तार सप्तक : गजानन माधव मुक्तिबोध

Taar Saptak : Gajanan Madhav Muktibodh

1. आत्मा के मित्र मेरे

वह मित्र का मुख
ज्यों अतल आत्मा क्यारी बन गयी साक्षात् निज सुख ।
वह मधुरतम हास
जैसे आत्म-परिचय सामने ही आ रहा है मूर्त हो कर ।
जो सदा ही मम हृदय-अन्तर्गत छिपे थे
वे सभी आलोक खुलते जिस सुमुख पर !
वह हमारा मित्र है,
आत्मीयता के केन्द्र पर एकत्र सौरभ ! वह बना
मेरे हृदय का चित्र है !
जो हृदय-सागर युगों से लहरता,
आनन्द में व्याकुल चला आता
कि नीला गोल क्षण-क्षण गूंजता है,
उस जलधि की श्याम लहरों पर जुड़ा आता
सघनतम श्वेत, स्वर्गिक फेन, चंचल फेन !
जिस को नित लगाने निज मुखों पर स्वप्न की मृदु मूर्तियों-सी
अप्सराएँ सांझ-प्रात:
मृदु हवा की लहर पर से सिन्धु पर रख अरुण तलुए
उतर आतीं, कान्तिमय नव हास ले कर ।
उस जलधि की युग-युगों की अमल लहरों पर
जुड़ा जो फेन,
अन्तर के अतल हिल्लोल का जो बाह्य है सौन्दर्य-
कोमल फेन ।
जिस के आत्म-मन्दिर में समर्पित,
दु:ख-सुखों की साँझ-प्रात: जो अकेला
याद आता मुख हमें नित !
काल की, परिवर्तनों की तीव्र धारा में बहा जाता
मधुरतम साथ जिस का,
प्राण की उत्थान-गति की तीव्रता में
बह रहा उच्छ्वास जिस का,
जो हमारी प्यास में नित पास है-
व्यक्तित्व का सौरभ लिये, व्याकुल निशा-सा
निकटता के निज क्षणों में
जो कि उर की बालिका का मौनतम विश्वास है ।
जो झेलता मेरे हृदय को निज हृदय पर
आत्मउन्मुक्तीकरण की खुली बेला में कि जब
दो आत्माएं
बालकों-सी नग्न हो कर खड़ी रहतीं
दिव्य नयनों में सहजता-बोध नीलालोक ले कर !
वह परस्पर की मृदुल पहचान, जैसे पूर्ण
चन्दा खोजता हो
उमड़ती नि:सीम निस्तल
कूलहीना श्यामला जल-राशि में प्रतिबिम्ब अपना,
हास अपना,
वह परस्पर की मृदुल पहचान जैसे
अतल-गर्भा भव्य धरती हृदय के निज कूल पर
मृदु स्पर्श कर पहचान करती, गूढ़तम उस विशद
दीर्घच्छाय श्यामल-काय बरगद वृक्ष की,
जिसके तले आश्रित अनेकों पाण
जिसके मूल पृथ्वी के हृदय में टहल आये, उलझ आये :

मित्र मेरे,
आत्मा के एक !
एकाकीपने के अन्यतम प्रतिरूप ।
जिस से अधिक एकाकी हृदय ।
कमज़ोरियों के एकमेव दुलार
मित्रता में विकस ले, वह तुम अभिन्न विचार
बुद्धि की मेरी शलाका के अरुणतम नग्न जलते तेज
कर्म के चिर-वेग में उर-वेग के उन्मेष ।
पितृ-मन की स्नेह-सीमा का जहाँ है अन्त,
छल-छल मातृ-उर के क्षेम-दर्शन के परे जो लोक,
पत्नी के समर्पण-देश की गोधूलि-सन्ध्या के क्षितिज के पार,
जो विस्तृत बिछा है प्रान्त
तन्मय-तिमिर छाया है जहाँ हिल-डोल से भी दूर,
है केवल अकेला व्योम ऊपर श्याम,
नीचे तिमिरशायी अचल धरती भी अकेली एक,
तरु के तले भी केवल अकेला मौन,
जिस की दीर्घ शाखाएँ बिछीं निस्संग
जैसे लटकती है एक स्मृति-पहचान, मन के
तिमिर-कोने में त्यजित,
पत्ते भी खड़े चुपचाप सीने तान-
अपनी व्यक्तिमत्ता के सहारे जो चले हैं प्राण,
उन को कौन देता है
अचल विश्वास का वरदान !
उन को कौन देता हैं प्रखर आलोक
खुद ही जल
कि जैसे सूर्य !
अपने ही हृदय के रक्त की ऊषा
पथिक के क्षितिज पा बिछ जाय,
जिससे यह अकेला प्रान्त भी नि:सीम परिचय की मधुर
संवेदना से
आतमवत् हो जाय
ऐसी जिम मनस्वी की मनीषा,
वह हमारा मित्र है
माता-पिता-पत्नी-सुहृद् पीछे रहे हैँ छूट
उन सव के अकेले अग्र में जो चल रहा है
ज्वलत् तारक-सा,
वही तो अत्मा का मित्र है ।
मेरे हृदय का चित्र है ।

2. दूर तारा

तीव्र–गति
अति दूर तारा
वह हमारा शून्य के विस्तार नीले में चला है !

