तमाशा : अशोक चक्रधर

Tamasha : Ashok Chakradhar

1. गरीबदास का शून्य

घास काटकर नहर के पास,
कुछ उदास-उदास सा
चला जा रहा था
गरीबदास।
कि क्या हुआ अनायास...

दिखाई दिए सामने
दो मुस्टंडे,
जो अमीरों के लिए शरीफ़ थे
पर ग़रीबों के लिए गुंडे।
उनके हाथों में
तेल पिए हुए डंडे थे,
और खोपड़ियों में
हज़ारों हथकण्डे थे।
बोले-

ओ गरीबदास सुन !
अच्छा मुहूरत है
अच्छा सगुन।
हम तेरे दलिद्दर मिटाएंगे,
ग़रीबी की रेखा से
ऊपर उठाएंगे।
गरीबदास डर गया बिचारा,
उसने मन में विचारा-
इन्होंने गांव की
कितनी ही लड़कियां उठा दीं।
कितने ही लोग
ज़िंदगी से उठा दिए
अब मुझे उठाने वाले हैं,
आज तो
भगवान ही रखवाले हैं।

-हां भई गरीबदास
चुप क्यों है ?
देख मामला यों है
कि हम तुझे
ग़रीबी की रेखा से
ऊपर उठाएंगे,
रेखा नीचे रह जाएगी
तुझे ऊपर ले जाएंगे।

गरीबदास ने पूछा-
कित्ता ऊपर ?

-एक बित्ता ऊपर
पर घबराता क्यों है
ये तो ख़ुशी की बात है,
वरना क्या तू
और क्या तेरी औक़ात है ?
जानता है ग़रीबी की रेखा ?
-हजूर हमने तो
कभी नहीं देखा।

-हं हं, पगले,
घास पहले
नीचे रख ले।
गरीबदास !
तू आदमी मज़े का है,
देख सामने देख
वो ग़रीबी की रेखा है।

-कहां है हजूर ?

-वो कहां है हजूर ?
-वो देख,
सामने बहुत दूर।

-सामने तो
बंजर धरती है बेहिसाब,
यहां तो कोई
हेमामालिनी
या रेखा नईं है साब।
-वाह भई वाह,
सुभानल्लाह।
गरीबदास
तू बंदा शौकीन है,
और पसंद भी तेरी
बड़ी नमकीन है।
हेमामालिनी
और रेखा को
जानता है
ग़रीबी की रेखा को
नहीं जानता,
भई, मैं नहीं मानता।

-सच्ची मेरे उस्तादो !
मैं नईं जानता
आपई बता दो।
-अच्छा सामने देख
आसमान दिखता है ?

-दिखता है।

-धरती दिखती है ?

-ये दोनों जहां मिलते हैं
वो लाइन दिखती है ?
-दिखती है साब
इसे तो बहुत बार देखा है।

-बस गरीबदास
यही ग़रीबी की रेखा है।
सात जनम बीत जाएंगे
तू दौड़ता जाएगा,
दौड़ता जाएगा,
लेकिन वहां तक
कभी नहीं पहुंच पाएगा।
और जब
पहुंच ही नहीं पाएगा
तो उठ कैसे पाएगा ?
जहां है
वहीं-का-वहीं रह जाएगा।

लेकिन
तू अपना बच्चा है,
और मुहूरत भी
अच्छा है !
आधे से थोड़ा ज्यादा
कमीशन लेंगे
और तुझे
ग़रीबी की रेखा से
ऊपर उठा देंगे।

ग़रीबदास !
क्षितिज का ये नज़ारा
हट सकता है
पर क्षितिज की रेखा
नहीं हट सकती,
हमारे देश में
रेखा की ग़रीबी तो
मिट सकती है,
पर ग़रीबी की रेखा
नहीं मिट सकती।
तू अभी तक
इस बात से
आंखें मींचे है,
कि रेखा तेरे ऊपर है
और तू उसके नीचे है।
हम इसका उल्टा कर देंगे
तू ज़िंदगी के
लुफ्त उठाएगा,
रेखा नीचे होगी
तू रेखा से
ऊपर आ जाएगा।

गरीब भोला तो था ही
थोड़ा और भोला बन के,
बोला सहम के-
क्या गरीबी की रेखा
हमारे जमींदार साब के
चबूतरे जित्ती ऊंची होती है ?

