अपने ही होने पर : विंदा करंदीकर

Apne Hi Hone Par : Vinda Karandikar


स्वेदगंगा-1

भागीरथी के दर्शन और पापों का परिमार्जन, गंगातट पर कतिपय सज्जन शाम सुहानी आते और करते रहते भाषण। 'सब नदियों में शुभकर गंगा' एक ने कहा, बोला दूजा- 'गंगा से भी स्वर्गंगा सुन्दर' यूँ ही बोला तीजा इस पर 'लोप हो गयी तीजी गंगा।' बेजा बकबक, प्रचार नंगा ज़हरीले शब्दों का दंगा लोप कहाँ से? सुनो सज्जनो! उमड़-घुमड़ती तीजी गंगा। (अनुवाद : रेखा देशपांडे)

स्वेदगंगा-2

स्वेद की गंगा अविरल गंगा हाँफती हुई बहती गंगा अनन्त से है अनन्त की तरफ। चट्टानों पर सिर पटकती गिरि-कन्दराओं को तोड़ती-फोड़ती खाई-खाई पर कूदती-फाँदती। स्वेद की गंगा अविरल गंगा देश, धर्म, और रक्त के सारे तोड़ती बाँध, काटती धारे भिगोती मिट्टी काली गोरी दौड़ रही दुनिया को लेकर जीवन नैया नाचे जिस पर। स्वेद की गंगा अविरल गंगा रात-दुपहरी, साँझ-सकारे जाड़े हों या धूप के पहरे बहती थी, बहती रहती है उफनती नागिन जैसी जो भी कुचले उसको डसती। स्वेद की गंगा अविरल गंगा खेतों में चलते हल के पीछे मिलों और मशीनों के पीछे खदानों और कटारों में बेलौस चली है कगारों से हर नाम मिटाती, निशां मिटाती। स्वेद की गंगा अविरल गंगा पहाड़ तोड़ती, खाई भरती समतल करती सारी धरती, युगों-युगों से दिशा बदलती सँजोती परमेच्छा विकास की और जुल्मी राज को धूल में मिलाती। स्वेद की गंगा अविरल गंगा काला पानी, लाल मिट्टी गीत क्रान्ति के गाती चलती कई मुखों और कई दिशाओं तलाशती सागर संघटना का नवयुग का और स्वतन्त्रता का। (अनुवाद : रेखा देशपांडे)

स्वेदगंगा : पुजारी

गंगा के तट पर ये सारे स्वार्थ के क्षेत्र रचाने वाले देवपुजारी जमा हो गये लाभ-लोभ के मन्त्र-जाप से ऐयाशी की मूर्ति पूजने। रहे प्रसन्न सदा ये देवी अपने ही को केवल वरती इसी हेतु अभिषेक-अर्थ ये देवपुजारी स्वेद नदी से स्वेद बिन्दु की भरते गगरी। ऐयाशी के बाग़ सींचने स्वेद बिन्दु ना तन-मन देंगे यही सोच कर बाँध बनाने स्वेदबिन्दु से कहे पुजारी 'या तो आएँ या मर जाएँ।' स्वेद की यह समाजगंगा इसी तरह से बहती धारा बाँध किसलिए बनवाएँ ये? बाँध नहीं, तो भोंदू जन हे! स्वार्थ की गगरी भरें तो कैसे? पल पल बढ़ता जाता है जल पल पल बढ़ता जाता है, बल व्यर्थ बनाते बाँध तटों पर जितने भी बनवाओगे तुम टूटेंगे, बह जाएंगे सब। अरे पुजारी , छोड़ो भी भ्रम घिरे हुए हो पानी में तुम मन्दिर के संग डूबोगे तुम तुम्हरी धरती में तुम्हें गाड़ कर स्वेदनदी आगे बढ़ जाए। व्यर्थ तुम्हारे बाँध ये सारे स्वेदनदी उल्टी ना घूमे तेज़ दौड़ती बढ़ती आगे रोकेंगे जो, उनके मुर्दे लिये समेटे, आगे भागे। पवित्र यह गंगाजल सारा देवी पर तुम न कभी चढ़ाना देवी से भी पावनतर मानव पर तुम इसे चढ़ाना और पूजना समाज शंकर। (अनुवाद : रेखा देशपांडे)

स्वेदगंगा : प्रणाम

कांचनगंगा से भी सुन्दर भागीरथी से जो पावनतर ईश्वर से भी जनहित तत्पर उस गंगा के स्वेद बिन्दुओ! प्रणाम मेरा तुम्हें निरन्तर। सिर आँखों पर स्वेद बिन्दु जिनसे जनमे जीवन सिन्धु जिनके माथे इनकी माला त्रिबार वन्दन उन सन्तों का। विजय उन्हीं की! जीवन उनका! (अनुवाद : रेखा देशपांडे)

मानवो, स्वागत तुम्हारा!

पर्वतो, परे हटो! सागरो! दूर हटो! खोल दिया द्वार मैंने, मानवो, स्वागत तुम्हारा। तूफानों से कैसा डरना वही तो मेरा गीत गाते आँधियों को जन्म देता साँस का संसार मेरा। भूख मेरी बढ़ गयी है प्राण है फूला हुआ फैले हुए हैं पंख मेरे, आकाश छोटा पड़ रहा। जीत लिया है कालसर्प को व्योमगामी होकर मैंने चंचु विद्युत् हुई मेरी औ' पंख पसारे मेघमाला। एकाग्र हो साधे है मेरी देह, विश्व-एकता मानवों को बाँधने वालों की किस्मत आज कारा। दुर्बलों को, दुःखितों को, शापितों को, शोषितों को क्षितिज की बाहों से है, आज आलिंगन मेरा। (अनुवाद : रेखा देशपांडे)

रक्त-समाधि

विचार-वाचन-भाषण से होकर मोहित हम चले खोजने गाँव-खेड़े और अन्त में दौड़ते पहुँचे जहाँ नीला आकाश ऊपर; हम धरती पर; हरियाली चारों ओर; और देवी के बागों के पक्षी करते खुसुर-पुसुर! आतुरता से कम्पित हो फिर त आयी पास और उस समय! उस अद्भुत क्षण!! अर्धोन्मीलित काली आँखों से उससे भी अधिक काली ज्वाला उफन पड़ी; गाल बोले, नेत्र बोले, होंठ बोले, एक ही शब्द-'मुझे...मुझे' पीठ पर केश तेरे खुले हुए; सामने स्तन खिले-खिले उभरे हुए; और उन उन्मादक भरे-भरे नितम्बों के इर्द-गिर्द सुन्दर रेखाएँ मोहक नितम्ब गोरे, मृदुल, गोल औ' मांसल; मस्त, पुष्ट, मादक जंघाएँ सिहरतीं; विवस्त्र हो तेरी कमर आगे मेरे झूमती। सीने से लगा तुझे, कसता आलिंगन तब पसीने से भीगी देह सारी; तीव्र, गूढ़ निःश्वास गीत अनन्त अधूरे गाने लगे; र क्त लगा गाने और नाचने; मृत्यु से भी अमरता आने लगी; प्राण-प्राण से जुड़ गयी डोर सारी; संगीत लहरी उठी रुधिरों से; गीत अतीत के नये सुरों में लगे घुमड़ने अधरों से; तुझमें समा, हुआ विसर्जित और मरा मैं; स्वयं को तुझे पिला, तुझे जिया-पिया मैं; मेरा 'मैं' गया; 'तू' आया...आया। जीवन संगीत हुआ, पिया जीवन प्याला! अव्यक्त को करने व्यक्त, अद्वैत में ही घुल गयीं गाँठे सारी अद्वैत में ही भूला, मैं अपना मैं-पन स्वत्व का संरक्षण; और उस चरम अद्भुत क्षण में दिक्-काल की बेड़ी भग्न हुई। रक्त-समाधि में दिव्य स्वरों में बोले जब हम दोनों- तू 'आ...आ', मैं 'ले...ले...' रक्त-समाधि लगी और विसर्जित माया; मिला रक्त से रक्त बढ़ाने आगे जीवन! (अनुवाद : दामोदर खड़से)

तीरथयात्रा

तीरथ यात्रा करते करते, अनजाने औचक पहुँचा तेरे द्वार पा गया देह में तेरी सब तीर्थों का सार। अधरों पर, सखि, वृन्दावन प्रयाग तेरी पलकों में माथे पर मानसरोवर अरु गंगोत्री ग्रीवा में। गया तेरे गालों में समायी और काँधे रामेश्वर मिली द्वारिका कटि पर तेरी श्रीकाशी है इधर उधर। चाह मोक्ष की किसे रही अब चाहूँ कृपा न दूजी तीरथयात्रा करते करते, अनजाने में औचक पहुँचा तेरे द्वार। (अनुवाद : रेखा देशपांडे)

