तुमसे क्या बोलूँ : राजगोपाल
Tumse Kya Boloon : Rajagopal

...तुमसे क्या बोलूँ
मुट्ठी भर मूक अभिव्यक्तियाँ



परिचय...

...जीवन में कभी संवाद हीनता की स्थिति आती है. उस समय प्रणय, परिचित, परिवार सभी निस्तब्ध हो जाते हैं. केवल मन जागृत रहता है और हृदय प्राण थामे बजता जाता है. मन तो मूक ठहरा, भावनाओं से किसे समझाता. सोचिये ऐसी दशा मे हम क्या कह-सुन पाते. प्रस्तुत कविता संग्रह में दो भाग हैं. पहला- ‘तुमसे क्या बोलूँ’ और दूसरा- ‘जब तुमसे कुछ कहता था’. दोनों भागों की रचनाएँ एक-दूसरे से जुड़ी हैं. पहले भाग की तीस रचनाओं में नब्बे अभिव्यक्तियाँ और दूसरे भाग की रचनाओं में उन्नीस अभिव्यक्तियाँ निहित हैं. आशा है इन रचनाओं मे छिपी भावनाएं आपके आस-पास भी होंगी. सादर... राजगोपाल मेक्सिको सिटी सितंबर 2020

तुमसे क्या बोलूँ

*****

यह रात गयी सूनी, अब तुमसे क्या बोलूँ

आज बंद आँखों मे रंगमंच रचा परदे गिरे, स्मृतियों का ही अवशेष बचा फिर क्यों मन में कोलाहल व्यर्थ मचा रसिक नहीं कोई, किसके लिए मैं मधु घोलूँ यह रात गयी सूनी, अब तुमसे क्या बोलूँ मन शिथिल हुआ, पर लजायी नहीं काया कनखियों से झाँकती रही मन्मथ की माया ढूँढता रहा प्यार जो छोड़ गया अपनी छाया लुढ़की हाला, मैं झूठा ही मदिरा मे लय डोलूँ यह रात गयी सूनी, अब तुमसे क्या बोलूँ अंत से पहले ही, ‘अब नहीं’ कह दिया तुमने आरंभ बना इतिहास, जीवन ने टेक दिये घुटने अब प्रतीक्षा किसकी, सिधार गये सारे सपने बंद हुये सब दरवाजे, तुम्ही बतलाओ कैसे खोलूँ यह रात गयी सूनी, अब तुमसे क्या बोलूँ

स्मृतियों मे खोया, मन क्यों इतना वाचाल हुआ

बरसों हुए, पर लगता है आँखों में आज उर के अंदर ही फिर बजा है कोई साज खुले कान, किसी ने सुनी नहीं आवाज़ जब मुंह से निकला कोई शब्द, भूचाल हुआ स्मृतियों मे खोया, मन क्यों इतना वाचाल हुआ बरसों तक अधरों से मधु टपका हाला समझ उस पर यौवन लपका कंकड़ सा लगा जब भयभीत पलक झपका उसके स्नेह का स्वर्ग आज पाताल हुआ स्मृतियों मे खोया, मन क्यों इतना वाचाल हुआ कभी सहलाते यादों को, कुछ और जी लेते अभिसार भी सिधारा,देख उसे क्या कर लेते जीवित हैं हम, पर देख प्यार उस से मुंह फेर लेते मूक ही झरते आँसू, जीवन क्षण-क्षण निढाल हुआ स्मृतियों मे खोया, मन क्यों इतना वाचाल हुआ

आषाढ़ सा बह गया यह जीवन मेरा

तुम खिली वसंत सी मुस्कुराती ज्येष्ठ गए पलाश सी लहराती कल तक यौवन घन बरसाती आज स्मृतियों के काल समाया मन मेरा आषाढ़ सा बह गया यह जीवन मेरा आशाएँ तिनकों सी बह कर बांध बनी प्यासी आंखे, क्षितिज घूरती हुयी घनी भूखा तन, सोचता तुम रूप की कितनी धनी गिरता-उठता हार गया मैं यह रण तेरा आषाढ़ सा बह गया यह जीवन मेरा पहले बरसों लेटा रहा मैं तुम्हारी ही छाया फिर आज क्यों नहीं मैं उसके मन भाया मांगा एक स्पर्श, वह भी निष्ठुर ठुकराया मैं सुन रहा सन्नाटे में आज मौन क्रंदन मेरा आषाढ़ सा बह गया यह जीवन मेरा

