आनंदार्थी (मन और बुद्धि के बीच वाद-विवाद तथा असहमति) : डॉ संतोष तिवारी

Anandarthi : Dr. Santosh K.Tiwari


प्रार्थना : हे कृष्ण सब तुम्हीं हो

हे नाथ सब तुम्हीं हो, हे कृष्ण सब तुम्हीं हो, ब्रह्मांड के रचयिता, धन-ज्ञान के हो सागर, हे प्रभु सब तुम्हीं हो, सबकुछ तुम्हीं से उजागर।। ये विश्व भी तुम्हीं हो, ब्रह्मांड भी तुम्हीं हो, कण-कण में तुम बसे हो, नहीं कुछ भी तुमसे बाहर ।। भौतिक समाज तुम हो, आध्यात्मिक ज्ञान तुम हो, विज्ञान भी तुम्हीं हो, गीता का ज्ञान तुम हो ।। कृपा के हो सागर, सुन्दरता के हो उद्गम, ऐश्वर्य के जन्मदाता, एक पूर्ण पुरुष सिर्फ तुम हो, हे नाथ सब तुम्हीं हो, हे कृष्ण सब तुम्हीं हो।। मैं मूर्ख-मूढ़, खलकामी कलिकाल में फँसा हूँ , मैं काम में फँसा हूँ, मैं मोह में फँसा हूँ, कैसे करूँ मैं भक्ति, कैसे करूं मैं पूजा, हे नाथ अब उबारो, मझधार में फँसा हूँ, हे नाथ सब तुम्हीं हो, हे कृष्ण सब तुम्हीं हो ।। माया बहुत प्रबल हैं, हर पल मुझे सताती, कैसे करूँ मैं पूजन, अब कुछ न समझ आती, यदि मुझ पर कृपा कर दो, तो सब कुछ सम्भल जाए, एक पल भी न लगेगा, जीवन भी सुधर जाए, मैं अंश हूँ तुम्हारा, माया में फँस गया हूँ, सब कुछ हूँ भूल बैठा, पापों में रम गया हूँ, हे कृष्ण अब उबारो, हे नाथ अब उबारो, हे नाथ सब तुम्हीं हो, हे कृष्ण सब तुम्हीं हो ।।

जाति-पांति का बन्धन

छोड़ो जाति-पांति का बन्धन, फिर से नयी सुबह हो । दिनकर की हो तरूण लालिमा, फिर से भारत जय हो ।। इसी कुंठ बंधन के कारण हम कुन्ठित हो बैठे । रोम-रोम में जाति-पांति हैं, हम कलुषित हो बैठे ।। कलुषित तन हैं लोभी मन हैं, फिर भी हम हैं ऐंठे । अपनों का ही शोषण करके, श्रेष्ठ बने हैं बैठे ।। जाति-पांति, कुल-धर्म, जन्म पर नहीं कोई अधिकार । फिर क्यों सदियों से होता, आया दीनों पे अत्याचार।। राजा, रंक, दीन या दुर्बल, जाति न कुछ होता हैं । कर्म पूजने वाला योगी, कब निराश होता हैं ।। कर्ण, पार्थ या केशव हो सबने धर्म धरा हैं । महावीर, गौतम या शंकर, सबने कर्म किया हैं।। धरो धर्म और कर्म, को जानो फिर सबका जय होगा । दीन-हीन, सब मिल जाएंगे, फिर भारत जय होगा ।। लाखों नदियां कल-कल कर के सागर में हैं जाती। कुछ छोटी, कुछ बहुत बड़ी फिर भी मौज मनातीं ।। कुछ निर्मल, निश्छल पवित्र हैं, कुछ में मैल मिला हैं । कुछ चलती हैं उछल कूद के, कुछ में शान्ति भरा हैं ।। कुछ की धारा कल-कल करती, कुछ में भरा सृजन हैं । फिर भी सागर अपनाता हैं, यही प्रेम निश्चल हैं।। कर्म जाति हैं, कर्म छोड़ के, हमे न कुछ गुनना हैं । प्रेम, भाव, वैराग्य छोड़ के, हमे न कुछ चुनना हैं ।। तपोनिष्ठ हमको बनना हैं, त्याग, धर्म अपनाके । दीनों का बनना सहाय हैं, उनको गले लगा के ।। छोड़ो जाति-पांति का बन्धन, फिर से नयी सुबह हो । दिनकर की हो तरूण लालिमा, फिर से भारत जय हो ।।

वास्तविक संघर्ष

चलो उठाओ ज्ञान खड्ग को, अंधकार से लड़ना हैं। कुंठित मानसिकता को छोड़ो, अंधविश्वास से लड़ना हैं॥ जनबल, धनबल, मनबल लेकर,अपना पथ तुम अपनाओ । क्या कल बीता उसको भूलो, नई राह तुम अपनाओ ॥ माना अत्याचार हुआ हैं, हुआ तुम्हारा शोषण हैं। स्वार्थ परक शासन अपनाकर, हुआ तुम्हारा दुर्गत हैं॥ वेदों से तुम्हे वंचित रख के, अछूत का हैं नाम दिया। सनातन की परम्परा को, मूर्खों ने बदनाम किया॥ कुछ अपनों ने, कुछ गैरों ने हम को हमसे तोड़ा हैं। मुगलों,अंग्रेजों ने हमको, ऊँच-नीच में फोड़ा हैं॥ पर गलती अपने में हैं, दूसरों का क्यों दोष धरे। जयचंद और शकुनि को कैसे हम ना याद करें॥ ऐसे बहुत ही दुर्जन हैं, जिन्होंने भारत का नाश किया। क्षणिक स्वार्थ के कारण हमको, जाति-पांति में बाँट दिया॥ ये गलती सदियों की हैं,जो हमको खाये जाती हैं। एकलव्य का नाम सुना के, हमे जलाये जाती हैं॥ कोई कैसे भूलेगा, लोगों ने कर्ण को शूद्र कहा। इस कुंठित समाज ने, उनका जीवन भर अपमान किया॥ पर उस वीर ने अपने को, मानवता से बांधे रखा। किया शस्त्र संधान और, क्षत्रियों को ही साधे रखा॥ उसी वीर के तरह बनो, और कुतर्क को झुठलाओ। शास्त्र और शस्त्र दोनों लेके, तुम भी ब्राह्मण बन जाओ॥ चलो उठाओ ज्ञान खड्ग को, अंधकार से लड़ना हैं। कुंठित मानसिकता को छोड़ो, अंधविश्वास से लड़ना हैं॥

मैं शर्मिन्दा हूँ

उसने कहा तुम कुछ नहीं, मैंने कहा क्या बात हैं! उसने कहा क्या कहते हो, मैंने कहा जो तुमने सुना, उसने कहा ये मजाक था, मैंने कहा क्या खूब हैं? फिर वो बोले मैं शर्मिन्दा हूँ, जो आपको समझा गलत, पहचान न मैं कर सका, यूं आप थे सबसे अलग।। मैं चुप रहा, अशब्द भी, पर वो बोलता ही गया। उसने कहा, यूं बीते इतने सालों में, जब भी मैं देखा आप को, मैं जल गया, मैं भुन गया, दी गालियाँ हर बात में।। मैं इस तरह बीमार था की, आप से जलने लगा, बेवजह ही मै आप को, बदनाम भी करने लगा, पर आज मैं अशब्द हूँ, और बहुत ही निराश हूँ, दुःखमय हैं मेरी जिन्दगी, मैं बहुत ही हतास हूँ।। मैं सोचता हूँ क्या मिला, इस ईर्ष्या के जनजाल से, कुन्ठित हुआ मैं खुद में, अवसाद से, अभिमान से। मैंने कहा, मत कुन्ठित हो, मत अपने को समझो गलत, ये तो ईष्या की चाल थी, जो तुम उसमें फँस गये, तुम शुद्ध थे और बुद्ध हो, जो हो गया उसे छोड़ दो।। ईष्या, द्वेष, अभिमान, घृणा, ये मानव को हैं रोकते, जाने-अनजाने में सबको ये हैं बांटते, मैं तो चाहूँगा इतना ही, बस अपने को सुधार लो, होगा भला इस दुनियाँ का, यदि अपने को निखार लो।

कुछ दिन का अँधियारा

कुछ दिन का अँधियारा, मेरे लिए सौगात था । दुश्मन बैठे थे घात में, पहचान हो गया ।। जब तक उजाला था, वो सब मेरे अपने रहे । इतिफाक की बात हैं, पहचान हो गया ।। हैं इन अंधेरो का रहम, हे 'कमल' मान लो। आस्तीन के सांपों का, जो पहचान हो गया।। सब अपने हैं ये सोच के, बामौज बैठा था । थी नासमझ मेरी जो, मैं बेखौफ बैठा था ।। एहसास मुझको अब हुआ, जालिम जमाने का । हैं नाम के रिश्ते यहाँ, सब कुछ दिखाने का ।। हैं आज हल्का दिल मेरा, भ्रम टूट गया हैं । सालों के गलतफहमी का, दिन छूट गया हैं ।। अब मुझको साफ दिख रहा, हैं कौन मेरा असल में। मैं चैन से सो सकता हूँ, असली दुश्मन से डर नहीं।।

दिल-दिमाग में छिड़ी लड़ाई

दिल, दिमाग में छिड़ी लड़ाई । मन बन बैठा हैं परछाई ।। दिल के बात बहुत प्यारे हैं । दिल के तर्क बहुत सारे हैं ।। दिल की हर बातें हैं सच्ची । सुनने में लगे बहुत ही अच्छी ।। दिल की दुनियाँ सपनों में हैं । जिसमें सिर्फ प्यार और ग़म हैं ।। दिल को लगता दुनियाँ भोली । जैसे हो रंगों की होली ।। हैं दिमाग की बातें कड़वी । यथार्थता से ये हैं जकड़ी ।। तर्क-वितर्क दिमाग ही जाने। सच और गलत में भेद पहिचाने ।। दिल न पेट को रोटी देगा । प्यार से न ये पेट भरेगा ।। तो, केवल दिल की मत सुनना । ले दिमाग को आगे बढ़ना ।। रखो दिमाग पर दिल की रस्सी । ढीली नहीं बहुत ही कशी ।। मन-मानी दिमाग की न हो । दिल के गुण दिमाग में भी हो ।। निर्णय लो दिमाग के बल से । पर दया-धर्म छूटे न दिल से ।।

आत्मा पर धूल और कांटे

देखो, मानवीयता किस मझधार में हैं ? देखो, आज जगत किस अंधकार में हैं ? धरा पे घना अंधेरा हैं, भूख और गरीबी का, तम और निराशा का, मोह और मद का, अविश्वास और दंभ का, राग और द्वेष का, कटुता और वैमनस्य का, भय और चिन्ता का, हिंसा और क्रूरता का , अधर्म और अनैतिकता का, छोटा और बड़ा का, मानवीय नीचता का , घने अंधकार को हमे खत्म करना होगा। सर्वप्रथम हर हाथों को काम देना होगा।। पेट भर जाने से , भूख मिट जाने से, तन ढक जाने से , पहिचान मिल जाने से, नाम मिल जाने से, मैं कौन हूँ, का भाव जागृत होगा। फिर समाज में शुद्ध प्रेम प्रवाहित होगा।। मानव सिर्फ पीड़ित हैं! आत्मा के रुदन से, आत्मा के कुंठा से, कुकर्म करते रहने से, आत्म पर धूल ही नहीं, काटे उग आये हैं, भावमयी हृदय पर, सर्प और बिच्छू छाए हैं, प्रेमहीन हृदय, अब मरु बन गया हैं। भावुकता बिना, नागफनी उग आये हैं।। मरुभूमि पर पुनः हरियाली लाना होगा। आत्मा से धूल-कांटे हमको हटाना होगा।। स्वालंबन से गरीबी को, तप से शरीर को, पुरुषार्थ से समाज को, त्याग से इंद्रियों को, ज्ञान से मन को, प्रेम से हृदय को, सत्य से आत्मा को, गुरु से परमात्मा को, प्राप्त करने के लिए लक्ष्य बनाना होगा। आत्मदीप जला के अंधकार मिटाना होगा ।।

जीत के हमें क्या मिलेगा?

