वाजश्रवा के बहाने : कुँवर नारायण

Vaajshrava Ke Bahane : Kunwar Narayan

प्रथम खंड : नचिकेता की वापसी

आह्वान

यह 'आज' भी वैसा ही है
जैसा कोई 'आज' रहा होगा
इस आज से कहीं बहुत पहले।

तब भी पूरी दुनिया को
जीत लेने की हड़बड़ियों से लैस
निकलते होंगे
सजेधजे सूरमाओं के झुंड
और शाम को घर लौटते होंगे पस्त
दिन भर की धूल चाट कर
थकीमाँदी हताशाओं के बूढ़े सिपाही!

याद आतीं वे सुबहें भी
इसी तरह आँखें खोलतीं
ऐसी ही किसी उदासीन पृथ्वी पर

आह्वान करता हूँ
उस अपराजेय जीवनशक्ति का
उसकी प्रकट अप्रकट प्रतीतियों को
साक्षी बना कर
धारण करता हूँ मस्तक पर
एक धधकता तिलक।
और फैल जाता है
दसों दिशाओं में
भस्म हो कर मेरा अहंकार।

लौट आओ प्राण
पुन: हम प्राणियों के बीच
तुम जहाँ कहीं भी चले गये हो
हम से बहुत दूर-
लोक में परलोक में
तम में आलोक में
शोक में अशोक में :

लौर आओ प्राण
पुन: हम प्राणियों के बीच
तुम जहाँ कहीं भी चले गये हो
हम से बहुत दूर-
तल में अतल में
जल में अनल में
चल में अचल में :

लौट आओ प्राण
पुनः हम प्राणियों के बीच
तुम जहाँ कहीं भी चले गये हो
हम से बहुत दूर-
क्षितिज में. व्योम में
तारों के स्तोम में
प्रकट में विलोम में :

लौट आओ प्राण
पुनः हम प्राणियों के बीच
तुम जहाँ कहीं भी चले गये हो
हम से बहुत दूर-
फूलों में पत्तियों में
मरु में वनस्पतियों में
अभावों में पूर्तियों में :

लौट आओ प्राण
पुनः हम प्राणियों के बीच
तुम जहाँ कहीं भी चले गये हो
हम से बहुत दूर-
जलधि की गहराइयों में
ठिठुरती ऊँचाइयों में
पर्वतों में खाइयों में :

लौट आओ प्राण
पुनः हम प्राणियों के बीच
तुम जहाँ कहीं भी चले गये हो
हम से बहुत दूर-
वात में निर्वात में
निर्झर में निपात में
व्याप्ति में समाप्ति में :

लौट आओ प्राण
पुनः हम प्राणियों के बीच
तुम जहाँ कहीं भी चले गये हो
हम से बहुत दूर-
रसों में नीरस में
पृथ्वी में द्यौस्‌ में
सन्ध्या में उषस्‌ में

लौट आओ प्राण...

(यत्‌ ते यमं वैवस्वतं मनो जगाम दूरकम्‌ ।
तत्‌ त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे ॥
यत्‌ ते दिवं यत्‌ पृथ्वीं मनो जगाम दूरकम्‌।
तत्‌ त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे॥
--ऋग्वेद (मानस) 10/58)

यह कैसा विभ्रम?
सुनाई देती हैं
कुछ देर तक
कुछ दूर तक अपनी ही आवाज़ें,
फिर या तो आगे निकल जाती हैं
या पीछे छूट जाती हैं!

एक पुकार की कातरता से
गूँजती हैं दिशाएँ

रात का चौथा पहर है
सुबह से ज़रा पहले का अँधेरा-उजाला
द्विविधा का समय
कि वह था?
या अब होने जा रहा है ?

कवयो मनीषा

अपनी ही एक रचना को
सन्देह से देखते हुए पूछता है रचनाकार
“क्या तुम पहले कभी प्रकाशित हो चुकी हो ?”