उर पर पत्थर रख, आज मैं हंसा आप पर

अंधेरा उठा, बंद हुये सारे संवाद न पुरानी बातें न कोई प्रतिवाद चल रहे शून्य में हम, अपना ही बोझ लाद कौन सुना इन जड़ तकियों में विलाप कर उर पर पत्थर रख, आज मैं हंसा आप पर जब चमकती उस आषाढ़ की दामिनी शब्दों से रच जाती वह मिलन-यामिनी विवश हुई स्मृतियाँ, निष्प्राण हुई कामिनी मरे प्रेम-गीत, रोये अपने ही आलाप पर उर पर पत्थर रख, आज मैं हंसा आप पर एक शब्द मधुर कहती, मन फिर भर जाता बरसों का बीता सुख, आँखों मे उभर आता एक पल भी, युगों सा तुमसे निथर जाता जी लेता फिर काम-कृत सबसे निष्पाप हो कर उर पर पत्थर रख, आज मैं हंसा आप पर

आज समय लूट गया मेरे जीवन का प्रिय-धन

टूटी छत तले जब उसे पाया भूख मिटी, भाग्य देहरी चढ़ आया पारिजात सा प्यार टोकनी भर लाया नीड़ बना, फिर बरसों बरसे तन-मन सघन आज समय लूट गया, मेरे जीवन का प्रिय-धन साँझ पड़े घर दौड़ते रात से आगे अधरों पर बिछते, सोते अंधेरे में जागे बच्चे हुये, फिर लिये जीवन चार-पहर भागे आशा-प्रत्याशा में फंसे, उम्र भर ढूंढते रहे कंचन आज समय लूट गया, मेरे जीवन का प्रिय-धन प्रपंच छूटने लगा, आज बचे हम रूखे मन फिर भी भीगा रहता चाहे तन तपता सूखे कहीं से मधु टपकता तो न रहते भूखे कभी प्राण रहते देना अभिसार का वचन आज समय लूट गया, मेरे जीवन का प्रिय-धन

कोई मन सहलाता, मैं सपनों मे खो जाता

तुम्हारा सौन्दर्य रजनी में बिछा शून्य मे ही अभिसार रचा जड़ तकियों में थका सिर छिपा मौन आँसू बहाते, मैं अंधेरा थामे सो जाता कोई मन सहलाता, मैं सपनों मे खो जाता बहुत बरसा प्यार जैसे उठा हो सावन फिर बहा समय में जब दौड़ा जीवन सूखा आज मरुभूमि सा निष्कृत यौवन फिर भी मैं आँखें फाड़े तिमिर मे सो जाता कोई मन सहलाता, मैं सपनों मे खो जाता अपनी ही लौ मे मन मोम सा गला छूटी माया, अब अवशेष भी जला उठा धुआँ, बचा जो अंगारों पर ढला सुख-दुख मे गिरता-उठता मैं फिर सो जाता कोई मन सहलाता, मैं सपनों मे खो जाता

मरी आशाएँ, सपने भी अब छोड़ गए नयन

प्रेम हुआ, लगा यही है विश्वरूप दर्शन लपकी इच्छा, मिथ्या मे डूबे लोचन अब पछताये, जीवन नहीं है आलिंगन रूप-रस-रमणी और छल मे कर न सका चयन मरी आशाएँ, सपने भी अब छोड़ गए नयन रूठा जब मुझसे मन का कण-कण दोष ढूँढता रहा उसमे तन-यौवन बरस निचोड़ गए रस, अब सूखा मधुवन बची काया, हुये विस्मृत सब धर्म-वचन मरी आशाएँ, सपने भी अब छोड़ गए नयन नियति ने डाली तन-मन की चिर तृष्णा जलता जीवन जैसे मरुभूमि की हो उष्णा समाधि भी झूठी, माया से न होती है वितृष्णा फैली संसृति की बाहों मे, मेरे सारे व्यर्थ जतन मरी आशाएँ, सपने भी अब छोड़ गए नयन

उठा अकेला, आज कोई मेरे समीप नहीं

खुली आँखों में समय ने विष घोला अंधेरे में दूर कहीं धीमे घुघुआ बोला जीवन घबराया, अब काल उर-संग डोला रात चढ़ी कहीं जुगुनू सा भी दीप नहीं उठा अकेला, आज कोई मेरे समीप नहीं अश्रु झरते, रात सूखती आंखे सिमटी बाहें, विचलित बगलें झाँके हिलती स्मृतियाँ, बन बरगद की शाखें ज्वार उठा, अलग हुये मोती से सीप कहीं उठा अकेला, आज कोई मेरे समीप नहीं जब तुम्हें लिए सोती थी बाहें उर मे छिपती थी अगणित चाहें अधरों मे दब जाती थी आहें लगता, होता अपना यौवन द्वीप यहीं उठा अकेला, आज कोई मेरे समीप नहीं

