साकेत - द्वितीय सर्ग : मैथिलीशरण गुप्त

Saket Sarg-2 : Maithilisharan Gupt

लेखनी, अब किस लिए विलम्ब?
बोल,-जय भारति, जय जगदम्ब।
प्रकट जिसका यों हुआ प्रभात,
देख अब तू उस दिन की रात।

धरा पर धर्मादर्श-निकेत,
धन्य है स्वर्ग-सदृश साकेत।
बढ़े क्यों आज न हर्षोद्रेक?
राम का कल होगा अभिषेक।

दशों दिक्पालों के गुणकेन्द्र,
धन्य हैं दशरथ मही-महेन्द्र।
त्रिवेणी-तुल्य रानियाँ तीन,
बहाती सुखप्रवाह नवीन।
मोद का आज न ओर न छोर;
आम्र-वन-सा फूला सब ओर।
किन्तु हा! फला न सुमनक्षेत्र,
कीट बन गये मन्थरा-नेत्र।
देख कर कैकेयी यह हाल,
आप उससे बोली तत्काल-
"अरी, तू क्यों उदास है आज,
वत्स जब कल होगा युवराज?"
मन्थरा बोली निस्संकोच-
"आपको भी तो है कुछ सोच?"
हँसी रानी सुन कर वह बात,
उठी अनुपम आभा अवदात।
"सोच है मुझको निस्सन्देह,
भरत जो है मामा के गेह।
सफल करके निज निर्मल-दृष्टि,
देख वह सका न यह सुख-सृष्टि!"

ठोक कर अपना क्रूर-कपाल,
जता कर यही कि फूटा भाल,
किंकरी ने तब कहा तुरन्त-
"हो गया भोलेपन का अन्त!"
न समझी कैकेयी यह बात;
कहा उसने-"यह क्या उत्पात?
वचन क्यों कहती है तू वाम?
नहीं क्या मेरा बेटा राम?"
"और वे औरस भरत कुमार?"
कुदासी बोली कर फटकार।
कहा रानी ने पाकर खेद-
"भला दोनों में है क्या भेद?"
"भेद?"-दासी ने कहा सतर्क-
"सबेरे दिखला देगा अर्क।
राजमाता होंगी जब एक,
दूसरी देखेंगी अभिषेक!"
रोक कर कैकेयी ने रोष,
कहा-"देती है किसको दोष?
राम की माँ क्या कल या आज
कहेगा मुझे न लोक-समाज?"

कहा दासी ने धीरज त्याग-
"लगे इस मेरे मुहँ में आग।
मुझे क्या, मैं होती हूँ कौन?
नहीं रहती हूँ फिर क्यों मौन?
देख कर किन्तु स्वामि-हित-घात,
निकल ही जाती है कुछ बात।
इधर भोली हैं जैसी आप,
समझती सब को वैसी आप!
नहीं तो यह सीधा षड्यन्त्र,
रचा क्यों जाता यहाँ स्वतन्त्र?
महारानी कौसल्या आज,
सहज सज लेतीं क्या सब साज?"
कहा रानी ने-"क्या षड्यन्त्र?
वचन हैं तेरे मायिक मन्त्र।
हुई जाती हूँ मैं उद्भ्रान्त;
खोल कर कह तू सब वृत्तान्त।"
मन्थरा ने फिर ठोका भाल-
"शेष है अब भी क्या कुछ हाल?
सरलता भी ऐसी है व्यर्थ,
समझ जो सके न अर्थानर्थ।

भरत को करके घर से त्याज्य,
राम को देते हैं नृप राज्य।
भरत-से सुत पर भी सन्देह,
बुलाया तक न उन्हें जो गेह!"
कहा कैकेयी ने सक्रोध-
"दूर हो दूर अभी निर्बोध!
सामने से हट, अधिक न बोल,
द्विजिह्वे, रस में विष मत घोल।
उड़ाती है तू घर में कीच;
नीच ही होते हैं बस नीच।
हमारे आपस के व्यवहार,
कहाँ से समझे तू अनुदार?"
हुआ भ्रू-कुंजित भाल विशाल,
कपोलों पर हिलते थे बाल।
प्रकट थी मानों शासन-नीति;
मन्थरा सहमी देखि सभीति।
तीक्ष्ण थे लोचन अटल अडोल;
लाल थे लाली भरे कपोल।
न दासी देख सकी उस ओर;
जला दे कहीं न कोप कठोर!


