युगांत : सुमित्रानंदन पंत

Yugaant : Sumitranandan Pant

1. द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र

द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र!
हे स्रस्त-ध्वस्त! हे शुष्क-शीर्ण!
हिम-ताप-पीत, मधुवात-भीत,
तुम वीत-राग, जड़, पुराचीन!!
निष्प्राण विगत-युग! मृतविहंग!
जग-नीड़, शब्द औ' श्वास-हीन,
च्युत, अस्त-व्यस्त पंखों-से तुम
झर-झर अनन्त में हो विलीन!

कंकाल-जाल जग में फैले
फिर नवल रुधिर,-पल्लव-लाली!
प्राणों की मर्मर से मुखरित
जीव की मांसल हरियाली!
मंजरित विश्व में यौवन के
जग कर जग का पिक, मतवाली
निज अमर प्रणय-स्वर मदिरा से
भर दे फिर नव-युग की प्याली!

(फरवरी’१९३४)

2. गा, कोकिल, बरसा पावक-कण

गा, कोकिल, बरसा पावक-कण!
नष्ट-भ्रष्ट हो जीर्ण-पुरातन,
ध्वंस-भ्रंस जग के जड़ बन्धन!
पावक-पग धर आवे नूतन,
हो पल्लवित नवल मानवपन!

गा, कोकिल, भर स्वर में कम्पन!
झरें जाति-कुल-वर्ण-पर्ण घन,
अन्ध-नीड़-से रूढ़ि-रीति छन,
व्यक्ति-राष्ट्र-गत राग-द्वेष रण,
झरें, मरें विस्मृति में तत्क्षण!
गा, कोकिल, गा,कर मत चिन्तन!
नवल रुधिर से भर पल्लव-तन,
नवल स्नेह-सौरभ से यौवन,
कर मंजरित नव्य जग-जीवन,
गूँज उठें पी-पी मधु सब-जन!

गा, कोकिल, नव गान कर सृजन!
रच मानव के हित नूतन मन,
वाणी, वेश, भाव नव शोभन,
स्नेह, सुहृदता हो मानस-घन,
करें मनुज नव जीवन-यापन!
गा, कोकिल, संदेश सनातन!
मानव दिव्य स्फुलिंग चिरन्तन,
वह न देह का नश्वर रज-कण!
देश-काल हैं उसे न बन्धन,
मानव का परिचय मानवपन!
कोकिल, गा, मुकुलित हों दिशि-क्षण!

(अप्रैल’१९३५)

3. झर पड़ता जीवन-डाली से

झर पड़ता जीवन-डाली से
मैं पतझड़ का-सा जीर्ण-पात!--
केवल, केवल जग-कानन में
लाने फिर से मधु का प्रभात!

मधु का प्रभात!--लद लद जातीं
वैभव से जग की डाल-डाल,
कलि-कलि किसलय में जल उठती
सुन्दरता की स्वर्णीय-ज्वाल!

नव मधु-प्रभात!--गूँजते मधुर
उर-उर में नव आशाभिलास,
सुख-सौरभ, जीवन-कलरव से
भर जाता सूना महाकाश!

आः मधु-प्रभात!--जग के तम में
भरती चेतना अमर प्रकाश,
मुरझाए मानस-मुकुलों में
पाती नव मानवता विकास!

मधु-प्रात! मुक्त नभ में सस्मित
नाचती धरित्री मुक्त-पाश!
रवि-शशि केवल साक्षी होते
अविराम प्रेम करता प्रकाश!

मैं झरता जीवन डाली से
साह्लाद, शिशिर का शीर्ण पात!
फिर से जगती के कानन में
आ जाता नवमधु का प्रभात!

