मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी
आह को चाहिये इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक
दाम हर मौज में है हलका-ए-सदकामे-नहंग
देखें क्या गुज़रे है कतरे पे गुहर होने तक
आशिकी सबर तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूं ख़ूने-जिगर होने तक
हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएंगे हम तुमको ख़बर होने तक
परतवे-खुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
मैं भी हूं एक इनायत की नज़र होने तक
यक-नज़र बेश नहीं फुरसते-हसती गाफ़िल
गरमी-ए-बज़म है इक रकसे-शरर होने तक
ग़मे-हसती का 'असद' किस से हो जुज़ मरग इलाज
शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक
बस कि दुशवार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इनसां होना
गिरीया चाहे है खराबी मिरे काशाने की
दरो-दीवार से टपके है बयाबां होना
वाए दीवानगी-ए-शौक कि हरदम मुझको
आप जाना उधर और आप ही हैरां होना
जलवा अज़-बसकि तकाज़ा-ए-निगह करता है
जौहरे-आईना भी चाहे है मिज़गां होना
इशरते-कतलगहे-अहले-तमन्ना मत पूछ
ईदे-नज़्ज़ारा है शमशीर का उरीयां होना
ले गए ख़ाक में हम, दाग़े-तमन्ना-ए-निशात
तू हो और आप बसद रंग गुलिसतां होना
इशरते-पारा-ए-दिल, ज़ख़्म-तमन्ना खाना
लज़्ज़ते-रेशे-जिगर, ग़रके-नमकदां होना
की मिरे कतल के बाद, उसने जफ़ा से तौबा
हाय, उस जूद पशेमां का पशेमां होना
हैफ़, उस चार गिरह कपड़े की किस्मत 'ग़ालिब'
जिसकी किस्मत में हो, आशिक का गिरेबां होना
दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ, बुरा न हुआ
जमा करते हो कयों रकीबों को ?
इक तमाशा हुआ गिला न हुआ
हम कहां किस्मत आज़माने जाएं
तू ही जब ख़ंजर-आज़मा न हुआ
कितने शरीं हैं तेरे लब कि रकीब
गालियां खा के बे मज़ा न हुआ
है ख़बर गरम उनके आने की
आज ही घर में बोरीया न हुआ
क्या वो नमरूद की ख़ुदायी थी
बन्दगी में मेरा भला न हुआ
जान दी, दी हुयी उसी की थी
हक तो यह है कि हक अदा न हुआ
ज़ख़्म गर दब गया, लहू न थमा
काम गर रुक गया रवां न हुआ
रहज़नी है कि दिल-सितानी है
ले के दिल, दिलसितां रवाना हुआ
कुछ तो पढ़ीये कि लोग कहते हैं
आज 'ग़ालिब' ग़ज़लसरा न हुआ
दायम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूं मैं
ख़ाक ऐसी ज़िन्दगी पे कि पत्थर नहीं हूं मैं
कयों गरदिश-ए-मुदाम से घबरा न जाये दिल
इनसान हूं पयाला-ओ-साग़र नहीं हूं मैं
या रब ! ज़माना मुझको मिटाता है किस लिये
लौह-ए-जहां पे हरफ़-ए-मुकररर नहीं हूं मैं
हद चाहिये सज़ा में उकूबत के वासते
आख़िर गुनहगार हूं, काफ़िर नहीं हूं मैं
किस वासते अज़ीज़ नहीं जानते मुझे ?
लालो-ज़मुररुदो-ज़र-ओ-गौहर नहीं हूं मैं
रखते हो तुम कदम मेरी आंखों में कयों दरेग़
रुतबे में मेहर-ओ-माह से कमतर नहीं हूं मैं
करते हो मुझको मनअ-ए-कदम-बोस किस लिये
क्या आसमान के भी बराबर नहीं हूं मैं
'ग़ालिब' वज़ीफ़ाख़वार हो, दो शाह को दुआ
वो दिन गये कि कहते थे, "नौकर नहीं हूं मैं"
धमकी में मर गया, जो न बाबे-नबरद था
इशके-नबरद पेशा, तलबगारे-मरद था
था ज़िन्दगी में मरग का खटका लगा हुआ
उड़ने से पेशतर भी मेरा रंग ज़रद था
तालीफ़े-नुसखाहा-ए वफ़ा कर रहा था मैं
मजमूअ-ए-ख़याल अभी फ़रद-फ़रद था
दिल ता ज़िग़र, कि साहले-दरीया-ए-खूं है अब
इस रहगुज़र में जलवा-ए-गुल आगे गरद था
जाती है कोई कशमकश अन्दोहे-इशक की
दिल भी अगर गया, तो वही दिल का दर्द था
अहबाब चारा-साजीए-वहशत न कर सके
ज़िन्दां में भी ख़याल, बयाबां-नबरद था
यह लाश बेकफ़न, 'असदे'-ख़सता-जां की है
हक मगफ़िरत करे, अजब आज़ाद मरद था
दिले-नादां तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
हम हैं मुशताक और वो बेज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है
मैं भी मूंह में ज़ुबान रखता हूं
काश पूछो कि मुद्दआ क्या है
जबकि तुज बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा-ए-ख़ुदा क्या है
ये परी चेहरा लोग कैसे हैं
ग़मज़ा-ओ-इशवा-यो अदा क्या है
शिकने-ज़ुल्फ़-ए-अम्बरी क्या है
निगह-ए-चशम-ए-सुरमा क्या है
सबज़ा-ओ-गुल कहां से आये हैं
अबर क्या चीज है हवा क्या है
हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
हां भला कर तेरा भला होगा
और दरवेश की सदा क्या है
जान तुम पर निसार करता हूं
मैं नहीं जानता दुआ क्या है
मैंने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
मुफ़त हाथ आये तो बुरा क्या है
दोसत ग़मखवारी में मेरी सअयी फ़रमायेंगे क्या
ज़ख़्म के भरते तलक नाखुन न बढ़ जाएंगे क्या
बेन्याजी हद से गुज़री, बन्दा-परवर कब तलक
हम कहेंगे हाले-दिल और आप फरमायेंगे क्या ?
हज़रते-नासेह गर आएं दीदा-औ-दिल फरशे-राह
कोई मुझको यह तो समझा दो समझायेंगे क्या
आज वां तेग़ो-कफ़न बांधे हुए जाता हूं मैं
उजर मेरे कतल करने में वो अब लायेंगे क्या
गर कीया नासेह ने हमको कैद अच्छा ! यूं सही
ये जुनेने-इशक के अन्दाज़ छूट जायेंगे क्या
ख़ाना-ज़ादे-ज़ुल्फ़ हैं, जंज़ीर से भागेंगे कयों
हैं गिरिफ़तारे-वफ़ा, जिन्दां से घबरायेंगे क्या
है अब इस माअमूरा में कहते (कहरे)-ग़मे-उलफ़त 'असद'
हमने यह माना कि दिल्ली में रहें खायेंगे क्या
(नोट=कई जगह 'भरते तलक' की जगह
'भरने तलक' भी लिखा मिलता है)
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िशत दर्द से भर न आये कयों
रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये कयों
दैर नहीं, हरम नहीं, दर नहीं, आसतां नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम, ग़ैर हमें उठाये कयों
जब वो जमाल-ए-दिलफ़रोज़, सूरते-मेह्रे-नीमरोज़
आप ही हो नज़ारा-सोज़, परदे में मुंह छिपाये कयों
दशना-ए-ग़मज़ा जां-सतां, नावक-ए-नाज़ बे-पनाह
तेरा ही अकस-ए-रुख़ सही, सामने तेरे आये कयों
कैदे-हयातो-बन्दे-ग़म असल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये कयों
हुसन और उसपे हुसन-ए-ज़न रह गई बुल-हवस की शरम
अपने पे एतमाद है ग़ैर को आज़माये कयों
वां वो ग़ुरूर-ए-इज़ज़-ओ-नाज़ यां ये हिजाब-ए-पास-ए-वज़अ
राह में हम मिलें कहां, बज़म में वो बुलाये कयों
हां वो नहीं ख़ुदापरसत, जायो वो बेवफ़ा सही
जिसको हो दीन-ओ-दिल अज़ीज़, उसकी गली में जाये कयों
'ग़ालिब'-ए-ख़सता के बग़ैर कौन से काम बन्द हैं
रोइये ज़ार-ज़ार क्या, कीजिये हाय-हाय कयों
घर हमारा जो न रोते भी तो वीरां होता
बहर गर बहर न होता तो बयाबां होता
तंगी-ए-दिल का गिला क्या ये वो काफ़िर दिल है
कि अगर तंग न होता तो परेशां होता
वादे-यक उम्र-वराय बार तो देता बारे
काश रिज़वां ही दरे-यार का दरबां होता
है बस कि हर इक उनके इशारे में निशां और
करते हैं मुहब्बत तो गुज़रता है गुमां और
या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको जो न दे मुझको ज़ुबां और
अबरू से है क्या उस निगाहे-नाज़ को पैबन्द
है तीर मुकररर मगर उसकी है कमां और
तुम शहर में हो तो हमें क्या ग़म जब उठेंगे
ले आयेंगे बाज़ार से जाकर दिल-ओ-जां और
