अब नहीं : राजगोपाल
Ab Nahin : Rajagopal

अब नहीं...
एक अंतिम साक्षात्कार



परिचय...

कुछ लोग वर्तमान में जीते हैं, कुछ बीती स्मृतियाँ कुरेदते रहते हैं, या कोई भविष्य की सोच कर रोते हैं. पर कुछ स्मृतियाँ स्वभाव बन जाती हैं. स्वभाव तो प्रकृति है. उसे भूत-भविष्य से कोई प्रतिबंध नहीं होता. यथार्थ इसे नहीं मानता पर यह द्वंद ही जीवन है. ‘अब नहीं’ ऐसी ही मनस्थिति से एक साक्षात्कार है. राजगोपाल नवंबर 2020 मेक्सिको सिटी

आज कहीं खोया मेरा अंतस्थल

जग सोया घुघुआ बोला स्वप्न मरा आँखें खोला मन मूक पीड़ा मे डोला फिर भी तुम न रुकी एक पल आज कहीं खोया मेरा अंतस्थल तुम तक था मेरा जीवन बरसा अनुराग विस्तृत गगन हाथ खींच उसे किया विजन ‘अब नहीं’ सुन टूटा बुद्धि-बल आज कहीं खोया मेरा अंतस्थल सुनता जब बरसों का लेखा-जोखा इन आशाओं ने दिया बहुत धोखा सच गिरा औंधा, उठ गया प्रेम झरोखा स्वप्न की छाया से मन अब दूर निकल आज कहीं खोया मेरा अंतस्थल

मरा मैं हो कर तुम्हारे अभिसार का ऋणी

उस संध्या में जब तुमसे मिला पंगु जीवन जैसे कुसुम सा खिला बीत गयी रात अधरों की मदिरा पिला तन ढीला, मन नीला, आज डस गया फणी मरा मैं हो कर तुम्हारे अभिसार का ऋणी आकाश टूटा चिर-बंधनों का शून्य हुआ समय स्नेह-स्पंदनों का अब गूँजता विश्व, जड़-क्रंदनों का छिप गयी रातें तुम्हारे स्पर्श की धनी मरा मैं हो कर तुम्हारे अभिसार का ऋणी चुका रहा हूँ मूल्य उन छद्म क्षणों का मूल-सूद सब चढ़ा, बरसों मधु-कणों का सारी रात दीवार देखता रहता मृग-लक्षणों का सुबह कुंडली पर भी चढ़ी अवरोहिणी मरा मैं हो कर तुम्हारे अभिसार का ऋणी

मुँह में बातें भर, मैं मौन उसे निगल जाऊँ

अँधियारे में मन डूबा गहरे भेदती कानों को चुप्पी की लहरें प्रश्न कई पर सारे उत्तर निशब्द ठहरे आगे दौड़, क्यों मैं अपनी कथा सुनाऊँ मुँह में बातें भर, मैं मौन उसे निगल जाऊँ प्रणय छोटा सा, रात बड़ी बौरायी दृगों तले, बरसों की स्मृतियाँ चुराई ‘अब नहीं’ सुन कर प्रीति भी हुयी पराई जग सोया, मैं उर में ही छिप कर जल जाऊँ मुँह में बातें भर, मैं मौन उसे निगल जाऊँ मुझ जैसा ही लगता यह जग सारा समय गये, कौन किसका है प्यारा संबंध सभी हैं झूठे, मैं एक-एक से हारा बहरों के बीच क्यों मैं अपनी बात सुनाऊँ मुँह में बातें भर, मैं मौन उसे निगल जाऊँ

