श्रीकृष्ण बाल-माधुरी : भक्त सूरदास जी

Shri Krishna Bal-Madhuri : Bhakt Surdas Ji

151. माखन बाल गोपालहि भावै

 माखन बाल गोपालहि भावै ।
भूखे छिन न रहत मन मोहन, ताहि बदौं जो गहरु लगावै ॥
आनि मथानी दह्यौ बिलोवौं, जो लगि लालन उठन न पावै ।
जागत ही उठि रारि करत है, नहिं मानै जौ इंद्र मनावै ॥
हौं यह जानति बानि स्याम की, अँखियाँ मीचे बदन चलावै ।
नंद-सुवन की लगौं बलैया, यह जूठनि कछु सूरज पावै ॥

राग सूहौ

152. भोर भयौ मेरे लाड़िले

भोर भयौ मेरे लाड़िले, जागौ कुँवर कन्हाई ।
सखा द्वार ठाढ़े सबै, खेलौ जदुराई ॥
मोकौं मुख दिखराइ कै, त्रय-ताप नसावहु ।
तुव मुख-चंद चकोर -दृग मधु-पान करावहु ॥
तब हरि मुख-पट दूरि कै भक्तनि सुखकारी ।
हँसत उठे प्रभु सेज तैं, सूरज बलिहारी ॥

राग बिलावल

153. भोर भयौ जागो नँदनंदन

भोर भयौ जागो नँदनंदन ।
संग सखा ठाढ़े जग-बंदन ॥
सुरभी पय हित बच्छ पियावैं ।
पंछी तरु तजि दहुँ दिसि धावैं ॥
अरुन गगन तमचुरनि पुकार्‌यौ ।
सिथिल धनुष रति-पति गहि डार्‌यौ ॥
निसि निघटी रबि-रथ रुचि साजी ।
चंद मलिन चकई रति-राजी ॥
कुमुदिन सकुची बारिज फूले ।
गुंजत फिरत अलि-गन झूले ॥
दरसन देहु मुदित नर-नारी ।
सूरज-प्रभु दिन देव मुरारी ॥

154. न्हात नंद सुधि करी स्यामकी

न्हात नंद सुधि करी स्यामकी, ल्यावहु बोलि कान्ह-बलराम ।
खेलत बड़ी बार कहुँ लाई, ब्रज भीतर काहू कैं धाम ॥
मेरैं संग आइ दोउ बैठैं, उन बिनु भोजन कौने काम ।
जसुमति सुनत चली अति आतुर, ब्रज-घर-घर टेरति लै नाम ॥
आजु अबेर भई कहुँ खेलत, बोलि लेहु हरि कौं कोउ बाम ।
ढूँढ़ति फिरि नहिं पावति हरि कौं, अति अकुलानी , तावति घाम ॥
बार-बार पछिताति जसोदा, बासर बीति गए जुग जाम ।
सूर स्याम कौं कहूँ न पावति, देखे बहु बालक के ठाम ॥

राग सारंग

155. कोउ माई बोलि लेहु गोपालहि

कोउ माई बोलि लेहु गोपालहि ।
मैं अपने कौ पंथ निहारति, खेलत बेर भई नँदलालहि ॥
टेरत बड़ी बार भई मोकौ, नहिं पावति घनस्याम तमालहि ।
सिध जेंवन सिरात नँद बैठे, ल्यावहु बोलि कान्ह ततकालहि ॥
भोजन करै नमद सँग मिलि कै, भूख लगी ह्वै है मेरे बालहि ।
सूर स्याम-मग जोवति जननी, आइ गए सुनि बचन रसालहि ॥

156. हरि कौं टेरति है नँदरानी

 हरि कौं टेरति है नँदरानी ।
बहुत अबार भई कहँ खेलत, रहे मेरे सारँग-पानी ?
सुनतहिं टेर, दौरि तहँ तहँ आए,कब के निकसे लाल ।
जेंवत नहीं नंद तुम्हरे बिनु, बेगि चलौ, गोपाल ॥
स्यामहि ल्याई महरि जसोदा, तुरतहिं पाइँ पखारे ।
सूरदास प्रभु संग नंद कैं बैठे हैं दोउ बारे ॥

राग नटनारायन

157. बोलि लेहु हलधर भैया कौं

बोलि लेहु हलधर भैया कौं ।
मेरे आगैं खेल करौ कछु, सुख दीजै मैया कौ ॥
मैं मूँदौ हरि! आँखि तुम्हारी, बालक रहैं लुकाई ।
हरषि स्याम सब सखा बुलाए खेलन आँखि-मुँदाई ॥
हलधर कह्यौ आँखि को मूँदै, हरि कह्यौ मातु जसोदा ।
सूर स्याम लए जननि खिलावति, हरष सहित मन मोदा ॥