किन्तु वह हटी न अपने आप,
खड़ी ही रही नम्र चुपचाप।
अन्त में बोली स्वर-सा साध-
"क्षमा हो मेरा यह अपराध।
स्वामि-सम्मुख सेवक या भृत्य,
आप ही अपराधी हैं नित्य।
दण्ड दें कुछ भी आप समर्थ;
कहा क्या मैंने अपने अर्थ?
समझ में आया जो कुछ मर्म,
उसे कहना था मेरा धर्म।
न था यह मेरा अपना कृत्य;
भर्तृ हैं भर्तृ, भृत्य हैं भृत्य।"
मही पर अपना माथा टेक,
भरा था जिसमें अति अविवेक,
किया दासी ने उसे प्रणाम,
और वह चली गई अविराम।

गई दासी, पर उसकी बात
दे गई मानों कुछ आघात-

’भरत-से सुत पर भी सन्देह,
बुलाया तक न उन्हें जो गेह!’
पवन भी मानों उसी प्रकार
शून्य में करने लगा पुकार-
’भरत-से सुत पर भी सन्देह,
बुलाया तक न उन्हें जो गेह!’
गूँजते थे रानी के कान,
तीर-सी लगती थी वह तान-
’भरत-से सुत पर भी सन्देह,
बुलाया तक न उन्हें जो गेह!’
मूर्ति-सी बनी हुई उस ठौर
खड़ी रह सकी न अब वह और।
गई शयनालय में तत्काल;
गभीरा सरिता-सी थी चाल।
न सह कर मानों तनु का भार,
लेट कर करने लगी विचार।
कहा तब उसने-"हे भगवान,
आज क्या सुनते हैं ये कान?
मनोमन्दिर की मेरी शान्ति
बनी जाती है क्यों उत्क्रान्ति?

लगा दी किसने आकर आग?
कहाँ था तू संशय के नाग?
नाथ, कैकेयी के वर-वित्त,
चीर कर देखो उसका चित्त।
स्वार्थ का वहाँ नहीं है लेश,
बसे हो एक तुम्हीं प्राणेश!
सदा थे तुम भी परमोदार,
हुआ क्यों सहसा आज विकार?
भरत-से सुत पर भी सन्देह,
बुलाया तक न उसे जो गेह!
न थी हम माँ-बेटे की चाह,
आह! तो खुली न थी क्या राह?
मुझे भी भाई के घर नाथ,
भेज क्यों दिया न सुत के साथ?
राज्य का अधिकारी है ज्येष्ठ,
राम में गुण भी हैं सब श्रेष्ठ।
भला फिर भी क्या मेरा वत्स
शान्त रस में बनता वीभत्स?
तुम्हारा अनुज भरत हे राम,
नहीं है क्या नितान्त निष्काम?

जानते जितना तुम कुलधन्य,
भरत को कौन जानता अन्य?
भरत रे भरत, शील-समुदाय,
गर्भ में आकर मेरे हाय!
हुआ यदि तू भी संशय-पात्र,
दग्ध हो तो मेरा यह गात्र!
चली जा पृथिवी, तू पाताल,
आप को संशय में मत डाल।
कहीं तुझ पर होता विश्वास,
भरत में पहले करता वास।
अरे विश्वास, विश्व-विख्यात,
किया है किसने तेरा घात?
भरत ने? वह है तेरी मूर्ति,
राम ने? वह है प्राणस्फूर्ति।
देव ने? वे हैं सदय सदैव,
दैव ने? हा घातक दुर्दैव!
तुझे क्या हे अदृष्ट, है इष्ट?
सूर्य-कुल का हो आज अनिष्ट?
बाँध सकता है कहाँ परन्तु-
राघवों को अदृष्ट का तन्तु?

