Banalata Sen : Jibanananda Das

बनलता सेन (বনলতা সেন) : जीवनानंद दास

अनुवादक - समीर वरण नंदी/सुशील कुमार झा


बनलता सेन : अनुवादक - समीर वरण नंदी

कट चुका धान

कट चुका धान खेतों में फैला है फूस रूखे पत्ते, साँप की केंचुल घोंसला, शीत में- उतराये हुए हैं। यहाँ सो रहे हैं कुछ अति परिचित लोग ख़ामोशी से वह भी यहीं सोयी है- रात दिन जिसका साथ था प्रेम में जिसे छला था। आज यही शान्ति है कि घनी-हरी घास- घास पतंगों ने ढक रखे हैं- उसकी चिन्ता और जिज्ञासा का अँधेरा स्वाद।

राह चलना

क्या एक मन में संकेत लिये-लिये अकेले-अकेले शहर-शहर राह-दर-राह बहुत चला मैं बहुत देखा सब ठीक-ठाक चलती हैं ट्रामें, बसें, रात को चुपचाप सड़क छोड़कर अपनी नींद की दुनिया में सब खो जाती हैं। रात भर स्ट्रीटलाइट अपना काम करते हुए जलती है आकाश के नीचे चुपचाप नींद की कोशिश में पड़े रहती हैं ईंटें, घर, साइनबोर्ड, झरोखे, छत-दरवाजे़ अकेले-अकेले चलते हुए अपने भीतर महसूस करता हूँ इनकी गहरी चुप्पी रात गये देखता हूँ तारे खण्डहर मीनार की चोटी सब निर्जनता से घिर गये हैं, लगता है किसी दिन इससे भी अधिक ये चुप दिखेंगे। और कभी क्या देखा है कि कलकत्ते के ऊपर हज़ारों तारे उगे हुए हैं? और कलकत्ता किसी स्मारक की तरह दिखाई दे रहा है आँख झुक जाती हैं गुमसुम चुरुट जलता रहता है हवा और धूल-मिट्टी से आँखें मींचे एक ओर खिसक जाता हूँ पेड़ों से टूट पड़े ढ़ेरों बादामी और पीले पत्ते अकेले-अकेले बेबीलोन की रातों में ऐसे ही फिरता रहा हूँ क्यों? मैं नहीं जानता हज़ारों व्यस्त सालों के बाद भी।

बनलता सेन

हज़ारों साल से राह चल रहा हूँ पृथ्वी के पथ पर सिंहल के समुद्र से रात के अँधेरे में मलय सागर तक फिरा बहुत मैं बिम्बिसार और अशोक के धूसर जगत में रहा मैं वहाँ बहुत दूर अँधेरे विदर्भ नगर में मैं एक क्लान्त प्राण, जिसे घेरे है चारों ओर जीवन सागर का फेन मुझे दो पल शान्ति जिसने दी वह-नाटोर की बनलता सेन। केश उसके जाने कब से काली, विदिश की रात मुख उसका श्रावस्ती का कारु शिल्प- दूर सागर में टूटी पतवार लिए भटकता नाविक जैसे देखता है दारचीनी द्वीप के भीतर हरे घास का देश वैसे ही उसे देखा अन्धकार में, पूछ उठी, ”कहाँ रहे इतने दिन?“ चिड़ियों के नीड़-सी आँख उठाये नाटोर की बनलता सेन। समस्त दिन शेष होते शिशिर की तरह निःशब्द आ जाती है संध्या, अपने डैने पर धूप की गन्ध पोंछ लेती है चील पृथ्वी के सारे रंग बुझ जाने पर पाण्डुलिपि करती आयोजन तब क़िस्सों में झिलमिलाते हैं जुगनुओं के रंग पक्षी फिरते घर-सर्वस्व नदी धार-निपटाकर जीवन भर की लेन-देन रह जाती अँधेरे में मुखाभिमुख सिर्फ़ बनलता सेन।

मुझे तुमने

मुझे तुमने दिखाया था-एक दिन विस्तृत मैदान, देवदार और पाम के ख़ामोश शिखर दूर-दूर तक फैले दोपहरी की निर्जन गंभीर हवा चील के डैने के भीतर खो जाते हैं निस्पन्द और फिर ज्वार की तरह लौटकर एक-एक झरोखे देर तक बतियाते थे। ऐसा लगता है मानो पृथ्वी जैसे कोई मायावती नदी के पार का देश हो। फिर बहुत दूर दिखाई दी- दोपहरी रूपसी हवा में घास पर कोई धान फटकारती गीत गाती हुई। लगता है पल-पल की दोपहरी में कोई भरापूरा जीवन तैर आया है। शाम के भीगे-भीगे मुहूर्त में नदी में सांभर, नीलगाय और हिरणों की छायाओं का आना-जाना मुझे तुमने दिखाई थी- एक सफ़ेद चीतल हिरणी की छाया नदी के पानी में पूरी शाम से मावे से बनी धूसर खीर की मूर्ति की तरह- स्थिर। कभी-कभार दूर बहुत दूर श्मशान घाट से चन्दन चिता की चिराँयध आग में घी की गंध शाम असंभव उदास झाउ, हरीशाल बुझते सूर्य में अमरूद, आँवला, देवदार और शाल हवा के सीने पर स्पृहा उत्साह जीवन का फेन रात, नक्षत्र और नक्षत्रों के निस्तब्ध अतीत में सफे़द काले छींट के कबूतर का चाँदनी में उड़ना-बैठना छटपटाना ये सब तुमने मुझे दिखाया था- उजाले की तरह, प्रेेम की तरह, अकेलेपन की तरह, मृत्यु बाद के बेहद घने अन्धकार की तरह।

तुम

नक्षत्रों की गति से चारों ओर उजाला है आकाश में, बहती हवा में नीली-नीली दीख रही प्रान्तर की घास, सो रहे हैं केंचुआ और झींप भी नींद में, आम, नीम, कटहल के विस्तार में पड़ी हुई हो केवल तुम मिट्टी की बहुत तह में खो गई हो या फिर दूर आकाश पार, अँधेरे में क्या सोचती हो तुम? यह लो... जामुनों के जंगल में अकेली कबूतरी बोली जैसे तुम्हारे अभाव में यह तुम्हीं हो। मेरे इतने क़रीब, आश्विन के विशाल आकुल-आकाश में और किससे इतने सहज, गहरे और अनायास मिलूँगा कहते ही- प्रकृतस्थ प्रकृति की तरह प्रेम-अप्रेम से दूर निखिल अंधकार के लिए उड़ गयी चिड़िया।