शेष कुछ नहीं, स्मृतियाँ प्रेत सी विचरती हैं

मैं जीवित हूँ ,पर लगता जड़ हूँ भावनाएं मरीं, केवल कटा धड़ हूँ अँधियारे निष्प्राण प्रणय की पकड़ हूँ स्नेह-सुख-संबंध मुट्ठी से रेत सी बिखरती हैं शेष कुछ नहीं, स्मृतियाँ प्रेत सी विचरती हैं मन हठी शब्दों पर अड़ा है तन मूर्छित देहरी पर पड़ा है जीवन धरा में आधा गड़ा है आँखें उस तक अभिसार मांगने से डरती हैं शेष कुछ नहीं, स्मृतियाँ प्रेत सी विचरती हैं आज हुआ मैं कितना अकेला जग समझे प्रेम-प्रसंग कोई उड़ता रेला हाथ नहीं आता कुछ, है माया का मेला उर मे रंध्र हुआ, फिर भी क्यों आशाएँ भरती हैं शेष कुछ नहीं, स्मृतियाँ प्रेत सी विचरती हैं

बीते बरसों का सूनापन भी कितना सुखमय था

ईश्वर से नित सुमुखी मांगता कल की आशा मे रातें जागता मन अब उसे देख दूर भागता उर पाषाण हुआ, कल तक उसमे भी लय था बीते बरसों का सूनापन भी कितना सुखमय था थकी आँखें होती देख उसे सजल अधरों पर सँवरती थी रातें पल-पल उजियाले ही पाँव गिरा दल-दल आज हुआ क्षणभंगुर, लगा प्रणय भी कल अक्षय था बीते बरसों का सूनापन भी कितना सुखमय था तुमसे उठता था जीवन का उत्कर्ष साथ बाँट लेते अभिसार का हर्ष अब दूरियाँ बढ़ी, नहीं बीतता कोई वर्ष हर सुबह विकृत होती, कल न किसी का भय था बीते बरसों का सूनापन भी कितना सुखमय था

वह शब्द, वह संकेत, अब नहीं है भूलता

‘अब नहीं’ है एक संपूर्ण निर्णय न कोई तर्क-वितर्क, न अभिनय मन विकृत हुआ, मरा सब प्रेम-प्रणय जीवन टंगा समय से, सम्बन्धों मे झूलता वह शब्द, वह संकेत, अब नहीं है भूलता रात गये मन ही रोता-हँसता हूँ, सुनता सब की, पर न कुछ कहता हूँ अंदर ही अमृत से विष तक बहता हूँ सिर देता पत्थर पर सोच कर, कभी तो पिघलता वह शब्द, वह संकेत, अब नहीं है भूलता ऐसा नहीं था जीवन कभी शिरोधरा पर खड्ग गिरा अभी वेदी पर कटी आशाएँ सभी अब सुख-स्मृतियों से भी हृदय नहीं फूलता वह शब्द, वह संकेत, अब नहीं है भूलता

छिन गया सुख सारा, अब रूप देख कैसे हँसता

टूट गयी सारी सप्त-पदी प्रतिज्ञा शेष बची प्रणय पर पड़ी अवज्ञा अब जागी है मन मे बरसों की प्रज्ञा व्यर्थ क्यों यह मन, नित चिकुर-जाल मे है फँसता छिन गया सुख सारा, अब रूप देख कैसे हँसता विधा कैसी, उर-अभिसार हुये जर्जर प्रणय-प्रलाप से कितने जुड़े बिछुड़े परिकर समय बीता प्यार सिधारा करता हरहर फिर भी बावला, जड़ तकिये में मुंह औंधा रोता छिन गया सुख सारा, अब रूप देख कैसे हँसता घाट पर बैठे मौन मुख देखते गुम हुआ कोई, हम ठहरे आंच सेंकते सुनते हैं अभी भी कान, प्रणय को रेंकते प्रकृति समझे पशु भी, पुरुष क्यों सुख में धँसता छिन गया सुख सारा, अब रूप देख कैसे हँसता

धुंध हुई आँखें, सपनों से मन कितना बहलाऊँ

इतने दशकों की चित्रकथा अंत से पहले कह गयी व्यथा धर्म-संबंध-भावना अब नहीं है प्रथा अपना जीवन-अपनी बात, फिर कैसा सच जतलाऊँ धुंध हुई आँखें, सपनों से मन कितना बहलाऊँ पीड़ा भी बहुत अश्रु नहायी सुख ढूंढा फिर तो मुंह की खायी मील नहीं, एक हाथ भी पार न पायी मन हारा, अब दीवार को क्या दुख बतलाऊँ धुंध हुई आँखें, सपनों से मन कितना बहलाऊँ संघर्ष मे रीढ़ से टूटा हुआ दिशाहीन तरकश से छूटा हुआ झूठा सुख प्रणय से लूटा हुआ इन्हे समेटता, गिरता-उठता, कैसे विजेता कहलाऊँ धुंध हुई आँखें, सपनों से मन कितना बहलाऊँ