हरचन्द सुबुकदसत हुए बुत शिकनी में
हम हैं तो अभी राह में हैं संगे-गिरां और
है ख़ूने-जिगर जोश में दिल खोल के रोता
होते जो कई दीदा-ए-ख़ून्नाबफ़िशां और
मरता हूं इस आवाज़ पे हरचन्द सर उड़ जाए
जल्लाद को लेकिन वो कहे जायें कि हां और
लोगों को है ख़ुरशीदे-जहां-ताब का धोका
हर रोज़ दिखाता हूं मैं इक दाग़े-नेहां और
लेता न अगर दिल तुमहें देता कोई दम चैन
करता जो न मरता कोई दिन आहो-फुगां और
पाते नहीं जब राह तो चढ़ जाते हैं नाले
रुकती है मेरी तबय तो होती है रवां और
हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अन्दाज़े-बयां और
हर इक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुमहीं कहो कि ये अन्दाज़े-गुफ़तगू क्या है
न शोले में ये करिशमा न बरक में ये अदा
कोई बतायो कि वो शोखे-तुन्द-ख़ू क्या है
ये रशक है कि वो होता है हमसुख़न तुमसे
वरना ख़ौफ़-ए-बद-आमोज़ीए-अदू क्या है
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी जैब को अब हाजते-रफ़ू क्या है
जला है जिसम जहां, दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुसतजू क्या है
रग़ों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं कायल
जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहशत अज़ीज़
सिवाये वादा-ए-गुलफ़ाम-ए-मुशक बू क्या है
पीयूं शराब अगर ख़ुम भी देख लूं दो-चार
ये शीशा-ओ-कदह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है
रही न ताकते-गुफ़तार और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पे कहये कि आरज़ू क्या है
हुआ है शह का मुसाहब फिरे है इतराता
वगरना शहर में 'ग़ालिब' की आबरू क्या है
जहां तेरा नक्शे-कदम देखते हैं
ख़ियाबां ख़ियाबां इरम देखते हैं
दिल आशुफ़तगा खाले-कुंजे-दहन के
सुवैदा में सैरे-अदम देखते हैं
तिरे सरवे-कामत से, इक कद्दे-आदम
कयामत के फितने को कम देखते हैं
तमाशा कर ऐ महवे-आईनादारी
तुझे किस तमन्ना से हम देखते हैं
सुराग़े-तुफ़े-नाला ले दाग़े-दिल से
कि शब-रौ का नक्शे-कदम देखते हैं
बना कर फ़कीरों का हम भेस, 'गालिब'
तमाशा-ए-अहले-करम देखते हैं
की वफ़ा हमसे तो ग़ैर उसको जफ़ा कहते हैं
होती आई है कि अच्छों को बुरा कहते हैं
आज हम अपनी परेशानी-ए-ख़ातिर उनसे
कहने जाते तो हैं, पर देखीए क्या कहते हैं
अगले वकतों के हैं ये लोग इनहें कुछ न कहो
जो मै-ओ-नग़मा को अन्दोहरुबा कहते हैं
दिल में आ जाये है होती है जो फ़ुरसत ग़म से
और फिर कौन से नाले को रसा कहते हैं
है परे सरहदे-इदराक से अपना मसजूद
किबले को अहले-नज़र किबला नुमा कहते हैं
पाए-अफ़गार पे जब तुझे रहम आया है
खारे-रह को तेरे हम मेहर गिया कहते हैं
इक शरर दिल में है उससे कोई घबराएगा क्या
आग मतलूब है हमको जो हवा कहते हैं
देखीए लाती है उस शोख़ की नख़वत क्या रंग
उसकी हर बात पे हम नामे-ख़ुदा कहते हैं
वहशत-ओ-शेफ़ता अब मरसीया कहवें शायद
मर गया ग़ालिब-ए-आसुफ़ता-नवा कहते हैं
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद कयों रात भर नहीं आती
आगे आती थी हाले-दिल पे हंसी
अब किसी बात पर नहीं आती
जानता हूं सवाबे-ताअत-ओ-ज़ोहद
पर तबीयत इधर नहीं आती
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूं
वरना क्या बात कर नहीं आती
कयों न चीखूं कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती
दाग़े-दिल गर नज़र नहीं आता
बू भी ऐ बूए चारागर नहीं आती
हम वहां हैं जहां से हमको भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
मरते हैं आरजू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती
काबा किस मूंह से जाओगे 'ग़ालिब'
शरम तुमको मगर नहीं आती
मेहरबां हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वकत
मैं गया वकत नहीं हूं कि फिर आ भी न सकूं
जोफ़ में ताना-ए-अग़यार का शिकवा क्या है
बात कुछ सर तो नहीं है कि उठा भी न सकूं
ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर वरना
क्या कसम है तिरे मिलने की कि खा भी न सकूं
(मिरज़ा ग़ालिब दी फ़ारसी रचना दा अनुवाद)
मेरे शौक दा नहीं इतबार तैनूं,
आजा वेख मेरा इंतज़ार आजा ।
ऐवें लड़न बहानने लभ्भना एं,
की तूं सोचना एं सितमगार आजा ।
भावें हिजर ते भावें विसाल होवे,
वक्खो वक्ख दोहां दियां लज़्ज़तां ने,
मेरे सोहण्यां जाह हज़ार वारी,
आजा प्यार्या ते लक्ख वार आजा ।
इह रिवाज़ ए मसजिदां मन्दरां दा
ओथे हसतियां ते ख़ुद-प्रसतियां ने,
मैख़ाने विच्च मसतियां ई मसतियां ने
होश कर बणके हुश्यार आजा ।
तूं सादा ते तेरा दिल सादा
तैनूं ऐवें रकीब कुराह पायआ,
जे तूं मेरे जनाज़े ते नहीं आया
राह तक्कदै तेरी मज़ार आजा ।
सुक्खीं वस्सना जे तूं चाहुना एं,
मेरे 'ग़ालिबा' एस जहान अन्दर,
आजा रिन्दां दी बज़म विच्च आ बहजा,
इत्थे बैठदे ने ख़ाकसार आजा ।
नक्श फरियादी है किसकी शोख़ी-ए-तहरीर का
काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर-ए-तसवीर का
कावे-कावे सख़तजानीहा-ए-तनहायी न पूछ
सुबह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का
ज़ज़बा-ए-बेइख़तयारे-शौक देखा चाहीए
सीना-ए-शमशीर से बाहर है दम शमशीर का
आगही दाम-ए-शनीदन जिस कदर चाहे बिछाए
मुद्दआ अंका है अपने आलमे-तकरीर का
बस कि हूं 'ग़ालिब' असीरी में भी आतिश ज़ेरे-पा
मूए-आतिश-दीदा है हलका मेरी ज़ंजीर का
न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता
हुआ जब ग़म से यूं बेहस, तो ग़म क्या सर के कटने का
न होता गर जुदा तन से, तो जानूं पर धरा होता
हुयी मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया, पर याद आता है
वो हर इक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता
नुकताचीं है, ग़मे-दिल उसको सुनाये न बने
क्या बने बात, जहां बात बनाये न बने
मैं बुलाता तो हूं उसको, मगर ऐ जज़बा-ए-दिल
उस पे बन जाए कुछ ऐसी, कि बिन आये न बने
खेल समझा है, कहीं छोड़ न दे भूल न जाये
काश ! यों भी हो कि बिन मेरे सताये न बने
ग़ैर फिरता है, लिये यों तेरे ख़त को कि अगर
कोई पूछे कि ये क्या है, तो छुपाये न बने
इस नज़ाकत का बुरा हो, वो भले हैं तो क्या
हाथ आयें, तो उनहें हाथ लगाये न बने
कह सके कौन कि ये जलवागरी किसकी है
परदा छोड़ा है वो उसने कि उठाये न बने
मौत की राह न देखूं, कि बिन आये न रहे
तुम को चाहूं कि न आयो, तो बुलाये न बने
बोझ वो सर से गिरा है कि उठाये न उठे
काम वो आन पड़ा है कि बनाये न बने
इशक पर ज़ोर नहीं, है ये वो आतश 'ग़ालिब'
कि लगाये न लगे और बुझाये न बने
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
दिल जिगर तिशना-ए-फ़रियाद आया
दम लीया था न क्यामत ने हनोज़
फिर तेरा वकते-सफ़र याद आया
सादगी-हाए-तमन्ना, यानी
फिर वो नौरंगे-नज़र याद आया
उज़रे-वा-मांदगी ऐ हसरते-दिल
नाला करता था जिगर याद आया
ज़िन्दगी यों भी गुज़र ही जाती
कयों तेरा राहगुज़र याद आया
क्या ही रिज़वां से लड़ायी होगी
घर तेरा ख़ुलद में गर याद आया
आह वो जुररत-ए-फ़रियाद कहां
