नीरज की पाती : गोपालदास नीरज

Neeraj Ki Paati : Gopal Das Neeraj

1. आज की रात तुझे आख़िरी ख़त और लिख दूँ

आज की रात तुझे आख़िरी ख़त और लिख दूँ
कौन जाने यह दिया सुबह तक जले न जले ?
बम्ब बारुद के इस दौर में मालूम नहीं
ऐसी रंगीन हवा फिर कभी चले न चले।

जिन्दगी सिर्फ है खूराक टैंक तोपों की
और इन्सान है एक कारतूस गोली का
सभ्यता घूमती लाशों की इक नुमाइश है
और है रंग नया खून नयी होली का।

कौन जाने कि तेरी नर्गिसी आँखों में कल
स्वप्न सोये कि किसी स्वप्न का मरण सोये
और शैतान तेरे रेशमी आँचल से लिपट
चाँद रोये कि किसी चाँद का कफ़न रोये।

कुछ नहीं ठीक है कल मौत की इस घाटी में
किस समय किसके सबेरे की शाम हो जाये
डोली तू द्वार सितारों के सजाये ही रहे
और ये बारात अँधेरे में कहीं खो जाये।

मुफलिसी भूख गरीबी से दबे देश का दुख
डर है कल मुझको कहीं खुद से न बागी कर दे
जुल्म की छाँह में दम तोड़ती साँसों का लहू
स्वर में मेरे न कहीं आग अँगारे भर दे।

चूड़ियाँ टूटी हुई नंगी सड़क की शायद
कल तेरे वास्ते कँगन न मुझे लाने दें
झुलसे बागों का धुआँ खाये हुए पात कुसुम
गोरे हाथों में न मेंहदी का रंग आने दें।

यह भी मुमकिन है कि कल उजड़े हुए गाँव गली
मुझको फुरसत ही न दें तेरे निकट आने की
तेरी मदहोश नजर की शराब पीने की।
और उलझी हुई अलकें तेरी सुलझाने की।

फिर अगर सूने पेड़ द्वार सिसकते आँगन
क्या करूँगा जो मेरे फ़र्ज को ललकार उठे ?
जाना होगा ही अगर अपने सफर से थककर
मेरी हमराह मेरे गीत को पुकार उठे।

इसलिए आज तुझे आखिरी खत और लिख दूँ
आज मैं आग के दरिया में उत्तर जाऊँगा
गोरी-गोरी सी तेरी सन्दली बाँहों की कसम
लौट आया तो तुझे चाँद नया लाऊँगा।

2. आज की रात बड़ी शोख बड़ी नटखट है

आज की रात बड़ी शोख बड़ी नटखट है
आज तो तेरे बिना नींद नहीं आयेगी
आज तो तेरे ही आने का यहाँ मौसम है
आज तबियत न ख़यालों से बहल पायेगी।

देख ! वह छत पै उतर आई है सावन की घटा,
खेल खिलाड़ी से रही आँख मिचौनी बिजली
दर पै हाथों में लिये बाँसरी बैठी है बाहर
और गाती है कहीं कोई कुयलिया कजली।

पीऊ पपीहे की, यह पुरवाई, यह बादल की गरज
ऐसे नस-नस में तेरी चाह जगा जाती है
जैसे पिंजरे में छटपटाते हुए पंछी को
अपनी आज़ाद उड़ानों की याद आती है।

जगमगाते हुए जुगनू-यह दिये आवारा
इस तरह रोते हुए नीम पै जल उठते हैं
जैसे बरसों से बुझी सूनी पड़ी आँखों में
ढीठ बचपन के कभी स्वप्न मचल उठते हैं।

और रिमझिम ये गुनहगार, यह पानी की फुहार
यूँ किये देती है गुमराह, वियोगी मन को
ज्यूँ किसी फूल की गोदी में पड़ी ओस की बूँद
जूठा कर देती है भौंरों के झुके चुम्बन को।

पार जमना के सिसकती हुई विरहा की लहर
चीरती आती है जो धार की गहराई को
ऐसा लगता है महकती हुई साँसों ने तेरी
छू दिया है किसी सोई हुई शहनाई को।

और दीवानी सी चम्पा की नशीली खुशबू
आ रही है जो छन-छन के घनी डालों से
जान पड़ता है किसी ढीठ झकोरे से लिपट
खेल आई है तेरे उलझे हुए बालों से !

अब तो आजा ओ कँबल-पात चरन, चन्द्र बदन
साँस हर मेरी अकेली हैं, दुकेली कर दे
सूने सपनों के गले डाल दे गोरी बाँहें
सर्द माथे पै जरा गर्म हथेली धर दे !