(अप्रैल’१९३५)

4. चंचल पग दीप-शिखा-से धर

चंचल पग दीप-शिखा-से धर
गृह,मग, वन में आया वसन्त!
सुलगा फाल्गुन का सूनापन
सौन्दर्य-शिखाओं में अनन्त!
सौरभ की शीतल ज्वाला से
फैला उर-उर में मधुर दाह
आया वसन्त, भर पृथ्वी पर
स्वर्गिक सुन्दरता का प्रवाह!
पल्लव-पल्लव में नवल रुधिर
पत्रों में मांसल-रंग खिला,
आया नीली-पीली लौ से
पुष्पों के चित्रित दीप जला!
अधरों की लाली से चुपके
कोमल गुलाब के गाल लजा,
आया, पंखड़ियों को काले--
पीले धब्बों से सहज सजा!
कलि के पलकों में मिलन-स्वप्न,
अलि के अन्तर में प्रणय-गान
लेकर आया, प्रेमी वसन्त,--
आकुल जड़-चेतन स्नेह-प्राण!
काली कोकिल!--सुलगा उर में
स्वरमयी वेदना का अँगार,
आया वसन्त, घोषित दिगन्त
करती भव पावक की पुकार!
आः, प्रिये! निखिल ये रूप-रंग
रिल-मिल अन्तर में स्वर अनन्त
रचते सजीव जो प्रणय-मूर्ति
उसकी छाया, आया वसन्त!

(अप्रैल’१९३५)

5. विद्रुम औ' मरकत की छाया

विद्रुम औ' मरकत की छाया,
सोने-चाँदी का सूर्यातप;
हिम-परिमल की रेशमी वायु,
शत-रत्न-छाय, खग-चित्रित नभ!
पतझड़ के कृश, पीले तन पर
पल्लवित तरुण लावण्य-लोक;
शीतल हरीतिमा की ज्वाला
दिशि-दिशि फैली कोमलालोक!

आह्लाद, प्रेम औ’ यौवन का
नव स्वर्ग : सद्य सौन्दर्य-सृष्टि;
मंजरित प्रकृति, मुकुलित दिगन्त,
कूजन-गुंजन की व्योम सृष्टि!
--लो, चित्रशलभ-सी, पंख खोल
उड़ने को है कुसुमित घाटी,--
यह है अल्मोड़े का वसन्त,
खिल पड़ीं निखिल पर्वत-पाटी!

(मई’१९३५)

6. जगती के जन पथ, कानन में

जगती के जन पथ, कानन में
तुम गाओ विहग! अनादि गान,
चिर शून्य शिशिर-पीड़ित जग में
निज अमर स्वरों से भरो प्राण।
जल, स्थल, समीर, नभ में मिलकर
छेड़ो उर की पावक-पुकार,
बहु-शाखाओं की जगती में
बरसा जीवन-संगीत प्यार।

तुम कहो, गीत-खग! डालों में
जो जाग पड़ी कलियाँ अजान,
वह विटपों का श्रम-पूण्य नहीं
वह मधु का मुक्त, अनन्त-दान!
जो सोए स्वप्नों के तम में
वे जागेंगे--यह सत्य बात,
जो देख चुके जीवन-निशीथ
वे देखेंगे जीवन-प्रभात!

(मई’१९३५)

7. वे चहक रहीं कुंजों में चंचल सुंदर

वे चहक रहीं कुंजों में चंचल सुंदर
चिड़ियाँ, उर का सुख बरस रहा स्वर-स्वर पर!
पत्रों-पुष्पों से टपक रहा स्वर्णातप
प्रातः समीर के मृदु स्पर्शों से कँप-कँप!
शत कुसुमों में हँस रहा कुंज उडु-उज्वल,
लगता सारा जग सद्य-स्मित ज्यों शतदल।

है पूर्ण प्राकृतिक सत्य! किन्तु मानव-जग!
क्यों म्लान तुम्हारे कुंज, कुसुम, आतप, खग?
जो एक, असीम, अखंड, मधुर व्यापकता
खो गई तुम्हारी वह जीवन-सार्थकता!
लगती विश्री औ’ विकृत आज मानव-कृति,
एकत्व-शून्य है विश्व मानवी संस्कृति!

(मई’१९३५)

8. वे डूब गए

वे डूब गए--सब डूब गए
दुर्दम, उदग्रशिर अद्रि-शिखर!
स्वप्नस्थ हुए स्वर्णातप में
लो, स्वर्ण-स्वर्ण अब सब भूधर!

