अनंतिम (कविता संग्रह) : कुमार अंबुज
Anantim : Kumar Ambuj


एक राजनीतिक प्रलाप

यहाँ अब कुछ इच्छाओं का गुम हो जाना सबसे मामूली बात है मसलन धुएँ के घेरे के बाहर एक जगह या एक ठहाका या एक किताब कबाड़ में ऐसी कई चीजें हैं जिन पर जंग और मायूसी है कबाड़ के बाहर भी ऐसी कई चीजें हैं जिन पर जम गई हैं उदासी की परतें मूर्त यातना जैसा कुछ नहीं बर्बरता एक वैधानिक कार्यवाही जिसके जरिए निबटा जा रहा है फालतू जनता से अख़बार और हास्य धारावाहिकों के असंख्य चैनल हैं कंप्यूटर पर खेल हैं नानाविध मेरे गाँव तक जाने का रास्ता बंद है अभी भी वर्षों पुरानी निर्माणाधीन पुलिया की प्रतीक्षा में उस पार करोड़ों लोग हैं जिनके जीवन से इधर कोई सरोकार नहीं जो लोग दुर्घटनाओं में मरे उनकी लाशें अभी सड़कों पर हैं शेर, शेर होने के जुर्म में मारे गए हैं और सियार, सियार होने की वजह से निर्दोष मारे गए उस गली में जहाँ हुए वे अल्पसंख्यक यह एक बस्ती अभी-अभी उजड़ी है जहरीली शराब से मेरी माँ के पैर में पिछले नौ बरस से फोड़ा है हर गर्मी में फूट पड़ती है बेटे की नक़सीर और उपाय मेरी पहुँच से दस हज़ार मील दूर हैं उधर एक कवि कूद जाता है तेरहवीं मंज़िल से एक वह अलग था जिसे चौराहे पर पुलिस ने मार डाला था लाठियों से फिर भी करोड़ों लोग हैं जो जीवित रहने के रास्ते पर हैं मैं ख़ुद ज़हर नहीं खा पा रहा हूँ और ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि यह एक आशा है कायरता है या साहस इतनी ज्यादा मुश्किलें हैं जिनमें जीवित हैं लोग करोड़ों लोग गरीबी के नर्क में हैं करोड़ों बच्चे झुलस रहे हैं फैक्ट्रियों में करोड़ों स्त्रियाँ जर्जर शोकमय शरीरों में मुस्करा रही हैं अदृश्य सुखों की प्रतीक्षा में हाड़ तोड़ रहे हैं करोड़ों लोग जो भी मुश्किलें हैं वे करोड़ों की गिनती में हैं और नामुमकिन-सा ही है उनका बयान अभाव और बीमारी-हजारों लोहकूटों द्वारा कूट दिए गए शब्द हैं करोड़ों ऐसे फ़ैसले लिए गए हैं हमारे वास्ते जिनमें हम शामिल नहीं लोग पसीज रहे हैं मगर दाँव पर कुछ नहीं लगा पा रहे जिन्हें दुःखों को पार करना था वे अब रह रहे हैं दुःखों के ही साथ अंत में मेरे पास फिर वही कुछ निराश शब्द बचे रहते हैं चमक-दमक और रईसी के बीच चमकते हैं करोड़ों पैबंद अनंत आश्वासनों के बीच मेरे पास कोई नारा नहीं है न मैं मारो-काटो-बचाओ कह सकता हूँ मैं ही क्या करोड़ों लोग हैं जो इतनी आपाधापी में हैं कि रोजी-रोटी के अलावा बमुश्किल ही कर सकते हैं कोई और काम।