अन्धकार

घोर अन्धकार की नींद से नदी के छल-छल शब्द से, फिर जाग उठा... देखा पांडुर चाँद ने वैतरिणी से अपनी आधी छाया समेट ली- कीर्तिनिशा की ओर धानसीढ़ी नदी के किनारे सोया था-पौष की रात- अब मैं कभी नहीं जागूँगा, अब कभी नहीं जागूँगा। ओ, नीली कस्तूरी आभा वाले चाँद! तुम दिन का अंजोर लो, उद्दाम लो, स्वप्न लो, भीतर की मृत्यु, शान्ति और स्थिरता और अगाध नींद का जो आस्वाद है, उसे तुम बेध कर मार नहीं सकते इसलिए तुम प्रदाह, प्रवहमान यन्त्रणा लो... पता है चाँद, ओ नीली कस्तूरी आभा वाले चाँद, रात, क्या तुम जानती हो, कि मैं बहुत दिनों तक अन्धकार के भीतर अनन्त मृत्यु में घुला-मिला भोर के इस उजाले के उच्छवास में अचानक यह जानकर कि मैं पृथ्वी का हूँ... मैं डरा- दुःख पाया, असीम दुर्निवार पाया रक्तिम आकाश पर-उठकर सूर्य ने सैनिक वर्दी में, दुनिया के आमने-सामने रहने का मुझे निर्देश दिया है... मेरा पूरा हृदय घृणा, वेदना, आक्रोश से भर उठा, देखा कि सूर्य की गरमी से आक्रान्त पृथ्वी ने जैसे करोड़ों सूअरों के आर्तनाद में उत्सव शुरू कर दिया है... हाय, उत्सव! हृदय के अविरल, अंधियारे में सूर्य को डुबोये-डुबोये मैंने फिर सोना चाहा, अन्धकार के स्तन और योनि के भीतर, अनन्त मृत्यु की तरह घुल-मिलकर। हे नर, हे नारी, मैं तुम्हारी पृथ्वी को कभी जान नहीं पाया किसी और नक्षत्र का भी नहीं हूँ मैं। जहाँ का स्पन्दन, संघर्ष, गति, जहाँ उद्दाम, चिन्ता काज, जहाँ सूर्य, पृथ्वी, बृहस्पति, कालपुरुष अनन्त आकाश ग्रन्थि, सैकड़ों गिद्धों की पुकार, गिद्धिन की प्रसव-वेदना का आडम्बर, ये सब उतारते हैं पृथ्वी की भयावह आरती... और घोर अन्धेरे में नींद के आस्वाद से मेरी आत्मा ललित, मुझे क्यों जगाना चाहते हो? हे समय ग्रन्थि, हे सूर्य, माघ निशीथ की कोयल हे स्मृति, हे हिम हवा, मुझे क्यों जगाना चाहते हो तुम सब? अरबों अन्धकारों की नींद से, नदी के छल-छल शब्द से मैं अब कभी जागूँगा नहीं, धीरे-धीरे पौष की रात में धानसीढ़ी के कगार पर नज़र फिरा कर नहीं देखूँगा कि पीले चाँद ने वैतरिणी से अपनी आधी छाया कीर्तिनिशा की ओर गुटिया ली है। कभी नहीं जागूँगा, अब कभी भी नहीं जागूँगा मैं सोया रहूँगा...धानसीढ़ी नदी के आसपास

सुरंजना

सुरंजना, आज भी तुम हमारी पृथ्वी में हो, पृथ्वी की एक समवयसी लड़की की तरह, अपनी काली आँखों से देखती हो नीलिमा। यूनानी और हिन्दू ज्योति के नियमों का रूढ़ आयोजन सुना हो, फेनिल शब्दों को तिलोत्तमा नगरी की देह पर क्या-क्या चाहा था? क्या पाया है और क्या खोया है! उमर बढ़ी है अनेकों कई स्त्री-पुरुषों की, अभी-अभी डूबा है सूर्य नक्षत्रका आलोक, फिर भी सागर नीला है, सीप की देह पर अल्पना, एक पक्षी का गान कितना मीठा होता है। मानव किसी को चाहता है-उसका वही निहत उज्ज्वल ईश्वर के बदले अन्य किसी साधन का फल। याद है, कब किसी तारों भरी रात की हवा में धर्माशोक के पुत्र महेन्द्र के साथ जो कोलाहल के संग उतरे थे महासागर के पथ पर प्राणों में अन्तिम इच्छा लिए। तो भी मैं किसी को समझा नहीं पाया था वह इच्छा संघ की नहीं, शक्ति की नहीं, कल्याणकारी सुधियों की करुणा की नहीं थी- उससे भी कहीं अधिक था, मानव के लिए मानवी का प्रकाश। जिस तरह सबके सब अँधेरे समुद्रों के क्लान्त नाविक मक्खियों की गुंजन की तरह एक विह्वल हवा में भूमध्य सागर में लीन किसी दूरस्थ सभ्यता से- आज की नयी सभ्यता में लौट आते हैं, तुम उसी अपरूप सिंधु की रात में मृतकों की रुदन हो देह से प्यार करती हो, भोर के कल्लोल में।

सविता

सविता, शायद हमें मनुष्य जन्म मिला है किसी बसन्त की हो रात, भूमध्य सागर को घेरे जो जातियों थी उनके बीच उन्हीं के साथ सिन्धु के अँधेरे रास्तों पर किया है गुंजन वहाँ दबी-दबी रोशनी थी, उस रक्त-लोहित रोशनी में मुक्ता के शिकारी थे और थी रेशमी दूध की तरह गोरी-गोरी नारी। अनन्त धूप से शाश्वत अन्धकार की ओर सबके सब अचानक शाम बीतने पर कहीं नीरव ख़ामोशी में चले जाते थे। चारों ओर की नींद सप्तऋषि नक्षत्र की छाया में मध्य युग का अवसान हो गया- और इस अवसान को बनाये रखने के लिए योरप और यूनान बन गये नये सभ्य ईसाई। फिर अतीत से उठकर मैं तुम और वे आगे चले- सिन्धु की रात के जल को भी याद होगा कि नई दुनिया की तरफ़ आधे आगे चलते थे, कैसा तो अनन्योपाय होने के आह्वान पर हम लोग आकुल हो उठकर मनुष्य को मनुष्य की व्यक्तिगत उपलब्धि पर पुरस्कृतकिया जायेगा आदि-आदि सहमति के बावजूद पृथ्वी की मृत सभ्यता में जाते ही थे सागर के स्निग्ध कलरव में। अब एक दूसरी रोशनी जलती है पृथ्वी पर कैसी तो एक अपव्ययी अक्लान्त आग। और न जाने तुम्हारे घने काले केशों में कब का समुद्र का लवण, तुम्हारे मुख की रेखा में आज भी कितने मृत ईसाई पादरियों के चेहरे दिखाई देते हैं सुबह के उगते सूर्य की तरह बहुत क़रीब, पर बहुत दूर।

सुचेतना

सुचेतना, तुम बहुत दूर शाम के नक्षत्र के क़रीब एक द्वीप हो, जहाँ दालचीनी बाग़ के एक हिस्से में केवल निर्जनता बसी हुई है। इस संसार में युद्ध खून और जीत सत्य है, पर केवल यही सत्य नहीं एक न एक दिन कलकत्ता में भी होगा युद्ध पर मेरा मन तुम्हारे लिए ही रहेगा। आज तक बहुत कड़ी धूप में फिरता रहा प्राण आदमी को आदमी की तरह प्यार करने जाकर पाया है मैंने शायद मेरे ही हाथ मर गये सारे जन भाई बन्धु परिजन। पृथ्वी के भीतर-अन्दर तक बीमार है फिर भी आदमी पृथ्वी का क़र्जदार है शवों की फ़सल लादे-लादे जहाज़ आता है हमारे शहर के बन्दरगाह पर धूप में शव से फैलता है सुनहला विस्मय जिसने हमारे पिता बुद्ध कन्फ़्यूशियस की तरह हमें भी मूक किये रखा है लोग, और खून दो की गुहार लगाये हैं। सुचेतना, तुम्ही रोशनी हो- मनीषीगण इसे जानने में अभी शताब्दी लगायेंगे। ये हवा जितनी परम सूर्य किरण से उज्ज्वल है हमारे जैसे दुःखी, दुःखविहीन नाविक के हाथों मानव को भी उतना ही सुन्दर गढ़ना है आज नहीं तो अन्तिम प्रहर आने तक। मुझ में मिट्टी और पृथ्वी को पाने की बड़ी साध थी जनमूँ या न जनमूँ की दुविधा में था कि फिर जन्म लेकर जो लाभ है वह सब समझा कि ठंडी देह छूकर उजली भोर में पाया जो नहीं होना था-वही होता है आदमी का और वही होगा- शाश्वत रात की छाती में सब वही अनन्त सूर्योदय।