पल में कोमल पड़, पिघल उठे
सुन्दर बन, जड़, निर्मम प्रस्तर,
सब मन्त्र-मुग्ध हो, जड़ित हुए,
लहरों-से चित्रित लहरों पर!

मानव जग में गिरि-कारा-सी
गत-युग की संस्कृतियाँ दुर्धर
बंदी की हैं मानवता को
रच देश-जाति की भित्ति अमर।

ये डूबेंगी-सब डूबेंगी
पा नव मानवता का विकास,
हँस देगा स्वर्णिम वज्र-लौह
छू मानव-आत्मा का प्रकाश!

(अप्रैल’१९३६)

9. तारों का नभ! तारों का नभ

तारों का नभ! तारों का नभ!
सुन्दर, समृद्ध आदर्श सृष्टि!
जग के अनादि पथ-दर्शक वे,
मानव पर उनकी लगी दृष्टि!
वे देव-बाल भू को घेरे
भावी भव की कर रहे पुष्टि!
सेबों की कलियों-सा प्रभूत
वह भावी जग-जीवन-विकास!
मानव का विश्व-मिलन पवित्र,
चेतन आत्माओं का प्रकाश!
तारों का नभ! तारों का नभ!
अंकित अपूर्व आदर्श-सृष्टि!
शाश्वत शोभा का खिला अदन,
अब होने को है पुष्प-वृष्टि!
चाँदनी चेतना की अमन्द
अग-जग को छू दे रही तुष्टि!

(अक्टूबर’१९३५)

10. जीवन का फल, जीवन का फल

जीवन का फल, जीवन का फल!
यह चिर यौवन-श्री से मांसल!
इसके रस में आनन्द भरा,
इसका सौन्दर्य सदैव हरा;
पा दुख-सुख का छाया-प्रकाश
परिपक्व हुआ इसका विकास;
इसकी मिठास है मधुर प्रेम,
औ’ अमर बीज चिर विश्व-क्षेम!
जीवन का फल, जीवन का फल!
इसका रस लो,--हो जन्म सफल।
तीखे, चमकीले दाँत चुभा
चाबो इसको, क्यों रहे लुभा?
निर्भीक बनो, साहसी, शक्त,
जीवन-प्रेमी,--मत हो विरक्त।
सुन्दर इच्छा की धरो आग,
प्रिय जगती पर दयितानुराग!

(मई’१९३५)

11. बढ़ो अभय, विश्वास-चरण धर

बढ़ो अभय, विश्वास-चरण धर!
सोचो वृथा न भव-भय-कातर!
ज्वाला के विश्वास के चरण,
जीवन मरण समुद्र संतरण,
सुख-दुख की लहरों के शिर पर
पग धर, पार करो भव-सागर।
बढ़ो, बढ़ो विश्वास-चरण धर!
क्या जीवन? क्यों? क्या जग-कारण?
पाप-पूण्य, सुख-दुख का वारण?
व्यर्थ तर्क! यह भव लोकोत्तर
बढ़ती लहर, बुद्धि से दुस्तर!
पार करो विश्वास-चरण धर!
जीवन-पथ तमिस्रमय निर्जन,
हरती भव-तम एक लघु किरण,
यदि विश्वास हृदय में अणुभर
देंगे पथ तुमको गिरि-सागर।
बढ़ो अमर, विश्वास-चरण धर!

(मई’१९३५)

12. गर्जन कर मानव-केशरि

गर्जन कर मानव-केशरि!
मर्म-स्पृह गर्जन,--
जग जावे जग में फिर से
सोया मानवपन!

काँप उठे मानस की अन्ध
गुहाओं का तम,
अक्षम क्षमताशील बनें
जावें दुबिधा, भ्रम!

निर्भय जग-जीवन कानन में
कर हे विचरण,
काँप मरें गत खर्व मनुजता के
मर्कट गण!

प्रखर नभर नव जीवन की
लालसा गड़ा कर
छिन्न-भिन्न करदे गतयुग के
शव को, दुर्धर!