जीत के हमें क्या मिलेगा, हार के खोयेगे क्या? हम तो राही हैं जन्मों के, रुकने से हमें क्या मिलेगा ? यदि क्षणिक मंजिल का नाम हैं सफलता ! तो फिर चलते रहने से सब कुछ मिलेगा । हमको चलना ही गवारा क्या करूँ? बढ़ते रहने की शौक हैं क्या करूँ? हैं मंजिलों को रौदने की तमन्ना, शौक हैं लहरों पे चलना क्या करूँ? हम तो मौजों के साथ बहते ‘कमल’, फिर तूफानों का खबर मैं क्यों करूँ? ठीक हैं उनकी सफलता मंजिल हैं, अपनी फितरत कुछ अलग हैं, क्या करूँ? नकल कर के क्यों, बिताऊँ जिंदगी । स्वयं का रास्ता, मैं क्यों न गंढु ? भेड़-बकरियां ही रहे झुंड में , शेरों सा माँ ने हैं पाला, क्या करूँ ? हौसले बुलंद हैं, मैं बढ़ रहा हूँ, जो असम्भव, उस पे काम कर हूँ, हमको हैं अहसास, मिट जाने का भी, हिम्मतों का बादशाह हूँ क्या करूँ? जीत के हमें क्या मिलेगा, हार के खोयेगे क्या ? हम तो राही हैं जन्मों के, रुकने से हमें क्या मिलेगा ?

कुछ भी मुझमें नया नहीं

कुछ भी मुझमें नया नहीं, नया गीत फिर भी गाता हूँ । मनमौजी हूँ, दिल का सुनके भावनाओं में बह जाता हूँ।। भावनाओं की हिलकोरों से, कुछ शब्दों को बुन लेता हूँ। छोटा-बड़ा समाज देखके, कुछ पंक्तियां मैं लिख लेता हूँ ।। मेरी कविता, मेरी दुनियाँ, मकड़ी सा गुनता हूँ दुनियाँ। स्वयं भी मैं उसमें उलझा हूँ, पता नहीं मैं क्यों लिखता हूँ ।। स्वयं का रचना मैं पढ़ता हूँ, स्वयं का आलोचक बनता हूँ। कल की रचना आज गलत कर, शब्द जाल फिर से बुनता हूँ ।। एक नई कविता लिखता हूँ... पर मुझको अरमान नहीं की, तुमभी मेरे गीत को गाओ। शब्द मेरे हैं, मेरी कविता, बोझ भला क्यों आप उठाओ ।। पर जो भी, मैं गीत हूँ गाता, उसका हैं समाज से नाता। मैं कल्पना का कवि नहीं हूँ , लिखू वही जो कुछ देखा हूँ।।

मन का मन से

मैं अपने दुःख किसे सुनाऊं, खुद से ही खुद को समझाऊं। जीवन हैं बहुरंगी मेला, यहाँ सभी का अपना रेला।। नहीं कोई सुनता हैं हमको, नहीं कोई कहता हैं हमको। सब की अपनी अलग कहानी, भागा-दौड़ी माना-मानी ।। हैं सब की अपनी परेशानी , चाहे राजा हो या रानी । मैं अपने दुःख किसे सुनाऊं…. अंतर्मन मन में हैं कड़वाहट, पर बाहर से करूं सजावट । ये मन घुट-घुट के रोता हैं, रोज-रोज विष ही पीता हैं ।। सरल-सरस हो के जब ये मन, सोचे अब हो जाऊं निश्चल । कह दूँ मन की पीड़ा खुलकर, पर समाज ठुकरा देता हैं, बेबस मुझे बना देता हैं ।। मैं सहमा सा रह जाता हूँ, हरे पेड़ सा ढह जाता हूँ मैं अपने दुःख किसे सुनाऊं…. क्या मैं हूँ समाज का दर्पण? सोच के कम्पित होता हैं मन । अंतरतम के ज्वाला में मैं, स्वयं को पुनः जला देता हूँ ।। हूँ समाज का छोटा सा कण यही सोच से जी लेता हूँ ।।

दोषारोपण

दूसरों पर दोष रोपण कुंठा का ही बोध हैं, सत्य का संकल्प लेके स्वयं पे पाये विजय। क्षणिक सुख कुछ भी नहीं उद्देश्य से भटकाव हैं, लक्ष्य भेदन के लिए संयम से पाये विजय। भाग्य जब अवरुद्ध हो अपयश और तिरस्कार से, कर्मठता के आहुति से भाग्य पर पाये विजय। यदि विवशता हैं परिस्थितियों के संग्राम से, जीवन को नाटक समझ के स्वयं पे पाये विजय। मनुजता का माप होता हैं कठिन संघर्ष से, ज्ञान का परिमाप होता हैं निष्ठा और मौन से, मित्रता की गूढ़ता फलता नहीं हैं पेड़ पर, सींचना पड़ता हैं इसको वर्षों के विश्वास से आत्मशुद्धि, आत्मचिंतन मनुज को वरदान हैं, अहम का बलिदान कर, निजता पर पाये विजय।।

क्षणिक सुख-दुःख

डूब के रंगरलियों में, बस क्षणिक सुख ही पाओगे, मोह में रम जाने से शारीरिक सुख ही पाओगे। मोह में डूबे रहो, परिवार को दुनियाँ समझ, ओ मेरे हैं, पुत्र-पुत्री, स्वयं को दाता समझ। प्रेयसी के हृदय पटल को प्रेम का सागर समझ, स्वप्न के जगत में खेलों, स्वयं को कर्ता समझ। निद्रा टूटते ही तुम, कुछ भी समझ न पाओगे , कौन, क्या, कैसा हुआ, यह भी समझ न पाओगे। हैं बहुत सी वेदना संसार में देखो अगर, आँख मूँद लो तो, दिन में अँधेरा पाओगे। मोह, माया, छल-कपट मानव पटल पे अंकित हैं, त्याग का लेपन लगाने पर मानवता पाओगे। जब पथ अवरुद्ध हो तिमिर के संताप से , टिम-टिमाते दीप से भी तुम प्रकाश पाओगे। ज्ञान तो छलका दे कोई वेदों को निचोड़ के, आत्मसात से मगर, सत्य समझ पाओगे।

कौन सुनेगा?

उस गरीब की कौन सुनेगा? जो पेट के लिए ही जीता हैं। काम मिले तो कर लेता हैं, नही तो भूखे सोता हैं।। उसका रोना, क्या रोना? जिसके आँखों में आँसू नहीं । आज मिला तो खा लेगा, कल का उसे चिंता नहीं ।। थाली में दो नोन भात, या देदो उनको रस्गुल्ले । हरखू को कुछ खबर नहीं, होते क्या हैं गुलगुल्ले।। पर एक बात अनोखी मैंने, हरखू काका में देखा । देश का सपना गढ़ते हैं, जो आँखों से मैंने देखा।। लग के करना काम धूप में, हरखू को बहुत ही भाता हैं। क्योंकि उनका छोटा बच्चा, प्राइवेट स्कूल जाता हैं। हमने पूछा, क्यों काका ? प्राइमरी स्कूल तो अच्छा हैं । गोलू को भेजो, गाँव का स्कूल अच्छा हैं ।। हरखू का एक प्रश्न, निशब्द मुझें कर देता हैं। क्यों गोलू मास्टर के बच्चों से, दिखने में काला हैं? वो तो अपने बच्चों को, प्राइवेट स्कूल में पढ़ाते हैं ।। हैं तो वे गाँव मे मास्टर, बच्चों को शहर पढ़ाते हैं । या तो उनमें ज्ञान नहीं हैं, या वे तो नक्कारा हैं? गोलू को वहाँ क्यों भेजूं, क्या मुझे नहीं वो प्यारा हैं। मास्टर भैया तो दिनभर, मां-बहन की गाली बकते हैं, ग्यारह बजे स्कूल पहुँचते, तीन बजे घर भागते हैं ।।

मैं सतर्क हूँ

फूंक-फूंक के कदम रखना सही हैं, अपनी सुरक्षा में जागृत रहना सही हैं। हर काम पे सजग रहना सही हैं , हर जगह तेज बुद्धि लगाना सही हैं। नाप-तौल के खाना-पीना सही हैं , संतुलित आहार और व्यायाम सही हैं । जिंदगी के नियम खुद बनाना सही हैं ? दुनियाँ विज्ञान की हैं, तर्क करना सही हैं, पर बात एक ‘कमल’ कहें, जो उसको लगता सही हैं। परिस्थिति जब अनुकूल हो, तो लगता सबकुछ सही हैं। दुःख, दर्द या अनहोनी से, जब मन प्रताड़ित होता हैं। पल में दुःखों का सैलाब, जब हमें अनजाने में डुबोता हैं। कौन सा चैतन्यता, फिर कौनसी बुद्धि सही ? कौन सा ज्ञान,और कौन सा कारण सही ? कौन चाहता यहाँ, की मैं कभी बूढ़ा बनूं ? कौन चाहता यहाँ, की मैं झोपड़ी में रहूं ? कौन हैं यहाँ, जिसे सम्मान की चिंता न हो , कौन हैं ऐसा यहाँ, जिसे खुद की चिंता न हो । एक बच्चा जन्म राजा के यहाँ पा जाता हैं , ले कुलीनता का मान खूब ही इठलाता हैं । एक बच्चा, जिंदगी सारी सड़क पर बिताता हैं , बीमार माँ और असहाय बाप जन्म से ही पाता हैं । एक बच्चा सड़क से उठ के अमीर बनता हैं , एक बच्चा जन्म से दिल मे दो छेद पाता हैं । हाँ, यहाँ सब कुछ सही हैं, कुछ भी न यहाँ गलत हैं । समझने में फर्क हैं, और अपना-अपना तर्क हैं।।

प्रेम गीत मैं कैसे गाऊँ?

