साकेत - चतुर्थ सर्ग : मैथिलीशरण गुप्त

Saket Sarg-4 : Maithilisharan Gupt

करुणा-कंजारण्य रवे!
गुण-रत्नाकर, आदि-कवे!
कविता-पितः! कृपा वर दो,
भाव राशि मुझ में भर दो।
चढ़ कर मंजु मनोरथ में,
आकर रम्य राज-पथ में,
दर्शन करूँ तपोवन का,
इष्ट यही है इस जन का।

सुख से सद्यः स्नान किये,
पीताम्बर परिधान किये,
पवित्रता में पगी हुई,
देवार्चन में लगी हुई,
मूर्तिमयी ममता-माया,
कौशल्या कोमल-काया,
थीं अतिशय आनन्दयुता,
पास खड़ीं थीं जनकसुता।
गोट जड़ाऊ घूँघट की-
बिजली जलदोपम पट की,
परिधि बनी थी विधु-मुख की,
सीमा थी सुषमा-सुख की।
भाव-सुरभि का सदन अहा!
अमल कमल-सा वदन अहा!
अधर छबीले छदन अहा!
कुन्द-कली-से रदन अहा!
साँप खिलातीं थीं अलकें,
मधुप पालती थीं पलकें,
और कपोलों की झलकें,
उठती थीं छवि की छलकें!

गोल गोल गोरी बाहें-
दो आँखों की दो राहें।
भाग-सुहाग पक्ष में थे,
अंचलबद्ध कक्ष में थे!
थीं कमला सी कल्याणी,
वाणी में वीणापाणी।
’माँ! क्या लाऊँ?’ कह कह कर-
पूछ रही थीं रह रह कर।
सास चाहती थीं जब जो,-
देती थीं उनको सब सो।
कभी आरती, धूप कभी,
सजती थीं सामान सभी।
देख देख उनकी ममता,
करती थीं उसकी समता।
आज अतुल उत्साह-भरे,
थे दोनों के हृदय हरे।
दोनों शोभित थीं ऐसी-
मेना और उमा जैसी।
मानों वह भू-लोक न था,
वहाँ दुःख या शोक न था।
प्राणपद था पवन वहाँ,
ऐसा पुण्यस्थान कहाँ?
अमृत-तीर्थ का तट-सा था,
अन्तर्जगत् प्रकट-सा था!

इसी समय प्रभु अनुज-सहित-
पहुँचे वहाँ विकार-रहित।
जब तक जाय प्रणाम किया-
माँ ने आशीर्वाद दिया।
हँस सीता कुछ सकुचाईं,
आँखें तिरछीं हो आईं।
लज्जा ने घूँघट काढ़ा-
मुख का रंग किया गाढ़ा।
"बहू! तनिक अक्षत-रोली,
तिलक लगा दूँ" माँ बोली-।
"जियो, जियो, बेटा! आओ,
पूजा का प्रसाद पाओ।"

लक्ष्मण ने सोचा मन में,-
"जानें देंगी ये वन में?
प्रभु इनको भी छोड़ेंगे-
तो किस धन को जोड़ेंगे?
मँझली माँ! तू मरी न क्यों?
लोक-लाज से डरी न क्यों?"
लक्ष्मन ने निःश्वास लिया,
माँ के जान-सुवास लिया!

बोले तब श्रीराघव यों-
धर्मधीर नवघन-रव ज्यों-
"माँ! मैं आज कृतार्थ हुआ,
स्वार्थ स्वयं परमार्थ हुआ।
पावनकारक जीवन का,
मुझको वास मिला वन का।
जाता हूँ मैं अभी वहाँ,
राज्य करेंगे भरत यहाँ।"
माँ को प्रत्यय भी न हुआ,
इसी लिए भय भी न हुआ!
समझी सीता किन्तु सभी,
झूठ कहेंगे प्रभु न कभी।
खिंची हृदय पर भय-रेखा,
पर माँ ने न उधर देखा।
बोली वे हँस कर-"रह तू-
यह न हँसी में भी कह तू।
तेरा स्वत्व भरत लेगा?
वन में तुझे भेज देगा?
वही भरत जो भ्राता है,
क्या तू मुझे डराता है?
लक्ष्मण! यह दादा तेरा,-
धैर्य देखता है मेरा!
ऐं! लक्ष्मण तो रोता है!
ईश्वर यह क्या होता है!"