और नीचे लोग उस को देखते हैं, नापते हैं गति, उदय औ’ अस्त का इतिहास !
किंतु इतनी दीर्घ दूरी
शून्य के उस कुछ-न-होने से बना जो नील का आकाश
वह एक उत्तर
दूरबीनों की सतत आलोचनाओं को
नयन-आवर्त के सीमित निदर्शन या कि दर्शन-यत्न को !
वे नापने वाले लिखें उस के उदय औ’ अस्त कि गाथा
सदा ही ग्रहण का विवरण !
किंतु वह तो चला जाता
व्योम का राही
भले ही दृष्टि के बाहर रहे- उस का विपथ ही बना जाता !

और जाने क्यों, मुझे लगता कि ऐसा ही अकेला नील तारा
तीव्र-गति
जो शून्य मे निस्संग
जिस का पथ विराट-
वह छिपा प्रत्येक उर में
प्रति ह्रदय के कल्मषों के बाद भी है शून्य नीलाकाश !
उसमें भागता है एक तारा
जो कि अपने ही प्रगति पथ का सहारा
जो कि अपना ही स्वयं बन चला चित्र
भीतिहीन विराट-पुत्र !
इसलिए प्रत्येक मनु के पुत्र पर विश्वास करना चाहता हूँ !

3. खोल आँखें

जिस देश प्राणों की जलन में
एक नूतन स्वप्न का संचार हो,
ओ हृदय मेरे, उस ज्वलन की भूमि में बिछ जा स्वयं ही;
औ' तड़प कर उस निराले देश में तू खोल आँखें।
देख-जलते स्पन्दनों में क्या उलझता ही गया हैं;
जो नयी चिनगारियां
नव स्वप्न का आलोक ले
उत्पन्न होती जा रही हैं,
उन सबलतम, तीव्र, कोमल देश की
चिनगारियों में
जो खिले हैं स्वप्न रक्तिम,
देख ले जी-भर उन्हें तू।
उस असीम विकल रस को पी स्वयं भी।
यह महा-व्याकुल अनावृत ज्ञान-लिप्सा
रख रही निज में अनावृत एक सपना-
सहस्रों स्वर्गीय स्वप्नों से बृहत्तर
स्वप्न का यह व्योम नीला
प्राण-पृथ्वि पर झुका है ।
उस महा-व्याकुल अनावृत ज्ञानलिप्सा
के क्षितिज पर
जो खिंचा है स्वप्न-
श्रावण-सांझ के वितरित घनों पर
अमित, नीला, जामुनी, अति लाल, सुन्दर
दिवस की बरसात को सूर्यास्त का चुम्बन
कि ऐसा अद्वितीय
मधुरतम
आश्चर्यमय ।
वह ज्ञान-लिप्सा-क्षितिज-सपना
रे, वही तुझमें अनेक स्वप्न देगा औ' अनेकों सत्य के शिशु
नव हृदय के गर्भ में द्रुत
आ चलेंगे ।

आत्मा मेरी--
उस ज्वलन की भूमि में तू स्वयं बिछ ले
देख, जलते स्पन्दनों में क्या उलझता ही गया है ।

4. अशक्त

क्या हमारे भाव शब्दातीत हैं ?
या तुम्हारा रुप भावातीत है ?
हम न गा सकते तुम्हारा गीत हैं
वह हृदय गम्भीर, नीरव सिक्त है !

यह विशद जीवन कि जो आकाश-सा
या कि निर्झर-सा चपल लघु तीव्र है,
क्या पूर्ण है ? क्या तृप्ति पाता शीघ्र है,
वह ग्रीष्म-सा है या मदिर मधुमास-सा ?

हम लिखें कविता विरह पर, दु:ख पर
या मधुर आराधना पर, युद्ध पर;
या रचें विज्ञान जीवन के बने-
प्रश्नमय जो अंग सन्तत क्रुद्ध पर ?

खींच लें हम चित्र जीवन में बहे
रम्य मिश्रित रंग-धारा के नवल,
चकित हो लें, उल्लसित हो लें कभी
दुख ढो लें, तत्व-चिन्ता कर सकल

किन्तु यह सब तो सतह की चीज़ है,
भार बन मेरे हृदय पर छा रही ।
या कि बहते सरित के ऊपर तहें
बर्फ़ की जमती चली ही जा रहीं ।

पान्थ है प्यासा, थका-सा धूप में
पीठ पर है ज्ञान की गठरी बड़ी,
झुक रही है पीठ, बढ़ता बोझ है
यह रही बेगार की यात्रा कड़ी ।

अर्थ-खोजी प्राण ये उद्दाम हैं,
अर्थ क्या ? यह प्रश्न जीवन का अमर
क्या तृषा मेरी बुझेगी इस तरह ?
अर्थ क्या ? ललकार मेरी है प्रखर ।

जब कि ऐसा ज्ञान मेरे प्राण में
तृप्ति-मधु उत्पन्न करता ही नहीं,
जब कि जीवन में मधुर सम्पन्नता,
ताज़गी, विश्वास आता ही नहीं;

जब कि शंकाकुल तृषित मन खोजता
बाहरी मरु में अमल जल-स्रोत है,
क्यों न विद्रोही बनें ये प्राण जो
सतत अन्वेषी सदा प्रद्योत हैं ?

जब कि अन्दर खोखलापन कीट-सा
है सतत घर कर रहा आराम से,
क्यों न जीवन का बृहद् अश्वत्थ यह
डर चले तूफ़ान के ही नाम से !