प्रेम गीत मैं कैसे गाऊं ? किसे हृदय का घाव दिखाऊं ? मन उदास हैं हृदय हैं द्रवित, देख समाज को मैं हूँ विगलित, जहाँ आज भी मन गरीब हैं जहाँ आज भी तन हैं नंगा पेट पकड़ के लोग हैं सोते हाथों में कुछ काम नहीं हैं जिस समाज का पेट हैं खाली उसको क्या मैं नीति सिखाऊंगा प्रेम गीत मैं ..... हाँ मेरा तो पेट भरा हैं मेरे तन में वस्त्र सजा हैं मैंने प्रेम का गीत पढ़ा हैं मुझे प्रेम का स्वाद बहुत हैं रंगरलियों का चाह बहुत हैं पर ये मेरा स्वयं का अनुभव भूखों पर कैसे आजमाऊँ प्रेम गीत मैं ... वो कहते हैं प्रजातंत्र हैं, मैं हूँ प्रजा का अनुयायी । कुछ ही वर्षो में मैंने, दी हैं देश को नई ऊँचाई । पर गरीब हैं आधी जनता, भूखे सोती एक तिहाई । प्रजातंत्र मुझे समझ न आई प्रजातंत्र मुझे समझ न आई

झूठ

सोचा बहुत क्या झूठ हैं, पाया सभी कुछ झूठ हैं, ऐ बोलना भी झूठ हैं, सांसों का चलना झूठ हैं, जीवन भी अपना झूठ हैं, ऐ मौत भी तो झूठ हैं, बातें सभी तो झूठ हैं, भौतिक समाज झूठ हैं, सूरज निकलना झूठ हैं, तारे चमकना झूठ हैं, ठंडी हवा भी झूठ हैं, गरमी भी तो एक झूठ हैं, फूलों का खिलना झूठ हैं, कलियों का बनना झूठ हैं, हर रूप-रंग झूठ हैं, सपनों में जीना झूठ हैं, अपना समझना झूठ हैं, कहना पराया झूठ हैं, हर भेद-भाव झूठ हैं, ईष्या, घृणा झूठ हैं।। सोचा बहुत क्या झूठ हैं, पाया सभी कूछ झूठ हैं, मैं मानव हूँ ये झूठ हैं, ओ दानव हैं ये झूठ हैं, पशुवत व्यवहार झूठ हैं, यौवन से प्यार झूठ हैं, होना युवा भी झूठ हैं, जर-जर शरीर झूठ हैं, बचपन भी तो एक झूठ था, सारा जीवन ये झूठ हैं, जग को दिखावा झूठ हैं, वो मुझसे बड़ा हैं, ये झूठ हैं, मैं छोटा हूँ ये झूठ हैं।। सोचा बहुत क्या झूठ हैं, पाया सभी कुछ झूठ हैं, बोले गरीब झूठ तो, दुनियां कहे वो झूठ हैं, उसका चरित्र झूठ हैं, उसका व्यवहार झूठ हैं, पर सोच के देखो जरा, ये दुनियां सारी झूठ हैं, कहती कहानी झूठ हैं, पढ़ती कहानी झूठ हैं, फिल्मों का विलेन झूठ हैं, फिल्मों का हीरो झूठ हैं, लेखन तो सारा झूठ हैं, उपन्यास भी एक झूठ हैं, सोचा बहुत क्या झूठ हैं, पाया सभी कुछ झूठ हैं, मन की कल्पना झूठ हैं, अभिलाषा सारा झूठ हैं, संसार हैं एक रंगमंच, किरदार सारे झूठ हैं, कितनी बड़ी हो गाथा, क्यों न हो कोई महाकाव्य, सब में कहानी झूठ हैं, किरदार सब में झूठ हैं, गाथा सभी तो झूठ हैं, आता सभी को झूठ हैं, सोचा बहुत क्या झूठ हैं, पाया सभी कुछ झूठ हैं, आना तुफान झूठ हैं, ऊँचा हिमालय झूठ हैं, नदियों का धार झूठ हैं, रिमझिम फुहार झूठ हैं, ये बाढ़ भी तो झूठ हैं, सूखा नदी भी झूठ हैं, कितना बड़ा हैं सागर कितना रखे ये जल हैं, पर झूमता हैं झूठे, क्या इसका अपना जल हैं? सोचा बहुत क्या झूठ हैं, पाया सभी कुछ झूठ हैं, पढ़ना विज्ञान झूठ हैं? लिखना विज्ञान झूठ हैं, हर ज्ञान अपना झूठ हैं, हर काम अपना झूठ हैं, रोना भी अपना झूठ हैं, गाना भी अपना झूठ हैं, रो-रो के जीना झूठ हैं, जी-जी के रोना झूठ हैं, दुःखमय हैं मेरा जीवन, सुखमय हैं उसका जीवन, होना उदास झूठ हैं, उत्साह भी एकझूठ हैं, एक वर्ष जीवन झूठ हैं, सौ साल जीना झूठ हैं, पाया नहीं कुछ झूठ हैं, खोया सभी कुछ झूठ हैं, मैं शान्त हूँ ये झूठ हैं, वो अशान्त हैं ये झूठ हैं। कुन्ठित विचार झूठ हैं, निरस विचार झूठ हैं, धोखा खाना भी झूठ हैं, धोखा देना भी झूठ हैं, सोचा बहुत क्या झूठ हैं, पाया सभी कुछ झूठ हैं । हैं कल्पना का जीवन, परछाई मात्र हैं हम, हैं बहुत सुन्दर जीवन, हैं बहुत सुन्दर उपवन, सपनों में जी रहे हैं, सपनों में जी रहे हैं, पैदा हुए हैं जब से, गलते ही जा रहे हैं, शाश्वत नहीं यहां कूछ भी, एक आत्मा ही सच्चा, अब जाग जा हे मानव, सपनों से तुम निकल के, तू तो बहुत हैं सुन्दर, इस भू पे, इस धरा पे यदि आत्मा का दीपक, ईश्वर में जा मिलेगा फिर झूठ न कुछ होगा, जीवन भी खिल उठेगा

कौन सी दुनियाँ?

बाहर के उजाले से मेरा मन भर गया हैं। ये कौन सी दुनियाँ हैं, जहां दिल सड़ गया हैं॥ सड़न ऐसी की, बदबू भी आती नहीं हैं। साथ में रहने पर भी, कुछ समझ आती नहीं हैं॥ चमकता हैं ये दुनियाँ, चाँद तारों से भी ज्यादा। मगर हर आदमी परेशान हैं, बेतहाशा॥ नहीं बदला हैं ये दुनियाँ, पत्थरों के जामने से। आज भी लोग मरते हैं,किसी के बाजी लगाने से ॥ मुझे तो आज भी ये दुनियाँ, सदियों पुरानी हैं । जहाँ पे दास बिकते थे, रईसों के फँसाने पे ॥ जान की कोई कीमत हैं नहीं, इस चकाचौंध दुनियाँ में । आज भी लोग मरते हैं, एक रुपया बहाने पे ॥ अगर तुमको लगे की आज 'कमल ' गलत लिखता हैं। चले जाओ आँख भर देख लो, गँगा किनारे पे ॥ कल की बात हैं, जब एक-एक को मार देता था । हजारों लोग मरते हैं, आज एक बम लगाने से ॥ कौन सी दुनियाँ में रहते हो, गौर से सोच के देखो । आँख से पर्दा उठाओ, और अपने से ही पूँछ के देखो ॥ एहसास तुम को तब होगा, की सब फरेब का जाल हैं । हर गरीब को अमीर का बनना रुमाल हैं॥ जैस छोटी मछली को बड़ी निगल जाती हैं। छोटी को खा-खा के वो और भी मोटी हो जाती हैं ॥ आज का आदमी भी अपने से, छोटे को खा रहा हैं । आदमी-आदमी को ही कीड़ा-मकौड़ा समझ रहा हैं॥

मैं भी भारतवासी हूँ?

मैं भी उसी देश का वासी, जिसका गीत तुम गाते हो। फर्क यही हैं तुम नेता हो, भारत को मूर्ख बनाते हो। आज भी जनता कराह रही हैं, आज भी जनता रोती हैं। सुशासन की बात ही छोड़ो, घुट-घुट जीवन जीती हैं । हां कुछ लोगों का घर उज्जवल, कुछ लोग के मौज बड़े। चाटुकार जो हैं नेता के, उनके तो हैं मान बड़े। ये स्वराज हैं या मन-मानी, घर गरीब के जा कर देखो। दवा बिना मरते हैं बच्चे, दिल्ली छोड़ कही और भी देखो। तुम कहते हो सब अच्छा हैं, सब उन्नत हैं भारत में। पर भारत वालों से पूछो, जो बैठे हैं विदेशों में। वो भी चाहे घर को आना, उनका भी अरमान बहुत। नहीं चाहिये लाखों रुपये, नहीं चाहिए मान बहुत। कोई भी हो गैरदेश में, गैर ही समझा जाता हैं। कितना भी हो मान प्रतिष्ठा, गैर ही समझा जाता हैं। बस उनको कुछ काम दिलादो, ओ भी देश के लिए जिये बहुत हो गया दुनियाँदारी, देश का खाये, घर में रहे।।

हिंदी या अंग्रेजी

मैं हिंदी का प्रेमी हूँ, अंग्रेजी देती हैं रोटी। द्वन्द मेरे अंतर्मन में हैं, हिंदी बड़ी या इंग्लिश छोटी ? केवल मृदु भी लिख सकता हूँ, पर कटाक्ष की आदत खोटी, हिंदी-अँग्रेजी से पहले, सब को चाहिए दो-दो रोटी । जो हिंदी का झंडा लेके, अँग्रेजी में गरियाते हैं, वही मेरे प्यारे बंधु, समाज को गलत बताते हैं।। जब सबके पापा हैं सच्चे, तो भ्रष्टाचार कहाँ से आया? गाँव को देशी कहने वालों, टाई-बेल्ट कहाँ से आया? हैंप्पी बर्थडे कौन मानता, कौन काटता लाखों का केक ? पिज्जा, चिकन कौन हैं खाता ? ये भी बोलो मेरे दोस्त ! मैकडोनाल्ड में बर्गर खाना, पहले छोड़ो मेरे भाई। अरे गुलामी मन में हैं, बस मन को साफ करो भाई।। अलबेला हैं अपना भारत, हृदय स्वच्छ करो भाई। पहले पापा-मम्मी छोड़ो, बोलो बप्पा और माई।। अपने माँ से प्रेम हैं उत्तम, अपने माँ का चरण गहों । अपनी संस्कृति हैं उत्तम, भारतीयता का मान रखो। भारतीये भाषा और भोजन, हमको तो अपनाना हैं। हां कांटा और चम्मच छोड़ के, हाथ से भोजन पाना हैं। अँग्रेजी से घृणा नहीं, अंग्रेजीयत छोड़ो हे लाला। उनके मां को गाली देके, होगा अपना मुँह काला।।

