यशोधरा भाग (2) : मैथिलीशरण गुप्त

Yashodhara Part (2) : Maithilisharan Gupt

राहुल-जननी
1

घुसा तिमिर अलकों में भाग,
जाग, दु:खिनी के सुख, जाग!

जागा नूतन गन्ध पवन में,
उठ तू अपने राज-भवन में,
जाग उठे खग वन-उपवन में,
और खगों में कलरव-राग।
जाग, दु:खिनी के सुख, जाग!

तात! रात बीती वह काली,
उजियाली ले आई लाली,
लदी मोतियों से हरियाली,
ले लीलाशाली, निज भाग।
जाग, दु:खिनी के सुख, जाग!

किरणों ने कर दिया सवेरा,
हिमकण-दर्पण में मुख हेरा,
मेरा मुकुर मंजु मुख तेरा,
उठ, पंकज पर पड़े पराग!
जाग, दु:खिनी के सुख, जाग!

तेरे वैतालिक गाते हैं,
स्वस्ति लिये ब्राह्मण आते हैं,
गोप दुग्ध-भाजन लाते हैं,
ऊपर झलक रहा है झाग।
जाग, दु:खिनी के सुख, जाग!

मेरे बेटा, भैया, राजा,
उठ, मेरी गोदी में आजा,
भौंरा नचे, बजे हाँ, बाजा,
सजे श्याम हय, या सित नाग?
जाग, दु:खिनी के सुख, जाग!

जाग अरे, विस्मृत भव मेरे!
आ तू, क्षम्य उपद्रव मेरे!
उठ, उठ, सोये शैशव मेरे!
जाग स्वप्न, उठ, तन्द्रा त्याग!
जाग, दु:खिनी के सुख, जाग!

2

अम्ब, स्वप्न देखा है रात,
लिये मेष-शावक गोदी में खिला रहे हैं तात ।
उसकी प्रसू चाटती है पद कर करके प्रणिपात,
घेरे है कितने पशु-पक्षी, कितना यातायात!
'ले लो मुझको भी गोदी में सुन मेरी यह बात,
हंस बोले-'असमर्थ हुई क्या तेरी जननी ? जात !"
आँख खुल गई सहसा मेरी, माँ, हो गया प्रभात,
सारी प्रकृति सजल है तुझ-सी भरे अश्रु अवदात!

3

बस, मैं ऐसी ही निभ जाऊँ ।
राहुल, निज रानीपन देकर
तेरी चिर परिचर्या पाऊँ ।
तेरी जननी कहलाऊँ तो
इस परवश मन को बहलाऊँ ।
उबटन कर नहलाऊँ तुझको,
खिला पिला कर पट पहनाऊँ ।
रीझ-खीझ कर, रूठ मना कर
पीड़ा को क्रीड़ा कर लाऊँ ।
यह मुख देख देख दुख में भी
सुख से दैव-दया-गुण गाऊँ।
स्नेह-दीप उनकी पूजा का
तुझमें यहां अखण्ड जगाऊँ ।
डीठ न लगे, डिठौना देकर,
काजल लेकर तुझे लगाऊँ ।

4

कैसी डीठ? कहाँ का टौना?
मान लिया आँखों में अंजन, माँ, किस लिए डिठौना?

यही डीठ लगने के लच्छिन-छूटे खाना-पीना,
कभी कांपना, कभी पसीना, जैसै तैसे जीना ?
डीठ लगी तब स्वयं तुझे ही, तू है सुध-बुध हीना,
तू ही लगा डिठौना, जिसको कांटा बना विछौना ।
कैसी डीठ? कहाँ का टौना?

लोहत-बिन्दु भाल पर तेरे, मैं काला क्यों दूँ माँ?
लेती है जो वर्ण आप तू क्यों न वही मैं लूँ माँ?
एक इसी अन्तर के मारे मैं अति अस्थिर हूँ माँ!
मेरा चुम्बन तुझे मधुर क्यों ? तेरा मुझे सलोना!
कैसी डीठ? कहाँ का टौना?

रह जाते हैं स्वयं चकित-से मुझे देख सब कोई,
लग सकती है कह, मां, मुझको डीठ कहाँ कब कोई?
तेरा अंक-लाभ कर मुझको चाह नहीं अब कोई ।
देकर मुझे कलंक-बिन्दु तू बना न चन्द-खिलौना ।
कैसी डीठ? कहाँ का टौना?

5

पात्र-

यशोधरा=गौतम-गृहिणी, राहुल-जननी ।
राहुल-बुद्धदेव का पुत्र ।
गंगा-गौतमी}यशोधरा की सखियाँ
चित्रा-विचित्रा}यशोधरा की दासियाँ
स्थान-
कपिलवस्तु के राजोपवन का अलिन्द ।
समय-
संध्या।

गंगा-
देवि, यदि वह घटना सच्ची हो तो तपस्विनी सीता देवी
भी इसी प्रकार पति-परित्यक्ता होकर आदिकवि के आश्रम
में स्वामी का ध्यान करके कुश-लव के लिए जीवन धारण
करती होंगी ।

यशोधरा-
मैं उन्हें प्रणाम करती हूँ । सखी, सीता देवी ने बहुत सहा ।
सम्भवत: मैं उतना न झेल सकती । कहते हैं, स्वामि-वंचिता
होने के साथ-साथ उन्हें मिथ्या लोकापवाद भी सहन करना
पड़ा था ।

गंगा-
श्रीकृष्ण के वियोग में गोपियों ने भी बहुत सहन किया।

यशोधरा-
हाय! वे उनके लिए कितनी तरसीं । परन्तु मुझे विश्वास है,
मैं अपने प्रभु के दर्शन अवश्य पाऊँगी।

गंगा-
तुम्हें देखकर मुझे स्वामि-वंचिता शकुन्तला का स्मरण आता है ।
उनके पुत्र भरत की भांति ही कुमार राहुल का अभ्युदय हो, यही
हम सबकी कामना है ।

यशोधरा-
अहो! अभागिनी गोपा ही एक दु:खिनी नहीं है । उसकी पूज्य
पूर्वजाओं ने भी बड़े दु:ख उठाये हैं । उनके बल से मैं भी किसी
प्रकार सह लूँगी गंगा!

गौतमी-
निर्दयी पुरुषों के पाले पड़कर हम अबलाजनों के भाग्य में रोना
ही लिखा है ।

यशोधरा-
अरी, तू उन्हें निर्दय कैसे कहती है? वे तो किसी कीट-पतंग का
दु:ख भी नहीं देख सकते ।

गौतमी-
तभी न हम लोगों को इतना सुख दे गये हैं?

यशोधरा-
नहीं, वे अपने दु:ख का भागी बनाकर हमें अपना सच्चा
आत्मीय सिद्ध कर गये हैं और हम सबके सच्चे सुख की
खोज में ही गये हैं ।

गौतमी-
देवि, तुम कुछ भी कहो, परन्तु मैं तो यही कहूंगी कि
ऐसा सोने का घर छोड़कर उन्होंने वन की धूल ही छानी।
जननी जन्मभूमि की भी उन्हें कुछ ममता न हुई।

यशोधरा-
अरी, सदा माँ की गोद में ही बैठे रहने के लिए पुरुषों का
जन्म नहीं होता । स्त्रियों को भी पति के घर जाना पड़ता है ।
सारा विश्व जिनका कुटुम्ब है, उन्हें जन्मभूमि का बंधन कैसे
बाँध सकता है?

गौतमी-
कुमार राहुल कदाचित् विश्व से बाहर थे! मोह ममता तो ऐसों
को क्या होगी, किन्तु उनके पालन-पोषन और उनकी शिक्षा-दीक्षा
की देख-रेख करना भी क्या उनका कर्त्तव्य न था ?

यशोधरा-
हमको तो उस पर बड़ी ममता है । हम क्या इतना भी न कर
सकेंगी, मैं कहती हूं, राहुल के जन्म ने उन्हें अमृत की प्राप्ति
के लिए और भी आतुर कर दिया। परन्तु अब इन बातों को
रहने दे । वह आता होगा । मैं उसके सामने हंसती ही रहना
चाहती हूं। परन्तु बहुधा आँसू आ जाते हैं । इससे उसे कष्ट
होता है । वह अब समझने लगा है ।

गंगा-
देवि, कुमार को देखकर ही धीरज धरना चाहिए ।

यशोधरा-
ठीक है, विपत्ति में जो रह जाय वही बहुत है । चित्रा, देख भोजन
प्रस्तुत है । यहीं एक और उसके लिए आसन लगा । मैंने अपने हाथों
उसके लिए कुछ खीर बनायी है । वह ठण्डी हुई या नहीं? और जो
कुछ हो, आम रखना न भूलना ।

चित्रा-
जो आज्ञा ।
(गयी)

यशोधरा-
गंगा, तू दादा जी के यहाँ जाने योग्य उसकी वेश-भूषा ठीक कर ।

(गंगा 'जो आज्ञा' कहकर जिस द्वार से जाती है उसी से राहुल
अलिन्द में आता है । यशोधरा और गौतमी सामने से उसकी
प्रतीक्षा कर रही हैं । परंतू वह चुपके-चुपके उनके पीछे से आना
चाहता है । सामने गंगा को देखकर मुंह पर अंगुली रखकर उससे
चुप रहने का आग्रह करता है । गंगा मुस्करा कर गुप चुप रहती
है । राहुल पीछे से मां के गले में हाथ डालकर पीठ पर चढ़ जाता
है और 'प्रणाम', 'प्रणाम' कहकर अपना मुंह बढ़ाकर माता के मुंह
से लगाकर हंसता है)

यशोधरा-
जीता रह, बेटा ।

राहुल-
मेरी जीत हो गई । दादाजी से मैंने कहा था,-मेरे प्रणाम करने के पहले
ही मां मुझे आशीर्वाद दे देती है । उन्होंने कहा-तू प्रणाम करने में पिछड़
जाता है । इसीलिए आज मैंने पीछे से आकर पहले प्रणाम कर लिया! अब
तू हार गई न ?

यशोधरा-
वाह मैं कैसे हार गयी! तूने छिपकर आक्रमण किया है । इसे मैं तेरी जीत
नहीं मानती ।

राहुल-
क्यों नहीं मानती? प्रणाम करना क्या कोई प्रहार करना है जो सामने से ही किया
जाय । अच्छे काम तो अज्ञात रूप से भी किये जाते हैं । यह तूने ही कहा था । नहीं
कहा था ?

यशोधरा-
बेटा, अब मैं हार गई ।

राहुल-
तू हार न मानती तो मैंने दूसरा उपाय भी सोच लिया था।

यशोधरा-
सो क्या?

राहुल-
मैं दूर इयोढ़ी से ही, तुझे देखे बिना ही, 'माँ प्रणाम', 'माँ प्रणाम'
कहता हुआ आता ।

यशोधरा-
बेटा, इसकी आवश्यक्ता नहीं । मेरा आशीर्वाद तो प्रणाम की प्रतीक्षा
थोड़े करता है ।

राहुल-
परन्तु मेरा विनय तो सदा गुरुजनों का आशीष चाहता है । दादाजी
कहते हैं, शिष्टाचार के नियम की रक्षा होनी चाहिए । इस कारण मेरे
प्रणाम करने पर ही तुझे आशीष देना चाहिए । नहीं माँ?