गर्जन कर, मानव-केशरि!
प्राण-प्रद गर्जन,--
जागें नवयुग के खग,
बरसा जीवन-कूजन!

(अक्टूबर’१९३५)

13. बाँसों का झुरमुट

बाँसों का झुरमुट--
संध्या का झुटपुट
हैं चहक रहीं चिड़ियाँ
टी-वी-टी--टुट-टुट!

वे ढाल ढाल कर उर अपने
हैं बरसा रहीं मधुर सपने
श्रम-जर्जर विधुर चराचर पर,
गा गीत स्नेह-वेदना सने!

ये नाप रहे निज घर का मग
कुछ श्रमजीवी घर डगमग डग
भारी है जीवन! भारी पग!!
आः, गा-गा शत-शत सहृदय खग,

संध्या बिखरा निज स्वर्ण सुभग
औ’ गन्ध-पवन झल मन्द व्यजन
भर रहे नयाँ इनमें जीवन,
ढीली हैं जिनकी रग-रग!

--यह लौकिक औ’ प्राकृतिक कला,
यह काव्य अलौकिक सदा चला
आ रहा--सृष्टि के साथ पला!
...............................

गा सके खगों-सा मेरा कवि
विश्री जग की सन्ध्या की छबि!
गा सके खगों-सा मेरा कवि
फिर हो प्रभात,--फिर आवे रवि!

(अक्टूबर’१९३५)

14. जग-जीवन में जो चिर महान

जग-जीवन में जो चिर महान,
सौंदर्य-पूर्ण औ सत्‍य-प्राण,
मैं उसका प्रेमी बनूँ, नाथ!

जिसमें मानव-हित हो समान!
जिससे जीवन में मिले शक्ति,
छूटे भय, संशय, अंध-भक्ति;
मैं वह प्रकाश बन सकूँ, नाथ!

मिट जावें जिसमें अखिल व्‍यक्ति!
दिशि-दिशि में प्रेम-प्रभा प्रसार,
हर भेद-भाव का अंधकार,
मैं खोल सकूँ चिर मुँदे, नाथ!

मानव के उर के स्‍वर्ग-द्वार!
पाकर, प्रभु! तुमसे अमर दान
करने मानव का परित्राण,
ला सकूँ विश्‍व में एक बार
फिर से नव जीवन का विहान!

(मई १९३५)

15. जो दीन-हीन, पीड़ित, निर्बल

जो दीन-हीन, पीड़ित, निर्बल,
मैं हूँ उनका जीवन संबल!
जो मोह-छिन्न, जग से विभक्त,
वे मुझ में मिलें, बनें सशक्त!
जो अहंपूर्ण, वे अन्ध-कूप,
जो नम्र, उठे बन कीर्ति-स्तूप!

जो छिन्न-भिन्न, जल-कण असार,
जो मिले, बने सागर अपार,
जग नाम-रूपमय अन्धकार,
मैं चिर-प्रकाश, मैं मुक्ति-द्वार!

(मई’१९३५)

16. शत बाहु-पद

शत बाहु-पद, शत नाम-रूप,
शत मन, इच्छा, वाणी, विचार,
शत राग-द्वेष, शत क्षुधा-काम,--
यह जग-जीवन का अन्धकार!

शत मिथ्या वाद-विवाद, तर्क,
शत रूढ़ि-नीति, शत धर्म-द्वार,
शिक्षा, संस्कृति, संस्था, समाज,--
यह पशु-मानव का अहंकार!

-यह दिशि-पल का तम, इन्द्रजाल,
बहु भेद-जन्य, भव क्लेश-भार,
प्रभु! बाँध एकता में अपनी
भर दें इसमें अमरत्व-सार!

(मई’१९३५)

17. ऐ मिट्टी के ढेले अनजान

ऐ मिट्टी के ढेले अनजान!
तू जड़ अथवा चेतना-प्राण?
क्या जड़ता-चेतनता समान,
निर्गुण, निसंग, निस्पृह, वितान?