उनका हृदय सशंक हुआ,
उदित अशुभ आतंक हुआ।
"सच हैं तब क्या वे बातें?
दैव! दैव! ऐसी घातें!"
काँप उठीं वे मृदुदेही,
धरती घूमी या वे ही।
बैठीं फिर गिर कर मानों,
जकड़ गईं घिर कर मानों,
आँखें भरीं, विश्व रीता,
उलट गया सब मनचीता!
सीता से थामीं जाकर-
रहीं देखतीं टक लाकर।

प्रभु बोले-"माँ! भय न करो,
एक अवधि तक धैर्य धरो।
मैं फिर घर आ जाऊँगा,
वन में भी सुख पाऊँगा।"
"हा! तब क्या निष्कासन है?
यह कैसा वन-शासन है?
तू सब का जीवन-धन है,
किसका यह निर्दयपन है?
क्या तुझसे कुछ दोष हुआ?
जो तुझ पर यह रोष हुआ।
अभी प्रार्थिनी मैं हूँगी,
प्रभु से क्षमा माँग लूँगी।
क्या प्रथमापराध तेरा-
और विनीत विनय मेरा
क्षमा दिलावेगा न तुझे?
वत्स! हुआ क्या, बता मुझे।
अथवा तू चुप ही रह जा,
बेटा लक्ष्मण! तू कह जा।
कठिन हृदय प्रस्तुत ही है,
डर न, दंड तो श्रुत ही है।"
"माँ! यह कोई बात नहीं,
दोषी मेरे तात नहीं,
दोष-दूरकारक हैं ये,
भूमि-भार-हारक हैं ये।
छू सकता कब पाप इन्हें?
प्राप्त पुण्य है आप इन्हें?
प्राप्य राज्य भी छोड़ दिया,
किसने ऐसा त्याग किया?
किन्तु पिता-प्रण रखने को-
सबको छोड़ बिलखने को।
कर मझली माँ के मन का,
पथ लेते हैं ये वन का!"

"समझ गई, मैं समझ गई,
कैकेयी की नीति नई।
मुझे राज्य का खेद नहीं,
राम-भरत में भेद नहीं।
मँझली बहन राज्य लेवें,
उसे भरत को दे देवें।
पुत्रस्नेह धन्य उनका,
हठ है हृदय-जन्य उनका।
मुझे राज्य की चाह नहीं,
उस पर भी कुछ डाह नहीं।
मेरा राम न वन जावे,
यहीं कहीं रहने पावे।
उनके पैर पडूँगी मैं,
कह कर यही अडूँगी मैं-
भरत-राज्य की जड़ न हिले,
मुझे राम की भीख मिले!"

रुकें राम-जननी जब तक,
गूँजी नई गिरा तब तक-
"नहीं, नहीं, यह कभी नहीं,
दैन्य विषय बस रहे यहीं।"
चकित दृष्टियाँ व्याप्त हुईं,
वहाँ सुमित्रा प्राप्त हुईं।
बधू उर्मिला अनुपद थी,
देख गिरा भी गद्गद थी!
देख सुमित्रा को आया-
प्रभु ने सानुज सिर नाया।
बोलीं वे कि-"जियो दोनों,
यश का अमृत पियो दोनों।"
सिंही-सदृश क्षत्रियाणी-
गरजी फिर यह कह वाणी-
"स्वत्वों की भिक्षा कैसी?
दूर रहे इच्छा ऐसी।
उर में अपना रक्त बहे,
आर्य-भाव उद्दीप्त रहे।
पाकर वंशोचित शिक्षा-
माँगेंगी हम क्यों भिक्षा?
प्राप्य याचना वर्जित है,
आप भुजों से अर्जित है।

हम पर-भाग नहीं लेंगी,
अपना त्याग नहीं देंगी।
वीर न अपना देते हैं,
न वे और का लेते हैं।
वीरों की जननी हम हैं,
भिक्षा-मृत्यु हमें सम हैं।
राघव! शान्त रहोगे तुम?
क्या अन्याय सहोगे तुम?
मैं न सहूँगी, लक्ष्मण! तू?
नीरव क्यों है इस क्षण तू?"
"माँ! क्या करूँ? कहो मुझसे,
क्या है कि जो न हो मुझसे?
अंगीकार आर्य करते-
तो कबके द्रोही मरते!
आज्ञा करें आर्य अब भी,
बिगड़ा बनें कार्य अब भी।"
लक्ष्मण ने प्रभु को देखा,
न थी उधर कोई रेखा!
बोले वे कि-"रहो भ्रातः!
और सुनो तुम हे मातः!

