अतिक्रमण (कविता संग्रह) : कुमार अंबुज
Atikraman : Kumar Ambuj


कोई है माँजता हुआ मुझे

कोई है जो माँजता है दिन-रात मुझे चमकाता हुआ रोम-रोम रगड़ता ईंट के टुकड़े जैसे विचार कई इतिहास की राख से माँजता है कोई मैं जैसे एक पुराना ताँबे का पात्र माँजता है जिसे कोई अम्लीय कठोर और सुंदर भी बहुत एक स्वप्न कभी कोई स्मृति एक तेज सीधी निगाह एक वक्रता एक हँसी माँजती है मुझे कर्कश आवाजें ज़मीन पर उलट-पलट कर रखे-पटके जाने की और माँजते चले जाने की अणु-अणु तक पहुँचती माँजने की यह धमक दौड़ती है नसों में बिजलियाँ बन चमकती है धोता है कोई फिर अपने समय के जल की धार से एक शब्द माँजता है मुझे एक पंक्ति माँजती रहती है अपने खुरदरे तार से।

चुंबक

वह छोटा सा लौह चुंबक था जिसने मेरे बचपन के कुछ दिनों को भर दिया था असीम कौतूहल और खेल से प्रेम और विरक्ति का पहला पाठ सिखाया चुंबक के आकर्षण-विकर्षण के खेल ने ही फिर इस संज्ञान ने दिया विलक्षण अनुभव कि सबसे पहले हमारे परम अणु को स्पर्श करती है एक चुंबकीय तरंग कि हम एक चुंबक पर पैदा होते हैं और उसी चुंबक पर रहते हुए बिताते हैं अपना पूरा जीवन और यह कि चुंबकों के दो ध्रुवों के संयोग से ही संभव होता है हमारा जन्म ! हर जगह हर वक़्त चुंबकों ने ही रखा मुझ मनुष्य को जीवित सबसे विशाल और अपराजेय चुंबक था उम्मीद का जिसे हज़ारों बार पटका गया हज़ारों बार जिस पर बरसाए गए घन मगर नष्ट नहीं किया जा सका जिसका चुंबकीय बल उम्मीद, जो हर सुंदर चीज़ को देखकर होती रही अपने आप पैदा किताबों से मालूम हुआ कि हर चीज़ को नहीं बनाया जा सकता चुंबक जीवन से मालूम हुआ कि ऐसी कोई भी चीज़ नहीं जिसे न बनाया जा सकता हो चुंबक और यह बात सबसे ज़्यादा समझ में आई एक काष्ठशिल्प को देखते हुए जिसकी ताईद कलाकार, बच्चे, खिलाड़ी, स्त्रियाँ और मज़दूर रोज़-रोज़ बार-बार करते रहे कि सब कुछ अटका हुआ है चुंबक के अदृश्य धागे से चुंबकीय क्षेत्र में ही घटित हो रहा है जीवन का रेशा-रेशा अचानक कौंधता एक दृश्य जो रोक लेता है राहगीर को नश्वर एक क्षण जो अकसर ही खींचता है पूरी उम्र को अपनी ओर एक विचार जो बदल देता है पूरा जीवन आधा-सा विस्मृत कोई चेहरा जो हर एक पदार्थ में से झाँकता-सा है बार-बार एक ही पेड़ के नीचे जाकर बैठना एक पुकार जो हृदय में उठाती है ज्वार एक रंग जो उदास से चित्र को भर देता है उमंग से एक कथा एक जीवनी धुंधली-सी पंक्ति कोई सुर की एक लहर जिस पर बैठकर नाप लिये जाते हैं महासागर और वह एक निर्निमेष दृष्टि जो बंद होती है स्मृति की डिबिया में वही, जो बनी रहती है कुतुबनुमा इस भटकते हुए जीवन को बार-बार लौटा लाती है उसी ठौर पर जहाँ से हर बार संभव होती है एक नयी यात्रा रोज़मर्रा के चुंबक अनगिन जिनसे आवेशित हमारे रक्त के लौह कण इंद्रियों में से बहती वासना की विद्युत चुंबकीय तरंगें जिनके गुज़रने के बाद बचते हुए हम अपनी पार्थिव देह में फिर ज्ञानेन्द्रियों के चुंबकों का वह विराट चुंबक जिसके चुंबकीय क्षेत्र में विलीन होती हुई यह माया यह सृष्टि और यह अजर काया।

अपेक्षा

एक शब्द अपेक्षा करता है कि उसकी तमाम निर्बलता और असहायता के बावजूद उसे उसके आंतरिक अर्थ में समझ लिया जाए जैसे एक वाक्य अपेक्षा करता है अपने शब्दों से कि वे उसके अपने हैं और उसे कभी शर्मिन्दा न होने देंगे जब कोई किसी को पुकारता है या नहीं पुकारता है तो इसमें भी छिपी होती है कोई अपेक्षा ही खामोश अपेक्षाएँ अकसर होती हैं ज्यादा ताक़तवर उदासी जब रेत की तरह उड़ कर भर रही होती है आत्मा में तब भी भीतर कहीं कुछ होता है जो अपेक्षा करता है सूर्य से हवा से रात के अंधेरे से और अपनी ही किसी अनैच्छिक मांसपेशी से मैं हर सुबह एक फूल से अपेक्षा करता हूँ फूल ने अपेक्षा की है अपने भीतर बसे रंगों से एक स्त्री दिनचर्या की मारकाट से निकलने के बाद खिड़की से दिख रहे अनाम तारे से अपेक्षा करती है और फिर अपने भीतर छिपे दुख से ही उसे एक पेंटिंग की याद आती है जिसमें एक सम्राज्ञी अपेक्षा करती हुई तबदील हो गई होती है एक वास्तविक स्त्री में कभी-कभी एक सुख दुख से भी करता है अपेक्षा और ऐसा करते हुए वह दाँव पर लगा देता है अपना जीवन यह एक रात आते हुए दिन से अपेक्षा करती हुई धीरे से बीत जाती है अपेक्षाओं से भी बनता है यह समाज जिसमें जीवित रहा आता हूँ मैं अनादि काल से।