राग कान्हरौ

158. हरि तब अपनी आँखि मुँदाई

हरि तब अपनी आँखि मुँदाई ।
सखा सहित बलराम छपाने, जहँ तहँ गए भगाई ॥
कान लागि कह्यौ जननि जसोदा, वा घर मैं बलराम ।
बलदाऊ कौं आवत दैंहौं, श्रीदामा सौं काम ॥
दौरि=दौरि बालक सब आवत, छुवत महरि कौ गात ।
सब आए रहे सुबल श्रीदामा, हारे अब कैं तात ॥
सोर पारि हरि सुबलहि धाए, गह्यौ श्रीदामा जाइ ।
दै-दै सौहैं नंद बबा की, जननी पै लै आइ ॥
हँसि-हँसि तारी देत सखा सब, भए श्रीदामा चोर ।
सूरदास हँसि कहति जसोदा, जीत्यौ है सुत मोर ॥

राग गौरी

159. पौढ़िऐ मैं रचि सेज बिछाई

पौढ़िऐ मैं रचि सेज बिछाई ।
अति उज्ज्वल है सेज तुम्हारी, सोवत मैं सुखदाई ॥
खेलत तुम निसि अधिक गई, सुत, नैननि नींद झँपाई ।
बदन जँभात अंग ऐंडावत, जननि पलोटति पाई ॥
मधुरैं सुर गावत केदारौ, सुनत स्याम चित लाई ।
सूरदास प्रभु नंद-सुवन कौं नींद गई तब आई ॥

राग केदारौ

160. खेलन जाहु बाल सब टेरत

खेलन जाहु बाल सब टेरत।
यह सुनि कान्ह भए अति आतुर, द्वारैं तन फिरि हेरत ॥
बार बार हरि मातहिं बूझत, कहि चौगान कहाँ है ।
दधि-मथनी के पाछै देखौ, लै मैं धर्‌यौ तहाँ है ॥
लै चौगान-बटा अपनैं कर, प्रभु आए घर बाहर ।
सूर स्याम पूछत सब ग्वालनि, खेलौगे किहिं ठाहर ॥

राग सारंग

161. खेलत बनैं घोष निकास

खेलत बनैं घोष निकास ।
सुनहु स्याम चतुर-सिरोमनि, इहाँ है घर पास ॥
कान्ह-हलधर बीर दोऊ, भुजा-बल अति जोर ।
सुबल, श्रीदामा, सुदामा, वै भए, इक ओर ॥
और सखा बँटाइ लीन्हे, गोप-बालक-बृंद ।
चले ब्रज की खोरि खेलत, अति उमँगि नँद-नंद ॥
बटा धरनी डारि दीनौ, लै चले ढरकाइ ।
आपु अपनी घात निरखत खेल जम्यौ बनाइ ॥
सखा जीतत स्याम जाने, तब करी कछु पेल ।
सूरदास कहत सुदामा, कौन ऐसौ खेल ॥

162. खेलत मैं को काको गुसैयाँ

खेलत मैं को काको गुसैयाँ ।
हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबसहीं कत करत रिसैयाँ ॥
जात-पाँति हम ते बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ ।
अति धिकार जनावत यातैं, जातैं अधिक तुम्हारैं गैयाँ !
रुहठि करै तासौं को खेलै, रहे बैठि जहँ-तहँ सब ग्वैयाँ ॥
सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाउँ दियौ करि नंद-दहैयाँ ॥

163. आवहु, कान्ह, साँझ की बेरिया

आवहु, कान्ह, साँझ की बेरिया ।
गाइनि माँझ भए हौ ठाढ़े, कहति जननि, यह बड़ी कुबेरिया ॥
लरिकाई कहुँ नैकु न छाँड़त, सोइ रहौ सुथरी सेजरिया ।
आए हरि यह बात सुनतहीं, धाए लए जसुमति महतरिया ॥
लै पौढ़ी आँगनहीं सुत कौं, छिटकि रही आछी उजियरिया ॥
सूर स्याम कछु कहत-कहत ही बस करि लीन्हें आइ निंदरिया ॥

राग कान्हरौ

164. आँगन मैं हरि सोइ गए री

आँगन मैं हरि सोइ गए री ।
दोउ जननी मिलि कै हरुऐं करि सेज सहित तब भवन लए री ॥
नैकु नहीं घर मैं बैठत हैं, खेलहि के अब रंग रए री ।
इहिं बिधि स्याम कबहुँ नहिं सोए बहुत नींद के बसहिं भए री ॥
कहति रोहिनी सोवन देहु न, खेलत दौरत हारि गए री ।
सूरदास प्रभु कौ मुख निरखत हरखत जिय नित नेह नए री ॥