भावय

खत्म काम है; उमड़े गाने हैं झड़ी लगाती बरसातें मँडराती तेज हवाएँ बालियाँ धान की लहलह कोंकण के कंगाल कवि तब गया खोजने मन्दिर झटपट हाँ, थी भावय! चेतनता का तूफान उठा; मुख से निकली: सीधी सादी ढोलक की लय- नाचो भावय! नाचो भावय! पोंभुर्ला की यह स्थानेश्वर, सरल सदाशिव भोले शंकर; भाये उसको अपनी भावय जो माने ना जाति का भय; जब भी नाचें इस भावय में हम ही जनता; बात हृदय में, जनता, जनता, जनता हैं हम, इस अद्वैत में ही है नारायण, रौदें मैं-पन; बनें प्रेममय, नाचो भावय! नाचो भावय! लो, तेज हुई ढोलक की लय, कीचड़ लाल; लाल ही भावय। भावय गूंजी, भीड़ हो गयी; चलो, न छोड़ो, लगन लग गयी; भिड़ा लो कन्धे, पकड़ो कस कर। अभेद्य बना लो छाती का का गढ़ लड़ो, चढ़ो या गिरो साथ में भेद नहीं नौकर मालिक में; बनो समान, बनो मृत्युंजय। नाचो भावय! नाचो भावय! रख कीचड़ ये सरमाथे पर नकली भेद सब चलो भुलाकर मानवता का मन्दिर बनता, बनकर छत है अम्बर तनता; बन्धुता का एक ही नाता वन्दनीय हो नव मानवता, अभिषेक करें स्वतन्त्रता का; मीठी वाणी, मन्त्र न दूजा। मानवता की बोलो जय जय! नाचो भावया नाचो भावय! इस मिट्टी से सबका आना; माटी में ही है मिल जाना। माटी आदि, माटी ही अन्त; फिर क्योंकर स्वार्थ प्रपंच? आस्वाद बन्धुता का चखने बँधो समता के बन्धन में; इस मिट्टी को रखकर साक्षी आओ बनें हम उड़ते पाखी। दुनिया अपनी; फिर क्यों संचय? नाचो भावय! नाचो भावय! अमराई की है आड़ घनी छिपी है जिसमें बस्ती अपनी; बाड़े हैं छोटे; मामूली घर; नन्हें फूल खिलते छप्पर पर; क्यारियाँ छोटी अँगनों में; है फसल धान के खेतों में; धुआँधार कलकल झरझर, लपके झपटे नटखट निर्झर; यह क्या कम है? भूमि हमारी स्वर्गमय! नाचो भावय! नाचो भावय! (अनुवाद : स्मिता दात्ये) (भावय : कोंकण के पोंभुर्ला गाँव के ग्राम देवता हैं भगवान शिव, जिनका मन्दिर 'स्थानेश्वर' कहलाता है। बरसात के मौसम में किसी एक दिन जब जमकर वर्षा हो रही हो. सारे ग्रामवासी इस मन्दिर के सामने खुली जगह में एकत्र होते हैं। यह जगह लाल मिट्टी के कारण लाल कीचड़ से भरी होती है। वैसे तो इस गाँव में छुआछूत की प्रथा अत्यधिक मात्रा में प्रचलित है, परन्तु इस दिन सारा भेदभाव भूलकर सारे ग्रामवासी मिलकर इस लाल कीचड़ में पारम्परिक खेल और नृत्य का आनन्द उठाते हैं। सब लोग एक-दूसरे का हाथ पकड़कर, कन्धे से कन्धा मिलाकर खूब नाचते हैं। इस कार्यक्रम को 'भावय' कहा जाता है। विशेष बात यह है कि 'भावय केवल इसी गाँव में प्रचलित है, कोंकण प्रदेश के अन्य गाँवों में नहीं।)

अभी अभी तो

नज़र में हिलोर शरारत की अभी तो लगी थी लहराने; होठों पर थे लगे थिरकने अभी अभी तो अल्हड़ गाने; अभी अभी तो शुरू किया था आँचल से खिलवाड़ लाज ने; सीधे सादे भाव निरंकुश; अनजाने थे लगे पिघलने; दाँतों से यों होठ दबाना अभी अभी सीखा था तुमने! कच्ची पक्की अपनी तुकबन्दी अभी लगा था मैं भी रचने! उस पहली तुकबन्दी में से कुछ भी न किसी को भाता है; पर मेरा मन उसे याद कर कभी कसकता, खिल जाता है। (अनुवाद : स्मिता दात्ये)

सरोज नवानगरवाली

मेरे रोज़ के आने-जाने के रस्ते पर पड़ता था सरोज का घर। याद है मुझे वह उसका पुराने घर का लिपा-पुता कमरा, परदा टँगा; जिसमें उसके उस जीवन के अनेक वर्ष बीते। रात में जब गुज़रता मैं उस रस्ते से, रोज़ दिखाई देता दृश्य ऐसा देख जिसे मन ही मन मैं लज्जित हो उठता- लपेट कर नखरीला आँचल, समेटती हाथों से मृदुल कुन्तल, आँज कर नयनों में काजल, मोहक नखरे दिखलाती, हल्के से होठ दबाती, और करती हुई इशारे, खड़ी दीखती वह सदा प्रतीक्षारत! प्रतीक्षा किसकी? सारे जग की, जो भी आए बस उसी की; तब कोई - छड़ी टिकाता, बड़ी-सी पगड़ी पहने, देखता इधर-उधर, चुपके से घुसता कमरे में खाँसते हुए। सरोज बढ़ती आगे। हाथ उसके तब बन्द कर देते द्वार। फिर भीतर से आती हल्की खनक सिक्कों की! सुबह उसी रास्ते से गुज़रते हुए रोज़ दिखाई देता अलग ही दृश्य देख जिसे भर आता हृदय- उसी द्वार में, उसी जगह पर, बैठती सरोज आकर। ऊँघते ऊँघते बीनती चावल। काले, कोमल बिखरे कुन्तल पीठ पर क्रीडा करते, लटें घुँघराली खेलती गालों पर। सामने पड़ी चलनी थकी आँखें चंचल बीनती जाती मोटे चावल साथ ही बहती जाती नयन जल की धार शीतल। (अनुवाद : स्मिता दात्ये)

...कैसा, न जानूँ!

कभी कभी तो मैं तिनके-सा ओछा कभी बढ़ते-बढ़ते आसमाँ समेटूँ कभी विश्व को चूमने बढ़ जाऊँ कभी आप ही को अपने हाथों सरापूँ। कभी माँगूँ सत् तो कभी स्वप्न माँगूँ कभी छोड़ पीछे ज़माने को, दौड़ूँ कभी मैं अमृत की वर्षा कराऊँ मृत्यु की भीख भोली कभी माँग बैठूँ। कभी हीन-दीन मैं, बहुत बेसहारा कभी अपने आलोक से जगमगाता कभी गरज उठता हूँ सागर के जैसा कभी अपनी ही बात से काँप जाता। कभी ढूंढ़ता अपने आप को सभी में कभी अपने आप में सभी को हूँ पाता जहाँ सूर्य-तारे हैं अणुरूप होते, वहीं पर मैं खुद को अनन्त से हूँ नापता। जरा-सी बात पर अहंकार होता खुदगर्ज यादों का पीछा न छुटता कभी स्वाँग अपना मैं सच मान बैठूँ कभी सत्य को स्वाँग मैं मान लेता। कभी संयमी, संशयात्मा, विरागी कभी आततायी, लिये दुरभिमान मैं ऐसा मैं...वैसा मैं...कैसा, न जानूँ अपने ही घर, दूर का मेहमान मैं। (अनुवाद : रेखा देशपांडे)

वही, वैसा ही

सुबह से रात तक वही, वही! वैसा ही! बन्दरछाप दन्तमंजन; वही चाय, वही रंजन; वे ही गाने, वे ही तराने; वे ही मूर्ख, वे ही सयाने; सुबह से रात तक वही, वही! वैसा ही! भोजनघर भी बदलकर देखे; (जीभ बदलना सम्भव नहीं था!) 'चाची' हो या 'ताजमहल' सबका हाल एक सा था। नरम मसाला, गरम मसाला; वही वही साग सब्जी; वही बदबूदार चटनी; वही, वैसा ही खट्टा रसा; दुख बहुत, सुख ज़रा सा! संसार के बरगद पर स्वप्नों के चमगादड़ इन स्वप्नों के शिल्पकार कवि कम, ज्यादा तुकबन्दक! परदे पर की उछलकूद शोक बासी, चुटकुला नपुंसक; भ्रष्ट कथा, नष्ट बोध; नौ धागे, एक रंग; व्यभिचार के सारे ढंग! बार बार वे ही भोग; आसक्ति का वही रोग। वही मन्दिर, वही 'मूर्ति'; वे ही 'फूल', वही 'स्फूर्ति'; वे ही होठ, वे ही आँखें; वे ही लटके, वे ही नखरे; 'वही पलंग', वही 'नारी'; -सितार नहीं, इकतारी! करनी चाही आत्महत्या; रोमियो की आत्महत्या; दधीचि की आत्महत्या! आत्महत्या भी वही! आत्मा भी वही; हत्या भी वही: क्योंकि जीवन भी वही! और मरण भी वही! (अनुवाद : स्मिता दात्ये)

