अमीरी रेखा (कविता संग्रह) : कुमार अंबुज
Amiri Rekha : Kumar Ambuj


यहाँ तक आते हुए

जैसे एक दोपहर की चमक घास कपास नमक मेरे पास अभी भी हैं इतनी नन्ही और नाजुक चीजें जिन्हें न तो युद्ध के ज़रिये बचा सकता हूँ और न ही शास्त्रार्थ से शायद उन्हें ज़िद से बचाया जा सकता है या फिर आँसूओं से छोटी-सी आज़ादी के लिए यही एक प्रस्तावना है लेकिन सिद्ध करने के लिए मेरे पास कुछ नहीं न ही कोई ऐसी जगह जहाँ लगाई जा सके पताका मेरे पास केवल मेरा यह जीवन है जो जहाँ है जैसा है वैसा है मैं एक अयाचित परछाईं अपने होने के स्वप्न की स्वप्न वह जीवन जिसे मैं जी नहीं पाया और इस असफलता का दुख यहीं छोड़ते हुए एक और सपने के साथ बढ़ना चाहता हूँ आगे जैसे मैं एक लहर हूँ, एक पत्ता और हवा की आवाज़ शब्दों की नमी कहती है, बारिश हो रही है पास में कहीं परिजनों का जीवन बचाते हुए एक दिन मेरे गले में मेरे संवाद नहीं थे मेरी क्रियाओं में शामिल नहीं थीं मेरी इच्छाएँ और फिर इस बात ने भी रास्तों को दुर्गम बनाया कि जिन्हें करता था प्यार उनके विचारों का नहीं कर पाया सम्मान फिर भी यहाँ तक चले आने में सिर्फ मेरे ही क़दम शामिल नहीं हुए, धन्यवाद कि पास में ही कई लोग चलते रहे मेरी भाषा बोलते अँधेरे में भरते हुए आवाज़ों का प्रकाश कददू की बेल, कत्थई मैदान, अमावस की रात चींटी, एक सिसकी, एक शब्द और एक बच्चे ने मुझे बार-बार अपना बनाया इन्हीं सबके बीच माँगता रहा कल तीन चीजें- पीने का पानी, आज़ादी और न्याय हालाँकि कई कोने कई जगहें ऐसी भी रहीं जहाँ नहीं पहुँच सके मेरी कोशिशों के हाथ लेकिन समुद्र की आवाज़ मुझ तक पहुँचती रही करोड़ों मील दूर से चल कर आती रही सूर्य की किरण मैंने देखा एक स्त्री ने अपने तंग दिनों में भी एक जन को कहीं और नहीं पहले अपनी आत्मा में और फिर अपने ही गर्भ में जगह दी इन बातों ने मुझे बहत आभारी बनाया और जीवन जीने का सलीक़ा सिखाया यह ठीक है कि कई चीज़ों को मैं उतनी देर ठिठक कर नहीं देख सका जितनी देर तक के लिए वे एक मनुष्य से आशा करती थीं कई अवसरों को भी मैंने खो दिया मैं उम्मीद में गुनगुनाता आदमी था धनुर्धारी नहीं मेरे पास जीवन एक ही था और वह भी ग़लतियों चूकों और नाकामियों से भरा लेकिन उसी जीवन के भीतर से आती थीं कुछ करते रहने की आवाजें भी कितना काम करना था कह नहीं सकता कितना कर पाया इतना तो ज़रूर ही हुआ कि मैं अपनी ग़लतियों से भी पहचान में आया।

जिन्हें तुम धन्यवाद देना चाहते हो

फिर न वह पेड़ वैसा बचता है और न वैसी रात आती है न ओंठ रहते हैं और न पंखुरियाँ रूपकों और उपमाओं के अर्थ ध्वनित नहीं हो सकते कार्तिक जा चुका है और ये पौष की रातें हैं जिनसे सामना है जीवन में रोज़ ऐसा होता है कि कृतज्ञता ज्ञापित कर सकने के क्षण में हम सिर्फ अचंभित रह जाते हैं और फिर वक्त निकल जाता है बाद में तुम पाते हो कि वे आदमी और जगहें ध्वस्त हो चुकी हैं या इतनी बदल गई हैं कि उन्हें धन्यवाद देना किसी अजनबी से कुछ कहना होगा लेकिन इससे हमारे भीतर बसा आभार और उसका वज़न कम नहीं हो जाता एक निगाह, एक हाथ और एक शब्द ने यहाँ तक जीवित चले आने में हर एक की मदद की है और इतने अचरज हमारे साथ हैं कि दुनिया में स्वाद है धन्यवाद न दे सकने की कसक भी साथ चली आती है जो घेर लेती है किसी मौसम में या टूटी नींद में जिन्हें तुम धन्यवाद देना चाहते हो उन्हें अब खोजना भी मुश्किल है और जो सामने हैं उनके बरअक्स तुम फिर अचकचाये या सकुचाये खड़े रहते हो हालाँकि कई चीजें तुम्हारी भाषा नहीं समझतीं पतझड़, झरने, चाय की दुकान और अस्पताल की बैंच लेकिन उनसे तुम्हारा बर्ताव ही बताएगा कि तुम आखिर कहना क्या चाहते हो शायद इसलिए ही कभी सोच समझकर या अनायास ही तुम उनके कंधे पर अपना सिर रख देते हो।

