पीव पहचान का अंग : संत दादू दयाल जी

Peev Pehchan Ka Ang : Sant Dadu Dayal Ji

दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
वंदनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।1।
सारों के शिर देखिए, उस पर कोई नाँहिं।
दादू ज्ञान विचार कर, सो राख्या मन माँहिं।2।
सब लालों शिर लाल है, सब खूबों शिर खूब।
सब पाकों शिर पाक है, दादू का महबूब।3।
एक तत्तव ता ऊपरि, तीन लोक ब्रह्मंडा।
धारती गगन पवन अरु पाणी, सप्त द्वीप नौ खंडा।4।
चन्द सूर चौरासीलख, दिन अरु रैणी, रचले सप्त समंदा।
सवा लाख मेरु गिरि पर्वत अठारह भार तीर्थव्रत, ता ऊपर मंडा।
चौदह लोक रहैं सब रचना, दादू दास तास घर बन्दा।5।
दादू जिन यहु एती कर धारी, थम्भ बिन राखी।
सो हमको क्यों बीसरे, संत जन साखी।6।
दादू जिन मुझको पैदा किया, मेरा साहिब सोइ।
मैं बन्दा उस राम का, जिन सिरज्या सब कोइ।7।
दादू एक सगा संसार में, जिन हम सिरजे सोइ।
मनसा वाचा कर्मना, और न दूजा कोइ।8।
जे था कंत कबीर का, सोइ बर वरहूँ।
मनसा वाचा कर्मना, मैं और न करहूँ।9।
दादू सबका साहिब एक है, जाका परगट नाँउ।
दादू सांई शोधा ले, ताकी मैं बलि जाँउ।10।

साँचा सांई शोधा कर, साँचा राखी भाव।
दादू साँचा नाम ले, साँचे मारग आव।11।
जामे मरे सो जीव है, रमता राम न होइ।
जामण मरण तैं रहित है, मेरा साहिब सोइ।12।
उठे न बैसे एक रस, जागे सोवे नाँहिं।
मरे न जीवे जगद् गुरु, सब उपज खपे उस माँहिं।13।
ना वह जामे ना मरे, ना आवे गर्भवास।
दादू ऊँधो मुख नहीं, नरक कुंड दश मास।14।
कृत्रिम नहीं सो ब्रह्म है, घटे बधो नहिं जाय।
पूरण निश्चल एक रस, जगत् न नाचे आय।15।
उपजे विनशे गुण धारे, यहु माया का रूप।
दादू देखत थिर नहीं, क्षण छाँही क्षण धूप।16।
जे नाँहीं सो ऊपजे, है सो उपजे नाँहिं।
अलख आदि अनादि है, उपजे माया माँहिं।17।
जे यहु करता जीव था, संकट क्यों आया ?।
कर्मों के वश क्यों भया, क्यों आप बँधाया ?।18।
क्यों सब योनी जगत् में, घर-बार नचाया।
क्यों यह कर्ता जीव ह्नै, पर हाथ बिकाया।19।
दादू कृत्रिम काल वश, बंधया गुण माँहीं।
उपजे विनशे देखतां, यहु कर्ता नाँहीं।20।

जाती नूर अल्लाह का, सिफाती अरवाह।
सिफाती सिजदा करे, जाती बे परवाह।21।
परम तेज परापरं, परम ज्योति परमेश्वरं।
स्वयं ब्रह्म सदई सदा, दादू अविचल सुस्थिरं।22।
अविनाशी साहिब सत्य है, जे उपजे विनशे नाँहिं।
जेता कहिए काल मुख, सो साहिब किस माँहिं।23।
सांई मेरा सत्य है, निरंजन निराकार।
दादू विनशे देखतां, झूठा सब आकार।24।
राम रटणि छाडे नहीं, हरि लै लागा जाय।
बीचे ही अटके नहीं, काला कोटि दिखलाय।25।
उरैं ही अटके नहीं, जहाँ राम तहँ जाय।
दादू पावे परम सुख, विलसे वस्तु अघाय।26।
दादू उरैं ही उरझे घणे, मूये गल दे पास।
ऐन अंग जहँ आप था, तहाँ गये निज दास।27।
सेवा का सुख प्रेम रस, सेज सुहाग न देइ।
दादू बाहै दास को, कह दूजा सब लेइ।28।
लोहा माटी मिल रह्या, दिन-दिन काई खाय।
दादू पारस राम बिन, कतहूँ गया बिलाय।29।
लोहा पारस परस कर, पलटे अपणा अंग।
दादू कंचन ह्नै रहै, अपणे, सांई संग।30।

दादू जिहिं परसे पलटे प्राणियाँ सोई निज कर लेह।
लोहा कंचन ह्नै गया, पारस का गुण येह।31।
दह दिशि फिरे सो मन है, आवे-जाय सो पवन।
राखणहारा प्राण है, देखणहारा ब्रह्म।32।
।इति पीव पहचान का अंग सम्पूर्ण।

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