हज़ारों साल के खेल

हज़ारों साल से अँधेरे में जुगनू जैसे सिर्फ़ खेल रहे हैं खेल चारों ओर पिरामिड-क़फ़न की गन्ध, रेत पर बिछी चाँदनी-खजूर की बिखरी छाँह टूटे थम्भ-सा मृत-म्लान, हमारी देह से निकलती ममी की बू हो चुका जीवन का सब लेन-देन, याद है? उसने याद दिलाया- मैंने कहा, याद है सिर्फ़ ‘बनलता सेन।’

शव

भीग रही है रुपहली चाँदनी, उस खर पतवार के भीतर, हज़ारों मच्छरों ने बनाया है घर वहीं पर, सोनमछली जहाँ खाती है कुटुर-कुटुर मौन प्रतीक्षारत जहाँ रहते हैं नीले मच्छर, निर्जन जहाँ मछली के संग-सा हो रहा चुपचुप पृथ्वी के दूसरी ओर एकाकी नदी का गाढ़ा रूप, कान्तार की एक तरफ़ नदी के जल को बावला(जंगली घास) कास पर सोये-सोये देखता है केवल, साँझ को बलछौंहे मेघ, नक्षत्र रति का अन्धकार जैसे विशाल नीला जूड़ा बाँधे किसी नारी का हिलता सर, पृथ्वी की अन्य नदी, पर यह नदी लाल मेघ पीली चाँदनी भरी, इसे ग़ौर से देखो अगर दूसरी कोई रोशनी और अन्धकार यहाँ नहीं रही लाल-नीले और सुरमई मेघ-म्लान नील चाँदनी ही, यहीं पर मृणालिनी घोष का शव तिरता चिरदिन नीला, लाल, रुपहला, नीरव।

हाय चील

हाय चील, सुनहले डैने की चील, इस भीगे मेघ की दुपहरी में रो-रो और उड़ो नहीं तुम धानसीढ़ी नदी के आसपास... तुम्हारे गले स्वर में बेंतफल-सी उसी म्लान आँख याद आती है उसकी, जो किसी राजकन्याओं की तरह रूप धरे पृथ्वी से दूर चली गयी है फिर, क्यों लाते हो बुला? जी को कुरेद कौन चाहता है घाव जगाना हाय चील, सुनहले डैने की चील, इस भीगे मेघ की दुपहरी में रो-रो उड़ो नहीं, तुम धानसीढ़ी नदी के आसपास...

सिन्धुसारस

दो-एक घड़ी के लिए ही, धूपसागर की गोद में सिर्फ़ तुम और मैं हे सिन्धु सारस, मालाबार पहाड़ की गोद छोड़कर सुदूर लहरों के जंगले में उतरता हूँ रहस्य की टरैनटैला-नाच रही है, मैं इस सागर किनारे चुपचाप स्तब्ध देखता रहता हूँ बर्फ़ जैसे सफे़द डैने-आकाश की देह पर धवल फेन की तरह नाच उठकर पृथ्वी को आनन्द जताते हैं। मिट जाते हैं पहाड़ों के शिखर से गिद्धिनी के काले गीत, फिर बीतती रात, हतश्वास, फिर तुम्हारे गीतों ने रचे नया सागर, उजली धूप, हरी घास जैसे प्राण पृथ्वी की क्लान्त छाती में फिर तुम्हारे गीत शैल गह्वर से अँधेरी तरंग का करता है आह्वान। जानते हो, बहुत युग बीत गये हैं? मर गये अनेकों नृपति? सोने के बहुत धान झर गये हैं जानते हो क्यों? बहुत गहरी क्षति हमें थका गयी है-खो दिया है आनन्द का चलन, इच्छा, चिन्ता, स्वप्न, व्यथा, भविष्य, वर्तमान-यह वर्तमान विरस गीत गा रहे हैं हमारे हृदय में, वेदना की हम सन्तान? जानता हूँ पक्षी, सफे़द पक्षी, मालाबार के फेन की सन्तान, तुम पीछे नहीं देखो, तुम्हारा कोई अतीत नहीं, स्मृति नहीं, छाती में नहीं है आकीर्ण धूसर पाण्डुलिपि, पृथ्वी के पक्षियों जैसी नहीं है जाड़े का दंश और कुहासे का घर। जो रक्त बहा उसी के स्वप्न में बाँधा कल्पना का निस्संग प्रभात नहीं है- नहीं है निम्नभूमि, नहीं आनन्द के अन्तराल में प्रश्न और चिन्ता का आघात। स्वप्न तुमने देखा तो नहीं-पृथ्वी के सारे रास्ते, सारे सागर किसी एकान्त में, विपरीत द्वीप में दूर मायावी के दर्पण में भेंट होती है रूपसी के साथ अकेला, संध्या नदी की लहर में आसन्न कथा की तरह एक रेखा उसके प्राण में-म्लान केश, आँखें उसकी लता वन की तरह काली, एक बार स्वप्न में उसे देख लेती हैं पृथ्वी की सारी रोशनी। डूब गया, जहाँ स्वर्ण मधु ख़त्म हो गई, जहाँ करती नहीं रसोई मक्खी और हल्दी पत्तों की गंध से भर उठी है अविचल मैनी का मन, मेघ की दोपहर तैरती है-सुनहली चील की छाती में मचता है उन्मन अहा, मेघभरी दुपहरी में, धानसीढ़ी नदी के पास, वहाँ आकाश में और पृथ्वी की घास में कोई नहीं। तुम इस निस्तब्धता को पहचानती हो या कि रक्त के रास्ते पर पृथ्वी की धूल में पता है कांछी, विदिशा की मुखश्री मक्खी जैसी झरती है, सौन्दर्य ने हाथ रखा है अन्धकार और मुख के विवर में, गहरे नीलतम चाहत और कोशिश मनुष्य की-इन्द्रधनुष पकड़ने का क्लान्त आयोजन हेमन्त के कुहासे में मिट रहे हैं-अल्पजीवी दिन की तरह। ये सब जानते हो क्या-प्रवाल पंजर में घिरकर डैनों के उल्लास में, धूप में झिलमिलाते हैं सफ़ेद डैने सफ़ेद फेन बच्चों के पास हेलिउट्रोप जैसे दोपहर के असीम आकाश में। जगमगाते हैं धूप में बर्फ़ की तरह सफ़ेद डैने, जबकि हम पृथ्वी के स्वप्न और चिन्ताएँ सब उनके लिए अपरिचित और अनजाने हैं। चंचल घास के नीड़ में कब तुमने जन्म लिया था विषण्ण पृथ्वी छोड़कर झुंड उतरे थे सारे अरब सागर में और चीन सागर में- सुदूर भारत के सागरों के उत्सव में। शीतार्थ इस पृथ्वी की आमरण चेष्टा, क्लान्ति और विह्वलता भूलकर कब उतरे थे नील सागर के नीड़ में। धान के रस की बातें हैं पृथ्वी-इसकी नरम गन्ध पृथ्वी की शंखमाला नारी है वही-और उसके प्रेमी का म्लान निस्संग मुख का रूप, सूखे तृण की तरह उसका प्राण, नहीं जानते, कभी भी नहीं जानेंगे, बस कलरव करते उड़ जाते हैं- शतस्निग्ध सूर्य वे, शाश्वत सूर्य की तेज़ गतिसे...