यशोधरा-
अच्छी बात है, अब मैं तैरे प्रणाम करने पर ही मुँह से तुझे आशीष
दिया करूंगी ।

राहुल-
मुंह से?

यशोधरा-
मन से तो दिन-रात ही तेरा मंगल मनाती रहती हूं ।

राहुल-
परन्तु मां, मुझे तो कितने ही काम रहते हैं । मैं कैसे सर्वदा एक
ही चिन्तन कर सकूंगा)

यशोधरा-
बेटा, तेरे जितने शुभ संकल्प हैं वे सब मेरी ही पूजा के साधन हैं । तू
उपवन में घूम आया ।

राहुल-
हाँ, मां, मैंने जो आम के पौधे रोपे थे उनमें नयी कोंपलें निकली हैं-
बड़ी सुन्दर, लाल लाल!

यशोधरा-
जैसी तेरी अंगुलियां!

राहुल-
मेरी अँगुलियां तो धनुष की प्रत्यंचा भी खींच लेती हैं । वे हाथ लगते
ही कुम्हला कर तेरे होठों से होड़ करने लगेंगी ।

गौतमी-
कुमार तो कविता करने लगे हैं!

राहुल-
गौतमी, इसी को न कविता कहते हैं-
खान-पान तो दो ही धन्य,
आम और अम्मा का स्तन्य!

गौतमी-
धन्य, धन्य! परन्तु ये तो दो दो पद हुए?

राहुल-
मेरा छन्द क्या चौपाया है? क्यों माँ!

यशोधरा-
ठीक कहा बेटा!

गौतमी-
भगवान करे, तुम कवि होने के साथ साथ कविता के विषय भी
हो जायो ।

राहुल-
माँ, कविता का विषय कैसे हुआ जाता है?

यशोधरा-
बेटा, कोई विशेषता धारण करके ।

राहुल-
परन्तु माँ, मुझे तो किसी काम में विशेषता नहीं जान पड़ती । सब
बातें साधारणत: यथानियम होती दिखाई पड़ती हैं । हाँ, एक तेरे
रोने को छोड़कर! तू हंस पड़ी, यह और भी विचित्र है!

यशोधरा-
अच्छा, बेटा, अब भोजन कर । गौतमी थाली मंगा ।
(गौतमी 'जो आज्ञा' कहकर गयी)

राहुल-
मां, मेरे साथ तू भी खा ।

यशोधरा-
बेटा, मैं पीछे खा लूंगी ।

राहुल-
दादाजी मुझसे कहते थे-तू माँ को खिलाये बिना खा लेता है ।
मुझे बड़ी लज्जा आयी ।

यशोधरा-
मैं क्या भूखी रहती हूं? उचित तो यह होगा कि तू दादाजी
को साथ लेकर ही यहाँ भोजन किया कर ।

राहुल-
यह अच्छी रही! दादाजी तेरे लिए कहते हैं और तू दादाजी के लिए
कहती है । यह भी कविता का एक विषय मुझे मिल गया । अच्छा,
कल से दो बार तेरे साथ खाया करूँगा और दो बार दादाजी के साथ ।
आज तो तू मेरे साथ बैठ । नहीं तो मैं भी नहीं खाऊंगा ।

यशोधरा-
बेटा, हठ नहीं करते। मेरी तृप्ति तभी होती है जब मैं सबको खिला
कर खाऊँ ।

राहुल-
तू खा लेगी तो क्या फिर कोई खायगा नहीं?

यशोधरा-
परन्तु मेरे लिए यह उचित नहीं कि जिनका भार मुझ पर है
उन्हें छोड़कर मैं पहले खा लूं ।

राहुल-
तो क्या मुझ पर किसी का भार नहीं?

यशोधरा-
बेटा, तू अभी छोटा है ।

राहुल-
मैं छोटा हूँ तो क्या ? बल तो मुझमें तुझसे अधिक है! चाहे परीक्षा
करके देख ले । मैं घोड़े पर जमकर बैठने लगा हूं, व्यायाम
करता हूं, शस्त्र चलाना सीखता हूँ । मेरा बाण जितनी दूर जाता
है मेरे किसी भी समवयस्क का उतनी दूर नहीं जा सकता। तू तो मेरे
साथ दो डग दौड़ भी नहीं सकती।

यशोधरा-
फिर भी बेटा, मैं तुझसे बड़ी हूं।

राहुल-
मैं बड़ा होता तो ?

यशोधरा-
तो मेरा भार तुझ पर होता ।

राहुल-
परन्तु मैं तो सदा तुझसे छोटा ही रहा। माँ! अच्छा, पिताजी तो बड़े
हैं । वे क्यों हमारी सुध नहीं लेते?

यशोधरा-
लेंगे बेटा लेंगे । तब तक तेरा भार मुझे दे गये हैं ।

राहुल-
और तेरा भर किसे दे गये हैं, दादाजी को?

यशोधरा-
हाँ बेटा, दादाजी को।

राहुल-
और दादाजी का भार?

यशोधरा-
बेटा, पुरुषों के लिए स्वालम्बी होना ही उचित है । दूसरों का
भार बनना अपने पौरुष का अनादर करना है । यों तो सबका भार
भगवान् पर है । परन्तु मेरे लिए तो मेरे स्वामी ही भगवान्
हैं और तेरे लिए तेरे गुरुजन ही ।

राहुल-
तू ठीक कहती है । मैंने भी पढ़ा है-मातृदेवो भव, पितृदेवो भव ।
इसी के साथ माँ, आचार्यदेवो भव भी है ।

यशोधरा-
ठीक ही तो है बेटा । माता-पिता जन्म देते हैं, परन्तु सफल उसे
आचार्य देव ही बनाते हैं । हमेँ क्या करना चाहिए और क्या
न करना चाहिए, वही इसे बताते हैं ।

राहुल-
सचमुच वे बड़ी बड़ी बातें बताते हैं । आकाश तो मुझे भी
गोल गोल दिखाई देता है । वे कहते हैं धरती भी गोल है । वे
मुझको उसकी सब बातें बतायेंगे।

यशोधरा-
क्यों नहीं बतायेंगे बेटा।

राहुल-
परन्तु मेरा एक सहपाठी तो उनसे ऐसा डरता है मानो वे देव न
होकर कोई दानव हों!

यशोधरा-
वह अपना पाठ पढ़ने में कच्चा होगा ।

राहुल-
तूने कैसे जान लिया?

यशोधरा-
यह क्या कठिन है । ऐसे ही लड़के गुरुजनों के सामने जाने से जी
चुराते हैं ।

राहुल-
माँ, मैं तो एक दो बार सुनकर ही कोई बात नहीं भूलता । तू चाहे
मेरी परीक्षा ले ले ।

यशोधरा-
तेरे पूर्वजन्म का संस्कार है । तू उस जन्म में पण्डित रहा होगा,
इसलिए इस जन्म में तुझे सहज ही विद्या प्राप्त हो रही है ।

राहुल-
ऐसी बात है?

यशोधरा-
हाँ, बेटा, इस जन्म के अच्छे कर्म उस जन्म में साथ देते हैं ।

राहुल-
और बुरे कर्म?

यशोधरा-
वे भी ।

राहुल-
तो एक बार बुरे कर्म करने से फिर उनसे पिंड छूटना कठिन है?

यशोधरा-
यही बात है बेटा ।

राहुल-
तो मैं आचार्य देव से कहकर बुरे कर्मों की एक तालिका बनवा लूँगा,
जिससे उनसे बचता रहूँ ।

यशोधरा-
अच्छा तो यह होगा कि तू अच्छे कर्मों की सूची बनवा ले ।

राहुल-
अच्छी बातें तो वे पढ़ाते ही हैं ।

यशोधरा-
तब उन्हीं को स्मरण रखना चाहिए। बुरी बातों का स्मरण
भी बुरा ।
(थाली आती है)

राहुल-
तब एक ओर मुझे अज्ञ भी बनना पड़ेगा, जैसे आज असमर्थ
बनना पड़ा है ।

यशोधरा-
सो कैसे?

राहुल-
आज व्यायाशाला में कूदने के लिए बढ़ाकर एक नयी सीमा
निर्धारित की गयी। मेरे साथियों में से कोई भी वहाँ तक
नहीं उड़ सका। मैं कूद सकता था। परन्तु सबका मन रखने के
लिए समर्थ होते हुए भी, मैं वहां तक नहीं गया । कल ही मैंने
पढ़ा था-आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।

यशोधरा-
बड़ा अच्छा पाठ पढ़ा है तूने बेटा । परन्तु उसका उपयोग ठीक नहीं
हुआ । तेरा कोई साथी तुमसे अधिक योग्यता दिखावे तो क्या इसे
अपने प्रतिकूल समझना चाहिए ? नहीं यह तो अपने लिए उत्साह
की बात होनी चाहिए । हमारे सामने जो आदर्श हों, हमें उनसे
भी आगे जाने का उद्योग करना उचित है । इसी प्रकार हमारा
उदाहरण देखकर दूसरों को भी साहस दिखाना चाहिए । नहीं तो वे
भी उन्नति न कर सकेंगे और तेरी बलबुद्धि भी विकसित न हो सकेगी।

राहुल-
ऐसी बात है! तब तो बड़ी भूल हुई मां ।

यशोधरा-
परन्तु तेरी भूल में भी सद्भावना थी, इससे मुझे सन्तोष ही है ।

गौतमी-
मां-बेटे बातों में ही भूल गये। थाली ठण्डी हो रही है । उसका
ध्यान ही नहीं।

यशोधरा-
सचमुच! बेटा, अब भोजन कर ।

राहुल-
भूख तो मुझे भी लगी थी, पर तेरी बातों में भूल गया । चलो,
अच्छा ही हुआ । दादाजी को सुनाने के लिए बहुत-सी बातें मिल
गयीं । तूने भी कहा था, टहलने के पीछे कुछ विश्राम करके ही
खाना ठीक होता है ।
(भोजन करने बैठता है)

यशोधरा-
(अंचल झलती हुई)
अच्छा, अब खा, मैं चुप रहूँगी ।

राहुल-
तब तो मैं खा ही न सकूँगा ।

यशोधरा-
जैसे तुझे रुचे वैसे ही सही ।
(गंगा मूल्यवान वस्भूत्राषण लाती है ।)

राहुल-
आहा! खीर बड़ी स्वादिष्ट है । माँ, तू नहीं खाती तो चखकर ही देख ।

यशोधरा-
बेटा, मैं खीर नहीं खाती। राहुल-
मोतीचूर ।

यशोधरा-
वह भी नहीं।

राहुल-
दाल-भात, श्रीखण्ड, पापड़, दही-बड़े तुझे कुछ नहीं भाते?