5. मेरे अन्तर

मेरे अन्तर, मेरे जीवन के सरल यान,
तू जब से चला, रहा बेघर,
तन गृह में हो, पर मन बाहर,
आलोक-तिमिर, सरिता-पर्वत कर रहा पार !
वह सहज उठा ले चला सुदृढ़ तपते जीवन का महा ज्वार,
उसके द्रुत-गति प्रति पदक्षेप से झंकृत हो उठ रहा गान,
जो नव्य तेज का भव्य भान ।

घर की स्नेहल-कोमल छाया में रहा महा चंचल अधीर ।
वे मृदुल थपकियां स्नेह-भरी,
वे शशि-मुसकानें शुभंकरी,
सब को पाया, सब को झेला पर स्वयं अकेला बढ़ा धीर ।
जीवन-तम को संगीत-मधुर करता उर-सरि का वन्य नीर,
ऐसा प्रमत्त जिस का शरीर, उन्मत्त प्राण-मन विगत-पीर !!

यह नहीं कि वह था तुंग पुरुष
जो स्वयं पूर्ण गत-दु:ख-हर्ष
पर ले उस के धन ज्योतिष्कण जो बढ़ा मार्ग पर अति अजान ।
उसके पथ पर पहरा देते ईसा महान् वे स्नेहवान् ।
छाया बनकर फिरते रहते वे शुद्ध बुद्ध सम्बुद्ध-प्राण ।।
यह नहीं कि करता गया पुण्य,
उसका अन्तर था सरल वन्य,
तम में घुस कर चक्कर खा कर वह करता गया अबाध पाप ।
अपनी अक्षमता में लिपटी यह मुक्ति हो गयी स्वयं शाप ।
पर उसके मन में बैठा वह जो समझौता कर सका नहीं,
जो हार गया, यद्यपि अपने से लड़ते-लड़ते थका नहीं;
उस ने ईश्वर-संहार किया, पर निज ईश्वर पर स्नेह किया ।
स्फुरणा के लिए स्वयं को ही नव स्फूर्ति-स्रोत का ध्येय किया
वह आज पुन: ज्योतिष्कण हित
घन पर अविरत करती प्रहार,
उठते स्फुलिंग
गिरते स्फुलिंग
उन ज्योंति-क्षणों में देख लिया
करता वह सत्य महदाकार !
सन्नद्ध हुआ वह ज्वाल-विद्ध करने को सारा तम-पसार,
वह जन है जिसके उच्व-भाल पर
विश्व-भार, औ' अन्तर में
नि:सीम प्यार !!

6. मृत्यु और कवि

घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, निस्तब्ध वनान्तर
व्यापक अंधकार में सिकुड़ी सोयी नर की बस्ती भयकर
है निस्तब्ध गगन, रोती-सी सरिता-धार चली गहराती,
जीवन-लीला को समाप्त कर मरण-सेज पर है कोई नर
बहुत संकुचित छोटा घर है, दीपालोकित फिर भी धुंधला,
वधू मूर्छिता, पिता अर्ध-मृत, दुखिता माता स्पंदन-हीन
घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, कवि का मन गीला
"ये सब क्षनिक, क्षनिक जीवन है, मानव जीवन है क्षण-भंगुर" ।

ऐसा मत कह मेरे कवि, इस क्षण संवेदन से हो आतुर
जीवन चिंतन में निर्णय पर अकस्मात मत आ, ओ निर्मल !
इस वीभत्स प्रसंग में रहो तुम अत्यंत स्वतंत्र निराकुल
भ्रष्ट ना होने दो युग-युग की सतत साधना महाआराधना
इस क्षण-भर के दुख-भार से, रहो अविचिलित, रहो अचंचल
अंतरदीपक के प्रकाश में विणत-प्रणत आत्मस्य रहो तुम
जीवन के इस गहन अटल के लिये मृत्यु का अर्थ कहो तुम ।

क्षण-भंगुरता के इस क्षण में जीवन की गति, जीवन का स्वर
दो सौ वर्ष आयु होती तो क्या अधिक सुखी होता नर?
इसी अमर धारा के आगे बहने के हित ये सब नश्वर,
सृजनशील जीवन के स्वर में गाओ मरण-गीत तुम सुंदर ।
तुम कवि हो, यह फैल चले मृदु गीत निर्बल मानव के घर-घर
ज्योतित हों मुख नवम आशा से, जीवन की गति, जीवन का स्वर ।

7. नूतन अहं

कर सको घृणा
क्या इतना
रखते हो अखण्ड तुम प्रेम ?
जितनी अखण्ड हो सके घृणा
उतना प्रचण्ड
रखते क्या जीवन का व्रत-नेम ?
प्रेम करोगे सतत ? कि जिस से
उस से उठ ऊपर बह लो
ज्यों जल पृथ्वी के अन्तरंग
में घूम निकल झरता निर्मल वैसे तुम ऊपर वह लो ?
क्या रखते अन्तर में तुम इतनी ग्लानि
कि जिस से मरने और मारने को रह लो तुम तत्पर ?
क्या कभी उदासी गहिर रही
सपनों पर, जीवन पर छायी
जो पहना दे एकाकीपन का लौह वस्त्र, आत्मा के तन पर ?
है ख़त्म हो चुका स्नेह-कोष सब तेरा
जो रखता था मन में कुछ गीलापन
और रिक्त हो चुका सर्व-रोष
जो चिर-विरोध में रखता था आत्मा में गर्मी, सहज भव्यता,
मधुर आत्म-विश्वास ।
है सूख चुकी वह ग्लानि
जो आत्मा को बेचैन किये रखती थी अहोरात्र
कि जिस से देह सदा अस्थिर थी, आँखें लाल, भाल पर
तीन उग्र रेखाएँ, अरि के उर में तीन शलाकाएँ सुतीक्ष्ण,
किन्तु आज लघु स्वार्थों में घुल, क्रन्दन-विह्वल,
अन्तर्मन यह टार रोड के अन्दर नीचे बहाने वाली गटरों से भी
है अस्वच्छ अधिक,
यह तेरी लघु विजय और लघु हार ।
तेरी इस दयनीय दशा का लघुतामय संसार
अहंभाव उत्तुंग हुआ है तेरे मन में
जैसे घूरे पर उट्ठा है
धृष्ट कुकुरमुत्ता उन्मत्त ।