गिरते उड़ते पत्ते

इसमें अचरज और स्मृतियों का दोहराव है कि दृश्य में अब सिर्फ पत्ते उड़ रहे हैं : पीले, भूरे, सूखे, मद्धिम हरे गिरते हए पत्ते किसी का इंतज़ार नहीं करते हालाँकि हमें लगता है वे हमारी ही प्रतीक्षा में थे और हमें देखते ही उन्होंने गिरना-उड़ना शुरू कर दिया है वे उड़ रहे हैं जैसे बच्चे मैदान में, गलियों में, सड़कों पर दौड़ते-भागते हैं गिरते-पड़ते, धकियाते, आगे निकलते, शोर करते, सीटी बजाते सब तरफ़ उनके उड़ने का संगीत है असीम दूरी तक उड़ते चले जाने और पलटकर देखने की हार्दिकता है इसमें पुनरावृत्ति है लेकिन सुंदरता और दुख चरमराहट और उम्मीद है वे नींद में गिरते हैं और स्वप्नों को भरते हैं अपनी उड़ान से उड़ते ही चले जाते हैं डाली से टूटे हुए पत्ते कहीं अटका हुआ कोई पत्ता खड़खड़ाता है पानी किनारे के पेड़ों के पत्ते अपनी छाया के साथ एक सूखते हुए से आईने में गिरते हैं और कई बार तो सिर्फ किसी गहराई में अंधों की तरह गिरते हैं सड़क किनारों के पत्ते घर किनारे के वृक्ष के पत्ते गिरते हैं घर के लोगों की तरह छतों पर, आँगन में, सीढ़ियों पर, जब हम सो रहे होते हैं जो गिरते उड़ते पत्तों को देखकर विकल नहीं होते थम नहीं जाते पत्ते उन्हें भी देखकर कुछ सोचते हुए से ठिठकते हैं और फिर हवा उन्हें उड़ा ले जाती है।

घास बनकर भी चैन नहीं

आज रात मैं मोजार्ट को सुनना चाहता था और मल्लिकार्जुन मंसूर को या इस अँधेरी रात को जिसमें आवाज़ों का एक विशाल घर है मनुष्य को बचाती है उसकी आदिम प्रकृति फिर उस पर एक सुबह गिरती है ओस कुछ उड़ती पत्तियाँ ठहरती हैं उसके कंधों पर वह कायान्तरित हो जाता है घास में वहाँ उसे मिलते हैं छोटे-छोटे फूल, चीटियाँ और गुबरैले इस तरह इस जिंदगी में भी वह अकेला और उदास नहीं रहता वह घास बनकर भी गुज़ार सकता था चैन से जीवन मगर घास पर लगातार टपकता है खून भगदड़ में दब गये हैं चींटियाँ और फूल गुबरैलों का पता नहीं क्या हुआ और घास बनकर भी चैन नहीं मैं एक टूटा-फूटा मनुष्य जो अपनी मरम्मत के लिए सुनना चाहता था संगीत या अँधेरी रात की अनाम आवाज़ों में कुछ देर रहना चाहता था अब यहाँ घास के मैदान में हूँ जिस पर खून के रंग की ओस गिरती है जो सुबह की रोशनी में कुछ अजीब ढंग से चमकती है।

रचना प्रक्रिया

अमावस्या के दिन सुबह से ही तारों का वैभव दिखता है जैसे पूर्णिमा का चाँद दिखना शुरू होता है द्वादशी से ही दिखने लगती हैं ओट में छिपी चीजें जो रोज़ दिखते हुए भी नहीं दिखतीं जैसे एक आदमी और दो बच्चों की आतिशबाज़ी की रोशनी में दुबकी दिखती है एक स्त्री की निष्प्रभता अंधे कुएँ में की किसी धातु से परावर्तित होती है प्रकाश की रेखा वहीं मिलता है भाषा का फलदार वृक्ष जिसकी डालियाँ छूने भर से झुकने को आतुर रसायनों भरे प्रदीप्त क्षणों में से उठती है आवाजें: अगर हमारे जीवन में जोखिम नहीं तो तय है वह हमारे बच्चों के जीवन में होगा सिर्फ संपत्तियाँ उत्तराधिकार में नहीं मिलेंगी गलतियों का हिसाब भी हिस्से में आयेगा फिर दिखाई देता है खोने के लिए एक शांत किस्म का व्यक्तिगत जीवन जिसे इस जगह तक भी कोई इच्छा, एक प्रेम, एक दया, एक हँसी और एक छोटी-सी ज़िद ले आई है खींचकर इसी जीवन में ट्रक की तेज़ी से गुजरते हैं हादसे जिनसे ख़ाली होती हुई जगह को उसी वेग से भरती जाती है पीछे से दौड़कर आती जीवन की हवा।

सब तुम्हें नहीं कर सकते प्यार

यह मुमकिन ही नहीं कि सब तुम्हें करें प्यार यह तुम जो बार-बार नाक सिकोड़ते हो और माथे पर जो बल आते हैं हो सकता है किसी एक को इस पर आए प्यार लेकिन इसी वजह से कई लोग चले जाएँगे तुमसे दूर सड़क पार करने की घबराहट,खाना खाने में जल्दबाज़ी या ज़रा-सी बात पर उदास होने की आदत कई लोगों को तुम्हें प्यार करने से रोक ही देगी फिर किसी को पसंद नहीं आएगी तुम्हारी चाल किसी को आँख में आँख डालकर बात करना गुज़रेगा नागवार चलते-चलते रुककर इमली का पेड़ देखना एक बार फिर तुम्हारे ख़िलाफ़ जाएगा फिर भी यदि तुमसे बहुत से लोग एक साथ कहें कि वे सब तुमको करते हैं प्यार तो रुको और सोचो यह बात जीवन की साधारणता के विरोध में है यह होगा ही कि तुम धीरे-धीरे अपनी तरह का जीवन जिओगे और अपने प्यार करनेवालों को अजीब मुश्किल में डालते चले जाओगे जो उन्नीस सौ चैहत्तर में, उन्नीस सौ नवासी में और दो हज़ार पाँच में करते थे तुमसे प्यार तुम्हारी जड़ों में देते थे पानी और कुछ जगह छोड़ कर खड़े होते थे कि तम्हें मिले प्रकाश वे भी एक दिन इसलिए जा सकते हैं दूर कि अब तुम्हारे जीवन की परछाईं उनकी जगह तक पहुँचती है तुम्हारे पक्ष में सिर्फ यही बात हो सकती है कि कुछ लोग तुम्हारे खुरदरेपन की वजह से भी करने लगते हैं तुम्हें प्यार जीवन में उस रंगीन चिड़िया की तरफ़ देखो जो किसी का मन मोह लेती है और ठीक उसी वक़्त एक दूसरा उसे देखता है शिकार की तरह।