165. महराने तैं पाँड़े आयौ

महराने तैं पाँड़े आयौ ।
ब्रज घर-घर बूझत नँद-राउर पुत्र भयौ, सुनि कै, उठि धायौ ॥
पहुँच्यौ आइ नंद के द्वारैं, जसुमति देखि अनंद बढ़ायौ ।
पाँइ धोइ भीतर बैठार्‌यौ, भौजन कौं निज भवन लिपायौ ॥
जो भावै सो भोजन कीजै, बिप्र मनहिं अति हर्ष बढ़ायौ ।
बड़ी बैस बिधि भयौ दाहिनौ, धनि जसुमति ऐसौ सुत जायौ ॥
धेनु दुहाइ, दूध लै आई, पाँड़े रुचि करि खीर चढ़ायौ ।
घृत मिष्ठान्न, खीर मिश्रित करि, परुसि कृष्न हित ध्यान लगायौ ॥
नैन उघारि बिप्र जौ देखै, खात कन्हैया देखन पायौ ।
देखौ आइ जसोदा ! सुत-कृति, सिद्ध पाक इहिं आइ जुठायौ ॥
महरि बिनय करि दुहुकर जो रे, घृत-मधु-पय फिरि बहुत मँगायौ ॥
सूर स्याम कत करत अचगरी, बार-बार बाम्हनहि खिझायौ ॥

राग धनाश्री

166. पाँड़े नहिं भोग लगावन पावै

पाँड़े नहिं भोग लगावन पावै ।
करि-करि पाक जबै अर्पत है, तबहीं-तब छूवैं आवै ॥
इच्छा करि मैं बाम्हन न्यौत्यौ, ताकौं स्याम खिझावै ।
वह अपने ठाकुरहि जिंवावै, तू ऐसैं उठि धावै ॥
जननी दोष देति कत मोकौं,बहु बिधान करि ध्यावै ।
नैन मूँदि, कर जोरि, नाम लै बारहिं बार बुलावै ॥
कहि अंतर क्यौं होइ भक्त सौं जो मेरैं मन भावै ?
सूरदास बलि-बलि बिलास पर, जन्म-जन्म जस गावै ॥

राग रामकली

167. सफल जन्म प्रभु आजु भयौ

सफल जन्म प्रभु आजु भयौ ।
धनि गोकुल, धनि नंद-जसोदा, जाकैं हरि अवतार लयौ ॥
प्रगट भयौ अब पुन्य-सुकृत-फल , दीन बंधु मोहि दरस दयौ ।
बारंबार नंद कैं आँगन, लोटन द्विज आनंदमयौ ॥
मैं अपराध कियौ बिनु जानैं, कौ जानै किहिं भेष जयौ ।
सूरदास-प्रभु भक्त -हेत बस जसुमति-गृह आनन्द लयौ ॥

राग बिलावल

168. अहो नाथ ! जेइ-जेइ सरन आए

अहो नाथ ! जेइ-जेइ सरन आए तेइ तेइ भए पावन ।
महापतित-कुल -तारन, एकनाम अघ जारन, दारुन दुख बिसरावन ॥
मोतैं को हो अनाथ, दरसन तैं भयौं सनाथ देखत नैन जुड़ावन ।
भक्त हेतदेह धरन, पुहुमी कौ भार हरन, जनम-जनम मुक्तावन ॥
दीनबंधु, असरनके सरन, सुखनि जसुमति के कारन देह धरावन ।
हित कै चित की मानत सबके जियकी जानत सूरदास-मन-भावन ॥

169. मया करिये कृपाल, प्रतिपाल संसार

 मया करिये कृपाल, प्रतिपाल संसार उदधि जंजाल तैं परौं पार ।
काहू के ब्रह्मा, काहू के महेस, प्रभु! मेरे तौ तुमही अधार ॥
दीन के दयाल हरि, कृपा मोकौं करि, यह कहि-कहि लोटत बार-बार ।
सूर स्याम अंतरजामी स्वामी जगत के कहा कहौं करौ निरवार ॥