8. विहार


रवि का प्रकाश,
शशि का विकास-
पुंसत्वहीन नर का विलास ।
ये सूर्य-चन्द्र,
नभ-वक्ष लुब्ध,
वे अमित वासना के शिकार ।
वे गगन दीन
वे रसिक रुग्ण,
पुंसत्वहीन वेश्या-विहार ।
इन का प्रकाश
जग के विशाल
शव का सफ़ेद परिधान साफ़ ।
है त्यक्त गेह
आत्मा अदेह
उड़ चली गटर से बनी भाफ़ ।


दिन के बुख़ार
रात्रि की मृत्यु
के बाद हृदय पुंसत्वहीन,
अन्तर्मनुष्य
रिक्त-सा गेह
दो लालटेन-से नयन दीन;
निष्प्रान स्तम्भ
दो खड़े पाँव
लकड़ी का खोखा वक्ष रिक्त;
मस्तिष्क तेल
की है मशीन
संसार-क्षेत्र है तैल-सिक्त ।
दिन के बुख़ार
रात्रि की मृत्यु
के बाद हृदय दु:ख का नरक,
रात्रि के शून्य
दो देह युक्त-
दो रिक्त प्राण व्यंग्य में ग़र्क !

9. पूंजीवादी समाज के प्रति

इतने प्राण, इतने हाथ, इनती बुद्धि
इतना ज्ञान, संस्कृति और अंतःशुद्धि
इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति
यह सौंदर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर-भक्ति
इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद –
जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बंध
इतना गूढ़, इतना गाढ़, सुंदर-जाल –
केवल एक जलता सत्य देने टाल।
छोड़ो हाय, केवल घृणा औ' दुर्गंध
तेरी रेशमी वह शब्द-संस्कृति अंध
देती क्रोध मुझको, खूब जलता क्रोध
तेरे रक्त में भी सत्य का अवरोध
तेरे रक्त से भी घृणा आती तीव्र
तुझको देख मितली उमड़ आती शीघ्र
तेरे ह्रास में भी रोग-कृमि हैं उग्र
तेरा नाश तुझ पर क्रुद्ध, तुझ पर व्यग्र।
मेरी ज्वाल, जन की ज्वाल होकर एक
अपनी उष्णता में धो चलें अविवेक
तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ
तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ।

10. नाश देवता

घोर धनुर्धर, बाण तुम्हारा सब प्राणों को पार करेगा,
तेरी प्रत्यंचा का कंपन सूनेपन का भार हरेगा
हिमवत, जड़, निःस्पंद हृदय के अंधकार में जीवन-भय है
तेरे तीक्ष्ण बाणों की नोकों पर जीवन-संचार करेगा ।

तेरे क्रुद्ध वचन बाणों की गति से अंतर में उतरेंगे,
तेरे क्षुब्ध हृदय के शोले उर की पीड़ा में ठहरेंगे
कोपुत तेरा अधर-संस्फुरण उर में होगा जीवन-वेदन
रुष्ट दृगों की चमक बनेगी आत्म-ज्योति की किरण सचेतन ।

सभी उरों के अंधकार में एक तड़ित वेदना उठेगी,
तभी सृजन की बीज-वृद्धि हित जड़ावरण की महि फटेगी
शत-शत बाणों से घायल हो बढ़ा चलेगा जीवन-अंकुर
दंशन की चेतन किरणों के द्वारा काली अमा हटेगी ।

हे रहस्यमय, ध्वंस-महाप्रभु, जो जीवन के तेज सनातन,
तेरे अग्निकणों से जीवन, तीक्ष्ण बाण से नूतन सृजन
हम घुटने पर, नाश-देवता ! बैठ तुझे करते हैं वंदन
मेरे सर पर एक पैर रख नाप तीन जग तू असीम बन ।

11. सृजन-क्षण

जो कि तुम्हारे गर्त बने हैं अक्षमता के,
उन पर लहरा कर भरता मैं एक अवज्ञा ।
वही गम्भीर अतल होते हैं,
वे ही सदा अमल होते हैं,
फिर जाती जिन पर वन्या-सी मेरी प्रज्ञा ।
जब कि स्वयं मैं सुज्ञ बना हूँ
अज्ञों का अन्तर पा कर ही,
सदा रहूँ उन का चाकर ही
वे कि जिन्होंने आत्मरक्त से मुझ को सींचा।
कैसे हंस सकता हूँ मैं उन पर ही ।
उन की मर्यादाएँ पा कर
दरिया अमर्याद लहराया,
अपने स्वर में स्वरातीत गीता दुलराता
मैंने अरे उसी को पाया ।
वे अपूर्णताएँ, ईर्ष्याएं
मुझ में घुल कर धुल कर बनतीं सूर्य सनातन,
यह छिछलापन लघु अन्तर का
क्षण-क्षण नूतन को करता है शीघ्र पुरातन: ।
यों नूतन की विजय चिरन्तन,
महामरण पर महाजन्म का उदय क्षिप्रतर,
महाभयंकर से बहता है परम शुभंकर ।