पर ठहर वे जो वहाँ लेटे हैं फुट-पाथों पर
सर पै पानी की हरेक बूँद को लेने के लिये
उगते सूरज की नयी आरती करने के लिये
और लेखों को नयी सुर्खियाँ देने के लिए।

और वह, झोपड़ी छत जिसकी स्वयं है आकाश
पास जिसके कि खुशी आते शर्म खाती है
गीले आँचल ही सुखाते जहाँ ढलती है धूप
छाते छप्पर ही जहाँ जिन्दगी सो जाती है।

पहले इन सबके लिए एक इमारत गढ़लूँ
फिर तेरी साँवली अलकों के सपन देखूँगा
पहले हर दीप के सर पर कोई साया कर दूँ
फिर तेरे भाल पे चन्दा की किरण देखूँगा।

3. शाम का वक्त है ढलते हुए सूरज की किरन

शाम का वक्त है ढलते हुए सूरज की किरन
दूर उस बाग में लेती है बसेरा अपना
धुन्ध के बीच थके से शहर की आँखों में
आ रही रात है अँजनाती अँधेरा अपना!

ठीक छः दिन के लगातार इन्तजार के बाद
आज ही आई है ऐ दोस्त ! तुम्हारी पाती
आज ही मैंने जलाया है दिया कमरे में
आज ही द्वार से गुज़री है वह जोगिन गाती।

व्योम पे पहला सितारा अभी ही चमका है
धूप ने फूल की अँचल अभी ही छोड़ा है
बाग में सोयी हैं मुस्काके अभी ही कलियाँ
और अभी नाव का पतवार ने रुख मोड़ा है।

आग सुलगाई है चूल्हों ने अभी ही घर-घर
आरती गूँजी है मठ मन्दिरों शिवालों में
अभी हाँ पार्क में बोले हैं एक नेता जी,
और अभी बाँटा टिकिट है सिनेमा वालों ने!

चीखती जो रही कैंची की तरह से दिन-भर
मंडियों बीच अब बढ़ने लगी हैं दूकानें
हलचलें दिन को जहाँ जुल्म से टकराती रहीं
हाट मेले में अब होने लगे हैं वीराने।

बन्द दिन भर जो रहे सूम की मुट्ठी की तरह
खुल गये मील के फाटक हैं वो काले-काले
भरती जाती है सड़क स्याह-स्याह चेहरों से
शायद इनपे भी कभी चाँदनी नजर डाले।

वह बड़ी रोड नाम जिसका है अब गांधी मार्ग
हल हुआ करते हैं होटल में जहाँ सारे सवाल
मोटरों-रिक्शों बसों से है इस तरह बोझिल
जैसे मुफलिस की गरीबी पै कि रोटी का ख़याल

और बस्ती वह मूलगंज जहां कोठों पर
रात सोने को नहीं जागने को आती है
एक ही दिन में जहाँ रूप की अनमोल कली
ब्याह भी करती है और बेवा भी हो जाती है

चमचमाती हुई पानों की दुकानों पे वहाँ
इस समय एक है मेला सा खरीदारों का
एक बस्ती है बसी यह भी राम राज्य में दोस्त
एक यह भी है चमन वोट के बीमारों का।

बिकता है रोज यहीं पर सतीत्व सीता का
और कुन्ती का भी मातृत्व यहीं रोता है
भक्ति राधा की यहीं भागवत पे हँसती है।
राष्ट्र निर्माण का अवसान यहीं होता है !

आके इस ठौर ही झुकता है शीश भारत का
जाके इस जगह सुबह राह भूल जाती है
और मिलता है यहीं अर्थ गरीबी का हमें
भूख की भी यहीं तस्वीर नज़र आती है!

सोचता हूँ क्या यही स्वप्न था आज़ादी का?
रावी तट पे क्या क़सम हमने यह खाई थी?
क्या इसी वास्ते तड़पी थी भगतसिंह की लाश?
दिल्ली बापू ने गरम खून से नहलाई थी?

अब लिखा जाता नहीं, गर्म हो गया है लहू
और कागज़ पे क़लम काँप काँप जाती है
रोशनी जितनी ही देता हूँ इन सवालों को
शाम उतनी ही और स्याह नज़र आती है

इसलिए सिर्फ रात भर के वास्ते दो विदा
कल को जागूँगा लबों पर तुम्हारा नाम लिये
वृद्ध दुनियाँ के लिये कोई नया सूर्य लिये
सूने हाथों के लिये कोई नया काम लिये!