मेरे मन पत्थर बन

यह रास्ता अटल है! अन्न बिना, वस्त्र बिना; ज्ञान बिना, मान बिना। ठिठुराए यह जीव देख मत! आँखें सी ले! मत देख जीना उदास ऐन रात होंगे आभास सीने में रुक जाएगा श्वास भूल इन्हें, दबा उबाल; मेरे मन, पत्थर बन! यह रास्ता अटल है! मत सुन यह आक्रोश, तेरा गला जाएगा सूख। कानों पर हाथ धर उससे भी आएँगे स्वर। इसलिए कहता सीसा उँडेल; सँभल-सँभल, हो जाएगा पागल! रोने वाले, रोएगा कितना? कुढ़ने वाले, कुढ़ेगा कितना? दबने वाले, दबेगा कितना? मत सुन, ऐसा क्रन्दन; मेरे मन, पत्थर बन! यह रास्ता अटल है यहीं रहते हैं निशाचर जगह-जगह राहों पर अँधेरे में करते नाच, हँसते बिचकाते काले दाँत; और कहते, 'कर हिम्मत, आत्मा बेच, उठा कीमत! मनुष्य मिथ्या, सोना सत्य; स्मरो उसे, स्मरो नित्य' सुन चकराएगा ऐसे वेद; पत्थर बन, न कर खेद! आज से पत्थर बन क्या रुकेगा तेरे बिन; गाल पे ढलका खारा पानी पीकर किसे मिली ज़िन्दगानी? क्या तेरे ये निःश्वास मरने वालों को देंगे श्वास? और दुःख छाती फोड़ें देंगे उन्हें सुख थोड़े? है दु:ख वही अपार, मेरे मन, कर विचार कर विचार, लगा ठहाका; मेरे मन, पत्थर बन! यह रास्ता अटल है! अटल है गन्दगी सारी, अटल है यह घिन सारी, एक समय ऐसा आएगा गन्दगी का खाद बन जाएगा! अन्याय के सारे दाने उठेंगे फिर; बनेंगे भूत। इस सोने की बनेगी सूली, चढ़ेगा सूली, सारा कुल! सुनो टाप! सुनो आवाज़! लाल धूल उड़ती आज; इसके बाद आएगा सवार, इस पत्थर पर लगाएगा धार! इतने यश, तुझे बहुत, मेरे मन, पत्थर बन! (अनुवाद : दामोदर खड़से)

धोण्ड्या नाई

कभी कभी मैं कोंकण के अपने गाँव जब जाता हूँ। पुरानी स्मृतियों की ततैया आकर मुझको डस जाती हैं और मुझे धोण्ड्या नाई की बातें मज़े की याद आती हैं। धोण्ड्या नाई - दो पँसेरी धान की खातिर करता हजामत सारे घर की; दादाजी का चिकना मुण्डन सफाचट, गजानन की गोल चोटी रखना और 'क्रॉप' मेरा असली शहरी या फिर दाढ़ी (बचाकर मस्सों को)। धोण्ड्या नाई- महीने में कभी तो चुपचाप आ जाता है पिछवाड़े; और फिर, मड़ैया के जाकर पीछे करता है कुछ अजीब-सा जो हमें न कोई देखने देता। धोण्ड्या नाई- घनचक्कर, चाय नहीं पीता था! आहार ही उसका तगड़ा होता था; खाना देने से तो रोकड़ा देना हमें किफ़ायती लगता था! जब कभी उसे मिल जाती थी फुरसत 'खण्ड्या' भैंसे और 'चाँदी' भैंस को ऐसे ही मूँड़ जाता था; इस काम के बदले उसे मिलता था नाश्ता नाश्ता ही बस माँ कहा करती-दो सेर से कम नहीं होता था! धोण्ड्या नाई - 'धोण्ड्या बोले तो खालिस पत्थर है' कहते थे दादाजी हमारे, 'एक बरस में लगातार उसके बच्चे चार मर गये हैज़े से; लेकिन यह धोण्ड्या अपना जैसा था वैसा है! बदलाव नहीं कुछ; जब तक बाकी एक बचा है अर्थी उसकी उठाने को मैं कहता हूँ तर जाएगा, मर जाये तो!' धोण्ड्या नाई - हजामत करने बैठ जाता है तब बनिया विष्णु आकर उसको पकड़ लेता है। मज़ाक थोड़ा-सा करने पर शुरू कर देता है वह मुँह चलाना : 'शरम तुझको थोड़ी-सी भी; चार दिन का वादा किया था धोण्ड्या तूने, बच्चे के लिए रुपये ले गया तेरह और अब इस बात को महीने हो गये चौदह ! मैं कहता हूँ मूल को तो जाने दो, कम से कम ब्याज की कौड़ियाँ तो दे दो! मैं कोई काला खोत नहीं हूँ! मैं हूँ बनिया विष्णु! रुपये लाकर दे और फिर ले जा किसबत अपनी।' धोण्ड्या नाई - खपच्ची जैसी अपनी बाँहों को नाक के पास जोड़कर फिर कहता, 'साहूकार जी! आप सब तो भगवान हैं जी, आपके रुपयों से ही तो बच्चा बच रहा साक्षी है ईश्वर, इन रुपयों को तो मैं चुकाऊँगा ही, बेटे को लिखी थी चिट्ठी, 'भेज दे रुपये' -आपके पाण्डु मास्टर ने ही तो लिख दी थी आप चाहें तो पूछ लें उनसे- बेटे की ओर से आपके नहीं आये रुपये तो 'भोरो' भैंसे को बेच डालूँगा अबकी जोत के बाद।' और तभी कमीज उतारकर खूटी पर टाँगते हुए और तोंद के नीचे खिसकी धोती को ऊपर खींचते, दाढ़ी पर हाथ फेरते मज़े से काका खोत कह देता, 'धोण्ड्या , अरे हरामी, इस भैंसे को तू बेचेगा कितनी दफा? मेरा ब्याज चुकाने कल ही तूने वायदा किया था इसे देने का; और गदहे! ठीक मेरे सामने वही कहता है तू विष्णु बनिये से!" धोण्ड्या नाई - तबियत से ही दयालु; लेकिन उसके हथियार देसी भयंकर! बहुत पहले से ही मुझसे ममता करता था, जनेऊ में मुण्डन मेरा करते हुए सहलाता था सिर को मेरे (खुजली भरे), और फूंक देता था धीरे से, गरदन पर तराशकारी करते हुए सहन कर पाऊँ मैं इसीलिए पुराने ज़माने की बातें मज़े-मजे की बताया करता भूतों और ब्रह्मराक्षसों से उसका परिचय था पुराना! भयकथाओं को सुनते हुए पता नहीं चलता था सिर का मूंड़ा जाना। धोण्ड्या नाई- जीव अजीबोगरीब था, गाँधी वध के बाद तुरत ही दूसरे दिन दाढ़ी बनाते बनाते हलके-से उसने मुझसे कहा गम्भीर होकर, 'कहते हैं गाँधी मर गया; बड़ी तमन्ना थी इस तरफ़ आ जाता तो फोकट में कर देता उसकी हज़ामत!' आसपास ब्राह्मण थे लेकिन उनमें बची नहीं थी हँसने-रोने की हिम्मत! (हँसना-रोना मूलतः एक ही हैं; आँसू की यही बात तो मज़े की।) धोण्ड्या नाई - मर गया पिछले बरस और मुक्त हो गया; गिर गया मकान; ओसारा लेकिन बचा रहा! जनानी बेचारी-घरवाली उसकी- उसी में खाती है उबालकर; कहती : 'मुझे ले जाकर जिन्दा ही जला दो!' बरतन माँजती रहती है। खाती है: सोती है; जाग जाती है। पता नहीं किस बात से डरती है, धोण्ड्या की किसबत को हाथ कभी नहीं लगाती है! ओसारे की एक अकेली खूँटी पर अपने पट्टे को लपेटकर किसबत करती है आराम; सान चढ़ाने की चमड़ी पर रखकर सिर हथियार भी सो गये हैं उसमें होकर जर्जर! धोण्ड्या नाई - 'धोण्ड्या बोले तो बस काला पत्थर।' और कुछ यह भी कहते, अक्ल नहीं थी उसे गिरस्ती चलाने की। धोण्ड्या चल बसा, मुक्त हो गया। जरूरत क्या मुझे फिक्र करने की मेरे सिर की शक्ल अब हो गयी है बड़े चाँद-सी! (अनुवाद : निशिकांत ठकार)