-हां, क्यों नहीं बेटा।
ज़मींदार का चबूतरा तो
तेरा बाप की बपौती है
अबे इतनी ऊंची नहीं होती
रेखा ग़रीबी की,
वो तो समझ
सिर्फ़ इतनी ऊंची है
जितनी ऊंची है
पैर की एड़ी तेरी बीवी की।
जितना ऊंचा है
तेरी भैंस का खूंटा,
या जितना ऊंचा होता है
खेत में ठूंठा,
जितनी ऊंची होती है
परात में पिट्ठी,
या जितनी ऊंची होती है
तसले में मिट्टी
बस इतनी ही ऊंची होती है
ग़रीबी की रेखा,
पर इतना भी
ज़रा उठ के दिखा !

कूदेगा
पर धम्म से गिर जाएगा
एक सैकिण्ड भी
ग़रीबी की रेखा से
ऊपर नहीं रह पाएगा।
लेकिन हम तुझे
पूरे एक महीने के लिए
उठा देंगे,
खूंटे की
ऊंचाई पे बिठा देंगे।
बाद में कहेगा
अहा क्या सुख भोगा...।

गरीबदास बोला-
लेकिन करना क्या होगा ?
-बताते हैं
बताते हैं,
अभी असली मुद्दे पर आते हैं।
पहले बता
क्यों लाया है
ये घास ?

-हजूर,
एक भैंस है हमारे पास।
तेरी अपनी कमाई की है ?

नईं हजूर !
जोरू के भाई की है।

सीधे क्यों नहीं बोलता कि
साले की है,
मतलब ये कि
तेरे ही कसाले की है।
अच्छा,
उसका एक कान ले आ
काट के,
पैसे मिलेंगे
तो मौज करेंगे बांट के।
भैंस के कान से पैसे,
हजूर ऐसा कैसे ?

ये एक अलग कहानी है,
तुझे क्या बतानी है !
आई.आर.डी.पी. का लोन मिलता है
उससे तो भैंस को
ख़रीदा हुआ दिखाएंगे
फिर कान काट के ले जाएंगे
और भैंस को मरा बताएंगे
बीमे की रकम ले आएंगे
आधा अधिकारी खाएंगे
आधे में से
कुछ हम पचाएंगे,
बाक़ी से
तुझे
और तेरे साले को
ग़रीबी की रेखा से
ऊपर उठाएंगे।

साला बोला-
जान दे दूंगा
पर कान ना देने का।

क्यों ना देने का ?

-पहले तो वो
काटने ई ना देगी
अड़ जाएगी,
दूसरी बात ये कि
कान कटने से
मेरी भैंस की
सो बिगड़ जाएगी।
अच्छा, तो...
शो के चक्कर में
कान ना देगा,
तो क्या अपनी भैंस को
ब्यूटी कम्पीटीशन में
जापान भेजेगा ?
कौन से लड़के वाले आ रहे हैं
तेरी भैंस को देखने
कि शादी नहीं हो पाएगी ?
अरे भैंस तो
तेरे घर में ही रहेगी
बाहर थोड़े ही जाएगी।

और कौन सी
कुंआरी है तेरी भैंस
कि मरा ही जा रहा है,
अबे कान मांगा है
मकान थोड़े ही मांगा है
जो घबरा रहा है।
कान कटने से
क्या दूध देना
बंद कर देगी,
या सुनना बंद कर देगी ?
अरे ओ करम के छाते !
हज़ारों साल हो गए
भैंस के आगे बीन बजाते।
आज तक तो उसने
डिस्को नहीं दिखाया,
तेरी समझ में
आया कि नहीं आया ?
अरे कोई पर थोड़े ही
काट रहे हैं
कि उड़ नहीं पाएगा परिन्दा,
सिर्फ़ कान काटेंगे
भैंस तेरी
ज्यों की त्यों ज़िंदा।

ख़ैर,
जब गरीबदास ने
साले को
कान के बारे में
कान में समझाया,
और एक मुस्टंडे ने
तेल पिया डंडा दिखाया,
तो साला मान गया,
और भैंस का
एक कान गया।

