तार सप्तक गिरिजा कुमार माथुर
Taar Saptak Girija Kumar Mathur

1. आज हैं केसर रंग रंगे वन

आज हैं केसर रंग रंगे वन
रंजित शाम भी फागुन की खिली खिली पीली कली-सी
केसर के वसनों में छिपा तन
सोने की छाँह-सा
बोलती आँखों में
पहले वसन्त के फूल का रंग है।
गोरे कपोलों पे हौले से आ जाती
पहले ही पहले के
रंगीन चुंबन की सी ललाई।
आज हैं केसर रंग रंगे
गृह द्वार नगर वन
जिनके विभिन्न रंगों में है रंग गई
पूनो की चंदन चाँदनी।

जीवन में फिर लौटी मिठास है
गीत की आख़िरी मीठी लकीर-सी
प्यार भी डूबेगा गोरी-सी बाहों में
ओठों में आँखों में
फूलों में डूबे ज्यों
फूल की रेशमी रेशमी छाँहें।
आज हैं केसर रंग रंगे वन।

2. रुक कर जाती हुई रात

रुक कर जाती हुई रात का
अन्तिम छांहों-भरा प्रहर है
श्वेत धुएँ से पतले नभ में
दूर झाँवरे पड़े हुए सोने-से तारे
जगी हुई भारी पलकों से पहरा देते
नींद-भरी मन्दी बयार चलती है
वर्षा-भीगा नगर
भोर के सपने देख रहा है अब भी
लम्बे-लम्बे धुँधले राजपथों में
निशि-भर जली रोशनी की
कुछ थकी उदासी मंडराती है ।
पानी रंगे हुए बँगलों के वातायन से
थकी हुई रंगीनी में डूबा प्रकाश अब भी दिख जाता
रेशम-पर्दों, सेजों, निद्रा-भरे बन्धनों की छाया-सा ।

बुझी रात का अभी अख़ीरी पहर नहीं उतरा है,
दूरी के रेखा-छाँहों से पेड़ों ऊपर
ठण्डा-ठण्डा चाँद ठिठक कर मंदा होता
नभ की लम्बी साया दूरी तक पड़ती है ।

3. चूड़ी का टुकड़ा

आज अचानक सूनी-सी संध्या में
जब मैं यों ही मैले कपड़े देख रहा था
किसी काम में जी बहलाने
एक सिल्क के कुर्ते की सिलवट में लिपटा
गिरा रेशमी चूड़ी का छोटा-सा टुकड़ा
उन गोरी कलाइयों में जो तुम पहने थीं
रंग भरी उस मिलन रात में।

मैं वैसा का वैसा ही रह गया सोचता
पिछली बातें
दूज कोर से उस टुकड़े पर
तिरने लगीं तुम्हारी सब तस्वीरें
सेज सुनहली
कसे हुए बन्धन में चूड़ी का झर जाना।
निकल गईं सपने जैसी वे रातें
याद दिलाने रहा सुहाग भरा यह टुकड़ा।

4. रेडियम की छाया

सूनी आधी रात
चांद-कटोरे की सिकुड़ी कोरों से
मन्द चाँदनी पीता लम्बा कुहरा
सिमट लिपट कर ।

दूर-दूर के छाँह-भरे सुनसान पथों में
चलने की आहट ओले-सी जमी पड़ी थी
भूरे पेड़ों का कम्पन भी ठिठुर गया था
कभी-कमी बस
पतझर का सूखा पत्ता गिर कर उड़ जाता
मरे स्वरों से खर-खर करता ।
प्रथम मिलन के उस ठण्डे कमरे में
छत के वातायन से
नींद-भरी मन्दी-सी एक किरन भी
थक कर लौट-लौट जाती थी
आलस-भरे अंधेरे में
दो काली आँखों-सी चमकीली
एक रेडियम घड़ी सुप्त कोने में चलती
सूनेपन के हल्के स्वर-सी ।
उन्हीं रेडियम के अंकों की लघु छाया पर
दो छाँहों का वह चुपचाप मिलन था
उसी रेडियम की हल्की छाया में
चुपके का वह रुका हुआ चुम्बन अंकित था
कमरे की सारी छाँहों के हल्के स्वर-सा
पड़ती थीं जो एक दूसरे में मिल-गुंथ कर ।
सूनी-सी उस आधी रात ।