अव्यक्त

कुछ चीजें दफन ही रहती आएँगी इतनी ही है भाषा की शक्ति ओ मेरी प्रबल आकांक्षा ! अंत में बचा ही रहेगा अगले मनुष्य के लिए थोड़ा-सा रहस्य कपास के फूल को देखने के अनुभव और कह पाने के बीच का अंतराल चला जाएगा एक मनुष्य के साथ ही अव्यक्त और यह कोई कृपणता नहीं होगी यह व्यक्तिगत प्रकाश जिसे कोई न देख सकेगा नसों और नाडि़यों के बीच बसा ईथर इसे यदि ईश्वर कह दूँगा तो गलत दिशा की तरफ चली जाएगी दुनिया व्यक्त भले कुछ न हो इशारा ठीक तरफ होना चाहिए सोचता हूँ फिर अव्यक्त रह जाता है भीतर का उल्लास नम चीजों पर गिरती हुई यह कार्तिक की धूप है गिलहरी को देख कर बच्चे की यह हँसी जो सर्प को देखते हुए भी हो सकती थी इतनी ही प्रफुल्ल खाने की मेज पर बुलाया जा रहा है तुम्हें तुम जो जाना चाहते हो मृत्यु के पास इस व्याख्येय अतार्किकता के बीच भी चला आता है कुछ अव्यक्त गुब्बारों के रंगों को उनके भीतर बसी हवा ही देती है सच्ची शकल और उड़ाए चली जाती है जाने किधर तुम कभी नहीं जान पाते हो उस निगाह के भीतर क्या रह गया था शेष जो आज भी चमकता है अँधेरों में रेडियम की तरह हृदय दोपहरी में देखता है चकित सुबह विलीन हो चुकी होती है अंतरिक्ष में यह शाम का गुम्बद है कई तरह की आवाजें आती हैं आलस्य, दुःख और विफलता में डूबी सुख का यह भी एक चेहरा है जो बच जाता है उजागर होने से गुहा के भीतर गुहा है और उसके भीतर जीवन की एक कोशा ऐसा ही कुछ कहना चाहता है कोई हजारों सालों से जो हर बार चला आता है अनकहा जिसके आसपास लगे हुए शब्दों के शर जो बिंधा हुआ अपने सौंदर्य में अव्यक्त।

मेरा प्रिय कवि

वह हिचकिचाते हुए मंच तक आया उसके कोट और पैंट पर शहर के रगड़ के निशान थे वह कुछ परेशान था लेकिन सुनाना चाहता था अपनी कविता लगभग हकलाते हुए शुरू किया उसने कविता का पाठ मगर मुझे उसकी हकलाहट में एक सात्विक हिचकिचाहट सुनाई दी एक ऐसी हिचकिचाहट जो इस वक्त में दुनिया से बात करते हुए किसी भी संवेदनशील आदमी को हो सकती है लेकिन उसने अपनी कविता में वह सब कहा जो एक कवि को आखिर कहना ही चाहिए वह हिचकिचाहट धीरे-धीरे एक अफसोस में बदल गई और फिर उसमें एक शोक भरने लगा उसकी कविता में फिर बारिश होने लगी उसके चश्मे पर भी कुछ बूँदें आईं जिन्हें मेरे प्यारे कवि ने उँगलियों से साफ करने की कोशिश की लेकिन तब तक और तेज हो गई बारिश फिर कविता में अचानक रात हो गई अब उस गहरी होती रात में हो रही थी बारिश बारिश दिख नहीं रही थी और बारिश में सब कुछ भीग रहा था कवि के आधे घुँघराले आधे सफेद बालों पर फुहारें थीं होंठों पर सिगरेट के धुँए की चहलकदमी के साँवले निशानों को छूकर कविता बह रही थी अपनी धुन में एक मनुष्य होने के गौरव के बीच संकोच झर रहा था उसमें से वह एक आत्मदया थी वह एक झिझक थी जो रोक रही थी उसकी कविता को शून्य में जाने से कविता पढ़ते हुए वह बार-बार वजन रखता था अपने बाएँ पैर पर बीच-बीच में किसी मूर्ति-शिल्प की तरह थिर होता हुआ (एक शिल्प जो काव्य-पाठ कर सकता था) उसके माथे पर साढ़े तीन सिलवटें आती थीं और बनी रहती थीं देर तक मैं अपने उस कवि से कुछ निशानी - जैसे उसका कोट माँगना चाहता था लेकिन मैंने अचानक देखा उसने मुझे एक गिलास दिया और मेरे साथ बैठ गया कोने में उसने कहा तुम्हें मैं राग देस सुनाता हूँ फिर उसने शुरू किया गाना वह एक कवि का गाना था जिसे गा रही थी उसकी नाजुक और अतृप्त आत्मा एक अतृप्त आत्मा जो बेचैन थी संसार भर के लिए एक घूँट ले कर उसने कहा कि तुम देखना मैं अगला आलाप लूँगा और सुबह हो जाएगी अचानक मेरा कवि मेरे करीब और करीब आया कहने लगा कि मैं बहुत कुछ न कर सका इस दुनिया को बदलने के लिए मैं शायद ज्यादा कुछ कर सकता था मुझे छलती रहीं मेरी ही आराम-तलब इच्छाएँ जिम्मेवारी की निजी हरकतों ने भी मुझे कुछ कम नहीं फँसाया दायीं आँख का कीचड़ पोंछते हुए वह फिर कुछ गुनगुनाने लगा कोई करुण संगीत बज रहा था उसमें मैंने कभी न सुनी थी ऐसी मारक धुन मेरे भीतर एक लहर उमड़ी और मैं रोने लगा उधर मेरा प्रिय कवि मंच से उतरकर चला आ रहा था अपनी ही चाल से।