इसका हुआ अच्छा नतीजा,
ग़रीबी की रेखा से
ऊपर आ गए
साले और जीजा।
चार हज़ार में से
चार सौ पा गए,
मज़े आ गए।

एक-एक धोती का जोड़ा
दाल आटा थोड़ा-थोड़ा
एक एक गुड़ की भेली
और एक एक बनियान ले ली।

बचे-खुचे रुपयों की
ताड़ी चढ़ा गए,
और दसवें ही दिन
ग़रीबी की रेखा के
नीचे आ गए।

2. तमाशा

अब मैं आपको कोई कविता नहीं सुनाता
एक तमाशा दिखाता हूँ,
और आपके सामने एक मजमा लगाता हूँ।
ये तमाशा कविता से बहूत दूर है,
दिखाऊँ साब, मंजूर है?

कविता सुनने वालो
ये मत कहना कि कवि होकर
मजमा लगा रहा है,
और कविता सुनाने के बजाय
यों ही बहला रहा है।
दरअसल, एक तो पापी पेट का सवाल है
और दूसरे, देश का दोस्तो ये हाल है
कि कवि अब फिर से एक बार
मजमा लगाने को मजबूर है,
तो दिखाऊँ साब, मंजूर है?
बोलिए जनाब बोलिए हुजूर!
तमाशा देखना मंजूर?
थैंक्यू, धन्यवाद, शुक्रिया,
आपने 'हाँ' कही बहुत अच्छा किया।
आप अच्छे लोग हैं बहुत अच्छे श्रोता हैं
और बाइ-द-वे तमाशबीन भी खूब हैं,
देखिए मेरे हाथ में ये तीन टैस्ट-ट्यूब हैं।

कहाँ हैं?
ग़ौर से देखिए ध्यान से देखिए,
मन की आँखों से कल्पना की पाँखों से देखिए।
देखिए यहाँ हैं।
क्या कहा, उँगलियाँ हैं?
नहीं - नहीं टैस्ट-ट्यूब हैं
इन्हें उँगलियाँ मत कहिए,
तमाशा देखते वक्त दरियादिल रहिए।
आप मेरे श्रोता हैं, रहनुमा हैं, सुहाग हैं
मेरे महबूब हैं,
अब बताइए ये क्या हैं?
तीन टैस्ट-ट्यूब हैं।
वैरी गुड, थैंक्यू, धन्यवाद, शुक्रिया,
आपने उँगलियों को टैस्ट-ट्यूब बताया
बहुत अच्छा किया
अब बताइए इनमें क्या है?
बताइए-बताइए इनमें क्या है?
अरे, आपको क्या हो गया है?
टैस्ट-ट्यूब दिखती है
अंदर का माल नहीं दिखता है,
आपके भोलेपन में भी अधिकता है।

ख़ैर छोड़िए
ए भाईसाहब!
अपना ध्यान इधर मोड़िए।
चलिए, मुद्दे पर आता हूँ,
मैं ही बताता हूँ, इनमें खून है!
हाँ भाईसाहब, हाँ बिरादर,
हाँ माई बाप हाँ गॉड फादर! इनमें खून हैं।
पहले में हिंदू का
दूसरे में मुसलमान का
तीसरे में सिख का खून है,
हिंदू मुसलमान में तो आजकल
बड़ा ही जुनून हैं।
आप में से जो भी इनका फ़र्क बताएगा
मेरा आज का पारिश्रमिक ले जाएगा।
हर किसी को बोलने की आज़ादी है,
खरा खेल, फ़र्क बताएगा
न जालसाज़ी है न धोखा है,
ले जाइए पूरा पैसा ले जाइए जनाब, मौका है।

फ़र्क बताइए,
तीनों में अंतर क्या है अपना तर्क बताइए
और एक कवि का पारिश्रमिक ले जाइए।
आप बताइए नीली कमीज़ वाले साब,
सफ़ेद कुर्ते वाले जनाब।
आप बताइए? जिनकी इतनी बड़ी दाढ़ी है।
आप बताइए बहन जी
जिनकी पीली साड़ी है।
संचालक जी आप बताइए
आपके भरोसे हमारी गाड़ी है।
इनके मुँह पर नहीं पेट में दाढ़ी है।