यशोधरा-
बेटा, मैं व्रत करती हूं, फल और दूध ही मेरे लिए यथेष्ट हैं ।

राहुल-
तू बड़ी अरसज्ञ है! मैं दादाजी से कहूंगा।

यशोधरा-
नहीं बेटा, ऐसा न करना । उन्हें व्यर्य कष्ट होगा ।

राहुल-
अच्छा, तू उपवास क्यों करती है?

यशोधरा-
मेरे धर्म का यह एक अंग है ।

राहुल-
मेरे लिए यह धर्म कठिन पड़ेगा!

यशोधरा-
तुझे इसकी अश्वश्यकता नहीं।

राहुल-
क्यों ?

यशोधरा-
धर्म की व्यवस्था भी अवस्था के अनुसार होती है । तू अभी छोटा है ।
बच्चों के व्रत उनकी माताएँ ही पूरे किया करती हैं ।

राहुल-
यह ले, मैं तृप्त हो गया । चित्रा, हाथ धुला और थाली ले जा ।

यशोधरा-
अरे, अभी खाया ही क्या है?

राहुल-
और कितना खाऊँ? मैं क्या बड़ा हूं?

यशोधरा-
हूं, इसी के लिए तू छोटा है । जैसी तेरी रुचि ।
(राहुल हाथ-मुंह धोता है)

जा, अब दादाजी के यहाँ जाने योग्य वेशभूषा बना ले ।

राहुल-
क्यों मां, यह वस्त्र क्या बुरे हैं? तू फटे-पुराने पहने
और मैं सुवर्ण-खचित पहनूं, मैं नहीं पहनूंगा । मेरे
यही घूमने-फिरने और खेलने के वस्त्र क्या तेरे
काषाय-वस्त्त्रों से भी गये-बीते हैं?

यशोधरा-
बेटा, मैं काषाय वस्त्र पहने क्या तुझे भली नहीं जान पड़ती?

राहुल-
नहीं, मां, इनसे तेरा गौरव ही प्रकट होता है । फिर भी मन
न जाने कैसा हो जाता है-कभी कभी। तू इतना कठिन तप
क्यों करती है?

यशोधरा-
तप ही मनुष्यत्व है बेटा!

राहुल-
मैं कब तप करूँगा?

यशोधरा-
जब अपने पिता की भांति पिता बन जायगा । मैं तो यही
जानती हूँ । आगे तेरे पिता जानें ।

राहुल-
मां, पिताजी की बात आने से तुझे कष्ट होता है । इसलिए मैं
उनकी चर्चा ठीक नहीं समझता ।

यशोधरा-
बेटा, उन्हीं की चिन्ता करके तो मैं जी रही हूँ । तू इच्छानुसार जो
कहना हो, कह ।

राहुल-
अच्छा, मेरे ये वस्त्र क्या तुझे नहीं भाते ? साधारण वस्त्रों में तेरा
असाधारण महत्तव देखकर मुझे भी रत्न-खचित वेश-भूषा छोड़कर
साधारण वस्त्रों का ही लोभ होता है ।

यशोधरा-
परन्तु तेरी राजोचित वेश-भूषा से तेरे दादाजी को सन्तोष होता है ।
उनकी प्रसन्नता के लिए तुझे यह त्याग करना ही चाहिए ।

राहुल-
न्याय सचमुच त्याग ही है । अच्छा, पिता-

यशोधरा-
कह बेटा, कह ।

राहुल-
क्या पिताजी भी ऐसी ही वेशभूषा धारण करते थे?

यशोधरा-
क्यों नहीं ।

राहुल-
परन्तु तेरे सिरहाने उनका जो चित्र रहता है वह तो साधु-संन्यासी
के रुप में ही है ।

यशोधरा-
उसे मैंने उनकी अब की अवस्था की कल्पना करके बनाया है ।

राहुल-
उनका कोई राजवेश का चित्र नहीं है?

यशोधरा-
क्यों न होगा ।

राहुल-
तो मुझे दिखा ।

यशोधरा-
गौतमी है कोई चित्र?

गौतमी-
वह अशोकोत्सव वाला?

यशोधरा-
वहीँ ला ।
(गौतमी जाती है)

राहुल-
माँ, पहले तू भी ऐसे वस्त्राभूषण पहनती होगी?

यशोधरा-
बेटा, कौन-सा राज-वैभव है जो तेरी माँ ने नहीं भोगा?

राहुल-
अब केवल माथे पर लाल लाल बिन्दी ही तुझे अच्छी लगती है?

यशोधरा-
बेटा, यही मेरे सुख-सौभाग्य का चिह्न है ।

राहुल-
ऐसी ही बिन्दी मुझे भी लगा दे।

यशोधरा-
तेरे लिए केसर, कस्तूरी, गौरोचन और चन्दन ही उपयुक्त है । रोली
और अक्षत पूजा के समय लगाऊँगी ।
(गौतमी आती है)

गौतमी-
कुमार, तो यह देखो पिताजी का चित्र ।

राहुल-
ओहो! कहाँ यह राजसी वेश-विन्यास और कहाँ वह संन्यास! परन्तु
मुख पर दोनों स्थानों में प्राय: एक ही भाव है । अवस्था में अवश्य
कुछ अन्तर है । मां, सौम्य और साधु भाव में क्या विशेष अन्तर है?

यशोधरा-
कोई अन्तर नहीं बेटा!

गंगा-
कुमार, कैसा है यह रुप ?

राहुल-
मेरे जैसा! एक बार दादीजी मुझे देखकर चौंक पड़ीं और बोलीं
मुझे ऐसा जान पड़ा, मानों वही आ गया! मैंने भी दर्पण में अपना
मुख देखा है । क्यों माँ?

यशोधरा-
बेटा, तू ठीक कहता है । अरे तेरी आँखों में यह क्या आ पड़ा?

राहुल-
निकल गया माँ? तेरा अंचल तो भीग गया । अरे, यह तो देख! पिता
के पास ही यह कौन खड़ी है? वे उसे मरकत की माला उतार कर दे
रहे हैं । वह हाथ बढ़ाकर भी संकुचित-सी ले रही है । सिर नीचा है,
फिर भी अधखुली आंखें उन्हीं की ओर लगी हैं, माँ, यह कौन है?

गौतमी-
कुमार, तुम नहीं समझे?

राहुल-
अब ध्यान से देखकर समझ गया । मां की छोटी बहन मेरी कौन
होती है?

गौतमी-
मौसी ।

राहुल-
तो ये मेरी मौसी हैं । मुख मां के मुख से मिलता है । इतना गौरव
नहीं है परन्तु सरलता ऐसी ही है । क्यों मां हैं न मौसी ही?

गौतमी-
कुमार, मां की आँखें अब भी किरकिरा रही हैं । मैं तुम्हें बता दूँ ।
यह इन्हीं का चित्र है ।

राहुल-
ओहो! इतना परिवर्तन!

यशोधरा-
बेटा, बुरा या भला ?

राहुल-
माँ, यह मैं पहले ही कह चुका हूँ । तेरे इस परिवर्तन में तेरा गौरव
ही प्रकट हुआ है । यह मूर्ति सुख में भी संकुचित-सी है और
तू दु:खिनी होकर भी गौरवशालिनी । यह पवित्र है, तू पावन ।
क्या इस अवस्था के परिवर्तन पर तुझे खेद है ?

यशोधरा-
बेटा, तुझे सन्तोष हो तो मुझे कोई खेद नहीं।

राहुल-
बस, पिताजी, आ जायें, तो मुझे पूरा सन्तोष है ।

यशोधरा-
तूने मेरे मन की बात कही बेटा ।

राहुल-
तब आज मुझे वही माला पहना दे जो पिताजी ने तुझे दी थी ।

यशोधरा-
मैंने उसे तेरी बहू के लिए रख छोड़ा था । यह भी अच्छा है,
उसे वह तेरे ही हाथों पायगी । गौतमी ले आ ।
(गौतमी जाती है)

राहुल-
मेरी बहू की तुझे बड़ी चिंता है । इससे मुझे ईर्ष्या होती है ।

यशोधरा-
क्यों बेटा?

राहुल-
वह आकर मेरे और तेरे बीच में खड़ी हो जायगी, इसे मैं सहन
नहीं कर सकता ।

यशोधरा-
मेरी दो जांघें हैं, एक पर तू बैठेगा, दूसरी पर वह बैठेगी ।

राहुल-
परन्तु जिस जाँघ पर मैं बैठना चाहूंगा उसी पर वह बैठना
चाहेगी तो झगड़ा न मचेगा?

यशोधरा-
मैं उसे समझा लूँगी ।

राहुल-
काहे से समझा लेगी? मुंह तो तेरे एक ही है । वह मेरे भाग
में है । उससे मैं तुझे बहू के साथ बात करने दूंगा तब न?

यशोधरा-
इतना बड़ा स्वार्थी होगा तू?

राहुल-
इसमें स्वार्थ की क्या बात है माँ, यह तो स्वत्व की बात है ।

गंगा-
परन्तु, कुमार अधिकार क्या अकेले ही भोगा जाता है?

राहुल-
तुम भी माँ की ओर मिल गयी हो!

गौतमी-
(आ कर)
कुमार, मैं तुम्हारी ओर हूँ । समय आवे तब देख लेना । अभी से
क्या झगड़ा । लो, यह मरकत की माला।

राहुल-
(पहन कर)
अरे! यह तो मुझे बड़ी बैठी ।

(उतार कर)
माँ, एक बार तू ही इसे पहन ।

यशोधरा-
बेटा, मैं ?

राहुल-
इस हंसी से तो तेरा रोना ही भला! पहन मां, मैं देखूँगा ।

गौतमी-
देवि, माथे पर सिन्दूर-बिन्दु धारन करती हुई किस विचार से तुम
कुमार की इच्छा पूरी करने में असमंजस करती हो? जो ऐसा करने
से तुम्हें रोकता है वह धर्म नहीं, अधर्म है ।

यशोधरा-
पहना दे बेटा!

राहुल-
(पहना कर)
अहा हा! यह राजयोग है । चित्रा, दर्पण तो लाना ।

यशोधरा-
रहने दे बेटा, तू ही मेरा दर्पण है । अरे, यह विचित्रा क्या लाई?

विचित्रा-
जय हो देवि, महाराज ने कुमार के लिए यह वीणा भेजी है, और
पूछा है, वे कब तक आते हैं?

राहुल-
वे क्या कर रहे हैं?

विचित्रा-
कुमार, महाराज अभी संध्या करने के लिए उठे हैं ।

राहुल-
जब तक वे संध्या से निवृत्त हों, मैं पहुँचता हूँ।

विचित्रा-
जो आज्ञा ।
(गयी)

राहुल-
मां, दादाजी ने मुझसे कहा था, तू बड़ा अच्छा बजाती है ।
तू ही मुझे वीणा सिखाया कर । इसी से दादाजी ने मेरे लिए यह
वीणा बनाने की आज्ञा दी थी ।

यशोधरा-
बेटा, मैं तो सब भूल गयी । परन्तु वीणा है सुन्दर ।

राहुल-
इसी से अपने आप तेरी अंगुलियां इसे छेड़ने लगीं! कैसी
बोलती है यह?