दिल से तंग आ के जिगर याद आया
फिर तेरे कूचे को जाता है ख़याल
दिले-गुंमगशता मगर याद आया
कोई वीरानी सी वीरानी है
दशत को देख के घर याद आया
मैंने मजनूं पे लड़कपन में 'असद'
संग उठाया था कि सर याद आया
रहीये अब ऐसी जगह चलकर, जहां कोई न हो
हम-सुखन कोई न हो और हम जुबां कोई न हो
बेदरो-दीवार सा इक घर बनाया चाहिये
कोई हमसाया न हो और पासबां कोई न हो
पड़ीये गर बीमार, तो कोई न हो तीमारदार
और अगर मर जाईये, तो नौहा ख़वां कोई न हो
शौक हर रंग, रकीबे-सरो-सामां निकला
कैस तसवीर के परदे में भी उरीयां निकला
ज़ख़्म ने दाद न दी तंगीए-दिल की या रब
तीर भी सीना-ए-बिसमिल से पर-अफ़शां निकला
बूए-गुल, नाला-ए-दिल, दूदे-चराग़े-महफ़िल
जो तिरी बज़म से निकला, सो परीशां निकला
दिले-हसरतज़दा था मायद-ए-लज़्ज़ते-दर्द
काम यारों का, बकदरे-लबो-दन्दां निकला
है नौआमोज़े-फ़ना, हिंमते-दुशवार-पसन्द
सख़त मुशकिल है, कि यह काम भी आसां निकला
दिल में फिर गिरीए ने जोर (शोर) उठाया, 'ग़ालिब'
आह जो कतरा न निकला था, सो तूफ़ां निकला
ये हम जो हिजर में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
कभी सबा तो कभी नामाबर को देखते हैं
वो आये घर में हमारे ख़ुदा की कुदरत है
कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं
नज़र लगे न कहीं उसके दसत-ओ-बाज़ू को
ये लोग कयों मेरे ज़ख़्म-ए-जिगर को देखते हैं
तेरे जवाहर-ए-तरफ़-ए-कुलह को क्या देखें
हम औज-ए-ताला-ए-लाल-ओ-गुहर को देखते हैं
ये न थी हमारी किस्मत कि विसाले-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता
तेरे वादे पे जीये हम तो ये जान झूठ जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता
तेरी नाज़ुकी से जाना कि बंधा था अहद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता अगर उसतुवार होता
कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीरे-नीमकश को
ये खलिश कहां से होती जो जिगर के पार होता
ये कहां की दोसती है कि बने हैं दोसत नासेह
कोई चारासाज़ होता, कोई ग़मगुसार होता
रगे-संग से टपकता वे लहू कि फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता
ग़म अगरचे जां-गुसिल है, पर कहां बचे कि दिल है
ग़मे-इशक 'गर न होता, ग़मे-रोज़गार होता
कहूं किससे मैं कि क्या है, शबे-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना ? अगर एक बार होता
हुए मर के हम जो रुसवा, हुए कयों न ग़रके-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता
उसे कौन देख सकता, कि यग़ाना है वो यकता
जो दुयी की बू भी होती तो कहीं दो चार होता
ये मसाईले-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान 'ग़ालिब'
तुझे हम वली समझते, जो न बादाख़वार होता
वो फ़िराक और वो विसाल कहां
वो शब-ओ-रोज़-ओ-माह-ओ-साल कहां
फ़ुरसत-ए-कारोबार-ए-शौक किसे
जौक-ए-नज़्ज़ारा-ए-जमाल कहां
दिल तो दिल वो दिमाग़ भी न रहा
शोर-ए-सौदा-ए-ख़त्त-ओ-ख़ाल कहां
थी वो इक शखस के तसव्वुर से
अब वो रानाई-ए-ख़याल कहां
ऐसा आसां नहीं लहू रोना
दिल में ताकत जिगर में हाल कहां
हमसे छूटा किमारख़ाना-ए-इशक
वां जो जावें, गिरह में माल कहां
फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूं
मैं कहां और ये वबाल कहां
मुज़मंहल हो गये कुवा 'ग़ालिब'
वो अनासिर में एतदाल कहां
न गुल-ए-नग़मा हूं, न परदा-ए-साज़
मैं हूं अपनी शिकसत की आवाज़
तू, और आरायश-ए-ख़म-ए-काकुल
मैं, और अन्देशा-हाए-दूरो-दराज़
लाफ़-ए-तमकीं फ़रेब-ए-सादा-दिली
हम हैं, और राज़ हाए-सीना-ए-गुदाज़
हूं गिरफ़तारे उलफ़त-ए-सैयाद
वरना बाकी है ताकते परवाज़
वो भी दिन हो कि उस सितमगर से
नाज़ खींचूं बजाय हसरते-नाज़
नहीं दिल में तेरे वो कतरा-ए-ख़ूं
जिस से मिज़गां हुयी न हो गुलबाज़
मुझको पूछा तो कुछ ग़ज़ब न हुआ
मैं ग़रीब और तू ग़रीब-नवाज़
असदुललाह ख़ां तमाम हुआ
ऐ दरेग़ा वह रिन्द-ए-शाहदबाज़
ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयां अपना
बन गया रकीब आख़िर था जो राज़दां अपना
मय वो कयों बहुत पीते बज़म-ए-ग़ैर में, यारब
आज ही हुआ मंज़ूर उनको इमतहां अपना
मंज़र इक बुलन्दी पर और हम बना सकते
अरश से उधर होता काश के मकां अपना
दे वो जिस कदर ज़िल्लत हम हंसी में टालेंगे
बारे आशना निकला उनका पासबां अपना
दर्द-ए-दिल लिखूं कब तक, जाऊं उन को दिखला दूं
उंगलियां फ़िगार अपनी ख़ामा ख़ूंचकां अपना
घिसते-घिसते मिट जाता आप ने अबस बदला
नंग-ए-सिजदा से मेरे संग-ए-आसतां, अपना
ता करे न ग़म्माज़ी, कर लिया है दुशमन को
दोसत की शिकायत में हम ने हमज़बां अपना
हम कहां के दाना थे, किस हुनर में यकता थे
बेसबब हुआ 'ग़ालिब' दुशमन आसमां अपना
सब कहां ? कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायां हो गईं
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिनहां हो गईं
याद थी हमको भी रंगा-रंग बज़मआराययां
लेकिन अब नक्श-ओ-निगार-ए-ताक-ए-निसियां हो गईं
थीं बनातुन्नाश-ए-गरदूं दिन को परदे में नेहां
शब को उनके जी में क्या आई कि उरियां हो गईं
कैद से याकूब ने ली गो न यूसुफ़ की ख़बर
लेकिन आंखें रौज़न-ए-दीवार-ए-ज़िन्दां हो गईं
सब रकीबों से हों नाख़ुश, पर ज़नान-ए-मिस्र से
है ज़ुलेख़ा ख़ुश कि महवे-माह-ए-कनआं हो गईं
जू-ए-ख़ूं आंखों से बहने दो कि है शाम-ए-फ़िराक
मैं ये समझूंगा के दो शमअएं फ़रोज़ां हो गईं
इन परीज़ादों से लेंगे ख़ुलद में हम इंतकाम
कुदरत-ए-हक से यही हूरें अगर वां हो गईं
नींद उसकी है, दिमाग़ उसका है, रातें उसकी हैं
तेरी ज़ुल्फ़ें जिसके बाज़ू पर परीशां हो गईं
मैं चमन में क्या गया, गोया दबिसतां खुल गया
बुलबुलें सुन कर मेरे नाले, ग़ज़लख़्वां हो गईं
वो निगाहें कयों हुयी जाती हैं यारब दिल के पार
जो मेरी कोताही-ए-किस्मत से मिज़गां हो गईं
बस कि रोका मैंने और सीने में उभरीं पै-ब-पै
मेरी आहें बख़िया-ए-चाक-ए-गरीबां हो गईं
वां गया भी मैं, तो उनकी गालियों का क्या जवाब ?
याद थीं जितनी दुआयें, सरफ़-ए-दरबां हो गईं
जां-फ़िज़ां है बादा, जिसके हाथ में जाम आ गया
सब लकीरें हाथ की गोया रग-ए-जां हो गईं
हम मुवहद्द हैं, हमारा केश है तरक-ए-रूसूम
मिल्लतें जब मिट गईं, अज़्ज़ा-ए-ईमां, हो गईं
रंज से ख़ूगर हुआ इनसां तो मिट जाता है रंज
मुशिकलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो गईं
यूं ही गर रोता रहा 'ग़ालिब', तो ऐ अहल-ए-जहां !
देखना इन बसितयों को तुम, कि वीरां हो गईं
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
सिवाए ख़ून-ए-जिगर, सो जिगर में ख़ाक नहीं
मगर ग़ुबार हुए पर हवा उड़ा ले जाये
वगरना ताब-ओ-तबां बालो-पर में ख़ाक नहीं
ये किस बहशत-शमायल की आमद-आमद है ?
कि ग़ैर-ए-जलवा-ए-गुल रहगुज़र में ख़ाक नहीं
भला उसे न सही, कुछ मुझी को रहम आता
असर मेरे नफ़स-ए-बेअसर में ख़ाक नहीं
ख़याल-ए-जलवा-ए-गुल से ख़राब है मयकश
शराबख़ाने के दीवार-ओ-दर में ख़ाक नहीं
हुआ हूं इशक की ग़ारतगरी से शरिमन्दा
सिवाय हसरत-ए-तामीर घर में ख़ाक नहीं