ओ श्रीमान जी, आपका ध्यान किधर है,
इधर देखिए तमाशे वाला तो इधर है।

हाँ, तो दोस्तो!
फ़र्क है, ज़रूर इनमें फ़र्क है,
तभी तो समाज का बेड़ागर्क है।
रगों में शांत नहीं रहता है,
उबलता है, धधकता है, फूट पड़ता है
सड़कों पर बहता है।
फ़र्क नहीं होता तो दंगे-फ़साद नहीं होते,
फ़र्क नहीं होता तो खून-ख़राबों के बाद
लोग नहीं रोते।
अंतर नहीं होता तो ग़र्म हवाएँ नहीं होतीं,
अंतर नहीं होता तो अचानक विधवाएँ नहीं होतीं।

देश में चारों तरफ़
हत्याओं का मानसून है,
ओलों की जगह हड्डियाँ हैं
पानी की जगह खून है।
फ़साद करने वाले ही बताएँ
अगर उनमें थोड़ी-सी हया है,
क्या उन्हें साँप सूँघ गया है?

और ये तो मैंने आपको
पहले ही बता दिया
कि पहली में हिंदू का
दूसरी में मुसलमान का
तीसरी में सिख का खून है।
अगर उल्टा बता देता तो कैसे पता लगाते,
कौन-सा किसका है, कैसे बताते?

और दोस्तो, डर मत जाना
अगर डरा दूँ, मान लो मैं इन्हें
किसी मंदिर, मस्जिद
या गुरुद्वारे के सामने गिरा दूँ,
तो है कोई माई का लाल
जो फ़र्क बता दे,
है कोई पंडित, है कोई मुल्ला, है कोई ग्रंथी
जो ग्रंथियाँ सुलझा दे?
फ़र्श पर बिखरा पड़ा है, पहचान बताइए,
कौन मलखान, कौन सिंह, कौन खान बताइए।

अभी फोरेन्सिक विभाग वाले आएँगे,
जमे हुए खून को नाखून से हटाएँगे।
नमूने ले जाएँगे
इसका ग्रुप 'ओ', इसका 'बी'
और उसका 'बी प्लस' बताएँगे।
लेकिन ये बताना
क्या उनके बस का है,
कि कौन-सा खून किसका है?

कौम की पहचान बताने वाला
जाति की पहचान बताने वाला
कोई माइक्रोस्कोप है? वे नहीं बता सकते
लेकिन मुझे तो आप से होप है।
बताइए, बताइए, और एक कवि का
पारिश्रमिक ले जाइए।

अब मैं इन परखनलियों कोv
स्टोव पर रखता हूँ, उबाल आएगा,
खून खौलेगा, बबाल आएगा।

हाँ, भाईजान
नीचे से गर्मी दो न तो खून खौलता है
किसी का खून सूखता है, किसी का जलता है
किसी का खून थम जाता है,
किसी का खून जम जाता है।
अगर ये टेस्ट-ट्यूब फ्रिज में रखूँ खून जम जाएगा,
सींक डालकर निकालूँ तो आइस्क्रीम का मज़ा आएगा।
आप खाएँगे ये आइस्क्रीम
आप खाएँगे,
आप खाएँगी बहन जी
भाईसाहब आप खाएँगे?

मुझे मालूम है कि आप नहीं खा सकते
क्योंकि इंसान हैं,
लेकिन हमारे मुल्क में कुछ हैवान हैं।
कुछ दरिंदे हैं,
जिनके बस खून के ही धंधे हैं।
मजहब के नाम पे, धर्म के नाम पे
वो खाते हैं ये आइस्क्रीम मज़े से खाते हैं,
भाईसाहब बड़े मज़े से खाते हैं,
और अपनी हविस के लिए
आदमी-से-आदमी को लड़ाते हैं।