रचना ने पहले अपनी ओर
फिर अपने चारों ओर प्रकाशित
प्रभा-मंडल की ओर देखा; फिर
अपने चारों ओर फैले अँधेरों के पार
दूर पास चमकते
एक से अधिक संसारों की सम्भावनाओं को
देख कर उत्तर दिया-

“मैं संगृहीत हूँ अब
रचनाओं के महाकोश में,
मुझे 'कवि' या 'कविता' के
प्रथम अक्षर 'क' से
कहीं भी खोजा जा सकता है।”

(कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेत: प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्‌ हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥
--ऋग्वेद सृष्टि ( प्रजापति सूक्त) 10/129)

जोथा किन्तु प्रकट न था
प्रकाशित हुआ

मन-और-बुद्धि के संयोग से
रूपायित होती एक कृति,
फैलतीं जीवन की शाखाएँ. प्रशाखाएँ
अपने वैभिन्‍नय
और एकत्व में।

यह सब कैसे हुआ-
अनायास ?
सायास ?
अकारण ?
सकारण ?

क्या यह सब अभी भी हो रहा है
उसी तरह निरन्तर-अनन्तर-आभ्यन्तर-
अपने पूर्वार्द्ध
या उत्तरार्द्ध में ?

कुछ भी हो सकता है
उन गाढ़े रंगों की चौंध के पीछे
एक उड़ते हुए बहुरंगी पक्षी की आत्मा
या एक बेचैन पल में
फड़फड़ाता नीलाकाश

या कुछ भी नहीं,
केवल एक विरोधाभास
कि नीला नहीं
पारदर्शी है आकाश,
और घासफूस के पक्षी पर
मढ़ा है
उड़ते रंगों का मोहक लिबास।
तत्त्वदर्शी देखता है एक मरीचिका की अवधि में
प्यास को अथाह हो जाते एक बूँद की परिधि में

जीवित था एक स्पन्द
जिसके साँस लेते ही
साँस लेने लगी है सम्पूर्ण प्रकृति

उसका रुदन जैसे एक स्तवन से
गूँज उठा हो भुवन का कोना-कोना
वह छा गया है आक्षितिज
व्योम से भी परे तक
प्रदीप्त हैं
लोक परलोक

देखने लगा है संसार
हज़ारों आँखों से,
सोचने लगा है मनुष्य
हज़ारों सिरों से,
काम से लग गये हैं हज़ारों हाथ,
चलने लगा है जीवन हज़ारों पाँवों से,
उड़ने लगी हैं आकांक्षाएँ
हज़ारों पंखों से

कोई तो है
जिसकी हलचलों से भर उठा है
इस खालीपन का कोना-कोना
उसका देखना निमन्त्रित करता है
एक निश्चेष्ट जगत को।

एक आह्लाद की ऊर्जा दौड़ जाती है नसों में
एक नयी उमंग से
झंकृत हो उठता है तन मन

..वह लौट आया है, आज
जो चला गया था कल
वही दिन नहा धो कर
फिर से शुरू हो रहा है
सृष्टि का पहला-पहला दिन

वह जो था-है
अहर्निश
न प्राचीन न अद्यतन
केवल सोता जागता।

शायद नहीं जानता था विधाता भी
अपने विधान से पहले
कि वह एक निर्माता है

(सहस्रशीर्षा पुरुष: सहस्राक्ष: सहस्रपात्‌।
स भूमिं विश्वतो वृत्वाउत्यतिष्ठद्दशांगुलम्‌॥
--ऋग्वेद ( पुरुषसूक्त) 10/90)

एक संयोग में बन्द
जीवन-मकरन्द
एक स्पन्द मात्र
जब फूट कर
प्रस्फुटित हुआ होगा एक बीज से

प्रकट होते ही उसने पूछा होगा
आश्चर्यचकित
अपनी ही सृष्टि से
कौन था वह सर्वप्रथम
अपने उजाले से भी कहीं अधिक उज्ज्वल ?
कौन था उसका रक्षक?
कौन था सुरक्षित ?-एक जीवाश्म में
सूत्रबद्ध सम्पूर्ण जीव-जगत की लीला में
शब्दों और अंकों की
अक्षय सांकेतिका का अभियन्ता ?

