शंकर कंगाल नहीं : शंकर लाल द्विवेदी
Shankar Kangal Nahin : Shankar Lal Dwivedi



1. गीतिका (१)

कल सारा जग था सगा, किन्तु अब कोई साथ नहीं। इसलिए कि मेरे हाथ रहे, अब कंचन थाल नहीं।। आ कर भी द्वार सुदामा अब के होली मिला नहीं। इसलिए कि कान्हा पर माँटी है, रंग-गुलाल नहीं।। अब 'तिष्यरक्षिता' खटपाटी पर है, पय पिया नहीं। इसलिए कि अँधा होने को तैयार कुणाल नहीं।। शासन ने मुझको अब तक कोई उत्तर दिया नहीं। इसलिए कि मैंने पूछे थे कुछ प्रश्न, सवाल नहीं।। जनता ने बुला लिया कवि को, पर कुछ भी सुना नहीं। इसलिए कि उसने गाए थे कुछ गीत, ख़याल नहीं।। माँगो! कोई याचक निराश हो वापस गया नहीं। इसलिए कि काया भर कृश है, 'शंकर' कंगाल नहीं।।

2. गीतिका (२)

रोज़ रूठो, तुम्हें मैं मनाता रहूँ। आख़िरी साँस तक प्यार पाता रहूँ।। खीँच आँचल चलो गाँव की ओर जब- तुम सुनो ही नहीं, मैं बुलाता रहूँ।। बादलो यों घिरो, वे डरें, रो उठें। धीर भर अंक में, मैं बँधाता रहूँ।। एक लौ सी जले, देह में रात-दिन। आँधियों से जिसे मैं बचाता रहूँ।।

3. गीतिका (३)

राह चलते हुए थक गया हूँ। यह न समझो कि मैं रुक गया हूँ।। दर्द के गाँव में दो प्रहर हूँ। यह न समझो कि मैं बस गया हूँ।। दृष्टि का धर्म है, रूप-दर्शन। यह न समझो कि मैं बिक गया हूँ।। बाँट सर्वस्व ख़ुद ही दिया है। यह न समझो कि मैं लुट गया हूँ।। कोटि षड्यंत्र भर तुम बिछा कर। यह न समझो कि मैं मिट गया हूँ।। दे भले ग़ालियाँ लो मुझे तुम। यह न समझो कि मैं घट गया हूँ।। भार दायित्व का बढ़ रहा है। यह न समझो कि मैं दब गया हूँ।। मौन हूँ, कुछ विवशताएँ मेरी। यह न समझो कि मैं झुक गया हूँ।। भूमि का ऋण यही कह रहा है- ‘यह न समझो कि मैं चुक गया हूँ’।। छाँटने से लगा हूँ अँधेरा। यह न समझो कि मैं छिप गया हूँ।।

4. गीतिका (४)

मत यों उदास हो मन, मेरी साधना में बल है। भगवान भी मिलेगा, मेरी भावना विमल है।। सब साथ दे उठेंगे, मेरी योजना सरल है। सब रो उठेंगे सचमुच, मेरी वेदना सकल है।। सब नीड़ मान लेंगे, मेरी सर्जना सफल है। बस पातकी जलेंगे, मेरी अर्चना अनल है।। सब आँसुओं की माया, जो आँख हैं सरोवर। रवि क्यों नहीं उगेगा, मेरी कल्पना कमल है।। जग-सिन्धु के किनारे, सब देवता विकल हैं। 'शंकर' हूँ, पी रहा हूँ, मेरे पात्र में गरल है।।

5. गीतिका (५)