जैसे विरोध करने की कोई उम्र होती है

बेकार है इस उम्र में किसी तरह का विरोध करना एक बेटी अभी तक है अनब्याही जब उम्र थी कई लोगों से ली बुराई अब ठीक यही हिलमिल कर गुज़ारें जीवन क्या पता कब क्या मुश्किल आये अस्पताल भी जाना पड़ सकता है आधी रात में अपने बच्चे ही नहीं सुनते जब कोई बात तब परिषदों, अधिकारियों, अकादमियों से क्या टकराना क्या नारेबाजी और क्या भृकटि को तलवार बनाना मुददा ठीक है लेकिन जिसके ख़िलाफ़ है उससे मेरे अड़तीस साल पुराने संबंध समर्थन भी तो मित्रता का ठहरा एक आधार फिर भी देता मैं तुम सबका साथ लेकिन देखो, मुझे खाँसी भी आती है बहुत हाथ काँपते हैं ज्ञापन पर दस्तख़त भी मुश्किल इधर अब तो मेरी प्रतिष्ठा भी यही हो चली है : वरिष्ठ हैं, समावेशी हैं, चुप रहते हैं, गम खाते हैं।

अमीरी रेखा

मनुष्य होने की परंपरा है कि वह किसी कंधे पर सिर देता है और अपनी पीठ पर टिकने देता है कोई दूसरी पीठ ऐसा होता आया है, बावजूद इसके कि कई चीजें इस बात को हमेशा कठिन बनाती रही हैं और कई बार आदमी होने की शुरुआत एक आधी-अधूरी दीवार हो जाने से, पतंगा, ग्वारपाठा या एक पोखर बन जाने से भी होती है या जब सब रफ़्तार में हों तब पीछे छूट जाना भी एक शुरुआत है बशर्ते मनुष्यता में तुम्हारा विश्वास बाक़ी रह गया हो नमस्कार, हाथ मिलाना, मुस्कराना, कहना कि मैं आपके क्या काम आ सकता हूँ- ये अभिनय की सहज भंगिमाएँ हैं और इनसे अब किसी को कोई खुशी नहीं मिलती शब्दों के मानी इस तरह भी ख़त्म किये जाते हैं तब अपने को और अपनी भाषा को बचाने के लिए हो सकता है तुम्हें उस आदमी के पास जाना पड़े जो इस वक्त नमक भी नहीं खरीद पा रहा है या घर की ही उस स्त्री के पास जो दिन-रात काम करती है और जिसे आज भी सही मज़दूरी नहीं मिलती बाज़ार में तो तुम्हारी छाया भी नज़र नहीं आ सकती उसे चारों तरफ़ से आती रोशनियाँ दबोच लेती हैं वसंत में तुम्हारी पत्तियाँ नहीं झरती एक दिन तुम्हारी मुश्किल यह हो सकती है कि तुम नश्वर नहीं रहे तुम्हें यह देखने के लिए जीवित रहना पड़ सकता है कि सिर्फ अपनी जान बचाने की ख़ातिर तुम कितनी तरह का जीवन जी सकते हो जब लोगों को रोटी भी नसीब नहीं और इसी वजह से साठ-सत्तर रुपये रोज़ पर तुम एक आदमी को और सौ-डेढ़ सौ रुपये रोज़ पर एक पूरे परिवार को गुलाम बनाते हो और फिर रात की अगवानी में कुछ मदहोशी में सोचते हो, कभी-कभी घोषणा भी करते हो- मैं अपनी मेहनत और काबलियत से ही यहाँ तक पहुंचा हूँ ।

परचम

वहाँ एक फूल खिला हुआ है अकेला कोई उसे छू भी नहीं रहा है किसी सुबह शाम में वह झर जाएगा लेकिन देखो, वह खिला हुआ है बारिश, धूल और यातनाओं को जज़्ब करते हुए एक पत्थर भी वहाँ किसी की प्रतीक्षा में है आसपास की हर चीज़ इशारा करती है तालाब किनारे अँधेरी झाड़ियों में चमकते हैं जुगनू दुर्दिनों के किनारे शब्द मुझे प्यास लग आयी है और यह सपना नहीं है जैसे पेड़ की यह छाँह मंज़िल नहीं यह समाज जो आख़िर एक दिन आज़ाद होगा उसकी संभावना मरते हए आदमी की आँखों में है और असफलता मृत्यु नहीं है यह जीवन है, धोखेबाज़ पर भी मुझे विश्वास करना होगा निराशाएँ अपनी गतिशीलता में आशाएँ हैं 'मैं रोज़ परास्त होता हूँ'- इस बात के कम से कम बीस अर्थ हैं यों भी एक-दो अर्थ देकर टिप्पणीकार काफ़ी कुछ नक़सान पहुँचा चुके हैं गणनाएँ असंख्य को संख्या में न्यून करती चली जाती हैं सतह पर जो चमकता है वह परावर्तन है उसके नीचे कितना कुछ है अपार शांत, चपल और भविष्य से लबालब भरा हुआ।