एक और शाम

रोशनियों की कतारें अब मेरे भीतर हैं कुछ उजाले बाहर छितरे हुए इधर-उधर दिख रहे हैं बिखरे हुए फूलों की तरह फीकी पड़ रही दिन की चादर में एक नए रंग का पैटर्न यह संधिकाल जहाँ एक उम्मीद मिल रही है आर्द्रता में लिपटी हुई दूसरी उम्मीद से एक ढलती हुई निराशा एक युवा होती निराशा से ऋतुओं की अंतरिम सूचनाएँ बाहर आ रही हैं अभी-अभी दर्ज हुई है एक नयी ऋतु जिसे कोई कीड़ा अपने अपूर्व राग में गा रहा है थकान के आगे अब रात की लंबाई का निश्चित भविष्य है रात एक विशाल ख़ाली पात्र की तरह आ रही है सामने भरा जा सकेगा जिसमें आसन्न दिवसातीत हँसी की वह लपट, लपलपाती इच्छा और वह करुण ऊर्ध्व हूक जो उठती ही जाती थी यह शाम घट रही है किसी भी समय के बाहर बीत रहा है समय नश्वर ठहरी हुई है अमर शाम की यह बेला उदासी की बर्फ़ से टकराती हुई परावर्तित होती हुई उत्सुकता के जल से चमकती हुई आकांक्षा की आँख में अब इसमें संगीत की जगह निकल आई है य हाँ बजाया जा सकता है संतूर बल्कि बजने ही लगा है वायलिन यह जलतरंग है जो शाम की नसों में व्याप्त हो रहा है मुझे खेद है कि इस संगीत के साक्षी हैं भागती हुई उमस, दिन भर का धुआँ और जल्दबाज़ी के बीच मचलती हुई एक टीस और यह शाम है कि जिसे छुआ भी नहीं जा सकता जिसकी तसवीर खींचना नामुमकिन इसमें रहते हुए सिर्फ इसे महसूस किया जा सकता है यह शाम है एक शरण एक उल्लास एक घर एक वास्तविक जगह जिसकी तरफ़ लौटा जा सकता है जैसे एक पक्षी घर की तरफ़ नहीं लौटता है इसी शाम की तरफ़ लौटता है।

अतिक्रमण

अतिक्रमण के समाज में जीवित रहने के लिए सबसे पहले दूसरे के हिस्से की जगह चाहिए फिर दूसरे के हिस्से की स्वतंत्रता अनंत है अतिक्रमण के विचार की परिधि इसलिए फिर दूसरे के हिस्से का जीवन भी चाहिए वासनाएँ नए क्षेत्रों में करती हैं घुसपैठ सिद्धांत और सुभाषित बदलने लगते हैं हथियारों में समुद्र की तरफ़ अंतरिक्ष की तरफ़ पाताल की तरफ़ दसों दिशाओं में लालसाएँ मारती हैं झपट्टा फिर मारने की चीज़ के बारे में लंबे प्रचार के बाद तय कर दिया जाता है कि वह बचाने की चीज़ है जैसे जिसके पास बंदूक़ है वही अमर है फिर मनुष्य ही करते हैं मनुष्यों पर अतिक्रमण घेरते हुए ख़ुद को वस्तुओं से आसक्ति की चाशनी में वे पागते चले जाते हैं एक ऐसा समाज जहाँ मानवीय दिखता हुआ हर उपक्रम किसी नई वस्तु को क़ब्ज़े में ले सकने की सामर्थ्य बताता है कितना दबाया हुआ है दूसरे के जीवन का रक़बा और पृष्ठभूमि में से झाँकती हैं कितनी वस्तुएँ इन बातों से ही फिर बनने लगती है इस संसार में किसी की भी आदरणीय पहचान।