जो खण्डित औ' भग्न रहे हैं,
वे अखण्ड देवता उन्हीं के
मुझ में आ कर मग्न हुए हैं।
ये आँसू, ये चिन्ता के क्षण मुझ में आ कर, पा परिवर्तन
जग के सम्मुख नग्न हुए हैं ।

ओ रे, भग्न नग्न मलिनों के
खण्डित उग्र विकल के सागर,
ओ कुरूप वीभत्स सनातन
की प्रतिनिधि प्रतिभा के आगर,
अरे, अशिव बौने मस्तक के
चिरविद्रूप स्वप्न आत्मान्तक,
अरे अमंगल हास, घृणित आनन्द,
मरण के सदा उपासक,
भय मत खायो, अरे पिशाचो,
जब कि सत्य तुम बने हुए हो ।
अन्धकार में, किसी आड़ में,
किसी झाड़ की छाया में तुम
क्यों छिपते हो ? अरे भयंकर
द्रण-से जग की काया में तुम !
मैं स्वागत करता हूँ सबका,

क्योंकि प्रकृति से सूर्य-सत्य हूं।
और जब कि तुम भव्य तने हो
मुझ में जलते स्वर्न बनोगे
ज्वालायों का नग्न नृत्य हूं,

नभ की पृष्ठभूमि पर मेरी ज्वाला की छाया फिरती है,
काल झुलसता है, मुझ से सब तस्वीरें बनती गिरती हैँ।

पर यह कैसे ? जब कि तुम्हारे
लिए बना हूँ मैं प्रखर-प्रभ,
मेरे स्वर्ण-स्पर्श से आकुल
होता है अपार जीवन-नभ ।

मैं उत्साह अनन्त, और तुम क्यों उदास अति अक्षम ?
मेरी ममता हो जाती है पर कठोर औ' निर्मम ।
गर्वशील मुझ को मत समझो,
किन्तु भार गुरु पा कर मैं भी
निज नयनों में हुआ भव्य हूं, उत्साहत हूँ ।
यह उत्साह सफ़ेद ज्वाल है
जो कि कलुष का महाकाल है,

इसमें पइ कर तुम भी श्वेत बनोगे तप कर।
नाप कौन पायेगा तुम को
आओगे जब इससे नप कर ।

मैं केवल तुम पर जीवित हूँ
मेरी सांस, किन्तु तेरा तन,
मेरी आस और तेरा मन,
तू है हृदय और मैं लोचन
मैं हूँ पूर्ण, अपूर्ण झेल कर ।
मैं अखण्ड, खण्डित प्रतिभा पर ।

मैं मैली आँखों के अन्दर ज्योति गुप्त हूँ ।
मैं मैले अन्तर के तल में
घन सुषुप्त आत्मा प्रतप्त हूँ।

मैं हूँ नम्र धुनि के कण-सा,
मैं अजस्र पृथ्वी के मन-सा,
घन मृत्कण में सृजन-क्षण मैं,
मलिनों में रह अग्नि-बिन्दु हूं,
जीवन की सौन्दर्य-शान्ति में
नभोविहारी शरद-इन्दु हूँ।

शुभ्रारुण किरणों से बिम्बित
रजत-नील सर उत्कट उज्जवल
जिस में अनलोर्मिल, अनिलोर्मिल
कमल खिले है वे रक्तोत्पल ।

मनोमूर्ति यह चिरप्रतीक है ।
ध्येय-धृष्ट उर की ज्वालामय ।
मेरी प्रज्ञा का सृजन-क्षण
ऐसा उष्ण शुभंकर तन्मय ।

12. अन्तर्दर्शन

मैं अपने से ही सम्मोहित, मन मेरा डूबा निज में ही ।
मेरा ज्ञान उठा निज में से, मार्ग निकाला अपने से ही।।
मैं अपने में ही जब खोया तो अपने से ही कुछ पाया ।
निज का उदासीन विश्लेषण आँखों में आंसू भर लाया।।
मेरा जग से द्रोह हुआ पर मैं अपने से ही विद्रोही ।
गाते असन्तोष की ज्वाला सुलग जलाती है मुझ को ही।।
आत्मवंचना-पीड़ित मेरा तिमिर-मगन उर बिम्बित मुख पर ।
सिहर उठा मैं अश्रु-मलिन-मुख अपने अन्तर के दर्शन कर।।
मैंने मरण-चिन्तना की, जब जीवन का था दर्द बढ़ चला ।
मानवता का कटु आलोचक अपने को ही दण्ड दे चला।।
मेरा मन गलता निज में जब अपने से ही हार खा चुका।
दारुण क्षोभ--अग्नि में अपना प्रायश्चित-प्रसाद पा चूका।।
रक्त स्रोत अन्तर से फूटा, लाल-लाल फ़व्वार दु:ख का ।
आत्म-दाह की ज्वलित पिपासा के युग में आया क्षण सुख का।।
रक्त-स्रोत अन्तर से फूटा, मेरा गात शिथिल हिम-शीतल ।
मैंने साक्षात् मृत्यु देख ली एक रात सपने में उज्जवल।।
मैंने यह जब कहा किसी से तो कहलाया अपना ख़ूनी ।
जीवन-दाह-शांति-हित किसकी गोद अपेक्षित ऊनी-ऊनी।।