साँझ घिरी, तुम आज नहीं आई

पलाश देख-देख मन खोया लुढ़का तन, दिवास्वप्न मे सोया देहरी पर तुम्हें ढूँढता रोया ढूँढता मृगतृष्णा, मैंने सौ मुंह की खायी साँझ घिरी, तुम आज नहीं आयी रूठ गया यौवन का मृग-क्षण घुले आंसुओं में जीवन के कण रौंद गया मन कोई,जैसे सूखे तृण बरसों की स्मृतियाँ भी आज हुयी परायी साँझ घिरी, तुम आज नहीं आयी मन डूबा पर कौन उसे बहला पाया तुम्हारा ही प्यार नहीं तुम्हें मन भाया तम-समाधि भी मिली तुम्हारे ही छाया क्यों तुमने भरी दुपहरी आग लगाई साँझ घिरी, तुम आज नहीं आयी

तुम्हारी छाया कुछ और दूर चली जाती है

डूब गया वह सकल समर्पण टूट गया मन-मिथ्या का दर्पण हो गया मधु-लिप्त शब्दों तर्पण छोटी सी आशा जब कभी लौट आती है तुम्हारी छाया कुछ और दूर चली जाती है मैं निस्तब्ध निशा में छलता पड़ा अपने ही दलदल मे कमल सा गड़ा तुम क्यों उतरो मेरे मन, जो भंवर में खड़ा क्या बोलूँ, ध्वनि भी प्रायः बहरी हो जाती है तुम्हारी छाया कुछ और दूर चली जाती है गिरता-उठता है फिर भी जीवित मन मेरा मर कर भी मन जागता है हर सवेरा स्मृतियों को भी अब आँखों ने नही घेरा मेरे हिस्से की हवा भी जब छू जाती है तुम्हारी छाया कुछ और दूर चली जाती है

किसे सुनाता मैं सुख-दुख का ताना-बाना

बरसों बाद उसने मुंह फेर लिया अंधी स्मृतियों ने ढलने में देर किया मौन उठा, फिर जीवन को घेर लिया जल कर शलभ भी रोता है, यह किसने माना किसे सुनाता मैं सुख-दुख का ताना-बाना मन-यौवन संग रात नहीं ढलती है समय के साथ-साथ आशाएँ जलती हैं शनैः शनैः स्पर्श से त्वचा भी गलती है साँसों की लय में छिपी ऊष्मा किसने पहचाना किसे सुनाता मैं सुख-दुख का ताना-बाना प्यार रौंद गया मन, सुन कर ‘अब-नहीं’ इस आनन-फानन में मति भी मरी कहीं निर्वासित हुई चाह लौट कर पहुंची वहीं कौन रोके इस निर्लज्ज का कहीं आना-जाना किसे सुनाता मैं सुख-दुख का ताना-बाना

लौट गया निरुत्तर, दिन का यह पहर भी

प्रश्न अनेक पर उत्तर हैं मौन मुंह खोलने, है यहाँ विकल कौन संबंध सब सिधारे, प्यार भी हुआ गौण क्या बोलूँ, उठती नहीं मन में कोई लहर भी लौट गया निरुत्तर, दिन का यह पहर भी चार दिन जीवन में उर से लगाया अब खेल हुआ समाप्त, मैदान से भगाया प्यार की मिठाई दिखा, मन भर रुलाया क्या बोलूँ, भूख इतनी है कि निगल लूँ जहर भी लौट गया निरुत्तर, दिन का यह पहर भी क्यों फेंक दिया मुझे सपनों से उठाकर धकेल दिया मझधार, तिनके पर बैठाकर अब न लौटूँगा, पुकार लो जितना प्यार लुटाकर क्या बोलूँ, प्रश्नों के साथ बह गया शेष कहर भी लौट गया निरुत्तर, दिन का यह पहर भी