‘नहीं’ की गूंज, बरसों की प्रीति गयी झकझोर

शब्द कर्कश फोड़ गए पत्थर प्रणय फटा पंजर से दरक कर मिथ्या की आंखे चीर, अश्रु झरे निर्झर मांगा था केवल पल भर वक्षस्थल इस भोर ‘नहीं’ की गूंज, बरसों की प्रीति गयी झकझोर वसंत सा खिला था कल समय उसे देख आँखों मे चमकता था विजय रौंद कर स्नेह-स्पंदन आज मचा है प्रलय मुट्ठी भर जीवन, साँझ खिला, रात गिरा उस छोर ‘नहीं’ की गूंज, बरसों की प्रीति गयी झकझोर थक कर भुजाओं का बल जाना बंद आँखों से अधरों को पहचाना अब घुटने टेक छिपे यथार्थ को माना नीड़ टूटा, ठूंठ से टिका प्राण जी रहा तम घनघोर ‘नहीं’ की गूंज, बरसों की प्रीति गयी झकझोर

ढलता यौवन भी आज शापित हुआ

कल तक जीवन था उसमे छिपा यौवन था उस पर चढ़ा आवरण था छल उतरा तो सत्य भी द्रवित हुआ ढलता यौवन भी आज शापित हुआ कल तक हुआ आलिंगन मन भेदे आज शब्द सघन एक मरा, दूसरे का भी तोड़ा तन कह गया सच, मुझसे क्यों कुपित हुआ ढलता यौवन भी आज शापित हुआ कल होगे तुम भी वृद्ध कब तक करोगे हवा से युद्ध मैं जड़ हुई, पर तुम कितने हुये प्रबुद्ध कुचल गया प्रणय, निर्लज्ज भी आज लज्जित हुआ ढलता यौवन भी आज शापित हुआ

पहले तुमसे था जीवन, आज कुछ भी नहीं

पहले आँखों से छलकता था प्यार घिरे बाहुपाशों में मिलता था उपहार दिन बीते निथरता था पल-पल का सार मन हुआ निष्प्राण प्रणय-प्रतिकार में वहीं पहले तुमसे था जीवन, आज कुछ भी नहीं उर हुआ बंजर, भावनाएं फटी अनुराग भारहीन पतंग सी कटी आँखें फूटी, कोई बड़ी दुर्घटना घटी मन रोये अविरल, गिरता-उठता संसार मे यहीं पहले तुमसे था जीवन, आज कुछ भी नहीं मन से उतरा बरसों पहले का चित्र न रहे संबंध, न ठहरे उन दिनों के मित्र बनते अंदर से मूक, बाहर से छद्म-चरित्र कैसे हंस लें, जब आह छिपी उर में कहीं पहले तुमसे था जीवन, आज कुछ भी नहीं

शब्दों का अर्थ नहीं, फिर क्यों गला फाड़ कर चिल्लाता

कुछ शब्द आंसुओं में गले कुछ मूक दुखते कंठ मे ढले शेष अंदर ही हृदय के तपन मे जले स्वयं से भीरु मैं, प्रणय-वेदना कैसे बहलाता शब्दों का अर्थ नहीं, फिर क्यों गला फाड़ कर चिल्लाता कल शब्द हुये उत्तेजित वाकयुद्ध में मन गिरा मूर्छित रात सहमी, स्वप्न भी हुआ विसर्जित सुबह तक देहरी पर पड़ा रहा गुत्थियाँ सुलझाता शब्दों का अर्थ नहीं, फिर क्यों गला फाड़ कर चिल्लाता हाय लगी किसकी जो प्रणय मरा आह निकली, साँसों में दुख भरा लगा दामिनी दौड़ी गगन से धरा जीवन तो जल कर बुझा, अब किसको सहलाता शब्दों का अर्थ नहीं, फिर क्यों गला फाड़ कर चिल्लाता