भाग्य-वश रहते हैं बस दीन,
वीर रखते हैं उसे अधीन।
हाय! तब तूने अरे अदृष्ट,
किया क्या जीजी को आकृष्ट?
जान कर अबला, अपना जाल-
दिया है उस सरला पर डाल?
किन्तु हा! यह कैसा सारल्य?
सालता है जो बनकर शल्य।
भरत-से सुत पर भी सन्देह,
बुलाया तक न उसे जो गेह!
बहन कौसल्ये, कह दो सत्य,
भरत था मेरा कभी अपत्य?
पुत्र था कभी तुम्हारा राम?
हाय रे! फिर भी यह परिणाम?
किन्तु चाहे जो कुछ हो जाय,
सहूँगी कभी न यह अन्याय।
करूँगी मैं इसका प्रतिकार,
पलट जावे चाहे संसार।
नहीं है कैकेयी निर्बोध,
पुत्र का भूले जो प्रतिशोध।

कहें सब मुझको लोभासक्त,
किन्तु सुत, हूजो तू न विरक्त।

भरत की माँ हो गई अधीर,
क्षोभ से जलने लगा शरीर।
दाह से भरा सौतिया डाह,
बहाता है बस विषप्रवाह।
मानिनी कैकेयी का कोप
बुद्धि का करने लगा विलोप।
और रह सकी न अब वह शान्त,
उठी आँधी-सी होकर भ्रान्त।
एड़ियों तक आ छूटे केश,
हुआ देवी का दुर्गा-वेश।
पड़ा तब जिस पदार्थ पर हस्त
उसे कर डाला अस्त-व्यस्त।
तोड़ कर फेंके सब श्रृंगार,
अश्रुमय-से थे मुक्ता-हार।
मत्त कारिणी-सी दल कर फूल
घूमने लगी आपको भूल।

चूर कर डाले सुन्दर चित्र,
हो गये वे भी आज अमित्र!
बताते थे आ आ कर श्वास-
हृदय का ईर्ष्या-वह्नि-विकास।
पतन का पाते हुए प्रहार
पात्र करते थे हाहाकार-
"दोष किसका है, किस पर रोष,
किन्तु यदि अब भी हो परितोष!"

इसी क्षण कौसल्या अन्यत्र,
सजा कर पट-भूषण एकत्र-
बधू को युवराज्ञी के योग्य,
दे रही थीं उपदेश मनोज्ञ।
इधर कैकेयी उनका चित्र
खींचती थी सम्मुख अपवित्र।
दोष-दर्शी होता है द्वेष,
गुणों को नहीं देखता त्वेष।
राजमाता होकर प्रत्यक्ष,
उसे करके वे मानों लक्ष
खड़ी हँसती हैं वारंवार
हँसी है वह या असि की धार?
उठी तत्क्षण कैकेयी काँप,
अधर-दंशन करके कर चाँप।
भूमि पर पटक पटक कर पैर,
लगी प्रकटित करने निज वैर।
अन्त में सारे अंग समेट
गई वह वहीं भूमि पर लेट।
छोड़ती थी जब जब हुंकार,
चुटीली फणिनी-सी फुंकार!