बीस साल बाद

बीस साल बाद, अगर उससे हो जाए मुलाक़ात। शाम की पीली नदी में कौवे जब घर फिरते हों तब, जब घास-पात नरम और हल्की हो जाए। या जब कोई न हो धान खेत में कहीं भी आपाधापी मची न हो हंसों और चिड़ियों के घोसलों से जब गिर रहे हों तिनके मनियार के घर रात हो, शीत हो और जब शिशिर की नमी झर रही हो। जीवन कर गया है बीस साल पार- ऐसे में तुम्हें पा जाऊँ मीठी राह एक बार। हो सकता है आधी रात को जब चाँद उगा हो शिरीष या जामुन, झाऊ या आम के पत्तों के गुच्छों के पीछे काले कोमल डाल-पात झाँकती तुम आ जाओ क्या बीससाल पहले की तुम्हें कुछ नहीं याद। जीवन कर गया है बीस साल पार और ऐसे में अगर मुलाकात हो जाए एक बार। तब शायद झपटकर उल्लू मैदान पर उतर पड़ें- बबुआ की गली के अन्धकार में अश्वत्थ के जंगले के फाँक में कहाँ छुपाऊँ आपको? पलक की तरह झुककर छुपूँ कहाँ चील का डैना थाम कर- सुनहली-सुनहली चील-शिशिर का शिकार कर जिसे ले गयी उसे बीस साल बाद उसी कोहरे में अगर मुलाकात हो जाए।

घास

कच्चे नींबू के पत्तों-सी नरम मूँगिया रोशनी से भर गयी है, पृथ्वी की भोर बेला, कच्चे बातावी(अपनी सुगंध के लिये प्रसिद्ध विशेष प्रकार का नींबू) नींबू-सी हरी घास उसी की चारों ओर गन्ध हिरणों का झुंड उसे टूंग रहा है। मेरी भी इच्छा है घास की इस गन्ध को हरे मद की तरह भर-भर गिलास पान करूँ, इस घास की देह को छानूँ इस घास की आँख में अपनी आँखें मलूँ घास की आँखें मुझे पालें-पोसें, मेरी इच्छा होती है- घास के भीतर- किसी निविड़ घास माता की देह के सुस्वाद अन्धकार से घास के रूप में जन्म लूँ।

तेज़ हवा की रात

कल की रात तेज़ हवा के झोंकों भरी रात थी-असंख्य नक्षत्रों की रात, सारी रात अपार हवा मेरी मच्छरदानी उड़ाती रही मच्छरदानी कभी फूल उठी, मौसमी समुद्र के पेट की तरह, कभी बिस्तर छोड़कर नक्षत्रों की तरफ उड़ जाना चाहा उसने आधी नींद में लगता- शायद मच्छरदानी मेरे सर पर नहीं स्वाति तारे की गोद से रगड़ खाती हवा के नील सागर में सफे़द बगुले की तरह वह उड़ी। ऐसी अद्भुत रात थी कल की रात। मरे हुए नक्षत्र कल जीवित हो उठे थे-आकाश में तिलभर रखने की जगह न थी, पृथ्वी के लुप्त प्राय मृतकों का धुँधला चेहरा भी मैंने उन्हीं नक्षत्रों में देखा, रात के अन्धकार में अश्वत्थ के शिखर पर प्रेमी चील पुरुषों से शिशिर से भीगी आँख की तरह झिलमिला रहे थे तारे, चाँदनी रात में बेबीलोन की रानी की देह पर चीते की चमकीली खाल की शाल-सा चमक रहा था-विशाल आकाश। ऐसी अद्भुत रात थी कल की रात। जो नक्षत्र आकाश की छाती पर हज़ारों साल पहले मर गये थे वे भी कल जँगले के भीतर से असंख्य मृत आकाश साथ लेकर आये थे, जिन-जिन रूपसियों को मैंने एशिया, मिस्र, विदिशा में मरते देखा कल वे सब सुदूर दिगन्त पर कोहरे में लम्बे भाले हाथ में लिये क़तार में खड़े हो गये थे- मृत्यु को हराने? या जीवन की जीत जताने के लिए? या प्रेम की भयावह गम्भीर स्तब्धता भूलने के लिए? एक गहरे नीले अत्याचार ने मुझे फाड़कर रख दिया कल रात, विरामहीन आकाश के विस्तृत डैनों के भीतर पृथ्वी कीड़े की तरह मर गयी थी आकाश की छाती से उतरकर मेरे जँगले के भीतर सायँ-सायँ करती, सिंह की गर्जना से भयभीत हरे प्रान्तर में सैकड़ों जे़बरों की तरह। मेरे अंतर में मर आयी विस्तृत फलिट की हरी घास की गन्ध, दिगन्त प्लावित हो आया तीखी धूप की गन्ध से मानो मिलनोन्मत्त बाघिनी की गर्जना-अन्धकार चंचल विराट जीवन के कठोर नील प्राण को लेकर मेरा रोम-रोम जाग उठा। मेरा हृदय पृथ्वी छोड़ एक नक्षत्र को माथे पर उठाये तारों तारों में उड़ाकर ले जाते एक गिद्ध की तरह- हवा के नीले सागर में स्फीत पागल गुब्बारे की तरह उड़ गया।

वनहंस

घुग्घू के धूसर पंख उड़ जाते हैं नक्षत्र के प्राणों में- भीगे खेत छोड़ चाँद के बुलावे पर बनहंस खोलते हैं पाँख उनके शब्द सुनता हूँ सायँ-सायँ एक-दो-तीन-चार अजस्र अपार.... रात के किनारे गुस्से से डैना झाड़ते। दो-तीन इंजन की आवाज़ में भागते-भागते पड़ारहता फिर नक्षत्र का विशाल आकाश, हंस देह की गन्ध और दो-एक कल्पना के हंस याद आता है बहुत पहले मुहल्ले-टोले की अरुणिमा सन्याल का चेहरा, उड़ते-उड़ते वे पौष की चाँदनी में नीरव पृथ्वी की सारी ध्वनियाँ और सारे रंगों के मिट जाने पर हृदय में शब्दहीन ज्योत्स्ना के भीतर, उड़ते हैं कल्पना के हंस।

शंख माला

ऊबड़-खाबड़ पथ के पीछे और संध्या के अन्धकार में कौन, एक नारी... आकार जिसने मुझे पुकारा... बोली बेंतफल-सी नीली तुम्हारी दो दुःखी आँखें, मैं पाना चाहती हूँ। नक्षत्रों में, कुहासे की पाँख में वहाँ भी, साँझ की नदी में, जहाँ उतराती है जुगनुओं की देह से रोशनी... ध्ूासर घुग्घू की तरह डैने फैलाये घुली-मिली गन्ध के अन्धकार में धानसीढ़ी नदी में तैर-तैर सुनहली धान की सीढ़ियों में धान के हर खेत में मुझे खोजती रही है अकेली, घुग्घू की तरह घुग्घू के प्राणों की तरह... दिखलायी पड़ी चहचहाती चिड़ियों के रंग में सराबोर वही घुग्घू, जो साँझ-अँधेरे भीगे शिरीष पर दिखाई देता है...वही... जिसके ऊपर सींग जैसा टेढ़ा चाँद उगता है, कौड़ी जैसा सफ़ेद है जिसका मुँह दोनों हाथ हिम, आँखों में कटहल की लकड़ी जैसी लालिमा मानो चिता जलती है दक्षिण की ओर सिर किये हाथ, जैसे शंखमाला आग में जल रही हो... उसकी आँख में शताब्दियों का नीला अन्धकार उसका स्तन, नुकीले शंख जैसे दूध से भी मीठा वह श्ंखमालिनी दोबारा नहीं मिली एक ही बार मिली थी वह पृथ्वी को...

