बाल कविताएँ : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

Children Poetry : Sarveshwar Dayal Saxena


अक्की-बक्की

अक्की-बक्की करें तरक्की, गेहूँ छोड़ के बोएँ मक्की। मक्की लेकर भागें चक्की, देखे बुढ़िया हक्की-बक्की नक्की-झक्की पूरी शक्की!

ऊँट पर चूहा

चूहा एक ऊँट पर चढ़, झटपट चला बहादुरगढ़। राह में गहरा ताल पड़ा, चूहे का ननिहाल पड़ा। चूहा खा-पी सो गया, ऊँट नहाकर खो गया!

किताबों में बिल्ली ने बच्चे दिए हैं

किताबों मे बिल्ली ने बच्चे दिए हैं, ये बच्चे बड़े हो के अफ़सर बनेंगे । दरोगा बनेंगे किसी गाँव के ये, किसी शहर के ये कलक्टर बनेंगे । न चूहों की इनको ज़रूरत रहेगी , बड़े होटलों के मैनेजर बनेंगे । ये नेता बनेंगे औ’ भाषण करेंगे , किसी दिन विधायक, मिनिस्टर बनेंगे । वकालत करेंगे सताए हुओं की, बनेंगे ये जज औ’ बैरिस्टर बनेंगे । दलिद्दर कटेंगे हमारे - तुम्हारे, किसी कम्पनी के डिरेक्टर बनेंगे । खिलाऊँगा इनको मैं दूध और मलाई मेरे भाग्य के ये रजिस्टर बनेंगे ।

घोड़ा

अगर कहीं मैं घोड़ा होता, वह भी लंबा-चौड़ा होता। तुम्हें पीठ पर बैठा करके, बहुत तेज मैं दोड़ा होता।। पलक झपकते ही ले जाता, दूर पहाड़ों की वादी में। बातें करता हुआ हवा से, बियाबान में, आबादी में।। किसी झोंपड़े के आगे रुक, तुम्हें छाछ औ’ दूध पिलाता। तरह-तरह के भोले-भाले इनसानों से तुम्हें मिलाता।। उनके संग जंगलों में जाकर मीठे-मीठे फल खाते। रंग-बिरंगी चिड़ियों से अपनी अच्छी पहचान बनाते।। झाड़ी में दुबके तुमको प्यारे-प्यारे खरगोश दिखाता। और उछलते हुए मेमनों के संग तुमको खेल खिलाता।। रात ढमाढम ढोल, झमाझम झाँझ, नाच-गाने में कटती। हरे-भरे जंगल में तुम्हें दिखाता, कैसे मस्ती बँटती।। सुबह नदी में नहा, दिखाता तुमको कैसे सूरज उगता। कैसे तीतर दौड़ लगाता, कैसे पिंडुक दाना चुगता।। बगुले कैसे ध्यान लगाते, मछली शांत डोलती कैसे। और टिटहरी आसमान में, चक्कर काट बोलती कैसे।। कैसे आते हिरन झुंड के झुंड नदी में पानी पीते। कैसे छोड़ निशान पैर के जाते हैं जंगल में चीते।। हम भी वहाँ निशान छोड़कर अपना, फिर वापस आ जाते। शायद कभी खोजते उसको और बहुत-से बच्चे आते।। तब मैं अपने पैर पटक, हिन-हिन करता, तुम भी खुश होते। ‘कितनी नकली दुनिया यह अपनी’ तुम सोते में भी कहते।। लेकिन अपने मुँह में नहीं लगाम डालने देता तुमको। प्यार उमड़ने पर वैसे छू लेने देता अपनी दुम को।। नहीं दुलत्ती तुम्हें झाड़ता, क्योंकि उसे खाकर तुम रोते। लेकिन सच तो यह है बच्चो, तब तुम ही मेरी दुम होते।।

नानी का गुलकंद

मुझे तुम्हारी नानीजी ने, डब्बा-भर गुलकंद दिया। और तुम्हारे नानीजी ने कविता दी औ’ छंद दिया।। दोनों लेकर निकला ही था, बटमारों ने घेर लिया। छीनछान गुलकंद खा गए कविता सुन मुँह फेर लिया।। पर कुछ समझदार भी थे, जो कविता सुनकर गले लगे। अपना दे गुलकंद उन्होंने खाली डब्बा बंद किया।। अब नानी को लिख देना, उनका गुलकंद सलामत है। और हमें बतलाना कविता के बारे में क्या मत है।।

नेता और गदहा

नेता के दो टोपी औ’ गदहे के दो कान, टोपी अदल-बदलकर पहनें गदहा था हैरान। एक रोज गदहे ने उनको तंग गली में छेंका, कई दुलत्ती झाड़ीं उन पर और जोर से रेंका। नेता उड़ गए, टोपी उड़ गई उड़ गए उनके कान, बीच सभा में खड़ा हो गया गदहा सीना तान!