हमारे शे'र हैं अब सिरफ़ दिल-लगी के ''असद''
खुला कि फ़ायदा अरज़-ए-हुनर में ख़ाक नहीं
मसजिद के ज़ेर-ए-साया ख़राबात चाहिये
भौं पास आंख किबला-ए-हाजात चाहिये
आशिक हुए हैं आप भी एक और शख़स पर
आख़िर सितम की कुछ तो मुकाफ़ात चाहिये
दे दाद ऐ फ़लक दिल-ए-हसरत-परसत की
हां कुछ न कुछ तलाफ़ी-ए-माफ़ात चाहिये
सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी
तकरीब कुछ तो बहर-ए-मुलाकात चाहिये
मय से ग़रज़ नशात है किस रु-सियाह को
इक-गूना बे-ख़ुदी मुझे दिन रात चाहिये
है रंग-ए-लाला-ओ-गुल-ओ-नसरीं जुदा जुदा
हर रंग में बहार का इसबात चाहिये
सर पा-ए-ख़ुम पे चाहिये हंगाम-ए-बे-ख़ुदी
रू सू-ए-किबला वकत-ए-मुनाजात चाहिये
यानी ब-हसब-ए-गरिदश-ए-पैमान-ए-सिफ़ात
आरिफ़ हमेशा मसत-ए-मय-ए-ज़ात चाहिये
नशव-ओ-नुमा है असल से ''ग़ालिब'' फ़ुरू को
ख़ामोशी ही से निकले है जो बात चाहिये
ग़म-ए-दुनिया से गर पायी भी फ़ुरसत सर उठाने की
फ़लक का देखना तकरीब तेरे याद आने की
खुलेगा किस तरह मज़मूं मेरे मकतूब का यारब
कसम खायी है उस काफ़िर ने काग़ज़ के जलाने की
लिपटना परनियां में शोला-ए-आतिश का आसां है
वले मुशिकल है हिकमत दिल में सोज़-ए-ग़म छुपाने की
उन्हें मंज़ूर अपने ज़ख़्म्यों का देख आना था
उठे थे सैर-ए-गुल को देखना शोख़ी बहाने की
हमारी सादगी थी इलतफ़ात-ए-नाज़ पर मरना
तेरा आना न था ज़ालिम मगर तमहीद जाने की
लकद कूब-ए-हवादिस का तहम्मुल कर नहीं सकती
मेरी ताकत कि ज़ामिन थी बुतों के नाज़ उठाने की
कहूं क्या ख़ूबी-ए-औज़ा-ए-अबना-ए-ज़मां 'ग़ालिब'
बदी की उसने जिस से हमने की थी बारहा नेकी
चाहिये, अच्छों को जितना चाहिये
ये अगर चाहें, तो फिर क्या चाहिये
सोहबत-ए-रिन्दां से वाजिब है हज़र
जा-ए-मै अपने को खींचा चाहिये
चाहने को तेरे क्या समझा था दिल
बारे, अब इस से भी समझा चाहिये
चाक मत कर जैब बे-अय्याम-ए-गुल
कुछ उधर का भी इशारा चाहिये
दोसती का परदा है बेगानगी
मुंह छुपाना हम से छोड़ा चाहिये
दुशमनी में मेरी खोया ग़ैर को
किस कदर दुशमन है, देखा चाहिये
अपनी, रुसवायी में क्या चलती है सअई
यार ही हंगामाआरा चाहिये
मुन्हसिर मरने पे हो जिस की उमीद
नाउमीदी उस की देखा चाहिये
ग़ाफ़िल, इन महतलअतों के वासते
चाहने वाला भी अच्छा चाहिये
चाहते हैं ख़ूब-रूयों को, 'असद'
आप की सूरत तो देखा चाहिये
हर कदम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायां मुझ से
मेरी रफ़तार से भागे है बयाबां मुझ से
दरस-ए-उनवान-ए-तमाशा ब-तग़ाफ़ुल ख़ुशतर
है निगह रिशता-ए-शीराज़ा-ए-मिज़गां मुझ से
वहशत-ए-आतिश-ए-दिल से शब-ए-तनहायी में
सूरत-ए-दूद रहा साया गुरेज़ां मुझ से
ग़म-ए-उश्शाक, न हो सादगी-आमोज़-ए-बुतां
किस कदर ख़ाना-ए-आईना है वीरां मुझ से
असर-ए-आबला से जाद-ए-सहरा-ए-जुनूं
सूरत-ए-रिशता-ए-गौहर है चिराग़ां मुझ से
बे-ख़ुदी बिसतर-ए-तमहीद-ए-फ़राग़त हो जो
पुर है साए की तरह मेरा शबिसतां मुझ से
शौक-ए-दीदार में गर तू मुझे गरदन मारे
हो निगह मिसल-ए-गुल-ए-शमय परेशां मुझ से
बेकसी हा-ए-शब-ए-हज़र की वहशत, है है
साया ख़ुरशीद-ए-कयामत में है पिनहां मुझ से
गरिदश-ए-साग़र-ए-सद-जलवा-ए-रंगीं तुझ से
आईना-दारी-ए-यक-दीदा-ए-हैरां मुझ से
निगह-ए-गरम से इक आग टपकती है ''असद''
है चिराग़ां ख़स-ओ-ख़ाशाक-ए-गुलिसतां मुझ से
बसतन-ए-अहद-ए-मुहब्बत हमा ना-दानी था
चशम-ए-नाकुशूदा रहा उकदा-ए-पैमां मुझ से
आतिश-अफ़रोज़ी-ए-यक-शोला-ए-ईमा तुझ से
चशमक-आराई-ए-सद-शहर चिराग़ां मुझ से
वो आके ख़्वाब में तसकीन-ए-इज़तिराब तो दे
वले मुझे तपिश-ए-दिल मजाल-ए-ख़वाब तो दे
करे है कतल, लगावट में तेरा रो देना
तेरी तरह कोई तेग़े-निगह की आब तो दे
दिखा के जुम्बिश-ए-लब ही तमाम कर हमको
न दे जो बोसा, तो मुंह से कहीं जवाब तो दे
पिला दे ओक से साकी, जो हमसे नफ़रत है
पयाला गर नहीं देता न दे, शराब तो दे
'असद' ख़ुशी से मेरे हाथ-पांव फूल गए
कहा जो उसने, ज़रा मेरे पांव दाब तो दे
फ़रियाद की कोई लै नहीं है
नाला पाबन्द-ए-नै नहीं है
कयूं बोते हैं बाग़-बान तूम्बे
गर बाग़ गदा-ए-मै नहीं है
हर-चन्द हर एक शै में तू है
पर तुझ-सी कोई शै नहीं है
हां, खाययो मत फ़रेब-ए-हसती
हर-चन्द कहें कि ''है'', नहीं है
शादी से गुज़र, कि ग़म न रहवे
उरदी जो न हो, तो दै नहीं है
कयूं रद्द-ए-कदह करे है, ज़ाहद
मै है ये, मगस की कै नहीं है
हसती है न कुछ अदम है ''ग़ालिब''
आख़िर तू क्या है, ए ''नहीं'' है
जुज़ कैस और कोई न आया ब-रू-ए-कार
सहरा मगर ब-तंगी-ए-चशम-ए-हसूद था
आशुफ़तगी ने नक्श-ए-सवैदा किया दुरुसत
ज़ाहर हुआ कि दाग़ का सरमाया दूद था
था ख़वाब में ख़याल को तुझसे मुआमला
जब आंख खुल गई न ज़ियां था न सूद था
लेता हूं मकतबे-ग़मे-दिल में सबक हनूज़
लेकिन यही कि रफ़त गया और बूद था
ढांपा कफ़न ने दाग़े-अयूबे-बरहनगी
मैं वरना हर लिबास में नंगे-वजूद था
तेशे बग़ैर मर न सका कोहकन ''असद''
सरगशता-ए-ख़ुमारे-रुसूम-ओ-कयूद था
पाठ भेद
आलम जहां ब-अरज़-ए-बिसात-ए वजूद था
जूं सुबह चाक-ए-जेब मुझे तार-ओ-पूद था
बाज़ी-ख़ुर-ए-फ़रेब है अहल-ए-नज़र का ज़ौक
हंगामा गरम-ए-हैरत-ए-बूद-ओ-नुमूद था
आलम तिलिसम-ए-शहर-ए-ख़ामोशां है सर-ब-सर
या मैं ग़रीब-ए-किशवर-ए-गुफ़त-ओ-सुनूद था
तंगी रफ़ीक-ए-राह थी अदम या वजूद था
मेरा सफ़र ब-ताला-ए-चशम-ए-हसूद था
तू यक-जहां कुमाश-ए-हवस जमय कर कि मैं
हैरत मता-ए-आलम-ए-नुकसान-ओ-सूद था
गरदिश-मुहीत-ए-ज़ुलम रहा जिस कदर फ़लक
मैं पा-एमाल-ए-ग़मज़ा-ए-चशम-ए-कबूद था
पूछा था गरचे यार ने अहवाल-ए-दिल मगर
किस को दिमाग़-ए-मिन्नत-ए-गुफ़त-ओ-शुनूद था
ख़ुर शबनम-आशना ना हुआ वरना मैं 'असद'
सर-ता-कदम गुज़ारिश-ए- ज़ौक-ए-सुजूद था
कहते हो, न देंगे हम, दिल अगर पड़ा पाया
दिल कहां कि गुम कीजे ? हमने मुद्दआ पाया
इशक से तबियत ने ज़ीसत का मज़ा पाया
दर्द की दवा पाई, दर्द बे-दवा पाया
दोसत दारे-दुशमन है, एतमादे-दिल मालूम
आह बेअसर देखी, नाला नारसा पाया
सादगी व पुरकारी बेख़ुदी व हुशियारी
हुसन को तग़ाफ़ुल में जुरअत-आज़मा पाया
ग़ुंचा फिर लगा खिलने, आज हम ने अपना दिल
खूं किया हुआ देखा, गुम किया हुआ पाया
हाल-ए-दिल नहीं मालूम, लेकिन इस कदर यानी
हम ने बारहा ढूंढा, तुम ने बारहा पाया
शोर-ए-पन्दे-नासेह ने ज़ख़्म पर नमक छिड़का
आप से कोई पूछे, तुम ने क्या मज़ा पाया
ना असद जफ़ा-सायल ना सितम जुनूं-मायल
तुझ को जिस कदर ढूंढा उलफ़त-आज़मा पाया
दहर में नक्श-ए-वफ़ा वजह-ए-तसल्ली न हुआ
है यह वो लफ़ज़ कि शरमिन्दा-ए-माअनी न हुआ
सबज़ा-ए-ख़त से तेरा काकुल-ए-सरकश न दबा
यह ज़मुर्रद भी हरीफ़े-दमे-अफ़यी न हुआ
मैंने चाहा था कि अन्दोह-ए-वफ़ा से छूटूं
वह सितमगर मेरे मरने पे भी राज़ी न हुआ
दिल गुज़रगाह-ए-ख़याले-मै-ओ-साग़र ही सही
गर नफ़स जादा-ए-सर-मंज़िल-ए-तकवी न हुआ
हूं तेरे वादा न करने में भी राज़ी कि कभी
गोश मिन्नत-कशे-गुलबांग-ए-तसल्ली न हुआ
किससे महरूमी-ए-किस्मत की शिकायत कीजे
हम ने चाहा था कि मर जाएं, सो वह भी न हुआ
मर गया सदमा-ए-यक-जुम्बिशे-लब से 'ग़ालिब'
