अल्पविराम : राजगोपाल
Alpviram : Rajagopal


कल का एकाकी आज फिर लगा रहा पुकार

बीते दिन आँखों से नहीं झरते सुख सोच कर भी सपने हैं डरते अश्रु के हर बूंद से मूक मन भरते निर्लज्ज जीवन, फिर बहा प्रणय की धार कल का एकाकी आज फिर लगा रहा पुकार तुमसे यह अंतराल लगा जैसे हो अल्पविराम अधरों से मन तक कब लगता है पूर्णविराम आँखों से उर तक तुम जो बसी हो अभिराम इतिहास लौट आया है मांगने फिर अधिकार कल का एकाकी आज फिर लगा रहा पुकार समय चला उल्टे पाँव ढूँढता आरंभ तुमसे दूर, जीवन मे अब टूट गया दंभ कस्तूरी फिर से भर दो, सूखा है प्रणय-कुंभ देखो फैली हैं बाहें तोड़ कर सारे प्रतिकार कल का एकाकी आज फिर लगा रहा पुकार

हटा अल्पविराम, अब जीवन जल्दी-जल्दी ढलता है

यह सोच कर कि अंत नहीं है पास मन करने लगता है स्मृतियों से रास रात गयी सूनी, उसका किसे है आभास थका पथिक, मरीचिका मे दिशाहीन चलता है हटा अल्पविराम, अब जीवन जल्दी-जल्दी ढलता है समय के विस्तार मे कितनी बची है आशा सोचता हूँ क्या उसकी भी होगी उतनी प्रत्याशा प्रणय रोये मूक अकेले, नहीं है उसकी कोई भाषा शिथिल हुये कर्म, अब प्रणय की कैसी चंचलता है हटा अल्पविराम, अब जीवन जल्दी-जल्दी ढलता है अतीत मरा, अब कल पर कौन विकल हठीले अधर, होते अब किसके हित चंचल उर पर पत्थर रख कर रतजगे रोये कितने पल कैसा है संबंध, यह प्रश्न दावानल सा जलता है हटा अल्पविराम, अब जीवन जल्दी-जल्दी ढलता है

एक अल्पविराम गया, आगे तो विजन है मन

पुराने पृष्ठों पर आज धूल जमी उन पर बिछे शब्दों की पंक्तियाँ थमी ऊंची थी कल्पना,पर हुयी आभास की कमी अधूरी रही कहानी, अब न बचे हैं और क्षण एक अल्पविराम गया, आगे तो विजन है मन शब्दों पर मिट्टी पड़ी छू कर निर्मोही मुख न स्मृतियाँ रही, न ही शेष रहा मुट्ठी भर सुख प्रणय की लकीर फिर खींच जाता उसका दुख मधुबाला के छंदों मे अब न रहा कोई आकर्षण एक अल्पविराम गया, आगे तो विजन है मन जीवन का यह पृष्ट फाड़ दे मन न अतीत रहा, न वर्तमान, घिरा है ग्रहण न प्रेयसी रही, न प्रणय रहा,न होगा और सहन जीत कर यह जीवन, कर ले अब मन परिवर्तन एक अल्पविराम गया, आगे तो विजन है मन

बीता एक अल्पविराम, फिर बदल गया मौसम

स्मृतियों के घरौंदे आँधी झेलते रहे उड गया यौवन हम धूल देखते रहे अकेले ही आंखे फाड़े बाँट जोहते रहे नहीं लौटे वे दिन, समय तोड़ गया जीवन निर्मम बीता एक अल्पविराम, फिर बदल गया मौसम न वह बात रही न सजी फिर कोई रात ‘अब नहीं’ की चीख दिखा गयी बिसात दिशाएँ बदलीं, छूट गया बरसों का साथ कड़की दामिनी, और प्रणय तोड़ गया भ्रम बीता एक अल्पविराम, फिर बदल गया मौसम पहले वही क्षितिज थी आज नहीं कोई पास है हाथ भर की दूरी भी अब केवल आभास है आँखों मे इतिहास मूँदे यह कैसा अंधा प्रवास है अब नहीं कोई व्याकुल यहाँ चाहे निकाल जाये दम बीता एक अल्पविराम, फिर बदल गया मौसम

पल भर का अल्पविराम, उड़ गयी कस्तूरी

किस ऋतु मे मतवाली बोली थी कब प्रणय भरी आँखें खोली थी कहाँ छिपी है रातें जो मधु घोली थी अब अलसायी काया, रह गयी बात अधूरी पल भर का अल्पविराम, उड़ गयी कस्तूरी उन अधरों पर टूटती रातें सहना जड़ आँखों से आंसुओं का बहना ऐसी मन की बिछलन जग से क्या कहना पास रह कर भी बढ़ती गयी स्पर्श की दूरी पल भर का अल्पविराम, उड़ गयी कस्तूरी आरंभ हुई कथा फिर न बंद हुई उस तक न कभी धड़कन मंद हुई मर कर भी वह स्मृतियाँ मकरंद हुयी मरीचिका मे किसकी होती है आशाएँ पूरी पल भर का अल्पविराम, उड़ गयी कस्तूरी