कितने तृण, पौधे, मुकुल, सुमन,
संसृति के रूप-रंग मोहन,
ढीले कर तेरे जड़ बन्धन
आए औ’ गए! (यही क्या मन?)
अब हुआ स्वप्न मधु का जीवन,
विस्मृत-स्मृति के विमुक्त बन्धन!
खुल गया शून्यमय अवगुंठन
अज्ञेय सत्य तू जड़-चेतन!

(जून’१९३५)

18. खो गई स्वर्ग की स्वर्ण-किरण

खो गई स्वर्ग की स्वर्ण-किरण
छू जग-जीवन का अन्धकार,
मानस के सूने-से तम को
दिशि-पल के स्वप्नों में सँवार!

गुँथ गए अजान तिमिर-प्रकाश
दे-दे जग-जीवन को विकास,
बहु रूप-रंग-रेखाओं में
भर विरह-मिलन का अश्रु-हास!

धुन जग का दुर्गम अन्धकार,
चुन नाम-रूप का अमृत सार,
मैं खोज रहा खोया प्रकाश
सुलझा जीवन के तार-तार!

खो गई स्वर्ग की अमर-किरण
कुसुमित कर जग का अन्धकार,
जाने कब भूल पड़ा निज को
मैं उसको फिर इसको निहार!

(अप्रैल’१९३६)

19. सुन्दरता का आलोक-श्रोत

सुन्दरता का आलोक-श्रोत
है फूट पड़ा मेरे मन में,
जिससे नव जीवन का प्रभात
होगा फिर जग के आँगन में!

मेरा स्वर होगा जग का स्वर,
मेरे विचार जग के विचार,
मेरे मानस का स्वर्ग-लोक
उतरेगा भू पर नई बार!

सुन्दरता का संसार नवल
अंकुरित हुआ मेरे मन में,
जिसकी नव मांसल हरीतिमा
फैलेगी जग के गृह-बन में!

होगा पल्लवित रुधिर मेरा
बन जग के जीवन का वसन्त,
मेरा मन होगा जग का मन,
औ’ मैं हूँगा जग का अनन्त!

मैं सृष्टि एक रच रहा नवल
भावी मानव के हित, भीतर,
सौन्दर्य, स्नेह, उल्लास मुझे
मिल सका नहीं जग में बाहर!

(अप्रैल’१९३६)

20. नव हे, नव हे

नव हे, नव हे!
नव नव सुषमा से मंडित हो
चिर पुराण भव हे!
नव हे!--

नव ऊषा-संध्या अभिनन्दित
नव-नव ऋतुमयि भू, शशि-शोभित,
विस्मित हो, देखूँ मैं अतुलित
जीवन-वैभव हे!
नव हे!--

नव शैशव-यौवन हिल्लोलित
जन्म-मरण से हो जग दोलित,
नव इच्छाओं का हो उर में
आकुल पिक-रव हे!
नव हे!--

बाँध रहें मुक्ति को बन्धन,
हो सीमा असीम अवलम्बन,
द्वार खड़े हों नित नव सुख-दुख
विजय-पराभव हे!
नव हे!

अपनी इच्छा से निर्मित जग
कल्पित सुख-दुख के अस्थिर पग,
मेरे जीवन से हो जीवित
यह जग का शव हे!
नव हे!

(जुलाई’१९३४)

21. बाँधो, छबि के नव बन्धन बाँधो

बाँधो, छबि के नव बन्धन बाँधो!
नव नव आशाकांक्षाओं में
तन-मन-जीवन बाँधो!
छबि के नव--

भाव रूप में, गीत स्वरों में,
गंध कुसुम में, स्मित अधरों में,
जीवन की तमिस्र-वेणी में
निज प्रकाश-कण बाँधो!
छबि के नव--

सुख से दुख औ’ प्रलय से सृजन
चिर आत्मा से अस्थिर रज-तन,
महामरण को जग-जीवन का
दे आलिंगन बाँधो!
छबि के नव--

बाँधो जलनिधि लघु जल-कण में,
महाकाल को कवलित क्षण में,
फिर-फिर अपनेपन को मुझमें
चिर जीवन-धन! बाँधो!
छबि के नव--