कुछ युग्म

[यों ही] ताजमहल और निरंकुशता बुखार और गिलहरी दूब और कार्यालय की मेज़ वासना और फटी हुई कमीज़ ऊब और कंप्यूटर पतझड़ और किशोरावस्था दो स्वर्ण पदक और तीन आत्महत्याएँ।

झण्डा वंदन

शुरुआत में कुछ वृक्ष और अब कई मनुष्य काटकर गिरा दिए गए धरती पर गिरने की उनकी आवाज़ को जैसे किसी ने नहीं सुना इसी दौरान जब एक राहगीर से पूछा गया उसका नाम तो उसने उम्मीद में अपना एक नाम ख़ुदा का भी बताया मगर सर्वशक्तिमान का नाम भी उसके काम न आया मैं यह सब देखता हूँ और कहता हूँ मैंने कुछ नहीं देखा आँसू भी बहाता हूँ, जलेबियाँ भी खाता हूँ फिर अवसाद में पूछता हूँ अपने आप से- 'आत्महत्या के लिए दस मिनट का साहस चाहिए और जीवन के लिए सिर्फ दस सेंकड का'- क्या अब भी यह मेरे जीवन के लिए प्रेरक वाक्य बना रह सकेगा? यही सोचते हुए कल रात पाँच घंटे देरी से घर लौटा मुझे लेकर किसी को कोई दुःस्वप्न नहीं था पत्नी पुराने ब्लाऊज़ की सिलाई उधेड़ रही थी गूंज रही थी पिता के खर्राटों की आवाज़ अप्रत्याशित काम, मुलाक़ाती, ट्रैफ़िक, आपाधापी, खामख़याली इसी तरह के सारे कारण बच्चों को भी ज्ञात हैं अज्ञात मेरा बचपन है और मेरी स्वतंत्रता और एक गीत की वह पंक्ति जो अब स्मृति से भी बेदखल हुई कल रास्ते में तेरह साल बाद महेश मिला मैं किसी लफड़े में नहीं पड़ना चाहता था मैंने उसे नहीं पहचाना एक दिन असगर मिला गर्मजोशी से आगे बढ़ा मैं डर गया, मैंने कहा-नहीं, मैं अंबुज नहीं इसी तरह मैंने कई नाम मिटाये कई जीवन उजाड़े, कई चेहरे और कई चित्र एक शाम वह हत्यारा मिला जिससे मैं अपार घृणा करता था वह निहत्था था मैं उसे मार सकता था कम से कम थूक सकता था उस पर लेकिन मैंने उसे नमस्कार किया और हाथ मिलाया पड़ोसियों ने कहा मित्रों ने कहा यह तुमने ठीक किया अब आप कौन होते हैं पूछने वाले कि कायर होने और अपराधी होने में क्या फ़र्क है वैसे भी मेरे पास वक़्त नहीं है और न ज़रूरत कि सोचूँ-मैं मक्खी हूँ, आदमी हूँ, कबूतर हँया बागड़बिल्ला चालाक हूँ या मुजरिम सुबह के सवा आठ बज रहे हैं प्रधानमंत्री के काव्य-प्रेम और राष्ट्रपति के उदबोधन ने एक भावुक फिल्मी गाने और सहकर्मियों के गर्वीलेपन ने मिलजुलकर रास्तों को और तिलिस्मी और धुंधला बना दिया है मुझे इसी तिलिस्म और धुंध में से होकर झंडा वंदन करने जाना है।

अन्याय

अन्याय की ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती वह एक दिन होता ही है याद करोगे तो याद आएगा कि वह रोज ही होता रहा है कई बार इसलिए तुमने उस पर तवज्जो नहीं दी कि वह किसी के द्वारा किसी और पर किया जाता रहा कि तुम उसे एक साधारण खबर की तरह लेते रहे कि उसे तुम देखते रहे और किसी मूर्ति की तरह देखते रहे कि वह सब तरफ हो रहा होता है तुम सोचते हो और चाय पीते हो कि यह भाग्य की बात है और इसमें तुम्हारी कोई भूमिका नहीं है फिर सोचोगे तो यह भी आएगा याद कि तुमने भी लगातार किया है अन्याय जो ताकत से किया या निरीह बन कर सिर्फ वह ही नहीं जो तुम प्रेम की ओट ले कर करते रहे वह भी अन्याय ही था और जो तुमने खिलते हुए फूल से मुँह फेर कर किया और तब भी जब तुम अपनी आकांक्षाओं को अकेला छोड़ते रहे और जब तुम चीजों पर अपना और सिर्फ अपना हक मानते रहे घर में ही देखो तुमने एक पेड़ पर, पानी पर, आकाश पर, बच्चों और स्त्री पर और ऐसी कितनी ही चीजों पर कब्जा किया इजारेदारी से बड़ा अन्याय और क्या हो सकता है! और उस तथाकथित पवित्र आंतरिक कोने में भी देखो जिसे कोई और नहीं देख सकता तुम्हारे अलावा वहाँ अन्याय करते रहने के चिह्न अब भी हैं तुमने एक बार दासता स्वीकार की थी एक बार तुम बन बैठे थे न्यायाधीश इस तरह भी तुमने अन्याय के कुछ बीज बोए तुम एक बार चुप रहे थे, उसका निशान भी दिखेगा और उस वक्त का भी जब तुम विजयी हुए थे अन्याय से ही आखिर एक दिन अनुभव होता है कि कुछ ऐसा होना चाहिए जो न हो अन्याय और इस तरह तुम्हारे सामने जीवन की सबसे बड़ी जरूरत की तरह आता है - न्याय!

