बलाका : रवीन्द्रनाथ ठाकुर

Balaka : Rabindranath Tagore


चित्र

तुम क्या केवल चित्र हो, केवल पट पर अंकित चित्र ? वह जो सुदूर (दिखने वाली) निहारिकाएँ हैं जो भीड़ किये हैं आकाश के नीड़ में, वे जो दिन रात हाथ में लालटेन लिये चल रहे हैं अंधकार के यात्री ग्रह,तारा,सूर्य, तुम क्या उनके समान सत्य नहीं हो ? हाय,चित्र ? तुम केवल चित्र हो? इस चिर चंचल के बीच तुम शांत होकर क्यों रह रही हो ? राहगीरों के साथ हो लो , अरे ओ, मार्ग हीन-- क्यों दिन-रातसके बीच रहकर भी तुम सबसे दूर हो स्थिरता के चिरस्थायी अंतपुर में ? यह धूल अपने धूसर आंचल को फहराकर हवा के झोके से चारों ओर दौड़ती है, वह वैसाख के महीने में, विधवा-जनोचित परिधान को हटाकर तपस्विनी पृथ्वी को सुसज्जित करती है गैरिक वस्त्र से, बसंत की मिलन-उषा में.-- हाय,यह धूलि,यह भी सत्य है. ये तृण , जो विश्व के चरणतल में लीन हैं-- ये सब अस्थिर हैं,इसलिये भी सत्य हैं. तुम स्थिर हो,तुम चित्र हो, तुम केवल चित्र हो.

चंचला

हे विराट नदी, अदृश्य अशब्द तेरी वारि(-धारा) बह रही है निरवधि विराम-विहीन अविरल-अविच्छिन्न (अजस्र). स्पंदन से सिहरता शून्य तेरी रूद्र कायाहीन(गति के)वेग से(फिर) वस्तुहीन प्रवाह के कहा-कहा प्रचंडा घाट उठते वस्तु रुपि फेन के बहु पुंज, (नव) आलोक की तीव्रछटा विच्छुरित हो उठती (कि) (चित्र-विचित्र)वर्ण स्रोत में उठ-उठ(निरंतर)धावमान (विशाल)तिमिर व्यूह से, (इस चंड गति से)उठे घूर्ण चक्र से प्रत्येक स्त्र में--पतित घूर्णित भटकते-मरते अनेको सूर्य-शशि नक्षत्र बुद्बुद कि तरह (दिन-रात).

दान

हे प्रिय, आज इस प्रातःकाल अपने हाथ से, तुम्हें कौन सा दान दूँ ? प्रभात का गान ? प्रभात तो क्लांत हो आता है,तृप्त सूर्य की किरणों से अपने वृन्त पर. अवसन्न गान हो आता है समाप्त. हे बन्धु,क्या चाहते हो तुम, दिवस के अन्त में, मेरे द्वार पर आकर ? क्या लाकर तुम्हें दूँ ? संध्या समय का वह प्रदीप ? इस दीपक का आलोक,यह तो निभृत कोने का-- स्तब्ध भवन का (आलोक) है . तुम क्या इसे अपने उस पथ पर ले जाना चाहते हो जिस पर तुम स्वयं चला करते हो ? --जनता में ? हाय(बन्धु),यह तो रास्ते की हवा लगते हीं बुझ जाता है! मेरी शक्ति हीं क्या है की तुम्हें उपहार दूँ (फिर)वह फूल हीं हो या गले का हार हीं हो उसका भार तुम सहने हीं क्यों जाओगे (भला)? किसी-न-किसी दिन, निश्चित रूप से वे सूख जायेंगे, मलिन होंगे,टूट जायेंगे ? अपनी इच्छा से तुम्हारे हाथ में जो भी रख दूँगा उसे तुम्हारी शिथिल अंगुली भूल जायेगी-- (और वह) धूल में गिरकर, आखिरकार धूल (ही) हो जायेगा. इससे अच्छा तो होगा जब (कभी) (तुम्हें) क्षण भर का अवकाश मिलेगा वसन्त में, मेरे पुष्प वन में चलते-चलते अनमने भाव से, अनजाने गोपन गंध से,पुलक से, चौंक कर तुम रुककर खड़े हो जाओगे राह-भूला वह उपहार वही होगा तुम्हारा (अपना)! मेरी वीथी में जाते-जाते तुम्हारी आँखों में खुमारी छा जायेगी (और तुम)अचानक देखोगे की संध्या की कवरी से खिसक कर गिरी हुई कोई एक रंगीन आलोक (रश्मि)थर-थर कांपती हुई स्वप्न पर पारस-मणि का स्पर्श करा रही है. वही आलोक, वही अनजाने का उपहार वही तो तुम्हारा (अपना)होगा . मेरा जो श्रेष्ठ धनही वह तो सिर्फ चमकता है,झलकता है, दीखता है और पलक मारते मिट जाता है. अपना नाम नहीं बताता,रास्ते को कम्पित करके अपने सूर से चल देता है चकित (करके),नूपुर ध्वनि के साथ. मैं वहाँ का रास्ता नहीं जानता-- हाथ वहाँ नहीं जाता,वाणी नहीं पहुंचती. बन्धु(मेरे)तुम वहाँ से जो कुछ अपने-आप पाओगे, अपने ही भाव से अनचाहे,अनजाने,वही उपहार, वही तो तुम्हारा होगा ! मैं जो दे सकता हूँ वह अत्यंत मामूली दान होगा-- भले हीं वह फूल हो,भले हीं वह गान हो . २५ दिसम्बर १९१४