चली गयी वह दूर, रात तृष्णा जगाकर

लेटकर उसकी बालों को सहलाता उन्मत्त भरे उर से प्यार से बहलाता मुट्ठी भर अभिसार तले मन मुसकुराता फेंक दिया सब जीवन से गठरी बनाकर चली गयी वह दूर, रात तृष्णा जगाकर मैं स्मृतियों की चादर ओढ़े सो जाता प्यार ढूँढता चुप अँधियारे में खो जाता छू लेती वह तो पाषाण बना रो लेता जला शलभ सा जीवन, लौ से मन लगाकर चली गयी वह दूर, रात तृष्णा जगाकर मुझसे वितृष्णा दिखा तोड़ गयी वचन फिर भी छल से लड़ता हूँ मैं क्षण-क्षण मौन ही देखता रहता उसका झूठा आकर्षण जग ने डुबोया मुझे, फिर आंसुओं मे भिगाकर चली गयी वह दूर, रात तृष्णा जगाकर

ऋतु बदले, तुम्हें अब मेरे शब्द नहीं भाते

इन शब्दों में कहीं छिपा है मन हँसता और रोता है इन में ही जीवन शब्दों से ही नयन बरसते हैं सघन पहले तुम छंदों की धारा मे बह जाते ऋतु बदले, तुम्हें अब मेरे शब्द नहीं भाते गोद मे लेटा बालों को सहलाता तुम्हारी ऋचा सुनाता प्यार जतलाता मूक भावनाएं इन शब्दों में बतलाता अपने छल-यथार्थ सभी इन में ही गहराते ऋतु बदले, तुम्हें अब मेरे शब्द नहीं भाते देख तुम्हें, कंठ मरा सच कहते मुरझायी आशाएँ उलाहना सहते बीते पल भी कब तक जीवित रहते शब्द भी निर्लज्ज हुये अब लतियाए नहीं जाते ऋतु बदले, तुम्हें अब मेरे शब्द नहीं भाते

बिखर गया आज, जो सुख था उस प्यार में

कुछ दिन उर में बसाया फिर दुख सा अंबर में छाया छल गया जो पहले बहुत मन भाया उलझ गया जीवन प्रणय-प्रतिकार में बिखर गया आज, जो सुख था उस प्यार में शाश्वत कुछ नहीं, सब मिथ्या ने निगला अस्मिता टूटी, मन स्वाभिमान नहीं उगला जलता संबंध ‘अब नहीं’ चिल्लाता निकला कंठ मरा, कौन सुनता मेरी इस छद्म संसार में बिखर गया आज, जो सुख था उस प्यार में स्वप्न टूटा, आँखों से मधुमास ढला, कंकड़-सा अवसाद आंसुओं में घुला अब रहा शेष जो, तन पर मोम सा गला लदा दुख, मैं झुका फिर तृष्णा के भार से बिखर गया आज, जो सुख था उस प्यार में

स्वप्न नहीं, आज छल गया मुझे यथार्थ

नीड़ से उड़ा जब माया सा उठा यौवन सुख पाया थोड़ा तृष्णा में करता क्रंदन मैं ढूँढता रहा प्यार, जब हुआ जग-मंथन अभिसार माँगूँ तो लगता है मेरा स्वार्थ स्वप्न नहीं, आज छल गया मुझे यथार्थ हमसे तो पशु-पक्षी सारे अच्छे कभी न बनाते सम्बन्धों के लच्छे हम हैं नित उलझाते प्यार के गुच्छे मिथ्या ने कब समझा है हृदय का आर्त स्वप्न नहीं, आज छल गया मुझे यथार्थ जग लिए सिर पर, साथ चले थे जीवन में विधा बनी अधरों की, बीता सुख क्षण में परिधि बंधी, संघर्ष छिड़ा अब तन-मन में मन-माया के रण में, खो गया है मेरा पार्थ स्वप्न नहीं, आज छल गया मुझे यथार्थ

बंधा आज मन, मिल गयी मेरी सीमा

समय के साथ मौन चलते रहना मृत आशाएँ उर पर सहते रहना जड़ पत्थरों पर सरिता सा बहना रोते हुये संग जीना है जग की महिमा बंधा आज मन, मिल गयी मेरी सीमा दंड मिला अमर-प्रेम की अस्मिता का दृग भी डरे देख यह रूप सुष्मिता का हुआ मन बूढ़ा जब व्यंग्य रचाया चिता का आशा-प्रत्याशा टूटी, यौवन भी हुआ धीमा बंधा आज मन, मिल गयी मेरी सीमा मन अनंत, तन अपरिमित, किसका है दोष कभी आयु पर, कभी स्वयं पर उठता रोष सृष्टि में, घटा नहीं है कभी प्रेम का मधु-कोष युद्ध नहीं जीत लेता कोई, बांध कर संसृति की सीमा बंधा आज मन, मिल गयी मेरी सीमा