इन्हें मासूम बच्चों पर तरस नहीं आता हैं,
इन्हें मीठी लोरियों का सुर नहीं भाता है।
माँग के सिंदूर से इन्हें कोई मतलब नहीं
कलाई की चूड़ियों से इनका नहीं नाता है।
इन्हें मासूम बच्चों पर तरस नहीं आता हैं।
अरे गुरु सबका, गॉड सबका, खुदा सबका
और सबका विधाता है,
लेकिन इन्हें तो अलगाव ही सुहाता है,
इन्हें मासूम बच्चों पर
तरस नहीं आता है।
मस्जिद के आगे टूटी हुई चप्पलें
मंदिर के आगे बच्चों के बस्ते
गली-गली में बम और गोले
कोई इन्हें क्या बोले,
इनके सामने शासन भी सिर झुकाता है,
इन्हें मासूम बच्चों पर तरस नहीं आता है।

हाँ तो भाईसाहब!
कोई धोती पहनता है, कोई पायजामा
किसी के पास पतलून है,
लेकिन हर किसी के अंदर वही खून है।
साड़ी में माँ जी, सलवार में बहन जी
बुर्के में खातून हैं,
सबके अंदर वही खून है,
तो क्यों अलग विधेयक है?
क्यों अलग कानून है?

ख़ैर छोड़िए आप तो खून का फ़र्क बताइए,
अंतर क्या है अपना तर्क बताइए।
क्या पहला पीला, दूसरा हरा, तीसरा नीला है?
जिससे पूछो यही कहता है
कि सबके अंदर वही लाल रंग बहता है।

और यही इस तमाशे की टेक हैं,
कि रंगों में रहता हो या सड़कों पर बहता हो
लहू का रंग एक है।
फ़र्क सिर्फ़ इतना है
कि अलग-अलग टैस्ट-ट्यूब में हैं,
अंतर खून में नहीं है, मज़हबी मंसूबों में हैं।

मज़हब जात, बिरादरी
और खानदान भूल जाएँ
खूनदान पहचानें कि किस खूनदान के हैं,
इंसान के हैं कि हैवान के हैं?
और इस तमाशे वाले की
अंतिम इच्छा यही है कि
खून सड़कों पर न बहे,
वह तो धमनियों में दौड़े
और रगों में रहे।
खून सड़कों पर न बहे
खून सड़कों पर न बहे
खून सड़कों पर न बहे।

3. चालीसवां राष्ट्रीय भ्रष्टाचार महोत्सव

पिछले दिनों
चालीसवां राष्ट्रीय भ्रष्टाचार महोत्सव मनाया गया...
सभी सरकारी संस्थानों को बुलाया गया...

भेजी गई सभी को निमंत्रण-पत्रावली,
साथ में प्रतियोगिता की नियमावली...
लिखा था -
प्रिय भ्रष्टोदय,
आप तो जानते हैं,
भ्रष्टाचार हमारे देश की
पावन-पवित्र सांस्कृतिक विरासत है,
हमारी जीवन-पद्धति है,
हमारी मजबूरी है, हमारी आदत है...
आप अपने विभागीय भ्रष्टाचार का
सर्वोत्कृष्ट नमूना दिखाइए,
और उपाधियां तथा पदक-पुरस्कार पाइए...
व्यक्तिगत उपाधियां हैं -
भ्रष्टशिरोमणि, भ्रष्टविभूषण,
भ्रष्टभूषण और भ्रष्टरत्न,
और यदि सफल हुए आपके विभागीय प्रयत्न,
तो कोई भी पदक, जैसे -
स्वर्ण गिद्ध, रजत बगुला,
या कांस्य कउआ दिया जाएगा...
सांत्वना पुरस्कार में,
प्रमाण-पत्र और
भ्रष्टाचार प्रतीक पेय व्हिस्की का
एक-एक पउवा दिया जाएगा...
प्रविष्टियां भरिए...
और न्यूनतम योग्यताएं पूरी करते हों तो
प्रदर्शन अथवा प्रतियोगिता खंड में स्थान चुनिए...

कुछ तुले, कुछ अनतुले भ्रष्टाचारी,
कुछ कुख्यात निलंबित अधिकारी,
जूरी के सदस्य बनाए गए,
मोटी रकम देकर बुलाए गए...
मुर्ग तंदूरी, शराब अंगूरी,
और विलास की सारी चीज़ें जरूरी,
जुटाई गईं,
और निर्णायक मंडल,
यानि कि जूरी को दिलाई गईं...