यन्त्रावतार

आओ हे यन्त्र, आओ! शस्यश्यामला सृष्टि को गले लगा समाजपुरुष ने जो मैथुन किया उस उत्कट सुरत के विज्ञानात्मक दाहक वीर्य से फ़ौलादी जिसका पिण्ड बना वह तुम अवतारी यन्त्र! युगधर्म का संवर्धन करने आओ आओ, क्रान्ति की प्रसववेदनाओं को लेकर आओ इतिहास के गर्भ का कर विच्छेद त्रिविक्रम के ग्यारहवें हे अवतार! आओ हे यन्त्र, आओ! आकाश की आवाज़ को बुलन्द करती हुई क्षुब्ध क्षुधा की शक्ति आ गयी जय-जयकार पुकारती; पेट पर हड्डियों को पीट कर ललकारती है ऊँचे स्वर में; 'इस यन्त्र को स्वीकार करो; इस यन्त्र का सत्कार करो; इस यन्त्र का वेदोक्त करो पूजन; साम्यवेद का पंचम वेद कहो रे! अग्निकलिका यह, लाल ध्वजा यह, इसे यन्त्र के सिर पर चढ़ाओ अग्निकलिका यह- शोषितों के पेट की अग्नि की ज्वाला; पद-दलितों की आँखों के क्रोध की यह लाली; नीति का प्रगति को लगाये कुंकुम तिलक। इस यन्त्र को स्वीकार करो; इस यन्त्र का सत्कार करो; अग्निकालिका को चढ़ाओ इस यन्त्र पर आओ, आओ हे पामर; अब बन जाओ परमेश्वर। स्वर्गंगा का पट्ट ब्रह्म के चक्र पर चढ़ाकर इस यन्त्र को स्वीकार करता है विश्वविधाता ईश्वर! आओ, हे यन्त्र आओ! आओ, सृष्टि को रचते हुए आओ; आओ, दुखियों को सुख देते आओ; आओ, ब्रह्मा विष्णु शिव होकर आओ; आओ, नवीन रचना के वेदों का उच्चार करते आओ; आओ, घुमाते अपना चक्र सुदर्शन आओ; आओ आओ, नाचते हुए युगप्रवर्तक ताण्डव; आओ आओ, भाप के फूत्फारों को फेंकते हुए; आओ आओ, आँखों से बिजलियों को चमकाते हुए; आओ आओ, अणु-अणु की बेड़ियों को तोड़ते हुए; शक्ति के हे सम्राट! चिर शान्ति के हे भाट! आओ आओ, ढूंढ़ते हुए छिपे मन्त्रों को; मानवता को दो ज्ञान द्वारा मुक्ति का नज़राना! आओ यन्त्र! आओ यन्त्र! 'खड़ खड़ खड़ खड़ खड़' कुचलते हुए आओ, दनदनाते हुए आओ, सड़ी-गली हड्डियों को; अस्थि-आटे से पोषित नये बीज, अंकुर नये! 'धिक धिक धिक धिक धिक धिक' सड़ गया, झड़ गया जो उसे घोर नाद से धिक्कारते हुए! 'धड़ धड़ धड़ धड़ धड़ धड़' मन्त्रबल से उद्घोषित करते हुए सृजनात्मक रचना को! आओ यन्त्र! आओ यन्त्र! मन्त्रों की विजय करते हुए स्वप्नों को स्वीकार करते हुए! उच्चार करते हुए! आकर देते हुए! आओ यन्त्र! आओ यन्त्र! जलाते हुए आओ, धुलाते हुए आओ, भक्षण करते हुए आओ, रक्षण करते हुए आओ, तोड़ते हुए आओ, जोड़ते हुए आओ, काटते हुए आओ, बोते हुए आओ, पटेला चलाते आओ, अँडराते आओ, लाल पालों को खोलते हुए लाल लाल सागर पर लाल लाल क्षितिज से आओ यन्त्र! आओ यन्त्र! मन्त्रों को अर्थवान करते हुए स्वप्नों को स्वीकार करते हुए उच्चार करते हुए, आकार देते हुए, आओ यन्त्र! आओ यन्त्र! नवदानवों का करते हुए संहार नव मानवों का करते हुए निर्माण उद्घोष करते हुए नवमूल्यों का उद्घोष करते हुए क्रान्तिपाठ का- पृथिवीक्रान्तिरंतिरिक्षंक्रान्तिद्यौः क्रान्तिर्दिशः क्रान्तिरवांतरदिशाः क्रान्तिरग्निः क्रान्तिर्वायुः क्रान्तिरादित्यः क्रान्तिश्चन्द्रमाः क्रान्तिर्नक्षत्राणि क्रान्तिरापः क्रान्तिरोषधयः क्रान्तिर्वनस्पतयः क्रान्तिर्गौः क्रान्तिरजा क्रान्तिरश्वः क्रान्तिः पुरुषः क्रान्तिर्ब्रह्म क्रान्तिर्ब्राह्मणः क्रान्तिः क्रान्तिरेव क्रान्तिर्मे अस्तु क्रान्तिः ॐ क्रान्तिः क्रान्तिः क्रान्तिः। (अनुवाद : निशीकांत ठकार)

हे आइन्स्टीन!

हे आइन्स्टीन! तुम हो चैतन्य सृष्टि के, हमारे जगत में एकमेव उपासक! तुम्हारी दृष्टि टिकी हुई है अन्तिम सत्य पर, है तुम्हारी ही अदृष्ट को स्पष्ट करनेवाली प्रगाढ़ प्रज्ञा - जिसने कराया मानव मन को 'सोऽहम्' से साक्षात्कार! हे आइन्स्टीन! दो युद्धों की पगली आँधियाँ आ धमकीं तुम्हारी खिड़की पर, हिली नहीं तुम्हारी ज्योति! और इसीलिए उसके धुएँ का काला काजल आँखों में सजाकर दिशाएँ हुईं धन्य-धन्य! हे आइन्स्टीन! तुम्हारी कलम से समाज - पक्षिणी देती है अण्डे विज्ञान-विश्व के! - जिन्हें सेने के लिए चाहिए उसमें सृजनशील संयम; - जिन्हें सेने के लिए उसके पंखों में चाहिए गरमाहट मानव प्रेम की! हे आइन्स्टीन! तुम्हीं सुनाना संशयग्रस्त जगत को अन्तिम सत्य, जिसके आलोक में काल - पुरुष आकाश-गंगा का पहनकर पट्टा मुसाहिब की भाँति आएगा पुकारते हुए अटल भविष्य! हे आइन्स्टीन! 'कौन', 'क्या' 'कैसे', 'कहाँ', 'कब', 'कितना', 'क्यों- ये सारे सात पिशाच मेरी गर्दन पर! सूर्य माला का जाप करते हुए अश्वत्थ की परिक्रमा करने वाले हे रहस्यमय महन्त! बोलो, कब गाड़ दोगे इन्हें विज्ञान गणित के एक ही महावाक्य में? (अनुवाद : रेखा देशपांडे)

मैं पृथ्वी का बना प्रियंकर

दफ़नाकर भगवी कफ़नी को मैं पृथ्वी का बना प्रियंकर; मिट्टी से कर मस्ती मैंने अधर-क्षत आँका अवनी पर! छायी मेरे नव स्पर्श से पृथ्वी के गालों पर लाली; उछल पड़ी उसके उर में से सरसर धानों की हरियाली। साँसें उसकी गर्म पी गया उपजे गाने उसी नशे में- स्वर्ग यहीं या यहीं नरक है; इसी जगह पर इस मिट्टी में!' धर्म छिपा कर संग पाप के; मज़हब रोये गला फाड़कर। दफ़नाकर भगवी कफ़नी को मैं पृथ्वी का बना प्रियंकर! (अनुवाद : निशिकांत ठकार)

वह जनता अमर है !