यशोधरा-
अच्छी-तेरे योग्य ।

राहुल-
माँ, तनिक इसे बजाकर कुछ गा ।

यशोधरा-
बेटा, यह छोटी है ।

गंगा-
कुमार, परन्तु स्वर दे सकेगी । गाने के लिए इतना ही पर्याप्त है ।

यशोधरा-
अरी, यह यों ही हठी है, ऊपर से इसे तुम और भी उकसा रही हो।

राहुल-
माँ, अपनी इच्छा से तू रोती-गाती है । मैं कहता हूं तो मुझे
हठी बताती है । यही सही। तू न गायगी तो मैं रोने लगूँगा।
(हंसता है)

यशोधरा-
गाती हूँ बेटा, उनके लिए रो रही हूँ तो तेरे लिए गाऊँगी क्यों नहीं?
(गान)

रुदन का हँसना ही तो गान ।
गा गा कर रोती है मेरी हत्तन्त्री की तान ।

मीड़-मसक है कसक हमारी, और गमक है हूक;
चातक की हुत-हृदय हूति जो, सो कोइल की कूक ।
राग हैं सब मूर्च्छित आह्वान ।
रुदन का हँसना ही तो गान ।

छेड़ो न वे लता के छाले, उड़ जावेगी धूल,
हलके हाथों प्रभु के अर्पण कर दो उसके फूल,
गन्ध है जिनका जीवन-दान ।
रुदन का हँसना ही तो गान ।

कादम्बिनी-प्रसव की पीड़ा जैसी तनिक उस ओर,
क्षिति का छोर छू गयी सहसा वह बिजली की कोर!
उजलती है जलती मुसकान,
रुदन का हँसना ही तो गान ।

यदि उमंग भरता न अद्रि के जो तू अन्तर्दाह,
तो कल कल कर कहाँ निकलता निर्मल सलिल-प्रवाह ?
सुलभ कर सबको मज्जन-पान ।
रुदन का हँसना ही तो गान ।

पर गोपा के भाग्य-भाल का उलट गया वह इन्दु,
टपकाता है अमृत छोड़कर ये खारी जल बिन्दु!
कौन लेगा इनको भगवान ?
रुदन का हँसना ही तो गान ।

राहुल-
माँ, माँ, रुलाई आती है । ये गंगा, गौतमी और चित्रा सभी तो
रो रही हैं ।

यशोधरा-
बेटा, बेटा, आ मेरी छाती से लग जा ।
(बलपूर्वक भेटती है)

राहुल-
ओह! ओह!

गौतमी-
छोड़ दो, छोड़ दो देवि, कुमार को । यह क्या करती हो?
(यशोधरा भुजपाश ढीला करती है)

राहुल-
आह! प्राण बचे । मैं तो तुझे सर्वथा दुर्बल समझता था ।
परन्तु तूने पागल की भाँति इतने बल से मुझे दबाया कि
मेरी सांस रुकने लगी माँ! हाथ जोड़े मैंने तेरे छाती से लगने को!
फिर भी तू रोती है? रोना मुझे चाहिए या तुझे?

यशोधरा-
बेटा; मैं तुझे हंसता ही देखूँ।

राहुल-
अच्छा, रात को कहानी कहेगी न?

यशोधरा-
कहूंगी ।

राहुल-
मेरी जीत! जाऊँ तो झटपट दादाजी के यहाँ हो आऊँ ।

6

राहुल-
अम्ब, मन करता है, पत्र लिखूँ तात को ।

यशोधरा-
क्या लिखेगा बेटा, सुनूँ मैं भी उस बात को ?

राहुल-
मैं लिखूँगा-तात, तुम तपते हो वन में,
हम हैं तुम्हारा नाम जपते भवन में।
आयो यहां, अथवा बुला लो हमको वहाँ ।
यशोधरा-
किन्तु बेटा, कौन जाने तेरे तात हैं कहां?

राहुल-
वे हैं वहाँ अम्ब, जहाँ चाहे और सब है,
किन्तु सोच, ऐसी धृति ऐसी स्मृति कब है?
ऐसा ठौर होगा कहाँ, जो सुध भुला दे माँ,
जागते ही जागते जो हमको सुला दे माँ?

यशोधरा-
ऐसा ठौर हो तो वह बेटा, तुझे भायगा?

राहुल-
अम्ब, नहीं; ध्यान वहाँ तेरा भी न आयगा,
मानता हूं, वेदना ही बजती है ध्यान में,
किन्तु एक सुख भी तो रहता है ज्ञान में ।

यशोधरा-
तो भी तात होंगे वहाँ ।

राहुल-
वे क्या मुझे मानेंगे?
विस्मृति के बीच कह, कैसे पहचानेंगे?
ऐसी युक्ति हो जो वही आप यहाँ आ जावें,
जानें-पहचानें हमें हम उन्हें पा जावें ।

यशोधरा-
बेटा, यही होगा, यही होगा, धैर्य धर तू
शक्ति और भक्ति निज भावना में भर तू।

7

राहुल-
अम्ब, पिता आयेंगे तो उनसे न बोलूँगा,
और संग उनके न खेलूँगा न डोलूँगा ।

यशोधरा-
बेटा, क्यों ?

राहुल-
गये वे अम्ब, क्यों कुछ बिना कहे?
हम सबने ये दुख जिससे यहाँ सहे।

यशोधरा-
अविनय होगा किन्तु बेटा, क्या न इससे ?

राहुल-
अविनय? कैसे भला, किस पर, किससे ?
अन्य, क्या उन्होंने जाप अनय नहीं किया?
तुझको रुला कर अजाना पथ है लिया ।

यशोधरा-
किन्तु कोई अनय करे तो हम क्यों करें?

राहुल-
और नहीं माथे पर क्या हम उसे धरें?

यशोधरा-
बेटा, इसे छोड़ और अपना क्या बस है?

राहुल-
न्याय तो सभी के लिए अम्ब, एक रस है ।

यशोधरा-
न्याय से वे पालन ही करने को बाध्य हैं?
लालन करें या नहीं?

राहुल-
फिर भी क्या साध्य हैं?
प्रेमशून्य पालन क्यों चाहें हम उनका ?

यशोधरा-
किन्तु क्या किसी पर है प्रेम कम उनका?

राहुल-
अम्ब, फिर तू क्यों यहाँ रह रह रोती है?

यशोधरा-
बेटा रे, प्रसव की-सी पीड़ा मुझे होती है।

राहुल-
इससे क्या होगा अम्ब?

यशोधरा-
बेटा, वृद्धि उनकी,
बहन बनेगी वही तेरी, सिद्धि उनकी।

8

राहुल-
अम्ब, दमयन्ती की कहानी मुझे भायी है,
और एक बात मेरे ध्यान में समायी है ।
तू भी एक हंस को बना के दूत भेज दे,
जो सन्देश देना हो उसी को तू सहेज दे ।

यशोधरा-
बेटा, भला वैसा हंस पा सकूँगी मैं कहां?

राहुल-
हंस न हो, मेरा धीर कीर तो पला यहाँ।

यशोधरा-
किन्तु नहीं सूझता है, उनसे मैं क्या कहूं?

राहुल-
पूछ यही बात---"और कब तक मैं सहूं?"

यशोधरा-
"सिद्धि मिलने तक" कहेंगे क्या न वे यही?

राहुल-
तो क्या सिद्धि मिलने का एक थल है वही? यशोधरा-
बेटा, यहाँ विघ्न, उन्हें हम सब घेरेंगे ।

राहुल-
किन्तु धीर हैं तो अम्ब, वे क्यों ध्यान फेरेंगे?
वन में तो इन्द्र भी प्रलोभन दिखायगा,
विश्वामित्र-तुल्य उन्हें क्या वह न भायगा?
मुझको तो उसमें भी लाभ दृष्टि आता है-
भगिनी शकुन्तला-सी, राहुल-सा भराता है!
मेनका तो वंचिका थी, तू फिर भी उनकी;
और रहो चाहे जहां, सिद्धि तो है धुन की।
तेरी गोद में ही अम्ब, मैंने सब पाया है,
ब्रह्म भी मिलेगा कल, आज मिली माया है ।

9

राहुल-
ऐसे गिरि, ऐसे वन, ऐसी नदी, ऐसे कूल,
ऐसा जल, ऐसे थल, ऐसे फल, ऐसे फूल,
ऐसे खग, ऐसे मृग, होंगे अम्ब, क्या वहाँ,
करते निवास होंगे एकाकी पिता जहाँ ?

यशोधरा-
बेटा, इस विश्व में नहीं है एकदेशता,
होती कहीं एक, कहीं दूसरी विशेषता ।
मधुर बनाता सब वस्तुयों को नाता है,
भाता वहीं उसको, जहाँ जो जन्म पाता है।

राहुल-
अम्ब, क्या पिता ने यहीं जन्म नहीं पाया है?
क्यों स्वदेश छोड़, परदेश उन्हें भाया है?

यशोधरा-
बेटा, घर छोड़ वे गये हैं अन्य दृष्टि से,
जोड़ लिया नाता है उन्होंने सब सृष्टि से।
हदय विशाल और उनका उदार है,
विश्व को बनाना चाहता जो परिवार है ।

राहुल-
लाभ इससे क्या अन्य, अपनों को छोड़ के,
बैठ जायँ दूसरों से वे सम्बन्ध जोड़ के?

यशोधरा-
अपनों को छोड़ के क्यों बैठ भला जायेंगे?
अपनों के जैसा ही सभी का प्रेम पायेंगे ।

राहुल-
मां, क्या सब ओर होगा अपना ही अपना?
तब तो उचित ही है तात का यों तपना ।

यशोधरा
1

निज बन्धन को सम्बन्ध सयत्न बनाऊँ ।
कह मुक्ति, भला, किस लिए तुझे मैं पाऊँ?

जाना चाहे यदि जन्म भले ही जावे,
आना चाहे तो स्वयं मृत्यु भी आवे,
पाना चाहे तो मुझे मुक्ति ही पावे,
मेरा तो सब कुछ वही, मुझे जो भावे।
मैं मिलन-शून्य में विरह घटा-सी छाऊँ!
कह मुक्ति, भला, किस लिए तुझे मैं पाऊँ?

माना, ये खिलते फूल सभी झड़ते हैं;
जाना, ये दाड़िम आम सभी सड़ते हैं ।
पर क्या यों ही ये कभी टूट पड़ते हैं?
या काँटे ही चिरकाल हमें गड़ते हैं ?
मैं विफल तभी, जब बीज-रहित हो जाऊँ ।
कह मुक्ति, भला, किस लिए तुझे मैं पाऊँ?

यदि हममें अपना नियम ओर शम-दम है,
तो लाख व्याधियाँ रहें स्वस्थता सम है ।
वह जरा एक विश्रान्ति, जहाँ संयम है;
नवजीवन-दाता मरण कहाँ निर्मम है ?
भव भावे मुझको और उसे मैं भाऊँ ।
कह मुक्ति, भला, किस लिए तुझे मैं पाऊँ?