वह प्रथम पुरुष--एक अविभक्त 'मैं'
विभाजित हुआ होगा स्वेच्छा से
'स्व' और 'अन्य' में, कर्ता और कर्म में,
प्रकट हुआ होगा दो अर्धांगों में-
अपने पूर्व वैविध्य और सामाजिकता में
पुरुष और स्त्री

वह जितना अपनी ओर खिंचा हुआ
उतना ही
पृथ्वी पर झुका हुआ,
अपने चारों ओर घूमता
एक ही समय में
आधा दिन आधी रात
एक विशाल हिम-पर्वत की तरह
जितना दिखाई देता जल के बाहर
उससे कहीं अधिक निमग्न
जल में

जितना प्रत्यक्ष उससे कहीं अधिक परोक्ष

प्रमाणित से कहीं अधिक अनुमानित
कौन है वह ?

असंख्य नामों के ढेर में

असंख्य नामों के ढेर में
क्या है उसका नाम?
क्या है उसका पता?
क्या है उसका समय ?

उसका नाम एक मौन है
जो उच्चारित नहीं किया जा सकता :
उसका पता
एक मन की दिशाहीन यात्रा है :
और उसका समय एक अनुपस्थिति
जिसका कोई आयाम नहीं।

यह केवल एक-पृष्ठ की किताब है
दोनों ओर से काली ज़िल्दों से बँधी,
वह बीच ही से खुलती
और बीच ही में बन्द हो जाती।

उसके मुख-पृष्ठ पर
सुनहले अक्षरों से लिखा है. पहला प्रभात!
यही उसका पूरा नाम
पता
और समय है!

अपरिचय की
एक पारदर्शी दीवार
तब भी थी उनके बीच
जो समय के साथ धीरे-धीरे
बदलती चली गयी दोनों तरफ से
एक ठोस अपारदर्शी दर्पण में,

पहले वे देख रहे थे एक दूसरे को
अब केवल अपने को देख पा रहे थे
दूर तक अपने अतीत में
जो एक ऊबड़-खाबड़ पठार की तरह
फैला था।

तब भी उन तक
उनके शब्दों की ध्वनियाँ और अन्तर्ध्वनियाँ नहीं
केवल उनकी आकृतियाँ पहुँचा पा रही थीं
संकेत-चिह
जिन्हें वे ग़लत पढ़ते रहे।

टकराहटें भी वहीँ हैं
जहाँ निकटताएँ हैं :
जहाँ कन्धे मिला कर दौड़ती
स्पर्धाओं की रगड़ है
संघर्ष भी वहीं है।

जैसे-जैसे बड़े होने लगते पंख
छोटे पड़ने लगते घोंसले,
उन्हें पूरा आकाश चाहिए
फैलने के लिए
और पूरी छूट उड़ने की।

निकटताओं के बीच भी
ज़रूरी हैं दूरियों के अन्तराल
चमकने के लिए
जैसे दो शब्दों को जोड़ती हुई
ख़ामोश जगहों से भी
बनता है भाषा का पूरा अर्थ
बनता है तारों-भरा आकाश।

बचना होता है ऐसे सामीप्य से
जो नष्ट कर दे दो संसारों को,
जो बदल दे निकटता के अर्थ को
एक घातक विस्फोट में!

इससे अच्छा है रागानुराग की दुनिया से
प्रकाश-वर्षों दूर
किसी विरागी की कुटिया में टिमटिमाता अकेला चिराग!