13. आत्म-संवाद

(यह एक नाटकीय आत्म-संवाद है जिसमें प्रकाश में बोलने के वाक्य कोष्ठकों
में नहीं हैं । जो कोष्ठक में हैं वे यथार्थ अल्प-स्वीकृतियाँ हैं; और जो उसके
बाहर हैं वे उसके यथार्थ रैशनलाइज़ेशन हैं । बाहरी ज़िन्दगी में ये रैशनलाइज़ेशन
काम में आते हैं; किन्तु कुछ क्षणों में मन की यथार्थ अवस्था एकाएक खिंच
आती है । तब इन दोनों का विरोध मन में चित्र-रुप-सा सामने आता है । उसी
को नाटकीय ढंग से पेश किया है ।)

आज छन्दों में उमड़ती आ रही है बात
जो कि सादे गद्य में खुलती रही
जो कि साधारण सड़क चलती रही
आज छाती में घुमड़ती आ रही है बात
रास्ता है, पैर हैं, औ धैर्य चलता जा रहा है
(किन्तु उर में क्यों उदासी शाप-सी
प्रत्येक चेहरे में लिपी जो राख-सी)
प्राण है, औ बुद्धि का भी कार्य चलता जा रहा है
वक्ष है, बल है, हृदय में ओज भी तो कम नहीं है
(किन्तु उर में अश्रु हैं अति म्लान भी
विवशता का है सहज अनुमान भी)
स्नेह है, आदर्श है, औ तेज भी तो कम नहीं है
तर्क है औ तर्क का राक्षस हमारे बाहु में है ।
(किन्तु चिन्ता गुनगुनाती असगुनी
मौन ले बैठी व्यथा बन कर मुनी)
चन्द्र का माधुर्य उर के राहु में है ।
चुप रहो तुम, तीर-सा आगे चला जाता सदा मैं ।
(भुनभुनाता यह हृदय चुपचाप है,
गुनगुनाता जो मनुज का शाप है)
निर्झरों-सा मैं चपल बहता चला गाता सदा मैं ।
मूर्ति मैं भव्योच्च, मृदु-गम्भीर तन्मय, पूजनीया
(किन्तु उर है हिम-कठिन निःसंज्ञ भी
हृदय में शंका भरी है अज्ञ-सी)
सत्य की व्याख्या स्वयं हूँ !! (जो सदा है शोधनीया)
सफल हूँ (पथभ्रष्ट हूँ) अविजेय हूँ (आधीन हूँ मैं)
हृदय में घुन-सा लगा रहता
(पाप यह दारुण जगा रहता)
मैं महाशोधक महाशय सत्य-जल का मीन हूँ मैं
सत्य का मैं ईश औ मैं स्वप्न का हूँ परम स्रष्टा
(किन्तु सपने ? प्राण का है बुरी हालत
और जर्जर देह; यह है खरी हालत)
उग्र-द्रष्टा मैं स्वयं हूँ जब कि दुनिया मार्ग-भ्रष्टा ।

14. व्यक्तित्व और खण्डहर

(व्यक्ति किन्हीं भी कारणों से विकेंद्रित हो, परन्तु उसके लिए पुकार अवचेतन
से, जो कि जीवन-शक्ति का रुप है, निकट सम्बन्ध रखती है । वह समग्रता की
ओर, मनस्संगठन की ओर का प्रयत्त केवल बुद्धिगत ही नहीं, शुद्ध जीवनगत
है । परन्तु यह विकेंद्रीकरण अन्तर्बाह्य-विरोध, परिस्थिति-विरोध, आत्मविरोधों
के द्वारा शुरु होता है ।
यह विकेंद्रित व्यक्तित्व, यानी व्यक्तित्व का खण्डहर किसी अबूझे समय में
अपने गत वैभव पर रो उठता है । उसी का कल्पनात्मक चित्रण निम्न कविता
में है ।)

खण्डहरों के मूक औ' निस्पन्द से
उमड़े अकेले गीत ।

ये भूत से निर्देह भय कर
बैचैन काले व्यथित आतुर
तिमिर नूपुर के अकेले स्वर,
उमड़े अकेले गीत ।

हुए चंचल भयद श्यामल
भूत सम आकुल अकेले गीत
रात में जब छा चुका खण्डहर तिमिर में,
तिमिर खण्डहर में,
घूमते उस कांपती-सी वायु के स्वर में
अकेले गीत ।

तम आवरण में लुप्त झरती धार के तट पर
रागिनी में म्लान-तन-मन-तरुण-रोदन-गीत
भर चला जाता विपिन के पात पुष्पों में प्रकम्पन
शिथिल उर गम्भीर सिहरन ।
ये अकेले गीत

दब चुकी जो मर चुकी है आत्मा,
ख़त्म जो हो ही गयी आकांक्षा,
व्यक्ति में व्यक्तित्व के खण्डहर
गान कर उठते उसी के गीत ।
ये अकेले गीत, स्वरलय-हीन गीत
मीन से बेचैन, लोचन-हीन गीत ।

शीत रजनी काँप उठती
भर विजन के गीत, खण्डहर गीत
ये अकेले गीत, पत्थर गीत, हिम के गीत
अन्धी गुफा के गीत !
बैचेन भूतों-से, व्यथित के स्वप्न-से वे गीत !
वे दुष्ट औ' दयनीय गीत,
कमज़ोर औ' कमनीय गीत,
उन्माद की तृष्णा सरीखे गीत !
स्वप्न की विक्षुब्ध सरिता के भयानक गीत !
निशि के अकेले औ' अचानक गीत !