ना-तवानी से हरीफ़-ए-दम-ए-ईसा न हुआ
सतायश गर है ज़ाहद इस कदर जिस बाग़े-रिज़वां का
वह इक गुलदसता है हम बेख़ुदों के ताके-निसियां का
बयां क्या कीजिये बेदादे-काविश-हाए-मिज़गां का
कि हर इक कतरा-ए-ख़ूं दाना है तसबीहे-मरजां का
न आई सतवते-कातिल भी मानय मेरे नालों को
लिया दांतों में जो तिनका, हुआ रेशा नैसतां का
दिखाऊंगा तमाशा, दी अगर फ़ुरसत ज़माने ने
मेरा हर दाग़-ए-दिल इक तुखम है सरव-ए-चिराग़ां का
किया आईनाख़ाने का वो नक्शा तेरे जलवे ने
करे जो परतव-ए-ख़ुरशीद-आलम शबनमिसतां का
मेरी तामीर में मुज़मिर है इक सूरत ख़राबी की
हयूला बरक-ए-ख़िरमन का है ख़ून-ए-गरम दहकां का
उगा है घर में हर-सू सबज़ा, वीरानी, तमाशा कर
मदार अब खोदने पर घास के, है मेरे दरबां का
ख़मोशी में नेहां ख़ूंगशता लाखों आरज़ूएं हैं
चिराग़-ए-मुरदा हूं में बेज़ुबां गोर-ए-ग़रीबां का
हनूज़ इक परतव-ए-नक्श-ए-ख़याल-ए-यार बाकी है
दिल-ए-अफ़सुरदा गोया हुजरा है यूसुफ़ के ज़िन्दां का
बग़ल में ग़ैर की आप आज सोते हैं कहीं, वरना
सबब क्या? ख़्वाब में आकर तबस्सुम-हाए-पिनहां का
नहीं मालूम किस-किसका लहू पानी हुआ होगा
कयामत है सरशक-आलूदा होना तेरी मिज़गां का
नज़र में है हमारी जादा-ए-राह-ए-फ़ना 'ग़ालिब'
कि ये शीराज़ा है आलम के अज्जाए-परीशां का
महरम नहीं है तू ही नवा-हाए-राज़ का
यां वरना जो हिजाब है, परदा है साज़ का
रंगे-शिकसता सुबहे-बहारे-नज़ारा है
ये वकत है शुगुफ़तने-गुल-हाए-नाज़ का
तू, और सू-ए-ग़ैर नज़र-हाए तेज़-तेज़
मैं, और दुख तेरी मिज़गां-हाए-दराज़ का
सरफ़ा है ज़बते-आह में मेरा, वगरना मैं
तोअमा हूं एक ही नफ़से-जां-गुदाज़ का
हैं बस कि जोशे-बादा से शीशे उछल रहे
हर गोशा-ए-बिसात है सर शीशा-बाज़ का
काविश का दिल करे है तकाज़ा कि है हनूज़
नाख़ुन पे करज़ इस गिरहे-नीम-बाज़ का
ताराज-ए-काविशे-ग़मे-हजरां हुआ ''असद''
सीना, कि था दफ़ीना-ए-गुहर-हाए-राज़ का
बज़मे-शाहनशाह में अशआर का दफ़तर खुला
रखियो या रब! यह दरे-ग़ंजीना-ए-गौहर खुला
शब हुयी फिर अंजुमे-रख़शन्दा का मंज़र खुला
इस तकल्लुफ़ से कि गोया बुतकदे का दर खुला
गरचे हूं दीवाना, पर कयों दोसत का खाऊं फ़रेब
आसतीं में दशना पिनहां हाथ में नशतर खुला
गो न समझूं उसकी बातें, गो न पाऊं उसका भेद
पर यह क्या कम है कि मुझसे वो परी-पैकर खुला
है ख़याले-हुसन में हुसने-अमल का सा ख़याल
ख़ुलद का इक दर है मेरी गोर के अन्दर खुला
मुंह न खुलने पर वो आलम है कि देखा ही नहीं
ज़ुल्फ़ से बढकर नकाब उस शोख़ के मुंह पर खुला
दर पे रहने को कहा और कह के कैसा फिर गया
जितने अरसे में मेरा लिपटा हुआ बिसतर खुला
कयों अंधेरी है शबे-ग़म ? है बलायों का नुज़ूल
आज उधर ही को रहेगा दीदा-ए-अख़तर खुला
क्या रहूं ग़ुरबत में ख़ुश ? जब हो हवादिस का यह हाल
नामा लाता है वतन से नामाबर अकसर खुला
उसकी उम्मत में हूं मैं, मेरे रहें कयों काम बन्द
वासते जिस शह के 'ग़ालिब' गुम्बदे-बे-दर खुला
यक ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बेकार बाग़ का
यां जादा भी फ़तीला है लाले के दाग़ का
बे-मै किसे है ताकत-ए-आशोब-ए-आगही
खेंचा है अजज़-ए-हौसला ने ख़त अयाग़ का
बुलबुल के कार-ओ-बार पे हैं ख़न्दा-हाए-गुल
कहते हैं जिस को इशक ख़लल है दिमाग़ का
ताज़ा नहीं है नशा-ए-फ़िकर-ए-सुख़न मुझे
तिरयाकी-ए-कदीम हूं दूद-ए-चिराग़ का
सौ बार बन्द-ए-इशक से आज़ाद हम हुए
पर क्या करें कि दिल ही अदू है फ़राग़ का
बे-ख़ून-ए-दिल है चशम में मौज-ए-निगह ग़ुबार
यह मै-कदा ख़राब है मै के सुराग़ का
बाग़-ए-शगुफ़ता तेरा बिसात-ए-नशात-ए-दिल
अब्र-ए-बहार ख़ुम-कदा किस के दिमाग़ का
हुयी ताख़ीर तो कुछ बायसे-ताख़ीर भी था
आप आते थे, मगर कोई इनांगीर भी था
तुम से बेजा है मुझे अपनी तबाही का गिला
उसमें कुछ शायबा-ए-ख़ूबी-ए-तकदीर भी था
तू मुझे भूल गया हो, तो पता बतला दूं
कभी फ़ितराक में तेरे कोई नख़चीर भी था
कैद में है तेरे वहशी को वही ज़ुल्फ़ की याद
हां कुछ इक रंज-ए-गिरांबारी-ए-ज़ंजीर भी था
बिजली इक कौंध गई आंखों के आगे, तो क्या
बात करते, कि मैं लब-तिशना-ए-तकरीर भी था
यूसुफ़ उस को कहूं, और कुछ न कहे, ख़ैर हुई
गर बिगड़ बैठे तो मैं लायक-ए-तअज़ीर भी था
देखकर ग़ैर को हो कयों न कलेजा ठंडा
नाला करता था वले, तालिब-ए-तासीर भी था
पेशे में ऐब नहीं, रखिये न फ़रहाद को नाम
हम ही आशुफ़ता-सरों में वो जवां-मीर भी था
हम थे मरने को खड़े, पास न आया न सही
आखिर उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी था
पकड़े जाते हैं फ़रिशतों के लिखे पर नाहक
आदमी कोई हमारा दमे-तहरीर भी था
रेख़ते के तुम्हीं उसताद नहीं हो 'ग़ालिब'
कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था
तू दोसत किसी का भी सितमगर न हुआ था
औरों पे है वो ज़ुलम कि मुझ पर न हुआ था
छोड़ा मह-ए-नख़शब की तरह दसत-ए-कज़ा ने
ख़ुरशीद हनूज़ उस के बराबर न हुआ था
तौफ़ीक बअन्दाज़ा-ए-हंमत है अज़ल से
आंखों में है वो कतरा कि गौहर न हुआ था
जब तक की न देखा था कद-ए-यार का आलम
मैं मुअतकिद-ए-फ़ितना-ए-महशर न हुआ था
मैं सादा-दिल, आज़ुरदगी-ए-यार से ख़ुश हूं
यानी सबक-ए-शौक मुकर्रर न हुआ था
दरिया-ए-मआसी तुनुक-आबी से हुआ ख़ुशक
मेरा सर-ए-दामन भी अभी तर न हुआ था
जारी थी 'असद' दाग़-ए-जिगर से मेरी तहसील
आतिशकदा जागीर-ए-समन्दर न हुआ था
अरज़-ए-नियाज़-ए-इशक के काबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे, वो दिल नहीं रहा
जाता हूं दाग़-ए-हसरत-ए-हसती लिये हुए
हूं शमअ-ए-कुशता दरख़ुर-ए-महफ़िल नहीं रहा
मरने की ऐ दिल और ही तदबीर कर कि मैं
शायाने-दसत-ओ-खंजर-ए-कातिल नहीं रहा
बर-रू-ए-शश-जहत दर-ए-आईनाबाज़ है
यां इमतियाज़-ए-नाकिस-ओ-कामिल नहीं रहा
वा कर दिये हैं शौक ने बन्द-ए-नकाब-ए-हुसन
ग़ैर अज़ निगाह अब कोई हायल नहीं रहा
गो मैं रहा रहीन-ए-सितम-हाए-रोज़गार
लेकिन तेरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं रहा
दिल से हवा-ए-किशत-ए-वफ़ा मिट गया कि वां
हासिल सिवाये हसरत-ए-हासिल नहीं रहा
बेदाद-ए-इशक से नहीं ड्रता मगर ''असद''
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा
सुरमा-ए-मुफ़त-ए-नज़र हूं, मेरी कीमत ये है
कि रहे चशम-ए-ख़रीदार पे एहसां मेरा
रुख़सत-ए-नाला मुझे दे कि मबादा ज़ालिम
तेरे चेहरे से हो ज़ाहर ग़म-ए-पिनहां मेरा
-अणछपी ग़ज़ल-
ख़लवत-ए आबला-ए-पा में है जौलां मेरा
ख़ूं है दिल तंगी-ए-वहशत से बयाबां मेरा
हसरत-ए-नशा-ए-वहशत न ब-सअई-ए दिल है
अरज़-ए-ख़मयाज़ा-ए-मजनूं है गरेबां मेरा
फ़हम ज़ंजीरी-ए-बेरबती-ए दिल है या रब
किस ज़बां में है लकब ख़्वाब-ए-परेशां मेरा
इशरत-ए-कतरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
तुझसे किस्मत में मेरी सूरत-ए-कुफ़ल-ए-अबजद
था लिखा बात के बनते ही जुदा हो जाना
दिल हुआ कशमकशे-चारा-ए-ज़हमत में तमाम
मिट गया घिसने में इस उकदे का वा हो जाना
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अब ज़फ़ा से भी हैं महरूम हम, अल्लाह-अल्लाह!