मृग की आँधियों में मैंने सुनी मिट्टी में पड़े महापुरुषों की आर्त उसाँसें; और बिजली की कड़कती रोशनी में देखी मानवों की फौलादी रीढ़ गलते जाते हुए ज़िन्दगी के तेज़ाब में; देखा मानवता को दो पाटों की बेहद पुरानी चक्की में पिसते हुए अपने ही बच्चों को अपने ही हाथों और गाते हुए चिलया की चौपाइयाँ; होती नहीं है रे सुबह ! ठूंठ पीपल को अब भी सताता है बहुत पुराना ब्रह्मराक्षस; मिट्टी के भीतर की जड़ें मिट्टी के ऊपर आ जाती हैं; सिर पर बढ़ जाता है चमगादड़ों का बोझ; लाश पर बैठ जाते हैं जनेऊ पहने मानव गिद्ध ! पांडे समाज को लग जाती है छूत विधवा के बालों की... यशोदा देशपांडे को मिलता है एकान्त सिर्फ़ नाई के साथ और फूल उठता है गोकुल का कान्हा * भेण्डिया दह में ! 'राधा मधुरा, गोपी मधुरा, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्' दम घुटता है औरतों का पर्दे में और चीख पड़ता है खतना बच्चों का । दलितों के गले के थूक के मटके में ही काशी के कुण्ड कर लेते हैं खुदकुशी; रँगाते हैं चेहरे युगों के पापों से । नीग्रो जलते हैं संस्कृति की वेदी पर; पोता जाता है आकाश धुएँ के तारकोल से; हर मौत में मर जाता है ईसा माँगता है पानी सहारा के बच्चों से ! होती नहीं है रे सुबह ! सरोज नवानगर वाली के भीतर की मर जाती है मन्दोदरी और बाकी रह जाता है पूँजिया भोगयन्त्र... वाचाल वकील का बुद्धि से व्यभिचार घोंटता है कानून से इन्साफ का गला । छूट जाता है नथमल पत्नी के खून के इलज़ाम से, लछमन रसोइया चढ़ जाता है फाँसी पर बता है पागलपन में ही 'यह क्या ?' 'यह क्या ?'... मोटर की आवाज़ से जागृत हो जाते हैं डॉक्टर के कान; कामवाली नर्मदा की करुण चीख़ टकरा जाती है दरवाज़े से; और लाश मिल जाती है दहलीज़ पर । सोने की चाभी से खुल जाते हैं सब दरवाज़े ! ऊँट भी चला जाता है सुई की आँख से रात्रि के साम्राज्य में; होती नहीं है रे सुबह ! कर्ज़ में ही सड़ जाते हैं मिट्टी में बसे महापुरुष प्रतिभा की गृहस्थी में चूल्हे के सिर पर नाचते हैं मटके । गूँगे ही मर जाते हैं। कईएक भूगन्धर्व या फिर बन जाते हैं। कुत्ते सर्कस के । आँकड़े भी नहीं जानते कईएक आइन्स्टिनों को । कमज़ोर झोपड़ियों की पसलियों की ठठरियों में सड़ जाती है बहादुरी.... दो बाघों को हँसिये से काट देने वाला धुलिया गड़रिया चाटता रहता है पटेल के पाँव पच्चीस रुपल्ली की खातिर; चुकाता है कर्ज साल भर की चाकरी से.... सड़ जाते हैं रे, सड़ जाते हैं गदराये हुए बीज और फलते-फूलते हैं कुकुरमुत्ते कीचकाई संस्कृति की नाली में। फेनिल शैली पर उठते हैं बुलबुले पश्मीनी शब्दों के और घूमते हैं शान से साबुन के बेपारी सरस्वती के दरबार में। गूँगे ही मर जाते हैं मिट्टी में बसे महाकवि । होती नहीं है रे सुबह ! काले तालों में सड़ता है अनाज़ और तड़पते हैं अनचाहे शिशु काल के क्यू में । जनते ही आँवल खा जाने वाले जानवर की तरह मिलें ही खा जाती हैं गाढ़ा कपड़ा ! और बाँट देती हैं नंगधड़गों में कोयले का धुआँ, कर्ण की शान से । वीरान रजवाड़े करते हैं जुगाली सामन्ती सत्ता की । बन्द कर देते हैं कपाट और तलुवे हो जाते हैं गर्म आदमियों की ऊष्मा से... तिरसठ बरसातें मिट्टी से जूझनेवाले विश्राम शेलार को नसीब नहीं हुई रे मँडुए की काँजी पैरों के अकड़ जाने पर, मर गया भूख से ही.... कपड़ों के ढेर में नग्नता से करवाते हैं श्रम और जलवाते हैं गेहूँ के खेतों को बुभुक्षित हाथों से, पाताल के बेताल ! नहीं होती है सुबह होती नहीं है रे सुबह ! पैदा होती है सन्तान अनचाही अशिक्षित, दुःखात्म दुर्घटना; और फलता फूलता मानव का वंश मानवी अनिच्छा से फैल जाता है नाकारापन खून के कनों में और इच्छा को मार जाता है लकवा । नहीं होती है सुबह... होती नहीं है रे सुबह ! विध्वंसक विज्ञान पर पिच्च से थूककर हँसता है कोढ़ हर एक देहात में; घुसाता है आँखों में सड़ी हुई उँगलियाँ सीने सीने में मुलायम गद्दों पर लोटता है राजयक्ष्मा... याद है मुझे मौसी की आँखों की करुण कहानी जब शव उठाते हुए दादा का खाँस उठा नारायण; और माँगी लकड़ी की कीमत लक्ष्मी के न्यासियों ने... युद्ध के नशे में प्रभावशाली विज्ञान भी हो जाते हैं नपुंसक । मानव की बुद्धि को स्वीकार करनी पड़ती है पेट की गुलामी और प्रतिभा बन जाती है रखैल । नहीं होती है सुबह ! नहीं रे बोल पाता अपने बलबूते; पाषाणी होठों में ही चाहिए चमचमाती फ़ौलादी जीभ और थूक में मिला हुआ हो हलाहल ! होती नहीं है रे सुबह ! भले ही भोर के मुर्गे ने बाँग दी हो फ्रान्स के दड़बे में, और फिर फूट पड़ी हो लाली रूस के क्षितिज पर, चाहे चीन पर उछला हो गुलाल उगती आशाओं का और सूर्यपक्षी गाने लगे हों सात सप्तकों में । नहीं रे मिटता हमारी ही रात्रि का कालकूट अँधेरा जी चाहता कि बनूँ ब्रह्मराक्षस और घूमूँ और लगा दूँ रात को आग; कुछ अनोखा करने को जी चाहता है ! निराशा की हवा में। हमारी रात के पेट में सड़ता है प्रकाश गर्भ; थम जाती है प्रसव पीड़ा; फैल जाती है वीरान, भीषण, संज्ञाहीन शान्ति सिकुड़ जाती है नसों की चेतना और सड़ जाते हैं अंग जीवन के होती नहीं है रे सुबह, होती नहीं है रे सुबह ! न ना नि नी नु नू ने नै नो नौ नं नः ! फिर भी अन्त में लगता है कि जिएँ, लगता है कि जिलाएँ । अभी भी अभी भी करती है आशा दुख की दरिया से तीन आचमन व्याप्त होता है जीवन, चेतना दशांगुल रह जाती है। नकारते नकारते हुए भी जीवन जाता है आनन्द को आकार देते हुए । लुढक गये दूध की बची हुई खुरचन भी लगती है जायकेदार सूखे बरगद के ठूंठ की छाया भी उढ़ाती है चादर अपनी ममता की। अब भी, अब भी बाकी है बोध जीवनधारा के सम्भाव्य विकास का । अभी भी मानव नहीं पकाता अपने ही बच्चों को अपने ही हाथों से मीडिया की तरह; अपने ही मुँह से नहीं खाता अपनी ही मज्जा को ! मांसहीन रीढ़ अब भी उठाती है आदमी का मस्तिष्क; अब भी धड़कता है। सीने में कुछ-कुछ सगुण, सचेतन । अब भी है आशा। अब भी कोई नीली डफली पर बिजली की थाप लगा कर कहता है : 'तू जिएगा, तुम जिओगे।' काली मिट्टी की चादर को खिसकाते ताजे बीजांकुर उठाते हैं आवाज़ : 'तू जिएगा, तुम जिओगे ।' काली छाती के ज़रखेज़ कछार चढ़ा लेते हैं लँगोट लाल-लाल नदियों के ख़म ठोंकते हैं मेघों के हाथों और देते हैं चुनौती मौत को । हरी दूब के नुकीले पात तन जाते हैं; थर्राते हैं, थर्राता है समूचा चरचर जीने की चेतना से; और न होनापन लटकता रहता है ठूंठ मनों की सड़ी हुई शाखाओं पर । थर्राता है, थर्राता है, समूचा चराचर जीने की चेतना से... क्योंकि आती है। पुरवाई से गन्ना पेरने की उन्मत्त गन्ध; घुसती है माथे में; खोजने लगती है कुण्डलिनी की जड़ें और हो जाती हैं इन्द्रियाँ जीवित । आत्मा का चींटा निगलना चाहता है। विश्व की भेली ! नाचता है सूर्यमयूर बादलों के जंगल में; फैलाता है सुनहरे प्रकाश-पंखों को; घेर लेता है आकाश; और नाचती है तृप्ति की नग्नता में तपी हुई आँखों की जवान पुतलियाँ लगता है जिएँ; लगता है जिलाएँ । विशाल वक्षों के अनादि बरगदों से बहती हैं नीचे शान्ति की धाराएँ और बहता है लहू तपा हुआ हरीभरी जटाओं से मृण्मय मुक्ति की ओर । लगता है जिएँ, लगता है जिलाएँ । अब भी इन्द्रियाँ होती हैं ईमानदार जीवन की प्रेरणाओं के साथ; और करती हैं आज का होना समृद्ध... मुझे दिखाई देते हैं भविष्य की ओर झुके स्वीकारसील जीवन के लाल लाल बाल क्रान्ति के तूफ़ान से बार बार बिखेरे हुए। स्वस्थ जीवन का विकासशील गर्भ सोख लेता है शास्त्रों की अनुभूतियाँ, धन्यता महसूस करती है पृथ्वी की गोद; स्वीकार करती है दुख को सृजनशील प्रसूतिपीड़ा के; और जनती है मिट्टी से महापुरुष । ऐसे ही समय, मुझे दिखाई देता है विश्व का सपना साकार होते हुए मानवों के आकारों में मिट्टी के लहू से, मिट्टी के मांस से । धरती की ऊष्मा में ही पड़ता है जीवन; और फोड़ता है प्रकाशचोंच से विश्व के अण्डे का नीला कवच ऐसे ही समय, दौड़ पड़ती हैं आशाएँ आँधियों के अश्व पर आरूढ़ हो लाँघ जाती हैं देहलियाँ दिशाओं की; और विस्फुरित करती हैं मिट्टी का महाभारत, जनता के पेट में बिजली के वीरगीत; जनता के पेट में आग है, आग है; जनता की आँख में शंकर का अंगार है । जनता की एकता में लावा का दाह है; जनता के पैरों तले रोशनी की राह है। जनता के हृदय में अन्याय की खीज है; जनता की बाहुओं में सागर का तेज़ है। जनता की इच्छा में नियति का ज़ोर है; जनता के हाथों में भविष्य का छोर है । जनता की नसों में लाल लाल रक्त है; जनता की सत्ता तले धरती का तख़्त है। जनता की मुक्ति हेतु अभी एक समर है। और जिसकी आत्मा एक वह जनता अमर है ! *कोंकण में एक स्थान, वहाँ का दह अर्थात् नद । (अनुवाद : निशिकांत ठकार)