पढ़ते गये, पढ़ते गये

पढ़ते गये, पढ़ते गये, हम तो आगे बढ़ते गये, डिग्रियां मिलती गयी, शान भी बढ़ते गये, हाथ भी बढ़ता गया, पांव भी बढ़ते गये, आन भी बढ़ता गया, मान भी बढ़ता गया, हम बढ़े कुछ इस कदर कि, नाम भी बिकने लगा, काम भी बिकने लगा, मुझसे जुड़ी हर चीज की कीमतें बढ़ती गयीं, पढ़ते गये, पढ़ते गये, हम तो आगे बढते गये, डिग्रियां मिलती गयी, शान भी बढ़ते गये, हम खरीद सकते हैं ईमान को भी पैसे से, इन्सान को भी पैसे से, भगवान को भी पैसे से, माँ-बाप की क्या बात हैं वो तो मेरे तलवे-तले, हर रात पी के झूमना, हर बार नयी लड़की चूमना, सिगरेट भी बढ़ते गये, शराब भी बढ़ते गये, पीते नहीं हम देशी हर रोज, ऐ कहते गये। पढ़ते गये, पढ़ते गये, हम तो आगे बढ़ते गये, डिग्रियां मिलती गयी, शान भी बढ़ते गये, माँ-बाप से लड़ते गये, उनसे भड़कते भी गये, हर बात में कहते गये, की तुम तो ट्रेडिसनल रह गये, मुझको तो देखो ध्यान से, हम तो अंग्रेज बन गये, आजाद भारत देश हैं, आजाद रहना हक मेरा, हम क्या करें ? कैसे करें ? इतना तो हम हैं पढ़ लिये, मुझको मत सिखाओ कोई कैसे जियें, कैसे रहे, मगर ............................. झकझौर के एक दिन मेरे वजूद ने तन्हाई में मुझसे कहा, तुम क्या पढ़े, तुम क्या बढ़े, मुझको बताओ तुम क्या गढ़े, नंगे चलना सीख के, तहजीब अदब भूल के, अय्याश हो तुम बन गये, डूबे रहते हो अवसाद में, कहते हो कि हम बढ़ गये ? न नींद आती रातों में, न चैन दिन में पाते हो, न होश में घर आते हो, न घर का खाना खाते हों, अपने माँ-बाप को अपना कहने में शर्माते हो, इन डिग्रियों के साथ में पागल हुए तुम जाते हो, पशु भी नहीं तुम रह गये, कहते हो कि तुम पढ़ गये, कहते हो कि हम बढ़ गये ? उन नजरों को रोको जरा, जो हर लड़की पर उठ जाती हैं, न माँ समझ आती हैं, न बहन नजर आती हैं, उन लब्जों को टोंको जरा, जो प्यार को अय्याशी का नाम देती हैं, हर बात में फरेब हैं, झूठा लिबाश पहने हो, इन डिग्रियों के आड़ में, सबको जलाये जाते हो। कल तक जो ईमानदार, एक सीधा भोला इन्सान था, न जानता था कुछ बुरा, तुम जैसे शैतान ने इनको भी बुरा कर दिया, कहते हो की हम बढ़ गये, कहते हो की हम पढ़ गये ? न संयम तुममें रह गया, न शर्म तुममें रह गया, न ज्ञान तुममें रह गया, न संस्कार तुममें रह गया।। घमंड में हो भर गये, न सीखना हो चाहते, फिर भी तुम कहते हो, कि हम बढ़ गये, हम पढ़ गये।। हे 'कमल' यदि ये पढ़ना हैं, तो फाड़ दो डिग्रियाँ, जला दो झूठे शान को, जला दो, झूठे आन को, न हम बढ़ेंगे इस तरह, न हम पढ़ेंगे इस तरह।। हम तो रहेंगे इस तरह, जिससे अपनों से जुड़ सकें, अपनों के गले लग सके, उनको भी गले लगा सके, नशे से कोशों दूर हो, प्यार करने पे मजबूर हो, अवसाद न हमको छु सके, न ऊँच-नीच हो कोई, गर ऐसा कर गये, तो फिर कहेंगे, तुम पढ़ गये, तुम बढ़ गये। वास्तव में सबके लिए काम तुम कुछ कर गये।।

आज के युवा नेताजी

मंत्रीजी के पाँव छू के, आज मैं गद-गद हुआ। फेसबुक के भाइयों, देखो मैं नेता बन गया।। मंत्रीजी के साथ फोटो, आज मैंने ले लिया। जन्मों की थी जो तपस्या, आज सफल कर लिया।। इतने आसानी से, मंत्रीजी मिलते नहीं। गाँव में कल नाच था, दौड़ के सेल्फी लिया।। वर्षों से पीछे लगा हूँ, मंत्रीजी के पाँव के। चाटुकारिता किया हूँ, घर-दुवार छोड़ के।। अपना सारा काम छोड़ा, मंत्रीजी के प्रेम में। पीछे-पीछे मैं चला हूँ, भीड़ धक्कापेल में।। मंत्रीजी सालों तक मेरा, नाम भी पूछे नहीं। फिर भी मैं डटा रहा, धैर्य को छोड़ा नहीं।। चाय-पानी भी किया हूँ, मंत्रीजी के द्वार पर। ऐरा-गैरा समझो मत, देश के हूँ काम पर।। आत्मत्याग देखो मेरे, देशप्रेम के लिए। बच्चे घर में रो रहे हैं, नये गणवेश के लिए।। मैं तो देशप्रेम में, पिस्ता बादाम खाता हूँ । मंत्रीजी के पार्टियों में , मीट-मुर्गा खाता हूँ।। मैं शराब का आदि नही हूँ दोस्तों, मंत्रीजी की बात को काटू कैसे दोस्तों । इसलिए दो-चार घूँट, बियर मार लेता हूँ । ज्यादा नहीं हफ़्ते में, दो चार बार लेता हूँ।।

जागो हिन्दू

चलो पुनः सागर मथते हैं, चलो स्वयं को फिर गढ़ते हैं। हम तो हैं दधीचि के वंशज, चलो पुनः अस्थि घिसते हैं।। शताब्दियों की सुषुप्ता ने, तेजहीन, निष्क्रिय किया हैं । मन को ऊर्जाहीन किया हैं, तन को प्राणविहीन किया हैं ।। कड़ी दासता की रस्सी ने, आत्मा को भी जीर्ण किया हैं । चलो त्याग और कर्मठता से, पुनः आत्मशुद्धि करते हैं ।। चलो पुनः सागर… तुम हो नृप इस पूर्ण धरा के, तुम हो पालक मानवता के। परोपकार की हो परिभाषा, शौर्य, अदम्य साहस की भाषा। रोम-रोम में त्याग भरा, रुधिरधामिन में अग्नि भरा। हे वीरो अगस्त के वंशज, चलो पुनः सागर पीते हैं ।। छोड़ो क्षणिक लाभ लोलुपता, छोड़ो कल की दुख और चिंता । तुम हो आर्य भरत के वंशज, आज के हिन्दू कल के प्रजापति । हे, हे, हे, वासुदेव के वंशज, चलो दुर्योधन से लड़ते हैं चलो पुनः रण में चलते हैं चक्रव्यूह फिर से रचते हैं । जन्मभूमि, जननी के कारण, स्वयं का आहुति देते हैं ।। चलो पुनः सागर... हैं अस्तित्व आज संकट में, भारत बंट रहा हैं टुकड़ों में, माँ की आन पे आँच लग रही, वैभव पर हैं काली छाया, दुष्ट खड़े हैं घात लगाए, कुछ अपने भी हैं भरमाये। चलो रुद्र बन के ढहते हैं, रुधिर की गंगा में बहते हैं।। चलो पुनः सागर... चामुंडा के हो सुपुत्र तुम, रक्त चाट के हुए युवा तुम, बचपन में हो सिंह से खेले, इंद्र के बज्र को हो तुम झेले, मगर आज तुम क्यों डरते हो? स्वयं ही क्यों कुंठित होते हो, दिग्विजयी होकर सहते हो? चलो उठो रण को चलते हैं, हल्दीघाटी में लड़ते हैं। चलो पुनः सागर...

ऊबड़-खाबड़ जीवन

सारे जीवन भर मैं गाया, हर पल ही मैं मौज मनाया।। ऊबड़-खाबड़ मेरा जीवन, उचक-विचक के चलता आया।। कभी सही तो, कभी गलत था, कभी शांत तो, कभी खटक था।। कभी प्रेम तो, कभी कड़क था, मैं रसमय और नीरस भी था।। मेरा जीवन उथला-पुथला, हैं विचार भी, धुंधला-धुंधला।। मन में सागर के हिलकोरे, दिल और दुनियाँ को झकझोरे।। मैं इसमे ही फंस जाता हूँ , फिर दुनियाँ मे रम जाता हूँ।। सिसकी भर के ढह जाता हूँ, गाते-गाते रुक जाता हूँ... हैं कुछ उलझन दिल-दिमाग में, पाने-खोने के फिराक में ।। फिर भी सब पे चढ़ जाता हूँ, सपने लेके के बढ़ जाता हूँ। सिसकी भर के ढह जाता हूँ , गाते-गाते रुक जाता हूँ ।।

इन्तजार

इन्तजार उस दिन का इन्तजार हैं, जब हम बदल जाएंगे, वो भी बदल जाएंगे, सब कुछ बदल जाएगा हर रंग बदल जाएगा, हर रूप बदल जाएगा, हर जाति बदल जाएगा, हर धर्म बदल जाएगा, हर शक्स बदल जाऐगा, ये वक्त बदल जाएगा, उस दिन का इन्तजार हैं, जब सब कुछ बदल जाएगा ।। न कोई सीमा हो जहाँ, न कोई बंधन हो जहाँ, न नफरत की बूँ हो, न बाँटने की बात हो, न काटने की बात हो, न टूटने का भय हो, न फूटने की बात हो, न कोई कभी उदास हो, न कोई यहाँ खास हो, ऐसा जहाँ बनाएंगे, जब सब कुछ बदल जाएगा।। जहाँ जातिवत न मान हो, जहाँ ज्ञान ही आधार हो, जहाँ सब को सम्मान, जहाँ सबके हाथों में काम हो । उस दिन का इन्तजार हैं, जब हम बदल जाएंगे।

दुःख के दिन

हैं घना अंधेरा छाया सा, सूरज भी हैं शरमाया सा, हर ओर विवशता छायी हैं, दिन क्या विपत्ति की आयी ? मन डोल रहा हैं पल-पल यूं, जैसे नौका हो डोल रही, तन कांप रहा हैं थर-थर यूँ, जैसे कम्पित सारा भू, मन भाग रहा हैं इधर-उधर, जैसे तरू की फूनगी डोले, कम्पित तन हैं, कम्पित मन हैं, मुख पर हैं काले नभ डोले, पलके गिरना हैं भूल गयी, जैसे कलियों से फूल बने, दिल सोच रहा हैं रो-रो के, हैं रहा नहीं कोई अपना।। सारा दुःख मुझ पर ही क्यों हैं? भगवान भाग्य क्यों ऐसा अपना? दिन-रात समझ न आता हैं, पल लगता हैं सदियों जैसे, दुःख के डेरे में बैठा हूँ, हैं नही रस्ता और कोई, सहमा हूँ,सिसकी भर-भर के मेरा अपना हैं नहीं कोई।। इस दुःख के क्षण में हमें कोई, गर अपन कहने आ जाऐ, यदि बहुत नहीं तो थोड़ा सा, मेरे घावों को सहलाएं, बैठा ओ मेरे पास रहे, हाथों में हाथ पकड़ बोले, तुम डरों नहीं, तुम सहमों मत, हूँ साथ तुम्हारे यहीं खड़े, दुःख से क्या डरना हे प्यारे, मैं भी अब साथी हूँ तेरा, तू नहीं अकेला इस पथ में, मैं भी हूँ अब पाथी तेरा।। तू क्यों डरता हैं इस दुख से, मिलकर अब कदम बढ़ाएंगे, इस जीवन में ही हम दोनों, फिर नया सवेरा लाएंगे, दुःख नहीं कोई अविरल पथ हैं, दुःख नहीं हिमालय सा चौड़ा, दुःख नहीं अमिट, दुःख नहीं सघन, दु:ख नहीं समय सा हैं पौड़ा मिलकर हम जोर लागाएंगे, दुःख कही नहीं टिक पाऐगा मिलकर हम कदम बढ़ाएंगे, हर तरफ उजाला छायेगा।।

