बाल कविताएं : भवानी प्रसाद मिश्र

Baal Kavitayen : Bhawani Prasad Mishra



तुकों के खेल

मेल बेमेल तुकों के खेल जैसे भाषा के ऊंट की नाक में नकेल ! इससे कुछ तो बनता है भाषा के ऊंट का सिर जितना तानो उतना तनता है!

साल दर साल

साल शुरू हो दूध दही से, साल खत्म हो शक्कर घी से, पिपरमेंट, बिस्किट मिसरी से रहें लबालब दोनों खीसे। मस्त रहें सड़कों पर खेलें, नाचें-कूदें गाएँ-ठेलें, ऊधम करें मचाएँ हल्ला रहें सुखी भीतर से जी से। साँझ रात दोपहर सवेरा, सबमें हो मस्ती का डेरा, कातें सूत बनाएँ कपड़े दुनिया में क्यों डरे किसी से। पंछी गीत सुनाए हमको, बादल बिजली भाए हमको, करें दोस्ती पेड़ फूल से लहर-लहर से नदी-नदी से। आगे-पीछे ऊपर नीचे, रहें हँसी की रेखा खींचे, पास-पड़ोस गाँव घर बस्ती प्यार ढेर भर करें सभी से।

भाई-चारा

अक्कड़-मक्कड़, धूल में धक्कड़, दोनों मूरख दोनों अक्खड़, हाट से लौटे, ठाट से लौटे, एक साथ एक बाट से लौटे। बात-बात में बात ठन गई, बाँह उठी और मूँछ तन गई, इसने उसकी गर्दन भींची, उसने इसकी दाढ़ी खींची। अब वह जीता, अब यह जीता, दोनों का बढ़ चला फज़ीता, लोग तमाशाई जो ठहरे- सबके खिले हुए थे चेहरे। मगर एक कोई था फक्कड़, मन का राजा कर्रा-कक्कड़, बढ़ा भीड़ को चीर-चारकर बोला ‘ठहरो’ गला फाड़कर। अक्कड़-मक्कड़ धूल में धक्कड़, दोनों मूरख दोनों अक्खड़, गर्जन गूँजी रुकना पड़ा, सही बात पर झुकना पड़ा। उसने कहा सही वाणी में, ‘डूबो चुल्लू-भर पानी में, ताकत लड़ने में मत खोओ, चलो भाई-चारे को बोओ। खाली सब मैदान पड़ा है, आफत का शैतान खड़ा है, ताकत ऐसे ही मत खोओ चलो भाई-चारे को बोओ।’ सुनी मूर्खों ने यह बानी, दोनों जैसे पानी-पानी लड़ना छोड़ा अलग हट गए, लोग शर्म से गले, छँट गए। सबको नाहक लड़ना अखरा, ताकत भूल गई सब नखरा, गले मिले तब अक्कड़-मक्कड़ खत्म हो गया धूल में धक्कड़!

फागुन की खुशियाँ मनाएँ

चलो, फागुन की खुशियाँ मनाएँ! आज पीले हैं सरसों के खेत, लो; आज किरनें हैं कंचन समेत, लो; आज कोयल बहन हो गई बावली उसकी कुहू में अपनी लड़ी गीत की- हम मिलाएँ। चलो, फागुन की खुशियाँ मनाएँ! आज अपनी तरह फूल हँसकर जगे, आज आमों में भौरों के गुच्छे लगे, आज भौरों के दल हो गए बावले उनकी गुनगुन में अपनी लड़ी गीत की हम मिलाएँ! चलो, फागुन की खुशियाँ मनाएँ! आज नाची किरन, आज डोली हवा, आज फूलों के कानों में बोली हवा, उसका संदेश फूलों से पूछें, चलो और कुहू करें गुनगुनाएँ!

हम सब गाएँ

रात को या दिन को अकेले में या मेले में हम सब गुनगुनाते रहें क्योंकि गुनगुनाते रहे हैं भौंरे गुनगुना रही हैं मधुमक्खियाँ नीम के फूलों को चूसने की धुन में और नीम के फूल भी महक रहे हैं छोटे बड़े सारे पंछी चहक रहे हैं| क्या हम कम हैं इनसे अपने मन की धुन में या रूप में या गुन में सन गाएँ सब गुनगुनाएँ झूमे नाचे आसमान सिर पर उठाएँ!