विज्ञानब्रह्म के हृदयस्थ हे ॐकार !

विश्व व्याप्त विश्व-कक्ष ज्ञान की अभिलाषा का उपहार लिये मैं आया तुम्हारे दर्शनार्थ... पी चुका आकण्ठ तप का ताप और मेरी जलती आँखों की भोली पुतलियाँ पुकार उठीं आकुल होकर, 'विज्ञानब्रह्म के हृदयस्थ हे ॐकार ! खोलो द्वार ! खोलो द्वार !' विज्ञानब्रह्म के हृदयस्थ हे ॐकार ! पृथ्वी की इस बैलगाड़ी में किसने जोता जलता बैल ? कहाँ जाए, कहाँ जाए, हर पल बीस मील ? आकाशगंगा में बहती सूर्य की यह दीपमाला हर पल बारह मील कहो किसने इसको छोड़ा ? चक्री नेब्यूला के तट से आकाशगंगा बहती जाए; ढाई सौ से ज्यादा की गति; जलप्रपात होगा क्या इसमें ? विज्ञानब्रह्म के हृदयस्थ हे ॐकार ! अणुओं में आखिर है क्या ? बोलो तो, बोलो तो परमाणुओं का दंगमदंगा कब से चल रहा घर तुम्हारे ? क्षेत्र काल की खुली कुश्ती का कब होगा निर्णय ? तुम ही जानो ! गति और द्रव्यमान का कब हुआ ब्याह बतलाओ ? प्रकाश का कौन पिता बिजली की क्या माँ भी होगी ? शक्ति की ये सन्तानें सात निद्राधीन भला कब होंगी ? विज्ञानब्रह्म के हृदयस्थ हे ॐकार ! कार्य-कारण का। सूक्ष्म को न कष्ट; स्थूल को झंझट । किसलिए ? सूक्ष्म और स्थूल । मुझमें निहित; मुझे पराजित । करे कौन ? सारे जादू टोने में । यही टोना सत्य; नाटक में नित्य । नया रंग । अरे स्वयंसिद्ध । गणित के मन्त्र; विज्ञान के तन्त्र | क्या हैं व्यर्थ ? ऋण एक का वर्गमूल। बताओ तो ठीक ठीक या फिर है असार । ज्ञान सारा ? विज्ञानब्रह्म के हृदयस्थ हे ॐकार ! खोलो द्वार ! खोलो द्वार ! स्थितप्रज्ञ की निर्गुण भाषा में बोल उठे तुम : 'मैं हूँ रहस्य का रखवाला; एकनिष्ठ पहरेदार विश्व के प्रासाद का; मेरे माथे पर अंकित अद्भुत यक्षप्रश्न का वर्गमूल जो जान पाते हैं खोलकर मेरा महाद्वार वे ही निकल जाते हैं ! ' विज्ञानब्रह्म के हृदयस्थ हे ॐकार ! मूल का कवच ओढ़कर नकार के शिखंडी के पीछे तुमने छिपाए रखा है स्वयं को; और मेरी बुद्धि का भीष्म शरशय्या पर पड़ा द्वादशाक्षरी जाप कर रहा उत्तरायण में किए जानेवाले महाप्रयाण से पहले का... (अनुवाद : स्मिता दात्ये)

प्रेम करें हम ऐसे, लेकिन...

खेत खुला हो, हरा-भरा हो धौली - धौली गाएँ उस पर प्रेम किया जाए ऐसे में भूल भीति और बेसब्री को प्रेम करें हम रक्त-धर्म से प्रेम करें हम शुद्ध पशु-सम शत- जन्मों की ले कर हिम्मत तेज़ रुधिर की पकड़ें हम सम प्रेम करें हम मूक अनामिक प्रेम करें हो कर हम तृन प्रेम करें हम ऐसे, लेकिन प्रेम कर रहे हैं समझे बिन । (अनुवाद : चंद्रकांत बांदिवडेकर)

कूजन करता शुभ्र कबूतर

मन में मेरे ऊँची मीनारें; ऊँचा उन पर कबूतरखाना शुभ्र कबूतर करता कूजन सपनों का खा करके दाना । युगों युगों तक शुभ्र कबूतर - कब जनमा है ? और किसलिए ? कितने दिन तक होगा कूजन ? अर्थहीन रव व्यर्थ न क्या यह ? प्रश्न पूछता ऐसा कोई; कोई देता अगम्य उत्तर; चक्कर खाकर फिर वैसा ही कूजन करता शुभ्र कबूतर । (अनुवाद : प्रभाकर माचवे )

चहचह करती पगडंडी हो

चहचह करती पगडंडी हो दम निकले ऐसी हो घाटी; घाटी पार पर मेंड़ बनी हो और बैठने को चबूतरा; तन में हरकत करनेवाली चल पड़ने की शक्ति हरी हो; मन के भीतर मौन सुगन्धित, जीने की उर आस बसी हो । बाट लाल हो आनेवाली; मोह बसा हो राह तिराहे; हाथ नहीं हो हुक्म बजाता ! लदा पीठ पर पूरा घर हो; झोली में हो चिउड़ा थोड़ा; औ' बटुआ1 हो बहुत जरूरी ! थालिपीठ2 के टुकड़े कुछ औ' खालिस मक्खन साथ रखा हो। लम्पट जाड़ा ज़रा ज़रूरी; तिरछी पीली धूप चमकती; क्षितिज लिये हो ऊष्मा प्यारी ! ताज़ी भीगी दूब बिछी हो । बैल अंडुआ रहे हँड़कता चारा खाने चरागाह पर सहयाद्रि के नीले गोपुर दूर रहें वे दूर दूर तक भारी भरकम कर्र कर्र बजता पैरों में फिर चमरौधा हो; गोल धरा है इसी बात के सुख को पीनेवाला दुख हो ! 1. पान-सुपारी का बटुआ, 2. चरपरा पराठे जैसा महाराष्ट्रीय व्यंजन (अनुवाद : निशिकांत ठकार)

स्वप्न में रची कविता मैंने

स्वप्न में रची कविता मैंने यमक किन्तु ना मिला मुझे ! बैठा अर्थ हौदे पर चढ़ शब्द बिचारे गिरे धड़ाधड़ । प्रतिमाएँ हुईं सवार ऊँट पर वहशत थी नज़रों में, सपनों की चढ़ते हुए अटारी भयभीत शब्द यूँ बिदक गये ! काँप उठी मौन भावना सँभल सकी ना वह उनसे; स्वप्न में रची कविता मैंने यमक किन्तु ना मिला मुझे ! (अनुवाद : रेखा देशपांडे)

देखा है ऐसा कुछ

देखा है ऐसा कुछ कि मैं टूट गया। और हुआ एहसास : हर मन में कसकने वाली विराट विकलता को व्यक्त कर सकें मेरे पास ऐसे शब्द नहीं हैं। हर आँख में छलछलाते पारे की थरथराती वेदना को समझ सकें मेरे पास ऐसी दृष्टि नहीं है। कुढ़ते कुढ़ते, कोने में सिसकते जन्म से पहले ही निर्वासित हुए झुलसे हुए, गुमनाम अनाथ जगन्नाथ के लिए मेरे पास कोख नहीं है। सलीब नहीं है, मेरे लिए भी सलीब नहीं है । देखा है ऐसा कुछ भरे बाज़ार की अन्धी भीड़ में रात का दृश्य भरी दुपहरी में : टीन की बस्तियों में, कीड़े-मकोड़ों के मुहल्लों में हड्डियों के जालों में; आँखों के बिलों में सड़ते हुए लोग - जो मर नहीं पाते सुलगते हुए लोग - जो धधक नहीं उठते कुढ़ते हुए लोग - जो क्रोध से बरस नहीं पड़ते देखा है ऐसा कुछ कि मैं टूट गया ! देखकर जिसे अचानक दृष्टिहीन हो गया मैं और चाहा कि निकल पड़ूँ जारपुत्रों के पीछे विजन पथ पर अन्धे ईडिपस की तरह । मुझे लगा कि मेरे भी हृदय में है समाज विषवृक्ष की प्रदीर्घ छाया मात्र ! लम्बी लम्बी टहनियों का बोझिल विस्तार ! कभी भी न पकनेवाले प्रतिहत फल, जला हुआ बौर। देखा है ऐसा कुछ कि मैं टूट गया ! (अनुवाद : स्मिता दात्ये)