पकौड़ी की कहानी

दौड़ी-दौड़ी आई पकौड़ी छुन-छुन छुन-छुन तेल में नाची, प्लेट में आ शरमाई पकौड़ी। दौड़ी-दौड़ी आई पकौड़ी। हाथ से उछली मुह में पहुँची, पेट में जा घबराई पकौड़ी। दौड़ी-दौड़ी आई पकौड़ी। मेरे मन को भाई पकौड़ी।

बतूता का जूता

जब सब बोलते थे वह चुप रहता था जब सब चलते थे वह पीछे हो जाता था जब सब खाने पर टूटते थे वह अलग बैठा टूँगता रहता था जब सब निढाल हो सो जाते थे वह शून्य में टकटकी लगाए रहता था लेकिन जब गोली चली तब सबसे पहले वही मारा गया इब्नबतूता पहन के जूता निकल पड़े तूफान में थोड़ी हवा नाक में घुस गई घुस गई थोड़ी कान में कभी नाक को, कभी कान को मलते इब्नबतूता इसी बीच में निकल पड़ा उनके पैरों का जूता उड़ते उड़ते जूता उनका जा पहुँचा जापान में इब्नबतूता खड़े रह गये मोची की दुकान में

मच्छर और हाथी

सूँड उठाकर हाथी बैठा पक्का गाना गाने, मच्छर एक घुस गया कान में, लगा कान खुजलाने। फट-फट फट-फट तबले जैसा हाथी कान बजाता, बड़े मौज से भीतर बैठा मच्छर गाना गाता!

महँगू की टाई

महँगू ने महँगाई में पैसे फूँके टाई में, फिर भी मिली न नौकरी औंधे पड़े चटाई में! गिट-पिट करके हार गए टाई ले बाजार गए, दस रुपये की टाई उनकी बिकी नहीं दो पाई में।

मेले में लल्ला

कलकत्ते में खो गए लल्ला कहीं अगाड़ी, कहीं पुछल्ला। घर में बैठे वे चुपचाप करते रामनाम का जाप। भागे सुन मेले का हल्ला कहीं अगाड़ी कहीं पुछल्ला। कलकत्ते में खो गए लल्ला ।। मेले में हाथी-घोड़े थोड़े जोड़े, शेष निगोड़े। इतनी भीड़ की अल्ला-अल्ला कहीं अगाड़ी कहीं पुछल्ला। कलकत्ते में खो गए लल्ला ।। इधर तमाशा उधर रमाशा रंग-बिरंगा शी-शी-शा-शा। बहु बाज़ार औ’ आगरतल्ला कहीं अगाड़ी कहीं पुछल्ला। कलकत्ते में खो गए लल्ला ।। चौरंगी पर खा नारंगी चले बोलकर जय बजरंगी हक्के-बक्के साथ न संगी भूल गए मानिक तल्ला कहीं अगाड़ी कहीं पुछल्ला। कलकत्ते में खो गए लल्ला ।। बाल-कवि योगेन्द्र कुमार लल्ला के लिए, जो बाल-पत्रिका ’मेला’ के सम्पादक थे।

उठ मेरी बेटी सुबह हो गई

पेड़ों के झुनझुने, बजने लगे; लुढ़कती आ रही है सूरज की लाल गेंद। उठ मेरी बेटी सुबह हो गई। तूने जो छोड़े थे, गैस के गुब्बारे, तारे अब दिखाई नहीं देते, (जाने कितने ऊपर चले गए) चाँद देख, अब गिरा, अब गिरा, उठ मेरी बेटी सुबह हो गई। तूने थपकियाँ देकर, जिन गुड्डे-गुड्डियों को सुला दिया था, टीले, मुँहरँगे आँख मलते हुए बैठे हैं, गुड्डे की जरवारी टोपी उलटी नीचे पड़ी है, छोटी तलैया वह देखो उड़ी जा रही है चूनर तेरी गुड़िया की, झिलमिल नदी उठ मेरी बेटी सुबह हो गई। तेरे साथ थककर सोई थी जो तेरी सहेली हवा, जाने किस झरने में नहा के आ गई है, गीले हाथों से छू रही है तेरी तस्वीरों की किताब, देख तो, कितना रंग फैल गया उठ, घंटियों की आवाज धीमी होती जा रही है दूसरी गली में मुड़ने लग गया है बूढ़ा आसमान, अभी भी दिखाई दे रहे हैं उसकी लाठी में बँधे रंग बिरंगे गुब्बारे, कागज पन्नी की हवा चर्खियाँ, लाल हरी ऐनकें, दफ्ती के रंगीन भोंपू, उठ मेरी बेटी, आवाज दे, सुबह हो गई। उठ देख, बंदर तेरे बिस्कुट का डिब्बा लिए, छत की मुँडेर पर बैठा है, धूप आ गई।

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