आकर पूछेंगे जरा-मरण यदि हमसे ,
शैशव-यौवन की बात व्यंग्य विभ्रम से,
हे नाथ, बात भी मैं न करूंगी यम से,
देखूँगी अपनी परम्परा को क्रम से ।
भावी पीढ़ी में आत्मरुप अपनाऊँ ।
कह मुक्ति, भला, किस लिए तुझे मैं पाऊँ?

ये चन्द्र -सूर्य निर्वाण नहीं पाते हैं;
ओझल हो होकर हमें दृष्टि आते हैं ।
झोंके समीर के झूम झूम जाते हैं;
जा जा कर नीरद नया नीर लाते हैं ।
तो क्यों जा जा कर लौट न मैं भी आऊं?
कह मुक्ति, भला, किस लिए तुझे मैं पाऊँ?

रस एक मधुर ही नहीं, अनेक विदित हैं,
कुछ स्वादु हेतु कुछ पथ्य हेतु समुचित हैं ।
भोगें इन्द्रिय, जो भोग विधान-विहित हैं;
अपने को जीता जहां, वहीं सब जित हैं।
निज कर्मों की ही कुशल सदैव मनाऊँ।
कह मुक्ति, भला, किस लिए तुझे मैं पाऊँ?

होता सुख का क्या मूल्य, जो न दुख रहता ?
प्रिय-हृदय सदय हो तपस्ताप क्यों सहता?
मेरे नयनों से नीर न यदि यह बहता,
तो शुष्क प्रेम की बात कौन फिर कहता।
रह दु:ख! प्रेम परमार्थ दया मैं लाऊँ ।
कह मुक्ति, भला, किस लिए तुझे मैं पाऊँ?

आयो प्रिय! भव में भाव-विभाव भरें हम,
डूबेंगे नहीं कदापि, तरें न तरें हम ।
कैवल्य-काम भी काम, स्वधर्म धरें हम,
संसार-हेतु शत बार सहर्ष मरें हम ।
तुम, सुनो क्षेम से, प्रेम-गीत मैं गाऊँ ।
कह मुक्ति, भला, किस लिए तुझे मैं पाऊँ?

2

मेरा मरण तुमको खला ।
किन्तु मैं लेकर करूं क्या विरह-जीवन जला?
लौट आओ प्रिय, तुम्हारा पुण्य फूला-फला,
भाग जो जिसका उसे दो जाय क्यों वह छला?
देख लूँ, जब तक जगूँ भव-नाट्य की नव कला,
और फिर सोऊँ तुम्हारी बाँह पर धर गला।
सब भला उसका भुवन में, अन्त जिसका भला;
जीव पहुँचेगा वहीं तो, वह जहाँ से चला ।

3

मरने से बढ़कर यह जीना ।
अप्रिय आशंकाएँ करना
भय खाना हा! आँसु पीना!
फिर भी बता, करे क्या आला,
यशोधरा है अवश-अधीना ।
कहाँ जाय यह दीना-हीना,
उन चरणों में ही चिर लीना।

4

ओहो, कैसा था वह सपना!
देखा है रजनी में सजनी,
मैंने उनका तपना ।

दया भरी, पर शोणित सूखा,
वर्ण झांवरा होकर रूखा,
पैठा पेट पीठ में भूखा,
आया मुझे विलपना!
ओहो, कैसा था वह सपना!

बहता वहाँ पास ही जल था,
किन्तु कहां जाने का बल था ?
मन-सा तन भी पड़ा अचल था,
भार आप ही अपना!
ओहो, कैसा था वह सपना!

सहसा मां भगिनी बन आई,
स्वर्गवासिनी वे मनभाई ।
सुरसरि-जल अमृतोदन लाई,
फिर भी मुझे कलपना ।
ओहो, कैसा था वह सपना!

5

क्यों फड़क उठे ये वाम अंग?
ज्यों उड़ने के पहले विहंग!

किस शुभ घटना की रटना-सी
लगा रहा है अन्तरंग है ?

क्यों यह प्रकृति प्रसन्न हो उठी ?
नहीं कहीं कुछ राग रंग ।

उठती है अन्तर में कैसी
एक मिलन जैसी उमंग,

लहराती है रोम रोम में
अहा! अमृत की-सी तरंग!

पाना दुर्लभ नहीं, कठिन है
रख पाने का ही प्रसंग,

मिला मुझे क्या नहीं स्वप्न में
किन्तु हुआ वह स्वप्न भंग!

वंचक विधि ने लिया न हो सखि,
अब यह कोयी और ढंग ?

पर मेरा प्रत्यय तो फिर भी
है मेरे ही प्राण-संग ।

6

गये हो तो यह ज्ञात रहे,
स्वामी! व्यर्थ न दिव्य देह वह
तप-वर्षा-हिम-वात सहे ।

देखो, यह उत्तुंग हिमालय,
खड़ा, अचल योगी-सा निर्भय ।
एक ओर हो यह विस्मयमय,
एक ओर वह गात रहे ।
गये हो तो यह ज्ञात रहे ।

बहे उधर गंगा की धारा,
इधर तुम्हारी गिरा अपारा ।
प्लावित कर दे अग जग सारा,
हाँ, युग युग अवदात रहे ।
गये हो तो यह ज्ञात रहे ।

मुझे मिलोगे भला कहीं तो,
वहाँ सही, यदि यहाँ नहीं तो
जहाँ सफलता, मुक्ति वहीं तो,
यशोधरा की बात रहे ।
गये हो तो यह ज्ञात रहे ।

7

ओ यतियों-व्रतियों के आश्रय,
अभय हिमालय! भूधर-भूप!
हम सतियों की ठण्डी ठण्डी
आहों के ओ उच्चस्तूप!
तू जितना ऊँचा, उतना ही
गहरा है यह जीवन-कूप,
किन्तु हमारे पानी का भी
होगा तू ही साक्षी-रूप ।

8

चाहे तुम सम्बन्ध न मानो,
स्वामी! किन्तु न टूटेंगे ये,
तुम कितना ही तानो।

पहले हो तुम यशोधरा के,
पीछे होगे किसी परा के,
मिथ्या भय हैं जन्म-जरा के
इन्हें न उनमें सानो,
चाहे तुम सम्बन्ध न मानो ।

देखूँ एकाकी क्या लोगे ?
गोपा भी लेगी, तुम दोगे।
मेरे हो, तो मेरे होगे,
भूले हो, पहचानो ।
चाहे तुम सम्बन्ध न मानो ।

बधू सदा मैं अपने वर की,
पर क्या पूर्ति वासना भर की?
सावधान! हां, निज कुलधर की
जननी मुझको जानो।
चाहे तुम सम्बन्ध न मानो ।

9

रोहिणि, हाय! यह वह तीर,
बैठते आकर जहाँ वे धर्मधन, ध्रुवधीर ।

मैं लिये रहती विविध पकवान भोजन, खीर,
वे चुगाते मीन, मृग, खग, हंस, केकी, कीर ।

पालता है तात का व्रत आज राहुल वीर,
लो इसे जब तक न लौटें वे लतित-गंभीर ।

कुटिल गति भी गण्य तेरी, धन्य निर्मल नीर;
वार दूं मैं इस झलक पर मंजु मुक्ता-हीर ।

बह चली लोकार्थ ही तू पहन पावन चीर,
रह गया दो बूंद दे कर यह अशक्त शरीर!

राहुल-जननी
1

मुझे नदीश मान दे,
नदी, प्रदीप-दान ले ।

तुझे और क्या दूँ? थोड़ा भी आज बहुत तू मान ले,
तम में विषम मार्ग का इसको तुच्छ सहायक जान ले ।

मिलें कहीं मेरे प्रभु पथ में, तू उनका सन्धान ले,
तुझे कठिन क्या है यह, यदि तू अपने मन में ठान ले ।

मेरे लिए तनिक चक्कर खा, नव यात्रा की तान ले,
घूम घूम कर, झूम झूम कर, थल थल का रस-पान ले ।

कह देना इतना ही उनसे जब उनको पहचान ले-
"धाय तुम्हारे सुत की गोपा बैठी है बस ध्यान ले ।"

2

"जल के जीव हैं माँ, मीन;
नयन तेरे मीन-से हैं, सजल भी क्यों दीन,

पद्मिनी-सी मधुर मृदु तू किन्तु है क्यों छीन?
मन भरा है, किन्तु तन क्यों हो रहा रस-हीन ?

अम्ब, तेरा स्तन्य पीकर हो गया मैं पीन,
दुग्ध-तन मुझमें, पिता में मुग्ध-मन है लीन?

हाय! क्या तू त्याग पर ही है यहाँ आसीन?
धिक् मुझे, कह क्या करूं मैं? हूं सदैव अधीन ।"

"लाल, मेरे बाल, साले सुध मुझे प्राचीन,
भय नहीं, साहित्य तेरा प्राप्त नित्य नवीन ।"

3

"मात, मैं भी तो सुनूँ, कैसी है वह मुक्ति ?"
"पुत्र, पिता से पूछना और उन्हीं से युक्ति ।"

"तू केवल कंथक कसवा दे, अम्ब, अभी चढ़ धाऊँ,
मुक्ति बड़ी या मेरी माता, पृष्ठ पिता से आऊँ ।

न रो, कहीं भी क्यों न रहें वे, ठहर, उन्हे धर लाऊँ,
नहीं चाहता मैं वह कुछ भी, जिसमें तुझे न पाऊँ ।

कहाँ मिलेगी मुक्ति, बता तो, उसे जीतने जाऊँ,
बाँध न डालूं इन चरणों में, तो राहुल न कहाऊँ ।"

"बेटा, बेटा, नहीं जानती, मैं रोऊँ या गाऊँ,
आ, मेरे कन्धों पर चढ़ जा, तुझको भी न गंवाऊँ ।"

4

"अम्ब पिता के ध्यान में बिसरा तेरा ज्ञान;
भूल गयी तू आपको बस, उनको पहचान ।

अपने को खोकर उन्हें खोज रही तू आज,
और आत्मरत हैं उधर वे तेरे अधिराज !

कहती है भगवान तू उनको बारंबार,
किन्तु उन्हे भगवान का आया कभी विचार ?

सुध करके सुध खो रही तू उनकी छवि आँक;
वे तेरी इस मूर्ति को देखेंगे कब झाँक ?

गाती है मेरे लिए, रोती उनके अर्थ;
हम दोनों के बीच तू पागल-सी असमर्थ !"

"रोना-गाना बस यही जीवन के दो अंग;
एक संग मैं ले रही दोनों का रस-रंग !"

5

सती शिवा-सी तपस्विनी माँ, देख दिवा यह आ रही,
भर गभीर निज शून्य स्वयं ही उसको तुझसी था रही!
सौध-शिखर पर स्वर्ण-वर्ण की आतप आभा भा रही,
ज्यों तेरे अंचल की छाया मेरे सिर पर छा रही।
ज्यों तेरी वरुनी यह आँसू, किरन तुहिन-कण पा रही,
शुचिस्नेह का केन्द्र-बिन्दु-सा आत्मतेज से ता रही!
शीतल-मन्द-पवन वन वन से सुरभि निरन्तर ला रही,
ज्यों अनुभूति अदृश्य तात की मुझमें-तुझमें धा रही!
रवि पर नलिनी की, पितृ-छवि पर मौन दृष्टि तब जा रही,
वहाँ अंक में मधुप, यहाँ मैं, गिरा एक गुन गा रही!