5. कुतुब के खँडहर

सेमल की गरमीली हल्की रुई समान
जाड़ों की धूप खिली नीले आसमान में
झाड़ी-झुरमुटों से उठे लम्बे मैदान में ।
रूखे पतझर-भरे जंगल के टीलों पर
कांप कर चलती समीर हेमन्त की
लम्बी लहर-सी ।
दूरी के ठिठुरे-से भूरे पेड़ों पर
ठण्डे बबूले बना धूल छा जाती थी-
रेतीले पैरों से धीरे ही दाब कर
काई से काले पड़े ध्वंस राजमहलों को,
पत्थर के ढेर बने मन्दिर-मज़ारों को,
जिनसे अब रोज़ साँझ कुहरा निकलता या
प्यासे सपनों की मंडराती हुई छाँह-सा ।
गूँजता था सूनसान-
उजड़ खंडेरों में
गिरते थे पत्ते,
वन-पंछी नहीं बोलते थे,
नाले की धार किनारे से लगी जाती थी ।

6. पानी भरे हुए बादल

पानी-भरे हुए भारी बादल से डूबा आसमान है
ऊँचे गुम्बद, मीनारों, शिखरों के ऊपर ।
निर्जन धूल-भरी राहों में
विवश उदासी फैल रही है ।
कुचले हुए मरे मन-सा है मौन नगर भी,
मज़दूरों का दूरी से रुकता स्वर आता
दोपहरी-सा सूनापन गहरा होता है
याद धरे बिछुड़न में खोये मेघ-मास में ।
भीगे उत्तर से बादल हैं उठते आते
जिधर छोड़ आये हम अपने मन का मोती
कोसों की इस-मेघ-भरी-दूरी के आगे
एक बिदाई की सन्ध्या में
छोड़ चांदनी-सी वे बाँहें
आँसू-रुकी मचलती आँखें।

भारी-भारी बादल उपर नभ में छाये
निर्जन राहों पर जिन की उदास छाया है
दोपहरी का सूनापन भी गहरा होता
याद-मरे बिछुड़न में डूबे इन कमरों में
खोयी-खोयी आँखों-सी खिड़की के बाहर
रुंधी हवा के एक अचानक झोंके के संग
दूर देश को जाती रेल सुनाई पड़ती !

7. क्वाँर की दुपहरी

क्वाँर की सूनी दुपहरी,
श्वेत गरमीले, रुएं-से बादलों में,
तेज़ सूरज निकलता, फिर डूब जाता ।
घरों में सूनसान आलस ऊँघता है,
थकी राहें ठहर कर विश्राम करतीं;
दूर सूनी गली के उस छोर पर से
नीम-नीचे खेलते कुछ बालकों की
मिली-सी आवाज़ आती

रिक्त कमरे की उदासी बढ़ रही है,
दूर के आते स्वरों से ।
दूर होता जा रहा हूँ मैं स्वयं ही-
पास की दीवाल पर के चित्र सारे,
शून्य द्वारों पर पड़े रंगीन पर्दे,
वायु की साँसों-भरी, एकान्त खिड़की,
वह अकेली-सी घड़ी,
वह दीप ठण्डा
और रातों-जगा वह सूना पलंग भी
दूर होता जा रहा है दूर कितना ।
लग सका है कुछ न अपना
ज़िन्दगी-भर दूर ही रहना पड़ा है,
प्यार के सारे जगत् से।

थक रही है क्वाँर की सूनी दुपहरी,
श्वेत हल्के बादलों में सूर्य डूबा
नीम-नीचे बालकों का स्वर मिला-सा छा रहा है
धूल पैरों से हवा में उड़ रही है ।
बालकों-सा खेलता मैं ज़िन्दगी में
किन्तु साथी दूर पर बिछुड़ा हमारा !