इधर यों हुआ रंग में भंग,
उर्मिला उधर प्राणपति-संग,
भरत-विषयक ही वार्त्तालाप
छेड़ कर सुनती थी चुपचाप।
बताते थे लक्ष्मण वह भेद
कि "इसका है हम सबको खेद।
किन्तु अवसर था इतना अल्प
न आ सकते वे शुभ-संकल्प।
परे थी और न ऐसी लग्न,
पिता भी थे आतुरता-मग्न।
चलो, अविभिन्न आर्य की मूर्ति
करेगी भरत-भाव की पूर्ति।"

इस समय क्या करते थे राम?
हृदय के साथ हृदय-संग्राम।
उच्च हिमगिरि से भी वे धीर
सिन्धु-सम थे सम्प्रति गम्भीर।
उपस्थित वह अपार अधिकार
दीख पड़ता था उनको भार।
पिता का निकट देख वन-वास
हो रहे थे वे आप उदास।
हाय! वह पितृ-वत्सलता-भोग,
और निज बाल्यभाव का योग,
विगत-सा समझ एक ही संग,
शिथिल-से थे उनके सब अंग।
कहा वैदेही ने-"हे नाथ,
अभी तक चारों भाई साथ

भोगते थे तुम सम-सुख-भोग,
व्यवस्था मेट रही वह योग।
भिन्न-सा करके कोसलराज-
राज्य देते हैं तुमको आज।
तुम्हें रुचता है यह अधिकार?"
"राज्य है प्रिये, भोग या भार?
बड़े के लिए बड़ा ही दण्ड,
प्रजा की थाती रहे अखण्ड।
तदपि निश्चिन्त रहो तुम नित्य,
यहाँ राहित्य नहीं, साहित्य।
रहेगा साधु भरत का मन्त्र,
मनस्वी लक्ष्मण का बल-तन्त्र।
तुम्हारे लघु देवर का धाम,
मात्र दायित्व-हेतु है राम।"
"नाथ, यह राज-नियुक्ति पुनीत,
किन्तु लघु देवर की है जीत।
हुआ जिसके अधीन नृप-गेह,
सचिव-सेनापति-सह सस्नेह!"

कोपना कैकेयी की बात-
किसी को न थी अभी तक ज्ञात।
न जाने, पृथ्वी पर प्रच्छन्न
कहाँ क्या होता है प्रतिपन्न!

भूप क्या करते थे इस काल?
लेखनी, लिख उनका भी हाल।
भूप बैठे थे कुलगुरु-संग,
भरत का ही था छिड़ा प्रसंग।
कहा कुलगुरु ने-"निस्सन्देह
खेद है भरत नहीं जो गेह।
किन्तु यह अवसर था उपयुक्त
कि नृप हो जावें चिन्तामुक्त।"
भूप बोले-"हाँ मेरा चित्त
विकल था आत्म-भविष्य-निमित्त।
इसीसे था मैं अधिक अधीर,
आज है तो कल नहीं शरीर।
मार कर धोखे में मुनि-बाल
हुआ था मुझको शाप कराल।

कि ’तुमको भी निज पुत्र-वियोग
बनेगा प्राण-विनाशक रोग।’
अस्तु यह भरत-विरह अक्लिष्ट
दुःखमय होकर भी था इष्ट।
इसी मिष पाजाऊँ चिरशान्ति
सहज ही समझूँ तो निष्क्रान्ति!"
दिया नृप को वसिष्ठ ने धैर्य,
कहा-"यह उचित नहीं अस्थैर्य।
ईश के इंगित के अनुसार
हुआ करते हैं सब व्यापार।"
"ठीक है," इतना कह कर भूप
शान्त हो गये सौम्य शुभरूप।
हो रहा था उस समय दिनान्त,
वायु भी था मानों कुछ श्रान्त।
गोत्र-गुरु और देव भी आद्य
प्रणति युत पाकर अर्ध्य सपाद्य
गये तब जाना था जिस ओर,
चले नृप भी भीतर इस ओर।