गगन हो लिया साथ तुम्हारे

मातृत्व से हुई परिपूरण; बह निकला गालों पर अंजन । मंदिर क्षणों का बौर गया झर; प्रकटी कणिका; प्रमुदित मन । उस उत्कट-सी उछाल में ही क्षितिज पार गये चरण तुम्हारे; ( रही न तुम्हें जरूरत मेरी ) गगन हो लिया साथ तुम्हारे ! शाप दिया उस दिन मैंने तुमको समझीं तुम सराहना उसको ! हो परिपूरण; जान गया मैं संरक्षण पुरखों का तुमको। (अनुवाद : स्मिता दात्ये)

दाँतों से दाँतों तक

तेरी-मेरी दौड़ है दाँतों से दाँतों तक। पिरामिड के पत्थर तले मेरी छाती पिचकी थी; रँगी हुई फीकी ममी तभी मुझ पर हँसी थी । तुमने कहा : फरान का बहन से कल ब्याह होगा क्या ? उसने कहा : पत्तल का जूठा खाना परसों तक टिकेगा क्या ? उसने कहा : तेरे मेरे सिर पर है स्फिंक्स का ही पथरीला पाँव । तेरे पीछे मूक कबन्ध मेरे पीछे मूक कबन्ध तेरी-मेरी दौड़ है दाँतों से दाँतों तक ! चीन की उस दीवार के हर परकोटे पर प्रेत है; पत्थर के भी शरीर पर शोषण की खरोंच है ! तुमने कहा : कन्फ्यूशियस के चोगे का कशीदा कभी उघड़ेगा क्या ? मैंने कहा : पीठ पर के इस कूबड़ को बुद्ध भी ठगेगा क्या? उसने कहा : 'संस्कृति के होठों पर की किसके लिए है मलाई ?' जो पहले हो चुका, फिर वही होगा । इतिहास तो पूरा कट चुका; तेरी मेरी दौड़ है दाँतों से दाँतों तक। जमुना के काले जल में कालिया का फन है, गोरा गोरा ताजमहल तीर पर खड़ा है। तुमने कहा : प्रीत की इस समाधि पर पथरीला गुलाब खिलता है मैंने कहा : जमुना की ओर ताजमहल थोड़ा-थोड़ा झुक रहा है। उसने कहा : अँधेरा का काला हाथी पृथ्वी के आगे झूलता है ! नीव के नीचे क्या छिपा है ? नरबलि का शव सड़ता है।' तेरी मेरी दौड़ है। दाँतों से दाँतों तक ! तेरी मेरी यात्रा है दाँतों से दाँतों तक। काले दाँत, सफेद दाँत किनाहें दाँत, सड़े दाँत, कुछ सयाने, कुछ पगले, कुछ कड़े, कुछ कच्चे कुछ दाँत पीले-पीले, कुछ मौनी, कुछ बड़बोले, कुछ हैं सोने-चाँदी वाले, तेरी मेरी कूद है दाँतों से दाँतों तक। पर, अब कौन रोए ? मैंने एक जाना है; सुवर्ण के रथ में बैठ सत्य यहाँ से भागा है; हर व्यक्ति की छाती पर पहिए की लीक है। जहाँ-जहाँ मूक कबन्ध; इतिहास में है पड़ी दरार; उसमें कौन-सी नयी बहार ? तेरी मेरी दौड़ है दाँतों से दाँतों तक ! (अनुवाद : चंद्रकांत बांदिवडेकर)

त्रिवेणी-1

... उगते विभास की ताँबई भोर में भूरे रंग के लावारिश बालों को मुँह के सामने बिखराकर तुमने कहा : 'आया रे आया, जू जू आया!' तुम्हारी छोटी-सी रेंटभरी नाक बालों के भीतर से दिखाई दी झलमला गयीं आँखें (रीठे के बीज) मैं डर गया भोर के अँधेरे में अचक गया ! ( अब भी, बिस्तर में ही) आँखों पर गुदड़ी डालकर डर के मारे चिल्लाया 'अरी दादी, देख तो यह इन्दुड़ी कैसा करती है, कैसा डराती है बालों को बिखराकर ।' रात की चिन्दियों को पीठ पर सँवारती हुई तुम हो गयीं पलभर में गायब; और तुमने शुरू किया अल्हड़ अनबोलापन, नाक को ऊँचा उठानेवाला, गालों को फुलानेवाला, उँगलियों की कट्टीवाला बट्टी की कट्टी करनेवाला ! फूलों फूलों की बट्टी का हरियाला मौसम सर्दी का उछलता कूदता चला गया पके हुए पत्तों में से । यह नीला सपना तुमने उकेरा, हे अल्हड़िके ! (अनुवाद : निशिकांत ठकार)

त्रिवेणी-2

'...साफ़ उजाला हो गया है' कहा दादी ने छुहारे जैसी सिकुड़ी हुई । और हम एक ही बिस्तर से उठकर उछल पड़े आँगन के अहाते में । सूरज की धूप का ज़रदोज़ी घाघरा पहन लिया था तुमने बदन का पीला नंगापन धूप में पिघल गया। तभी हमारी- नंगी देहों में पहली बार घुस गयी शर्म अशरीरी सरसरा गयी। मैंने महसूस किया तुम्हारे बदन का शर्मभरा कौतुक! तुम रूमझूम उठीं : 'बार बार क्या देखता है रे ? बता पहले, बता पहले, बता.... और भी शरमा गया तुम्हारे शब्दों की ठसक की ठेंस खाकर । बोला नहीं कुछ । सिर्फ़ नीचे खींच लिया अपनी कमीज का किनारा। (अनुवाद : निशिकांत ठकार)

त्रिवेणी-3

तुम्हारे पिछवाड़े के क़लमी आम के सूखे पत्तों को हमने सुलगाया और जलाया अलाव धधकता हुआ । मैंने पूछा : 'क्या तुम आओगी मौसी के साथ ?' तुमने कहा, 'कब्भी नहीं।' 'क्यों ?' तुम रुक गयीं। और कुछ सूखे पत्ते डालते हुए अलाव में मैंने पूछा, 'क्यों? क्यों नहीं ?' तुमने कहा, 'तुमने वैसा बर्ताव क्यों किया ?' मैं चकरा गया। टूटे मन से डाल दिये जल्दी जल्दी और कुछ सूखे पत्ते बुझते हुए अंगारों की राख पर आग को कुरेदा मवेशियों को हाँकने की निर्गुडी की छड़ी से । (अनुवाद : निशिकांत ठकार)

त्रिवेणी-4

उजली धोती की कली बनकर तुम खिलखिला पड़ीं, देवी की नदिया पर कपड़े धोने आयी थीं। पानी की गहराई के भँवर के चंचल चक्रव्यूह में उलझ गये थे गूलर के फल और चट्टानों पर उगी नागफनी पर खिल उठी थी बुरंबुली की फलियाँ, हरी हरी सीताचौरी के नुकीले गुच्छे । देखा तुमको- पहाड़ी बार नयी बहार में देखा सरसराती पीली लम्बी साँपों की टोली-सी पीली धूप के बल्कल पहने गर्म गोरे बदन की धार... उस दिन तुम लौट गयीं अलग दिशा से हमेशा की राह पर । बायें पैर के उद्धत अँगूठे से जब कुचल दिया खिली हुई गुलमेहँदी को । (अनुवाद : निशिकांत ठकार)

त्रिवेणी-5

.... चकवँड़ के पत्तों की ठस भाजी दादी की प्यारी, तुमने बनायी और मेरे लिए ककड़ी का चीला और शाम को केले के पेड़ के नीचे केले के फूल देखते हुए तुमने पूछा- उसे भूल गये ! फिसल गया हल्के हल्के; फैल गया पापों में और वंचना की आँखवाले मोरपंख बाँधकर मन को नचा लिया दुनिया के सामने । तब तुमने कहा- उसे भी भूल गये ! किसी तरह कुछ समझाना होगा न माननेवाले मन को । (अनुवाद : निशिकांत ठकार)

