गुमसुम

तुम नंदिनी मेरी

तुम नंदिनी मेरी, तुम्हारा उर से अभिनन्दन दिन की तपन में तुम रजनी की सुधा मन-संयम-कर्मो की सजीव विधा जीवन की दिशा, अनुराग भरी त्रिधा सुन्दर शचि सी समायी आँखों में लिए गगन तुम नंदिनी मेरी तुम्हारा उर से अभिनन्दन तुम्हारे विस्तृत ललाट पर जब चाँद उतरा वृहद् आँखों में मन का स्वर्ग निखरा और कोमल अधरों पर कितना प्यार बिखरा श्रृंगार से भरी निशा, तुम जीवन और मै स्पंदन तुम नंदिनी मेरी, तुम्हारा उर से अभिनन्दन तुम लक्ष्मी मेरी हथेलियों में बसी गूँजती वाणी, मन में सतरंगिनी उर्वशी तुम श्रद्धा, ज्योत्सना भी, और मन की आरुषी अर्ध्य लिए तुम्हे करता हूँ शत-शत नमन तुम नंदिनी मेरी, तुम्हारा उर से अभिनन्दन कुछ दूर बिखरे शब्द... तुम जो ओझल हो गई शाम भी अनमनी होने लगी जैसे रात उसे खींच लायी हो तुम्हारे बिना सलवटें भी रो रहीं हैं सन्नाटे में साँसें भी सहमी सी गुंथ गयीं जैसे चोट खायीं हो यूँ ही अँधेरे में तुम्हे देखता रहा सुबह तक और तुम्हे अनछुए ही छू लिया