अरुण संध्या को आगे ठेल,
देखने को कुछ नूतन खेल,
सजे विधु की बेंदी से भाल,
यामिनी आ पहुँची तत्काल।
सामने कैकेयी का गेह
शान्त देखा नृप ने सस्नेह।
मन्थरा किन्तु गई थी ताड़
कि यह है ज्वालामुखी पहाड़!
पधारे तब भीतर भूपाल,
वहाँ जाकर देखा जो हाल
रह गये उससे वे जड़-तुल्य;
बढ़ा भय-विस्मय का बाहुल्य।
न पाकर मानों आज शिकार
सिंहिनी सोती थी सविकार।
कोप क्या इसका यह एकान्त
प्राण लेकर भी होगा शान्त?
कुशल है यदि ऐसा हो जाय,
भूप-मुख से निकला बस "हाय!"
टूट कर यह तारा इस रात
न जाने, करे न क्या उत्पात!

पड़ी थी बिजली-सी विकराल,
लपेटे थे घन-जैसे बाल।
कौन छेड़े ये काले साँप?
अवनिपति उठे अचानक काँप।
किन्तु क्या करते, धीरज धार,
बैठ पृथिवी पर पहली बार,
खिलाते-से वे व्याल विशाल,
विनय पूर्वक बोले भूपाल-
"प्रिये, किसलिये आज यह क्रोध?
नहीं होता कुछ मुझको बोध।
तुम्हारा धन है मान अवश्य;
किन्तु हूँ मैं तो यों ही वश्य।
जान पड़ता यह नहीं विनोद,
आज यद्यपि सबको है मोद।
सजे जाते हैं सुख के साज,
तुम्हें क्या दुःख हुआ है आज?
अम्ल हो कर भी मधुर रसाल,
गया निज प्रणय-कलह का काल।
आज हो कर हम रागातीत,
हुए प्रेमी से पितर पुनीत।

भरत की अनुपस्थिति का खेद,
किन्तु है इसमें ऐसा भेद,
निहित है जिसमें मेरा क्षेम,
प्रिये, प्रत्यय रखता है प्रेम।
हुआ हो यदि कुछ रोग-विकार,
बुलाऊँ वैद्य, करूँ उपचार।
अमृत भी मुझको नहीं अलभ्य,
कि मैं हूँ अमर-सभा का सभ्य।
किया हो कहीं किसी ने दोष
कि जिसके कारण है यह रोष,
बता दो तो तुम उसका नाम,
दैव है निश्चय उस पर वाम।
सुनूँ मैं उसका नाम सुमिष्ट,
कौन सी वस्तु तुम्हें है ईष्ट?
जहाँ तक दिनकर-कर-प्रसार,
वहाँ तक समझो निज अधिकार।
किसीको करना हो कुछ दान,
करो तो दुगुना आज प्रदान,
भरा रत्नाकर-सा भण्डार
रीत सकता है किसी प्रकार?

माँगना हो तुमको जो आज
माँग लो, करो न कोप न लाज।
तुम्हें पहले ही दो वरदान
प्राप्य हैं, फिर भी क्यों यह मान?
याद है वह संवर-रण-रंग,
विजय जब मिली व्रणों के संग?
किया था किसने मेरा त्राण?
विकल क्यों करती हो अब प्राण?"

हुआ सचमुच यह प्रिय संवाद,
आ गई कैकेयी को याद।
बिना खोले फिर भी वह नेत्र
चलाने लगी वचन मय वेत्र।
"चलो, रहने दे झूठी प्रीति,
जानती हूँ मैं यह नृप-नीति।
दिया तुमने मुझको क्या मान,
वचन मय वही न दो वरदान?"
भूप ने कहा-"न मारो बोल,
दिखाऊँ कहो हृदय को खोल?