त्रिवेणी-6

नकारा था जिनको उन सपनों ने बदला लेकर तुम्हें सुला दिया पुण्य के संग। और पति के साथ व्यभिचार करते हुए देखा तुम्हें ! सुप्त सन्तोष, तुम्हारी रीढ़ को भुस होते हुए देखा ! पंखों को तोड़ देने के बाद बचे हुए परों ने जो छटपटाहट की मैंने उसे देखा । डूबते हुए भी प्यासी को टूटकर भी अतृप्त ! अकेली, एकाकी, अकेले, एकान्त में, देखकर सन्तोष हुआ । तुम्हारे माथे पर सेहरे के दाग़ तुम्हें मुँह चिढ़ानेवाले प्रीति के प्रतिशोध के कडुए ज़हर-सा चढ़ने वाला उन्माद हो गया धन्य, जब मिल गया तुम्हारे पापों को पुण्य का प्रायश्चित, पति के साथ व्यभिचार करते हुए तुम्हें देखा मैंने । (अनुवाद : निशिकांत ठकार)

त्रिवेणी-7

एक पल की विराट शक्ति से पूर्वरचित जिंदगी को फूँक से उड़ाती हुई एक दिन धीमे धीमे कदम बढ़ाती देहरी लाँघकर भीतर आ गयीं और तुमने कहा : 'मैं आ गयी।' सीधे देखती हुई आँखों आँखों में सिर्फ़ इतना ही कहा; 'मैं आ गयी!' युगों युगों से राह देखने वाला मैं सहम गया। मैं सहम गया ! और नज़र को माटी से मिलाता हुआ कुछ बोल गया : 'सचमुच आ गयीं !' लेकिन समझ गया था सबकुछ सच्चाई की ताक़त को । इसीलिए डर गया अन्तर की खोखल में। और तुम पल के भीतर समझ गयीं बीते माधुर्य को । जिसके माथे पर खड़ी रहकर स्वर्ग को भी बौना समझ लिया था । भर आई आँखों में मरनेवाली आकांक्षाओं की लाशों को सँवारते हुए तुमने कहा था : 'मैं जाती हूँ।' और बनावटी 'रुक जाओ न !' कहने से पहले ही उतर गयीं तुम दूर दरिया पार दूर लहरों के विस्तार में; फिर भी अभी तक गूँज रहे हैं शब्द 'मैं आ गयी' रात के खर्राटों में। और उग आता है दिन का अन्धकार । (अनुवाद : निशिकांत ठकार )

त्रिवेणी-8

फीके फीके सान्ध्य प्रकाश में जब दरक गयीं परकोटे की दीवारें और जल उठे इन्द्रियों में नीरांजन बेकाबू हो गया आवेग मतवाले बालों में— भीगे हुए। खाट पर झुककर सीना उठाये बेहोश मौन से तुमने आवेश में ला दिया मेरे सर्वांगों को बिजली की तेज रोशनी में, कहा निःशब्द से, शब्दातीत, असहनीय । सुलगाते हुए । सुलगती हुई । बिजली की तेज रोशनी में... डगमगा गये प्रासाद ढुलक पड़े सरोवर में; कण से क्षण का मिलन हुआ। और छूट गये क्वांटुम की पकड़ से उस पार की रोशनी में सराबोर । गल गये अन्तर की सुगन्ध में और वातावरण गाढ़ा हो गया। तब समझ में आया जागनेवाले जड़ का अर्थपूर्ण गूंगापन। गूँगेपन में ही बैठ गये गूँगी गूँगी चीज़ों के साथ। और अनुभव किया शीशम का स्पर्श ठोस, कड़ा; सागौन का सीधापन, समझदारी। जीने की यथार्थता, न जीने का पूरापन । फीके - फीके सान्ध्य प्रकाश में मौन मन से हम समा गये एक दूसरे में तब तुम तुम नहीं थीं और मैं मैं नहीं था । लेकिन थी एक प्रतीति साकार होती हुई वासना के आकार में। झड़ गये सब संस्कारों के पाप और अंकित हो गया अनादि रक्तरंग। ऐसे समय तुम तुम नहीं थीं और नहीं था मैं मैं भी । पंचमहाभूतों से आविष्ट थे दोनों फीके फीके सान्ध्य प्रकाश में... ...जब उठ पड़े घने अँधेरे में बुझे हुए शरीर से तब लगा हमने पकाया पाषाणयुग की गुफाओं के गर्भागार में निष्पाप नरमांस । अपाप का चढ़ाया भोग । और जला दिया सुरा का नीरांजन शरीर की देहरी पर अनन्त की उतारने आरती । फीके फीके सान्ध्य प्रकाश में छान लिया अँधेरे को रन्ध्र रन्ध्र में; लगा दी रिकार्ड हरएक पेशी की, जिसकी सजीवता में उकेरा गया था अनादि रक्तसंगीत... .... बाँध दिये नाग बिजलियों की कमर में.... ... और सिहर उठे स्पर्श के पल्लव रक्त के बौर पर... और शरीर ने ही समझा दिया शरीर के अधूरेपन को जब उड़ गया उड़ान भरने वाला नीला पाँखी नीले आकाश में अनन्त की राह फीके फीके सान्ध्य प्रकाश में। (अनुवाद : निशिकांत ठकार)

त्रिवेणी-9

बहती रेत के अछोर मैदान में लोटने वाले क्या तुम्हें उनकी याद आती है ? पत्थर की संजीदगी आँखों की वीरानी में बेवक़्त उभर आयी। सुलगी हुई बारिश ! स्मृतियों की चिनगारियाँ, फुसफुसी, कुचली हुईं, याद आती हैं ? ध्वस्त मनों की दुर्गम घाटी में एकान्तवासी ब्रह्मराक्षस... बूटों की आहत... अकेला... अकेला.... जुगाली करती हुई अन्धी जिजीविषा चौकन्नी आँखों का मुण्डविहीन भविष्य वर्तमान का दौड़ता हुआ कबन्ध... याद आता है ? और प्रारम्भ उधार की जल्दबाज़ी का। सोने की दहलीज़ पर चाटा हुआ अन्न । दूसरों का सूँघा हुआ, हमें बहुत चाहिए - सा । दुबले होते इरादे । दगाबाज़ आत्मा - वेदी से भागी हुई । सुख को ललचाई, मुझसे ही शापित । क्या इन सबकी याद आती है ? खुजलाने वाले जख्म पर मिट्टी की भस्म; और मन्त्र उग्र अत्याचारी । याद आते हैं ? हे प्रबले ! इन स्मृतियों का सेहरा बाँधकर सान पर चढ़ने वाली तु म्हारी इन्द्रियों का सुनहला झुण्ड तुम्हारी प्रीति की रक्षा करे ! (अनुवाद : निशिकांत ठकार)

त्रिवेणी-10

अश्वघोष करने वाले का कण्ठ सूख गया है अपार आराधन... किसिलए ? उर की हिचकी उर में ही दब जाती है और बच जाता है धीरे धीरे पकनेवाला स्वयंतुष्ट सुख पीड़ा का । कपूर की तरह उड़ जाता है प्रसंगों का तरल भाव और बाकी रह जाता है रचना का आलेख क्षेत्रकाल के सन्दर्भ में जब खत्म हो जाता है अनबिका पीड़ासुख भी । यही है- दोनों जिसे समझे हैं, दोनों के बीच का सत्य । याद आता है? कैसे अचानक मिल गयी थी, कितने बरसों बाद बिजली की रेल में! और फिर भी नहीं महसूस हुई पुरानी अचानकता । लेकिन पहले ऐसे अकल्पित अचानक मिलन में कैसी बिजली दमक जाती थी। कैसी खायी थी ठेस स्मृतियों से! कैसे थरथरायी थी हवा दूरी की पीड़ा से ! यह सब ख़त्म हो गया था । अब मिलने पर भी नहीं मिले जैसे होते हैं, दूर जा कर भी नहीं रह जाता बिछुड़ने का बोध अब है परस्पर सम्बन्धों की रंगहीन श्रृंखला बुद्धि के सन्दर्भ में, क्षणों की अल्पना की घटनाओं के अजूबे, है अब भी कुछ ईमानदार विरूप, विपरीत दुःख के भीतर का दुःख दुःख की ही कमी का । ... कहा था तुमने (कुछ मज़ाक से) : 'अपनी हड्डियों की फौलादी नसों से हिमशीत मृद्गन्ध क्यों फूँकते हो ?' कहा था मैंने, 'बुझाने के लिए, कहा था तुमने, 'सिर्फ़ बुझाने के लिए - मुझे बुझाने के लिए!' (किसी ने कहा, 'रिझाने के लिए ! ' लेकिन अब चौंक गयी होगी देखकर नियति का बिजली के चम्मच से अँधेरा खिलाने वाली विराट वत्सलता को... कम से कम हमें आज़ादी हो अपने ही बनाये नाट्यगृह को गिराने की, जन्मदिन के उपलक्ष्य में.... छाती की ठठरी में मुट्ठी जितने चूहे को क्यों तरेरती हो बिल्ली की आँखों से, खत्म हो गयी है जिनसे रोने की भी ताक़त ? (अनुवाद : निशिकांत ठकार)