अंधों के मल्लयुद्ध में, जाने कौन गिरा किस करवट

तोड़ विधा सारे उपाय अपनाया दृष्टिहीन पर विश्वास लिए दांव लगाया कितने बार दृग फूटे, क्षुब्ध हुई काया अब तो मन टूटा, धैर्य बहा जीवन के तलछट अंधों के मल्लयुद्ध में, जाने कौन गिरा किस करवट नित मूक ही लड़ने का अभ्यास करते कभी बोल पड़े तो, अपना ही उपहास करते मन तो मरा, उर पीट कर क्या आभास करते इस मौन युद्ध में डूबा जग, छूट गए जीवन के तट अंधों के मल्लयुद्ध में, जाने कौन गिरा किस करवट कितने यत्न लगे, प्रेम-प्रणय के दंगल में, यथार्थ पीठ पड़ा अगणित, घूंसे खाकर छल में हार गया रण मैं, काम-क्रोध के इस दल-दल में चढ़ी मति पर माया, अब बंद हुये मन-आँखों के पट अंधों के मल्लयुद्ध में, जाने कौन गिरा किस करवट

स्मृतियाँ भरे मन में, जीता हूँ बहका सा जग में

इधर चढ़ती प्रणय की हाला, उधर डूबती निशा मचा भोर फिर कोलाहल,मैं जाऊं किस दिशा लौट पग फिर घर आते, मरती नहीं जिजीविषा उस स्पर्श की संवेदना, बहती है आज भी रग-रग में स्मृतियाँ भरे मन में, जीता हूँ बहका सा जग में काया की पहुँच नहीं, मन आशाओं में फंसा नीड़ था प्रेम का, टूटकर जो आज पंक मे धंसा नहीं कोई प्रेयसी, मन अपनी ही कल्पना पर हंसा आज फिर चला अकेले ही, कील लिये पग में स्मृतियाँ भरे मन में, जीता हूँ बहका सा जग में मन सबल हो कहता कभी, अब और याचना नहीं तोड़ परिधि, बिखरे कुंतलों पर होगा रण यहीं फिर बिखरा होगा गुत्थियों मे सुख यहीं-कहीं मरी तृष्णा, फिर भी कस्तूरी ढूंढ रहा हूँ मृग में स्मृतियाँ भरे मन में, जीता हूँ बहका सा जग में

क्या बोलूँ, टूटा आज अनंत-अभिसार का भ्रम

जब प्रेयसी मिली मैं भागा पागल हो कर दौड़ता ही रहा, गिरता-उठता जीवन भर कभी हाथ मिली, कभी फिसली अधरों पर दिन बीते, सारी संवेदना उसकी, मैं पुरुष अधम क्या बोलूँ, टूटा आज अनंत-अभिसार का भ्रम निभा प्यार बरसों, पर समय चुभा सूद सा आयु घटी, फटा तन-मन पुराने दूध सा कुरेदता हूँ अवसान तक स्मृतियाँ फफूंद सा प्रणय की बात उठती तो अब मैं जाता हूँ सहम क्या बोलूँ, टूटा आज अनंत-अभिसार का भ्रम मांग कर बहुत सहा पुरुष होने का अपमान अब स्पर्श नहीं, उत्कर्ष नहीं, लिखता हूँ यक्ष-गान हम पीठ किए तोड़ते हैं नित निशा का अभिमान मन रौंदे, झूठे ही हँसते, सहलाते हैं अपना अहम क्या बोलूँ, टूटा आज अनंत-अभिसार का भ्रम

प्रार्थना भी लौटी बहरी, अब मौन हुआ ईश्वर

कुछ मांगने तुम तक बहुत बार हाथ जोड़े हुये पाषाण तुम, ये शब्द तुम्हें कैसे तोड़ें तुम्हें दिखाने हम मारुति सा अपने उर फाड़े स्वर्ग सिधारा प्यार, हम दौड़े धरा लिये सिर पर प्रार्थना भी लौटी बहरी, अब मौन हुआ ईश्वर हुआ नहीं उजियाला, डरा रहा है अंधेरा स्वप्न मरे, चढ़ा आँखों पर काला घेरा प्रेयसी नहीं सुहाती, प्यार बना प्रेतों का डेरा डूबा जीवन, बोझ लिये प्रश्नों का मन भर प्रार्थना भी लौटी बहरी, अब मौन हुआ ईश्वर तुमसे क्या बोलूँ, बात है समझ से आगे सुंदर मुख लिए अकेले कहाँ जाओगे भागे मन पहचानो, तो सुलझा पाओगे उलझे धागे स्पर्श खोया, शब्द रोये, कैसे खोलें सुख के स्वर प्रार्थना भी लौटी बहरी, अब मौन हुआ ईश्वर