इच्छा और जीवन

अपनी इच्छा में मैं बाँस के झुरमुट के बीच एक मचान पर रहता हूँ यों ही घूमता फिरता हूँ उड़ता हूँ कुलाँचें भरता हूँ कभी चिड़िया बन जाता हूँ और कभी हिरण पेड़ तो इतनी बार बना हूँ कि पेड़ मुझे अपने जैसा ही मानते हैं संभ्रम में कई बार मुझ पर रात में रहने चले आते हैं तोते नदी के किनारे पत्थर बन कर सेंकता हूँ धूप अपने जीवन में मैं मोहल्ले की तीसरी गली में रहता हूँ गमले में उगी मीठी नीम देखता हूँ रोज दाढ़ी बनाता हूँ आहें भरता हूँ नौकरी करता हूँ बुखार आने पर खाता हूँ खिचड़ी और पेरासिटामॉल एक झाड़ू का पपीते का और प्लास्टिक की बाल्टी का करता हूँ मोल भाव खाने में पत्नी से माँगता हूँ हरी मिर्च चंद्रमा को देखता हूँ सितारों को देखता हूँ और इच्छाओं को इच्छा के ही जादू से बना देता हूँ तारे।

खाना बनाती स्त्रियाँ

जब वे बुलबुल थीं उन्होंने खाना बनाया फिर हिरणी होकर फिर फूलों की डाली होकर जब नन्ही दूब भी झूम रही थी हवाओं के साथ जब सब तरफ फैली हुई थी कुनकुनी धूप उन्होंने अपने सपनों को गूँधा हृदयाकाश के तारे तोड़कर डाले भीतर की कलियों का रस मिलाया लेकिन आखिर में उन्हें सुनाई दी थाली फेंकने की आवाज आपने उन्हें सुंदर कहा तो उन्होंने खाना बनाया और डायन कहा तब भी बच्चे को गर्भ में रखकर उन्होंने खाना बनाया फिर बच्चे को गोद में लेकर उन्होंने अपने सपनों के ठीक बीच में खाना बनाया तुम्हारे सपनों में भी वे बनाती रहीं खाना पहले तन्वंगी थीं तो खाना बनाया फिर बेडौल होकर वे समुद्रों से नहाकर लौटीं तो खाना बनाया सितारों को छूकर आईं तब भी उन्होंने कई बार सिर्फ एक आलू एक प्याज से खाना बनाया और कितनी ही बार सिर्फ अपने सब्र से दुखती कमर में चढ़ते बुखार में बाहर के तूफान में भीतर की बाढ़ में उन्होंने खाना बनाया फिर वात्सल्य में भरकर उन्होंने उमगकर खाना बनाया आपने उनसे आधी रात में खाना बनवाया बीस आदमियों का खाना बनवाया ज्ञात-अज्ञात स्त्रियों का उदाहरण पेश करते हुए खाना बनवाया कई बार आँखें दिखाकर कई बार लात लगाकर और फिर स्त्रियोचित ठहराकर आप चीखे - उफ इतना नमक और भूल गए उन आँसुओं को जो जमीन पर गिरने से पहले गिरते रहे तश्तरियों में कटोरियों में कभी उनका पूरा सप्ताह इस खुशी में गुजर गया कि पिछले बुधवार बिना चीखे-चिल्लाए खा लिया गया था खाना कि परसों दो बार वाह-वाह मिली उस अतिथि का शुक्रिया जिसने भरपेट खाया और धन्यवाद दिया और उसका भी जिसने अभिनय के साथ ही सही हाथ में कौर लेते ही तारीफ की वे क्लर्क हुईं अफसर हुईं उन्होंने फर्राटेदार दौड़ लगाई और सितार बजाया लेकिन हर बार उनके सामने रख दी गई एक ही कसौटी अब वे थकान की चट्टान पर पीस रही हैं चटनी रात की चढ़ाई पर बेल रही हैं रोटियाँ उनके गले से पीठ से उनके अँधेरों से रिस रहा है पसीना रेले बह निकले हैं पिंडलियों तक और वे कह रही हैं यह रोटी लो यह गरम है उन्हें सुबह की नींद में खाना बनाना पड़ा फिर दोपहर की नींद में फिर रात की नींद में और फिर नींद की नींद में उन्होंने खाना बनाया उनके तलुओं में जमा हो गया है खून झुकने लगी है रीढ़ घुटनों पर दस्तक दे रहा है गँठिया आपने शायद ध्यान नहीं दिया है पिछले कई दिनों से उन्होंने बैठकर खाना बनाना शुरू कर दिया है हालाँकि उनसे ठीक तरह से बैठा भी नहीं जाता है।

तानाशाह की पत्रकार वार्ता

वह हत्या मानवता के लिए थी और यह सुंदरता के लिए वह हत्या अहिंसा के लिए थी और यह इस महाद्वीप में शांति के लिए वह हत्या अवज्ञाकारी नागरिक की थी और यह जरूरी थी हमारे आत्मविश्वास के लिए परसों की हत्या तो उसने खुद आमंत्रित की थी और आज सुबह आत्मरक्षा के लिए करना पड़ी और यह अभी ठीक आपके सामने उदाहरण के लिए!