संधान

(एकांत में यशोधरा)
(गान)

आओ हो वनवासी!
अब गृह-भार नहीं सह सकती
देव, तुम्हारी दासी ।

राहुल पल कर जैसे तैसे,
करने लगा प्रश्न कुछ वैसे,
मैं अबोध, उत्तर दूं कैसे?
वह मेरा विश्वासी,
आयो हो वनवासी!

उसे बताऊँ क्या, तुम आओ,
मुक्ति-युक्ति मुझसे सुन जाओ-
जन्म-मूल मातृत्व मिटाओ,
मिटे मरण-चौरासी ।
आयो हो वनवासी!

सहे आज यह मान तितिक्षा,
क्षमा करो मेरी यह शिक्षा ।
हमीं गृहस्थ जनों की भिक्षा,
पालेगी सन्यासी!
आयो हो वनवासी!

मुझको सोती छोड़ गये हो,
पीठ फेर मुंह मोड़ गये हो,
तुम्हीं जोड़कर तोड़ गये हो,
साधु विराग-विलासी!
आयो हो वनवासी!

जल में शतदल तुल्य सरसते
तुम घर रहते, हम न तरसते,
देखो, दो दो मेघ बरसते,
मैं प्यासी की प्यासी!
आयो हो वनवासी!
(गौतमि का प्रवेश)

गौतमि-
मिल गया, मिल गया, मिल गया सहसा
उनका संधान आज, जिनके बिना यहाँ
खान-पान नीरस था, सोना बुरा स्वप्न था,
रोना ही रहा था हाय! जीवन मरण था ।
तुम जड़ मूर्ति-सी भले ही स्तब्ध हो जाओ,
किन्तु नयी चेतना से अंग भरे पूरे हैं!
मैंने आज देखे अहा! अश्रु ऐसे होते हैं।
रूद्ध भी तुम्हारी गिरा जगती में गूँजी है,
देखो, यह सारी सृष्टि पुलकित हो गयी!
जै जै अत्रभवति! हमारे भाग्य जागे हैं ।

यशोधरा-
मेरे भाग्य? गौतमि, वे संसृति के साथ हैं।
आलि, उन्हें सिद्धि तो मिली है? जिसके लिए
राज-ॠद्धि-वृद्धि के सुखों से मुँह मोड़ के,
नाते जितने हैं जगती के उन्हें तोड़ के,
इतना परिश्रम उन्होंने किया, साथ ही
सब कुछ मैंने लिया अनुगति छोड़ के!

गौतमी-
सिद्धियां तो उनके पदों पर प्रणत हैं,
स्वामी आज आनन्दाग्रगामी शुद्ध बुद्ध हैं;
तप तथा त्याग तथागत के सफल हैं ।

यशोधरा-
गोपा गर्विणी है आज, आली, मुझे भेट ले,
आँसू दे रही हूं, कह और क्या अदेय है?

गौतमी-
मुक्ति भी सुलभ आज, कोई अब माँगे क्या?

यशोधरा-
"लाभ से ही लोभ", यह कैसी खरी बात है,
आली, कुछ और सुनने की चाह होती है ।

गौतमी-
कुछ व्यवसायी यहाँ आये हैं मगध से ।
वे ही यह वृत्त लाये, लोचनों के ही नहीं,
श्रवणों के लाभ भी उन्होंने वहाँ पाये हैं।

यशोधरा-
आलि, भला, ऐसा लाभ उनको यहाँ कहाँ?
किन्तु हम अपनी कृतज्ञता जनायँगे ।
पहले मैं सुन लूँ, सुना तू, जो सुनाती थी।

गौतमी-
वर्षों तक प्रभु ने तपस्या कर अन्त में
सारे विघ्न पार किये, मार को हरा दिया ।
अप्सराएँ उनको भला क्या भुला सकतीं?
जिनकी यशोधरा-सी साध्वी यहाँ बैठी है ।
और, उन्हें कौन भय व्याप सकता था, जो,
ऐसा घर छोड़ घोर निशि में चले गये ?

यशोधरा-
यदि यह सत्य है तो मैं भी कृतकृत्य हूं,
आज सुख से भी निज दु:ख मुझे प्यारा है ।
वार वार बीच में जो बोल उठती हूँ मैं,
उसको क्षमा कर तू आली, सांस लेती हूँ ;
हर्ष की अधिकता भी भार बन जाती है !
आगे कह उनसे भी प्यारा वृत्त उनका ।

गौतमी
अचल समाधि रही, बाधाएँ बिला गईं ,
देवि, वह दिव्य दृष्टि पा कर ही वे उठे,
जिसमें समस्त लोक और तीनों काल भी
दर्पण में जैसे, उन्हें दीख पड़े; सृष्टि के
सारे भेद खुल गये, चेतन का, जड़ का,
कोई भी प्रकार-व्यवहार नहीं जा सका ।
दु:ख का निदान और उसकी चिकित्सा भी
ज्ञात हुई । जन्म तथा मृत्यु के रहस्य को
जान कर देव स्वयं जीवन्मुक्त हो गये ।
और, धर्मचक्र के प्रवर्त्तन के साथ हो,
दूसरों को भी मुक्ति-मार्ग में लगा रहे।

यशोधरा
जय हो, सदैव आर्यपुत्र की विजय हो:
उनके करुण - धर्म - संघ के शरण में
गोपा के लिए भी कहीं ठौर होगी या नहीं ।
आली, उनकी जो दृष्टि सृष्टि-भेदिनी है, क्या
इस चिर किंकरी के ऊपर भी आयेगी?
अब तक भी मैं यहां वंचिता ही क्यों रही?

गौतमी
किन्तु अब शीघ्र वह अवसर आवेगा,
जब तुम उनके समीप बैठ उनसे,
विस्मय-विनोद से सुनोगी, जन्म जन्म की
अपनी कथाएँ, और साथ साथ उनकी !

यशोधरा
सारी घटनाएँ वही जानें, किन्तु इतना
मैं भी भली भाँति जानती हूँ, जन्म जन्म में
आली, मैं उन्हीं की रही, वे भी जन्म जन्म में
मेरे रहे, तब तो मैं उनकी, वे मेरे हैं ।
अब इतना ही मुझे पूछना है उनसे-
जो कुछ उन्होंने उस जन्म में मुझे दिया,
उसको मैं अब भी चुका सकी हूँ या नहीं?
(दौड़ते हुए राहुल का प्रवेश)

राहुल-
माँ, माँ, पिता प्राप्त हुए, देख तू ये दादाजी-
दादाजी-समेत हर्ष-विह्वल-से आ रहे!
अब तो न रोयगी तू? अब भी तू रोती है!

यशोधरा-
बेटा, और क्या करूं?

राहुल-
बता दूं? चल शीघ्र ही
हम सब आगे बढ़ आप उन्हें लायेंगे ।
(नेपथ्य में)

बेटी! बहू!

यशोधरा-
व्यग्र न हो राहुल! वे आ गये!

राहुल-
मैं तो चला, अम्ब सब वस्तुएँ सहेज लूँ,
जोड़ता रहा जो उन्हें देने को, दिखाने को ।
(प्रस्थान)

गौतमी-
मैं भी चलूँ, उत्सव के आयोजन में लगूं ।
(प्रस्थान)

(शुद्धोदन गौर महाप्रजावती का प्रवेश)

यशोधरा-
तात, अम्ब, गोपा चरणों में नत होती है ।

दोनों-
अक्षय सुहाग तेरा! व्रत भी सफल है ।

शुद्धोदन-
सावित्रि-समान तेरे पुण्य से ही उसको सिद्धि मिली ।

महाप्रजावती-
तेरा यह विषम वियोग भी धन्य हुआ!

शुद्धोदन-
उसने अपूर्व योग पाया है ।
गोपा और गौतम का नाम भी जगत में
गौरी और शंकर-सा गण्य तथा गेय हो!
अब क्यों विलम्ब किया जाय बेटी, शीघ्र तू
प्रस्तुत हो । यह रहा मगध, समीप ही,
उसके लिए तो हम जगती के पार भी
जाने को उपस्थित हैं और उसे पाने को
जीवन भी देने को समुधत हैं-सर्वदा!

यशोधरा-
किन्तु तात! उनका निदेश बिना पाये मैं,
यह घर छोड़ कहां और कैसे जाऊँगी?

महाप्रजावती-
हाय बहू अब भी निदेश की अपेक्षा है?

शुद्धोदन-
बेटी, इतना भी अधिकार क्या हमें नहीं?

यशोधरा-
मुझको कहाँ है? मैं तुम्हारी नहीं, अपनी
बात कहती हूँ तात! गोपा हतभागिनी!

महाप्रजावती-
गोपे, हम अबलाजनों के लिए इतना
तेज-नहीं, दर्प-नहीं, साहस क्या ठीक है?
स्वामी के समीप हमेँ जाने से स्वयं वही
रोक नहीं सकते हैं, स्वत्व आप अपना
त्यागकर बोल, भला तू क्या पायगी बहु?

यशोधरा-
उनका अभीष्ट मात्र और कुछ भी नहीं ।
हाय अम्ब! आप मुझे छोड़कर वे गये,
जब उन्हें इष्ट होगा आप आके अथवा
मुझको बुलाके, चरणों में स्थान देंगे वे।

महाप्रजावती-
बाधा कौन-सी है तुझे आज वहीं जाने में ?

यशोधरा-
बाधा तो यही है, मुझे बाधा नहीं कोई भी!
विघ्न भी यही है, जहां जाने से जगत में
कोई मुझे रोक नहीं सकता है-धर्म से,
फिर भी जहाँ मैं, आप इच्छा रहते हुए,
जाने नहीं पाती! यदि पाती तो कभी यहाँ
बैठी रहती मैं? छान डालती धरित्री को।
सिंहनी-सी काननों में, योगिनी-सी शैलों में,
शफरी-सी जल में, विहंगनी-सी व्योम में
जाती तभी और उन्हें खोज कर लाती मैं!
मेरा सुधा-सिन्धु मेरे सामने ही आज तो
लहरा रहा है, किन्तु पार पर मैं पड़ी
प्यासी मरती हूँ; हाय! इतना अभाग्य भी
भव में किसी का हुआ ? कोई कहीं ज्ञाता हो,
तो मुझे बता दे हा! बता दे हा! बता दे हा!
(मूर्च्छा)

महाप्रजावती-
मूर्च्छित है हाय! मेरी मानिनी यशोधरा।
(उपचार)

शुद्धोदन-
बेटी, उठ, मैं भी तुझे छोड़ नहीं जाऊँगा ।
तेरे अश्रु लेकर ही मुक्ति-मुक्ता छोड़ूंगा ।
तेरे अर्थ ही तो मुझे उसकी अपेक्षा है।
गोपा-बिना गौतम भी ग्राह्य नहीं मुझको!
जायो, अरे, कोई उस निर्मम से यों कहो-
झूठे सब नाते सही, तू तो जीव मात्र का,
जीव-दया-भाव से ही हमको उबार जा!