विचार

हे मेरे सुन्दर, चलते-चलते रास्ते की मस्ती से मतवाले होकर, वे लोग(जाने कौन हैं वे)जब तुम्हारे शरीर पर धूल फेंक जाते हैं तब मेरा अनन्त हाय-हाय कर उठता है, रोकर कहता हूँ,हे मेरे सुन्दर, आज तुम दण्डधर बनो, (विचारक बनकर)न्याय करो. फिर आश्चर्य से देखता हूँ, यह क्या! तुम्हारे न्यायालय का द्वार तो खुल ही हुआ है, नित्य ही चल रहा है तुम्हारा न्याय विचार . चुपचाप प्रभात का आलोक झड़ा करता है उनके कलुष-रक्त नयनों पर; शुभ्र वनमल्लिका की सुवास स्पर्श करता है लालसा से उद्दीप्त निःश्वास को; संध्या-तापसी के हाथों जलाई हुई सप्तर्षियों की पूजा--दीपमाला तकती रहती है उनकी उन्मत्तता की ओर-- हे सुन्दर,तुम्हारा न्यायालय (है) पुष्प-वन में पवित्र वायु में तृण समूह पर(चलते रहने वाले)भ्रमर गुंजन में तरंग चुम्बित नदी- तट पर मर्मरित पल्लवों के जीवन में. प्रेमिक मेरे, घोर निर्दय हैं वे, दुर्बह है उनका बोझ, लुक-छिप कर चक्कर काटते रहते हैं वे चुरा लेने के लिये तुम्हार आभरण, सजाने के लिये अपनी नंगी वासनाओं को. उनका आघात जब प्रेम के सर्वांग में लगता है, (तो)मैं सह नहीं पाता, आँसू भरी आँखों से तुम्हें रो कर पुकारा करता हूँ-- खड्ग धारण करो प्रेमिक मेरे, न्याय करो ! फिर अचरज से देखता हूँ, यह क्या ! कहाँ है तुम्हारा न्यायालय ? जननी का स्नेह-अश्रु झरा करता है उनकी उग्रता पार, प्रणयी का असीम विश्वास ग्रास कर लेता है उनके विद्रोह शेल को अपने क्षत वक्षस्थल में. प्रेमिक मेरे, तुम्हार वह विचारालय(है) विनिद्र स्नेह से स्तब्ध, निःशब्द वेदना में, सती की पवित्र लज्जा में, सखा के ह्रदय के रक्त-पात में, बाट जोहते हुए प्रणय के विच्छेद की रात में, आंसुओं-भरी करुणा से परिपूर्ण क्षमा के प्रभात में. हे मेरे रुद्र, लुब्ध हैं वे, मुग्ध हैं वे(जो)लांघ कर तुम्हारा सिंह-द्वार, चोरी-चोरी, बिना निमंत्रण के, सेंध मार कर चुरा लिया करते हैं तुम्हारा भण्डार. चोरी का वाह माल-दुर्बह है वह बोझ प्रतिक्षण गलन करता है उनके मर्म को (और उनमे उस भार को) शक्ति नहीं रहती है उतारने की. (तब मैं)रो-रो कर तुमसे बार-बार कहता हूँ-- उने क्षमा करो, रूद्र मेरे. आँखे खोल कर दहकता हूँ(उम्हारी)वाह क्षमा उतर आती है प्रचंड झांझा के रूप में; उस आंधी में धूल में लोट जाते हैं वे, चोरी का प्रचंड बोझ टुकड़े-टुकड़े होकर उस आंधी में ना जाने कहाँ जाता है वो. रूद्र मेरे, क्षमा तुम्हारी विराजती रही है. विराजती रहती है. गरजती हुई वज्राग्नी की शिखा में सूर्यास्त के प्रलय लेख में, (लाल-लाल)रक्त की वर्षा में, अकस्मात(प्रकट होने वाले)संगर्ष की प्रत्यक रगड में. २७ दिसम्बर १९१४

