जीवन-परिचय गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'
Biography Gayaprasad Shukla Sanehi

गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' (1883-1972) हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल के द्विवेदी युगीन साहित्यकार हैं। इन्होंने 'सनेही' उपनाम से कोमल भावनाओं की कविताएँ, 'त्रिशूल' उपनाम से राष्ट्रीय कविताएँ तथा 'तरंगी' एवं 'अलमस्त' उपनाम से हास्य-व्यंग्य की कविताएँ लिखीं। इनकी देशभक्ति तथा जन-जागरण से सम्बद्ध कविताएँ अत्यधिक प्रसिद्ध रही हैं।

आरम्भिक जीवन

गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' जी का जन्म श्रावण शुक्ल त्रयोदशी, संवत् 1940 विक्रमीय को रात्रि 9:00 बजे हुआ था। स्वयं सनेही जी द्वारा उल्लिखित इस जन्मतिथि के अनुसार उनका जन्म वस्तुतः अंग्रेजी दिनांक 16 अगस्त 1883 ई० को सिद्ध होता है, परंतु उक्त उल्लिखित स्थल पर ही कोष्ठक के अंतर्गत अंग्रेजी दिनांक 21 अगस्त सन् 1883 ई० लिखा हुआ है। चूँकि त्रयोदशी तिथि के दो ही दिन बाद पूर्णिमा हो जाती है और फिर भाद्रपद कृष्ण पक्ष की प्रथमा, द्वितीया आदि तिथि आरंभ हो जाएगी, इसलिए हिंदू पंचांग के अनुसार उल्लिखित उक्त तिथि में मुद्रण त्रुटि से पाँच दिनों का अंतर होना असंभव है। बहरहाल सनेही जी की जन्मतिथि 16 अगस्त 1883 के बदले 21 अगस्त 1883 क्यों मानी गयी यह स्वतंत्र शोध का विषय है।

उनके पिता का नाम पंडित अवसेरीलाल शुक्ल तथा माता का नाम श्रीमती रुक्मिणी देवी था। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के हड़हा नामक ग्राम में हुआ था। नौ वर्ष की आयु में उनका उपनयन संस्कार हुआ तथा तेरह वर्ष की अवस्था में उन्नाव के ही जैतीपुर ग्राम के निवासी स्वनामधर्मा श्री पंडित गयाप्रसाद जी की पुत्री भिक्षुणी देवी के साथ उनका विवाह हुआ था।

शिक्षा-दीक्षा

उस समय उर्दू ही सरकारी भाषा थी इसलिए पंडित गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' जी ने भी बचपन में ही उर्दू एवं फारसी का अच्छा अध्ययन किया था। सन् 1898 ई० में मिडिल पास करके 1899 में ही वे अध्यापन कार्य में लग गये थे। सन 1902 में नार्मल का प्रशिक्षण प्राप्त करने वे लखनऊ गये और नॉर्मल पास करके पुनः अध्यापन कार्य में लग गये थे। अध्ययन काल में उन्होंने समस्त परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की थी। उन्होंने छन्दःशास्त्र का भी उत्तम ज्ञान प्राप्त किया था।

काव्य-लेखन का आरम्भ

कविता लिखने की प्रवृत्ति सनेही जी में बाल्यकाल से ही थी। सन् 1902 ई० के आसपास ही वे गंभीर रूप से काव्य-सृजन में जुट गये थे। उनकी पहली कविता सन् 1904 या 1905 में मनोहर लाल मिश्र के संपादन में निकलने वाली पत्रिका 'रसिक मित्र' में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद उनकी रचनाएँ 'रसिक रहस्य', 'साहित्य सरोवर' तथा 'रसिक मित्र' जैसी पत्रिकाओं में बराबर प्रकाशित होने लगीं थीं। सन् 1913 में अमर शहीद श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के आग्रह पर साप्ताहिक 'प्रताप' में भी वे राष्ट्रीय कविताएँ लिखने लगे। 'प्रताप' में छपी उनकी 'कृषक क्रंदन' शीर्षक रचना ने आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट किया। सन् 1914ई० से आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के कहने से प्रयाग से निकलने वाली मासिक पत्रिका 'सरस्वती' में भी वे लिखने लगे।

उपनाम 'त्रिशूल', 'तरंगी' एवं 'अलमस्त'