समय घट रहा, कब भरेंगे उर के घाव

उम्र बढ़ी, यौवन ढला, जीवन सिमटा मन अनछुआ ही अमरबेल सा लिपटा असमय चादर ओढ़े अनुराग भी निबटा दूर दिखती है आशा पर उठते नहीं हैं पाँव समय घट रहा, कब भरेंगे उर के घाव अब नहीं, कह कर रोक दिया जीवन का वेग बह गए संबंध पर बढ़ता गया मन का उद्वेग जब स्मृतियाँ उठतीं, घिर जाते पलकों पर मेघ बिसुरता नहीं प्रेम-प्रसंग, है यह सहज स्वभाव समय घट रहा, कब भरेंगे उर के घाव तन क्या जाने मन की व्यथा अनजानी शलभ सा मरना, रस-रंग की कथा पुरानी यौवन उर सा बंद नहीं, है यह बहता पानी जीवन बौना, होता है ऊंचा प्रेम का अभाव समय घट रहा, कब भरेंगे उर के घाव

दिखता नहीं कुछ, आँखें तो हुयी पाषाण

रात फेर गयी सपनों पर पानी कह गयी बुझते अनुराग की कहानी जुगनू सी टिमटिमाती उड़ गयी रति की रानी एक हाथ भी न लांघ सका मन्मथ का बाण दिखता नहीं कुछ, आँखें तो हुयी पाषाण पथराई आँखों मे कैसे बांध बना ले झरते नयन सिसकियों को कैसे मना ले काल कह गया, उर को मृत्युंजय कवच पहना ले प्रेम तो सिधार गया, अब तुम भी होगे निष्प्राण दिखता नहीं कुछ, आँखें तो हुयी पाषाण समझा यही है प्रेम की वाणी दबी बल-बाहों की चाह पुरानी प्रणय तक पहुँचने की राह वीरानी जहां हम ढूंढते हैं क्षण भर की पहचान दिखता नहीं कुछ, आँखें तो हुयी पाषाण

बहुत खेल चुका मैं, प्यार भरे मिट्टी के घर में

अधरों का चुंबन क्या अभिनय है अपरिचित सा जीना कैसा परिणय है दो प्राणों के बीच घुट रहा प्रणय है रंग-महल गिरा आज आकाश से अधर में बहुत खेल चुका मैं, प्यार भरे मिट्टी के घर में अनुराग नहीं, अब बची एक श्वास है कुछ मुस्कुरा लें, दिखता अवसान पास है फिर नहीं लौट पायेंगे,यही अंतिम आभास है गिरते-उठते, सुख-दुख अब घिरे हैं भंवर में बहुत खेल चुका मैं, प्यार भरे मिट्टी के घर में बह जाने दो यह जीवन तो जल है प्रणय की तपन और ठंडक ही मरुथल है छू लो मन, जाने कैसा अगला पल है दीवारें भी पहचानी, झूठे क्यों हम दुबके डर में बहुत खेल चुका मैं, प्यार भरे मिट्टी के घर में

सोचता हूँ क्या यही है अनुरक्ति का सार

मैं खड़ा देख रहा हूँ प्यार का क्षय आँखों मे छाया है जीने का भय करवटें बदलते टूटा है साँसों का लय कैसे बांटें, जीवन पर कितना है आभार सोचता हूँ क्या यही है अनुरक्ति का सार भूला नहीं है आलिंगन कल का तन कुचल गया है काल बल का व्याकुल मन, करता हिसाब पल-पल का खोज रहा है जीवन बुझते अंगारों में भी प्यार सोचता हूँ क्या यही है अनुरक्ति का सार उम्र देख स्वप्न भी भरमाए आज प्रणय-राग से अब गिरती है गाज संबंधों से फिर उभरी है लोक-लाज देती हो ताना, पर किसकी हुयी है हार सोचता हूँ क्या यही है अनुरक्ति का सार