विपिन औ' निर्झर,
तिमिर के घन आवरण में, भावना के इस मरण में
हैं हुए भय-स्तब्ध, तन निष्पन्द, दिग् रव-हीन
क्योंकि आलोड़ित हुआ विक्षुब्ध गीतों का महा तूफान,
ले तीक्ष्ण स्वर-सागर-उफान ।

तम शून्य में नभ के प्रवाहित हो चला भूचाल-सा यह गान
इस शीत स्वर के
कष्टदायी स्पर्श-शर-निर्झर प्रखर से
हुआ आप्लावित रुदित वन का सतत कमज़ोर प्रान्तर-प्राण
दब चुकी जो मर चुकी है आत्मा,
ख़त्म जो हो गयी, आकांक्षा ।

आज चढ़ बैठी अचानक, भूत-सी इस कांपते नर पर
विक्षुब्ध कम्पन बन चढ़ी जाती सरल स्वर पर
प्रश्न ले कर, कठिन उत्तर साथ ले कर,
रात के सिर पर चढ़ी है, नाश का यह गीत बन कर ।
हंस पड़ेगी कब सहज प्रकाश का यह गीत बन कर !

15. मैं उनका ही होता

मैं उनका ही होता जिनसे
मैंने रूप भाव पाए हैं।
वे मेरे ही हिये बंधे हैं
जो मर्यादाएँ लाए हैं।

मेरे शब्द, भाव उनके हैं
मेरे पैर और पथ मेरा,
मेरा अंत और अथ मेरा,
ऐसे किंतु चाव उनके हैं।

मैं ऊँचा होता चलता हूँ
उनके ओछेपन से गिर-गिर,
उनके छिछलेपन से खुद-खुद,
मैं गहरा होता चलता हूँ।

16. हे महान् !

हे महान् ! तव विस्तृत उर से
दृढ़ परिरम्भण की क्षमता दो,
तव स्नेहोष्ण हृदय का स्पन्दन
सुन पाने की आकुलता दो।
जिस से विवश रहस्य खोल दे
सत्य कि विद्युत विह्वलता दो !
जो तुझ से संघर्ष कर सके
ऐसी उर में कोमलता दो !
तुझ से कर संघर्ष, स्पर्श से
तेरे नव चेतनता आये,
तुझ से कर के युद्ध, क्रुद्ध हो
जीवन यह ऊँचा उठ जाये ।
तेरे तन के अणु-अणु से तव
निरावरणु हो अर्न्तज्वाला,
एक-एक अणु सत्य खोल दे
ऐसी सतह स्वयं चल आये।
तेरे उर की मर्म-ज्वाल को
मुक्त खोलने की ममता दो,
हे महान् तव विस्तृत उर से
दृढ परिरम्भण की क्षमता दो ।

17. एक आत्म-वक्तव्य

""‘और, जब
मेरा सिर दुखने लगता है,
धुंधले-धुंधले अकेले में, आलोचन-शील
अपने में से उठे धुएं की ही चक्करदार
सीढ़ियों पर चढ़ने लगता हूँ ।

और हर सीढ़ी पर लुढ़की पड़ी एक-एक देह,
आलोचन-हत मेरे पुराने व्यक्तित्व,
भूतपूर्व, भुगते हुए, अनगिनत 'मैं’ ।
उनके शवों, अर्ध-शवों पर ही रखकर
निज सर्व-स्पृश पैर,
मेरे साथ चलने लगता भावी-कर-बद्ध
मेरा वर्तमान ।

किन्तु पुनः-पुनः
उन्हीं सीढियों पर नए-नए आलोचक नेत्र,
(तेज नाकवाले तमतमाए-से मित्र)
खूब काट-छाँट और गहरी छील-छाल
रंदों और बसूलों से मेरी देख-भाल,
मेरा अभिनव संशोधन अविरत
क्रमागत ।

अभी तक
सिर में जो तड़फड़ाता रहा ब्रह्माण्ड,
लड़खड़ाती दुनिया का भूरा मानचित्र
चमकता है दर्द भरे अँधेरे में वह
क्रमागत कांड ।
उसमें नये-नये सवालों की झखमार;
थके हुए, गिरते-पड़ते, बढ़ने का दौर;
मार-काट करती हुई सदियों की चीख;
मुठभेड़ करते हुए स्वार्थों के बीच
भोले-भाले लोगों के माथे पर घाव ।
कुचले हुए इरादों के बाकी बचे धड़
अधकटे पैरों से ही लात मारकर
अपने जैसे दूसरों के लिए
सब करते हैं दरवाज़े बंद-
उलटे दिल दिमाग़ों में गुस्से की धुंध ।
अँधियाली गलियों में घूमता है,
तड़के ही, रोज़
कोई मौत का पठान
मांगता है ज़िंदगी जीने का ब्याज;
अनजाना क़र्ज़
मांगता है चुकारे में, प्राणों का मांस ।
हताहत स्वयं को ही दर्दीली रात-
जोड़-तोड़ करती हुई गहरी काट-छाँट;
रोज नई आफ़त, कोई नई वारदात ।
पूरे नहीं हो सके हैं मानवीय योग,
हर एक के पास अपने-अपने व गुप्त रोग,
(परेशान चिंतकों की दार्शनिक झींख)
उजली-उजली सफ़ेदी में
कोखों की शर्म;
(अधबने समाधानों)
भ्रूणों का, अँधेरे में,क्रमागत जन्म;
सृजन-मात्र उद्गार-धर्म !
सत्ताग्रही, अर्थाकांक्षी
शक्ति के कृत्य,
और मेरे प्राणों में
सत्यों के भयानक
केवल व्यंग-नृत्य,
व्यंग-नृत्य !!