प्रधानमंत्री और शिल्पी

'चारों तरफ़ खड़े हुए हैं शिल्पी जिनके बीच बैठे मुस्करा रहे हैं प्रधानमंत्री'- यही एक तस्वीर है जो छपी है सभी अखबारों में पुरस्कृत किया जाना था उन्हें इसलिए दूर-दूर से आए थे शिल्पी जहाँ बैलगाड़ी भी नहीं पहुँचती बारहों महीने ऐसे गाँव से आए थे कुछ शिल्पी कुछ शहरों से भी आए थे मगर वे शहर के कोनों में बनाई गई बस्तियों में रहते थे जो कमज़ोर थीं शिल्प के लिहाज़ से बहुत सारे शिल्पी क़स्बों से आए थे और उन क़स्बों को नहीं खोजा जा सकता था देश के नक्शे में कोई चादरों पर राजपूत शैली को बचा रहा था कोई काँगड़ा शैली कोई मुग़ल एक तो अभी भी जीवित था गांधार शैली में कोई जंगली चिड़िया को ढाल रहा था पीतल में तो कोई ताँबे में कोई काँसे में से वक्ष निकालकर लाया था उन्हीं में से एक था जो अपनी दुश्चिंताओं से भी बड़ा लोहे का वृक्ष बनाता था किसी ने मिट्टी के चेहरों में डाल दी थी जान कोई लकड़ी में से कुरेद रहा था यह पूरा संसार उनके पास आदिम सभ्यताएँ थीं आदिम कलाएँ और वैसे ही चेहरे उन्हें मास्टरों, पटवारियों, सरपंचों और विकास खण्ड के कारकूनों ने भेजा था यहाँ ऐसे एकत्र हो गए शिल्पियों से प्रधानमंत्री ने कहा मुझे गर्व है कि आप लोग शिल्पी हैं और तमाम कठिनाइयों के बीच कर रहे हैं काम शिल्पियों में से एक-दो ने कहा हिम्मत बटोरकर हमें नहीं मिलती लकड़ी लोहा और ताँबा नहीं मिलता न हीं मिलते रंग नहीं मिलती मिट्टी तक और जैसे-तैसे बना लें कुछ तो नहीं मिलती इतनी भी कीमत कि निकल सके लागत ! प्रधानमंत्री मुस्कराए.. और तभी आ गया फ़ोटोग्राफरों का दल जिसने खींची ऐसी तस्वीर जिसमें चारों तरफ़ खड़े हुए हैं शिल्पी अटपटे और बीच में बैठे मुस्करा रहे हैं प्रधानमंत्री।

सापेक्षता

मैं तुम्हें प्यार करता हूँ और कभी-कभार करता हूँ क्रोध या कहूँ कि मुझे याद आता है मेरा बचपन कि दुःखों ने घेर रखा है मुझे और देखो चक्रव्यूह में कुछ चमकता है रात-दिन चलती हैं मशीनें और यकायक रचती हैं मौन टूटता है चिड़िया का पंख और चक्कर खाता है हवा में और ये हम हैं- जो पशु हैं मगर मनुष्य होने के अर्थ और बोध से भरे हुए यह सब सापेक्षता है कोई भी शब्द, स्वर या क्रिया इससे परे नहीं यही है वह शब्द जो बसा हुआ जड़-चेतन के केंद्रक में इसको समझे बिना एक पल भी गुज़ारा नहीं एक कदम भी नहीं बढ़ाया जा सकता जीवन में विचारों से, अँधेरों से, सँकरे-चौड़े रास्तों से गुजरते करते सही-गलत की पहचान बचते हुए दुर्घटनाओं से चले आए हैं हम यहाँ तक इस के सहारे और इतनी मज़ेदार यह कि जो नहीं जानते कि आखिर यह सापेक्षता है क्या बला वे भी सिर्फ इसीकी वजह से जीवित रहते आए अब तक और जिन्हें कुछ-कुछ मालूम है वे मंद हँसी में सोचते हैं कि हज़ार जीवन पाकर भी भला इसे किस तरह समझा जाए ठीक-ठीक ! तारामंडल, हँसी, रुदन, पत्थर, मौसम, झूठ, रहस्य और ज्ञान सब कुछ के पीछे चुपचाप काम करती हुई यही सापेक्षता भौतिकी और गणित के बाहर भी पसरी हुई चर-अचर जगत में सारे जीवन को हर जगह बनाती हुई सापेक्ष विचारों की एक इतनी लंबी श्रृंखला कि उससे लगाए जा सकें इस ब्रह्मांड के सैकड़ों चक्कर।

उसी एक क्षण ने

इस संसार में जो भी कहीं था वह मित्र था या फिर शत्रु कुछ इस तरह के शत्रु थे कि मुसीबत में आते थे काम कुछ इस तरह से मित्र थे कि उनके रहते ज़रूरत न थी शत्रुओं की यह अलग बात है कि उनमें से कई बहुत बाद में मिले कई पुस्तकों में मिले कई यात्राओं में कुछ की सिर्फ़ तस्वीरें देखीं कुछ की सुनीं सिर्फ़ कहानियाँ और बहुतों से तो मिलना होगा भी नहीं जो तटस्थ दिखते थे वे अपनी तटस्थता में भी शत्रु थे या मित्र हाँ-हाँ कहने से ही नहीं होता कोई किसी का मित्र जैसे नहीं-नहीं करने से नहीं हो जाता कोई किसी का शत्रु कुछ लोग मित्र बनना चाहते थे इस पूरे संसार का और यह चाहत इतनी ख्वार थी कि उसे पाने के लिए वे पेश आते रहे शत्रु की तरह उन्हीं में से कुछ-कुछ हम थे सबके लिए शत्रु सबके लिए मित्र कभी-कभी तो एक पल के लिए शत्रु और दूसरे पल के लिए मित्र वह क्षण दुर्लभ था जब हम मित्रों से सचमुच मित्र की तरह पेश आए और शत्रुओं से शत्रु की तरह उसी एक क्षण ने थोड़ा-बहुत ठीक किया इस दुनिया को।