8. भीगा दिन

भीगा दिन
पश्चिमी तटों में उतर चुका है,
बादल-ढकी रात आती है
धूल-भरी दीपक की लौ पर
मंद पग धर।

गीली राहें धीरे-धीरे सूनी होतीं
जिन पर बोझल पहियों के लंबे निशान है
माथे पर की सोच-भरी रेखाओं जैसे।

पानी-रँगी दिवालों पर
सूने राही की छाया पड़ती
पैरों के धीमे स्वर मर जाते हैं
अनजानी उदास दूरी में।

सील-भरी फुहार-डूबी चलती पुरवाई
बिछुड़न की रातों को ठंडी-ठंडी करती
खोये-खोये लुटे हुए खाली कमरे में
गूँज रहीं पिछले रंगीन मिलन की यादें
नींद-भरे आलिंगन में चूड़ी की खिसलन
मीठे अधरों की वे धीमी-धीमी बातें।

ओले-सी ठंडी बरसात अकेली जाती
दूर-दूर तक
भीगी रात घनी होती हैं
पथ की म्लान लालटेनों पर
पानी की बूँदें
लंबी लकीर बन चू चलती हैं
जिन के बोझल उजियाले के आस-पास
सिमट-सिमट कर
सूनापन है गहरा पड़ता,

-दूर देश का आँसू-धुला उदास वह मुखड़ा-
याद-भरा मन खो जाता है
चलने की दूरी तक आती हुई
थकी आहट में मिल कर।

9. एसोसिएशन

कुछ सुनसान दिनों को,
और चाँदनी से ठण्डी-ठण्डी रातों को,
पत्रों की दुनिया से भी हम दूर हुए थे;
आज तुम्हारा सूना-सा सन्देश मिला है,
प्यार दूर का ।
मान-गर्व के दो दिन अभी बिताये मैंने,
गीतों के उस मेले में ।
मेल मुझे ले कर उड़ती जाती थी,
रंग-भरे पानी-से चलते उन डिब्बों की एक कोच पर,
सनसन-सनसन वायु वेग से,
घनी वन्य नदियों से छन में पार उतर कर,
पीछे छोड़ नगर-ग्रामों को
कितनी ही पर्वत-माला की घूमों में से।
एक सीध में बनी, खिड़कियों में से हो कर,
कमरों का विद्युत्-प्रकाश-बाहर पड़ता था,
तेज़ी से चलती लम्बी लकीर बन-बन कर,
सून-सून करते उन पीछे उड़ते मैदानों में;
हल्के चाँद-भरे जो अनजानी दूरी तक,
वन-फूलों की सोंधी-सी सुगन्ध में डूबे।
लेकिन मैं जाने कितने पीछे चलता था,
एक बरस पहिले की इन ठण्डी आंखों में-
इसी तरह का वह रंगीन दूसरा दर्जा
वायू-वेग से चलता जाता ।
जब दूरी तक फैले-फैले,
वन, पर्वत, मैदान उतर कर,
लम्बी, लम्बी-सी तेज़ी से-
तुम उस रेशम-सेज-कोच पर,
देख रहीं उड़ती पहाड़ियां खिड़की में से
एक हाथ पर चिबुक टिकाये;
साथ-साथ ही,
वह पहले पियार की यात्रा ।
आज दूर हो,
प्राणों से, तन से पीड़ित हो---
मेरी सूनी-सी आँखें हैं,
सूना-सा मेरा घर, आँगन ।
चहल-पहल है नगर बीच,
दूर तुम्हारे देश यही सब होता होगा-
यही धूप, उजली कुँआर की यहीं धूप भी
पंछी, वायु, यहीं नम, बादल ।
सून-सून करते मैदानों में से हो कर,
मेल जायगी, निज लम्बी-लम्बी तेज़ी से
प्रतिदिन की ही भांति आज भी ।