इस कदर दुशमन-ए-अरबाब-ए-वफ़ा हो जाना
ज़ोफ़ से गिरियां मुबद्दल ब-दमे-सरद हुआ
बावर आया हमें पानी का हवा हो जाना
दिल से मिटना तेरी अंगुशते-हनायी का ख़याल
हो गया गोशत से नाख़ुन का जुदा हो जाना
है मुझे अब्र-ए-बहारी का बरस कर खुलना
रोते-रोते ग़म-ए-फ़ुरकत में फ़ना हो जाना
गर नहीं निकहत-ए-गुल को तेरे कूचे की हवस
कयों है गरद-ए-रह-ए-जौलाने-सबा हो जाना
ताकि मुझ पर खुले ऐजाज़े-हवाए-सैकल
देख बरसात में सबज़ आईने का हो जाना
बखशे है जलवा-ए-गुल ज़ौक-ए-तमाशा, 'गालिब'
चशम को चाहिये हर रंग में वा हो जाना
हम से खुल जायो ब-वकते-मै-परसती एक दिन
वरना हम छेड़ेंगे रख कर उज़र-ए-मसती एक दिन
ग़र्रा-ए औज-ए-बिना-ए-आलम-ए-इमकां न हो
इस बुलन्दी के नसीबों में है पसती एक दिन
करज़ की पीते थे मै लेकिन समझते थे कि हां
रंग लावेगी हमारी फ़ाका-मसती एक दिन
नग़मा-हाए-ग़म को भी ऐ दिल ग़नीमत जानिये
बे-सदा हो जाएगा यह साज़-ए-हसती एक दिन
धौल-धप्पा उस सरापा-नाज़ का शेवा नहीं
हम ही कर बैठे थे ग़ालिब पेश-दसती एक दिन
इबने-मरियम हुआ करे कोई
मेरे दुख की दवा करे कोई
शरअ-ओ-आईन पर मदार सही
ऐसे कातिल का क्या करे कोई
चाल, जैसे कड़ी कमां का तीर
दिल में ऐसे के जा करे कोई
बात पर वां ज़बान कटती है
वो कहें और सुना करे कोई
बक रहा हूं जुनूं में क्या-क्या कुछ
कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई
न सुनो गर बुरा कहे कोई
न कहो गर बुरा करे कोई
रोक लो, गर ग़लत चले कोई
बख़श दो गर ख़ता करे कोई
कौन है जो नहीं है हाजतमन्द
किसकी हाजत रवा करे कोई
क्या किया ख़िज्र ने सिकन्दर से
अब किसे रहनुमा करे कोई
जब तवक्को ही उठ गयी 'ग़ालिब'
कयों किसी का गिला करे कोई
कयोंकर उस बुत से रखूं जान अज़ीज़
क्या नहीं है मुझे ईमान अज़ीज़
दिल से निकला प न निकला दिल से
है तेरे तीर का पैकान अज़ीज़
ताब लाये ही बनेगी ''ग़लिब''
बाक्या सख़त है और जान अज़ीज़
आमद-ए-ख़त से हुआ है सरद जो बाज़ार-ए-दोसत
दूद-ए-शम-ए-कुशता था शायद ख़त-ए-रुख़सार-ए-दोसत
ऐ दिले-ना-आकबत-अन्देश ज़बत-ए-शौक कर
कौन ला सकता है ताबे-जलवा-ए-दीदार-ए-दोसत
ख़ाना-वीरां-साज़ी-ए-हैरत तमाशा कीजिये
सूरत-ए-नक्शे-कदम हूं रफ़ता-ए-रफ़तार-ए-दोसत
इशक में बेदाद-ए-रशक-ए-ग़ैर ने मारा मुझे
कुशता-ए-दुशमन हूं आख़िर, गरचे था बीमार-ए-दोसत
चशम-ए-मा रौशन कि उस बेदर्द का दिल शाद है
दीदा-ए-पुरख़ूं हमारा साग़र-ए-सरशार-ए-दोसत
ग़ैर यूं करता है मेरी पुरसिश उस के हिज़्र में
बे-तकल्लुफ़ दोसत हो जैसे कोई ग़मख़वार-ए-दोसत
ताकि मैं जानूं कि है उस की रसायी वां तलक
मुझ को देता है पयाम-ए-वादा-ए-दीदार-ए-दोसत
जबकि में करता हूं अपना शिकवा-ए-ज़ोफ़-ए-दिमाग़
सर करे है वह हदीस-ए-ज़ुल्फ़-ए-अम्बरबार-ए-दोसत
चुपके-चुपके मुझ को रोते देख पाता है अगर
हंस के करता है बयाने-शोख़ी-ए-गुफ़तारे-दोसत
मेहरबानी हाए-दुशमन की शिकायत कीजिये
या बयां कीजे, सिपासे-लज़ज़ते-आज़ारे-दोसत
यह ग़ज़ल अपनी मुझे जी से पसन्द आती है आप
है रदीफ़-ए-शेर में ''ग़ालिब'' ज़बस तकरार-ए-दोसत
कयों जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर
जलता हूं अपनी ताकत-ए-दीदार देख कर
आतिश-परसत कहते हैं अहल-ए-जहां मुझे
सर-गरम-ए-नाला-हा-ए-शरर-बार देख कर
क्या आबरू-ए-इशक जहां आम हो जफ़ा
रुकता हूं तुम को बे-सबब आज़ार देख कर
आता है मेरे कतल को पर जोश-ए-रशक से
मरता हूं उस के हाथ में तलवार देख कर
साबित हुआ है गरदन-ए-मीना पे ख़ून-ए-ख़लक
लरज़े है मौज-ए-मय तेरी रफ़तार देख कर
वा-हसरता कि यार ने खींचा सितम से हाथ
हम को हरीस-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार देख कर
बिक जाते हैं हम आप मता-ए-सुख़न के साथ
लेकिन अयार-ए-तबा-ए-ख़रीदार देख कर
ज़ुन्नार बांध सुब्हा-ए-सद-दाना तोड़ डाल
रह-रौ चले है राह को हम-वार देख कर
इन आबलों से पांव के घबरा गया था में
जी ख़ुश हुआ है राह को पुर-ख़ार देख कर
क्या बद-गुमां है मुझ से के आईने में मेरे
तूती का अकस समझे है ज़ंगार देख कर
गिरनी थी हम पे बरक-ए-तजल्ली न तूर पर
देते हैं बादा ज़रफ़-ए-कदह-ख़वार देख कर
सर फोड़ना वो 'ग़ालिब'-ए-शोरीदा हाल का
याद आ गया मुझे तेरी दीवार देख कर
कोई दिन गर ज़िन्दगानी और है
अपने जी में हमने ठानी और है
आतिश-ए-दोज़ख़ में ये गरमी कहां
सोज़-ए-ग़म-हाए-नेहानी और है
बारहा देखीं हैं उनकी रंजिशें
पर कुछ अब के सरगिरानी और है
देके ख़त मुंह देखता है नामाबर
कुछ तो पैग़ाम-ए-ज़बानी और है
काता-अम्मार हैं अकसर नुजूम
वो बला-ए-आसमानी और है
हो चुकीं 'ग़ालिब' बलाएं सब तमाम
एक मरग-ए-ना-गहानी और है
कब वो सुनता है कहानी मेरी
और फिर वो भी ज़बानी मेरी
ख़लिश-ए-ग़मज़ा-ए-खूंरेज़ न पूछ
देख ख़ून्नाबा-फ़िशानी मेरी
क्या बयां करके मेरा रोएंगे यार
मगर आशुफ़ता-बयानी मेरी
हूं ज़-ख़ुद रफ़ता-ए-बैदा-ए-ख़याल
भूल जाना है निशानी मेरी
मुतकाबिल है मुकाबिल मेरा
रुक गया देख रवानी मेरी
कद्रे-संगे-सरे-रह रखता हूं
सख़त-अरज़ां है गिरानी मेरी
गरद-बाद-ए-रहे-बेताबी हूं
सरसरे-शौक है बानी मेरी
दहन उसका जो न मालूम हुआ
खुल गयी हेच मदानी मेरी
कर दिया ज़ोफ़ ने आज़िज़ 'ग़ालिब'
नंग-ए-पीरी है जवानी मेरी
लाज़िम था कि देखो मेरा रसता कोई दिन और
तनहा गये कयों ? अब रहो तनहा कोई दिन और
मिट जायेगा सर, गर तेरा पत्थर न घिसेगा
हूं दर पे तेरे नासिया-फ़रसा कोई दिन और
आये हो कल और आज ही कहते हो कि जाऊं
माना कि हमेशा नहीं, अच्छा, कोई दिन और
जाते हुए कहते हो, क्यामत को मिलेंगे
क्या ख़ूब! क्यामत का है गोया कोई दिन और
हां ऐ फ़लक-ए-पीर, जवां था अभी आरिफ़
क्या तेरा बिगड़ता जो न मरता कोई दिन और
तुम माह-ए-शब-ए-चार-दहुम थे मेरे घर के
फिर कयों न रहा घर का वो नक्शा कोई दिन और
तुम कौन से ऐसे थे खरे दाद-ओ-सितद के
करता मलक-उल-मौत तकाज़ा कोई दिन और
मुझसे तुम्हें नफ़रत सही, नय्यर से लड़ाई
बच्चों का भी देखा न तमाशा कोई दिन और
ग़ुज़री न बहर-हाल ये मुद्दत ख़ुश-ओ-नाख़ुश
करना था, जवां-मरग! गुज़ारा कोई दिन और
नादां हो जो कहते हो कि कयों जीते हो ''ग़ालिब''
किस्मत में है मरने की तमन्ना कोई दिन और
ज़ख़्म पर छिड़कें कहां तिफ़लान-ए-बेपरवा नमक
क्या मज़ा होता अगर पत्थर में भी होता नमक
गरद-ए-राह-ए-यार है सामान-ए-नाज़-ए-ज़ख़्म-ए-दिल
वरना होता है जहां में किस कदर पैदा नमक
मुझ को अरज़ानी रहे तुझ को मुबारक हो जयूं
नाला-ए-बुलबुल का दर्द और ख़न्दा-ए-गुल का नमक
शोर-ए-जौलां था कनार-ए-बहर पर किस का कि आज
गरद-ए-साहल है ब-ज़ख़्म-ए-मौज-ए-दरिया नमक
दाद देता है मेरे ज़ख़्म-ए-जिगर की वाह वाह
याद करता है मुझे देखे है वो जिस जा नमक
छोड़ कर जाना तन-ए-मजरूह-ए-आशिक हैफ़ है
दिल तलब करता है ज़ख़्म और मांगे हैं आज़ा नमक
ग़ैर की मिन्नत न खींचूंगा पय-ए-तौफ़ीर-ए-दर्द
ज़ख़्म मिसल-ए-ख़न्दा-ए-कातिल है सर-ता-पा नमक
याद हैं 'ग़ालिब' तुझे वो दिन कि वजद-ए-ज़ौक में
ज़ख़्म से गिरता तो मैं पलकों से चुनता था नमक
फिर इस अन्दाज़ से बहार आई
कि हुए मेहरो-मह तमाशाई
देखो ऐ साकिनान-ए-ख़ित्ता-ए-ख़ाक
इसको कहते हैं आलम-आराई
कि ज़मीं हो गई है सर-ता-सर
रू-कश-ए-सतह-ए-चरख़-ए-मीनाई
सबज़ा को जब कहीं जगह न मिली
बन गया रू-ए-आब पर काई
सबज़ा-ओ-गुल के देखने के लिये
चशमे-नरिगस को दी है बीनाई
है हवा में शराब की तासीर
बादा-नोशी है बादा-पैमाई
कयूं न दुनिया को हो ख़ुशी 'ग़ालिब'
शाह-ए-दींदार ने शिफ़ा पाई
आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