तुम्हीं ने माँगा कब क्या आप?
प्रिये, फिर भी क्यों यह अभिशाप?
भला, माँगो तो कुछ इस बार,
कि क्या दूँ दान नहीं, उपहार?"
मानिनी बोली निज अनुरूप-
"न दोगे वे दो वर भी भूप!"
कहा नृप ने लेकर निःश्वास-
"दिलाऊँ मैं कैसे विश्वास?
परीक्षा कर देखो कमलाक्षि,
सुनो तुम भी सुरगण, चिरसाक्षि!
सत्य से ही स्थिर है संसार,
सत्य ही सब धर्मों का सार,
राज्य ही नहीं, प्राण-परिवार,
सत्य पर सकता हूँ सब वार।"
सरल नृप को छलकर इस भाँति,
गरल उगले उरगी जिस भाँति।
भरत-सुत-मणि की माँ मुद मान,
माँगने चली उभय वरदान-
"नाथ, मुझको दो यह वर एक-
भरत का करो राज्य-अभिषेक।
दूसरा यह दो, न हो उदास,
चतुर्दश वर्ष राम-वन-वास!"

वचन सुन ऐसे क्रूर-कराल,
देखते ही रह गये नृपाल।
वज्र-सा पड़ा अचानक टूट,
गया उनका शरीर-सा छूट!
उन्हें यों हतज्ञान-सा देख,
ठोकती-सी छाती पर मेख,
पुनः बोली वह भोंहें तान-
"मौन हो गये, कहो हाँ या न!"
भूप फिर भी न सके कुछ बोल,
मूर्ति-से बैठे रहे अडोल।
दृष्टि ही अपनी करुण-कठोर
उन्होंने डाली उसकी ओर!
कहा फिर उसने देकर क्लेश-
"सत्य-पालन है यही नरेश?
उलट दो बस तुम अपनी बात,
मरूँ मैं करके अपना घात।"

कहा तब नृप ने किसी प्रकार-
"मरो तुम क्यों, भोगो अधिकार।
मरूँगा तो मैं अगति-समान,
मिलेंगे तुम्हें तीन वरदान!"
देख ऊपर को अपने आप
लगे नृप करने यों परिताप-
"दैव, यह सपना है कि प्रतीति?
यही है नर-नारी की प्रीति?
किसीको न दें कभी वर देव;
वचन देना छोड़ें नर-देव।
दान में दुरुपयोग का वास,
किया जावे किसका विश्वास?
जिसे चिन्तामणि-माला जान
हृदय पर दिया प्रधानस्थान;
अन्त में लेकर यों विष-दन्त
नागिनी निकली वह हा हन्त!
राज्य का ही न तुझे था लोभ,
राम पर भी था इतना क्षोभ?
न था वह निस्पृह तेरा पुत्र?
भरत ही था क्या मेरा पुत्र?

राम-से सुत को भी वनवास,
सत्य है यह अथवा परिहास?
सत्य है तो है सत्यानाश,
हास्य है तो है हत्या-पाश!"
प्रतिध्वनि-मिष ऊँचा प्रासाद
निरन्तर करता था अनुनाद।
पुनः बोले मुँह फेर महीप-
"राम, हा राम, वत्स, कुल-दीप!"
हो गये गद्गद वे इस वार,
तिमिरमय जान पड़ा संसार।
गृहागत चन्द्रालोक-विधान
जँचा निज भावी शव-परिधान!
सौध बन गया श्मशान-समान,
मृत्यु-सी पड़ी केकयी जान।
चिता के अंगारे-से दीप,
जलाते थे प्रज्वलित समीप!
"हाय! कल क्या होगा?" कह काँप,
रहे वे घुटनों में मुँह ढाँप।
आप से ही अपने को आज
छिपाते थे मानों नरराज!

वचन पलटें कि भेजें राम को वन में,
उभय विध मृत्यु निश्चित जान कर मन में
हुए जीवन-मरण के मध्य धृत से वे;
रहे बस अर्द्ध जीवित अर्द्ध मृत-से वे।

इसी दशा में रात कटी,
छाती-सी पौ प्रात फटी।
अरुण भानु प्रतिभात हुआ,
विरुपाक्ष-सा ज्ञात हुआ!

  • साकेत सर्ग-3
  • साकेत सर्ग-1
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण काव्य रचनाएँ : मैथिलीशरण गुप्त
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