10. विजय दशमी

आसमान की आदिम छायाओं के नीचे,
दक्षिण का यह महासिन्धु अब भी टकराता,
सेतुबंध की श्यामल, बहती चट्टानों से।
आँखों में, यह अन्तरीप के मन्दिर की चोटी उठती है,
जिस पर रोज़ साँझ छा जाते,
युग-युग रंजित, लाल, सुनहले, पीले बादल,
एक पुरातन तूफ़ानी-सी याद दिला कर,
जब, अविलम्ब, अग्नि-शर-चाप उठाते ही में,
नभ-चुम्बी, काले पर्वत-सा ज्वाल मिटा था ।
संस्कृतियों पर संस्कृतियों के महल मिट गये,
लौह नींव पर खड़े हुए गढ़, दुर्ग, मिनारें ।
दृढ़ स्तम्भ आधार भंग हो
गिरे, विभिन्न निशान, शास्ति के केतन डूबे ।
महाकाल के भारी पाँवों से न मिट सके,
चित्रकूट, किष्किन्धा, नीलगिरी के जंगल,
पंचवटी की गुंथी हुई अलसायी छांहें।
वाल्मीकि के मृत्युंजय स्वर ले अपने पर
सरयू, गोदावरी, नील, कृष्णा की धारा।
प्रेत-भरे इस यन्त्रकाल में,
आज कोटि युग की दूरी से यादे आतीं,
शम्भु-चाप से अविच्छिन्न इतिहास पुराने,
और वज्र-विद्युत से पूरित अग्नि-नयन वे
जिन में भस्म हुए लंका-से पाप हज़ारों।
अब भी विजय-मार्ग में वह केतन दिखता है
लौट रहे उस मोर-विनिर्मित कुसुम-यान का,
लम्बे-लम्बे दुख-वियोग की अन्तिम-वेला ।
सीता के गोरे, काँटों से भरे चरण वे,
अग्नि-परीक्षाएँ पग-पग की;
घोर जंगलों, नदियों से जब पार उतरकर,
उन बिछुड़े नयनों का सुखमय मिलन हुआ था।
और चतुर्दश वर्षों पहले का प्रभात वह,
सुमन-सेज जब छोड़े तीन सुकुमार मूर्तियां,
तर, मण्डित, वन-पथ पर चलीं तपस्वी बन कर,
राग-रंगीली दुनिया में आते ही आते
आसमान की आदिम छायाओं के नीचे
सेतुबंध से सिन्धु आज भी टकराता है ।-
पदचिह्नों पर पदचिह्नों के अंक बन गये
कितने स्वर, ध्वनियाँ, कोलाहल डूब गये हैं ।
किन्तु सृजन की और मरण की रेखायों में
चिर ज्वलन्त निष्कम्प एक लौ फिरती जाती,
धरती का तप जिस प्रकाश में पूर्ण हुआ है ।
देश, दिशाएँ, काल लोक-सीमा से आगे,
वह त्रिमूर्ति चलती जाती मन के फूलों पर,
अपने श्यामल गौर चरण से पावन करती
वर्षों, सदियों, युगों-युगों के इतिहासों को ।

11. अधूरा गीत

मैं शुरु हुआ मिटने की सीमा-रेखा पर,
रोने में था आरम्भ किन्तु गीतों में मेरा अन्त हुआ ।
मैं एक पूर्णता के पथ का कच्चा निशान,
अपनी अपूर्णता में पूर्ण,
मैं एक अधूरी कथा
कला का मरण-गीत, रोने आया ।
मेरी मजबूरी तो देखो-
काली पीली आँधी चलती है गोल-गोल,
धूसर बादल नीचे उतरे
जिन में मुरझाये पलों की है धूल-भरी,
मिट गये अचानक अनजाने अपने अमोल,-
बुझ गये दीप पड़ कर पीले
जिन की लौ गरम रखी अब तक ।
है अन्त हुआ जाता मेरा
इन अन्तहीन इतिहासों में :
जाने कैसी दूरी पर से
मुझ पर लम्बी छाया पड़ती,
किस की आधी आवाज़-भरी
मेरे बोझीले गिरते हुए उतारों में ।
मैं अधिकारी ना-होने वाली बातों का
मैं अनजाना, मैं हूँ अपूर्ण ।

दूरी से, कितने देशों की इस दूरी से,
वह महाकाल के मन्दिर की चोटी दिखती
जिस पर छाया था एक साँझ
दूरी की श्यामलता लपेट कर मेघदूत;
वे सोने के सिंहासन की गाती परियां,
नव रत्नों का सपना सुन्दर
जो मिट कर एक बार फिर से
था मिटा सीकरी के उन झीलों से अनुरंजित महलों में,
ये सब मोती थे टूट गये ।
अब एक और तारा टूटा
लम्बी लकीर बन अलका से,
फिर समा गया
गंगा की गोरज लहरों में ।
जीवन का वह रंगीन चाँद
जिस के उजियाले बिना हुआ है जग निर्धन,
जो सुधा-भरा ही डूब गया
काली रेखायों के आगे
विष की मीठी निद्रा के अन्तिम सागर में ।
कमज़ोर सूत के ये डोरे
अनजानी दूरी तक ओझल होकर जाते,
नीती-सी लम्बी उँगली की
रेखा-छाया उलझी-उलझी-सी दिख जाती
ढीले लगते
पर बन्द नहीं होते खिंचने ।
सुन्दर चीज़ें ही मिटती हैं सब से पहले,
यह फूल, चाँदनी, रूप, प्यार,
आँसू के अनगिन ताजमहल,
रागों की ठहरी गूँज,
असम्भव सपनों की सुन्दर मिठास-
स्रष्टा तक मिटता कलाकार के मिटने से,
पर गीतों के इन पिरामिडों,
-इन धौलागिर, सुमेरुयों पर
मिट जाती स्वयं मृत्यु आ कर !