सुख-दुख तज कर, मैं आकाश देखता सो जाऊँ

बची आशाओं की पीड़ा हर लो मन का खालीपन कुछ भर दो या मेरे उर पर भारी पत्थर धर दो आवेग, उमंग, भाव-रंग, सब छोड़ कहीं खो जाऊँ सुख-दुख तज कर, मैं आकाश देखता सो जाऊँ अब बारी है जड़ क्रंदन की माथे पर निमित्त झूठे स्पंदन की कौन विकल, कैसी गति है इस बंधन की मुक्त हुआ अभिसार, अब खुले गगन रो पाऊँ सुख-दुख तज कर, मैं आकाश देखता सो जाऊँ बिछ गई चालीस मन लकड़ियाँ बरस की एक जुड़ी सिसकियाँ विरह की आंच उठी, उडी तितलियाँ प्रेत हुआ प्रणय, अब किस के भाग्य पर रोऊँ सुख-दुख तज कर, मैं आकाश देखता सो जाऊँ

बहुत दिया तुमने, पर भी मानता नहीं मन बावला

मैं हुआ नहीं अधरों से उऋण नित सुबह ढूँढता नये मधु-कण निर्लज्ज देहरी पर रोता हूँ क्षण-क्षण ईश्वर भी रूठा, किसे कहूँ विरह मे उर कितना जला बहुत दिया तुमने, पर भी मानता नहीं मन बावला प्रणय मांगते कितने अभिस्कंद जिये मन घुटा, दरवाजे सारे बंद हुये दिलासा नहीं देते बुझते मंद दिये ‘अब नहीं’ से ऊंची, अर्चक की कैसी ताल भला बहुत दिया तुमने, पर भी मानता नहीं मन बावला स्वप्न न मन की पीड़ा हरते दान मांगने तुम तक पग भरते थोड़े के लिए नित नयन झरते अब प्राण द्वार पडा, मन क्यों सावन की ओर चला बहुत दिया तुमने, पर भी मानता नहीं मन बावला

अभिसार छोड़, जीवन चला तम की ओर

\न छू पाऊँगा उर के गुब्बारे चख न सकूँगा मधु-कण प्यारे ढंके द्वार कृष्ण-कुंज के सारे रात न बीती, जाने कल कैसा होगा भोर अभिसार छोड़, जीवन चला तम की ओर न रहेगा कुछ अधरों के बीच साँसे न खिचेंगी उर से आँखें भींच मरी तृष्णा मरु मे अब अश्रु उलीच प्रणय फंदे से लटका, ढूंढ रहा खींचू किस छोर अभिसार छोड़, जीवन चला तम की ओर सुख भरे बरस पीछे छूटे मिट्टी के अंधे कुएं फूटे शेष स्वप्न रात जाल मे टूटे अंत निकट पड़ा, यम अटल खींच रहा डोर अभिसार छोड़, जीवन चला तम की ओर

अब नहीं कोई जीवन, ठहरी सरिता के तट

सुबह हुई, कबूतर चहके न मन मचला, न तन दहके पाषाण हुयी कस्तूरी कैसे महके आँख खुली, दो प्राण पड़े थे अपनी करवट अब कोई जीवन नहीं, ठहरी सरिता के तट कल की कोई अस्मिता नहीं मन में बैठी है व्यथा वहीं मृत आशाएँ भी हैं प्रेत यहीं स्नेह मरा है घोंघा सा, छलती आँखों के पट अब कोई जीवन नहीं, ठहरी सरिता के तट शेष जीवन जैसे सघन वन है हाथ भर की दूरी पर सब निर्जन है प्रेम-प्रणय-प्रज्ञा का यहाँ निश्चित विसर्जन है प्रेयसी सिधारी, फिर जीवन से कैसा है हठ अब कोई जीवन नहीं, ठहरी सरिता के तट