उसी विश्व-यात्रा में, चट्टानों बीच,
किसी झुकी संवलायी सांझ
मुझे मिला
(हृदय-प्रकाश-सा) अकेले में
बिजली से जगमगाता घर,
जिसके इर्द-गिर्द
कुच्छ अंधियाले पेड़
मानो सधे हुए, घने
बहुत घने, बड़े-बड़े दर्द ।
अचानक घर में से निकल आया एक
चौड़े माथे वाला, भोला, प्रतिभा का पुत्र
दुबला बाल-मुख ।
पहचाना मुझे, और हंस चुप-चाप,
मेरे ख़ाली हाथों में रख गया
दीप्तिमान रत्न-
भयानक वीरानों में घूम कर
खोजा था जो सार-सत्य
आत्म-धन
छटपटाती किरनों का पारदर्शी कवार्ट्ज़,
किरनें कि आलोचनाशील, धारदार
उपादान
जिन की तेज़ नोकों से अकस्मात्
मेरी काट-छांट, छील-छाल
लगातार ।
इसी लिए, मेरी मूर्ति
अनबनी अधबनी अभी तक"

जिसे लिये कहीं जाऊं, सदा ही का प्रश्न ।
अपने इस अधबने-पने का ग़रीब
यह दृश्य
पा न जाय, सभायों में, कहीं तिरस्कार,
अर्थहीन समयों के द्वारा कहीं वह
निकाला न जाय ।
इसी लिए, मुझे प्रिय अपना अन्धकार,
गठरी में छिपा रखा निजी रेडियम,
सिर पर, टोकरी में
छिपाया है मैंने कोई यीशु,
अपना कोई शिशु ।

परन्तु, मैं किसी पेड़-पीछे-से झोंक
लाख-लाख आँखों से देखता हूँ दृश्य,
पूरे बने हुओं ही के ठाठदार अक्स,
ऐसा कुछ ठाठ-
मुझे गहरी उचाट,
लगता है वे मेरे राष्ट्र के नहीं हैँ।
उचटता ही रहता है दिल,
नहीं ठहरता कहीं,
ज़रा भी ।
यही मेरी बुनियादी ख़राबी ।

और, अब नये-नये मेरे मित्र-गण
मेरे पीछे आये हुए युवा-बाल-जन,
धरित्री के धन,
खोजता हूँ उन में ही
छटपटाती हुई मेरी छांह,
क्या कहीं वहाँ मेरा रूपक-उपमान,
छिपी हुई कहीं कोई गहरी पहचान,
समशील, समधर्मा कहीं कोई है ?

अच्छा है कि अटाले में फेंका गया मैं
एक प्रेम-पत्र,
किताबों में डाल, बन्द कर दी गई अक़्ल,
काली-काली गलियों में
फिरती हुई आदमी की शक्ल,
अच्छा है कि अँधेरे में इलाक़ा-बदर
मैं हूँ जवाबी ग़दर,
जिससे कि और ज़्यादा तैयारियां कर
आज नहीं कल फूट पड़ूंगा ज़रूर,
ज़रूर !

असंख्यक इत्यादि-जनों का मैं भाग
इसी लिए, अनदिखे,
सुलगाता धीरे से आग,
जिस के प्रकाश में, तंबियाये चेहरों पर आप
संवेदित ज्ञान की कांपती ही
उठती है भाप चुप-चाप"'
सच्चा है जहाँ असन्तोष,
मेरा वहाँ परिपोष ।
वहाँ दिवालों पर टंगते हैं भिन्न मान-चित्र,
चिनगियां बरसाते
लगातार विचारों के सत्र,
मेरे पात्र-चरित्रों की
आँखों की अंगारी ज्योति
ललक कर पढ़ती है मेरा प्रेम-पत्र ।
काँपता है वर्ग-मूल-अर्थ-भरा
त्रैराशिकी कोई स्मित स्निग्ध।
यथार्थों से चला हुआ
स्वर्गों तक पहुंचता है,
गणितों का किरणीला सेतु,
पृथ्वी के हेतु ।
लेकिन, हाँ, उसी के लिए दिन-रात
नये-नये रन्दों और बसूलों से
लगातार-लगातार
मेरी काट-छांट
उन की छील-छाल अनिवार ।
ऐसी उन भयानक क्रियाओं में रम
कटे-पिटे चेहरों के दाग़दार हम
बनाते हैं अपना कोई अलग दिक्-काल,
पृथक् आत्म-देश-
दृष्टि, आवेश !
क्षमा करें, अन्य-मति
अन्य-मुख मेरे परिजन !!

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