वर्षा-विनोद : भारतेंदु हरिश्चंद्र

Varsha Vinod : Bharatendu Harishchandra

1. सावन आवत ही सब द्रुम नए खुले

सावन आवत ही सब द्रुम नए फूले
ता मधि झूलत नवल हिंडोरे ।
तैसीय हरित भूमि तामै बीरबधू सोहै
तैसीयै लता झुकि रही चहुँ कोरे ।
तैसोई हिंडोरो पँच-रैंग बन्यो सोहत
तैसी ही ब्रज-बधू घेरे सब ओरे ।
'हरीचंद' बलिहारी तापै झूलै राधाप्यारी
मोहन झुलावैं झोंटा देत थोरे थोरे। ।

2. प्रिय बिन बरसत आयो पानी

प्रिय बिन बरसत आयो पानी ।
चपला चमकि चमकि डरपावत, मोहि अकेली जानी ।
कोयल कूक सुनत जिय फाटत यह बरषा दुखदानी ।
'हरीचंद' पिय श्याम सुन्दर बिनु बिरहिनि भई है दिवानी ।

3. हरि बिनु काली बदरिया छाई

हरि बिनु काली बदरिया छाई ।
बरसत घेरि घेरि चहुँ दिसि तें दामिनि चमक जनाई ।
कोइलि कुहुकि कुहुकि हिय मेरे बिरहा-अगिन बढ़ाई ।
दादुर बोलत ताल-तलैयन मानहुँ काम-बधाई ।
कौन देस धाये नंद-नन्दन पातीहू न पठाई ।
'हरीचंद'-बिनु बिकल बि२हिनी परी सेज मुरझाई ।

4. बीत चली सब रात

बीत चली सब रात न आए अब तक दिल-जानी ।
खड़ी अकेली राह देखती बरस रहा पानी ।
अंधेरी छाय रही भारी ।
सूझत कहूं पंथ सोच करै मन मन में नारी।
न कोई समझाबनवारी ।
चौंकि चौंकि के उझकि झरोखा झौंक रही प्यारी ।
विरह से व्याकुल अकुलानी ।

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