नई सभ्यता की मुसीबत

नई सभ्यता ज्यादा गोपनीयता नहीं बरत रही है वह आसानी से दिखा देती है अपनी जंघाएँ और जबड़े वह रौंद कर आई है कई सभ्यताओं को लेकिन उसका मुकाबला बहुत पुरानी चीजों से है जिन पर लोग अभी तक विश्वास करते चले आए हैं उसकी थकान उसकी आक्रामकता समझी जा सकती है कई चीजों के विकल्प नहीं हैं जैसे पत्थर आग या बारिश तो यह असफल होना नहीं है हमें पूर्वजों के प्रति नतमस्तक होना चाहिए उन्हें जीवित रहने की अधिक विधियाँ ज्ञात थीं जैसे हमें मरते चले जाने की ज्यादा जानकारियाँ हैं ताड़पत्रों और हिंसक पशुओं की आवाजों के बीच या नदी किनारे घुड़साल में पुआल पर जन्म लेना कोई पुरातन या असभ्य काम नहीं था अपने दाँत मत भींचो और उस न्याय के बारे में सोचो जो उसे भी मिलना चाहिए जो माँगने नहीं आता गणतंत्र की वर्षगाँठ या निजी खुशी पर इनाम की तरह नहीं मनुष्य के हक की तरह हर एक को थोड़ा आकाश चाहिए और खाने-सोने लायक जमीन तो चाहिए ही चाहिए माना कि लोग निरीह हैं लेकिन बहुत दिनों तक सह न सकेंगे स्वतंत्रता सबसे पुराना विचार है सबसे पुरानी चाहत तुम क्या क्या सिखा सकती हो हमें जबकि थूकने तक के लिए जगह नहीं बची है तुम अपनी चालाकियों में नई हो लेकिन तुम्हारे पास भी एक दुकानदार की उदासी है जितनी चीजों से तुमने घेर लिया है हमें उनमें से कोई जरा-सा भी ज्यादा जीवन नहीं देती सिवाय कुछ नई दवाइयों के जो यों भी रोज-रोज दुर्लभ होती चली जाती हैं और एक विशाल दुनिया को अधिक लाचार बनाती हैं हँसो मत यह मशीन की नहीं आदमी की चीख है उसे मशीन में से निकालो घर पर बच्चे उसका इंतजार कर रहे हैं हम चाहते हैं तुम हमारे साथ कुछ बेहतर सलूक करो लेकिन जानते है तुम्हारी भी मुसीबत कि इस सदी तक आते आते तुमने मनुष्यों के बजाय वस्तुओं में बहुत अधिक निवेश कर दिया है।

सहनशीलता : कुछ वाक्य

पृथ्वी, स्त्री, निर्धन और ग़ुलाम इसके कुछ विचारणीय उदाहरण हैं। यह हर उस क़दम के ख़िलाफ़ होती है जो उसी वक़्त ज़रूरी होता है। इसके पक्ष में लोक-कथाएँ हैं और सर्वोच्च न्यायालय के कुछ निर्णय भी। हर उदास चीज़ को चाहिए कि वह चमकदार चीज़ों को बर्दाश्त करे। इसे दीमक कहना धर्मग्रंथों, राजनीतिज्ञों और प्रबंध निदेशकों का अपमान है। आप पत्थर, लोहे या पेड़ से भी कुछ सीख सकते हैं, हालाँकि आप पेड़, पत्थर या लोहा नहीं हैं।

अकेले का विरोध

तुम्हारी नींद की निश्चिंतता में वह एक कंकड़ है एक छोटा-सा विचार तुम्हारी चमकदार भाषा में एक शब्द जिस पर तुम हकलाते हो तुम्हारे रास्ते में एक गड्ढा है तुम्हारी तेज़ रफ़्तार के लिए दहशत तुम्हें विचलित करता हुआ वह इसी विराट जनसमूह में है तुम उसे नाकुछ कहते हो इस तरह तुम उस पर ध्यान देते हो तुमने सितारों को जीत लिया है आभूषणों, ग़ुलामों, मूर्तियों और खंडहरों को जीत लिया है तब छोटी-सी बात उल्लेखनीय है कि अभी एक आदमी है जो तुम्हारे लिए खटका है जो अकेला है लेकिन तुम्हारे विरोध में है तुम्हारे लिए यह इतना जानलेवा है इतना भयानक कि एक दिन तुम उसे मार डालने का विचार करते हो लेकिन वह तो कंकड़ है, गड्ढा है एक शब्द है, लोक-कथा है, परंपरा है।

शीर्ष बैठक

वह एक मुस्कराहट के साथ सभागार में प्रवेश करता है उसने आते ही हर शख़्स को कब्जे में ले लिया है कक्ष में बार-बार उसकी सिर्फ उसकी आवाज गूँजती है वह विनम्र है लेकिन हर बात का उत्तर हाँ में चाहता है धीरे-धीरे उसे घेर लिया है आँकड़ों ने गायब होने लगी है उसकी हँसी वह चीखता है : मुझे यह काम दो दिन में चाहिए और ठीक अगले ही पल तानता है मुट्ठियाँ मानो अब मुक्केबाजी शुरू होने को है अचानक वह गिड़गिड़ाने लगता हैः देखिए, आप तो मरेंगे ही, मुझे भी ठीक से नहीं रहने देंगे फिर वह तब्दील हो जाता है एक याचक में वातानुकूलित कक्ष में सब उसके माथे पर पसीना देखते हैं दोपहर हो चुकी है और वह गुस्से में है अब वह किसी भी तरह का व्यवहार कर सकता है उसके पास से विचार गायब होने लगे हैं उसकी अभिव्यक्ति चार-पाँच वाक्यों में सिमट गई है 'मुझे परिणाम चाहिए'- एक मुख्य वाक्य है उसकी कमीज पर चाय और दाल गिर गई है लेकिन उसके पास इन बातों के लिए वक्त नहीं है वह कहता है चाहे बारिश हो या भूकंप मुझे व्यवसाय चाहिए और और और और और व्यवसाय चाहिए इतने भर से क्या होगा कहते हुए वह अफसोस प्रकट करता है फिर दुख जताता है कि उसे ही हमेशा घोड़े नहीं दिए जाते और जो दिए गए हैं वे दौड़ते नहीं वह अगला वाक्य चाशनी में डुबोकर बोलता है लेकिन सख्त हो चुकी हैं उसके चेहरे की माँसपेशियाँ उसके शब्द पग चुके हैं अनश्वर कठोरता में हालाँकि वह अपने विद्यार्थी जीवन में सुकोमल था खुश होता था पतंगों को, चिड़ियों को देखते हुए वह फुटबॉल भी खेलता था और दीवाना था क्रिकेट का लेकिन अब उससे कृपया खेल, पतंग या पक्षियों की बातें भूलकर भी न करें उससे सिर्फ असंभव व्यवसाय के वायदे करें और अब उस पर कुछ दया करें हड़बड़ाहट में आज वह रक्तचाप की गोली खाना भूल गया है वह आपसे इस तरह पेश नहीं आना चाहता लेकिन बाजार और महत्वाकांक्षाओं ने उसे एक अजीब आदमी में बदल दिया है बाहर शाम हो चुकी है पश्चिम का आसमान हो रहा है गुलाबी पक्षी लौट रहे हैं घोंसलों की तरफ और हवा में संगीत है लेकिन वह अभी कुछ घंटे और इसी सभागार में रहेगा जिसमें लटकी हैं पाँच सुंदर पेंटिग्स मगर सब तरफ घबराहट फैली हुई है.