कमल का जीवन

कीचड़ में कमल खिलता हैं, ऐ कहना आसान हैं, दिखता वो बहुत खुश हैं, पर अंदर से परेशान हैं, जीवन कमल का ज्यादा, बिन फूल बीतता हैं। रहता जलमग्न ही हैं, जब तक न फूलता हैं।। कीचड़ में जन्म लेके, धाराओं में बहता हैं। जलचर भी नोचते हैं, दुःख बहुत ये सहता हैं।। क्या दुःख भरा हैं जीवन, ठंडक में फूलता हैं। सिसकी बहुत सी लेके, ठंडक से जूझता हैं।। कितनी अजब विधि हैं, दुखमय हैं इसका जीवन। खिलते समय भी रहता, अंधियारा इसका जीवन।। कलियों का काल भी, इसमें बहुत हैं लम्बा। खिलता हैं कई दिन में, अंधियारी रात लम्बा।। दुःख इसका और भी हैं, रहता सदा अकेला। सिर्फ एक फूल लगता, इसके तन में अलवेला।। पर जब कमल फूलता हैं, लगता बहुत ही सुन्दर। दुःख दर्द भरे जीवन में, जैसे हो सुबह सुन्दर।। भौरों के झुंड आके, करते हैं खुब स्वागत। नवगीत छेड़ते हैं, करते हैं बहुत स्वागत।। आती नयी सुबह हैं, नव किरण बहुत लेके। ठंडी हवा भी जाती हैं, झूम-झूम छु के।। रातों के ओश अब तो मोती सा हो गये हैं। कल तक थे ये काटों सा, अब गहने बन गये हैं।। चम-चम चमक रहे हैं, फूलों पे कलम के ये। पंखुड़ियों पर हैं चिपके हीरो के हार जैसे।। सूरज की किरण आके, करती इन्हें सुनेहला। मोती फिर टुट जाते, होता जब दिन दुपेहला ।। मोती का टुट जाना, हैं ज्ञान की एक धारा । इसमें भरा हुआ हैं, जीवन का सार सारा।।

मेरा पथ बहुत पथरीला था

मेरा पथ बहुत पथरीला था, मै कैसे यहां तक आ गया, चलना भी न मुझे आता था, कैसे में धावक बन गया, मेरे पैर तो कमजोर थे, पर मैं पहाड़ चढ़ गया, मै तो पड़ा था धूल में, पर कैसे मैं फूल बन गया।। अंधेरों की दुनियाँ थी मेरी, मेरे रीढ़ की हड्डी न थी, मैं डूब रहा था मझधार में, पर मैं तैराक बन गया।। मेरे हर ओर उदासी ही थी, मैं बैठा था शमशान में, शमशान की थी जिन्दगी, मैं शून्य में था जी रहा, मेरा बचपन क्या बेरहम था, खाने को भी लाले पड़े, थी गरीबी इस तरह की हम दानों के लिए लड़ पड़े ।। बीते इसी तरह जीवन के सालो-साल, मैं देखते ही देखते मैं बन गया अपने घर का लाल, ये लाल बेच के मेरी, माँ गरीबी चुका सकती थी, वो अगर चाहती तो मुझको किसी काम पे लगा सकती थी, हो सकता हैं मेरे घर की गरीबी मिट जाती, मेरी बहनों की शादी, बिन कुछ गिरवी रखे हो जाती, लाल के बिकने को, दुनियाँ ने गोटे बहुत फेंके, पर मेरी माँ ने, मुझमें कुछ और देखे ।। माँ ने कहा मैं तुझको तरासुगी, ये अपना जीवन लगा के, सवारूंगी मैं, तुझे अपना तन-मन लगाके, अगर तू हीरा हैं, तो असली चमक भी आयेगी, हैं क्या गरीबी, और क्या अमीरी समझ तुझको आयेगी।। तुम्हे अपने पे विश्वास आज से करना होगा। अपने ईश्वर की अंगुली पकड़ के चलना होगा। तुम्हारा कोई नहीं हैं, इस जहां में ईश्वर के शिवा, तुम्हें अपने ही कदमों पे खड़ा होना होगा, अगर तू दूसरों के हाथ का लाठी बनेगा, कठिनाई कितनी भी हो, फिर जीवन मूल्यों पर ही चलेगा, चमक के निकलेगा, तू एक दिन जैसे सितारा, जहाँ से फुटेगी खुशियों से भरी ज्ञान धारा, ये जो तेरा ज्ञान होगा गरीबी से लड़ेगा, समझेगा सही-गलत, तभी तू जीवन की कहानी गढे़गा।

जीवन क्या हैं?

जीवन में बहुधा हम हँसते, गाते, मौज मनाते हैं, अपने ही धुन में रहते हैं, जीवन समझ न पाते हैं, क्या जीवन पैदा होने और मरने की बीच कथा? या खाना, पीना, सो जाना, भोग और कुछ कर्म वर्था, क्या ऐ जीवन अपने को सीमित रखने के लिए बना ? या इतना प्रसारित करना जितने में आकाश तना, क्या जीवन की सीमा हो बस, कुंटुब और परिवारों तक? या फैला हो मधुर पवन सा, सब को ठंडक देने तक, क्या जीवन ठंडी, गर्मी, सुख, दुख की एक पहेली हैं ? या सारे रंगों से मिलकर बनी एक रंगोली हैं, इन प्रश्नों का हल जीवन, हर बार सभी से मांगेगा, जाने-अनजाने में, तुमसे भी राग ये ठानेगा, 'कमल' तुम्ही अब कुछ लिख दो, कैसी ये जीवन धारा हैं, दूर से अति सुन्दर लगती हैं, पर ऐ दुःख का धारा हैं, हर जीवन में सुख-दुःख हैं, परिमाण न तुम इसका पूछो, अपनी-अपनी दृष्टि हैं, तुम इस पर रेखा मत खींचो, युद्ध तो सैनिक लड़ते हैं, पर क्या सब बन जाते हैं वीर? रण आहूति सब देते हैं, पर होता हैं एक रणधीर, इसी तरह ये जीवन हैं कर्म, प्रारब्ध में बंधा हुआ, जिसको जो बनना होता रहता हैं, वो रहता हैं सधा हुआ, करते-करते कर्म वो पारंगत हो जाता हैं, इस दुनियाँ में वो अपना छाप छोड़ के जाता हैं।

जंगलों की जाति

जंगलों की जाती हूँ मैं क्या करूँ, धुप,घाम,बंजरो में हूँ पला, बाढ़ भी सहता रहा हूँ क्या करूँ, अपनी तो ये जिंदगी अनचाही हैं, भूख में सोता रहा हूँ क्या करूँ, जन्म से मैं बहुत ही नीरस रहा हूँ कांटे अपने दोस्त हैं तो क्या करूँ जंगलों की जाती हूँ मैं क्या करूँ… जब धरा ने मुझको अंकुरित किया था , तब गगन में हमको सिंचित किया था जब गगन ने चूमा मुझको पकड़ के, आँधियों ने तब सिखाया रहना जम के, इसलिए कुरूप हूँ मैं क्या करूँ, जंगलों की जाती हूँ मैं क्या करूँ…. मैं तुम्हारे जैसा उपवन से नहीं हूँ, मैं तुम्हारे जैसा कुलबन से नहीं हूँ, मैं तुम्हारे जाति का हूँ एक आवारा, जिसको प्रकृति ने दिया हैं सहारा, तुमको माली ने हैं पाला खाद दे के, मैं पला हूँ तूफानों की थाप लेके, तुम क्या जानो, जिंदगी हैं क्या झमेला, हैं तुम्हारा जिंदगी खुशियों का मेला, मैं बहुत बेढब, बहुत उखड़ा रहा हूँ, सभ्यता तुम सा नहीं मैं क्या करूँ, जंगलों की जाती हूँ मैं क्या करूँ, पर मुझे शिकवा नहीं हैं जिंदगी से, मुझको ईर्ष्या भी नहीं यूँ किसी से, मैं तो बस इस बात पे इठला रहा हूँ सोच के हंसता हूँ, मुस्कुरा रहा हूँ कांटे हो या फूल, धूप या धमेले , कस्तूरी की महक या धूलों के रेलें सब के साथ रह के गुनगुना रहा हूँ जंगली हूँ धूप धाम सह रहा हूँ , स्वलंबी हूँ स्वयं का भान हैं , जंगली हूँ इसी का अभिमान हैं , मैं किसी जैसा बनू धिक्कार हैं यही अपनी सोच हैं मैं क्या करूँ

बाधाओं से लड़ना होगा

पग-पग में पथ पर कांटे हैं, फिर भी हमको चलना होगा, बाधाओं से लड़ना होगा, कदम मिला के चलना होगा, इस जीवन की राज हैं न्यारी, सुख-दुःख की ये हैं फुलवारी, जीना तो सर्वश्रेष्ठ कला हैं, कांटे में ही फूल खिला हैं, ढूंढोगे तो सब कुछ मिलेगा, पत्थर से हीरा निकलेगा, पर इस जग में कुछ भी नहीं हैं, यदि तुममें साहस की कमी हैं, अपने को पहचानना होगा, सत्यनिष्ठ तुम्हें बनना होगा, धैर्य-धर्म अपनाना होगा, बाधाओं से लड़ना होगा, कदम मिला के चलना होगा, जब तुम अपने को जानोगे, तब तुम दुनियां पहचानोगे, सब कुछ तो तुम में ही छिपा हैं। बाहर जग में क्या रखा हैं। यदि समझो तो जग हैं सोना, न समझो तो टूटा खिलौना, स्वार्थ भरे सब रिश्तों का रथ, आशा और निराशा का पथ, तुम्हें छोड़ के बढ़ना होगा, कर्म का भाव समझना होगा, बाधाओं से लड़ना होगा, कदम मिला के चलना होगा।। सब दुर्गुण का मूल स्वार्थ हैं, अपना-पराया कहना पाप हैं, हम सब तो हैं भाई-भाई, फिर क्यों हो आपस में लड़ाई, माता-पिता हम सबके एक हैं, रूप-रंग हैं भिन्न-भिन्न, फिर भी हम सबका मूल एक हैं, इसी सत्य में रमना होगा, मानवता अपनाना होगा, बाधाओं से लड़ना होगा, कदम मिला के चलना होगा।। दीप को नहीं हैं बुझने देना, खुद को नहीं हैं रुकने देना, आशा की दीपक को जलाके, दिल में सब के प्यार जगाके, सागर और सूरज के जैसे, सबको एक समझना होगा, बाधाओं से लड़ना होगा, कदम मिलाके चलना होगा।।