है गरेबां नंग-ए-पैराहन जो दामन में नहीं
ज़ोफ़ से ऐ गिरिया, कुछ बाकी मेरे तन में नहीं
रंग हो कर उड़ गया, जो ख़ूं कि दामन में नहीं
हो गए हैं जमा अज़्ज़ा-ए-निगाहे-आफ़ताब
ज़र्रे उसके घर की दीवारों के रौज़न में नहीं
क्या कहूं तारीकी-ए-ज़िन्दान-ए-ग़म अंधेर है
पुम्बा नूर-व-सुबह से कम जिसके रौज़न में नहीं
रौनक-ए-हसती है इशके-ख़ाना-वीरां-साज़ से
अंजुमन बे-शमय है, गर बरक ख़िरमन में नहीं
ज़खम सिलवाने से मुझ पर चाराजोयी का है ताअन
ग़ैर समझा है कि लज़्ज़त ज़ख़्मे-सोज़न में नहीं
बस कि हैं हम इक बहारे-नाज़ के मारे हुए
जलवा-ए-गुल के सिवा गरद अपने मदफ़न में नहीं
कतरा-कतरा इक हयूला है, नए नासूर का
ख़ूं भी ज़ौके-दर्द से फ़ारिग़ मेरे तन में नहीं
ले गई साकी की नख़वत कुलज़ुम-आशामी मेरी
मौजे-मय की आज रग मीना की गरदन में नहीं
हो फ़िशारे-ज़ोफ़ में क्या नातवानी की नुमूद
कद के झुकने की भी गुंजायश मेरे तन में नहीं
थी वतन में शान क्या ग़ालिब, कि हो ग़ुरबत में कद्र
बे-तकललुफ़ हूं वो मुशते-ख़स कि गुलख़न में नहीं
इशक मुझको नहीं, वहशत ही सही
मेरी वहशत, तेरी शोहरत ही सही
कतय कीजे न तअल्लुक हम से
कुछ नहीं है, तो अदावत ही सही
मेरे होने में है क्या रुसवाई
ऐ वो मजलिस नहीं ख़लवत ही सही
हम भी दुशमन तो नहीं हैं अपने
ग़ैर को तुझ से मुहब्बत ही सही
अपनी हसती ही से हो, जो कुछ हो
आगही गर नहीं ग़फ़लत ही सही
उम्र हरचन्द कि है बरक-ए-ख़िराम
दिल के ख़ूं करने की फ़ुरसत ही सही
हम कोई तरक-ए-वफ़ा करते हैं
न सही इशक मुसीबत ही सही
कुछ तो दे, ऐ फ़लक-ए-नायनसाफ़
आह-ओ-फ़रियाद की रुख़सत ही सही
हम भी तसलीम की ख़ू डालेंगे
बेनियाज़ी तेरी आदत ही सही
यार से छेड़ चली जाये, 'असद'
गर नहीं वसल तो हसरत ही सही
हम पर जफ़ा से तरक-ए-वफ़ा का गुमां नहीं
इक छेड़ है, वगरना मुराद इमतहां नहीं
किस मुंह से शुक्र कीजिए इस लुतफ़-ए-ख़ास का
पुरसिश है और पा-ए-सुख़न दरमियां नहीं
हमको सितम अज़ीज़ सितमगर को हम अज़ीज़
ना-मेहरबां नहीं है, अगर मेहरबां नहीं
बोसा नहीं न दीजिए दुशनाम ही सही
आख़िर ज़बां तो रखते हो तुम, गर दहां नहीं
हरचन्द जां-गुदाज़ी-ए-कहर-ओ-इताब है
हरचन्द पुशत-गरमी-ए-ताब-ओ-तवां नहीं
जां मुतरिब-ए-तराना-ए-'हल-मिम-मज़ीद' है
लब, परदा संज-ए-ज़मज़म-ए-अल-अमां नहीं
ख़ंजर से चीर सीना, अगर दिल न हो दो-नीम
दिल में छुरी चुभो, मिज़गां गर ख़ूंचकां नहीं
है नंग-ए-सीना दिल अगर आतिश-कदा न हो
है आर-ए-दिल-नफ़स अगर आज़र-फ़िशां नहीं
नुकसां नहीं, जुनूं में बला से हो घर ख़राब
सौ ग़ज़ ज़मीं के बदले बयाबां गिरां नहीं
कहते हो क्या लिखा है तेरे सरनविशत में
गोया जबीं पे सिजदा-ए-बुत का निशां नहीं
पाता हूं उससे दाद कुछ अपने कलाम की
रूहुल-कुदूस अगरचे मेरा हमज़बां नहीं
जां से बहा-ए-बोसा वले कयूं कहे अभी
'ग़ालिब' को जानता है कि वो नीम-जां नहीं
जिस जा कि पा-ए-सैल-ए-बला दरमियां नहीं
दीवानगां को वां हवस-ए-ख़ान-मां नहीं
गुल ग़ुंचग़ी में ग़रक-ए-दरिया-ए-रंग है
ऐ आगही फ़रेब-ए-तमाशा कहां नहीं
उस बज़म में मुझे नहीं बनती हया किये
बैठा रहा अगरचे इशारे हुआ किये
दिल ही तो है सियासत-ए-दरबां से डर गया
मैं और जाऊं दर से तेरे बिन सदा किये
रखता फिरूं हूं ख़िरका-ओ-सज्जादा रहन-ए-मय
मुद्दत हुयी है दावत-ए-आब-ओ-हवा किये
बेसरफ़ा ही गुज़रती है, हो गरचे उम्र-ए-ख़िज़्र
हज़रत भी कल कहेंगे कि हम क्या किया किये
मकदूर हो तो ख़ाक से पूछूं के ऐ लईम
तूने वो गंजहा-ए-गिरां-माया क्या किये
किस रोज़ तोहमतें न तराशा किये अदू
किस दिन हमारे सर पे न आरे चला किये
सोहबत में ग़ैर की न पड़ी हो कहीं ये ख़ू
देने लगा है बोसे बग़ैर इलतिजा किये
ज़िद की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं
भूले से उस ने सैकड़ों वादे-वफ़ा किये
'ग़ालिब' तुम्हीं कहो कि मिलेगा जवाब क्या
माना कि तुम कहा किये और वो सुना किये
देखना किस्मत कि आप अपने पे रशक आ जाये है
मैं उसे देखूं, भला कब मुझसे देखा जाये है
हाथ धो दिल से यही गरमी गर अन्देशे में है
आबगीना तुन्दी-ए-सहबा से पिघला जाये है
ग़ैर को या रब ! वो कयों कर मना-ए-गुसताख़ी करे
गर हया भी उसको आती है, तो शरमा जाये है
शौक को ये लत, कि हरदम नाला ख़ींचे जायए
दिल कि वो हालत, कि दम लेने से घबरा जाये है
दूर चशम-ए-बद ! तेरी बज़म-ए-तरब से वाह, वाह
नग़मा हो जाता है वां गर नाला मेरा जाये है
गरचे है तरज़-ए-तग़ाफ़ुल, परदादार-ए-राज़-ए-इशक
पर हम ऐसे खोये जाते हैं कि वो पा जाये है
उसकी बज़म-आराययां सुनकर दिल-ए-रंजूर यां
मिसल-ए-नक्श-ए-मुद्दआ-ए-ग़ैर बैठा जाये है
होके आशिक, वो परीरुख़ और नाज़ुक बन गया
रंग खुलता जाये है, जितना कि उड़ता जाये है
नक्श को उसके मुसव्विर पर भी क्या-क्या नाज़ है
खींचता है जिस कदर, उतना ही खिंचता जाये है
साया मेरा मुझसे मिसल-ए-दूद भागे है ''असद''
पास मुझ आतिश-ब-ज़ां के किस से ठहरा जाये है
सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में है
बस नहीं चलता कि फिर ख़ंजर कफ़-ए-कातिल में है
देखना तकरीर की लज़्ज़त कि जो उसने कहा
मैंने यह जाना कि गोया यह भी मेरे दिल में है
गरचे है किस किस बुरायी से वले बाईं-हमा
ज़िक्र मेरा मुझ से बेहतर है कि उस महफ़िल में है
बस हुजूम-ए-ना उम्मीदी ख़ाक में मिल जायगी
यह जो इक लज़्ज़त हमारी सई-ए-बे-हासिल में है
रंज-ए-रह कयों खींचे वामांदगी को इशक है
उठ नहीं सकता हमारा जो कदम मंज़िल में है
जलवा ज़ार-ए-आतिश-ए-दोज़ख़ हमारा दिल सही
फ़ितना-ए-शोर-ए-कयामत किस की आब-ओ-गिल में है
है दिल-ए-शोरीदा-ए-ग़ालिब तिलिसम-ए-पेच-ओ-ताब
रहम कर अपनी तमन्ना पर कि किस मुशिकल में है
दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई
दोनों को इक अदा में रज़ामन्द कर गई
चाक हो गया है सीना ख़ुशा लज़्ज़त-ए-फ़राग़
तकलीफ़-ए-परदादारी-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर गई
वो बादा-ए-शबाना की सरमसितयां कहां
उठिये बस अब कि लज़्ज़त-ए-ख़्वाब-ए-सहर गई
उड़ती फिरे है ख़ाक मेरी कू-ए-यार में
बारे अब ऐ हवा, हवस-ए-बाल-ओ-पर गई
देखो तो दिल फ़रेबी-ए-अन्दाज़-ए-नक्श-ए-पा
मौज-ए-ख़िराम-ए-यार भी क्या गुल कतर गई
हर बुलहवस ने हुसन परसती श्यार की
अब आबरू-ए-शेवा-ए-अहल-ए-नज़र गई
नज़्ज़ारे ने भी काम किया वां नकाब का
मसती से हर निगह तेरे रुख़ पर बिखर गई
फ़रदा-ओ-दी का तफ़रका यक बार मिट गया
कल तुम गए कि हम पे क्यामत गुज़र गई
मारा ज़माने ने 'असदुल्लाह ख़ां' तुम्हें
वो वलवले कहां, वो जवानी किधर गई
अजब निशात से जल्लाद के चले हैं हम आगे
कि अपने साए से सर पांव से है दो कदम आगे
कज़ा ने था मुझे चाहा ख़राब-ए-बादा-ए-उलफ़त
फ़कत ''ख़राब'' लिखा बस, न चल सका कलम आगे
ग़म-ए-ज़माना ने झाड़ी निशात-ए-इशक की मसती
वगरना हम भी उठाते थे लज़्ज़त-ए-अलम आगे
ख़ुदा के वासते दाद उस जुनून-ए-शौक की देना
कि उस के दर पे पहुंचते हैं नामा-बर से हम आगे
यह उम्र भर जो परेशानियां उठायी हैं हम ने
तुम्हारे आइयो ऐ तुर्रह-हा-ए-ख़म-ब-ख़म आगे
दिल-ओ-जिगर में पुर-अफ़शा जो एक मौज-ए-ख़ूं है
हम अपने ज़ोअम में समझे हुए थे उस को दम आगे
कसम जनाज़े पे आने की मेरे खाते हैं ''ग़ालिब''
हमेशा खाते थे जो मेरी जान की कसम आगे
शिकवे के नाम से बे-मेहर ख़फ़ा होता है
ये भी मत कह कि जो कहये तो गिला होता है
पुर हूं मैं शिकवा से यूं, राग से जैसे बाजा
इक ज़रा छेड़िये, फिर देखिये क्या होता है
गो समझता नहीं पर हुसने-तलाफ़ी देखो!