एक हाथ से मुर्गे की टांग चबाते हुए,
और दूसरे से चाबी का छल्ला घुमाते हुए,
जूरी का एक सदस्य बोला -
मिस्टर भोला,
यू नो,
हम ऐसे करेंगे या वैसे करेंगे,
बट बाइ द वे,
भ्रष्टाचार नापने का पैमाना क्या है,
हम फैसला कैसे करेंगे...?

मिस्टर भोला ने सिर हिलाया,
और हाथों को घूरते हुए फरमाया -
चाबी के छल्ले को टेंट में रखिए,
और मुर्गे की टांग को प्लेट में रखिए,
फिर सुनिए मिस्टर मुरारका,
भ्रष्टाचार होता है चार प्रकार का...
पहला - नज़राना...
यानि नज़र करना, लुभाना...
यह काम होने से पहले दिया जाने वाला ऑफर है...
और पूरी तरह से
देनेवाले की श्रद्धा और इच्छा पर निर्भर है...
दूसरा - शुकराना...
इसके बारे में क्या बताना...
यह काम होने के बाद बतौर शुक्रिया दिया जाता है...
लेने वाले को
आकस्मिक प्राप्ति के कारण बड़ा मजा आता है...
तीसरा - हकराना, यानि हक जताना...
हक बनता है जनाब,
बंधा-बंधाया हिसाब...
आपसी सैटलमेंट,
कहीं दस परसेंट, कहीं पंद्रह परसेंट, कहीं बीस परसेंट...
पेमेंट से पहले पेमेंट...
चौथा - जबराना...
यानी जबर्दस्ती पाना...
यह देने वाले की नहीं,
लेने वाले की
इच्छा, क्षमता और शक्ति पर डिपेंड करता है...
मना करने वाला मरता है...
इसमें लेने वाले के पास पूरा अधिकार है,
दुत्कार है, फुंकार है, फटकार है...
दूसरी ओर न चीत्कार, न हाहाकार,
केवल मौन स्वीकार होता है...
देने वाला अकेले में रोता है...

तो यही भ्रष्टाचार का सर्वोत्कृष्ट प्रकार है...
जो भ्रष्टाचारी इसे न कर पाए, उसे धिक्कार है...
नजराना का एक प्वाइंट,
शुकराना के दो, हकराना के तीन,
और जबराना के चार...
हम भ्रष्टाचार को अंक देंगे इस प्रकार...

रात्रि का समय...
जब बारह पर आ गई सुई,
तो प्रतियोगिता शुरू हुई...

सर्वप्रथम जंगल विभाग आया,
जंगल अधिकारी ने बताया -
इस प्रतियोगिता के
सारे फर्नीचर के लिए,
चार हजार चार सौ बीस पेड़ कटवाए जा चुके हैं...
और एक-एक डबल बैड, एक-एक सोफा-सैट,
जूरी के हर सदस्य के घर, पहले ही भिजवाए जा चुके हैं...
हमारी ओर से भ्रष्टाचार का यही नमूना है,
आप सुबह जब जंगल जाएंगे,
तो स्वयं देखेंगे,
जंगल का एक हिस्सा अब बिलकुल सूना है...

अगला प्रतियोगी पीडब्ल्यूडी का,
उसने बताया अपना तरीका -
हम लैंड-फिलिंग या अर्थ-फिलिंग करते हैं...
यानि ज़मीन के निचले हिस्सों को,
ऊंचा करने के लिए मिट्टी भरते हैं...
हर बरसात में मिट्टी बह जाती है,
और समस्या वहीं-की-वहीं रह जाती है...
जिस टीले से हम मिट्टी लाते हैं,
या कागजों पर लाया जाना दिखाते हैं,
यदि सचमुच हमने उतनी मिट्टी को डलवाया होता,
तो आपने उस टीले की जगह पृथ्वी में,
अमरीका तक का आर-पार गड्ढा पाया होता...
लेकिन टीला ज्यों-का-त्यों खड़ा है,
उतना ही ऊंचा, उतना ही बड़ा है...
मिट्टी डली भी और नहीं भी,
ऐसा नमूना नहीं देखा होगा कहीं भी...

