अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ (ग़ज़ल) : दुष्यन्त कुमार


अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ

अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ये दरवाज़ा खोलें तो खुलता नहीं है इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर दी उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ समालोचकों की दुआ है कि मैं फिर सही शाम से आचमन कर रहा हूँ (ग़ज़ल-संग्रह 'साये में धूप' में से)

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