यदि न आज वन जाऊँ मैं-
किस पर हाथ उठाऊँ मैं?
पूज्य पिता या माता पर?
या कि भरत-से भ्राता पर?
और किस लिए? राज्य मिले?
है जो तृण-सा त्याज्य, मिले?
माँ की स्पृहा, पिता का प्रण,
नष्ट करूँ, करके सव्रण?
प्राप्त परम गौरव छोडूँ?
धर्म बेचकर धन जोडूँ?
अम्ब! क्या करूँ, तुम्हीं कहो?
सहसा अधिक अधीर न हो।
त्याग प्राप्त का ही होता,
मैं अधिकार नहीं खोता।
अबल तुम्हारा राम नहीं,
विधि भी उस पर वाम नहीं।
वृथा क्षोभ का काम नहीं,
धर्म बड़ा, धन-धाम नहीं।
किसने क्या अन्याय किया,
कि जो क्षोभ यों जाय किया?

माँ ने पुत्र-वृद्धि चाही,
नृप ने सत्य-सिद्धि चाही।
मँझली माँ पर कोप करूँ?
पुत्र-धर्म का लोप करूँ?
तो किससे डर सकता हूँ?
तुम पर भी कर सकता हूँ।
भैया भरत अयोग्य नहीं,
राज्य राम का भोग्य नहीं।
फिर भी वह अपना ही है,
यों तो सब सपना ही है।
मुझको महा महत्व मिला,
स्वयं त्याग का तत्व मिला,
माँ! तुम तनिक कृपा कर दो,
बना रहे वह, यह वर दो!"
मौन हुए रघुकुलभूषण,
मानों प्रभा-पूर्ण पूषण।
कहाँ गई वह क्षोभ-घटा?
छाई एक अपूर्व छटा।
सबका हृदय-द्राव हुआ,
रोम रोम से श्राव हुआ!
मोती जैसे बड़े बड़े,-
टप टप आँसू टपक पड़े।

सीता ने सोचा मन में-
’स्वर्ग बनेगा अब वन में!
धर्मचारिणी हूँगी मैं,
वन-विहारिणी हूँगी मैं।’
तनिक कनोंखी अँखियों से,
अजब अनोंखी अँखियों से,
प्रभु ने उधर दृष्टि डाली,
दीख पड़ी दृढ़ हृदयाली।
संग-गमन-हित सीता के-
प्रस्तुत परम पुनीता के,
उच्च व्रत पर अड़े हुए-
रोम रोम थे खड़े हुए!

उठी न लक्ष्मण की आँखें,
जकड़ी रही पलक-पाँखें।
किन्तु कल्पना घटी नहीं,
उदित उर्मिला हटी नहीं।
खड़ी हुई हृदयस्थल में-
पूछ रही थी पल पल में-
’मैं क्या करूँ? चलूँ कि रहूँ?
हाय! और क्या आज कहूँ?
आः! कितना सकरुण मुख था,
आर्द्र-सरोज-अरुण मुख था,
लक्ष्मण ने सोचा कि-"अहो,
कैसे कहूँ चलो कि रहो!
यदि तुम भी प्रस्तुत होगी-
तो संकोच-सोच दोगी।
प्रभुवर बाधा पावेंगे,
छोड़ मुझे भी जावेंगे!
नहीं, नहीं, यह बात न हो,
रहो, रहो, हे प्रिये! रहो,
यह भी मेरे लिए सहो,
और अधिक क्या कहूँ, कहो?"
लक्ष्मण हुए वियोगजयी,
और उर्मिला प्रेममयी।
वह भी सब कुछ जान गई,
विवश भाव से मान गई।
श्री सीता के कंधे पर-
आँसू बरस पड़े झर झर।
पहन तरल-तर हीरे-से,
कहा उन्होंने धीरे से-
"बहन! धैर्य का अवसर है,"
वह बोली-"अब ईश्वर है।"
सीता बोलीं कि-"हाँ, बहन!
सभी कहीं, गृह हो कि गहन।"

कौशल्या क्या करती थीं?
कुछ कुछ धीरज धरती थीं।
प्रभु की वाणी कट न सकी,
युक्ति एक भी अट न सकी!
प्रथम सुमित्रा भ्रान्त हुईं,
फिर क्रम क्रम से शान्त हुईं।
खड़ी रहीं, न हिली डोलीं,
तब कौशल्या ही बोलीं-
"जाओ, तब बेटा! वन ही,
पाओ नित्य धर्म-धन ही।