रेखागणित

अंतरिक्ष के असीम में क्षितिज के विस्तृत चाप पर वह शुरू होता है हमारी निगाह के कोण से और टिका रहता है अरबों बार छीली जा चुकी एक पेंसिल की नोक पर जटिल विचारों की रेखाएँ काटती एक-दूसरे को जीवन में और कितना दुश्वार इस सीधे-सादे सच पर यकायक विश्वास कर पाना कि एक सरल रेखा में छिपा हुआ है एक सौ अस्सी डिग्री का कोण और यह कि वृत्त की असमाप्त गति में शामिल जीवन का पूरा चक्र अलग-अलग दिशाओं में जाने वाली रेखाओं में प्रकट असमान जिंदगियों के बीच की हर क्षण बढ़ती दूरी और वहीं कहीं छिपे वर्ग-संघर्ष के बीज समाज के स्वप्न में चीखता है स्वप्नद्रष्टा बनाओ समबाहु समकोणीय चतुर्भुज - शोषणमुक्त एक वर्ग ! याद करो सुदूर रह गए बचपन में सुथरा षटकोण बनाने का वह प्रयास अथक वह शंकु जिसको अलग तरह से काटने पर मिलती आकृतियाँ नाना पायथागोरस की हर जगह उपयोगी वह मजेदार थ्योरम बस्ते में अभी तक बजता हुआ कम्पास बॉक्स और संबंधों का वह त्रिकोण ! यह रेखागणित है जिसमें सबसे आसान बनाना डिग्री का निशान और बहुत मुश्किल बना पाना एक झटके में चंद्रमा की कोई भी निर्दोष कला हर बार एक छोटी-सी अधूरी रही इच्छा एक ऐसी सिद्धि जिसे हमेशा ही सिद्ध किया जाना शेष न्याय अन्याय की रेखाएँ चली जाती हैं समानांतर कभी न मिलने के लिए अटल व्यास, परिधि, त्रिज्या और पाई इन औजारों से भी मुमकिन नहीं नाप सकना जीवन के न्यून कोण और अधिक कोण के बीच की दुर्गम खाई एक बिंदु में छिपे अणु हजार और दबी-कुचली, टूटी-फूटी रेखाओं की पुकारों आहों से भरा यह नया ग्लोबल संसार वक्र रेखा की तरह अनिश्चित गति से भरा जिसके आगे रेखागणित भी अचंभित खड़ा हिरणी, सप्तऋषि, अलक्षित तारे नदी तट पर चंद्रमा बाँका रति की प्रणति, आकृतियाँ मिथुन और वह बाहुपाश यह लिपि प्राचीन, उड़ती चिड़ियाँ, हजारों विचार उत्तरायण-दक्षिणायन होते सूर्य देव पिरामिड, झूलती मीनार रोटी, कागज, बर्तन, हिलता हुआ हाथ और वह चितवन पहाड़ का नमस्कार, खजूर का कमर झुका कर हिलना दिशाएँ तमाम जिनके असंख्य कोण पसरे ब्रह्मांड में और यह अनंत में घूमती जरा-सी तिरछी पृथ्वी... मैं यूक्लिड कहता हूँ देखो ! जिधर डालो निगाह उधर ही तैर रही है एक रेखागणितीय आकृति और वहीं कहीं छिपी हो सकती है जिंदगी को आसान कर सकने वाली प्रमेय। (यूक्लिड=रेखागणित के पितामह , प्रसिद्ध गणितज्ञ)

मोह

जैसे यह जलाशय सुनील प्रतिबिंबित जिसमें जड़-चेतन सभी जिसकी गहराई में शामिल आकाश की ऊँचाई भी - यह एक छोटा-सा विवरण है मेरे मोह का धूल पर ध्वनि यह लार से सनी किलकारी की यह प्रगल्भ प्रत्यंचा तनी हुई करती मेरे अरण्य में मेरा ही आखेट वरण करती हुई मेरी वासना का बाँस के झुरमुट को देखने से हर बार होती यह अभूतपूर्व सनसनी उठती हुई यह हूक यह हाहाकार यह पुकार यही मेरा मोह है दुर्निवार ! यह हर पल कल की आशा मुग्धकारी डोर यही इस जीवन की रहस्य का मोह, ज्ञात का सम्मोह जान लेने के बाद का मोह तो और भी गहन यह मोह और संसार में मेरा होना संबंध है नाभि-नाल का जर्जर, पुरातन, शक्तिमान, सनातन ! मनुष्य होने की पहली दशा ही है मोहित हो जाना।

मुर्गी

उसकी चाल में एथलीट की अकड़ और शान गर्दन की कोमलता में गति का सौंदर्य अनुपम इस सुबह में वह चुगती हुई दाना कितनी संलग्न कितनी समर्पित ! पंखों के डिजाइन का फ्रॉक पहने वह एक किलकती हुई बच्ची कूदती-फुदकती मोहल्ले की गलियों में एक दूसरी मुद्रा में वह एक चिंतित स्त्री दाना-पानी की खोज में भटकती कभी निकली हुई सैर पर नन्हे बच्चों के साथ अपने जीवन की छोटी-सी स्पंदित उड़ान में प्रसन्न सचेत निहारती गोल चमकदार आँखों से दुनिया को हर आक्रमण के खिलाफ़ सजग दौड़ से भरी हुई उसे छूना उत्साह भरी एक थकाऊ क्रिया इस समय वह बेपरवाह अपने ऊपर लगी स्वाद भरी हिंसक निगाह से लचक से झुकाती हुई ग्रीवा कचरे के ढेर में से उठाती छिपा हुआ अन्न कण हवा में मिलाती हुई अपनी तरह की खास और मीठी आवाज के गुल्ले !