छोड़ तन-मन का द्वंद, लौटा दो मेरी रागिनी

नित होता स्मृतियों का यथार्थ से युद्ध मौन ताकते रहते एक-दूसरे के मुख क्रुद्ध कृपाण उठाये सोचते कौन हुआ है प्रबुद्ध काल बांधे भटक गयी है बरसों की कामिनी छोड़ तन-मन का द्वंद, लौटा दो मेरी रागिनी पहले एक ही तकिये के होते थे हिस्से फिर हाथ की दूरी पर रमते थे प्रणय के किस्से अब नहीं बनते हैं अँधियारे तन-मन के मिस्से तोड़ यौवन की सीमा उठा दो फिर आसंगिनी छोड़ तन-मन का द्वंद, लौटा दो मेरी रागिनी एक बार फिर मोद से लस लो खींच प्रणय अब तारों से कस दो रात गयी-बात गयी, जतला दो तमस को प्रेयसी का सुख लौटा दो हो कर फिर वामांगिनी छोड़ तन-मन का द्वंद, लौटा दो मेरी रागिनी

बरसों से अनुरक्त मन, आज तुमने कुचल दिया

हमारे साँसों का नित अंतर बढ़ा जड़ तकिये पर सिर शव सा पड़ा तुमसे वह अनुभव मिट्टी में गड़ा धरी रही अंतिम इच्छा, नयनों ने मुझे छल लिया बरसों से अनुरक्त मन, आज तुमने कुचल दिया कर्मठ हो कर भी मैं मन से हीन जग में मान, पर अपने ही घर क्षीण न जाने कब आह भी हुयी विलीन प्रणय उठा, पर तुम्हारी चुप्पी ने मसल दिया बरसों से अनुरक्त मन, आज तुमने कुचल दिया जग में ही विकृत सा घूम रहा हूँ कभी रोता, कभी अँधियारा चूम रहा हूँ सिर पीटता हाला में लय झूम रहा हूँ वर्तमान मरा, भविष्य को काल ने निगल लिया बरसों से अनुरक्त मन, आज तुमने कुचल दिया

रात गयी अकेले, तुम संग नहीं हुआ सवेरा

रात उलझी रही प्रश्नों में झरते रहे अश्रु स्वप्नों में संवेदना ढूँढता रहा अपनों में रात प्रेम-आसक्ति पर लगा प्रेतों सा डेरा रात गयी अकेले, तुम संग नहीं हुआ सवेरा जिव्हा भूल गयी प्रेम की भाषा वाद-संवाद से बोझिल हुयी आशा घुला आंसुओं में प्यार जैसे बताशा नीम चढ़ा मिठास, आँखों पर मढ़ा काला घेरा रात गयी अकेले, तुम संग नहीं हुआ सवेरा आज यथार्थ ने मुझे लूटा फिर भी तुमसे मोह न छूटा खुली आँखों में अभिसार टूटा मुट्ठी भर जीवन में, क्यों छीना उजियारा मेरा रात गयी अकेले, तुम संग नहीं हुआ सवेरा

बरसों की धुंध में, खोया मन कहीं दूर है रोता

साथ किसी के जग सारा सो रहा है अकेले स्मृतियों में घिरा मन रो रहा है सूखी धरा पर मुक्ति के बीज बो रहा है भ्रमर परे चम्पा की आशा में क्यों हूँ रोता बरसों की धुंध में, खोया मन कहीं दूर है रोता मेरी शून्यता का कौन है साथी काटता है समय, कौन है मेरा सारथी जूझता हूँ दिन-रात मन से, बना मौन प्रार्थी मैं स्तब्ध पड़ा आभास कर रहा हूँ उर को खोता बरसों की धुंध में, खोया मन कहीं दूर है रोता हृदय फटा तो निकला अंबर सा घाव आप ही रोया, किसी में न उभरा कोई भाव ढूँढता हूँ ,पत्थर नहीं, कोई मिट्टी सा स्वभाव एक बार उर सहला जाती, मैं न चिर-निद्रा में सोता बरसों की धुंध में, खोया मन कहीं दूर है रोता

निष्ठुर मत होना, तुम्हें देखने की है चाह पुरानी

उठा लो मुझे जड़ तकिये से लुढ़का दो प्रणय के पहिये में शलभ सा जल जाने दो दिये से पल भर हृदय खोल दो, माया की थाह पुरानी निष्ठुर मत होना, तुम्हें देखने की है चाह पुरानी तुम्हें देख उस संध्या मचला था यौवन मौन जिया था मैंने रजनी का क्षण-क्षण बीत गए बरस पर कम न हुआ आकर्षण गिरते-उठते चलना, जीवन की यह राह पुरानी निष्ठुर मत होना, तुम्हें देखने की है चाह पुरानी चक्रव्यूह है प्राण-प्रणय की चंचलता कौन नेत्रहीन इस भंवर के पार निकलता पल मे छूटता उच्छवास, अधर में उर मचलता आँखें मूँदे, जीवन की थाह किसने है पहचानी निष्ठुर मत होना, तुम्हें देखने की है चाह पुरानी *****

जब तुमसे कुछ कहता था ...