यशोधरा
1

क्या देकर मैं तुमको लूँगी?
देते हो तुम मुक्ति जगत को,
प्रभो; तुम्हें मैं बन्धन दूँगी!

बांध बद्ध ही तुम्हें न लाते,
तो क्या तुम इस भू पर आते?
निर्गुण के गुण गाते गाते,
हुई गभीर गिरा भी गूँगी,
क्या देकर मैं तुमको लूँगी?

पर मैं स्वागत-गान करूँगी,
पाद-पद्म-मधु-पान करूँगी,
इतना ही अभिमान करुँगी-
तुम होगे तो मैं भी हूँगी!
क्या देकर मैं तुमको लूँगी?

2

प्रिय, क्या भेंट धरूंगी मैं?
यह नश्वर तनु लेकर कैसे
स्वागत सिद्ध करूँगी मैं ?

नश्वर तनु पर धूल! किन्तु हाँ, उन्ही पदों की धूल,
कर्म-बीज जो रहें मूल में, उनके सब फल-फूल
अर्पण कर उबरूंगी मैं ।
प्रिय, क्या भेंट धरूंगी मैं?

जीवन्मुक्त भाव से तुमने किया अमर-पद-लाभ,
पर उस अमरमूर्ति के आगे ओ मेरे अमिताभ!
सौ सौ बार मरूंगी मैं!
प्रिय, क्या भेंट धरूंगी मैं?

3

तुच्छ न समझो मुझको नाथ,
अमृत तुम्हारी अंजलि में तो भाजन मेरे हाथ ।

तुल्य दृष्टि यदि तुमने पाई,
तो हममें ही सृष्टि समाई!
स्वयँ स्वजनता में वह आई,
देकर हम स्वजनों का साथ ।
तुच्छ न समझो मुझको नाथ!

ममता को लेकर ही समता,
ममता में है मेरी क्षमता,
फिर क्यों अब यह विरह विषमता?
क्यों अपेय इस पथ का पाथ?
तुच्छ न समझो मुझको नाथ!

4

देकर क्या पाऊँगी तुम्हें मैं, कहो, मेरे देव,
लेकर क्या सम्मुख तुम्हारे अहो! आऊँगी?
मानस में रस है परन्तु उसमें है क्षार,
बस में यही है बस आँखें भर लाऊँगी!
धव, तुम उद्भव-समान यदि आये यहाँ,
एक नवता-सी मैं उसी में फब जाऊँगी;
मेरे प्रतिपाल, तुम प्रलय-समान आये,
तो भी मैं तुम्हीं में, हाल, बेला-सी बिलाऊंगी!

5

लूंगी क्या तुमको रोकर ही ?
मेरे नाथ, रहे तुम नर से नारायण हो कर ही !
उस समाधि-बल की बलिहारी,
अच्छी मैं नारी की नारी।
पूजा तो कर सकूँ तुम्हारी,
धुलूं चरण धोकर ही ।
लूंगी क्या तुमको रोकर ही ?

6

फिर भी नाथ न आये?
लेने गये हाय! जो उनको, वे भी लौट न पाये।

रहे न हम सब आज कहीं के,
वहाँ गये सो हुए वहीं के!
माया, तेरे भाव यहीं के,
वहाँ उन्हें क्यों भाये?
फिर भी नाथ न आये?

निज हैं उन्हें अन्य जन सारे,
भव पर विभव उन्होंने वारे।
पर हा! उलटे भाग्य हमारे,
निज भी हुए पराये ।
फिर भी नाथ न आये?

इतने पर भी यहाँ जियूँ मैं,
अमृत पियें वे, अश्रु पियूँ मैं!
अपनी कन्था आप सियूँ मैं,
अपनापन अपनाये ।
फिर भी नाथ न आये?

7

अब भी समय नहीं आया?
कब तक करे प्रतीक्षा काया, जिये कहाँ तक जाया ?

होती है मुझको यह शंका, क्षमा करो हे नाथ,
समय तुम्हारे साथ नहीं क्या, तुम्हीं समय के साथ?
कहाँ योग मनभाया?
अब भी समय नहीं आया?

तुम स्वच्छन्द, यहाँ आने में होगा क्या यति भंग ?
अपना यह प्रबन्ध भी देखो-अग्नि-सलिल का संग ?
मैंने तो रस पाया!
अब भी समय नहीं आया?

8

आली, पुरवाई तो आई, पर वह घटा न छाई,
खोल चंचु-पट चातक, तूने ग्रीवा वृथा उठायी ।
उल्का गिरा शिखण्ड, शिखी ने गति न गिरा कुछ पाई,
स्वयं प्रकृति ही विकृति बने तब किसका वश है माई!
किन्तु प्रकृति के पीछे भी तो पुरुष एक है न्यायी,
आशा रक्खो, आशा रक्खो, आशा रक्खो भाई!

9

सोने का संसार मिला मिट्टी में मेरा,
इसमें भी भगवान, भेद होगा कुछ तेरा ।
देखूँ मैं किस भाँति, आज छा रहा अँधेरा,
फिर भी स्थिर है जीव किसी प्रत्यय का प्रेरा ।
तेरी करुणा का एक कण
बरस पड़े अब भी कहीं,
तो ऐसा फल है कौन, जो
मिट्टी में फलता नहीं ?

राहुल-जननी

यशोधरा-
(गान)

भले ही मार्ग दिखायो लोक को,
गृह-मार्ग न भूलो हाय!
तजो हे प्रियतम! उस आलोक को,
जो पर ही पर दरसाय ।
(राहुल का प्रवेश)

राहुल-
अम्ब, यह दिन भी प्रतीक्षा में चला गया,
कोई समाचार नहीं आया उनका नया ।
कौन जानें, जायगा न यों ही दिन दूसरा,
आई तुझ-सी ही यह सन्ध्या धूलि-धूसरा!
देख, वे दो तारे शून्य नभ में हैं झलके!
गैरिकदुकूलिनी, ज्यों तेरे अश्रु छलके!

यशोधरा-
किन्तु बेटा, तुझ-सा सुधांशु मेरी गोद में;
लाल, निज काल काट लूँगी मैं विनोद में ।

राहुल-
जननि, न जाने, मन कैसा हुआ जाता है ।
शून्य उदासीन भाव उमड़ा-सा आता है!
तात के समीप चला जाऊँ बने जैसे मैं;
किन्तु तुझे छोड़ ऐसे जाऊँ भला कैसे मैं?

यशोधरा
बेटा मुझे छोड़ गये तेरे तात कब के,
तू भी छोड़ जायगा क्या दु:खिनी को अब के ?
तेरे सुख में ही सदा मेरा परितोष है,
तेरे नहीं, मेरे लिए मेरा भाग्य-दोष है ।
किन्तु जो जो लेने गये, वे रम गये वहीं,
एक भी तो लौट कर आया है यहाँ नहीं ।

राहुल
मैं हूँ एक, लाकर उन्हें भी लौट आऊँ जो,
किन्तु कैसे जाऊँ तुझे छोड़ जाने पाऊँ जो !
मेरा बयाह करदे माँ ! मेरी बहु आयगी,
पाकर उसे तू कुछ तोष तो भी पायगी।

यशोधरा
और मेरी चिन्ता छोड़ जायगा तू चाव से ?
हाय ! मैं हँसूं या आज रोऊं इस भाव से ?
मुझ-सी न रोयगी क्या तेरे बिना वह भी !

राहुल
ओहो ! एक नूतन विपत्ति होगी यह भी!
सचमुच ! ध्यान ही न आया मुझे इसका !
झेल सके तुम-सा जो, ऐसा प्राण किसका ?
बालिका बराकी वह कैसे सह पायगी ?
जल हिमबालुका - सी पल में बिलायगी !
मुझको प्रतीति हुई आज इस बात की,
मैं वर बनूँ तो मुझे हत्या बधू-घात की ।

यशोधरा
पाप शान्त ! पाप शान्त ! बेटा यह क्या किया ?
एक नया सोच और तूने मुझको दिया ।

राहुल
माँ, माँ, क्षमा करदे माँ; दु:ख जो हुआ तुझे ;
तेरी दशा सोच यही कहना पड़ा मुझे ।
मैं क्या करूं ? कोई युक्ति मेरी नहीं चलती ;
तेरी हठशीलता ही अन्त में है खलती ।
खो दिया सुयोग स्वयं, चुका हाय अम्ब, तू;
पाकर भी पा न सकी निज अवलम्ब तू ।

यशोधरा
राहुल, सुयोग का भी एक योग होता है ;
भोगना ही पड़ता है, जो जो भोग होता है !

राहुल
खेद नहीं अपने किये पर क्या अब भी ?

यशोधरा
खेद क्यों करूंगी वत्स ! दु:ख मुझे तब भी ।

राहुल
आप ही लिया है यह दु:ख तूने, आप ही !
अच्छा लगता है माँ, तुझे क्यों घोर ताप ही ?

यशोधरा
घोर तपस्ताप तेरे तात ने है कयों सहा ?
तू भी अनुशीलन का श्रम क्यों उठा रहा ?

राहुल
तात को मिली है सिद्धि, पा रहा हूँ बुद्धि मैं ।

यशोधरा
लाभ करती हूँ इसी भाँति आत्मशुद्धि मैं ।
पाप नहीं, किन्तु पुण्यताप मेरा संगी है,
मरण-प्रसंग में यही तो एक अंगी है !
त्राण मिलता है मुझे तात ! निज पीड़ा में,
प्राण मिलता है तुझे जैसे मल्ल-क्रीड़ा में ।
दु:ख से भी जाऊँ ? मुझे उससे है ममता,
बढ़ती है जिससे सहानुभूति-समता ।

राहुल
कह फिर दु:ख से क्यों रह रह रोती है ?

यशोधरा
और क्या कहूँ मैं, मुझे इच्छा यही होती है !

राहुल
अच्छी नहीं, अम्ब, यह इच्छा की अधीनता,
और परिणाम जिसका हो हीन-दीनता ।
तू ही बता, धर्म क्या नहीं है यही जन का-
शासित न होकर मां, शासक हो मन का ।

यशोधरा
यह जन शासक न होता मन का यहाँ
तात ! तो चला न जाता, धन उसका जहाँ?
भार रखती हूँ, उस शासन का जब मैं,
हलकी न होऊँ नेंक रो कर भी तब मैं?
चपल तुरंग को कशा ही नहीं मारते,
हाथ फेर अन्त में उसे हैं पुचकारते ।
रखती हूँ मन को दबाकर ही सर्वदा,
सांस भी न लेने दूँ उसे क्या मैं यदा कदा?
कंठ जब रुँधता है, तब कुछ रोती हूँ,
होंगे गत जन्म के ही मैल, उन्हें धोती हूँ।
शोक के समान हम हर्ष में भी रोते हैं,
अश्रुतीर्थ में ही सुख-दु:ख एक होते हैं !
रोती हूँ, परन्तु क्या किसी का कुछ लेती हूँ?
नीरस रसा न हो, मैं नीर ही तो देती हूँ ।

राहुल
भूलती है मुझको भी तू जिनके ध्यान में,
पाकर उन्हीं को छोड़ बैठी किस भान में?
लाख लाख भांति मुझे बहुधा मनाती है,
और निज देव पर दर्प तू जनाती है!
कैसी यह आन-बान, भीतर है मरती,
बाहर से फिर भी तू मिथ्या मान करती!