मध्यमवर्गीय ओट

हमारे वर्तमान के टीले के पीछे है अभी भी वह समय जब बहुत कम थीं घर में चीजें और कहीं कोई कमी नहीं लगती थी फिर तेजी से बदलते रहे चीजों के अर्थ नए-नए मिलने वालों और गरिष्ठ होते एक निजी संसार में देखते हुए नए सामान भूलते हुए बचपन लगता है पीछे छूट गई है प्रत्यक्ष गरीबी (जैसे सबसे पहले छूटता है साइकिल चलाना) उधर लगभग एक-सा ही चला आता है दुनिया में भूख और गरीबी का जीवन बढ़ाता हुआ रोज अपना आकार ओझल होता उन लोगों की निगाह से जिन्होंने अभी-अभी पीछे छोड़ी है एक मटमैली दुनिया थोड़ी-सी ही संपन्नता की ओट में छिप जाता है एक विशाल रोता-कलपता दुःख भरा संसार।

यह एक दिन

एक दिन आता है जीवन में एकदम खाली जिसमें करने के लिए कुछ भी नहीं चाह कर भी जिसमें नहीं किया जा सकता कुछ फ्रेम में जड़ा हुआ एक खाली दिन दीवार पर तसवीर में मुस्कराते किसी भी ईश्वर की तरह व्यर्थ खालीपन से लबालब भरा हुआ एक दिन छीनता हुआ एक दिन का साहस एक दिन की ताकत एक दिन के समय की संपत्ति बाहर पत्तियाँ भी नहीं गिर रही हैं मौसम में मौसम की शिनाख्त नहीं है दिन ढलान पर से लुढ़क नहीं रहा है रात हो कर गुज़रने में अभी कई बरस बाकी हैं आवाजों से आने वाले की पहचान मुश्किल हो सकता है यह धमाका किसी खुशी में किया गया हो यह पदचाप मुमकिन है कि महज एक खयाल हो और यह कराह कोई हिस्सा हो बच्चों के किसी खेल का जैसे यह दिन इस जीवन का ही हिस्सा है एक खाली कैनवास कुछ बनाने के लिए यह फिर कभी न मिलेगा मेरी संभव कूदों में से एक कूद को धूल-धूसरित करता यह एक दिन जा रहा है इस बीतते जा रहे दिन के सामने मैं एक असहाय दर्शक, बस ! फुटबॉल मैच से उठने वाला शोर भी इसमें नहीं भरा जा सका एक बच्चे की किलकारी और एक स्त्री की मादक चेष्टा इस दिन से टकरा कर लौट चुकी है यह दिन तना हुआ पत्थर की किसी दीवार की तरह अपने भीतर के खालीपन की रक्षा करता हुआ मुस्तैद 'एक दिन की अन्यमनस्कता भी बूढ़ा कर सकती है आदमी को' न जाने किसका आप्त-वाक्य है यह - या मेरा ही कोई सोच अटका हुआ जेहन में लेकिन मैं इस दिन के खिलाफ मोर्चा नहीं ले पा रहा हँ इस दिन के खालीपन से परास्त हुआ मैं इसके नाकुछ वज़न के नीचे दबा पड़ा हूँ यह दिन मेरी स्मृति में रहेगा इस तरह कि जिसे न तो उम्र में से घटाया जा सकेगा और जोड़ कर देखने में होगा एक अपराध

संगीत है

यह संगीत है जो अविराम है यह भीड़ में है जो अकेलेपन के कक्ष में गूँजता है अलग बंदिश में शब्द में निःशब्द में हवा में निर्वात में संगीत है यह जिजीविषा जो कभी सितार है कभी बाँसुरी कभी अनसुना वाद्ययंत्र और यह दुःख के साथ-साथ जो कातरता बज रही है शहनाई में और यह दुराचारी का दर्प जो भर गया है नगाड़े में यह संगीत है जो छिप नहीं सकता यह है भीतर से बाहर आता हुआ यह है बाहर से भरता हुआ भीतर यह संगीत है कभी टिमटिमाता हुआ एक तार पर कभी गुँजाता हुआ पूरी कायनात का सभागार ।

बीज

जो पराजित है वह धन है संसार का यह हवा बहेगी एक हारे हुए का जीवन सँभालने के लिए ही जो जानती है कि पराजित होना जिंदगी से बाहर होना नहीं दाखिल होना है एक विशाल दुनिया में जिंदगी में दाखिल हो गए इस व्यक्ति को ईर्ष्या और प्रशंसा और अचरज से देखता है जीवन से बाहर खड़ा आदमी वह समझ ही नहीं पाता है कि वह तो फ्रेम से बाहर खड़ा हुआ प्रेक्षक है एक जो पराजित है और टूट नहीं गया है वह नए संसार के होने के लिए एक नया बीज है !