क्यू तोड़कर अचानक,
अंदर घुस आए एक अध्यापक -
हुजूर, मुझे आने नहीं दे रहे थे,
शिक्षा का भ्रष्टाचार बताने नहीं दे रहे थे, प्रभो!

एक जूरी मेंबर बोला - चुप रहो,
चार ट्यूशन क्या कर लिए,
कि भ्रष्टाचारी समझने लगे,
प्रतियोगिता में शरीक होने का दम भरने लगे...
तुम क्वालिफाई ही नहीं करते,
बाहर जाओ -
नेक्स्ट, अगले को बुलाओ...

अब आया पुलिस का एक दरोगा बोला -
हम न हों तो भ्रष्टाचार कहां होगा...?
जिसे चाहें पकड़ लेते हैं, जिसे चाहें रगड़ देते हैं,
हथकड़ी नहीं डलवानी, दो हज़ार ला,
जूते भी नहीं खाने, दो हज़ार ला,
पकड़वाने के पैसे, छुड़वाने के पैसे,
ऐसे भी पैसे, वैसे भी पैसे,
बिना पैसे, हम हिलें कैसे...?
जमानत, तफ़्तीश, इनवेस्टीगेशन,
इनक्वायरी, तलाशी या ऐसी सिचुएशन,
अपनी तो चांदी है,
क्योंकि स्थितियां बांदी हैं,
डंके का ज़ोर है,
हम अपराध मिटाते नहीं हैं,
अपराधों की फसल की देखभाल करते हैं,
वर्दी और डंडे से कमाल करते हैं...

फिर आए क्रमश:
एक्साइज़ वाले, इन्कम टैक्स वाले,
स्लम वाले, कस्टम वाले,
डीडीए वाले,
टीए, डीए वाले,
रेल वाले, खेल वाले,
हैल्थ वाले, वैल्थ वाले,
रक्षा वाले, शिक्षा वाले,
कृषि वाले, खाद्य वाले,
ट्रांसपोर्ट वाले, एअरपोर्ट वाले,
सभी ने बताए अपने-अपने घोटाले...

प्रतियोगिता पूरी हुई,
तो जूरी के एक सदस्य ने कहा -
देखो भाई,
स्वर्ण गिद्ध तो पुलिस विभाग को जा रहा है,
रजत बगुले के लिए पीडब्ल्यूडी, डीडीए के बराबर आ रहा है...
और ऐसा लगता है हमको,
कांस्य कउआ मिलेगा एक्साइज़ या कस्टम को...

निर्णय-प्रक्रिया चल ही रही थी कि
अचानक मेज फोड़कर,
धुएं के बादल अपने चारों ओर छोड़कर,
श्वेत धवल खादी में लक-दक,
टोपीधारी गरिमा-महिमा उत्पादक,
एक विराट व्यक्तित्व प्रकट हुआ...
चारों ओर रोशनी और धुआं...
जैसे गीता में श्रीकृष्ण ने,
अपना विराट स्वरूप दिखाया,
और महत्त्व बताया था...
कुछ-कुछ वैसा ही था नज़ारा...
विराट नेताजी ने मेघ-मंद्र स्वर में उचारा -
मेरे हज़ारों मुंह, हजारों हाथ हैं...
हज़ारों पेट हैं, हज़ारों ही लात हैं...
नैनं छिन्दन्ति पुलिसा-वुलिसा,
नैनं दहति संसदा...
नाना विधानि रुपाणि,
नाना हथकंडानि च...
ये सब भ्रष्टाचारी मेरे ही स्वरूप हैं,
मैं एक हूं, लेकिन करोड़ों रूप हैं...
अहमपि नजरानम् अहमपि शुकरानम्,
अहमपि हकरानम् च जबरानम् सर्वमन्यते...
भ्रष्टाचारी मजिस्ट्रेट, रिश्वतखोर थानेदार,
इंजीनियर, ओवरसियर, रिश्तेदार-नातेदार,
मुझसे ही पैदा हुए, मुझमें ही समाएंगे,
पुरस्कार ये सारे मेरे हैं, मेरे ही पास आएंगे...

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