(जुलाई’१९३४)

22. मंजरित आम्र-वन-छाया में

मंजरित आम्र-वन-छाया में
हम प्रिये, मिले थे प्रथम बार,
ऊपर हरीतिमा नभ गुंजित,
नीचे चन्द्रातप छना स्फार!
तुम मुग्धा थी, अति भाव-प्रवण,
उकसे थे, अँबियों-से उरोज,
चंचल, प्रगल्भ, हँसमुख, उदार,
मैं सलज,--तुम्हें था रहा खोज!
छनती थी ज्योत्स्ना शशि-मुख पर,
मैं करता था मुख-सुधा पान,--
कूकी थी कोकिल, हिले मुकुल,
भर गए गन्ध से मुग्ध प्राण!
तुमने अधरों पर धरे अधर,
मैंने कोमल वपु-भरा गोद,
था आत्म-समर्पण सरल, मधुर,
मिल गए सहज मारुतामोद!
मंजरित आम्र-द्रुम के नीचे
हम प्रिये, मिले थे प्रथम बार,
मधु के कर में था प्रणय-बाण,
पिक के उर में पावक-पुकार!

(मई’१९३५)

23. वह विजन चाँदनी की घाटी

वह विजन चाँदनी की घाटी
छाई मृदु वन-तरु-गन्ध जहाँ,
नीबू-आड़ू के मुकुलों के
मद से मलयानिल लदा वहाँ!

सौरभ-श्लथ हो जाते तन-मन,
बिछते झर-झर मृदु सुमन-शयन,
जिन पर छन, कम्पित पत्रों से,
लिखती कुछ ज्योत्सना जहाँ-तहाँ!

आ कोकिल का कोमल कूजन,
उकसाता आकुल उर-कम्पन,
यौवन का री वह मधुर स्वर्ग,
जीवन बाधाएँ वहाँ कहाँ?

(मई’१९३५)

24. वह लेटी है तरु-छाया में

छाया? वह लेटी है तरु-छाया में
सन्ध्या-विहार को आया मैं।
मृदु बाँह मोड़, उपधान किए,
ज्यों प्रेम-लालसा पान किए;
उभरे उरोज, कुन्तल खोले,
एकाकिनि, कोई क्या बोले?
वह सुन्दर है, साँवली सही,
तरुणी है--हो षोड़षी रही;
विवसना, लता-सी तन्वंगिनि,
निर्जन में क्षण भर की संगिनि!
वह जागी है अथवा सोई?
मूर्छित या स्वप्न-मूढ़ कोई?
नारी कि अप्सरा या माया?
अथवा केवल तरु की छाया?

(अप्रैल’१९३५)

25. अँधियाली घाटी में

अँधियाली घाटी में सहसा
हरित स्फुलिंग सदृश फूटा वह!
वह उड़ता दीपक निशीथ का,--
तारा-सा आकर टूटा वह!

जीवन के इस अन्धकार में
मानव-आत्मा का प्रकाश-कण
जग सहसा, ज्योतित कर देता
मानस के चिर गुह्य कुंज-वन!

(मई’१९३५)

26. ताज

हाय! मृत्यु का ऐसा अमर, अपार्थिव पूजन?
जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन!
संग-सौध में हो शृंगार मरण का शोभन,
नग्न, क्षुधातुर, वास-विहीन रहें जीवित जन?

मानव! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति?
आत्मा का अपमान, प्रेत औ’ छाया से रति!!
प्रेम-अर्चना यही, करें हम मरण को वरण?
स्थापित कर कंकाल, भरें जीवन का प्रांगण?
शव को दें हम रूप, रंग, आदर मानन का
मानव को हम कुत्सित चित्र बना दें शव का?

गत-युग के बहु धर्म-रूढ़ि के ताज मनोहर
मानव के मोहांध हृदय में किए हुए घर!
भूल गये हम जीवन का संदेश अनश्वर,
मृतकों के हैं मृतक, जीवतों का है ईश्वर!

(अक्टूबर१९३५)

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