टूट गया विश्वास, चल बसा अनुराग हृदय से

मन कल-आज में घिरा चक्रव्यूह में मस्तिष्क फिरा जीवन स्वर्ग से धरा पर गिरा उसने सुना नहीं, आह मरते क्रंदन की लय मे टूट गया विश्वास, चल बसा अनुराग हृदय से पहले के साथी अब बने दरबान ढ़ाल पहने करते युद्ध का आव्हान पछाड़ते शब्दों से, नापते यत्न का परिमाण अधमरे प्राण, सुखी न हुआ कोई इस विजय से टूट गया विश्वास, चल बसा अनुराग हृदय से अनिर्णीत से ठहरे हम हठीले बन भरते रहे दम मिटा न सके प्रणय के भ्रम संबंध भी चल बसा, नित नये छल के भय से टूट गया विश्वास, चल बसा अनुराग हृदय से

‘आज’ हुआ निर्वासित, कितना अच्छा था कल

इतिहास के कंधे पर ‘आज’ मौन है जीवन की अधोगति का दोषी कौन है छल-यथार्थ के द्वंद में संबंध भी गौण हैं कैसे समझें सच, बंद आँखों में भी बसा है छल ‘आज’ हुआ निर्वासित, कितना अच्छा था कल देहरी पर पड़ा है तन टूटा-फूटा जग हँसता पर तुमसे खिंचाव न छूटा कंगाल हुआ मैं, प्रेम-प्रणय, सभी ने लूटा भीख के लिये भी, अब भाग्य हुआ निर्बल ‘आज’ हुआ निर्वासित, कितना अच्छा था कल कैसी मरीचिका बनी मनोरथ न कोई दिशा न आश्वस्त पथ पर क्यों ढूँढता है मन, यहीं एक और छत कुछ साँसे शेष बची हैं, कोई न देता मुझको संबल, ‘आज’ हुआ निर्वासित, कितना अच्छा था कल

उडी रजकण सी स्मृतियाँ, धुंधलाया जीवन का शेष

कल सिसकता मन था कच्चा आज है जैसे अश्रु-पूरित बच्चा प्यार तन-मन में उलझा बना लच्छा मुंह भर बातें निगल, आज मौन भी छेड़ गया क्लेश उडी रजकण सी स्मृतियाँ, धुंधलाया जीवन का शेष, आँखों में छाया सघन शोक देहरी लांघ कौन सिधारा परलोक बाँट लो थोड़ा प्यार उस पर नहीं कोई रोक मत बनो पाषाण, प्यार मे नहीं पनपता है कोई द्वेष उडी रजकण सी स्मृतियाँ, धुंधलाया जीवन का शेष, धूमिल हुई मृग की कस्तूरी पर छलाँगें तृष्णा की न हुई पूरी आह उठी और कंठ में रह गयी अधूरी बरस बीते, अब किस काल का अपेक्षित है प्रवेश उडी रजकण सी स्मृतियाँ, धुंधलाया जीवन का शेष,

सुख सिर-आँखों पर, दुःख न कोई हँस कर जतलाता

नींद ही सींच गया मन का अंतर उन्माद ढला और बुद्धि हुआ मंथर पर प्रणय बहता रहा रुधिर में निरंतर ‘अब नहीं’ के आगे, कोई सुनता तो कुछ बतलाता सुख सिर-आँखों पर, दुःख न कोई हँस कर जतलाता तन मरा, पर मन है ताड़ सा तना खो गए मधु-कण, पर तम घिरा घना घुला आंसुओं में प्रेम, जो मिट्टी का है बना दलदल मे धँस कर, सिसकता उर कैसे सहलाता सुख सिर-आँखों पर, दुःख न कोई हँस कर जतलाता अब जीवन की थाह जान लिया धर्म-संबंध सब कुछ पहचान लिया प्रेयसी सत्य नहीं, भाग्य ने मान लिया मृत्यु छोड़ है सब मिथ्या, फिर क्यों मैं मन बहलाता सुख सिर-आँखों पर, दुःख न कोई हँस कर जतलाता