मानव और माँ गंगा

तुम गंगा हो, एक डुबकी लगाने दो, तपन कई जन्मों का, मन भर के नहाने दो, तुम माँ हो, मुझको भी दुलार दो, हाँ त्रुटि ज्यादा हैं, प्यार से सुधार दो, तुम पापनाशिनी हो, मोह-मद धुल जाने दो, सुकर्म-कुकर्म जो भी हैं, इस जन्म में छूट जाने दो, तुम मनोकामिनी हो, मुझे भी आत्मीय स्पर्श दो, हृदय आकांक्षाओं को, पूर्ण हो जाने दो, तुम सुरसरि हो, मुझे भी सद्ज्ञान दो, इस धरा को फिर से, स्वर्ग का सम्मान दो, तुम अविरल धारा हो, मुझे भी अब बहने दो, अकेला जन्मों से हूँ, अब तो साथ चलने दो, तुम प्राणदायिनी हो, मुझे भी अमरत्व दो , जन्म-मृत्यु से नहीं, सेवा का निस्वार्थ भाव दो, तुम स्वर्ग की देवी हो, मुझपे एक कृपा कर दो, दशा पृथ्वी की बुरी हैं, श्री ब्रह्मा को सूचित कर दो , हाँ मैं पवित्र गंगा हूँ, मुझे कल-कल बहाने दो, हिमालय से निकली जैसी, वैसी ही पवित्र रहने दो, हाँ मुझे अविरल बहने दो, हाँ मुझे छल-छल बहने दो, हे पुत्र मैंने, भागीरथी का ऐश्वर्य हैं देखा, मैंने राम के रामत्व का गाथा हैं देखा, मैंने कृष्ण के पुरुषार्थ को धरती पे देखा, स्वर्ग से भी निर्मल मैंने भारत को देखा, तुम सब मेरे ही वंशज, मुझे भी गर्व हैं, तुम सब मेरे सुपुत्र, मुझे मान भी हैं, हाँ मैं माँ हूँ, पर मुझे स्वच्छ रहने दो, अपनी अतिमहत्वाकांक्षाएं, मुझपे मत ढहने दो, हाँ मैं पापनाशिनी हूँ, पर मुझमें जल बहने दो, कूड़ा, करकट, हाड़-मास से, अब मुझे मुक्त कर दो, हां मैं मनोकामिनी हूँ, मुझे इस धरा पे रहने दो, केवल पूजा ही नहीं, स्वतन्त्र जल भी बहने दो, हे! पुत्र स्वच्छ कर मुझे, पहले जैसा कर दो, गाती हुई चलू, मेरे बाहों में स्वच्छ जल भर दो हां मैं प्राण दायिनी हूँ, पर मुझे पुनर्जन्म दे दो, हे! पुत्र क्रूर इतने भी मत बनो, की माँ श्राप दे दूँ, अनुपम , अप्रतिम भारत को अभिशाप दे दूँ ।।

सच्चे सपनें

मेरे सपने मुझे चैन से सोने नहीं देते, दर्द दिल में बहुत हैं, पर मुझे रोने नहीं देते, करुँ मैं क्या, मै अपने जिद से हार बैठा हूँ, अपने सपनों को सच करने को बेक़रार बैठा हूँ, हैं कसमकस सपनों को लेके मेरे भी मन में , पर अपना जिद ही ऐसा हैं, मुझे रुकने नहीं देते, कई वर्षों से मैं उम्मीद के आँगन में बैठा हूँ, सतत प्रयास जारी हैं, मै अविचलित बैठा हूँ हाथ खोले मैं बैठा हूँ, आँखे बिछाये बैठा हूँ, अपनों से दूर बैठा हूँ, साधना में मैं बैठा हूँ, कभी अपना भी दिन आयेगा, चमक के चाँदनी जैसा, लोग भी मुझसे बोलेंगे, 'कमल' तो हैं हीरो जैसा, इसी उम्मीद में मैं खुद को खपाये बैठा हूँ, हरियाली मरु में लाने को हठ लगाए बैठा हूँ।

अर्थपूर्ण राम

राम रमते हैं सभी में, वे ही सबके मूल हैं। जीवन उनका हैं अतुलनीय, वे ही सब के लक्ष्य हैं।। श्रीराम को जपना और गाना बड़ा ही सुगम हैं। उनका पूजा, आरती, जयकार भी सरल हैं।। लेकिन उनके जीवन मूल्यों को समझना हैं कठिन। उनके ध्येय और धैर्य का निष्कर्ष पाना हैं कठिन।। राम का आदर्श ही, राम का अवशेष हैं । राम का रामत्व ही, राम का सन्देश हैं ।। सत्यनिष्ठा, कर्मनिष्ठा श्रीराम का अस्तित्व हैं।। तप, त्याग, वचननिष्ठा श्रीराम का पर्याय हैं। विषम परिस्थितियों में बढ़ना श्रीराम का अनुयाय हैं ।। हैं कोई इस जगमें और, जो श्रीराम सा धर्मनिष्ठ हो? चारों दिशा, सब काल और त्रिलोक में अभीष्ट हो? श्रीराम का जीवन सदा संघर्ष में डूबा रहा। दुःख, बिछोह, घृणा और अनहोनी में बहता रहा।। अतुलनीय साम्राज्य और वैभव को छोड़ा बात पे। पितृ प्रेम को भी त्यागा धर्म के संधान पे।। पल में छोड़ा राज भवन, पल में छोड़ा राजसी। पल में तोडा माँ का मोह, धर्म के ही नाम पे ।। वनो में बन के तपस्वी, दीनो को अपना कहा। छुआ-छूत भूल के भीलों को बाँहों में भरा।। चाहते तो राज्य लंका को मिलाते अवध में। यदि अधिक नहीं तो, कर ही लगाते लंका पे।। पर जीवन मूल्यों को, श्रीराम ने पोषित किया । विषमता में श्रीराम ने, मानवता को ऊर्जित किया ।। स्वर्ग सा वैभव क्षणों में कौन त्याग सकता हैं ? तिनके से भी तुच्छ राजगद्दी को, कौन समझ सकता हैं ? श्री राम-सीता राम हैं, वे सब के परम धाम हैं……

कुछ बन जाऊँ

कल की ही बात हैं, मैं जब घर से निकला था कुछ बनने। मगर अब समझ आया, बहुत कुछ मैं खो चुका हूँ ।। मनमें उत्साह था, रगों में नव रक्त कणिका। दिल में जज्बात था, कुछ बनके दिखाने का।। कड़े संघर्ष के पथ में, मैं जीवन क्या हैं भूल बैठा ? लक्ष्य के पाने के लिए, मैं सब कुछ भूल बैठा।। मुझे ऐसा लगा था, सफलता से मैं सब कुछ खरीद लूंगा।। मगर मैं गलत था, आज बहुत कुछ हाथ में नहीं।। समय को निकलना था, समय निकल गया। मुट्ठी में रेत था, कण-कण करके बिखर गया।। मलाल इस बात का हैं, मैं जीवन को समझा ही नहीं। जीवन के सार्थकता और सफलता में अन्तर को समझा हीनहीं, दूसरों के वाह-वाही में, मैं स्वयं को समझा ही नहीं।। जीवन को जिद, अहम को धंधा बनाए मैंने । झूठे मान-मर्यादा के लिया, सब कुछ गंवाया मैंने।। टूटते दिल, छूटते दोस्तों और परिवार का न ख्याल किया। अहम इतना बढ़ गया की, खुद को मैं बरबाद किया।। जमाने के लिए मैं, आज सफल हूँ यारों। मगर भीतर अकेला, और बेबस हूँ यारों।।

भारत के पर्व-त्यौहार

भाग- १ पूर्वजों का चिन्ह हैं, भारत के त्यौहार सब। पूर्वजों को नमन कर, कुछ विचारें हम सब।। अतिपुरातन सभ्यता का, आओ अवलोकन करें। राम, कृष्ण से पुरानी, सभ्यता जीवित करें ।। हम मनाते क्यों दीवाली, इसपे भी मंथन करें। दीवाली के तत्व पर, आओ कुछ चिंतन करें।। श्रीराम और काली के, कर्तव्यों की ये गाथा हैं । दुष्टों के निर्मूलन का, ये यशस्वी गाथा हैं ।। दीवाली पर दीपमालिका, आत्म प्रकाश का तत्व हैं। स्वयं के अवलोकन का, ये पुरातन कृत्य हैं ।। दीपों के प्रज्वलन का अर्थ, हृदय में उजियारे से हैं। दीप प्रज्वलन का तत्व, आध्यात्मिक उन्नत से हैं ।। दीप जलता हैं कहिं तो, अंधकार मिटता हैं । एक छोटा सा दीप, सघन तिमिर से लड़ता हैं ।। दीप बुझ सकता हैं, लाखों विघ्न के आने से। आत्म प्रकाशित होगा तो, जग ही बदल जायेगा ।। भाग-२ दीपों का हैं मिलन दीवाली, दीपों का ये हैं संगम। दिल में प्रेम का दीप जला के, दूर करो सारे गम ।। हर घर के कोने-कोने में, दीपमालिका हैं उत्तम। स्वजनों के संग खुशी मनाना, ये भी हैं अति उत्तम ।। पर दीवाली रहे अधूरी, जबतक हृदय कलुषित हैं। आत्मशोधन, आत्मउन्नति का, ये सबसे उत्तम दिन हैं।। ये तिथि आत्मोलोकन का हैं, ये दिन स्वयं को गढ़ने का। भूल के अपना और पराया, सबको ऊर्जित करने का ।। दीप जलाओ दिल के भीतर, कोना कोई न काला हो। अपनाओ हर दबे-कुचले को, जिसका कोई न अपना हो ।। मन की कटुता, ईर्ष्या छोड़ के, प्रेमभाव को फैलाओ। किसी गरीब के कुटी में जा के, एक दीपक जलाओगे ।। भाग -३ कलियुग के प्रभाव में, सब कुछ बदल रहा हैं। प्रतिस्पर्धा और कुप्रभाव में, हिन्दू सदकृत लुप्त हो रहा हैं ।। सनातनी सदपरंपरा, क्षय होने को हैं। मूल तीज-त्यौहार सभी, आज मिटने को हैं।। था विचार चिरपुरातन, हर पर्व के पीछे। भोग नहीं, तप, त्याग, छिपा था पर्व-त्यौहार के पीछे।। हर्षोल्लास और मादकता, न सनातनी हैं । परम्परा वो पुरखों का कब भोगमयी हैं ? हम हिन्दू का भोग भी, सुख देने वाला था। सनातनी का हर कर्म, त्याग से भरा हुआ था।। ज्ञान से परिपूर्ण हर कर्म, धर्म के मूल से प्लावित था ।