बजाने से बजता है शून्य भी
जैसे ढोल में बन्द नाद
ब्रह्म हो जाता है,

जैसे वीणा के मूक तन्‍तु
जीवन का स्पर्श पाते ही
बोलने लगते हैं
राग विराग के बोल,
जैसे शब्दों में सुषुप्त स्मृतियाँ
जाग उठती हैं ध्वनियों प्रतिध्वनियों की भाषा में
जब हम अपने अतीत को
सम्बोधित करते। दूर की आवाजें
सम्मिलित हो जातीं
हमारे अन्तर्मन के
अस्फुट मर्मरों में,

और हम आश्चर्य करते
कहीं कुछ भी तो मरा नहीं!

एक विलुप्त सभ्यता के
विदग्ध आत्म-चिन्तन को
उसके अवशेषों में फैली-बिखरी
शब्द-सम्पदा को
ईंट-ईंट जोड़ कर भी पढ़ा जा सकता है
एक नया पाठ।

वह उदय हो रहा है पुनः

वह उदय हो रहा पुनः
कल जो डूबा था

उसका डूबना
उसके पीठ पीछे का अन्धेरा था

उसके चेहरे पर
लौटते जीवन का सवेरा है

एक व्यतिक्रम दुहरा रहा है अपने को
जैसे प्रतिदिन लौटता है नहा धो कर
सवेरा, पहन कर नए उज्ज्वल वस्त्र,
बिल्कुल अनाहत और प्रत्याशित

इतनी भूमिका इतना उपसंहार
पर्याप्त है
मध्य की कथा-वस्तु को
पूर्व से जोड़े रखने के लिए।

उसके चेहरे पर उसकी लटों की
तरु-छाया है-
उससे परे
उसकी आँखों में
वह क्षितिज
जो अब उससे आलोकित होगा।

.................

पिता से गले मिलते

पिता से गले मिलते
आश्वस्त होता नचिकेता कि
उनका संसार अभी जीवित है।

उसे अच्छे लगते वे घर
जिनमें एक आंगन हो
वे दीवारें अच्छी लगतीं
जिन पर गुदे हों
किसी बच्चे की तुतलाते हस्ताक्षर,
यह अनुभूति अच्छी लगती
कि मां केवल एक शब्द नहीं,
एक सम्पूर्ण भाषा है,

अच्छा लगता
बार-बार कहीं दूर से लौटना
अपनों के पास,

उसकी इच्छा होती
कि यात्राओं के लिए
असंख्य जगहें और अनन्त समय हो
और लौटने के लिए
हर समय हर जगह अपना एक घर

................

द्वितीय खंड : वाजश्रवा के बहाने

उपरान्त जीवन

मृत्यु इस पृथ्वी पर
जीव का अंतिम वक्तव्य नहीं है

किसी अन्य मिथक में प्रवेश करती
स्मृतियों अनुमानों और प्रमाणों का
लेखागार हैं हमारे जीवाश्म।

परलोक इसी दुनिया का मामला है।

जो सब पीछे छूट जाता
उसी सबका
उसी माला से किंवदन्ती-पाठ।

एक अथक कथावाचक है समय
ढीठ उपदेशक है कालचक्र
दुहराता पिछले पाठ
लिखता कुछ नए पृष्ठ
जीवन का महाग्रंथ
एक संकलन के प्रारूप में नत्थी
पिता-पुत्र दृष्टान्त की
असंख्य चित्रावलियां।

एक सच्चा पश्चाताप--एक प्रायश्चित
एक हार्दिक क्षमायाचना से भी
परिशुद्ध की जा सकती है
भूलचूक की पिछली जमीन,
एक वापसी के सौभाग्य से भी
मनाया जा सकता है
एक नए संवत्सर का शु्भ पर्व,

एक सुलह की शपथ
हो सकती है पर्याप्त संजीवनी
कि आंखें मलते हुए उठ बैठे
एक नया जीवन-संकल्प
और लिपट जाए गले से
एक दुर्लभ अपनत्व की पुन:प्राप्ति