ज़ंजीरें

असंख्य ज़ंजीरें थीं सब तरफ़ उनमें से कभी टूट जाती थी कोई ज़ंजीर तो मच जाता था तहलका कभी-कभी ऐसा भी होता था कि उस तरफ़ नहीं जाता था किसी का ध्यान फिर स्वप्न में या अचानक किसी गली से गुजरते हुए आता था याद कि न जाने कब टूट गई वहाँ पड़ी हुई एक ज़ंजीर गाहे-बगाहे कोई विद्वान या कवि बताता था कि वह एक भारी ज़ंजीर थी जो काटी गई एक शब्द की धार से और ऐसी ही एक ज़ंजीर को काटा था एक आदमी ने अपनी पूरी जिंदगी की दराँती से इस काम में उसे लगे थे चौहत्तर साल जिसका थोड़ा-बहुत हिसाब मिल सकता है किसी संग्रहालय में मगर ज़ंजीरें लोगों के जीवन में इस तरह थीं जैसे शरीर में आँतें उनके कट जाने पर उन्हें घेर लेती थीं पेचिश और वमन जैसी बीमारियाँ वे तड़पते थे उन काट दी गईं ज़ंजीरों की स्मृति में और उनकी हाहाकारी कराहों ने भर दिया था समय की संभव शांति को एक स्थायी शोर से अकसर होता था कि ज़ंजीरों को काटने की कोशिश में उनकी भारी कड़ियाँ गिर पड़ती थी हमारे माथों पर माथे पर पड़े उन निशानों से पहचान लिए जाते थे हम अपने लोगों के बीच बाक़ी दूसरे समझते थे कि ये निशान यों ही लड़ाई-झगड़े के हैं या कहीं गिर पड़ने के इन वजहों से भी मुमकिन होता था कि जंजीरें काटी जा रही थीं थोड़ी-थोड़ी रोज़-रोज़ यह भी दिलचस्प था कि कुछ पाठ शामिल कर दिए गए थे बच्चों की किताबों में जिनमें बताए गए थे ज़ंजीरों को काटने के सैद्धांतिक तरीके मगर बच्चों की मुश्किल यह थी कि ज़ंजीरों के साथ जीने की कला के बारे में भी कुछ किताबें थीं पाठ्यक्रम में इस तरह जंजीरों की प्रतिष्ठा ने लगभग अटूट कर दिया था ज़ंजीरों को वे आभूषणों की तरह हो गई थीं कुछ संस्कारों की तरह थीं और पवित्र बंधनों की तरह चिपकी थीं त्वचा से लगता था उन्हीं ने थाम रखा है संसार वे हमारी सभ्यता का चेहरा हो गई थीं चौखट पर ही देखा जा सकता था उन्हें पड़ा हुआ हमारे ज़रा-से उत्खनन से ही प्रकट होने लगती थीं वे हमारे ही भीतर से अपने भारी और जंग लगे रूप में निकलती हुईं उनकी खन-खन की आवाजें एक समूह को भर देती थीं खुशी से और एक दूसरे समूह को भय से और यह प्रक्रिया तबदील हो चुकी थी सामाजिक विकास की प्रक्रिया में वे लताओं की तरह उगती थीं और बरसों बाद यकायक पता चलता कि वे लताएँ नहीं ज़ंजीरें हैं मगर तब तक बहुत देर हो चुकी होती थी और अमूमन हम पड़ चुके होते थे उनके प्रेम में फिर सब मिलकर करते थे उनकी रक्षा हर घर में उनके उत्पादन के कारखाने थे किसी भी धातु की बन जाती थीं वे उन धातुओं की भी जिनका कोई ज़िक्र नहीं धातु-विज्ञान में वे अजीवित थीं मगर उनमें विलक्षण क्षमता थी भक्षण और प्रजनन की टेपवॉर्म की तरह हमारे अंतरों-कोनों में चिपकी हुईं वे अतृप्त अनंत भूख की स्वामिनें खाती हुईं हमारा पचा हुआ अन्न उन्हें पहचान लेना कठिन न था लेकिन उन्हें उनके असली नामों से पुकारना अपराध था उनके असली नाम यों भी अलौकिक थे और हमारी भाषा के सुंदरतम शब्दों को घेर रखा था उन्होंने उनके स्कूल थे उनके दफ़्तर थे और सबसे मज़ेदार और हतप्रभ कर देने वाली बात थी कि उनके पास ऐसे विचार थे जो विचार नहीं थे मगर स्वीकृत थे विचारों की तरह उसी शाश्वत जनता में जो ज़ंजीरों को उनके अलौकिक नामों से जानती थी और उनमें जकड़ी हुई हँसती-रोती थी उसके हँसने-रोने की आवाज़ों में दब जाती थीं ज़ंजीरों की आवाजें जो घंटियों, चीखों, अंतिम पुकारों, हकलाहटों, प्रार्थनाओं की तरह सुनाई देती थीं और उनमें छिपे आर्तनाद से व्यथित कुछ लोग आखिर अपनी-अपनी आरियाँ लेकर जुट जाते थे जंजीरों को काटने में और बार-बार अपने लिए बनाते थे ऐसी आज़ाद जगहें जहाँ रह सकते थे ऐसे कई लोग और भी जिन्हें पूरी उम्र काटते ही जाना था हर रोज़ काई की तरह फैलती हुई जंजीरों को।