जो गौरव लेकर जाओ-
लेकर वही लौट आओ।
पूज्य-पिता-प्रण रक्षित हो,
माँ का लक्ष्य सुलक्षित हो।
घर में घर की शान्ति रहे,
कुल में कुल की कान्ति रहे।
होते मेरे सुकृत कहीं,
तो क्यों आती विपद यहीं।
फिर भी हों तो त्राण करें,
देव सदा कल्याण करें।
और कहूँ क्या मैं तुमसे-
वन में भी विकसो द्रुम-से।
फिर भी है इतना कहना-
मुनियों के समीप रहना।
जिसे गोद में पाला है,
जो उर का उजियाला है,
बहन सुमित्रे! चला वही,-
जहाँ हिंस्र-पशु-पूर्ण मही!
यह गौरव का अर्जन है,
या सर्वस्व-विसर्जन है?

त्याग मात्र इसका धन है,
पर मेरा माँ का मन है।
हा! मैं कैसे धैर्य धरूँ?
क्या चिन्ता से दग्ध मरूँ?
यदि मैं मर भी जाऊँगी,
तो भी शान्ति न पाऊँगी!"
कहा सुमित्रा ने तब यों-
"जीजी! विकल न हो अब यों!
आशा हमें जिलावेगी,
अवधि अवश्य मिलावेगी।"
राघव से बोलीं फिर वे-
थीं उस समय अनस्थिर वे।
"वत्स राम! ऐसा ही हो,
फल इसका कैसा ही हो।
लेकर उच्च हृदय इतना,
नहीं हिमालय भी जितना,
तुमने मानव-जन्म लिया,
धरणी-तल को धन्य किया!
मैं भी कहती हूँ-जाओ,
लक्ष्मण को भी अपनाओ।

धैर्य सहित सब कुछ सहना,
दोनों सिंह-सदृश रहना।
लक्ष्मण! तू बड़भागी है,
जो अग्रज-अनुरागी है।
मन ये हों, तन तू वन में,
धन ये हों, जन तू वन में।"

लक्ष्मण का तन पुलक उठा,
मन मानों कुछ कुलक उठा।
माँ का भी आदेश मिला,
पर वह किसका हृदय हिला?
कहा उर्मिला ने-"हे मन!
तू प्रिय-पथ का विघ्न न बन।
आज स्वार्थ है त्याग-भरा!
हो अनुराग विराग-भरा!
तू विकार से पूर्ण न हो,
शोक-भार से चूर्ण न हो।
भ्रातृ-स्नेह-सुधा बरसे,
भू पर स्वर्ग-भाव सरसे!"
प्रस्तुत हैं प्राणस्नेही,
चुप थी अब भी वैदेही।
कहतीं क्या वे प्रिय जाया,
जहाँ प्रकाश वहीं छाया।


इसी समय दुख से छाये,
सचिव सुमन्त्र वहाँ आये।
वे परिवार-भुक्त-से थे,
अति अविभिन्न युक्त-से थे।
प्रभु जो उनकी ओर बढ़े,
प्रथम अश्रु फिर वचन कढ़े-
"राम! क्या कहूँ मैं अब हा!
बन कर भी बिगड़ा सब हा!
देख तुम्हारा निष्कासन,
कैकेयी-सुत का शासन,
नहीं चाहती कभी प्रजा।
उड़ी क्रान्ति की कहीं ध्वजा?
विदित तुम्हें है नृप-गति भी
कैकेयी की दुर्मति भी।

ऐसी विषमावस्था है,
फिर भी वन-व्यवस्था है!
पितृ-स्पृहा क्या ज्ञेय नहीं?
प्रजा-भाव क्या ध्येय नहीं?
प्रभु बोले-"यह बात नहीं,
तात! तुम्हें क्या ज्ञात नहीं?
स्पृहा बड़ी या धर्म बड़ा?
किस में है शुभ कर्म बड़ा?
और प्रजा में द्रोह कहाँ?
है बस मेरा मोह वहाँ?
मैंने क्या कर दिया किसे,
कर न सकेंगे भरत जिसे?
उनके निन्दावाक्य मुझे-
होंगे विष के बाण बुझे।
उनकी निन्दा मेरी है,
प्रजा प्रीति की प्रेरी है।
पर वे मेरे भ्राता हैं,
मँझली माँ भी माता हैं।"
अब सुमन्त्र कुछ कह न सके,
पर नीरव भी रह न सके!