ऐसी भी होती है माया, मैंने यह कभी न जानी

बीती यादों का कितना भार सहूँ घुटते बंद कमरे में स्वयं से क्या कहूँ उस करवट कोई नहीं, निराकार कल्पना भी लुढ़की प्रेत बनी घूमती है इच्छा, ढूंढती आह पुरानी ऐसी भी होती है माया, मैंने यह कभी न जानी रोता स्वप्न भी लगा, अब यही प्रणय है, मन मूर्छित हुआ, फिर भी बज रहा ह्रदय है बर्फ की सिल्ली पर लेटे, हार भी हुयी विजय है स्पर्श ‘अब नहीं’ पर वह कस्तूरी तो है पहचानी ऐसी भी होती है माया, मैंने यह कभी न जानी छिपता था कभी मैं इस वक्ष-स्थल में भटक गया राह ‘अब नहीं’ के कोलाहल में खेल न सकेंगे फिर कभी, हम इस क्रीडा-स्थल में चिकुर-जाल में उलझ गयी है यह बौराई कहानी ऐसी भी होती है माया मैंने यह कभी न जानी

देहरी पर ठहरे, कैसे आँखों में रात संभालें

बंद दरवाजे पर खड़े नयनों में नीर भरे जड़ स्मृतियों में रोते कितने अश्रु झरे फिर भी मुस्कुराता, सुबह दौड़ा मन कस्तूरी तक कहता मरीचिका से, रुको दृगों में बाँध बनाले देहरी पर ठहरे, कैसे आँखों में रात संभालें मन भूलता नहीं उन्मत्त इतिहास प्यार का स्पर्श, वही कल का आभास ढूढता हूँ वह पल, आज भी खुली मुट्ठियों में मन करता है समय तोड़, फिर प्रणय में जी लें देहरी पर ठहरे, कैसे आँखों में रात संभालें दोबारा देख न पाऊँगा उसे इन नयनों से नम न कर पाऊँगा अधर उन मधु-कणों से अपने जीवन का शुभ-सुन्दर, बस एक बार फिर दे दो हृदय फाड़ अवशेष प्रेम को ही भाग्य बना लें देहरी पर ठहरे, कैसे आँखों में रात संभालें

सघन विचारों में कभी स्वयं से बातें करता

आकर्षक, नंदिनी सी आँखों वाली अन्तरंग में छिपी नव-सर्जना सी भोली-भाली वह अकेली जीवन में छाई वसंत सी सारी उसे देख फिर भी मन क्यों मुरझाया रहता सघन विचारों में कभी स्वयं से बातें करता उमड़ती आशाएं पर उसे शत-शत नमन वही आद्या बल देती सपनों में दिन-गहन पहले अमरबेल सी लहराती, अब क्यों विमुख हुयी छिन गया सब कुछ आज सुख घुट-घुट मरता सघन विचारों में कभी स्वयं से बातें करता तन का संघर्ष सृष्टि की एक ही विधा जीवन है, सत्य, बल, और छल की त्रिधा जब शरीर नहीं ,तो दुःख भी है स्वर्ग की सुधा पर मैं अधम निर्मोही संग स्वांग कैसे भरता सघन विचारों में कभी स्वयं से बातें करता

कुछ न कहना, सब जान कर भी अनजान रहना

मन क्यों दीवार देखता जड़ बना सोता है दुख कंठ मे दबा, अंधेरे मे मौन रोता है किस के गोद में झरते आंसू पीड़ा भी हर जाते है यौवन भी भूल गया आज सावन सा बहना कुछ न कहना, सब जान कर भी अनजान रहना कैसी हाला मिली थी उस चुम्बन में कहीं छिप गया वह खुमार मन में नहीं मिली वह चाह पुरानी, उसकी भी है मनमानी भाग्य यही, स्पर्श की सोच सहना और हँसते रहना कुछ न कहना, सब जान कर भी अनजान रहना आरती की लौ पर फिर शलभ जा जला लौ को क्या पता तृष्णा कैसी है भला सपने भी मिट्टी सिधारे, बची रात हम क्या संवारें आह पुरानी, अश्रु पुराने, उनका तो तय है बहना कुछ न कहना, सब जान कर भी अनजान रहना