मन का निर्णय

मन में कई गांठ हैं, मन में हैं आनंद भी। हृदय में करुणा-प्रेम भी, हैं कई दीवार भी।। स्वयं ही निर्णय करो, कौन सा जागृत रहे ईर्ष्या, घृणा और जलन, यदि किसी ने हैं दिया। प्रेम भावना के बदले, तिरस्कार हैं दिया।। फिर भी दुख के साथ जीना, स्वयं पर अन्याय हैं, स्वयं का ही हानि हैं ।। घृणा स्वयं को जलाती, बेदना तड़पाती हैं। ईर्ष्या नीचता की सीमा, तक हमें पहुँचाती हैं। किसी से उम्मीद ज्यादा, हृदय छेद जाती हैं।। इसलिये आनंद में, स्वयं को संचित करो, स्वयं को प्रज्वलित करो, आशा छोड़ो औरों से, क्यों न कितना प्रिय हो। उनसे दूर ही रहो, जो तुम्हे समझें नहीं।।

स्वार्थ ही संसार हैं

जब तक स्वार्थ सभी हैं साथी, सायंकाल अकेला होगा। इसलिये सिखों अकेले चलना, अंतिम राह अकेला होगा।। कोई नहीं तेरा हैं मनुआ, तू भी नहीं किसी का प्यारे। मनमें क्यों भ्रम पाल के बैठा, कुछ भी नहीं हाथ में प्यारे।। तुझको स्वयं में रमना होगा। लिया-दिया जो था कल तुमने, उसे आज ही भरना होगा।। जन्म-जन्म के कर्मों का फल, हर प्राणी को भरना होगा। खेल निराला हैं जीवन का, सुख-दुःख हमको सहना होगा।। जब तक स्वार्थ सभी हैं, साथी, सायंकाल अकेला होगा। इसलिये सिखों अकेले चलना, अंतिम राह अकेला होगा।।

मेरी अभिलाषा

सुख-दुःख में अन्तर ही पाऊँ, पर अभिलाषा ये हैं मेरे, एकदिन मुक्त जीव बन जाऊँ।। दुःख में सुख ढूंढो तो जानूं, सुख-दुःख एक समझो तो मानूं।। आत्मा शास्वत, समय पुरातन, कोटि-कोटि जन्मों का बंधन, सब बंधन तोड़ो तो जानूं, तन-मन एक करो तो मानूं ।। जीवन हैं एक अविरल धारा, पर न छोर, न कोई किनारा। बहना कर्म हैं, बहता जाऊँ, थाह नहीं ये किधर को जाऊँ ।। कहाँ से चला, कहाँ मैं जाऊँ? कुछ भी तो मैं समझ न पाऊँ । जन्मों का कर्तव्य लिए मैं, अधिकारों में उलझा जाऊँ ।। स्वयं को ही मैं टटोल रहा हूँ, कर्तव्यों से तौल रहा हूँ । अधिकारों का बंधन कुण्डित, कर्तव्यों से तोड़ रहा हूँ।। अधिकारों का उलझन हर पल, कर्तव्यों से टकराता हैं। कृत्य-अकृत्य का भेद मिटा के, आत्मा को जर्जर करता हैं।। सुख-दुःख में अन्तर ही पाऊँ, पर अभिलाषा ये हैं मेरे, एक दिन मुक्त जीव बन जाऊँ ।।

मानवता का अंकुरण

स्वयं से लड़ते रहो, संघर्ष जब तक 'मैं' से हो। स्वयं को गढ़ते रहो, सांसों की डोर जब तक हो।। स्वयं में त्रुटि दिखे ना, चोर तब तक तुम ही हो। दूसरों की बात छोड़ो, त्रुटिपूर्ण तुम ही हो।। हैं कई संघर्ष बाहर, उसपे ध्यान मत दो तुम। हैं कई आश्चर्य भव में, उसपे कान मत दो तुम।। हैं कई अनसुलझी बातें, जीवन भी एक खेल हैं। इसलिए अपने को साधो, सब कुछ यहाँ बे-मेल हैं।। आत्मचिंतन से करो, इस आत्मा की उन्नति। आत्ममंथन से करो, क्या हैं अपनी विसंगति? आत्मचिंतन की ये राह, अन्तःकरण को जाती हैं। स्वयं में त्रुटि ही त्रुटि, खोज के ले आती हैं।। त्रुटियों का शोधन करके, स्वयं का शोधन करो । भूल, कुकर्म जो हुआ हैं, पश्चाताप से भरो।। मन को ऐसे साधो की, इन्द्रियों पर अधिकार हो। प्राण भी हिलने न पाये, मन का ये वर्चस्व हो।। मन को इतना ताड़ दो, तन-मन का भेद शून्य हो। धर्म की डोरी उठा के, कर्म का संधान हो।।

आज के रिस्तेदार

मेरे भी कुछ संग-साथी हैं, जो सब कुछ अजब सुनाते हैं। जूतों का ब्रैंड बताते हैं, बिसलेरी बोतल दिखलाते हैं।। पीता नहीं मैं, नल का पानी, आतिथ्य को भी बतलाते हैं। अपनी लम्बी-चौड़ी बातें, हरपल सब को समझाते हैं।। मेरे भी कुछ संग-साथी हैं..... मेरे घर जब ओ आते हैं, पानी का बोतल लाते हैं। मेरे भी ऐसे साथी हैं, जो शर्ट का ब्रैंड बताते हैं ।। इस बात में मुझको संशय हैं, की वो मेरे रिश्तों में हैं। पर हैं समाज का डर भारी, तो कहने को ओ अपने हैं।। जीवन का खेल निराला हैं, मैं उनको अपना कहता हूँ। कुछ मर्यादा हैं, हे! मेरे भाई, मैं उनको हाँ, हाँ करता हूँ।। मेरे भी कुछ संग-साथी हैं.....

करते रहो दो-चार

बातों का क्या बात हैं, बातें करो हज़ार। कुछ तो लगना हैं नहीं, करते रहो दो-चार।। करते रहो दो-चार, डरो न जरा भी प्यारे। क्या कर लेगा कोई, जब हो बातों के सहारे।। झूठी कर तारीफ, अपना काम बनाओ । बातों से अमृत वर्षा के, सबको फुसलाओ ।। सबके हाँ में हाँ करो, झूठी दो उत्साह। गुमें के भी पेड़ को, बोलो शीशम थाह।। सबको बोलो तुम हो अच्छे, सबसे लायकदार। तुम हो दुनियाँ में अलबेले, सुन्दर ईमानदार।। बातों से सेवा करो, बातों से सम्मान। बातों में कहते रहो, देदेंगे हम प्राण ।। देदेंगे हम प्राण , तुम्हारे नाम पे प्यारे। तुम कूदो मझधार में, हम हैं खड़े किनारे।।

अभिमान

हैं तुम्हें अभिमान क्या मुझको बताओ? इस जगत में क्या तुम्हारा कुछ सुनाओ।। तन जो लेके घूमते हो गर्व से तुम। मन जो लेके घूमते हो मर्म से तुम।। ज्ञान-धन का जो आडंबर लिए हो। दो दिनों का रूप-यौवन जो लिए हो।। कैसे हैं ये सब तुम्हारा ये समझो? लेके आए थे कहाँ से ये बताओ? पूर्व में ये था नहीं, न कल रहेगा, आज ही ये दिख रहा, फिर क्यों तुम्हारा ? सुंदर सा तन लेके, जो तुम डोलते हो। मन और बुद्धि के मिश्रण से, जो बोलते हो।। क्या बताओगे कहाँ से हो खरीदे? यदि नहीं तो, फिर ये कैसे तुम्हारा? मांस, मज्जा, रक्त, अस्थि माँ ने तुमको दान की। जीवन के स्फूलिंग कण को पिता ने अभिदान की।। बोलना, चलना, बैठना, सीखे हो परिवार से। लोकरंजन, लोकभंजन सीखे हो समाज से।। फिर कौन सा अहम हैं मुझको बताओ? क्या किया तुमने स्वयं से ये सुनाओ? मूर्ख हो अभिमान में तुम जल रहे हो। इसलिए ये मेरा-तेरा कर रहे हो ।। सत्य तो ये हैं हमारा कुछ नहीं हैं, सृष्टि का नियंता संचालक कोई और ही हैं। हाँ क्षणिक तारों सा जीवन हैं हमारा। हैं प्रकाश जिसमें सूरज का सारा।।

गाँवों की पगडंडी

गाँवो में पगडंडी स्वतः बनता हैं, लोगों के चलने से, एक साथ कदम बढ़ाने से, कंकड़ों को टालते रहने से, घासों को कुचलने से, हर दिन, हर बार, उसी पथ को कुचलने से, वँहा लोग ये नहीं सोचते की, मैं इस रस्ते पर क्यूँ चलूँ ? लोग एक ही रस्ते पर चलते हैं, आगे-पीछे पाँव रखते हैं, सुख-दुःख का बात करते हैं, रास्ता दिनों-दिन सुदृढ़ होता रहता हैं, और एक दिन गांव का पहचान बन जाता हैं ।। हाँ आधुनिक लोग, शहरों के वासी, पढ़े-लिखे लोगो को, ये सब वेडब, गंवारू और अज्ञानता लगेगा ! आज के बुद्धिजीवियों को इसमें कुछ न दिखेगा। वे अपनी शान में, झूठे अभिमान में, जो सच में भारत हैं , उसको झुठलाते हैं, दो चार डॉलर के लिए, आर्य और द्रविड़ सिद्धांत फैलाते हैं।। पर वास्तव में ये पगडंडियां, बहुत कुछ कहती हैं। अगर समझना चाहो तो ! आंखों से नहीं, हृदय से देखना चाहो तो! उनको अपनाना चाहो तो ! उनसे कुछ सीखना चाहो तो! पगडंडी कहती हैं, हे मेरे प्यारे, जीना सीखो, एक-दूसरे के सहारे, यदि साथ मिलके सुख-दुःख सहोगेँ, पीछे वाले को भी, जब आगे करोगे, तब ही तो, जाके पूर्ण होगा जीवन, पथिक को जाना कहा हैं पहिचानो, पगडंडी के अंतिम बिंदु को जानो।