खड़े रहे वे मुँह खोले,
फिर धीरे धीरे बोले-
"नहीं जानता मैं रोऊँ,
या आनन्द-मग्न होऊँ!
राम! तुम्हारा मंगल हो,
प्राप्त हमें आत्मिक बल हो।
तुम भूतल से भिन्न नहीं,
हम सबसे विच्छिन्न नहीं।
उर से किन्तु अलौकिक हो,
निज पतंग-कुल के पिक हो!
अन्तःकरण अपार्थिव है,
उदित वहाँ दिव ही दिव है!
अमरवृन्द नीचे आवें,
मानव-चरित देख जावें।
वन में ही यदि रहना है
तो नृप का यह कहना है-
’तुम सुमन्त्र रथ ले जाओ,
पुत्रों को पहुँचा आओ।
भरत यहाँ आवें जब लों,
बचा रहा यदि मैं तब लों,
तो मैं उन्हें राज्य दूँगा,
वन में स्वयं प्राप्त हूँगा।"

सबने ऊर्ध्वश्वास लिया,
या उर को आश्वास दिया!
प्रभु बोले-"तो देर न हो,
रथ जुतने के लिए कहो।
अब वल्कल पहनूँ बस मैं,
बनूँ वनोचित तापस मैं।
यहीं रजोगुण-लेश रहे,
वन में सात्विक वेश रहे।"

रोते हुए सुमन्त्र गये,
आये वल्कल वस्त्र नये।
बढ़े प्रथम कर कोमल दो,
या मृणालयुत शतदल दो!
सीता चुप, सब रोती थीं,
दृग-जल से मुँह धोती थीं।
"बहू! बहू!" माँ चिल्लाईं,
आँखें दूनी भर आईं-

"हाथ हटा, ये वल्कल हैं,
मृदुतम तेरे करतल हैं।
यदि ये छू भी जावेंगे-
तो छाले पड़ आवेंगे!
कोसल बधू! विदेह लली!
मुझे छोड़ कर कहाँ चली?
वन की काँटों-भरी गली,
तू है मानस-कुसुम-कली।
दैव! हुआ तू वाम किसे?
रोको, रोको राम! इसे।
क्या यह वन में रह लेगी?
तप-वर्षा-हिम सह लेगी?
सौ कष्टों की कथा रहे,
वन की सारी व्यथा रहे,
जब आँधी-सी आवेगी-
यह सहसा उड़ जावेगी!"

आ पड़ता जब सोच कहीं-
रहता तब संकोच नहीं।
प्रभु ने जो निदेश पाया,
प्राणसखी को समझाया।
वन के सारे कष्ट कहे,
जो जो भय थे स्पष्ट कहे,
जिनको सुन कर मुँह सूखे,
देह दुःख पाकर दूखे-
"आतप, वर्षा, हिम सहना,
बाघ-भालुओं में रहना,
अबलाओं का काम नहीं;
वन में जन का नाम नहीं।
खान-पान सब कुछ खोना,
निशि में भी दुर्लभ सोना।
यही नहीं, वनचर होना,
रोने से भी मुँह धोना!"

किन्तु वृथा, सीता बोलीं,
डर से नेंक नहीं डोलीं-
"नाथ! न कुछ होगा इससे,
क्या कहते हो तुम किससे?
समझो मुझको भिन्न न हा!
करो ऐक्य उच्छिन्न न हा!
तुमको दुख तो मुझको भी,
तुमको सुख तो मुझको भी।
सुख में आ आकर घेरूँ,
संकट में अब मुँह फेरूँ,
देखेगा तो कौन उसे?
मरना होगा मौन उसे।
जो गौरव लेकर स्वामी!
होते हो काननगामी,
उसमें अर्द्ध भाग मेरा;
करो न आज त्याग मेरा।
मातृ-सिद्धि, पितृ-सत्य सभी,
मुझ अर्द्धांगी बिना अभी
हैं अर्द्धांग अधूरे ही;
सिद्ध करो तो पूरे ही।
सब के हित मैं वन में भी,
निर्जन, सघन गहन में भी,
सब व्रत-नियम निबाहूँगी,
सब का मंगल चाहूँगी।

सास-ससुर की स्नेह-लता-
बहन उर्मिला महाव्रता,
सिद्ध करेगी वही यहाँ,
जो मैं भी कर सकी कहाँ?
वन में क्या भय ही भय है?
मुझको तो जय ही जय है।
यदि अपना आत्मिक बल है,
जंगल में भी मंगल है।
कंटक जहाँ कुसुम भी हैं,
छाया वाले द्रुम भी हैं।
निर्झर हैं, दूर्वा-दल हैं
मीठे कन्द, मूल, फल हैं।
रहते हैं मिष्ठान्न पड़े,
लगते हैं फल मधुर बड़े।
बधुएँ लंघन से डरतीं-
तो उपवास नहीं करतीं!
मुक्त गगन है, मुक्त पवन,
वन है प्रभु का खुला भवन।
सलिल-पूर्ण सरिताएँ हैं,
करुण-भाव-भरिताएँ हैं।