दिख रहीँ मुझे विन्ध्या की अमिट लकीर दूर
वे घने-घने चट्टान-भरे लम्बे जंगल,
नर्मदा, बेतवा, क्षिप्रा की अविलम्ब धार
जिन पर हेमन्त कुहासे-सी छायी रहती
युग से युग तक,
अनजाने इतिहासों की वह अविराम याद ।
वन की श्यामलता की मिठास
अनजानेपन के रंगों से ही रंजित् है,
ऐसी छाँहों में पले हुए
ये चट्टानों के फूल
नहीं गल पायेंगे, धुल पायेंगे
निर्बल वर्षों के बोझीले गीले हिम से ।
अब वे वसन्त
कितने सहस्र वर्षों की ममी बना आया
बेहिस, अवाक् ।
ये शिशिर सरीखी बादल-भरी हवा चलती,
रोमाँ की यादें टूट रहीं,
ये मुझे उड़ाती ले जाती वर्षों पीछे
जाड़ों की संध्या का वह अन्तिम प्रहर,
रात, सन्दली चाँदनी में गोरी-गोरी होती :
जब कालिदास की नगरी में
उन गीतों की छाया में मैं भी बैठा था
पहली, भी अन्तिम बार वहीं-
जग ने जिस को मिटने पर ही है पहचाना,
वह चित्र न मुझ पर से उतरा,
उस को ही पूरा करने में
मुझ को भी पूर्ण न होने का वरदान मिला;
मैं चलता जाऊँगा इतिहासों के ऊपर
यद्यपि पाषाण हुआ जाता ।

12. बुद्ध

आज लौटती जाती है पदचाप युगों की,
सदियों पहले का शिव-सुन्दर मूर्तिमान हो
चलता जाता है बोझीले इतिहासों पर
श्वेत हिमालय की लकीर-सा ।
प्रतिमाओं-से धुँधले बीते वर्ष आ रहे,
जिन में डूबी दिखती
ध्यान-मग्न तसवीर, बोधि-तरु के नीचे की ।
जिसे समय का हिम न प्रलय तक गला सकेगा
देश-देश से अन्तहीन वह छाया लौटी-
और लौटते आते हैं वे मठ, विहार सब,
कपिलवस्तु के भवनों की वह कांचन माला
जब सागर, वन की सीमाएं लाँघ गये थे
कुटियों के सन्देश प्यार के ।
महलों का जब स्वप्न अधूरा
पूर्ण हुआ था शीतल, मिट्टी के स्तूपों की छाया में।

वैभव की वे शिलालेख-सी यादें आतीं,
एक चाँदनी-भरी रात उस राजनगर की,
रनिवासों की नंगी बांहों-सी रंगीनी
वह रेशमी मिठास मिलन के प्रथम दिनों की-

13. नया कवि

जो अंधेरी रात में भभके अचानक
चमक से चकचौंध भर दे
मैं निरंतर पास आता अग्निध्वज हूँ

कड़कड़ाएँ रीढ़
बूढ़ी रूढ़ियों की
झुर्रियाँ काँपें
घुनी अनुभूतियों की
उसी नई आवाज़ की उठती गरज हूँ।

जब उलझ जाएँ
मनस गाँठें घनेरी
बोध की हो जाएँ
सब गलियाँ अंधेरी
तर्क और विवेक पर
बेसूझ जाले
मढ़ चुके जब
वैर रत परिपाटियों की
अस्मि ढेरी

जब न युग के पास रहे उपाय तीजा
तब अछूती मंज़िलों की ओर
मैं उठता कदम हूँ।

जब कि समझौता
जीने की निपट अनिवार्यता हो
परम अस्वीकार की
झुकने न वाली मैं कसम हूँ।