बिल्ली

दिन भर, घूम-फिर कर केवल मेरा ही एक बिल्ली से सामना होता रहता है, पेड़ की छाँह में, धूप के घेरे में, बादामी पत्तों के ढेर के पास, कहीं से मछली के कुछ काँटे लिए सफे़दी माटी के एक कंकाल-सी मन मारे मधुमक्खी की तरह मग्न बैठी है, फिर, कुछ देर बाद गुलमोहर की जड़ पर नख खरोंचती है। दिन भर सूरज के पीछे-पीछे वह लगी रही कभी दिख गई कभी छिप गई। उसे मैंने हेमन्त की शाम में जाफ़रानी सूरज की नरम देह पर सफे़द पंजों से चुमकार कर खेलते देखा। फिर अन्धकार को छोटी-छोटी गेंदों की तरह थपिया-थपिया कर उसने पृथ्वी के भीतर उछाल दिया।

शिकार

भोर— आकाश का रंग घासपतंगे की देह-सा नरम और नीला चारों ओर अमरूद और झींगे के पेड़ तोते के पंख जैसे हरे। गाँव-टोले के चौपाल पर बैठी, किसी भोली लड़की की तरह एक तारा अभी भी आकाश में है.... या कि, मिस्र की मानुषी ने अपने वक्ष की जो मुक्ता, मेरे नीले मद के गिलास में डाली थी वैसा ही एक तारा अभी भी जल रहा है... हज़ारों साल पहले की एक रात में उसी तरह — बर्फ़ीली रात में देह गरमाये रखने के लिए गाँव वाले रात भर मैदान में जो आग जलाए हुए थे — मोरग फूल की तरह लाल-लाल आग, सूखे अश्वत्थ के मुड़े पत्तों में अभी भी उनकी आग जल रही है... सूर्योदय में उसका रंग अब कुमकुम की तरह नहीं हो गया है — मैनी के सीने में विवर्ण की इच्छा की तरह... भोर की रोशनी में शिविर के चारों ओर — टलमल मोर के हरे नीले पंखों जैसे.... आकाश और जंगल कौंध है। भोर — सारी रात चीता बाघिन के हाथ से स्वयं को बचाए-बचाए नक्षत्रहीन, मेहघ्नी अन्धकार में सुन्दरी के वन से अर्जुन के जंगल में भागते-भागते सुन्दर बादामी हिरण इस भोर की राह देख रहा था... आया है वह : भोर के उजाले में उतरकर खा रहा है कच्चे बातावी-सी सादी सुगन्धित घास । नदी की तीक्ष्ण कँपकँपाती लहर में वह उतरा — निद्राहीन, थका विह्वल देह को óोत की तरह आवेग देने के लिए, अन्धकार की ठण्डी सिकुड़ी नसें तोड़कर भोर की रोशनी में विस्तीर्ण उल्लास पाने के लिए, नीले आकाश तले सूर्य की सुनहरी वर्षा में जगकर साहस से साधता है सौन्दर्य, हिरणी-दर-हिरणी को रिझाने के लिए । ...अजब एक चिरती हुई आवाज़ गूँजती है। नदी का जल मचका (एक लाल बड़े फूल का नाम) फूल की तरह लाल हो उठा आग जला, उष्ण हरिण का मांस पक आया लाल-लाल नक्षत्र के नीचे घास के बिछौने पर बैठे-बैठे नये-पुराने क़िस्से सिगरेट का धुआँ, कई पसरे लोगों की पेशानियाँ इधर-उधर बिखरी पड़ी बन्दूके़ं बर्फ़-सी, ख़ामोश और बेगुनाह नींद...?

नग्न निर्वसन हाथ

रोशनी की रहस्यमयी सहोदरा-सा आकाश में प्रगाढ़ हो उठा है अन्धेरा... जिसका चेहरा तक नहीं देखा, जिसने सदियों से मुझे चाहा उस नारी की तरह फागुन के आकाश में निविड़ हो उठा है अन्धेरा। स्मृति खनकती है-भीतर कोई एक खोई हुई नगरी की भारत के तीर पर...उस धूल धूसर महल की या कि जो था भूमध्य सागर के कगार पर या सिन्धु के पास... आज नहीं है लेकिन कभी थी वह नगरी... कीमत असबाबों से भरा, कोई एक महल था... ईरानी गलीचे, कश्मीरी नमदे नदी की तरंग से निकला एक साबुत मोती-प्रवाल आच्छादित, मेरा विलुप्त मन, मेरी मरी आँखें, मेरी खोयी स्वप्नाकांक्षा और नारी तुम किसी समय, एक दिन यह सब कुछ था। संतरे के रंग लिए ढेर सारी धूप ढेरों पहाड़ी तोते और कबूतर थे महोगनी की छाया में पल्लव ही पल्लव संतरे के गाढ़े चमकते रंग की धूप और तुम... शताब्दियों से तुम्हें देखा नहीं ढूँढ़ा तक नहीं... लेकिन आज फागुनी अँधेरा ले आया है उसी समुद्र पार की कहानी अपरूप महल और गुम्बदों की पीड़ा-रेखा और नाशपाती की खोयी गंध हज़ारों हिरनों और बघछल्लों वाली धूसर पाण्डुलिपियाँ, इन्द्रधनुषी शीशे के झरोखे पर्दे-पर्दे पर भोर की रंगीन चमक कमरे और कमरों से और दूर, कमरे और कमरों के भीतर क्षणिक आभास- जीर्ण, स्तब्ध और आश्चर्य। पर्दे के गलीचे परलाल धूप का बिखरा स्वेद, गिलास में लाल तरबूजों का रस नग्न निर्जन हाथ तुम्हारा तुम्हारा नग्न निर्वसन हाथ...