लगा अल्पविराम, तन सिमटा-मन मरा

बधिर सुने कैसे प्रणय की बात फूटी आँखों मे, बीत गयी रात रति सिधारी ,दे गयी प्रीति को मात कैसी प्रत्याशा, घाट पर रह गया तन धरा लगा अल्पविराम, तन सिमटा-मन मरा न उतरे उर मे कोई संबंध वचन सहता जड़ सा मन पीड़ा घन-घन फिर झरते अश्रु निर्लज्ज से क्षण-क्षण इस धारा मे बह गया मन मधु से भरा लगा अल्पविराम, तन सिमटा-मन मरा अब न करे कोई मेरा नव-निर्माण विक्षिप्त जीवन का कौन धरे ध्यान अब कहाँ धरूँ यह पाषाण सा प्राण वर्तमान रौंद कर इतिहास प्रेत बन उतरा लगा अल्पविराम, तन सिमटा-मन मरा

सिसकियों का अल्पविराम, दोहरा गया इतिहास

रात तुम्हारे ही वृत्तचित्र बना गये स्मृतियों मे मित्र और छोड़ गये हमे विजन मे विचित्र दूर अनछुआ ही रह गया बरसों का आभास सिसकियों का अल्पविराम, दोहरा गया इतिहास कैसे समझे बिखरते संबंध उलझी साँसों मे कस्तूरी गंध आँखों मे दरकते प्रणय भरे अनुबंध ग्रहण लगा उर मे, लुट गया रजनी का रास सिसकियों का अल्पविराम, दोहरा गया इतिहास पत्थर से टकरा कर मन गिरा कहीं अब इस जीवन का कोई नाम नहीं फिर भी निर्लज्ज, देहरी पर ताक रहा यहीं समेट ले काया, नहीं है यहाँ अपना कोई पास सिसकियों का अल्पविराम, दोहरा गया इतिहास

बातों में अल्पविराम, निस्तब्ध कर गया जीवन

पहले आँखों के बसा प्रणय-वंदन लिपटा बरसों तक स्पर्श से तन-मन फिर मौन अंधेरे मे गुम हुये उलझे स्पंदन मरा स्वर्ण-मृग उर की तपन मे करता क्रंदन बातों में अल्पविराम, निस्तब्ध कर गया जीवन समय के साथ अलग हुये सारे बंधन न देखा फिर कभी स्मृतियों का दर्पण भावनाएं जम गयी जैसे निर्वासित रज-कण सुबह न ढूंढा किसी ने कहाँ खो गया यौवन बातों में अल्पविराम, निस्तब्ध कर गया जीवन कौन विकल यहाँ अब किस से मिलने किसके हित सिंचती राजनीगंधा खिलने पग बढ़े तो प्रणय लगा अधम सा फिसलने अजनबी हुयी आँखें, अब रहा न कोई आकर्षण बातों में अल्पविराम, निस्तब्ध कर गया जीवन

तोड़ गया अल्पविराम, आज समय की गति

पाषाण हुये प्रणय के आभास नहीं हुआ कोई मन्मथ का रास मिट्टी हुआ आज हँसता अमलतास साँझ लौटी क्षितिज, रात झाँकती रही रति तोड़ गया अल्पविराम, आज समय की गति आँसू भी अब छोड़ गए नयन सुखा गयी तन स्मृतियों की तपन श्वास उड़े कहीं तोड़ कर संबंध गगन जीवन रोये देहरी पर, स्वर्ग सिधारी मति तोड़ गया अल्पविराम, आज समय की गति कल यहीं था खिला हुआ संसार आज गिरी दामिनी, बना यही अंगार मन टूटा, राख़ हुआ प्रणय का अहंकार तृष्णा मे तृषित जीवन की है यही नियति तोड़ गया अल्पविराम, आज समय की गति

अल्पविराम से आगे, न करो मेरा निर्माण

मेरे उर पर पत्थर रख कर क्या देखूँ नयनों मे नीर भर कर गिरा मैं यहीं स्मृतियों से डर कर छल गया स्वर्ग, धरा पर ही उड गये प्राण अल्पविराम से आगे, न करो मेरा निर्माण विकल कंठ से अपनी व्यथा किसे सुनाऊँ सुख सामने ही मरा,जग को क्या बतलाऊँ बीती हंस कर स्वयं को कितना झुठलाऊँ अब अवशेष का भी कर दो अवसान अल्पविराम से आगे, न करो मेरा निर्माण श्वास, सहवास, आभास, सारे उड़े अभिसार, अनुराग, पर मिट्टी पड़े हवा से यह मन निष्प्राण कितना लड़े हो गये बहिष्कृत, न धरो अब उस का ध्यान अल्पविराम से आगे, न करो मेरा निर्माण