हो चुके हैं
सभी प्रश्नों के सभी उत्तर पुराने
खोखले हैं
व्यक्ति और समूह वाले
आत्मविज्ञापित ख़जाने
पड़ गए झूठे समन्वय
रह न सका तटस्थ कोई
वे सुरक्षा की नक़ाबें
मार्ग मध्यम के बहाने
हूँ प्रताड़ित
क्योंकि प्रश्नों के नए उत्तर दिए हैं
है परम अपराध
क्योंकि मैं लीक से इतना अलग हूँ।

सब छिपाते थे सच्चाई
जब तुरत ही सिद्धियों से
असलियत को स्थगित करते
भाग जाते उत्तरों से
कला थी सुविधा परस्ती
मूल्य केवल मस्लहत थे
मूर्ख थी निष्ठा
प्रतिष्ठा सुलभ थी आडम्बरों से
क्या करूँ
उपलब्धि की जो सहज तीखी आँच मुझमें
क्या करूँ
जो शम्भु धनु टूटा तुम्हारा
तोड़ने को मैं विवश हूँ।

14. दो पाटों की दुनिया

दो पाटों की दुनिया
चारों तरफ शोर है,
चारों तरफ भरा-पूरा है,
चारों तरफ मुर्दनी है,
भीड और कूडा है।

हर सुविधा
एक ठप्पेदार अजनबी उगाती है,
हर व्यस्तता
और अधिक अकेला कर जाती है।

हम क्या करें-
भीड और अकेलेपन के क्रम से कैसे छूटें?

राहें सभी अंधी हैं,
ज्यादातर लोग पागल हैं,
अपने ही नशे में चूर-
वहशी हैं या गाफिल हैं,

खलानायक हीरो हैं,
विवेकशील कायर हैं,
थोडे से ईमानदार-
हम क्या करें-
अविश्वास और आश्वासन के क्रम से कैसे छूटें?

तर्क सभी अच्छे हैं,
अंत सभी निर्मम हैं,
आस्था के वसनों में,
कंकालों के अनुक्रम हैं,

प्रौढ सभी कामुक हैं,
जवान सब अराजक हैं,
बुध्दिजन अपाहिज हैं,
मुंह बाए हुए भावक हैं।

हम क्या करें-
तर्क और मूढता के क्रम से कैसे छूटें!

हर आदमी में देवता है,
और देवता बडा बोदा है,
हर आदमी में जंतु है,
जो पिशाच से न थोडा है।

हर देवतापन हमको
नपुंसक बनाता है
हर पैशाचिक पशुत्व
नए जानवर बढाता है,

हम क्या करें-
देवता और राक्षस के क्रम से कैसे छूटें?

बरसों के बाद कभी
बरसों के बाद कभी,
हम-तुम यदि मिलें कहीं,
देखें कुछ परिचित से,
लेकिन पहिचानें ना।
याद भी न आए नाम,
रूप, रंग, काम, धाम,
सोचें,
यह सम्भव है-
पर, मन में मानें ना।

हो न याद, एक बार
आया तूफान, ज्वार
बंद, मिटे पृष्ठों को-
पढने की ठानें ना।

बातें जो साथ हुईं,
बातों के साथ गईं,
आंखें जो मिली रहीं-
उनको भी जानें ना।

15. छाया मत छूना

छाया मत छूना मन
होता है दुख दूना मन

जीवन में हैं सुरंग सुधियाँ सुहावनी
छवियों की चित्र-गंध फैली मनभावनी;
तन-सुगंध शेष रही, बीत गई यामिनी,
कुंतल के फूलों की याद बनी चाँदनी।

भूली-सी एक छुअन
बनता हर जीवित क्षण
छाया मत छूना मन
होगा दुख दूना मन

यश है न वैभव है, मान है न सरमाया;
जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया।
प्रभुता का शरण-बिंब केवल मृगतृष्‍णा है,
हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्‍णा है।

जो है यथार्थ कठिन
उसका तू कर पूजन-
छाया मत छूना मन
होगा दुख दूना मन

दुविधा-हत साहस है, दिखता है पंथ नहीं
देह सुखी हो पर मन के दुख का अंत नहीं।
दुख है न चाँद खिला शरद-रात आने पर,
क्‍या हुया जो खिला फूल रस-बसंत जाने पर?

जो न मिला भूल उसे
कर तू भविष्‍य वरण,
छाया मत छूना मन
होगा दुख दूना मन