पंडित गयाप्रसाद शुक्ल जी ने चार उपनामों से कविता लिखी है- सनेही, त्रिशूल, तरंगी और अलमस्त। सरकारी नौकरी के कारण उन्हें अपने उपनाम 'सनेही' के अतिरिक्त दूसरा उपनाम 'त्रिशूल' रखना पड़ा। हास्य एवं व्यंग्य रचनाएँ वे 'अलमस्त' या 'तरंगी' के नाम से भी लिखते रहे। 'त्रिशूल' उपनाम से उन्होंने प्रायः राष्ट्रीय कविताएं लिखी तथा उन रचनाओं ने ऐसी हलचल पैदा कर दी कि अंग्रेजी हुकूमत 'त्रिशूल' नाम के कवि की खोज में हाथ धोकर पीछे पड़ गयी थी।

कानपुर-निवास

1921 ई० में महात्मा गाँधी द्वारा असहयोग आंदोलन के आह्वान पर अपने 22 वर्ष के अध्यापकीय कार्य से निवृत्ति लेते हुए सनेही जी उन्नाव टाउन स्कूल के प्रधानाध्यापक पद को छोड़कर अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी जी के अनुरोध तथा राष्ट्रीय काव्य के अनन्य प्रेमी लाला फूलचंद जैन के प्रेमाग्रह से कानपुर आकर रहने लगे। तब से उनके जीवन का अधिकांश समय कानपुर में ही बीता।

एक बार सरकारी नौकरी छोड़ने पर उनका मन सरकारी नौकरी से इस प्रकार विरत हुआ कि सन् 1922 ई० में ही महामना मदन मोहन मालवीय द्वारा काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य के लिए बुलाये जाने पर भी उन्होंने स्वीकार नहीं किया।

सम्पादन

जिस समय सनेही जी कानपुर आये उस समय कानपुर से कोई दैनिक पत्र नहीं निकलता था। सनेही जी ने फूलचंद जैन के सहयोग से एक प्रेस खोलकर पंडित रमाशंकर जी अवस्थी के सहयोग से दैनिक राष्ट्रीय पत्र 'वर्तमान' का प्रकाशन आरंभ किया, जिसमें वे और अवस्थी जी समान रूप से भागीदार थे।

सनेही जी ने गोरखपुर से निकलने वाले मासिक पत्र 'कवि' का संपादन लगातार 10 वर्षों तक किया और उसके बंद होने पर सन् 1928 ई० में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से अपना निजी प्रेस खोलकर काव्य संबंधी मासिक पत्र सुकवि का प्रकाशन आरंभ किया। यह पत्रिका 22 वर्षों तक बराबर प्रकाशित होती रही। इस पत्र के माध्यम से उन्होंने हिंदी को सैकड़ों कवि प्रदान किये। प्रसिद्ध कवि अनूप शर्मा के अतिरिक्त हिंदी के और भी अनेक समर्थ कवि सनेही जी के शिष्य रहे हैं। राजा-महाराजाओं से लेकर सामान्य व्यक्तियों तक में हिंदी कविता के प्रति प्रेम और श्रद्धा का भाव उत्पन्न करने का श्रेय 'सुकवि' के संपादन के माध्यम से सनेही जी को ही है। इस प्रकार 32 वर्षों तक कविता पत्रिका का संपादन करते हुए उन्होंने काव्य-क्षेत्र में राष्ट्रीय तथा सामाजिक भावनाओं का प्रसार किया एवं रीतिकालीन शृंगारिक दलदल से निकाल कर देशहित में नया वातावरण उत्पन्न करने का प्रबल प्रयत्न किया।

कविसम्मेलनों के कवि

कानपुर निवास की अवधि में ही सनेही जी ने अनेक बड़े-बड़े कवि सम्मेलनों का आयोजन किया। सैकड़ों कवि सम्मेलनों की अध्यक्षता की जिसमें अनेक अखिल भारतीय स्तर के भी थे। कवि सम्मेलनों के ही सिलसिले में उन्होंने देश भर का भ्रमण किया। बड़ी-बड़ी रियासतों में भी गये और अनेक राजा-महाराजाओं से उनका संपर्क भी रहा।

उनकी एक कविता 'स्वदेश' का यह छन्द-बन्ध जन-जन की जिह्वा पर आद्यन्त विराजमान रहा है:-