एक सुबह की डायरी

वह अपनी धुन में किसी पक्षी के साथ नापता हुआ आकाश उसकी आँखों में आसमान का रंग चमकता विस्तृत नीला उसकी चाल को धरती का घर्षण जैसे रोकता-सा काँच के टुकड़ों की आपसी रगड़ का रंगीन संगीत उठता हुआ निक्कर की जेबों में से गूँजता हुआ इस दिक् के सन्नाटे में आँखों के आगे चाकलेट की पारदर्शी पन्नी लगाए कूदता चलता वह करता खेल अनेक दूध की लाइन में खड़े व्याकुल अधीर लोगों के बीच वही था जो बेपरवाह था वह जो असीम था और तैर रहा था अथाह बचपन की झील में वही था जो आसपास को देखता हुआ इस तरह मानो हर चीज़ पर उसका ही अधिकार जो दूध वाले के मजाक पर देखता उसे क्षमा करता हुआ थैली को निक्कर की दूसरी जेब में घुसाने के एक बड़े नाट्य में व्यस्त वह जो ट्रक की तेजी को परास्त करता पार करता हुआ सड़क गली के छोर पर दिखता चपल एक कौंध एक झोंका गायब होता हुआ हवाओं के साथ वह जो इस पुरातन दुनिया को करता हुआ नवीन और अद्यतन ! वह जो मेरे आज के दिन का प्रारंभ !

गोआ

चित्रों में कितना कम जिंदगी में फैला विस्तार अटूट देश के नक्शे में चमकता हुआ एक किडनी की तरह ललचाने वाली बदनामियों और प्रसिद्धि के बीच अपनी लापरवाही में मस्त हर कदम पर मिलते नारियल के वृक्ष मौज में हिलते-डुलते ईसाइयत के निशान हजारों जिनमें पुर्तगाली चमक का एहसास बराबर जहाँ भी बैठो मस्ती में या थक कर वहीं पास कहीं दिखता एक क्रॉस समुद्र की नमक घुली हवा में साँस लेते हम जिसमें रसायनों की गंध कम लेकिन खाना परोसता हुआ आदमी कहता है - अब नहीं रही पहले-सी हवा ! मीलों फैले बीचों पर पर्यटकों का उत्सव अनंत मौज-मस्ती के दृश्यों के बीच अविस्मरणीय वह कृशकाय अधेड़ जोड़ा लहरों के साथ आई सीपियों को भूख से चलित हाथों से बीनता मछलियों की गंध के बीच विदेशी ग्राहकों को पटाते आदमी निरक्षर बोलते अंग्रेजी रेत के मुलायम गद्दे में धँसे हम अवाक् देखते डूबते सूर्य की अरुण छटा जो फिर एक बार शब्दातीत पास में ही गीली बालू पर समुद्री कीट के रेंगने के निशान जिन्हें अगले पल में ही मिटाने आ रही वह एक तेज लहर सुबह छह बजे की उजास में धुली सड़कें चमकती गलियाँ रात आठ बजे से ही फिर अपनी चुप्पी के रहस्य में डूबती हुईं लोग घरों में बंद चुपचाप लेते चुस्कियाँ और वहीं प्रकृति में पकते काजुओं की खुशबू ज़मीन में दफ़न हाँडी में से उठती है होरॉक की गंध शाम होते ही हर घर धीरे-धीरे तब्दील होता किसी शराबखाने में रोशनी की जरा-सी दरार में मिल जाती पीने की गुंजाइश फिर समुद्र की तरफ से आने वाली हवाओं में झूमता शहर पणजी घरों की गुल बत्तियों से पैदा हलके अँधेरे में सोता हुआ चैतन्य नींद में पुल के किनारे जलती बत्तियों की लंबी कतार की परछाइयाँ गिर कर चमकती हैं खाड़ी के हरे-नीले जल में उन्नीस सौ इकसठ की याद अभी धूमिल नहीं घर-घर में एक बुजुर्ग जैसे उत्सर्ग और लंबी यातना का किस्सा नेहरू की गोआ-नीति को ले कर नाखुश लोग शहीदों के लिए भावुक बस्तियाँ नष्ट होती हैं इतना नव-निर्माण हर तरफ से आती हैं सरिए काटने और फरमों में कंक्रीट डालने की आवाजें भीतर गाँवों में हरीतिमा से घिरा वही विपन्न जीवन हिप्पियों और नशेलचियों के लिए एक मुफीद जगह पर्यटन केंद्रों में श्रेष्ठता की होड़ ने सस्ती कर दी है शराब एक पर्यटक की तरह भी देखते हुए कितना कम लौटते हैं हम जुड़वाँ पुलों में से एक को पार करते हुए जहाँ से रोशन जहाज की तरह चमकता हुआ दिखता है विधान-सभा का श्वेत-भवन !

