बोलने दो चीड़ को : नरेश मेहता

Bolne Do Cheed Ko : Naresh Mehta


चाहता मन

गोमती तट दूर पेन्सिल-रेख-सा वह बाँस झुरमुट शरद दुपहर के कपोलों पर उड़ी वह धूप की लट। जल के नग्न ठण्ढे बदन पर का झुका कुहरा लहर पीना चाहता है। सामने के शीत नभ में आइरन-व्रिज की कमानी बाँह मस्जिद की बिछी हैं। धोबियों की हाँक वट की डालियाँ दुहरा रहीं हैं। अभी उड़कर गया है वह छतरमंजिल का कबूतर झुण्ड। तुम यहाँ बैठी हुई थीं अभी उस दिन सेब-सी बन लाल, चिकने चीड़-सी वह बाँह अपनी टेक पृथ्वी पर यहाँ इस पेड़-जड़ पर बैठ मेरी राह में उस धूप में। बह गया वह नीर जिसकी पदों से तुमने छुआ था। कौन जाने धूप उस दिन की कहाँ है जो तुम्हारे कुन्तलों में गरम, फूली धुली, धौली लग रही थी। चाहता मन तुम यहाँ बैठी रहो, उड़ता रहे चिड़ियों सरीखा वह तुम्हारा धवल आँचल। किन्तु अब तो ग्रीष्म तुम भी दूर और यह लू। १५ नवंबर १९४९ : लखनऊ

एक प्रयोग

गरमा रही है जिन्दगी धूप पीले कम्बलों में। गुलाबी रंग बेगमबेलिया– हरे पत्तों की छतरियाँ तान अगंधिम रंगझूमर हवा में हिल सिक रहा है। बकरियों के कान वाली कदलियाँ हरे शीशों की तरह– पत्तों की अनेकों पारदर्शी बाँह खोले (ओवल ग्रीन वाली वर्दियाँ पहने जवानों की तरह कवायद में) खड़ी साँसें ले रही हैं। क्रीम-सी उजली सिन्दूर गमलों की कतारों में नये पानी नहायी गुलदावली– पथ बनाये मौन गौरैया सरीखी लग रही है। छोटे पाम हरे फौवारे सरीखे फुलझड़ी से छूट कर हों जम गये। पालियों की बाँह में दौड़ती हैं शीत जल की लहरियाँ छूने सूरजमुखी को जिसने ओस भीगी पलक अपनी रंगचिक-सी धूप के इस समुद्री तट पर उठायीं हैं। पेड़ के गाउन हवा में सरसराते उड़ रहे हैं। केवड़े की हरी तलवारें खड़ी इस धूप में दे रहीं पहरा, क्योंकि छोटे मोरपंखी नाचने का कर रहे अभ्यास। मोटी हिल रहीं हैं नीमछाँहें। लान उजलाने लगा है ओस वाले दाँत चाँदी के केतली की गरम भापों की तरह धारियों में उड़, रहा है नील कुहरा क्यारियों से। साँझ होने तक दिन के इस हजारे से झरेगा धूप का गुनगुना पानी, नहा लेती नहीं जब तक फूल की हर पाँखुरी जो कुँआरी। १ दिसम्बर १९५० : प्रयाग

दिनान्त की राजभेंट

एक प्रभाव चित्र हस्ति नक्षत्र– मेघ के ऊँटों, अश्वों और हाथियों पर लादे चमचम बादल के पश्मीने तोता के किमखाब दुशाले । लाल पालकी छोटे डोले संग बलाका उड़ते बगुले। डोलीवालो! हीयो, हीयो, समझ-बूझकर पैर रखो जी इन घन चट्टानों पर नभ की हरी नील मखमल की काई– रपटे पड़े थे बहुत जनों के पैर यहाँ, जब आसाढ़े आये थे पुरवाई की ले सगुनाई। रंग-बिरंगे बैलों-बन्दर के मुखोश पहने लगे तैरने चितकबरे कछुए कोने में। रुईफूल-सी खरगोशों की नन्हीं जोड़ी खेतों-खेतों सरपट भागी यह क्या? हाथिदाँत के झुनझुनियों की कावड़ टाँगे सेठ सरीखा मोटा बादल बैसाखी का लिये सहारा थुल,थुल,थुल,थुल, चला आ रहा। बचो, बचो, यह संगमरमर का पलंग आ रहा, पतले-पतले तँबियाये बादल के जिसमें पंख लगे हैं सूरज-चाँद जड़े दर्पण से। नील कुहर की मच्छरदानी सिर पर लादे चली आ रही वह पगली बदली बनजारिन। अरे, अरे, ईशान कोण में अन्धकार काले मजूर-सा चला-आ रहा गैस उठाये । सिर पर चाँदी की रकाबियाँ जिन पर बादल के रूमाल पड़े हैं। सिक्के जैसी गौर बदरियाँ, ढँकी ढँकी मिप्टी-सी वे केसर मेघानियाँ– सिर पर रक्खे चली आ रहीं वे संझा की दास-दासियाँ। कौन आ रहे ये सातों पोशाक पहन कर? बैण्ड बजाते– धूम धड़ाका, पुच्छल तारे, बिजली बूँदनियों की तड़-तड़-तड़-तड़ तक्तड़ाक् की आतिशबाजी। धरती के घर पाहुन आये, यह दिनान्त की राज भेंट ले चौमासे के रथ पर बैठे सावन आये। ७ सितम्बर १९५१ : प्रयाग

विपथगा का भाव

हे अननुगामिनी! अनुस्यूता बनो है घिरी प्राचीर में यदि देह हो गया यदि सत्य जीवन का विभाजित, भाव तो उन्मुक्त– लता-मण्डप-सा उसे ही फैलने दो, विभाजित इस धरित्री के रूप-सत्यों पर झुका आकाश भी तो है। अनेकों आकाश बन स्नेह– वैशाख के आकाश में गोरी बलाका-सा इतर जन जिसको कहेंगे विपथगा का भाव; देह, टूट जाती है भाव, अनभिव्यक्त रह जाए स्नेह, यह विरह का मूर्ख पाखी है जो उड़ेगा और उड़ता ही रहेगा– इसलिए हे अननुगामिनी! अनुस्यूता बनो ८ अक्टूबर १९५१ : प्रयाग

हवा चली

हवा चली बर्तन का पानी हिला– हिला किया। बतखों की कड़ी कड़ी गंधक-सी रुई का ढेर पीत प्लास्टिक सी-चोंच, सरगम के गलत रीड-सी बोली क्याँ-क्याँ!! इत्र में शराब सनी मोमदेह ग्राउण्ड-ग्लासों के पीछे तौलिये में झिले झिले केशफूल। मैटर अखबार का– कुर्सी की बेंत से बिने हुए कालम धुले गुँथे। ठुमरी अब होगी–कहता है रेडियो। फुलझड़ियाँ छूट रहीं टायर वह गाते हुए धवल दाँत ट्रेफिक के नाल लगे जूतों की खट, खट, खट्– बीजों का विज्ञापन सेंदुरी हरफों में ढक्कन खोल मोटर की घरघरघर– चर्च क्वायर बच्चों सी मिक्स्चर की शीशियाँ, किताब नयी नोट में राजा ने पहना है मुकुट– बच्चे का छोटा मुँह स्लाइस का रबड़ बड़ा फुलझाड़ियाँ घूम रहीं ये फुलझाड़ियाँ छूट रहीं केन्द्र में ताँबे ...... ......