चाँद तुम्हारे साथ कुछ दूर तक

सिर के ऊपर अस्सी डिग्री पर खिला है चाँद आसपास इक्के-दुक्के तारे हौसला रखते हैं नीचे पसरे हुये खेत, दूर पहाड़ी, एक खण्डहर बीच में से गुजरती सड़क जिसका कोलतार चमकता है चाँदनी में स्निग्ध पेड़ निश्चल हैं और पत्तियों में से हवा ऐसे बहती है कि कहीं वे जाग न जायें तुम्हें क्या याद आता है आधी रात से ठीक पहले के इस दृश्य में ? एक सुबह पर गिरती हुई दूसरी सुबह एक रात पर दूसरी रात जो घुलती जाती है चाँदनी की धूसर चमक में अभी यह दृश्य है जो सबके लिए खुला है इस पर नहीं है अभी किसी की कुटिल निगाह यह जो हर बार आबादी से बस थोड़ी-सी दूरी पर है मुझे यहाँ याद आता है अपना बचपन और वह वक्त जिसमें कुछ सोचा जा सकता है इस चाँदनी की, इतने खुले की जरूरत मुझे हमेशा रहेगी इन सबके बीच, ठीक चाँद के नीचे, इस उजास में झाड़ी किनारे पेशाब करना किस कदर आह्लादकारी है तमाम दबावों से धीरे-धीरे मिलती है मुक्ति फूटते हैं बुलबुले भीगती मिट्टी से उठती है गंध एक दूधिया रहस्य तुम्हें घेरता है जिसे भेदने के लिये तुम एक और कदम आगे बढ़ाते हो चुप्पी दृश्यों को करती जाती है मुखर हर चीज तुम्हें अपने पास बुलाती है यह सड़क है, यह पत्थरों की मेड़ यह पगडंडी ये सब तुम्हें तुम्हारा मनुष्य होना याद दिलाते हैं चाँद तुम्हारे साथ चलता है कुछ दूर तक।

मुश्किल तो मेरी है

सड़कों पर, चैंबरों में, टी.वी. पर, ट्रेनों में, अखबारों में, हर तरफ हैं धर्म की ध्वजाएँ उनको क्या मुश्किल होना, मुश्किल तो मेरी है मैं जो रिक्शा चलाता हूँ मैं जो बीड़ी बनाता हूँ मैं जो गन्ना उगाता हूँ मैं जो ट्रैफिक में फँस जाता हूँ मैं जो उधारी में पड़ जाता हूँ मैं जो शहनाई बजाता हूँ मैं जो भूख से बिलबिलाता हूँ उनका क्या, मुश्किल तो मेरी है मैं जो बच्चों की फीस नहीं चुका पाता हूँ मैं जो कचहरी के चक्कर लगाता हूँ मैं जो हाट-बाजार में घिर जाता हूँ मैं जो ठंडे फर्श पर सो जाता हूँ मैं जो निरगुनियाँ गाता हूँ पड़ोसी से एक कटोरी शकर लाता हूँ और आसपास के सुख-दुख में शामिल होते हुए आखिर अपना हिन्दू होना भूल जाता हूँ।

आकस्मिक मृत्यु

बच्चे साँप-सीढ़ी खेल रहे हैं जब उन्हें भूख लगेगी वे रोटी मांगेंगे उन्हें तुम्हारे भीतर से उठती रुलाई का पता नहीं वे मृत्यु को उस तरह नहीं जानते जैसे वयस्क जानते हैं जब वे जानेंगे इसे तो दुख की तरह नहीं किसी टूटी-फूटी स्मृति की तरह ही अभी तो उन्हें खेलना होगा, खेलेंगे रोना होगा, रोयेंगे अचानक खिलखिला उठेंगे या ज़िद करेंगे तुम हर हाल में अपना रोना रोकोगे और कभी-कभी नहीं रोक पाओगे

