आखिर समुद्र से तात्पर्य : नरेश मेहता

Aakhir Samudra Se Tatparya : Naresh Mehta


फाल्गुनी

जिन दिनों मैं कविता नहीं लिखता उन दिनों वह– वनों में जाकर वृक्षों के फूल और वनस्पतियों की सुगन्ध बनी फाल्गुनी हो जाती है और मुझे भी अरण्य की यह उत्सवता चैत्र बना देती है। और फिर एक दिन जब द्वार पर दस्तक देता वन– इस फाल्गुनी के साथ उपस्थित हो कहने लगता है– ‘‘लो, सम्हालो अपनी यह कविता, मैं भी तो कुछ दिन तुम्हारी तरह निश्चिन्त रहना चाहता हूँ’’ और वह भी मुझे अपनी आरण्यकता सौंप बदले में मेरा पतझर लेकर सामने की पगडंडियाँ उतरने लगता है। मैं इस आरण्यकता से इतना ही कह पाता हूँ– ‘‘स्वागत है, फाल्गुनी!’’ ‘‘नहीं, फाल्गुनी मैं वन में थी यहाँ नहीं, यहाँ तो मैं तुम्हारी कविता हूँ। और वह अपने पर से वन उतार शब्द पहनने लगती है।

प्रतीक्षा

इन सूखे पत्तों पर मत चलो देखते नहीं इनकी भाषा कैसी चरमरा उठती है? और इस चरमराने को सुन वृक्ष चौंकते ही नहीं उन्हें दर्द होता है। क्या तुम प्रतीक्षा नहीं कर सकते? अभी चैत्र-हवा आएगी और देखना– धरती पर अपने खिलखिलाने की भाषा लिखते हुए ये पत्ते स्वयं मैदानों-चरागाहों तक दौड़ जाएँगे। क्या तुम इतनी भी प्रतीक्षा नहीं कर सकते?

प्रश्न

जल! तुम कब बनोगे नदी? इन कान्तारी काँठों के पत्थरों पर जो लिखी पड़ी है क्या वह नदी है? नहीं, वह तो नदी-पथ है नदी की देह है नदी कहाँ? भ्रम है नदी का– कगारों को ही नहीं टिटहरियों को भी तभी तो नदी-पथ में नदी को ढूँढ़ते पुकारों के वृत्त में वे उड़ रही हैं। कगारों से उतरता वह मार्ग घुटनों तक उठाये वस्त्र पार करता नदी जैसा लग रहा है। धूप भी तो नदी-पथ में उगी इन झरबेरियों में अनमनी सी, रोज कैसे खोजती है, नदी। हवाएँ, चील जैसी मारकर लम्बे झपट्टे हार-थक तब बैठ जाती हैं किसी पीपल तले। पर यह विवश आकाश जाए तो कहाँ जाए? कैसा निष्पलक है प्रतीक्षारत क्षितिज से क्षितिज तक दिन-रात– ओ-जल! तुम कब बनोगे नदी?

अन्तर

इतना तो सब जानते हैं, कि पत्र, व्यक्ति नहीं होते और न ही व्यक्ति, पत्र पर कई बार ऐसा लगता है, कि क्या सच ही ऐसा है? कैसे कई बार किसी पत्र के शब्द ऐसे नेत्र लगते हैं जैसे परिरम्भण आकांक्षा से आपूरित दो माणिक हैं जो पत्र से बाहर निकल आपके पार्श्व में होने को आकुल हैं। इसी तरह कई बार किसी पत्र के शब्द ऐसे बुदबुदाते अधर लगते हैं जो कहने के प्रयास में पीपल-पत्र से कँप-कँप पड़ते हैं और जिन्हें– अपने अधरों का सम्पुट देकर ही सुना जा सकता है। इसी तरह कई व्यक्ति अपने नेत्रों से ऐसे अर्थहीन शब्द लगते हैं जैसे शाबर-मन्त्र हों और उनके बुदबुदाते अधरों वाले वाक्यों के उठते बुलबुलों से कैसी तीखी गन्ध आने लगती है। इसीलिए शायद कुछ पत्र– व्यक्तियों से भी ज्यादा अमूल्य खस की सुगन्ध जैसे होते हैं और कुछ व्यक्ति– ऐसे पत्र जिन्हें रद्दी की टोकरी ही शायद पढ़ना पसन्द करे और, वह भी फटे हुए रुप में।

तपस्विता

तपते तो घर भी हैं और वृक्ष भी, मगर यह तुम पर निर्भर करेगा, कि तुम किस तपस्विता को चुनते हो घर की या वृक्ष की? तुमने देखा ही होगा, कि हर घर एक द्वीप ही होता है इसीलिए तपते हुए वे सदा बन्द रहते हैं। वहाँ की सुखद छाया भी सिर्फ उन्हीं के लिए होती है जो घरों की द्वीपता में विश्वास करते हैं, इसलिए वहाँ रहनेवाले वे और वहाँ की वह सुखद छाया सभी कुछ द्वीप के उस आत्मनिर्वासन को समर्पित होते हैं। जबकि वृक्ष– दीवारोंहीन मैदानों-पठारों में दिगम्बर औघड़ बने भीलों जैसी अपनी कृष्ण-कायाओं में तपते होते हैं और जो भी पहुँच जाता है– पशु-पक्षी या हम तुम, या कोई भी उस पाहुन के सामने कैसे निश्चल खिलखिलाते हुए परस देते हैं बाजरे की रोटी जैसी अपनी तपती उपस्थिति और खाल के जल जैसी लू में झुलसती हुई अपनी ठण्डी छाया। तपते तो घर भी हैं और वृक्ष भी मगर यह तुम पर निर्भर करेगा, कि तुम किस तपस्विता को चुनते हो घर की या वृक्ष की?