शिकवा-ए-ज़ौर से सरगरम-ए-जफ़ा होता है
इशक की राह में है, चरख़-ए-मकोकब की वो चाल
सुसत-रौ जैसे कोई आबला-पा होता है
कयूं न ठहरें हदफ़-ए-नावक-ए-बेदाद कि हम
आप उठा लाते हैं गर तीर ख़ता होता है
ख़ूब था पहले से होते जो हम अपने बदख़वाह
कि भला चाहते हैं, और बुरा होता है
नाला जाता था, परे अरश से मेरा, और अब
लब तक आता है जो ऐसा ही रसा होता है
ख़ामा मेरा कि वह है बारबुद-ए-बज़म-ए-सुख़न
शाह की मदह में यूं नग़मा-सरा होता है
ऐ शहनशाह-ए-कवाकिब सिपह-ओ-मेहर-अलम
तेरे इकराम का हक किस से अदा होता है
सात इकलीम का हासिल जो फ़राहम कीजे
तो वह लशकर का तेरे, नाल-ए-बहा होता है
हर महीने में जो यह बदर से होता है हिलाल
आसतां पर तेरे यह नासिया-सा होता है
मैं जो गुसताख़ हूं आईना-ए-ग़ज़ल-ख़वानी में
यह भी तेरा ही करम ज़ौक-फ़िज़ा होता है
रखियो ''ग़ालिब'' मुझे इस तलख़-नवायी से मुआ्आफ़
आज कुछ दर्द मेरे दिल में सिवा होता है
दिया है दिल अगर उसको बशर है क्या कहये
हुआ रकीब तो हो नामाबर है क्या कहये
ये ज़िद कि आज न आवे और आये बिन न रहे
कज़ा से शिकवा हमें किस कदर है क्या कहये
रहे है यूं गहो-बेगह कि कूए-दोसत को अब
अगर न कहये कि दुशमन का घर है क्या कहये
ज़हे-करिशमा कि यूं दे रखा है हमको फ़रेब
कि बिन कहे ही उन्हें सब ख़बर है, क्या कहये
समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुरिसश-ए-हाल
कि ये कहे कि सर-ए-रहगुज़र है क्या कहये
तुम्हें नहीं है सर-ए-रिशता-ए-वफ़ा का ख़याल
हमारे हाथ में कुछ है मगर है क्या कहये
उन्हें सवाल पे ज़ोअमे-जुनूं है कयूं लड़िये
हमें जवाब से कत-ए-नज़र है, क्या कहये
हसद सज़ा-ए-कमाल-ए-सुख़न है क्या कीजे
सितम बहा-ए-मताअ-ए-हुनर है क्या कहये
कहा है किसने कि 'ग़ालिब' बुरा नहीं लेकिन
सिवाय इसके कि आशुफ़ता-सर है क्या कहये
कभी नेकी भी उसके जी में आ जाये है मुझ से
जफ़ायें करके अपनी याद शरमा जाये है मुझ से
ख़ुदाया ज़ज़बा-ए-दिल की मगर तासीर उलटी है
कि जितना खैंचता हूं और खिंचता जाये है मुझ से
वो बद-ख़ू और मेरी दासतान-ए-इशक तूलानी
इबारत मुख़तसर कासिद भी घबरा जाये है मुझ से
उधर वो बदगुमानी है इधर ये नातवानी है
ना पूछा जाये है उससे न बोला जाये है मुझ से
संभलने दे मुझे ऐ नाउम्मीदी क्या क्यामत है
कि दामन-ए-ख़याल-ए-यार छूटा जाये है मुझ से
तकल्लुफ़ बर-तरफ़ नज़्ज़ारगी में भी सही लेकिन
वो देखा जाये कब ये ज़ुलम देखा जाये है मुझ से
हुए हैं पांव ही पहले नवरद-ए-इशक में ज़ख़्मी
न भागा जाये है मुझसे न ठहरा जाये है मुझ से
कयामत है कि होवे मुद्दयी का हमसफ़र 'ग़ालिब'
वो काफ़िर जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाये है मुझ से
1
आतिशबाज़ी है जैसे शग़ले-अतफ़ाल
है सोज़े-ज़िगर का भी इसी तौर का हाल
था मूजीदे-इशक भी क्यामत कोई
लड़कों के लिए गया है क्या खेल निकाल
2
दिल था की जो जाने दर्द तमहीद सही
बेताबी-रशक व हसरते-दीद सही
हम और फ़सुरदन, ऐ तज़लली! अफ़सोस
तकरार रवा नहीं तो तजदीद सही
3
है ख़लक हसद कमाश लड़ने के लिए
वहशत-कदा-ए-तलाश लड़ने के लिए
यानी हर बार सूरते-कागज़े-बाद
मिलते हैं ये बदमाश लड़ने के लिए
4
दिल सख़त निज़नद हो गया है गोया
उससे गिलामन्द हो गया है गोया
पर यार के आगे बोल सकते ही नहीं
''ग़ालिब'' मुंह बन्द हो गया है गोया
5
दुक्ख जी के पसन्द हो गया है ''ग़ालिब''
दिल रुककर बन्द हो गया है ''ग़ालिब''
वल्लाह कि शब को नींद आती ही नहीं
सोना सौगन्द हो गया है ''ग़ालिब''
6
मुशकिल है ज़बस कलाम मेरा ऐ दिल!
सुन-सुन के उसे सुख़नवराने-कामिल
आसान कहने की करते हैं फ़रमायश
गोयम मुशकिल वगरना गोयम मुशकिल
7
कहते हैं कि अब वो मरदम-आज़ार नहीं
उशशाक की पुरसिश से उसे आर नहीं
जो हाथ कि ज़ुलम से उठाया होगा
कयोंकर मानूं कि उसमें तलवार नहीं
8
हम गरचे बने सलाम करने वाले
कहते हैं दिरंग काम करने वाले
कहते हैं कहें खुदा से, अल्लाह अल्लाह
वो आप हैं सुबह शाम करने वाले
9
समाने-ख़ुरो-ख़्वाब कहां से लाऊं ?
आराम के असबाब कहां से लाऊं ?
रोज़ा मेरा ईमान है ''ग़ालिब'' लेकिन
ख़स-ख़ाना-ओ-बरफ़ाब कहां से लाऊं?
कतआत
1
एक अहले-दर्द ने सुनसान जो देखा कफ़स
यों कहा आती नहीं अब कयों सदाए-अन्दलीब
बाल-ओ-पर दो-चार दिखला कर कहा सय्याद ने
ये निशानी रह गयी है अब बजाए- अन्दलीब
2
शब को ज़ौके-गुफ़तगू से तेरा दिल बेताब था
शोख़ी-ए-वहशत से अफ़साना फ़ुसूने-ख़्वाब था
वां हजूमे-नग़महाए-साज़े-इशरत था ''असद''
नाख़ुने-ग़म यां सरे-तारे-नफ़स मिज़राब था
3
दूद को आज उसके मातम में सियहपोशी हुई
वो दिले-सोज़ां कि कल तक शमए-मातमख़ाना था
शिकवा-ए-यारां ग़ुबारे-दिल में पिनहां कर दिया
''ग़ालिब'' ऐसे गंज को शायां यही वीराना था