सुख थोड़ा ही सही, पर दुख कोई बात नहीं

कितनी बार लहरों को लौटाया फिर भी किनारों पर थपेड़ें खाया निर्लज्ज फिर ढूंढ़ता हर खुली खिड़की में अपनापन जान लो, अब अभिसार आगे साथ नहीं सुख थोड़ा ही सही, पर दुख कोई बात नहीं कड़ी तपस्या से तुम्हे बरसों बाद पाया कितने रतजगे बीते फिर घिरी तुम्हारी माया पर आज हाथ भर की दूरी क्यों क्षितिज बनी दिन में झुलसी काया, पर मन रुका रात वहीँ सुख थोड़ा ही सही, पर दुख कोई बात नहीं ऐसा क्या हुआ जो तिल का ताड़ बना रोया, चिल्लाया, फिर क्षुद्र का सीना तना प्रणय को ग्रहण लगा पर आंखों में तो गगन समाया नियम तुम्हारे, बात तुम्हारी, हो गयी अब मात यहीं सुख थोड़ा ही सही, पर दुख कोई बात नहीं

क्यों तुमने इस जीवन का इतिहास बनाया

वह तो चुपचाप खड़ा था कोने में उलझा था मन की बात लिए रोने में मूक क्या कहता व्यथा की बात तन की तपन मे नहीं कहीं घना छाया क्यों तुमने इस जीवन का इतिहास बनाया पहले उडती थी मंद-मंद कस्तूरी अब वसंत भी गयी, बात भी रही अधूरी रात ढले कुछ अपने ही स्मृतियों की कथा सुनाते तुम भूली गई, पर मन तुम्हारे ही आँखों समाया क्यों तुमने इस जीवन का इतिहास बनाया सपने फिसले जैसे पत्तों से झरता पानी दुबका था वह कोने में, फिर कैसे बनी कहानी करवट लिये गीले नयनों, में अब व्यथा दिन की तू झेल झर जाने दो इन्हें नयनों से, उर में तो है सिन्धु समाया क्यों तुमने इस जीवन का इतिहास बनाया

कभी मुझसे भी पूछो, अब तक कितने दुःख पाये

मन मौन होकर भी कानों में चिल्लाता है कंठ में शूल चुभा, फिर भी झुठलाता है गिर कर भी मन की बात नहीं समझ सका मैं छल गया आज जीवन, सुख के दिन फिर नहीं दोहराये कभी मुझसे भी पूछो, अब तक कितने दुःख पाये ठहरे सारे आवेग, ठूंठ सा लगता है जीवन कभी अधर सूखे, कभी आहों से जलता मन रस-रूप तो घना दिखा, पर शून्य में ही घिरा मन ऐंठा अब न रस घोले यौवन, देह धरे पथराये कभी मुझसे भी पूछो, अब तक कितने दुःख पाये कंठ हुआ मध्यम, आँखों में घन घिर आया कुछ तो समझो मै फिर तुम्हारी देहरी पर आया कितना भी कह लो ‘अब-नहीं’ मन न भटक पाया मधु के लिए तरसता, देखो पग भर छाले आये कभी मुझसे भी पूछो, अब तक कितने दुःख पाये

अब मैं हुआ निर्मोही, मेरा मत ध्यान करो

समय चला पर मैं तुम तक ही ठहरा तुम्हें देखता हूँ इन आँखों में गहरा टूटा स्मृतियों से तुम मेरा मत निर्माण करो अब मैं हुआ निर्मोही, मेरा मत ध्यान करो प्यार बांचते कितनी सीमाए लांघ गए जब गिरे थके, उर पर भी पत्थर बिछ गए तन-मन जीवन सब डूबा अधर तले निर्लज्ज आशाओं का मत सम्मान करो अब मैं हुआ निर्मोही, मेरा मत ध्यान करो मैं वहीं खड़ा हूँ जैसे बरसों अकेला ताड़ मरुभूमि में उगा फिर उसे वहीं दिया गाड़ मरीचिका है जग, सृष्टि में जाने क्या है शाश्वत प्रणय तो शलभ है, स्वयं को न अब हैरान करो अब मैं हुआ निर्मोही, मेरा मत ध्यान करो