धुंध

वह धुंध जो हवा के पर्दो में कोहरे की है जो उस अरण्य की है जिसमें मैं अकेला छूट जाता हूँ वह जो मेरी चेतना पर पड़ी असंख्य छायाओं की है वह धुंध जो सूक्तियों में है और उतर आई है प्रार्थनाओं में जिसके पार न आवाज़ जाती है न रोशनी वह धुंध जो ज्ञान के असीम प्रकाश की रेख में छिप रही है और घुल रही है आनेवाले दिनों की आकांक्षा में वह जो चीजों में नहीं उनकी आभा में रहती है वह जो विस्मृत होती जा रही स्मृति की है और अपने रहस्य से बनाती है दुनिया को धुंधला जिसमें से गुज़रते हैं तमाम मनुष्य जो पशुओं का जीवन नहीं बनाती दुष्कर वह धुंध जो सोख लेती है समुद्र में गिरती आकाश की परछाईं का रंग वह धुंध जिसमें से एक धुन निकल जाती है तीर की तरह रोज़ उसीके पार जाता हूँ मैं।

शाम

उजले प्रदेश की भूरी चिड़िया चक्कर खाते हुए बैठ गई है पीली दीवार पर जो उस जनपद में है जहाँ सारे घर कुनकुने पीले होकर चमक रहे हैं यह एक उदास रंग जो शाम में ज़्यादा निखरा हुआ लग रहा है दरवाजे, खिड़की, ओसारे से होता हुआ पहुँच रहा है भीतर तक सिर्फ टेकरी के मंदिर का कलश लाल-सिंदूरी होकर चमक रहा है यह अँधेरे से पहले की चमक जिसे डूबना ही है अँधेरे में अभी यह होती हुई शाम है ऊष्मा और ठंड की तंग जगह से गुज़रती हुई खजूर की पत्तियाँ अपनी ऊँचाई की रोशनी में हिल रही हैं नदी की आवाज़ अब आ चुकी है पचास गज़ की दूरी पर लौट रहे हैं पुरुष और मवेशी उनके कंधों पर थकान का रंग बैठा है उमंग बनकर टुनटन आरती शुरू होने को ही है टेकरी पर अभी तो एक ऊब है जो फैली हुई है बुजुर्गों की फुरसत में साँवली होती हुई पीली-सी ऊब जिसकी गंध से मक्खियाँ रात गुज़ारने के लिए ठौर ढूँढ़ रही हैं

एक स्त्री पर कीजिए विश्वास

जब ढह रही हों आस्थाएँ जब भटक रहे हों रास्ता तो इस संसार में एक स्त्री पर कीजिए विश्वास वह बताएगी सबसे छिपाकर रखा गया अनुभव अपने अँधेरों में से निकालकर देगी वही एक कंदील कितने निर्वासित, कितने शरणार्थी, कितने टूटे हुए दुखों से, कितने गर्वीले कितने पक्षी, कितने शिकारी सब करते रहे हैं एक स्त्री की गोद पर भरोसा जो पराजित हुए उन्हें एक स्त्री के स्पर्श ने ही बना दिया विजेता जो कहते हैं कि छले गए हम स्त्रियों से वे छले गए हैं अपनी ही कामनाओं से अभी सब कुछ गुजर नहीं गया है यह जो अमृत है यह जो अथाह है यह जो अलभ्य दिखता है उसे पा सकने के लिए एक स्त्री की उपस्थिति उसकी हँसी, उसकी गंध और उसके उफान पर कीजिए विश्वास वह सबसे नयी कोंपल है और वही धूल चट्टानों के बीच दबी हुए एक जीवाश्म की परछाईं।