एक दिन आठ साल पहले

सुना चीर-फाड़ घर ले गये हैं उसे, कल फागुन की रात के अंधेरे में जब डूब चुका था पंचमी का चाँद तब मरने की उसे हुई थी साध, पत्नी सोई थी पास-शिशु भी था, प्रेम था, आस थी- चाँदनी में तब भी कौन-सा भूत देख लिया था जो उसकी टूट गयी नींद? या बहुत दिनों से आ नहीं रही थी नींद- इसलिए चला आया चीर-फाड़ घर में नींद लेने अब। पर क्या चाही थी उसने यही नींद! महामारी में मरे चूहों की तरह मुँह से खून के थक्के उगलता, कन्धे सिकोड़े, छाती में अंधेरा भरे सोया है इस बार कि फिर नहीं जगेगा कभी एक भी बार। जानने की गहरी पीड़ा लगातार ढोता रहा जो भार उसे बताने के लिए जागेगा नहीं एक भी बार यही कहा उसे- चाँद डूबने पर अद्भुत अंधेरे में उसके झरोखे पर ऊँट की गर्दन जैसी किसी निस्तब्धता ने आकर। उसके बाद भी जगा है उल्लू। भीगा पथराया मेंढक उष्ण अनुराग की कामना से प्रभात के लिए दो पल की भीख माँग रहा है। सुन रहा हूँ बेरहम मच्छरदानी के चारों ओर भिनभिनाते मच्छर अँधेरे में संग्राम करते जीवित हैं- जीवन óोत को प्यार करके। खून और गन्दगी पर बैठकर धूप में उड़ जाती है मक्खी, सुनहली धूप की लहर में कीड़ों का खेल जाने कितनी-कितनी बार देख चुका हूँ। सघन आकाश या किसी विकीर्ण जीवन ने बाँध रखा है इनका जीवन, शैतान बच्चे के हाथ में पतंगे की तेज़ सिहरन मरण से लड़ रहा है, चाँद छिपने पर गहरे अँधेरे में हाथ में रस्सी लेकर अकेले गये थे तुम अश्वत्थ के पास यह सोचकर कि मनुष्यों के साथ में कीड़े और पक्षी का जीवन नहीं मिलेगा। अश्वत्थ की शाख ने नहीं किया प्रतिवाद? क्या जुगनुओं के झुण्ड ने आकर नहीं किया सुनहले-फूलों का स्निग्ध झिलमिल? थुरथुरे अन्ध घुग्घू ने आकर कहा नहीं क्या- ”बूढ़ा चाँद बाढ़ में बढ़ गया क्या? बहुत अच्छा! अब दबोच लूँ दो एक चूहे।“ बाँचा नहीं घुग्घू ने आकर यह प्रमुख समाचार? जीवन का यह स्वाद-पके जौ की गन्ध सनी हेमन्त की शाम- असह्य लगी तुम्हें तभी चले आये हो ठंडे घर में कुचल कर मरे चूहे के रूप में। सुनो तब भी इस मृतक की कहानी- यह किसी नारी के प्रेम का चक्कर नहीं था विवाहित जीवन की चाह थी ठीक समय पर एक जीवनसंगिनी खुद ही आ गयी। ग्लानि से हड्डी टूट जाए या दुख से मर जाए ऐसा कुछ नहीं था उसके जीवन में जो चीरफाड़ घर में तख्त पर चित आ लेटता। इन सबके बाद भी, जानता हूँ नारी का हृदय प्रेम, शिशु घ्र ही सब कुछ नहीं है धन नहीं, मान नहीं, सदाचार ही नहीं सिर्फ़ विपन्न विस्मयता ही हमारे खून में खेल रचाया करती है, क्लान्ति हमें थकाती है, यही क्लान्ति वहाँ नहीं है इसलिए लाश घर की मेज़ पर चित पड़ा सोया है। तब भी रोज़ रात को देखता हूँ आहा, अश्वत्थ की डालपर थरथर काँपता अन्धा घुग्घू- आँख पलटाये कहता है- ”बूढ़ा चाँद! बाढ़ में बह गया? अच्छा। अब दबोच लूँ दो-एक चूहे।“ हे आत्मीय पितामह आज करो चमत्कार? मैं भी तुम्हारी तरह बूढ़ा हो जाऊँ और इस बूढ़े चाँद को पहुँचा कालीदह की बाढ़ के पार हम दोनों मिलकर शून्य कर जायेंगे जीवन का प्रचुर भंडार। बनलता सेन : अनुवादक - सुशील कुमार झा

बनलता सेन

हजारों बर्ष तक भटकता रहा इस धरा के पदचिन्हों पर, नीरव अन्धकार में ही, सिंहल समुद्र हो या मलय सागर; वहाँ भी, जहाँ था अशोक और बिम्बसार का धूमिल संसार; और भी दूर विदर्भ में भी था, छाया था जहाँ धुंधला अन्धकार; थका हारा क्लांत मैं; और चारों ओर था बिखरा जीवन; हो मानो समुद्र का फेन; दो घड़ी की भी शान्ति जिस ने दी, वह थी नाटोर की बनलता सेन! श्रावस्ती के विश्वश्रुत शिल्प सा उसका मुख, विदिशा की काली रात के अन्धकार से घने उसके केश; और भी दूर समुद्र में, जैसे टूटी नावों में दिशाएँ खो चुका नाविक, अचानक देखे दालचीनी के द्वीपों के बीच हरी पत्तियों का कोई देश; उसी अन्धकार में देखा था; पूछा था ‘कहाँ थे तुम’ होकर बेचैन, भटकों को ठौर दिखाती नजरों से तकती नाटोर की बनलता सेन! दिन के बाद धीरे धीरे ओस की बूँद सी लरजती आती शाम; डैनों से पोंछती चील गंध धूप की; बुझते हुए सभी रंग और थमती हुई आवाज़ें;रहती केवल कोरी पाण्डुलिपि सी रात, और उसमें कुछ भूली-बिसरी कहानियाँ बुनते झिलमिलाते जुगनु; लौट जातीं सब चिड़ियाँ - सभी नदियाँ - खत्म जीवन का सब लेन देन; बच जाता है सिर्फ अन्धकार, और सामने बैठी बनलता सेन!

अन्धकार

जाग उठा था उस गहराते अँधेरे में ही बहती नदी की आवाज से देखा था, पीले चाँद को समेटते अपनी छाया, वैतरणी की तरफ से कीर्तिनाशा की ओर। सोया था उसी नदी किनारे – पुष की किसी रात – शायद कभी नहीं जागने के लिए। हे नीले चाँद, पता है मुझे - तुम दिन का आलोक नहीं, उद्यम नहीं, स्वप्न भी नहीं, मृत्यु की शान्ति और स्थिरता है जो दिलों में और भरी है जो नींदें उस आस्वाद को भी नष्ट करने क्षमता नहीं तुममें, तुम लगातार प्रवाहमान यंत्रणा भी नहीं, हे नीले कस्तूरी से चाँद, पता है तुम्हें, हे निशीथ, बहुत पहले से ही अंधकार संग अनंत मृत्यु की तरह घुलमिल जाने के बाद भी, हठात सुबह की पहली किरण की अंगड़ाई सा खुद को भी इसी धरा का जीव समझा था; लगा था भय, पाया था असीम दुर्निवार वेदना; देखा था जाग कर रक्तिम आकाश का सूर्य दे रहा था आदेश मुझे युद्धरत होने उसी पृथ्वी के विरुद्ध; भर गया था तब घृणा, वेदना और आक्रोश से मेरा दिल; सूर्य से आक्रांत यह पृथ्वी मानो करोड़ों सुअरों के आर्तनाद से मना रहा था कोई उत्सव। हाय, उत्सव! हृदय के अविकल अंधकार में डुबो कर सूर्य को, चाहा था फिर से सोना, चाहा था उस असीम अंधकार में मृत्यु की भाँति एकाकार हो जाना। मनुष्य तो था ही नहीं किसी दिन। हे नर, हे नारी, जाना भी नहीं था तुम्हारी पृथ्वी को किसी दिन; किन्तु किसी और ग्रह का कोई प्राणी भी तो नहीं था। जहाँ स्पंदन, संघर्ष, गति, जहाँ उद्यम, चिंता, काम, वहीँ सूर्य, पृथ्वी, बृहस्पति, कालपुरुष, अनंत आकाशग्रंथी, हज़ारों सुअरों का चीत्कार वहीँ, वहीँ हज़ारों सुअरियों की प्रसववेदना का आडम्बर; वही सब भयावह आरतियाँ! बोझिल है मेरी आत्मा उस गंभीर अंधकार की नींद के आस्वाद से; क्यों जगाना चाहते हो मुझे? हे समयग्रंथी, हे सूर्य, हे माघ की ठंठी रात की शांत ठिठरती कोयल, हे स्मृति, हे शीतल हवा क्यों जगाना चाहते हो मुझे? अब इस सुनसान अंधकार में किसी नदी के छल-छल स्वर से जागूँगा नहीं और; देखूंगा भी नहीं उस निर्जन चाँद को समेटते उसकी आधी से ज्यादा छाया को वैतरणी की तरफ से कीर्तिनाशा की ओर। सोया रहूँगा उसी नदी किनारे – पुष की उसी रात में – शांत, निश्चल - कभी नहीं जागने के लिए अब उठूँगा नहीं मैं – अब उठूँगा नहीं और।