प्रेम का स्पर्श

हे भुवन, मैंने जब तक तुम्हें प्यार नहीं किया था तब तक तुम्हारा प्रकाश खोज-खोज कर (भी) अपना सारा धन नहीं पा सका था ! उस समय तक समूचा आकाश हाथ में अपना दीप लिये हर सूनेपन में बाट जोह रहा था. मेरा प्रेम गाता हुआ आया, फिर न जाने क्या काना फूसी हुई, उसने डाल दी तुम्हारे गले में अपने गले की माला ! मुग्ध नयनों से हँसकर उसने तुम्हें चुपचाप कुछ दे दिया, ऐसा कुछ जो तुम्हारे गोपन ह्रदय पट पर चिरकाल तक बना रहेगा,तारा-हार में पिरोया हुआ ! १२ जनवरी १९१५

माधवी

कितने लाख वर्षों की तपस्या के फल से पृथ्वी-तल पर खिली है आज यह माधवी आनंद की यह छवि युग-युग से ढंकी (चली आ रही) थी अलक्ष्य के वक्ष के आंचल से इसी प्रकार सपने से किसी दूर युगान्तर में,वसन्त कण के किसी एक कोने में, (किसी) एक अवसर के मुख पर तनिक सी मुस्कान खिल उठेगी-- यह साध बनी हुई है मेरे मन में-- उसके किसी गहरे गोपन (स्थान) में. १० जनवरी १९१५

दो नारियाँ

कौन था वह क्षण जब सृजन के समुद्र मंथन से, पटल का शय्यातल छोड़कर, दो नारियाँ ऊपर आई ? एक थी उर्वशी,सौंदर्यमयी, विश्व के कामना राज्य की रानी, स्वर्ग-लोक की अप्सरा . और दूसरी थी लक्ष्मी,कल्याणमयी, विश्व की जननी के रूप में परिचित, स्वर्ग की ईश्वरी . एक नारी तपस्या भंग कर, प्रखर हास्य के अग्नि-रस से फागुन का सुरा-पात्र भरकर प्राण-मन को हर ले जाती है. और उन्हें वसन्त के पुष्पित प्रलाप में, लाल रंग के किंशुक और गुलाब में, निद्राहीन यौवन के गान में दोनों हाथो से बिखेर देती है . और दूसरी हमें आँसुओं की ओस में नहलाकर स्नेह-सिक्त वासना में फिर लती है, हेमन्त के स्वर्ण-कांतिमय श्स्यों से भरी शांति की पूर्णता में लौटा लती है. लौटा लाती है संपूर्ण सृष्टि के वरदान की ओर, धीर-गम्भीर,सस्मित लावण्य की मधुर्यमयी सुधा की ओर. धीरे से लौटा लती है जीवन के पवित्र संगम तीर्थ पर जहाँ अनन्त की पूजा का मंदिर है. ३ फरवरी १९१५

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