स्वर कोकिला का, केवल उपमान बन गया है। जब काँव-काँव रव ही, कलगान बन गया है।। किस मंच पर पधारूँ, मैं गीत क्या सुनाऊँ? जब कण्ठ भावना का प्रतिमान बन गया है।। कलियुग तुम्हारे घर में क्या जन्म लें युधिष्ठिर? जब सित असत्य-भाषण, जल-पान बन गया है।। कटि को करे कलंकित, तलवार कौन बाँधे? जब जन्मजात माहिल, मलखान बन गया है।। भ्रम-लीन युग-चरण को, पथ कौन सा दिखाऊँ? जब प्राणवान-दर्शन, अनुमान बन गया है।। क्या द्वारिकेश तुम से, मिलने चले सुदामा? जब मित्र-भाव धुँधली पहचान बन गया है।। इस याचिका को कोई किस भाँति नग्न देखे? जब मौन बेबसी का परिधान बन गया है।। क्या रंग फागुनी हो, त्यौहार क्या मनाएँ? जब रोटियाँ जुटाना पकवान बन गया है।। है व्यर्थ सोचना भी, अब न्याय क्या मिलेगा? जब संविधान ‘शंकर’ व्यवधान बन गया है।।

6. गीतिका (६)

इस गाँव में रुका क्या? नीलाम हो रहा हूँ। बदनाम तो नहीं था, बदनाम हो रहा हूँ।। यों साथ हूँ सभी के, सब जानते मुझे हैं। आसार दीखते हैं, गुमनाम हो रहा हूँ।। अंगार का कथन है, ‘मैं मौन सो रहा था। कुछ पाँव जल गए हैं, कोहराम हो रहा हूँ’।। मैं सींचता हूँ उनको, यह अंकुरों का मत है। कीटाणुओं के जाने नाकाम हो रहा हूँ।। सम्बन्ध की कृपा है, जो हो रहा है कुछ भी। उस काम का प्रतीक्षित परिणाम हो रहा हूँ।। तब हो सकूँगा ‘शंकर’, जब काल-कूट पी लूँ। गो-गोप का सलोना 'घनश्याम' हो रहा हूँ।।

7. गीतिका (७)

मन आरती उतारो, उस आदमी की पहले। जो आदमी की ख़ातिर, दो देवता की सह ले।। उस दीप का पुजारी, तू हो सके तो हो ले। जो जूझता अकेला सौ आँधियों में रह ले।। इस आँख के प्रणय का परिणाम राम जाने। जो आँसुओं से छलके, तो मोतियों से बह ले।। इस नीति को नयन दो, दो-चार दिन भले ही। नहले चलें तो जड़ दो, दो-तीन-पाँच दहले।। ओ शीष! भोग लेना पग-धूलि उस तनय की। शर भाल को तने तो, कुछ वैरियों से कह ले।। मल्लाह तो वही है, पतवार के बिना भी। मँझधार में उतर ले, कर डूबने का गह ले।।

8. मैं डर गया हूँ

स्वप्न नहीं, सत्य। मुझे निश्चित पता है मित्र! धूप जैसे गुण वाली, चाँदनी से लिपा-पुता- भीमकाय नील-नभ, नयनों से बहे नीर वाले क्षुब्ध सिन्धु में- कल जो समा गया। बस, बस, तभी से सिर चकरा रहा है, मैं- डर गया हूँ, सचमुच, बहुत, बहुत डर गया हूँ। आज के इन्सान से; इन्सान के ईमान से।। -१३ नवम्बर, १९६६५

9. संपादक से

बन्धुवर! आप से मैं परिचित नहीं हूँ; पर- भेज दी हैं, ऐसी दो- अनुभूतियाँ कि जो- आप ही हुईं हैं अभिव्यक्त काव्य बन कर। शायद करेंगे आप न्याय साथ इनके? वर्तमान सम्पादक- परिचय को मानते हैं, पूजते हैं नाम को, देखते नहीं हैं काम। क्षमा करें, मेरी इन पंक्तियों को आप कहीं, अन्यथा न समझें, मानें अनुभूति ही। इत्यलम्। पत्र दें, जानें यद्युचित, तो- आज से प्रतीक्षा में- भावभीने पत्र की, आपका ही भ्रातृवत्। कविता-कथा-निबन्ध मेरे; किन्तु पीछे आप चाहें तो लगा दें- ‘कार’।