यहां से भी शुरू हो सकता है
एक उपरान्त जीवन-
पूर्णाहुति के बिल्कुल समीप
बची रह गयी
किंचित् श्लोक बराबर जगह में भी
पढ़ा जा सकता है
एक जीवन-संदेश
कि समय हमें कुछ भी
अपने साथ ले जाने की अनुमति नहीं देता,
पर अपने बाद
अमूल्य कुछ छोड़ जाने का
पूरा अवसर देता है।

तुम्हें खोकर मैंने जाना

तुम्हें खोकर मैंने जाना
हमें क्या चाहिए-कितना चाहिए
क्यों चाहिए सम्पूर्ण पृथ्वी?
जबकि उसका एक कोना बहुत है
देह-बराबर जीवन जीने के लिए
और पूरा आकाश खाली पड़ा है
एक छोटे-से अहं से भरने के लिए?

दल और कतारें बना कर जूझते सूरमा
क्या जीतना चाहते हैं एक दूसरे को मार कर
जबकि सब कुछ जीता-
हारा जा चुका है
जीवन की अंतिम सरहदों पर?

...................

पुन: एक की गिनती से

कुछ इस तरह भी पढ़ी जा सकती है
एक जीवन-दृष्टि-
कि उसमें विनम्र अभिलाषाएं हों
बर्बर महत्वाकांक्षाएं नहीं,
वाणी में कवित्व हो
कर्कश तर्क-वितर्क का घमासान नहीं,
कल्पना में इंद्रधनुषों के रंग हों
ईर्ष्या द्वेष के बदरंग हादसे नहीं,
निकट सम्बंधों के माध्यम से
बोलता हो पास-पड़ोस
और एक सुभाषित, एक श्लोक की तरह
सुगठित और अकाट्य हो
जीवन-विवेक।

.............

अपने सोच को सोचता है एक 'मैं'

अपने सोच को सोचता है एक 'मैं'
अपने को अनेक साक्ष्यों में वितरित कर

वह एक 'लघु अहं' में सीमित
बचकाना अहंकार मात्र?
या एक जटिल माध्यम
लाखों वर्षों में विकसित
असंख्य ब्रह्माण्डों से निर्मित
महाप्राण
समस्त प्राणि-जगत में व्याप्त?

समयातीत और स्थानातीत
सूक्ष्म और अत्यन्त जटिल
स्नायु-तन्तुओं से बुनी
एक ऐसी स्वैच्छिक व्यवस्था
जिसमें संरचित है
वह भी
और वे भी

जो अर्द्धाक्षर भी है और पूर्ण भी,
जो एक वार्तालाप भी है
और आत्मालाप भी।

इस 'सन्धि' का विच्छेद
उसे विस्फ़ोटक बना सकता है!

विचाराधीन था
जीवन का रहस्य।

काल का यथार्थ
तत्काल स्थगित था।

पाँच तत्वों के बहुमत से निर्मित
स्थूल के घनत्व का दावा
स्पष्ट और प्रत्यक्षदर्शी था।

"भ्रामक है यह दबाव,"
एक निष्पक्ष तत्त्वदर्शी ने कहा,
"यह दबाव तात्त्विक नहीं
केवल सांयोगिक है!"

आपत्ति इतनी सूक्ष्म थी
कि लगभग अदृश्य,
हर ठोस सवाल के आरपार निकल जाती।

कोई बोल रहा था
नपी-तुली तर्कसंगत भाषा में
पैतृक-दाय और वाणिज्य पर
एक पुत्र के जन्मसिद्ध अधिकार को लेकर
कि बात जन्म पर अटक गई।

हर तत्त्व को अमान्य था
धरती,पानी, हवा, आकाश पर
किसी भी जीव का एकाधिकार

एकाधिकार के दावेदार पर
कई हत्याओं के आरोप थे-

पारिवारिक
सामाजिक
नैतिक
राजनीतिक

आरोपियों को सिद्ध करना था
कि उनके भविष्य ख़तरे में हैं,
दावेदार को सिद्ध करना था
कि आरोपी सुरक्षित हैं।