अकेलापन और बुलंदी

गांव के बेडौल पगडंडी का दर्शन पहिचानो ।। बुलंदी पर पहुँचने पर लोग, जय-जय तो करते हैं। मगर पूछो मेरे दिल से, ये सौदा कितना महंगा हैं।। दौड़ में जब हुआ शामिल, बुलंदी पर पहुँचने को। स्वयं को बेच बैठा था, मंजिल तक पहुँचने को।। रात-दिन किस तरह गुजरा, कोई परवा नहीं मुझको। मगर जो सपने टूटे हैं, उसी का घाव हैं दिल पर।। अकेलापन, निराशा, बेबसी का बात मत छेड़ो, घाव को कुरेद के उसपे, आज फिर नमक मत डालो ।। आज तुमको मेरे घर में, जो शानो-शौकत दिखता हैं। मेरे चारों तरफ तुमको जो, ये शोहरत, दौलत दिखता हैं।। इसे पाने को मैंने अपने को, वस्तु बना डाला। रात-दिन जग के मैंने जीवन को, एक जिद बना डाला।। इसी एक सपने के कारण, लाखों सपनों को छोड़ा हूँ।। बुलंदी तक पहुंचने को, कई अपनों को छोड़ा हूँ।। गाँव भी भूल बैठा था, तीज-त्यौहार तो छोड़ो ।। घर को भूल बैठा था, बचपन के दोस्त तो छोड़ो।। बात मैं क्या कहूँ उसकी, जो मुझपे जान देती थी। मेरे हर बात को जो बिन कहे, सब जान लेती थी।। उसे भी रास्ते में छोड़ के, आगे बढ़ा हूँ मैं। उसी के बात को लेके, बुलंदी पे चढ़ा हूँ मैं ।। कठिन था रास्ता, लेकिन दिलों पे पैर रखा हूँ । अपने दिल को मरोड़ा हूँ, उसका विश्वास तोड़ा हूँ ।। मुझे एहसास हैं गलती मेरी, पर कुछ कर नही सकता। चाह के भी, आज मैं उससे मिल नहीं सकता।।

सेमल का फूल

आया जेष्ठ-वैशाख का गर्मी, सेमल पर पतझड़ आया। उसके अपने बच्चों ने ही, उसपे दुःख हैं बरसाया।। गर्मी, धूल-धूप से डरके, सेमल फूल जब थर्राया। सोचा चलो छोड़ इस तरु को, दुःख इसने ही हैं ढाया।। इसी द्वन्द में छोड़ डाल को, फूलों ने कुट को छोड़ा। क्षणिक शांति और सुख के कारण, अपने जड़ को ही छोड़ा।। फूल बिखर के रुई बन गया, रूई के रेशे हुए जवान। फुर-फुर कर के उड़े हवा में, जैसे हो नभ में खलिहान।। छोड़ के डाली को फूलों ने, पवन के झोंको पर चढ़ के । इठलाते, इतराते, उड़ते, चले गगन में उड़-उड़ के।। खुली हवा में सांस लिए तो, फूलों का सीना फूला। नीरस था वो तरु जो छोड़ा, सोच के उनका मन झूला।। लेकिन ये सुख और मौज था, केवल क्षण दो क्षण का। रोना था उनको जीवन भर, ये स्वतंत्रता था भ्रम का।। ज्यों ही हवा ने पैर सिकोड़ा, रुई के रेशे हुए अनाथ। गिरे धरा पर सिकुड़-बटुर के, छूट गया अपनों का साथ।। छूटा साथ जब अपनो का, मिट्टी कीचड़ ने लिया दबोच। पैरों के धूलि के नीचे, करते रहे अस्तित्व का बोध।।

‘कमल’ का चिंतन

हे मन तू चुप बैठें के, कर ले मनन हजार। काया तो प्रति दिन गले, फिर क्यों मोह अपार।। १ मेरा तेरा तू करे, करता क्यों न विचार। दादा तेरे अब कहाँ, थी सम्पदा अपार।। २ माया ठगनी हैं बहुत, ठगती सब को रोज। साँप घुसे बिल मूस के, करे अनोखा भोज।। ३ प्राण पखेरू उड़ गये, क्यों करता हैं शोक। खग उड़ता इस डाल से, जा बैठा उस कोख़।। ४ हैं पतंग सी जिंदगी, उड़ ले सोच-विचार। जब डोरी नप जाएंगी,तू जायेगा हार।। ५ हे मन मूरख सोच तू, कहाँ हैं राजा राम? हरिश्चन्द्र गये कहाँ, कहाँ गये घनश्याम? ६ मनवा छल-बल खूब करे, दिनभर करे विचार। ये दुनियाँ हैं आपनी, सब हैं अपने यार।। ७

‘कमल’ के मुक्तक

‘कमल’ कहें बैठे रहो, राम भरोसा टेक। सबके पालन हार प्रभु, करेंगे जो हो नेक।।१ राम रमैया गाने से, होगा काया कल्प। हे मन सीता-राम भज, छोड़ के सब संकल्प।।२ धन संपदा हैं बोझ सा, माया ठगिनि साँप। दूध पिलाओ जितने, विष बढ़ता हैं चाप।।३ ज्ञान बिना ब्राह्मण कौन, त्याग बिना वैराग्य। मन शुद्धि बिना भाव क्या, योग बिना गृह त्याग।।४ चेहरा मन का दर्पण हैं, बोली हैं परछाईं। जो सब मे खोजें कमी, वो सबमें निम्नाइ।।५ यह तन सुंदर मंदिरा, मन दीपक का तेल। कर्म फल से बाती भरा, आत्मा अग्नि का मेल।।६ मनवा जाने सब कथा, वेद पुराण अनेक। चर्चा दिन भर खूब करे, पर न माने ऐक।।७ लोभी मैं हूँ, आप भी, लोभी हैं संसार। लोभ जो हरि-हर में लगें, खुले वैकुंठ का द्वार।।८

चैतन्यता

रावण से संघर्ष नहीं अब, स्वयं के दम्भ से लड़ना हैं। राम ने रावण को मारा था, आज स्वयं से लड़ना हैं। आज तो सीता घर-घर में, बंधक बना के रहती हैं। रावण ने सिर्फ हरण किया था, हम कुकर्म भी करते हैं। राम और रावण के युग में, धर्म-अधर्म का युद्ध हुआ। लेकिन आज का युग हैं काला, राम का नाम भी पाप हुआ। राम का वो रामात्व जगाओ, स्वयं का बेड़ा पार करो। घर-घर में रामायण गा के, तन-मन का रावण नाश करो।।

अस्तित्व की लड़ाई

ऐ जीवन और कुछ नहीं, अस्तित्व की लड़ाई, सतत् संघर्ष चलता हैं, अपने अस्तित्व के लिए। चर, अचर, भूचर, जलचर, या कोई और हो इस संसार में, लड़ता रहता हैं अपने अस्तित्व के लिए, तुम देख सकते हो पीपल सदा, छोटे पौधों को उगने नहीं देता। जैसे कोई राजा अपने को, किसी के सामने झुकने नहीं देता। ऐसा नहीं छोटे पौधों में बढ़ने की चाह नहीं होता, ऐसा नहीं की उनमें फलने-फूलने की आह नहीं होता, पर क्या करे किया वो बेचारा, पीपल से टकरा तो नहीं सकता। और उसका अस्तित्व,पीपल के अहम को कुचल भी नहीं पाता, कभी सोचो कुछ मांगने पे गैरों से, आत्मा अपनी रोती क्यों हैं ? मगर कुछ देने पर प्रफुल्लित क्यों होता हैं? अगर तुम छोटे बच्चें के साथ दौड़ना चाहो, नन्हे-मुन्हे बालक के साथ, झूठ-मुठ का प्रतिअस्पर्धा चाहो, अगर तुम भी तुतला के उससे, कुछ बोलना चाहो, दौड़ के वो तुम्हें पीछे, छोड़ने की कोशिश करता हैं, यदि बहुत साफ नहीं, तो तुतला-चिल्ला के, वो बात करने की कोशिश करता हैं, यही हैं जिन्दगी, अपने को सिद्ध करना पड़ता हैं, कठिन कितना भी हो रास्ता, अपने अस्तित्व के लिए लड़ना पड़ता हैं, कदम-कदम पर ‘कमल’ अस्तित्व की लड़ाई हैं, ये दुनियाँ देखने में बहुत सुंदर हैं, पर असलियत में, सभी के बीच में एक बहुत बड़ी खाई हैं

आत्म मंथन

आत्म मंथन हैं ज़रूरी, सबको करना चाहिये। आत्म शुद्धि के लिये, आत्म चिंतन चाहिये ॥ क्या किया हमने अभी तक? इसका हिसाब चाहिये । दूसरों से नहीं, खुद से जवाब चाहिये ॥ अपने मन का जोड़, हृदय से बनना चाहिये । बाह्य जीवन से निकल के, आत्मचिंतन चाहिये ॥ मन होता हैं प्रफुल्लित,आत्मचिंतन करने से । स्वच्छ हृदय के लिये, आत्ममंथन चाहिए ॥ क्या किया हैं भूत में? जाके पीछे झाँक लो । थी प्रवृति क्या तुम्हारी? स्वयं से ही पूँछ लो ॥ यदि किया कुछ भी गलत, उसको तुम सुधार लो । चिन्ता नही, चिंतन से अपने को निखार लो ॥ हो गया जो भी गलत, उसकी पुनरावृति न हो । अपने को साधो की, फ़िर ऐसी गलती न हो ॥ आत्मावलोकन से तुम्हे, सब कुछ मिलेगा सत्य ही । सत्य, शुद्ध,सत्य ही, कड़वाहट भरा सत्य भी ॥ आत्म मंथन जो करेगा, वो रहेगा सत्य में । दम्भ, अहंकार, ईर्ष्या से परे, बस शांति में ॥ आत्ममंथन के लिये, सतत् प्रयास चाहिये । शांतचित्त में बैठने का, योगाभ्यास चाहिये ॥ आत्ममंथन के लिये, एकांत वास चाहिये । जैसे मछली के लिये, जल का निवास चाहिये ॥

जागो, उठो, चलो रे साथी

जागो, उठो, चलो रे साथी । तुम्हें बुलाता तेरा पाथी।। अपने मन को मुक्त बनाके, सांसो में चिंगारी भरके, पैरों की बेड़ियां खोलके, आत्मभाव में उल्लासित हो, बढ़ो, चलो आगे को साथी, जागो, उठो, चलो रे साथी … जग के सब जंजाल तोड़के, कल के दुःख-चिंता को छोड़के, मोह के बंधन कुंठा तोड़के, अपने को अग्नि में झोंकने, अहम का आहुति दो साथी, जागो, उठो, चलो रे साथी … माना एक दीपक जलने से, माना बस तेरे चलने से, अंधकार न मिटने वाली, दुनियाँ नहीं बदलने वाली, पर तेरा कर्तव्य हैं चलना, सत्य के पथ पर आगे बढ़ना, तू बढ़ता जा मेरे साथी, जागो, उठो, चलो रे साथी … अंधकार से लड़ता जा तू, स्वयं को सिद्ध बनाता जा तू, अंगारो पे चलता जा तू, अपने लक्ष्य को देख रे साथी, जागो, उठो, चलो रे साथी … मरने का भय मत रख प्यारे, जीना बस कुछ दिन के सहारे, सांसो का क्या गिनती करना, बिलख-बिलख कर क्या हैं मरना? लक्ष्य समर्पित हो जा साथी, जागो, उठो, चलो रे साथी … अपयश और अभाव, दरिद्रता, जीवन में यदि न हो निष्ठा, भावुकता यदि मन में न हो, फिर क्या जीना मेरे साथी ? जागो, उठो, चलो रे साथी … कर्म ही जीवन, कर्म ही जीना, उल्लासित मन जैसे मीना, दुःख-सुख तो हैं आना-जाना, फूलों सा जीवन क्या पाना, तालाबों का गंदा पानी, नदियों से सा बहता जा साथी, जागो, उठो, चलो रे साथी। तुम्हें बुलाता तेरा पाथी।।