पंडित सरबेसर

नाक में बेसर सिर पर टोपी सारे मूंह पर केसर थोपी सरबेसर तब चले बज़ार लड़के पीछे लगे हज़ार| पंडित जी ने मौका देखा कहा, दिखाओ हाथ की रेखा पास-फेल सब बतला दूंगा पांच पांच पैसे भर लूँगा| हाथ हज़ार सामने फैले बने सभी पंडित के चेले पंडित जी ने कहा- “पास सब, पैसे लाओ पांच-पांच पैसे दे-दे कर जाओ, सब घर जाओ पढ़ो व्याकरण, गणित लगाओ| पैसे मिल गए पांच हज़ार सरबेसर जी चले बज़ार मुंह पर फिर से केसर थोपी ठीक जमा कर सिर पर टोपी!

श्रम की महिमा

तुम काग़ज़ पर लिखते हो वह सड़क झाड़ता है तुम व्यापारी वह धरती में बीज गाड़ता है । एक आदमी घड़ी बनाता एक बनाता चप्पल इसीलिए यह बड़ा और वह छोटा इसमें क्या बल । सूत कातते थे गाँधी जी कपड़ा बुनते थे , और कपास जुलाहों के जैसा ही धुनते थे चुनते थे अनाज के कंकर चक्की पिसते थे आश्रम के अनाज याने आश्रम में पिसते थे जिल्द बाँध लेना पुस्तक की उनको आता था भंगी-काम सफाई से नित करना भाता था । ऐसे थे गाँधी जी ऐसा था उनका आश्रम गाँधी जी के लेखे पूजा के समान था श्रम । एक बार उत्साह-ग्रस्त कोई वकील साहब जब पहुँचे मिलने बापूजी पीस रहे थे तब । बापूजी ने कहा – बैठिये पीसेंगे मिलकर जब वे झिझके गाँधीजी ने कहा और खिलकर सेवा का हर काम हमारा ईश्वर है भाई बैठ गये वे दबसट में पर अक्ल नहीं आई ।

बच्चों की तरह

बच्चे की तरह हँसे और जब रोये तो बच्चे की तरह ख़ालिस सुख ख़ालिस दुख न उसमें ख़याल कुछ पाने का न मलाल इसमें कुछ खोने का सुनहली हँसी और आंसू रुपहले दोनों ऐसे कि मन बहला उससे भी इससे भी कोरे क़िस्से भी अंश हो गए अपने हर छाया के पीछे दौड़ाया सपनों ने और दब गयी पाँवो के नीचे दौड़ते-दौड़ते कोई छाया तो हँसे खिलखिलाकर बच्चों की तरह और छूट गया हाथ छाया का आकर हाथ में तो रोये तिलमिलाकर बच्चों की तरह ख़ालिस सुख ख़ालिस दुख!

सूरज का गोला

सूरज का गोला, इसके पहले ही कि निकलता, चुपके से बोला,हमसे - तुमसे इससे - उससे कितनी चीजों से, चिडियों से पत्तों से , फूलो - फल से, बीजों से- "मेरे साथ - साथ सब निकलो घने अंधेरे से कब जागोगे,अगर न जागे , मेरे टेरे से ?" आगे बढकर आसमान ने अपना पट खोला, इसके पहले ही कि निकलता सूरज का गोला फिर तो जाने कितनी बातें हुईं, कौन गिन सके इतनी बातें हुईं , पंछी चहके कलियां चटकीं , डाल - डाल चमगादड लटकीं गांव - गली में शोर मच गया , जंगल - जंगल मोर नच गया . जितनी फैली खुशियां , उससे किरनें ज्यादा फैलीं, ज्यादा रंग घोला . और उभर कर ऊपर आया सूरज का गोला , सबने उसकी आगवानी में अपना पर खोला

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