वह हार गया
क्योंकि उसके दावे
सन्देहास्पद थे :

आरोपियों को सन्देह-लाभ मिला
क्योंकि उनके प्रमाण-पत्र उनके साथ थे।

'अन्तों' से नहीं
'मध्यान्तरों' से
बदलते हैं दृश्य।

ओस की बूँदों में टँकी
बूँद-बूँद रोशनी! उठता
तारों का वितान।
निकलती एक दूसरी पृथ्वी,
जगमगाता एक दूसरा आसमान

अपना यह 'दूसरापन'

कल सुबह भी खिलेगा
इसी सूरजमुखी खिड़की पर
फूल-सा एक सूर्योदय

फैलेगी घर में
सुगन्ध-सी धूप

चिड़ियों की चहचहाटें
लाएंगी एक निमन्त्रण
कि अब उठो-आओ उड़ें
बस एक उड़ान भर ही दूर है
हमारे पंखों का आकाश।

एक फड़फड़ाहट में
समा जाएगा
सारी उड़ानों का सारांश!

और फिर भी
बचा रह जाएगा हर एक के लिए
नयी-नयी उड़ानों का
उतना ही बड़ा आकाश
जैसा मुझे मिला था!

एक महावन हो जाएगा
मन
उसमें एक अन्य ही जीवन होगा
यह विस्थापन,
कोई दूसरा ही मैं होगा
अपना यह दूसरापन

वन में भी जीवन है
जैसे जीवन में भी वन!

यह पटाक्षेप नहीं है
केवल दृश्य-परिवर्तन।

...................

शब्दों का परिसर

मेरे हाथों में
एक भारी-भरकम सूची-ग्रन्थ है
विश्व की तमाम
सुप्रसिद्ध और कुप्रसिद्ध जीवनियों का :
कोष्ठक में जन्म-मृत्यु की तिथियाँ हैं।

वे सब उदाहरण बन चुके हैं।

कुछ नामों के साथ
केवल जन्म की तिथियाँ हैं।
उनकी अन्तिम परीक्षा
अभी बाक़ी है।

ज़ो बाक़ी है
वह कितना बाक़ी रहने के योग्य है
एक ऐसा सवाल है
जिसके सही उत्तर पर निर्भर है
केवल एक व्यक्ति की नहीं
बल्कि व्यक्तियों के पूरे समाज की
सफलता या असफलता।

पढ़ते-पढ़ते एक दिन मुझे लगा
एक ही जीवनी को बार-बार पढ़ रहा हूँ
कभी एक ही अनुभव के विभिन्न पाठ
कभी विभिन्न अनुभवों का एक ही पाठ!

अन्तिम समाधान के नाम पर
उतने ही विराम
जितने वाक्य,
और जितने वाक्य
उससे कहीं अधिक विन्यास।

शब्दों का विशाल परिसर-
मानो एक-दूसरे से लगे हुए
छोटे-छोटे अनेक गुहा-द्वार,

भीतर न जाने कितने
विविध अर्थों को
आपस मं जोड़ता हुआ
भाषाओं का मानस-परिवार।

अचानक ही घोषित होता- "समाप्त"
हम चौंक पड़ते
अमूल्य सामग्री,साज-सज्जा,
सारा किया-धरा
तितर-बितर।

विषय
और वस्तु
वही रहते।
'समाप्ति' को उलट कर
रेतघड़ी की तरह
फिर रख दिया जाता आरम्भ में :
और फिर शुरू होती
धूमधाम से
किसी नए अभियान की
उल्टी गिनती

ढिंढोरा पिटता-
इस बार बिल्कुल मौलिक!
लेकिन इस बार भी यदि
अधूरा ही छूट जाए कोई संकल्प
तो इतना विश्वास रहे
कि सही थी शुरूआत

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