बनपाखी सुनो : नरेश मेहता

Banpakhi Suno : Naresh Mehta


महिमा!

आओ उस जगह को डाकें हम कल जो आएगा रत्नाकर हो वह। इसको– चला जाने दो यह भी था बन्धु ज्वार, लीप गया फेन संग छोड़ गया सीप भार। चलो, लौटें अब, खारा जल पैर ही भिगोएगा, बालु भरी अंजलि में हमने कुछ पाया ही।।

प्रार्थना :

वहन करो ओ मन! वहन करो, सहन करो पीड़ा!! यह अंकुर है, उस विशाल वेदना की– वेणुवन दावा-सी थी तुम में जो जन्मजात– आत्मज है स्नेह करो, अंचल से ढँककर रक्षण दो, वरण करो, ओ मन! वहन करो पीड़ा!! सृष्टिप्रिया पीड़ा है कल्पवृक्ष– दान समझ, शीश झुका स्वीकारो– ओ मन करपात्री! मधुकरि स्वीकारो!! वहन करो, सहन करो, ओ मन! वरण करो पीड़ा!!

ये हरिण सी बदलियाँ :

थीं घिरीं उस साँझ भी कबरी हरिण सी बदलियाँ!! आज तक हैं कह रहे ये घाट के पत्थर, लहर जल, ककड़ियों के खेत– झुरमुटों पर मृगनयन-सी तितलियाँ उड़ती हुई, साँझिल हवा–सब कह रही हैं। पकड़ने सूर्यास्त बढ़ते चरण चिह्नों को हमारे यह समेटे आज तक लेटी हुई है गोमती की रेत। दूर उस आकाश के पीपल तले हवाओं के नील डैने थे खुले, छू तुम्हारा लाल अंचल मृदु झकोरे संग चलने के लिए करते सदा थे मृग-निहोरे। पन्थ की पसली सरीखी यह उभरती जड़ जहाँ हम बैठते थे, कह रही है– हम मिले थे, साँझ थी, तट था यही, थीं कदलियाँ!! थीं घिरीं उस साँझ भी कबरी हरिण सी बदलियाँ!! वर्ष बीते, हम समय की घाटियाँ उतरे बहुत उतरे– दूब भी सूखी, पठारों भरे तट छितरे– अर्द्ध डूबा बुर्ज धँसता गया होगा और भी गहरे। मैं विरह के शाप का पहने मुकुट सहसा गया उस रात, था चँदीले वर्क में लिपटा पड़ा तन्वंगिनी उस गोमती का गात, कुहर भीगे गाछ– रस्सियों में नाव बाँधे थे पड़े चुपचाप लेटे पाट– पंख तौले पत्तियाँ झरनी शुरू थीं– किनारों की जलभरी जड़खाइयों में उनींदी लहरें भरी थीं– फुनगियों पर कपोती सी चाँदनी अलसा रही थी– एक गहरी शान्ति, नीली शान्ति– तुम्हारी उर-झील में जो समाहित हो न पायी जल रही है आज तक मेरे हृदय में वही पहली क्रान्ति!! मेरी भ्रान्ति!! कहो तो स्वीकार लूँ अपनी पराजय, क्योंकि, सत्य है अब– हम अलग हैं, रात है, उस बाँध पर बंसी लगाये एक मछुआ गा रहा है कजलियाँ!! थी घिरीं उस साँझ भी कबरी हरिण सी बदलियाँ!!

ज्वार गया, जलयान गये :

हमारे तट पर के जलयान सदा को किसी दिशा के होकर चले गये अब। जल है, तट है, शंख सीपियों बीच समुद्री झरबेरी से हम अब भी भीगी पलक अधूरे वाक्य कण्ठ में लिये खड़े हैं। ज्वार गया, जलयान गये– इस बालू घिरे जल को हम कितने दिन तक सिन्धु कहेंगे? क्षितिज पार जब डूब रहे थे हंसपाल वे, हम पैरों लिपटे पृथिवी के भुजंग से रहे जूझते चले गये उन धावमान के सँग में लंगर विश्वासों के। ओ खाड़ी के ज्वार! उन जलयानों को तट पहुँचाना जो कि हमारे जल में छाँहें छोड़ गये हैं– गोरज रँगे अकास बीच वे चले गये– कूलगाछ सा हमें समझ उस सूर्यछाँह में, ज्वार गया, जलयान गये सँझवायी लहरों पर गतिशील सदा को चले गये। तिरते फेनफूल का जल है, मुँहधेरे का निर्जन तट है पोतहीन पर– हम विकल्प के वल्कल में संशय-विष पीड़ित किसी भग्न मस्तूल सरीखे हुए हैं वृक्षभाव से, संकल्पहीन पर– अब भी हम में प्रश्न शेष हैं– कहो क्या करें मुट्ठी में इस कसी रेत का? किसे जलायें? कहो क्या करें खुले हुए इस अग्निनेत्र का?–(क्योंकि) हमारे संकल्पित इस तीर्थकुण्ड से लपट उठ रही, सती उठाये हम पूरी प्रदक्षिणा करके लौटे– किन्तु हमारे मन का संशय, दर्प और विद्रोही वही है कैसे हम तब झुकते ओ मेरी गति! कैसे अब झुक पायें!! फिर से लौट लौट-आने को ज्वार गये वे, उर का घाव गहन करने जलयान गये वे, स्वीकारो यह शंखजल देय हमारा– हम ज्वारों से वंचित, अकिंचन जलयानों से, खण्डित पाथर-तट का प्रेय हमारा।

पीले फूल कनेर के

पीले फूल कनेर के! पथ अगोरते। सिंदूरी बडरी अँखियन के फूले फूल दुपेर के! दौड़ी हिरना बन-बन अँगना— बेंतवनों की चोर मुरलिया समय-संकेत सुनाए, नाम बजाए; साँझ सकारे कोयल-तोतों के संग हारे ये रतनारे— खोजे कूप, बावली, झाऊ, बाट, बटोही, जमुन कछारें— कहाँ रास के मधु पलास हैं? बटशाखों पे सगुन डाकते मेरे मिथुन बटेर के! पीले फूल कनेर के! पाट पट गए, कगराए तट, सरसों घेरे खड़ी हिलाती पीत-सँवरिया सूनी पगवट, सखि! फागुन की आया मन पे हलद चढ़ गई— मँहदी महुए की पछुआ में नींद सरीखी लाज उड़ गई— कागा बोले मोर अटरिया इस पाहुन बेला में तूने। चौमासा क्यों किया पिया? क्यों किया पिया? यह टेसू-सी नील गगन में हलद चाँदनी उग आई री— उग आई री— पर अभी न लौटे उस दिन गए सबेर के! पीले फूल कनेर के!