वसंत की कोमल तरुणाई सी तुम, यौवन समेटी खड़ी हो कचनार के तले, देखो ओस भी भिगा गई तुम्हारी शिखाएं, कब होगी अनावृत तुम इन नयनो के तले ॥१॥ उषा में पारिजात से टिकी फिसलती ओस की एक बूँद अधरों से छू कर झूल रही है कैसा है साक्षात्कार, निस्तब्ध आँखें मूँद ॥२॥ कब आत्मसात होगी ये सुधा मन लहरों सा टकरा रहा है कगार से अब कल्पना टूट कर बिखर रहीं हैं कर रहा प्रणय अनुरोध भीगे बयार से ॥३॥ श्रृंग से झर रहा अविरल प्रवाह भीगता यौवन खोज रहा स्पर्श मन भटक रहा मधुकुंड से चिकुर जाल तक भींचने कोमल शिखाएं और उठते उत्कर्ष ॥४॥ प्रणय सींचता रहा गुलमोहर के तले स्वप्नों में गदराये आकार हो रहे थे साकार बहती हवा ने बंधे आवरण गिरा दिए हो रहा था मधुर कंदुकाओं से साक्षात्कार ॥५॥ कपोलों पर बिछी चंपा की एक पंखुड़ी सरक कर मृदुल श्वेतांग में खो गई ऊपर अधर नीचे अधर एक मादक एक तरल रजनी प्रणय की वेला में सिमट कर सो गई ॥६॥ तुम चिर यौवन सी गदराई चितवन में सिमटी श्यामल अधरों में भीगी सी बसी हो यहाँ स्वप्नों में लिपटी ॥७॥ उर्वशी की त्वचा ढँकी चंपई दलों से स्पर्श की संवेदना तपती उठी अंदर और श्यामल अधरों में समा गयी भीग गए पल, सुख सावन से सुन्दर ॥८॥ सावन की फुहारों में जलज सी श्वेत कन्दुकाऑ के वृत्तों में संवरी चुपके से यौवन को दे रही आमंत्रण आलिंगन कूक रही है कादम्बरी ॥९॥ मन रतिमय मयंक सा घूम रहा बहुपशों में भर लूँ दहकती उष्णता कर लूँ साक्षात्कार शिव से सर्जना तक छिपी है यहीं कोई प्रेम की प्रणिता ॥१०॥ फुहारों में भीग गया ये मन यौवन झांक रहा श्यामल घेरों से मुक्ता फिसल रही है हिमगिरी के श्रृंग से करने आलिंगन सागर की उठती लहरों से ॥११॥ तुम्हे देख कर लगता है सुनयना इस मौसम में फिर घुला प्यार है तुम्हारे लिए ही समय को बाँध रखा है अंत तक बस तुम्हारा ही प्रसार है ॥१२॥ फिर बादलों से चांदनी बिखर गई झुक गई टहनियाँ, खिल गए पलाश रात में क्षितिज से टूटा एक तारा मांग लें आज मुट्ठी भर आकाश ॥१३॥ झांकता यौवन कैसे थपथपा गया आज आँखों में अंजन सा समाया ठंडक में भी तन जल रहा मरु सा मन अधरों की मरीचिका में भरमाया ॥१४॥ उस पार सिसकती शाम देख रही है टहनी से टपकी हिम कणिका मन जम गया है तुम्हारे बिना आना अँधियारे जैसे कोई गणिका ॥१५॥ प्यार की गुनगुनाहट और गालों गुलाल ठण्ड में जैसी हो कोई दहकती हाला उभरी शिखाओं तक यौवन मे गदराई तुम हो मेरी वही मधुभरी मधुबाला ॥१६॥ मौसम फिर बौराया, पंछी चहकने लगे कुछ गा रहे, कुछ बांच रहे बीती पीड़ा आओ हम बैठ जाएँ यहीं हाथ थामें देखते हुए विहगों की रति क्रीडा ॥१७॥ रंग सजे आसमान में प्यार की छोटी सी पहचान क्षितिज दिखाती है छांव में नीड़ के तले कुछ पल बीत जाये, हर साँस, बस यही चाहती है ॥१८॥ नीड़ से टिका तुम्हारी सुगन्ध में सीझा वक्ष तले सपनों की सेज सजा रहा सुरमई सोच रहा मैं क्या तुम हो कोई कल्पना या कोई स्पर्श जो रह गई हो अनछुई ॥१९॥