हाय चील

हाय चील, हाय सुनहरी चील! और मत रोओ तुम, इस भीगी दोपहरी में, नदी के ऊपर उड़ती हुई। तुम्हारी ये वेदनामयी चीखें, याद दिलाती है मुझे उन म्लान आँखों की, थी तो जो रूप की राजकुमारी, पर चली ही गई समेट कर अपने सौन्दर्य को, क्यों बुलाती हो उसे फिर से? क्यों फिर से जगाना चाहती हो वही वेदना, छेड़ कर जख्म दिलों के? हाय चील, हाय सुनहरी चील! और मत रोओ तुम, आँसुओं से नम इस दोपहरी में, नदी के ऊपर उड़ती हुई।

बीस साल बाद

बीस साल बाद एक बार फिर अगर मिल जाओ तुम? कम नहीं होते बीस साल, धुंधली पड़ जाती हैं यादें भी किसी भूली बिसरी सदी की तरह, और ऐसे में मैदान के पार अगर तुम अचानक ही दिख जाओ? कार्तिक की एक अलसाई शाम दूर कहीं लंबी घासों में गुम होती बलखाती सुरमई नदी के किनारे पक्षी लौट रहें हों जब घोसलों को ओस की बूँदों से घास हो रहें हों नर्म कोई ना हो दूर धान के खेतों में स्तब्धता सी पसरी हो चारों ओर चिड़ियों के घोसलों से गिर रहे हों तिनके और ऐसे में एक बार फिर से अगर तुमसे मुलाकात हो जाये? और दूर मनिया के घर शिशिर की शीत सी झर रही हो रात अँधेरी गलियों में खुली खिड़कियों से झाँक रही हो कांपते दीये की लौ हो सकता है चाँद निकला हो आधी रात को पेड़ों की झुरमुट के पीछे से जामुन, कटहल या आम के पत्तों से मुंह छुपाये या बांस की लहराती टहनियों के बीच लुकाछिपी करते हुए दूर मैदान में चक्कर काट उतर रहा हो कोई एक उल्लू बबूलों के काँटों या फिर बरगद के जटाओं से बचता हुआ, झुके पलकों सा समेट रहा हो पंखों को वही सुनहला चील, जिसे चुरा ले गया था शिशिर पिछले साल, कोहरे से धुंधलाती इस रात में अगर मिल जाओ अचानक बीस साल बाद... कहाँ छुपाऊँगा तुमको?

झंझावत की एक रात

कल झंझावत की रात थी, असंख्य तारे पसरे थे आकाश में, उड़ाती रही हवा चादर सारी रात, कभी बरसाती नदी के वेग सी लहराती, कभी बिछावन को छोड़ उड़ चलती आकाशगंगा की ओर मानो तारों नक्षत्रों को भी ठंड से बचाने; नींद के गहराते झोंकों में कभी कभी तो लगता था मानो चादर है ही नहीं कहीं; लपेट रखा हो मुझे स्वाति नक्षत्र की बाँहों में किसी नीले महासागर में बहते सफेद बगुले की तरह; ऐसी ही अद्भुत रात थी कल; जाग उठे थे सारे मृत तारे भी, तिल भर की जगह बची नहीं आकाश में; किसी पीपल की फुनगी पर बैठे प्रेमी चील की ओस से सराबोर आँखों सा चमक रहे थे तारे उस सांवली रात में; या फिर चांदनी रात में बेबीलोन की रानी के काँधे से लिपटे चीते की खाल के चमकते शाल सा चकाचौंध कर रहा था प्रशस्त आकाश भी; देख पा रहा था कुछ प्रच्छन्न, कुछ अगोचर, कुछ जाने-पहचाने चेहरों को उनके बीच, जा चुके थे छोड़ कर जो मुझे इस संसार में; ऐसी ही रहस्यमयी रात थी कल; हज़ारों साल पहले जो मर गये थे जो तारे अनेक आए थे कल खिड़की के रास्ते, लिए संग कुछ मृत आकाश भी; असीरिया, मिश्र, विदिशा में भी देखा था मरते हुए जिन रूपसियों को, कल दूर कुहासे में निमग्न क्षितिज के उस पार खड़े थे कतार में लिए हाथों में बर्छियां – ख़त्म करने मृत्यु की अनिवार्यता? दावा करने जीवन के अजेय जीत का? या फिर प्रेम का कोई गंभीर डरावना स्मारक बनाने? अभिभूत, संज्ञाहीन, बिखरा पड़ा था टुकड़ों में, कल रात के नीले अत्याचार से; विस्तृत आकाश के बिखराव से परास्त हो गई थी कल किसी भुनगे की ही तरह धरा भी; और उतर आई थी आकाश के उस पार से वह हुडदंगी हवा साएँ साएँ करती हुई मेरी खिड़की से सरकते हुए, सिंह की दहाड़ से भयातुर हरी घासों में भागती हिरणों की किसी झुंड की तरह; अंदर तक धंस गई थी विस्तृत सपाट मैदान के घास की गंध क्षितिज तक को विस्तीर्ण धुप की आत्मा में समाती, कामोत्तेजित सिंहनी की हुंकार सी चंचल और सजीव थी अंधकार की उच्छवासें, जीवन की दुर्दान्त मादकता में! छोड़ कर इस धरा को उड़ चला मेरा हृदय भी, हवाओं के नीले सागर में, मदोन्मत्त किसी गुब्बारे की तरह, तारों नक्षत्रों से होकर दूर कहीं किसी और आकाशगंगा की मस्तूल की ओर किसी अदम्य साहसी चील की तरह, क्योंकि, कल झंझावत की रात थी।

शिकार

भोर; किसी झींगुर के कोमल नीले गात सा पसरा आकाश : चारों ओर अमरुद टूंगते सुग्गे के पंखो सी बिखरी हरियाली। एक तारा था तब भी आकाश में कोहबर जाती किसी सकुचाती नववधू की माँग की सिंदूर सा; या शायद मिश्र की किसी सुंदरी के गले की मुक्ता मानो आ पड़ी हो मेरे नीले शराब में हज़ारों साल पहले उस रात जैसे - एक अकेला तारा जल रहा था अभी भी आकाश में। सूर्य रश्मियाँ रही नहीं अब कुंकुम सी; हो गई किसी रोगी गौरैये की विवर्ण इच्छा सी। चारों ओर शिशिर से कांपते वन और आकाश झिलमिला रहा हो हरे-नीले मोरपंखों सा। भोर; सारी रात खुद को चीतों-भेड़ियों से बचता बचाता महोगनी सी नक्षत्रहीन अंधकार में ही चीड़ के जंगल से सालवन तक घूमता इसी भोर को तो ताक रहा था वो सुन्दर बादामी हिरण! सुबह की आलोक में निकल पड़ा वो नींबू के कच्चे पत्तों सी नर्म हरी घास टूंगने; नदी के तीक्ष्ण शीतल लहरों में चला जाता है वो – क्लांत विह्वल उनींदे शरीर में एक आवेग लाने बर्फीली अंधकार को भेद निकले भोर के धूप सा एक विस्तीर्ण उल्लास लाने; नीले आकाश से सुनहरा आलोक बिखेरते सूर्य सरीखे साहस साध सौन्दर्य से हिरणियों की झुंड को चकित करने। एक अद्भुत शब्द। और नदी का पानी हो उठा लाल। जल उठी आग – तैयार हो उठा हिरण का लाल उष्ण माँस। खुले आसमान के नीचे घासों के बिछौने पर बैठी शिशिर की भीगी रातों की अनेक पुरानी कहानियाँ; सिगरेट का धुआँ; कुछ मानव सिर; और उसके भी ऊपर निकलती कुछ बंदूकें – ठंडी – निस्पंद - निरपराध – ऊँघती हुई।