10. आँख का पानी

यों तुम्हारे काम ऐसे ही रहे; पर, देश का यौवन, नहीं निर्जीव हो पाया। अभी भी शक्ति है उसमें, लड़ाई क्या लड़ोगे? मत कसो लंगोट, मेरी बात मानो- दम्भ छोड़ो और सत्ता का नशा भी। अब तुम्हारी चाल, चलने की नहीं है। और आगे दाल, गलने की नहीं है; क्योंकि पानी नाम का जो तत्व, है बेहद ज़रूरी- वह तुम्हारी आँख में बिल्कुल नहीं है।।

11. मुक्तक

भँवर मुझको डुबाएँ तो, डुबाने दो, न रोना तुम। तरंगें तूल पर है; स्वर हवाओं में न खोना तुम।। पुकारों पर दया करती नहीं मझधार की बाँहें- किनारे! धूल हैं केवल; कहीं आँसू न बोना तुम।। मखमली कालीन घूरों पर बिछा कर क्या करोगे? खंडहरों में दीप-मालाएँ जला कर क्या करोगे? यह धरा, अम्बर, स्वयं तुम भी सितारों से नहीं हो- सोच तो लो, चाँद को ला कर धरा पर क्या करोगे? जन्म से ही पीर मेरे भाग्य को भरमा रही है। नित्य आँचल में छिपा कर गात को गरमा रही है। आँसुओं से स्वागतम् लिख, ज़िन्दगी ने घर सजाया। पर, न जाने मौत क्यों आते हुए शरमा रही है।। मैं जब हुआ तृषाकुल, अपने आँसू पी कर तृप्त हो गया। भूख़ लगी तो बियाबान की गोदी में चुपचाप सो गया।। अंधकार का कुँवर, दीप के प्राणों का ग्राहक राजा था- कर उदरस्थ ज्योति को बोला ‘कोलाहल में कौन खो गया’? किसी पर रीझ जाते हो, किसी से रूठ जाते हो। किसी के हाथ लगते हो, किसी से छूट जाते हो।। भटकते हो हृदय मेरे, तभी सौन्दर्य सागर में- कहीं तुम डूब जाते हो, कहीं तुम टूट जाते हो।। कहीं सुनसान है सूना, कहीं सोया है वीराना। अँधेरा ही अँधेरा है, किरन तुम रूठ मत जाना।। सवेरा दूर है तो क्या, अटल विश्वास है मेरा- वहाँ तक मैं पहुँच लूँगा, हृदय तुम टूट मत जाना।। मैं समय की धार में तृणवत् बहूँगा, यातनाओं के प्रहारों को सहूँगा। साथ तुम मेरे चलो श्रम के पुजारी! मैं धरा पर स्वर्ग ला कर ही रहूँगा।। जब-जब भेंट हुई सुधियों से सपने भी बीमार पड़ गए। और तभी चंदनी-चिताओं पर कुछ गीले फूल चढ़ गए।। मैं हतभागे वातायन सा, खुला दूसरों के इंगित पर; अपने आप खुला तो मन के, सहसा सारे भेद खुल गए।। मत पूछो मेरा नाम, सिमट जाओगे। होगा मुझ पर एहसान, लौट जाओगे। तुम मुझको पावन भोर-किरण मत समझो- मैं एक शाम बदनाम, भटक जाओगे।। विष घुल गया सुगन्धित शीतल मंद-हवाओं में, पता नहीं यह धुआँ कहाँ से भरा दिशाओं में? जर्जर तार, सितार किसी ने भी तो नहीं छुए, घुटी-घुटी साँसों वाले जीवन निष्प्राण हुए।। हँसो-तो तुम-फूल। चुभो-तो तुम-शूल। गुणानुकूल नाम- मूलतः सब धूल।। आस्था के भाल पर चन्दन लगाओ। तिमिर बढ़ता है, उठो- दीपक जलाओ। पड़े बीमार शैया में रहो मत- भोर के सिन्दूर हो, कुछ मुस्कुराओ।।