जीवन परिचय : दत्तात्रेय रामचंद्र बेन्द्रे

Biography : D. R. Bendre

दत्तात्रेय रामचन्द्र बेंद्रे ( जन्म- 13 जनवरी, 1896, कर्नाटक; मृत्यु- 26 अक्टूबर, 1981, महाराष्ट्र) कन्नड़ भाषा के प्रसिद्ध कवि थे। उन्होंने कन्नड़ काव्य को सम्माननीय ऊँचाई दिलवाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। उनका प्रथम कविता संग्रह प्रकाशित होने से पूर्व ही समाज ने उन्हें एक कवि के रूप में अंगीकार कर लिया था। दत्तात्रेय जी के विशिष्ट योगदान को देखते हुए उन्हें 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' (1958) और 'पद्मश्री' (1968) भी प्रदान किया गया था।

जन्म तथा शिक्षा

दत्तात्रेय रामचन्द्र बेंद्रे का जन्म 13 जनवरी, 1896 को धारवाड़, कर्नाटक में हुआ था। उनके बचपन का अधिकांश समय अभावों में व्यतीत हुआ था। जब वे मात्र बारह साल के थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया था। इनके पिता और साथ ही दादा भी संस्कृत साहित्य के विद्वान व्यक्ति रहे थे। बेंद्रे ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा धारवाड़ में ही अपने चाचा की मदद से प्राप्त की थी। उन्होंने अपनी हाई स्कूल की परीक्षा सन 1913 में पास की। कन्नड़ भाषा के साथ-साथ अन्य कई भाषाओं के लिए भी अपना योगदान वाले दत्तात्रेय रामचन्द्र बेंद्रे का 26 अक्टूबर, 1981 को महाराष्ट्र में निधन हो गया।

बेंद्रे ने अपने व्यवसायिक जीवन का प्रारम्भ 'विक्टोरिया हाई स्कूल', धारवाड़ से एक अध्यापक के रूप में किया। उन्होंने डी.ए.वी. कॉलेज', शोलापुर में 1944 से 1956 तक एक प्रोफ़ेसर के रूप में भी कार्य किया। इसके बाद वे धारवाड़ में 'ऑल इण्डिया रेडियो' के सलाहकार भी बने।

दत्तात्रेय रामचन्द्र बेंद्रे को उत्तराधिकार में दो संपदाएँ मिली थीं- 'संस्कारिता' और 'विद्याप्रेम'। 'बालकांड' शीर्षक कविता में उन्होंने अपने बाल्यकाल के दिनों की कुछ छवियाँ उकेरी हैं। आस-पास के किसी भी घर में संपन्नता न थी, फिर भी सब ओर एक जीवंतता थी। सभी प्रकृति के हास और रोष के साथ बंधे हुए थे। उसी के ऋतु-रंगों और पर्वों के साथ तालबद्ध थे। सामाजिक या पारिवारिक हर कार्य के साथ गीत जुड़े रहते थे। भक्त व भिखारी, नर्तकिए, स्वांगी और फेरी वाले तक अपने-अपने गीत लिए आते और इन गीतों की रंगारंग भाषा उनकी लयों की विविधता दत्तात्रेय रामचन्द्र के बाल मन पर छा जाती। 1932 में उनका प्रथम कविता संग्रह प्रकाशित होने से पहले ही समाज ने उन्हें अपने कवि के रूप में अंगीकार कर लिया था।

बेंद्रे सर्वाधिक प्रबुद्ध कन्नड़ लेखकों में से एक हैं। प्रांरभ से ही उनके आगे यह समस्या रही कि किस प्रकार लोक समाज से मनोभावों का अपनी निजी बौद्धिक और आध्यात्मिक अनुभूतियों के साथ ताल-मेल बैठाया जाये। चिंतन और भावानुभूति, वस्तुपरक और आत्मपरक विषय, दोनों को अपनी रचनाओं में समायोजित करने के कारण बेंद्रे के काव्य को कुछ आलोचकों ने बौद्धिक काव्य का नाम दिया है। यह सच है कि उनकी कितनी ही कविताएँ बौद्धिक प्रगीत हैं, जबकि अन्य सबके विषय आध्यात्मिक हैं या रहस्यवादी। किंतु बेंद्रे न रोमांसवादी थे और न ही प्रतिबद्धता के कवि। वह एक संपूर्ण कवि थे, जिन्होंने युग के चेतना बिंदु के साथ स्वंय को जोड़ा। वह ऐसे कवि थे, जिन्हें भाषा व अभिव्यक्ति पर इतना अधिकार था कि जटिल विचाक-बोध और अनुभूति को भी प्रत्यक्ष कर दें।

'नाकुतंती', (चार तार) कवि दत्तात्रेय रामचन्द्र बेंद्रे का एक कविता संग्रह है, जिसमें 44 कविताएँ हैं। इनमें से छ: का संबंध समकालीन लेखकों के प्रति उनके अपने नाते और जनतंत्र के वास्तविक अभिप्राय से है। शेष कविताओं में चिंतन और भावनाओं की एक विलक्षण संगति देखने को मिलती है।

'नाकुतंती' कविता में कवि के व्यक्तित्व के चारों पक्षों, मैं, तुम, वह और कल्पनाशील आत्मसत्ता का वर्णन हुआ है। ये चार पक्ष ही कवि के व्यक्तित्व का चौहरा ढांचा है, और चार के इसी मूलभूत तत्व को कवि ने अपनी अनुभूति के सभी आध्यात्मिक और सौंदर्यात्मक क्षेत्रों में पहचाना। कविता की सृजन-प्रक्रिया विषयक छ: सॉनेटों में बेंद्रे ने कविता के चार मूल तत्त्व गिनाए हैं- 'शब्द', 'अर्थ', 'लय' औऱ 'सहृदय'। संग्रह की एक और कविता में प्रभावपूर्ण बिंबों के द्वारा कवि ने वाकशक्ति के चारों रूपों- 'परा', 'पश्यंती', 'मध्यमा' और 'वैखरी' का वर्णन किया है। बेंद्रे की सौंदर्य विषयक परिकल्पना के भी चार पक्ष हैं- इंद्रियगत, कल्पनागत, बुद्घिगत और आदर्श, जो उनकी कविताओं में यथास्थान आए हैं।

प्रमुख कृतियाँ

काव्य रचनाओं के अतिरिक्त दत्तात्रेय रामचन्द्र बेंद्रे ने कई नाटक और गद्य-कृतियाँ भी लिखी हैं-

कविता

कृष्णाकुमारी, हाडु-पाडु, गंगावतरण, हृदय समुद्र, मुगिल मल्लिगे, नाकुतंती, मत्ते श्रावण बंतु,

नाटक

हुच्चतगलु, होस संसार

कथा-साहित्य

निराभरण सुंदरी

आलोचना साहित्य

मत्तु विमर्श, साहित्य संशोधन, विचार मंजरी,

पुरस्कार

'ज्ञानपीठ पुरस्कार' - 1973), 'पद्मश्री' - 1968, साहित्य अकादमी पुरस्कार' - 1958, केलकर सम्मान - 1965,

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