यशोधरा
तुझको मनाना पड़ता है, तू अजान है;
प्रभु के निकट ही तो मूल्य पाता मान है।
रुष्ट न हो, मैं नहीं हूं वत्स, मिथ्याचारिणी,
दीना नहीं, दु:खिनी हूं, तो भी धर्मधारिणी ।

राहुल
कैसा धर्म ? तात ने क्या रोक दिया आने से ?--
नाहीं कर बैठी स्वयं जो तू वहाँ जाने से ?

यशोधरा
राहुल, न पूछ यह बात बेटा, मुझसे,
ठहर, कहेगी कभी तेरी बहु तुझसे ।

राहुल
आह ! फिर मेरी बहु ? चाहे रहे तुतली,
किन्तु तेरे ज्ञान की वही है एक पुतली !
मेरे लिए अम्ब, बन बैठी तू पहेली है,
झूठी कल्पना ही आज जिसकी सहेली है !

यशोधरा
कल्पना भी सत्य हो, कृतित्व तभी अपना,
सच्चा करने के लिए बेटा, देख सपना !

राहुल
मैं तो यही देखता हूँ- तात नहीं आये हैं ।

यशोधरा
आयेंगे वे, आशा हम उनकी लगाये हैं।

(नेपथ्य में)
आ रहे हैं, आ रहे हैं, धन्य भाग्य सबके !

यशोधरा
एवमस्तु, एवमस्तु, निश्चय ही अब के-

राहुल
माँ, क्या पिता आ रहे हैं ?

यशोधरा
बेटा, यह सुन ले,
जो जो तुझे चाहिए, उसे आ, आज चुन ले ।

यशोधरा
1

रे मन, आज परीक्षा तेरी ।
विनती करती हूँ मैं तुझसे,
बात न बिगड़े मेरी।

अब तक जो तेरा निग्रह था,
बस अभाव के कारण वह था ।
लोभ न था, जब लाभ न यह था;
सुन अब स्वागत-भेरी!
रे मन, आज परीक्षा तेरी ।

दो पग आगे ही वह धन है,
अवलम्बित जिस पर जीवन है ।
पर क्या पथ पाता यह जन है?
मैं हूँ और अँधेरी।
रे मन, आज परीक्षा तेरी ।

यदि वे चल आये हैं इतना,
तो दो पद उनको है कितना?
क्या भारी वह, मुझको जितना?
पीठ उन्होंने फेरी ।
रे मन, आज परीक्षा तेरी ।

सब अपना सौभाग्य मनावें,
दरस-परस, नि:श्रेयस पावें ।
उद्धारक चाहे तो जावें,
यहीं रहे यह चेरी।
रे मन, आज परीक्षा तेरी ।

2

शेष की पूर्ति यही क्या आज ?
भिक्षुक बन कर घर लौटे हैं कपिलनगर-नरराज !
राजभोग से तृप्त न हो कर मानों वे इस वार
हाथ पसार रहे हैं जा कर जिसके-तिसके द्वार !
छोड़ कर निज कुल और समाज ।
शेष की पूर्ति यही क्या आज ?

हाय नाथ ! इतने भूखे थे, धीरज रहा न और ?
पर कब की प्यासी यह दासी बैठी है इस ठौर-
तुम्हारी-अपनी लेकर लाज ।
शेष की पूर्ति यही क्या आज ?

स्वयं दान कर सकते हैं जो माँगें वे यों भीख !
राहुल को देने आये हो आज कौन सी सीख ?
गिरे गोपा के ऊपर गाज !
शेष की पूर्ति यही क्या आज ?

3

प्रभु उस अजिर में आ गये, तुम कक्ष में अब भी यहाँ ?
हे देवि, देह धरे हुए अपवर्ग उतरा है वहाँ ।
सखि, किन्तु इस हतभागिनी को ठौर हाय ! वहाँ कहाँ ?
गोपा वहीं है, छोड़ कर उसको गये थे वे जहाँ ।

बुद्धदेव
1

अम्ब, आ रहे हैं ये तात;
शान्त हों अब सारे उत्पात ।

ले, अब तो रह गई 'गर्विणी-गोपा? की वह लाज!
जितना रोना हो तू रो ले इनके आगे आज ।
ओस तू, तो ये स्वयं प्रभात!
शान्त हों अब सारे उत्पात ।

माँ, तेरे अंचल-जैसी ही इनकी छाया धन्य,
पर इनका आलोक देख तो, कैसा अतुल अनन्य!
कौन आभा इतनी अवदात?
शान्त हों अब सारे उत्पात ।

तात । तुम्हारा तप मुखरित है, मां का नीरव मात्र,
पर अथाह पानी रखता है यह सूखा-सा गात्र ।
नहीं क्या यह विस्मय की बात?
शान्त हों अब सारे उत्पात ।

तुमको सिद्धि मिली है तप से, हुआ इसे क्या लाभ?
"वत्स! इष्ट क्या और इसे अब, आया जब अमिताभ?
प्रथम ही पाया तुझ-सा जात!
शान्त हों अब सारे उत्पात ।"

2

मानिनि, मान तजो लो, रही तुम्हारी बान!
दानिनि, आया स्वयं द्वार पर यह तव-तत्रभवान!

किसकी भिक्षा न लूँ, कहो मैं? मुझको सभी समान,
अपनाने के योग्य वही तो जो हैं आर्त्त-अजान ।

राजभवन के भोगों में था दुर्लभ वह जलपान,
किया राम ने गुह-शवरी से जिसका स्वाद बखान ।

शिक्षा के बदले भिक्षा भी दे न सकें प्रतिदान
तो फिर कहो, उऋण हों कैसे वे लघु और महान?

माना, दुर्बल ही था गौतम छिपकर गया निदान,
किन्तु शुभे, परिणाम भला ही हुआ, सुधा-संधान ।

क्षमा करो सिद्धार्थ शाक्य की निर्दयता प्रिय जान,
मैत्री-करुणा-पूर्ण आज वह शुद्ध बुद्ध भगवान ।

यशोधरा-
पधारो, भव भव के भगवान!
रख ली मेरी लज्जा तुमने, आओ अत्रभवान!

नाथ, विजय है यही तुम्हारी,
दिया तुच्छ को गौरव भारी ।
अपनायी मुझ-सी लघु नारी,
होकर महा महान!
पधारो, भव भव के भगवान!

मैं थी संध्या का पथ हेरे,
आ पहुंचे तुम सहज सबेरे ।
धन्य कपाट खुले ये मेरे!
दूं अब क्या नव-दान ?
पधारो, भव भव के भगवान !

मेरे स्वप्न आज ये जागे,
अब वे उपालम्भ क्यों भागे ?
पा कर भी क्या धन आगे
भूली - सो मैं भान ।
पधारो, भव भव के भगवान !

दृष्टि इधर जो तुमने फेरी
स्वयं शान्त जिज्ञासा मेरी ।
भय-संशय की मिटी अँधेरी,
इस आभा की आन !
पधारो, भव भव के भगवान !

यही प्रणति उन्नति है मेरी,
हुई प्रणय की परिणति मेरी,
मिली आज मुझको गति मेरी,
क्यों न करूं अभिमान ?
पधारो, भव भव के भगवान !

पुलक पक्ष्म परिगीत हुए ये,
पद-रज पोंछ पुनीत हुए ये !
रोम रोम शुचि-शीत हुए ये,
पा कर पर्वस्नान ।
पधारो, भव भव के भगवान !

इन अधरों के भाग्य जगाऊँ ;
उन गुल्फों की मुहर लगाऊँ !
गई वेदना, अब क्या गाऊँ ?
मग्न हुई मुसकान ।
पधारो, भव भव के भगवान !

कर रक्खा, यह कृपा तुम्हारी;
मैं पद-पद्मों पर ही वारी।
चरणामृत करके ये खारी
अश्रु करूं अब पान ।
पधारो, भव भव के भगवान!

बुद्धदेव-
दीन न हो गोपे, सुनो हीन नहीं नारी कभी,
भूत-दया-मूर्ति वह मन से, शरीर से,
क्षीण हुआ वन में क्षुधा से मैं विशेष जब,
मुझको बचाया मातृजाति ने ही खीर से ।
आया जब मार मुझे मारने को वार वार
अप्सरा-अनीकिनी सजाए हेम-हीर से ।
तुम तो यहाँ थीं, धीर थ्यान ही तुम्हारा वहाँ
जूझा, मुझे पीछे कर, पंचशर वीर से ।

अन्तिम अस्त्र, तुम्हारा रुप धरे एक अप्सरा आई;
किन्तु बराकी अपनी प्रवृत्ति पर आप कांप सकुचाई!

सुना था कलकण्ठी से ही कहीं
मैंने मन का यह मन्त्र-
तने, पर इतना, जो टूटे नहीं
तन्त्री, तेरा वह तन्त्र ।

बतलाऊं मैं क्या अधिक तुम्हें तुम्हारा कर्म,
पाला है तुमने जिसे, वही बधू का धर्म ।

यशोधरा-
कृतकृत्य हुई गोपा,
पाया यह योग, भोग, अब जा तू,
आ राहुल, बढ़ बेटा,
पूज्य पिता से परम्परा पा तू।

राहुल
तात, पैतृक दाय दो, निज शील सिखलाओ, मुझे,
प्रणत हूँ मैं इन पदों में, मार्ग दिखलाओ मुझे,
असत से सत में, तिमिर से ज्योति में लाओ मुझे,
मृत्यु से तुम अमृत में हे पूज्य, पहुंचाओ मुझे।
तमसो मा ज्योतिर्गमय,
असतो मा सद्गमय,
मृत्योर्माऽमृतं गमय।

बुद्धदेव
मैं भी कृतकृत्य आज वीर वत्स, आ तू।
स्वाधिकार भागी बन भूरि भूरि भा तू।
सत्प्रकाश और अमृत एक साथ पा तू
बुद्ध-शरन, धर्म-शरन, संघ-शरन जा तू।

राहुल
बुद्धं शरणं गच्छामि,
धर्मं शरणं गच्छामि,
संघं शरणं गच्छामि।

यशोधरा
तुम भिक्षुक बनकर आये थे, गोपा क्या देती स्वामी?
था अनुरूप एक राहुल ही, रहे सदा यह अनुगामी?
मेरे दुख में भरा विश्वसुख, क्यों न भरूं फिर मैं हामी!
बुद्धं शरणं, धर्मं शरणं, संघं शरणं गच्छामिऽ ।

हरि: ॐ शान्ति:

  • यशोधरा भाग (1) मैथिलीशरण गुप्त
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण काव्य रचनाएँ : मैथिलीशरण गुप्त
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)