आत्म-संलाप

मैं यहाँ तक चला आया हूँ महज आशा करते हुए हँसते हुए गाना गाते हुए अभिवादन, आइए - बैठिए, दुःख, तंगहाली हम कुछ कर सकते हैं या हम अब कुछ नहीं कर सकते अजर स्त्रोत के जल की तरह बहता पैसा और खाई विशाल जैसे अलंघ्य जिसमें गिरते हुए अरबों कीट-पंतग मनुष्यों जैसे लगते समुद्र में हर पल बनती लहर लौट कर आती किनारों से ही फैलता हुआ नमक का झाग तटों पर जिसकी तलहटी में किरकिराती बारीक रेत मैं कोई घोंघा नहीं न ही मेढ़क कभी होता कभी करता हुआ शिकार अजब पहाड़ों असंख्य प्रजातियों के वृक्षों और प्राणियों से घिरा समुद्रों के चिर यौवन की दहाड़ के बीच मैं एक मनुष्य हूँ और अनुभव करना चाहता हँू - कि मनुष्य हूँ इड़ा पिंगला सुषुम्ना के त्रिभुज में कसा हुआ अपनी बहत्तर ग्रंथियों से राग-रागनियाँ गाता मैं चला आता हूँ निढाल जीवन का साक्षी होते हुए ये हाथीदाँत पर की गई पच्चीकारियाँ चीते की अद्भुत दौड़ से भरी माँसपेशियों के ये आखिरी टुकड़े शोकगीतों के बीच मैथुनरत हँसते हुए दर्जन भर चेहरे चुटकुलों पर जीवन-यापन करते विदूषक तमाम प्रार्थनाओं में छिपी वहशी पुकार और अपनी आत्मा के गले से निकलने वाली गैंडे जैसी आवाज़ इन अजब-गजब चीजों की मार के बीच भी हँसता चला आता हूँ देखो गाँव उजड़े नगर हुए वैभवशाली दुरवस्था से भरे जिनमें जीवित कितने कम एक बना दी गई व्यवस्था का हामीदार होता हुआ अपने लोभ के आगे परास्त टुकुर-टुकुर एक अछोर गर्द भरे भीड़ से आह्लादित बाजार से गुजरता होता हुआ हर रोज एक नए तानाशाह का उपनिवेश मैं नदियों को बाँधने वाली अजगर भुजाओं की लपेट में तड़पते अपने सहोदरों की छटपटाहट से कोटि-कोटि ईश्वरों से और उनसे भी ज़्यादा उनके भक्तों से ज़मीन में दबाए गए इतिहास के हण्डों की दुर्गंध से व्याप्त इस कब्रगाह में जीवित रहता हूँ ओह! जबकि मेरी प्रतीक्षा में चमक रहे हैं तारे पतझड़ के बाद वृक्ष हैं मेरी ही तरफ ताकते हुए ज़मीन के भीतर और बाहर कितना सारा जीवन है मेरी प्रतीक्षा में जिनसे छूट चुका है उम्मीद की चिकनी रस्सी का आखिरी सिरा वे भी जिए जा रहे हैं मेरी प्रतीक्षा में ही अनंत जगहें हैं जो विकल हैं मेरे स्पर्श को यात्राएँ हैं जो मेरे जाने से ही होंगी संभव काम हैं जो सदैव करने से ही होते आए हैं - और देखो ओ मेरे शाश्वत पुरूष ! मैं यहाँ बैठे-बैठे ही बदल देना चाहता हूँ यह संसार।