यहाँ पानी चाँदनी की तरह चमकता है

यहाँ पानी चाँदनी की तरह चमकता है आँधियाँ चलती हैं और मेरी रेत के ढूह उड़कर मीलों दूर फिर से बन जाते हैं यह मेरी अनश्वरता है यह दिन की चट्टान है जिस पर मैं बैठता हूँ प्रतीक्षा और अंधकार। उम्मीद और पश्चात्ताप वासना और दिसंबर। वसंत और धुआँ मैं हर एक के साथ कुछ देर रहता हूँ तारों की तरह टूटते हैं प्रतिज्ञाओं के शब्द अंतरिक्ष में गुम होते हुए उनकी चमकभर दिखती है चंद्रमा को मैं प्रकट करता हूँ किसी ब्लैक होल में से और इस तरह अपने को संसार में से गुजारता हूँ इस संसार में मेरे पास प्रेमजन्य यह शरीर है अलौकिक इसी में रोज खिलते हैं फूल और यहीं झर जाते हैं बहती है नीली नदियाँ और वाष्पित होती हैं जो मिलती हैं समुद्र में गिरती हैं फिर बारिश के साथ यहीं है उतना निर्जन जो जरूरी है सृष्टि के लिए इसी में कोलाहल है, संगीत है और बिजलियाँ पुकार है और चुप्पियाँ यहीं है वे पत्थर जिन पर काई जमा होती है यहीं घेर लेती हैं खुशियाँ और एक दिन बुखार में बदल जाती हैं यह सूर्यास्त की तस्वीर है देखने वाला इसे सूर्योदय की भी समझ सकता है प्रेम के वर्तुल हैं सब तरफ इनका कोई पहला और आखिरी सिरा नहीं जहाँ से थाम लो वहीं शुरूआत जहाँ छोड़ दो वहीं अंत रेत की रात के अछोर आकाश में ये तारे चुंबनों की तरह टिमटिमाते हैं और आकाशगंगा मादक मद्धिम चीख की तरह इस छोर से उस छोर तक फैली है रात के अंतिम पहर में यह किस पक्षी की व्याकुलता है किस कीड़े की किर्र किर्र चीं चट हर कोई इसी जनम में अपना प्रेम चाहता है कई बार तो बिल्कुल अभी, ठीक इसी क्षण आविष्कृत हैं इसीलिए सारी चेष्टाएँ, संकेत और भाषाएँ चारों तरफ चंचल हवा है वानस्पतिक गंध से भरी प्रेम की स्मृति में ठहरा पानी चाँदनी की तरह चमकता है और प्यास का वर्तमान पसरा है क्षितिज तक तारों को देखते हुए याद आता है कि जो छूट गया जो दूर है, अलभ्य है जो, वह भी प्रेम है दूरी चीजों को नक्षत्रों में बदल देती है।

पुश्तैनी गाँव के लोग

वहाँ वे किसान हैं जो अब सोचते हैं मजदूरी करना बेहतर है जब कि मानसून भी ठीक-ठाक ही है पार पाने के लिए उनके बच्चों में से कोई गाँव से दो मील दूर मेन रोड पर प्रधानमंत्री के नाम पर चालू योजना में कर्ज ले कर दुकान खोलेगा और बैंक के ब्याज और फिल्मी पोस्टरों से दुकान को भर लेगा कोई किसी अपराध के बारे में सोचेगा और सोचेगा कि यह भी बहुत कठिन है लेकिन मुमकिन है कि वह कुछ अंजाम दे ही दे पुराने बाशिंदों में से कोई न कोई कभी-कभार शहर की मंडी में मिलता है सामने पड़ने पर कहता है तुम्हें सब याद करते हैं कभी गाँव आओ अब तो जीप भी चलने लगी है तुम्हारा घर गिर चुका है लेकिन हम लोग हैं मैं उनसे कुछ नहीं कह पाता यह भी कि घर चलो कम से कम चाय पी कर ही जाओ कह भी दूँ तो वे चलेंगे नहीं एक - दूरी बहुत है और शाम से पहले उन्हें लौटना ही होगा दूसरे - वे जानते हैं कि शहर में उनका कोई घर हो नहीं सकता।

था बेसुरा लेकिन जीवन तो था

'ध' दिनों में धूप थी और धूल रातें भरी हुईं थी धुएँ से दिनचर्या बाणरहित धनुष थी धप् धप् थी और धक्का धमकियाँ थीं और धीरज इसी सबके बीच में से उठती थी हरे धनिये की खुश्बू! 'रे' सबसे ज्यादा वह अरे! अरे! में था फिर मरे! मरे! में जितना पूरे में उससे कम अधूरे में नहीं रंग भूरे में और घूरे में भी ठहरे में कुछ गहरे में अकसर ही वह मुट्ठी में से रेत की तरह झरता था 'स' वह सबमें था समझ में, नासमझी में इसलिए आदि में और अंत में भी मुस्कराहट और हँसी में समर्थ में, असहाय में, सत् में, असत् में इस समय में और हमारे आधे-अधूरे सपनों में. 'ग' भगदड़ में से भागते हुए रास्ते में गाय थी मण्डियों ने उसे गजब गाय बना दिया था गमलों में फूल खिल रहे थे और मुरझा रहे थे गमलों में ही गुमसुम जो गया वह चला ही गया था गुलजार थे गपशप के चौराहे सबको अपना अपना गाना गाना था लेकिन गला था कि भर आता था इस तरह संगीत में गमक थी 'म' 'प' नहीं थे जैसे कभी कम्बल नहीं था कभी पानी बाजार में उपलब्ध थे मगर मेरे पास न थे बच्चे थे मगर माँ-बाप नहीं थे जीवन में संगीत था बेसुरा लेकिन जीवन तो था 'नी' वह नीड़ में था जिसे पाना या बनाना सबसे मुश्किल था फिर वह ऋण की किश्तों में था फिर कहीं नहीं में सुनसान में, वीरानी में नीरवता में और नीरसता में अंत में वह मुझे थककर चूर हो गये शरीर की नींद में मिला और फिर आधी रात में नींद तोड़ देनेवाली चीख में