उटज लताओं से छाया,
विटपों की ममता-माया।
खग, मृग भी हिल जावेंगे,
सभी मेल मिल जावेंगे।
देवर एक धनुर्धारी-
होंगे सब सुविधाकारी।
वे दिन-रात साथ देंगे,
मेरी रक्षा कर लेंगे।
मदकल कोकिल गावेंगे,
मेघ मृदंग बजावेंगे।
नाचेंगे मयूर मानी,
हूँगी मैं वन की रानी!
हिंस्र जीव हैं घोर जहाँ,
ऋषि-मुनि भी क्या नहीं वहाँ?
यहाँ नहीं जो शान्ति वहीं,
भव-विकार या भ्रान्ति नहीं।
अंचल होगा फूल-भरा,
कल-जल होगा कूल-भरा,
मन होगा दुख-भूल-भरा,
वन होगा सुख-मूल-भरा।

अथवा कुछ भी न हो वहाँ,
तुम तो हो जो नहीं यहाँ।
मेरी यही महामति है-
पति ही पत्नी की गति है।
नाथ! न भय दो तुम हमको,
जीत चुकी हैं हम यम को।
सतियों को पति-संग कहीं-
वन क्या, अनल अगम्य नहीं!"

सीता और न बोल सकीं,
गद्गद कंठ न खोल सकीं।
इधर उर्मिला मुग्ध निरी-
कह कर "हाय!" धड़ाम गिरी!

लक्ष्मण ने दृग मूँद लिये,
सबने दो दो बूँद दिये!
कहा सुमित्रा ने-"बेटी!
आज मही पर तू लेटी!"
"बहन! बहन!" कह कर भीता
करने लगीं व्यजन सीता।
"आज भाग्य जो है मेरा,
वह भी हुआ न हा! तेरा!"
माताएँ थीं मूर्ति बनी;
व्यग्र हुए प्रभु धर्म-धनी।
युग भी कम थे उस क्षण से;
बोले वे यों लक्ष्मण से-
"अनुज, मार्ग मेरा लेकर,
संग अनावश्यक देकर,
सोचो अब भी तुम इतना-
भंग कर रहे हो कितना?
हठ करके, प्यारे भाई,
करो न मुझको अन्यायी।"
"हाय! आर्य, रहिए, रहिए,
मत कहिए, यह मत कहिए।
हम संकट को देख डरें,
या उसका उपहास करें?
पाप-रहित सन्ताप जहाँ,
आत्म-शुद्धि ही आप वहाँ।"
"लक्ष्मण, तुम हो तपस्स्पृही,
मैं वन में भी रहा गृही।
वनवासी, हे निर्मोही,
हुए वस्तुतः तुम दो ही।"
कहा सुमित्रा ने तब यों-
निश्चय पर वितर्क अब क्यों?
जैसे रहें, रहेंगी हम,
रोकर सही, सहेंगी हम।"

उस मूर्च्छिता बधू का सिर,
गोदी में रक्खे अस्थिर,
कौशल्या माता भोली,
धाड़ मार कर यों बोली-
"देव वृन्द! देखो नीचे,
मत मारो आँखें मींचे।
जाओ, वत्स! कहा मैंने,
जो आ पड़ा सहा मैंने।

जो जी सकी-और जीने के चेष्टा किया करूँगी,
चौदह वर्ष बीतने पर तो मानों फिर न मरूँगी।
देख उस समय तुम तीनों को छूटा धैर्य धरूँगी,
मानों तीन लोक के धन से अपना भाग्य भरूँगी।

पक्ष सिद्ध हो,
लक्ष विद्ध हो,
राम! नाम हो तेरा;
धर्म-वृद्धि हो,
मर्म-ऋद्धि हो;
सब तेरे, तू मेरा।"

प्रस्थान,-वन की ओर,
या लोक-मन की ओर?
होकर न धन की ओर,
हैं राम जन की ओर।

  • साकेत सर्ग-5
  • साकेत सर्ग-3
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण काव्य रचनाएँ : मैथिलीशरण गुप्त
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