राग बिलावल

170. खेलत स्याम पौरि कैं बाहर

खेलत स्याम पौरि कैं बाहर ब्रज-लरिका सँग जोरी ।
तैसेइ आपु तैसेई लरिका, अज्ञ सबनि मति थोरी ॥
गावत हाँक देत, किलकारत, दुरि देखति नँदरानी ।
अति पुलकित गदगद मुख बानी, मन-मन महरि सिहानी ॥
माटी लै मुख मेलि दई हरि, तबहिं जसोदा जानी ।
साँटी लिए दौरि भुज पकर्‌यौ, स्याम लँगरई ठानी ॥
लरिकन कौं तुम सब दिन झुठवत, मोसौं कहा कहौगे ।
मैया मैं माटी नहिं खाई, मुख देखैं निबहौगे ॥
बदन उधारि दिखायौ त्रिभुवन, बन घन नदी-सुमेर ।
नभ-ससि-रबि मुख भीतरहीं सब सागर-धरनी-फेर ॥
यह देखत जननी मन ब्याकुल, बालक-मुख कहा आहि ।
नैन उधारि, बदन हरि मुँद्यौ, माता-मन अवगाहि ॥
झूठैं लोग लगावत मोकौं, माटी मोहि न सुहावै ।
सूरदास तब कहति जसोदा, ब्रज-लोगनि यह भावै ॥

171. मोहन काहैं न उगिलौ माटी

 मोहन काहैं न उगिलौ माटी ।
बार-बार अनरुचि उपजावति, महरि हाथ लिये साँटी ॥
महतारी सौं मानत नाहीं कपट-चतुरई ठाटी ।
बदन उधारि दिखायौ अपनौ, नाटक की परिपाटी ॥
बड़ी बार भइ, लोचन उधरे, भरम-जवनिका फाटी ।
सूर निरखि नँदरानि भ्रमित भइ, कहति न मीठी-खाटी ॥

राग धनाश्री

172. मो देखत जसुमति तेरैं ढोटा

मो देखत जसुमति तेरैं ढोटा, अबहीं माटी खाई ।
यह सुनि कै रिस करि उठि धाई, बाहँ पकरि लै आई ॥
इक कर सौं भुज गहि गाढ़ैं करि, इक कर लीन्हीं साँटी ।
मारति हौं तोहि अबहिं कन्हैया, बेगि न उगिलै माटी ॥
ब्रज-लरिका सब तेरे आगैं, झूठी कहत बनाइ ।
मेरे कहैं नहीं तू मानति, दिखरावौं मुख बाइ ॥
अखिल ब्रह्मंड-खंड की महिमा, दिखराई मुख माँहि ।
सिंधु-सुमेर-नदी-बन-पर्वत चकित भई मन चाहि ॥
करतैं साँटि गिरत नहिं जानी, भुजा छाँड़ि अकुलानी ।
सूर कहै जसुमति मुख मूँदौ, बलि गई सारँगपानी ॥

राग रामकली

173. नंदहि कहति जसोदा रानी

नंदहि कहति जसोदा रानी ।
माटी कैं मिस मुख दिखरायौ, तिहूँ लोक रजधानी ॥
स्वर्ग, पताल, धरनि, बन, पर्वत, बदन माँझ रहे आनी ।
नदी-सुमेर देखि चकित भई, याकी अकथ कहानी ॥
चितै रहे तब नंद जुवति-मुख मन-मन करत बिनानी ।
सूरदास तब कहति जसोदा गर्ग कही यह बानी ॥

राग सारंग

174. कहत नंद जसुमति सौं बात

कहत नंद जसुमति सौं बात ।
कहा जानिए, कह तैं देख्यौ, मेरैं कान्ह रिसात ॥
पाँच बरष को मेरौ नन्हैया, अचरज तेरी बात ।
बिनहीं काज साँटि लै धावति, ता पाछै बिललात ॥
कुसल रहैं बलराम स्याम दोउ, खेलत-खात-अन्हात ।
सूर स्याम कौं कहा लगावति, बालक कोमल-बात ॥

राग सोरठ

175. देखौ री! जसुमति बौरानी

देखौ री! जसुमति बौरानी ।
घर घर हाथ दिखावति डोलति,गोद लिए गोपाल बिनानी ॥
जानत नाहिं जगतगुरु माधव, इहिं आए आपदा नसानी ।
जाकौ नाउँ सक्ति पुनि जाकी, ताकौं देत मंत्र पढ़ि पानी॥
अखिल ब्रह्मंड उदर गत जाकैं, जाकी जोति जल-थलहिं समानी ।
सूर सकल साँची मोहि लागति, जो कछु कही गर्ग मुख बानी ॥

राग बिलावल

  • श्रीकृष्ण बाल-माधुरी भाग (8) भक्त सूरदास जी
  • श्रीकृष्ण बाल-माधुरी भाग (6) भक्त सूरदास जी
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण काव्य रचनाएँ : भक्त सूरदास जी
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)