शक्ति के रूप

समूह की शक्ति पहाड़ जैसी विपुल, विराट अवश्य पर मात्र जड़। व्यक्ति की शक्ति नदी का संकटपूर्ण एकाकीपन भले ही पर प्रखर, चैतन्य और गतिशील।

विज्ञान-गृहविज्ञान

पत्नी ने पूछा, –क्यों विद्युत का प्रकाश पहले आता है और गर्जन कुछ देर बाद सुनायी देती है? क्यों? ऐसा क्यों होता है? मैं चौंका, कि कि हमारे इस भाद्रपदी रम्य क्षण में यह विज्ञान का बाल कहाँ से आ पहुँचा? बोला, –प्रकाश पुरुष है और गर्जन स्त्री इसलिए स्त्री अपने पुरुष की अनुगामिनी होती है। प्रवक्ता पत्नी ने शराराती आँखों वाले अपने हँसने में चौंकना जोड़ते हुए कहा, –क्या? क्या कहा? आकाश में बादल-बिजली की रमणीयता देखते हुए मैं बोला, –और क्या, विज्ञान इसी प्रकार गृह-विज्ञान बनता है।

सिर्फ हाथ

इधर वह कई दिनों से मनुष्य नहीं था तभी तो– जब भी मिला जहाँ भी मिला असुविधा के साथ ही कुछ-कुछ मिला कुछ-कुछ नहीं मिला। जब भी दिखा जहाँ भी दिखा गर्म जेब को छुपाते, आँखें चुराते कुछ-कुछ दिखा कुछ-कुछ नहीं दिखा। खिरकार एक दिन पूछ ही बैठा, –क्यों भाई, कितने दिनों से मनुष्य नहीं बन सके हो? प्रश्न सुन थोड़ा हतप्रभ अवश्य हुआ पर तत्काल अपना सफारी ठीक करते हुए जीवन की मेरी मध्यकालीन समझ पर तरश खाते हुए ठहाका लगा, बोला, –क्या इन भेड़ियों के झुण्ड के लिए मैं ही मेमना हूँ? जनाब! घर से बाहर मैं मनुष्य नहीं सिर्फ हाथ हूँ, हाथ।

गुमशुदा

रजिस्टर में वह नहीं उसका हस्ताक्षर था, सीट पर वह नहीं उसका कोट था, घर में वह नहीं घूस का अम्बार था स्वयं भी वह कहाँ, फाइलें दबाये काँइयाँ बाबू था– तब वह कहाँ था? यह कोई नहीं जानता– न उसके अफसर न उसके मातहत और न काम से चक्कर लगाते लोग कि वह कहाँ था? एफ० आई० आर० लिखवायी तो थी गुमशुदा की लेकिन:गुमशुदा गुमनाम नहीं होता।

परिभाषा

सिर से पैर तक विवश देवत्व का नाम स्त्री– और सिर से पैर तक आक्रामक पशुता का नाम पुरुष।

वह व्यक्ति

मैंने देखा– उसकी आँखों में, व्यक्तित्व में मिट्टी के तेल की गन्ध वाली तथा राशनकार्ड वाली धुँधली लिखावट में मुश्किल से कहा जा सकने वाला जीवन लिखा था। कुछ भी तो उस व्यक्तित्व में ऐसा नहीं था जिसे भीड़ से पृथक करके देखा जा सकता था। उसके दयनीय रुप से झुके कंधों पर उसके घर-परिवार का ही नहीं बल्कि पूरे मुहल्ले का बोझ लग रहा था। मैंने आत्मीय आश्वस्ति के साथ कहा, –क्यों नहीं उतार फेंकते अपने पर से व्यवस्था की यह दासता? कब तक भीड़ में संख्या बने खड़े रहोगे? अपने को संज्ञा दो व्यक्ति बनो। उसके व्यक्तित्व का सारा खून उसकी आँखों में उतर आया, पर वह अबोला ही रहा और अपनी गली की ओर बढ़ गया। मुझे उसकी इस विवश विद्रोही कापुरुषता पर ग्लानि हो रही थी कि तभी एक तेज झनझनाता पत्थर आया और मुझे लहूलुहान कर गया। मैंने देखा उसकी आँखों में, व्यक्तित्व में तेजाब की गन्धवाली रामपुरिया फलकवाली हिकारत की भाषा थी। शायद भीड़ इसी प्रकार व्यक्ति बनती है।

कृपा करो

क्या कहूँ? कहो तुम्हें क्या कहूँ ओ मेरे जन्म-मास फाल्गुन! तुम्हें क्या कहूँ? तुम तो स्वयं ही संवत्सर द्वारा रंग-वर्ण-गन्ध से सुसज्जित वानस्पतिक अंग-अंग अनंग हो नहीं– पूर्णकाम काव्य-कृष्ण हो। घास के अनाम फूलों से लेकर पलाश औ कचनार तक, कहाँ-कहाँ कौन नहीं उपकृत है तुमसे तुमसे इस अनुग्रह रंग-रास से? फूल होने का अर्थ ही है फाल्गुन हो जाना। ओ मेरे जन्म-मास! मुझे तो पूरा फूल भी नहीं मिल जाती यदि फूल की मात्र एक पाँखुरी तो सच मानो इस भाषा के जग में बच जाता होने से किरकिरी। ओ मेरे जन्म-मास फाल्गुन! कृपा करो मैं भी हूँ नामहीन तुम्हारी ही मानुषी-वनस्पति।