नग्न निर्जन हाथ

आकाश का अन्धकार फिर से स्याह हो उठा फागुन का आकाश और भी निविड़ हो उठा था अन्धकार में उसी प्रियतमा की तरह अनजान रहा मैं जिसकी चाह से आज तक फागुन का अन्धकार ले आया था अपने साथ अनेक भूली बिसरी कहानियाँ ख्यालों में था एक भग्न नगर और याद आया था एक जर्जर धूमिल खंडहर सा महल भी हिन्द महासागर के तीर पर या भूमध्य सागर के किनारे या अरब सागर के पहलू में आज नहीं है, पर था एक दिन – वो नगर और वो महल भी छत से फर्श तक अटा पड़ा था बेशकीमती साज सामानों से फारसी कालीन, कश्मीरी शाल, बसरा के मोती और लाल रक्तिम प्रवाल विलुप्त हृदय, मृत आँखें, विलीन आकांक्षायें, और तुम था ये सब कुछ एक दिन दोपहर की बिखरी धूप में विचरते कबूतर और मैनायें महोगनी की सघन छाया से अटखेलियाँ करती वही नारंगी धूप, प्रखर नारंगी धूप और थी तुम सदियों से जिसे देखा नहीं, ढूँढा भी नहीं भग्न गुम्बदों, झड़ते मेहराबों और धूमिल पांडुलिपियों की वेदनामयी यादें रंग बिरंगी खिड़कियों पर झूलते वो मोरपंखी परदे कमरे दर कमरों से झांकते वो क्षणिक अहसास, आयुहीन स्तब्धता और विस्मय परदों पर इठलाती हुई नारंगी धूप की आभा मानों रंगीन गिलास में छलक रही हो लाल मदिरा और तुम्हारा वो नग्न निर्जन हाथ तुम्हारा नग्न निर्जन हाथ नग्न निर्जन हाथ

हज़ार साल

जुगनुओं की तरह करते हैं खेल सिर्फ काल के अंधकार में हज़ारों हज़ार साल चिर दिन चारों ओर रात का निदान रेत पर बिखरी मौन चांदनी और देवदार की स्तब्ध छाया जैसे नीरवता ने रखा हो थाम इतिहास में गुम किसी जीर्ण शीर्ण म्लान साम्राज्य को शान्ति है चारों ओर काल के आगोश में हम और हो चुका था जीवन का सब लेन देन अचानक एक सरसराहट सी होती है कानों में ‘याद है?’ और एक बिजली सी कौंध जाती है मन में ‘बनलता सेन?’

यदि मैं होता

यदि मैं होता वनहंस और हंसिनी होती तुम, कहीं दूर दिशाओं के पार किसी नदी के किनारे धान के खेतों के पास झूमते घासों के भीतर दुनिया के नज़रों से छिपा एक निराला नीड़ होता अपना भी; नीले आकाश में बिखरे हज़ारों तारे, मानो ट्यूलिप के खेत और शिरीष के जंगल के किसी घोंसले में सुनहले अंडे जैसा फागुनी चाँद तब इस फाल्गुन की रात में शाखाओं के पीछे से चाँद को छांकते देख गुम हो जाते उस चमकते आकाश में – छोड़कर इस बहते पानी की गंध को तुम्हारा रक्त-स्पंदन ही बन जाता मेरा पंख हठात अगर गूंजती गोली की आवाज : बिखर जाते हम, थम जाते हमारे पंखों का उल्लास, जम जाते हमारे कंठों में उत्तरी हवाओं के गीत, अगर फिर गूंजती एक और गोली की आवाज : बच जाती सिर्फ स्तब्धता और चारों ओर बिखरी शान्ति, फिर रहता ही नहीं आज की तरह ये टुकड़ा टुकड़ा मृत्यु, और उसके चाह की व्यर्थता, और अंधकार। यदि मैं होता वनहंस और हंसिनी होती तुम, दूर पेड़ों के उस पार उसी नदी के किनारे धान के खेतों के पास झूमते घासों के भीतर।

बेबीलोन से कोलकाता

न जाने किसके इशारे पर, चलता रहा यूँ ही रास्तों पर, अकेले ही, आते जाते देखा मैंने ट्रामों को, बसों को अबाध दौड़ते हुए और फिर रस्ते से उतर, खो जाते हुए गहरी रात में नींद के आगोश में भींगती रात मीनारों से अटा पड़ा कोलकाता और मोनुमेंट्स के उपर बिखरे असंख्य तारे लगा इससे अधिक तारे तो और हो ही नहीं सकते गलियों में बिना नागा सारी रात जलती हुई बत्तियां सोते हुए सारे घर और उस पर लगे नेमप्लेट, सारे छत, बरामदें और सारी खिड़कियाँ मैंने जाना था इनकी भी व्यथा की कहानियाँ इन्हीं शांत नीरव निर्जन रास्तों पर अकेले भटकते हुए, झुकी शांत नजरों से निहारता हूँ ऊंगलियों में जलती सिगरेट ऑंखें बंद करके सरक जाता हूँ मैं एक ओर चारों ओर हवा में थी फैली धूल और बिखरे थे पेड़ से झरे हजारों पत्ते सूखे हुए उसी तरह भटकता था कभी रात रात भर हजारों साल चुपचाप अकेले बिना जाने बिना समझे न जाने क्यूँ बेबीलोन में?

जीवन का लेन देन

लो, चुक गया जीवन का सब लेन देन, बनलता सेन गई हो तुम कहाँ आज इस बेला जारी है कठफोड़वा का दोपहर से ही खेला आ भी गई है सारिका अपने घोसले को लहरें भी लगी है नदी की थमने फिर भी तुम क्यों नहीं हो कहीं मन है बेचैन मेरी अपनी बनलता सेन देखा नहीं तुम्हारे जैसा किसी को कहीं सबसे पहले चली क्यों गई तुम बना कर मेरे इस जीवन को मरुभूमि समझ नहीं पाया आज तक (क्यों ये तुम ही थी?) धरी रह गई सारी कोशिशें फिर भी रुक न पायी तुम मेरी जानी पहचानी बनलता सेन दूर क्षितिज में फैलती लालिमायें वहीं किसी बस्ती के कोने में पड़े सो रहते हम अचानक हवा के थपेड़ों से जागते मानो दूर पेड़ों के झुरमुट के पीछे स्टेशन पर आ लगी हो रातवाली ट्रेन मेरी नींदें चुराती बनलता सेन लो, चुक गया जीवन का सब लेन देन, बनलता सेन

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