पर्यटन

मेरे लिए संभव था किसी भी जगह जाना इसमें कोई आश्चर्य नहीं और न ही चमत्कार क्योंकि मैं एक कवि निर्वात और सघन पदार्थों में से गुजरना रोज का ही मेरा काम सूर्य की सतह के छह हजार डिग्री सेल्सियस के तापक्रम में और सुदूर परिधि पर चक्कर खा रहे (अभी एक खोजे जा सकने वाले) ग्रह के माइनस एक हजार डिग्री सेल्सियस के शीत में भी मेरी इंद्रियाँ और अंग उसी तरह प्रसन्नचित्त करते हुए अपने काम जैसे भूमध्यसागरीय प्रायद्वीप के सुखद माने जाने वाले मौसमों में एक कवि इतना सर्वव्यापी इतना प्राचीन जितना गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी के वायुमंडल में सैर करते-करते चल पड़ा मैं सौर मंडल के हाईवे पर पौ फटने में देर थी और मुझे दिख रहा था शुक्र का चमकीला साइन बोर्ड चला जा रहा था मैं अपनी मौज में टहलता हुआ कुछ ही देर में जब पहुँचा शुक्र पर तो बस थोड़े बड़े दिख रहे सूरज के साथ होती जा रही थी सुबह वह एक गर्म सुबह थी और गंधक के अम्ल की सघनता के बीच अपनी उठान पर था ज्वालामुखियों का रोमांचक दृश्य एक ज्वालामुखी के कगार पर बैठ कर हँसते हुए मैंने कार्बन मोनॉक्साइड के बादलों से कहा अभी जमा है मेरे फेफड़ों के सिलेण्डरों में अनगिन सालों के लायक ऑक्सीजन ! देख कर खुशी हुई कि पृथ्वी एकदम पड़ोस में थी दूर होते हुए पास में ही होने की खुशी शुक्र के देदीप्यमान रूप से बनाया मैंने एक मूर्ति शिल्प और उसे फेंक दिया पृथ्वी पर सौर मंडल का एक सबसे लंबा और सबसे गर्म दिन बिता कर शुक्र के चाँद-विहीन आकाश से विदा लेते हुए चैन की ठंडक में सोने के लिए मैंने बुध की राह ली यहाँ एक तिहाई वजन घट जाने से कुछ हलका महसूस किया और थोड़े-बहुत वायुमंडल से चलाया अपना काम फिर लंबी रात में खूब सोया मैं कि आगे के सफर के लिए हो सकूँ तैयार चाँद यहाँ भी नहीं था और रह-रह कर मुझे याद आया अपनी पृथ्वी का आकाश पृथ्वी की कक्षा की पगडंडी से ही मंगल का लाल परचम दीखता था लहराता चलो, वहाँ कोई न कोई मिलेगा मुझे सोचते हुए खरामा-खरामा पहुँचा मंगल ग्रह पर वहाँ मुझे दो चंद्रमा मिले जिन्होंने किया स्वागत मंगल पर कदम रखते ही मैं चिल्लाया - लोहा ! लोहा ! कितना सारा लोहा ! मंगल ने मेरे खून में बसाया लोहा और वहाँ मैंने पृथ्वी के दिन-रात के बराबर का लालिमा भरा समय बिताया बेकार पड़ा है मेरा पूरा लोहा और अब देखो इस लोहे में लग रही है जंग - मंगल ने कहा मुझसे जैसे दे रहा हो चेतावनी कि लोहा है तो नहीं लगने देना चाहिए जंग यह संदेश एक परा तरंग पर मैंने तुरंत ही भेजा धरती पर अपने तमाम साथियों को फिर चल दिया मैं ताराकार कॉलोनी पार करते हुए सबसे विशाल ग्रह बृहस्पति की तरफ अनंत और नित दीपावली का दृश्य वह जहाँ से गुरु की असीम गुरुत्वाकर्षण भरी हजार आतुर बाँहों ने उठाया मुझे कहा कि आओ ! सबसे पहले घूमो मेरे वलय में जो मेरा सबसे दर्शनीय स्थल बीच में बर्फ का विशाल स्केटिंग का मैदान वर्तुलाकार इतने विशाल ग्रह को देख कर हुआ विस्मित मैं एक पर्यटक घूमता बेतहाशा थक कर सोया एक पूरा दिन और रात भर एक थके हुए आदमी को आठ-नौ घंटे की ठंड भरी नींद बहुत ज़्यादा तो नहीं ! सोने से पहले उतने तारे दिखे जितने जीवन में नहीं देखे कभी और सोलह चंद्रमाओं को देख कर लगा कुछ अजीब (अब किसको कहूँ अच्छा और किस-किससे किसकी दूँ उपमा !) वहीं कुछ वे तारे भी थे जो कभी भ्रूण थे मेरी इच्छाओं के अब उनकी चमक पूरे महीनों के जन्मे शिशुओं की तरह थी उनके करीब ही उल्काएँ थीं दमकती हुईं उनके टूट कर लुप्त होने के बाद का अँधेरा था टूटने और बनने की वेदना की ऊर्जा के आलोक से जो फिर-फिर प्रकाशित होता था ठीक वहीं से दृष्टि के गवाक्ष से दिखता था अंतरिक्ष का विशाल कोना विराट, असमाप्य, विलक्षण स्पेस का एक छोटा-सा उदाहरण सब कुछ से भरा हुआ महाशून्य जिसमें सबसे पहले समा कर ओझल होता है समय 'ब्लैक होल' में संगठित होता हुआ एक विशाल घनत्व - घनसत्व !! शनि तक पहुँचते हुए लगा कि अब चला आया हूँ वाकई कुछ ज़्यादा ही दूर नीले-हरे ग्रह के भीतर भी गया मैं उसके अनेक वलयों से खेलने में मजा आया बहुत वहीं नीली बारिश होती रही और उसने मेरे बचपन को एक बार फिर भर दिया बारिश से वहीं शीत का एक काल बिताया मैंने और दोपहरी के अनगिन पहर भी वापस भी लौटना था इसलिए यूरेनस, नेप्च्यून और प्लूटो की सैर करते हुए स्थगित - (आह, नेप्च्यून का वह तेज नीला बुलाता हुआ रंग !) झूलते हुए अपनी पंचबाहु निहारिका की सबसे सुंदर बाँह में लौटते हुए मुझे दिखीं अपनी अनेक रिश्तेदारियों की निहारिकाएँ क्या ये सब मौसियाँ हैं मेरी और 'बिग बेंग' क्या मेरा नाना हुआ ? वंशावली के बारे में कुछ भी निश्चित कहना ठीक नहीं कितने गंधर्व विवाह हुए होंगे और कितने स्वयंवर और यह सूर्य ही - मेरे सबसे निकट एक तारा - क्या कम विराट है चला ही तो रखा है सबको इस रूपवान तेजवान रसिया ने चक्कर लगाता है हर कोई बँधा हुआ आकर्षण में चल रहा है रास महारास ! ! जैसे यह पूरा सौर मंडल एक रास मंडल ! एक तारा भी नहीं रहना चाहता अकेला समूह में रहना सीखा है हमने तारों से सोच में लगाता हुआ अपनी छलाँगें गुज़रता हुआ अदृष्ट प्रकाश रेखाओं के रास्तों में से सुनता हुआ अश्रव्य ध्वनियाँ बचता हुआ उल्काओं से जब लौटा मैं अपने घर बेटा साइकिल निकाल रहा था स्कूल जाने के लिए और नल पर चल रहा था वही सनातन झगड़ा पत्नी थी मशगूल चाय बनाने में अखबार पढ़ते हुए अवस्थित होते हुए अपने छोटे-से काल में मैं सुड़कने लगा चाय।