जो भरा नहीं है भावों से,
बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।।

इन्हीं कवि-सम्मेलनों के कारण वे अपने समय में कवि सम्मेलनों के हृदय हार बने हुए थे। हालाँकि इन कवि-सम्मेलनों के कारण ही उनकी रचनात्मक श्रेष्ठता को भारी क्षति पहुँची तथा वे हिन्दी कविता के इतिहास में उस उच्च पद से वंचित रह गये जहाँ तक पहुँचने की उनमें स्वाभाविक क्षमता थी। लगभग नवासी वर्ष की आयु में कानपुर के उर्सला अस्पताल में 20 मई, 1972 ई० को उनका निधन हो गया।

प्रकाशित रचनाएँ

काव्य-पुस्तिकाएँ: प्रेम पचीसी (1905 ई० के आसपास), गप्पाष्टक, कुसुमांजलि (1915), कृषक-क्रन्दन (1916), त्रिशूल तरंग (1919), राष्ट्रीय मंत्र (1921);
सम्पादित पुस्तिकाएँ: संजीवनी [1921], राष्ट्रीय वीणा [1922]; कलामे-त्रिशूल (1930 ई० के आसपास), करुणा कादंबिनी (1958), इसके अतिरिक्त दो और काव्य-पुस्तिका 'मानस तरंग' एवं 'करुण भारती' का नामोल्लेख भी मिलता है।
ये छोटी-छोटी काव्य-पुस्तिकाएँ सनेही जी के जीवनकाल में ही अनुपलब्ध हो गयी थीं।

समग्र संचयन-सनेही रचनावली: उनकी उपलब्ध समग्र रचनाओं का यह संकलन हिंदी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद से 1984 ई० में प्रकाशित होकर सहज उपलब्ध है।

भाषा-शैली

सनेही जी ने सामान्य जन को ध्यान में रखकर रचनाएँ की हैं। अतः उनकी कविताओं की भाषा सर्वत्र सहज संप्रेष्य है। उन्होंने खड़ीबोली हिन्दी के अतिरिक्त ब्रजभाषा में भी लिखा है। 'सनेही' उपनाम से लिखी गयी रचनाओं में खड़ीबोली एवं ब्रजभाषा का परिमार्जित रूप मिलता है, जबकि 'त्रिशूल' उपनाम से लिखी गयी रचनाओं में उर्दू का मिश्रण अपेक्षाकृत अधिक है; हालांकि वह भाषा भी संप्रेषण में है सहज ही। सनेही जी के काव्य में छन्दों की विविधता है। उर्दू की बहरों, संस्कृत के वर्णवृत्तों और हिंदी के मात्रिक छन्दों का उन्होंने समान अधिकार से प्रयोग किया है। उनके छन्द-प्रयोग का यह वैशिष्ट्य है कि बड़े से बड़ा छन्दशास्त्री भी उनके काव्य में छन्द की त्रुटि नहीं निकाल सकता। उन्होंने घनाक्षरी, सवैया और छप्पय छन्द का प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक किया है। इसी प्रकार उर्दू के विविध बहरों में मसनवी, मुसद्दस और अपेक्षाकृत ग़ज़ल का प्रयोग सर्वाधिक किया है।

सम्मान एवं उपाधियाँ

देश के अनेक साहित्यिक संस्थाओं ने समय-समय पर सनेही जी का सम्मान एवं अभिनंदन किया। युवावस्था में ही उन्हें भारत धर्म महामंडल, काशी ने 'साहित्य-सितारेन्दु' की उपाधि प्रदान की थी। 1966 ई० में उत्तर प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन ने उन्हें 'साहित्य-वारिधि' की उपाधि प्रदान की। 1968 ई० में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग ने उन्हें 'साहित्य-वाचस्पति' की उपाधि प्रदान की थी। सन 1970 ई० में कानपुर विश्वविद्यालय ने उन्हें डी०लिट्० की मानद उपाधि से विभूषित किया था। इसके अतिरिक्त अनेक सांस्कृतिक संस्थाओं तथा पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा उन्हें 'राष्ट्रीय महाकवि', 'सुकवि-सम्राट', 'आचार्य' आदि अनेक उपाधियों से अलंकृत किया गया था।