4. आज है तेरा जनम दिन, तेरी फुलबगिया में

आज है तेरा जनम दिन, तेरी फुलबगिया में
फूल एक और खिल गया है किसी माली का
आज की रात तेरी उम्र के कच्चे घर में
दीप एक और जलेगा किसी दीवाली का।

आज वह दिन है किसी चौक पुरे आँगन में
बोलने वाला खिलौना कोई जब आया था
आज वह वक्त है जब चाँद किसी पूनम का
एक शैतान शमादान से शरमाया था।

आज एक माँ की हृदय साध और तुलसी पूजा
बनके राधा किसी झूले में किलक उठी थी
आज एक बाप के कमजोर बुढ़ापे की शमा
एक गुड़िया की शरारत से भड़क उठी थी।

मेरी मुमताज अगर शाहजहाँ होता मैं
आज एक ताजमहल तेरे लिए बनवाता
सब सितारों को कलाई में तेरी जड़ देता
सब बहारों को तेरी गोद में बिखरा आता।

किन्तु मैं शाहजहाँ हूँ न सेठ साहूकार
एक शायर हूँ गरीबी ने जिसे पाला है
जिसकी खुशियों से न बन पाई कभी जीवन में
और जिसकी कि सुबह का भी गगन काला है।

काँपती लौ, यह सिपाही, यह धुआँ यह काजल
उम्र सब अपनी इन्हें गीत बनाने में कटी,
कौन समझे मेरी आँखों की नमी का मतलब
ज़िन्दगी वेद थी पर जिल्द बँधाने में कटी।

लाखों उम्मीद भरे चाँद गगन में चमके
मेरी रातों के मगर भाग्य में बादल ही रहे,
लाख रेशम की नक़ाबों ने लगाये मेले
मेरी गीतों की छिली देह पै वल्कल ही रहे।

आज सोचा था तुझे चाँद सितारे दूँगा।
हाथ में चन्दन लकीरों के सिवा कुछ भी नहीं
राष्ट्र भाषा की है सेवा का पुरस्कार यही
ज़ख्मों पर मेरे तीरों के सिवा कुछ भी नहीं।

आज क्या दूँ मैं तुझे कुछ भी नहीं दे सकता
गीत हैं कुछ कि जो अब तक न कभी रुठे हैं
भेंट में तेरी इन्हें ही मैं भेजता हूँ तुझे
हीरे मोती तो दिखावे है कि सब झूठे हैं।

प्यार से स्नेह से होंठों पे बिठाना इनको
और जब रात घिरे याद इन्हें कर लेना
राह पर और भी काली जो कहीं हो कोई
हाथ जो इनके दिया है वह उसे दे देना।

5. कानपुर के नाम

कानपुर! आह!आज याद तेरी आई फिर
स्याह कुछ और मेरी रात हुई जाती है,
आँख पहले भी यह रोई थी बहुत तेरे लिए
अब तो लगता है कि बरसात हुई जाती है।

तू क्या रूठा मेरे चेहरे का रंग रूठ गया
तू क्या छूटा मेरे दिल ने ही मुझे छोड़ दिया,
इस तरह गम में है बदली हुई हर एक खुशी
जैसे मंडप में ही दुलहिन ने दम तोड़ दिया।

प्यार करके ही तू मुझे भूल गया लेकिन
मैं तेरे प्यार का अहसान चुकाऊँ कैसे
जिसके सीने से लिपट आँख है रोई सौ बार
ऐसी तस्वीर से आँसू यह छिपाऊँ कैसे।

आज भी तेरे बेनिशान किसी कोने में
मेरे गुमनाम उमीदों की बसी बस्ती है
आज ही तेरी किसी मिल के किसी फाटक पर
मेरी मज़बूर गरीबी खड़ी तरसती है।

फर्श पर तेरे 'तिलक हाल' के अब भी जाकर
ढीठ बचपन मेरे गीतों का खेल खेल आता है
आज ही तेरे 'फूलबाग' की हर पत्ती पर
ओस बनके मेरा दर्द बरस जाता है।

करती टाईप किसी ऑफिस की किसी टेबिल पर
आज भी बैठी कहीं होगी थकावट मेरी,
खोई-खोई-सी परेशान किसी उलझन में
किसी फाइल पै झुकी होगी लिखावट मेरी।

'कुरसवां' की वह अँधेरी-सी हवादार गली
मेरे'गुंजन'ने जहाँ पहली किरन देखी थी,
मेरी बदनाम जवानी के बुढ़ापे ने जहाँ
ज़िन्दगी भूख के शोलों में दफन देखी थी।

और ऋषियों के नाम वाला वह नामी कालिज
प्यार देकर भी न्याय जो न दे सका मुझको,
मेरी बगिया कि हवा जो तू उधर से गुज़रे
कुछ भी कहना न, बस सीने से लगाना उसको।

क्योंकि वह ज्ञान का एक तीर्थ है जिसके तट पर
खेलकर मेरी कलम आज सुहागिन है बनी,
क्योंकि वह शिवाला है जिसकी देहरी पर
होके नत शीश मेरी अर्चना हुई है धनी ।

आज भी उसके डेस्कों पे झुकी जमुहाती
मेरी ठिठुरी - सी सुबह सुन रही होगी लेक्चर
जाल भी उसके रजिस्टर के किसी खाने को
मेरे गुमनाम या सरनाम की कुछ होगी खबर ।

बात या सिर्फ किन्तु जानती है "मेस्टन रोड'
ट्यूब कितने कि मेरी साइकिल ने बदले हैं
और 'चित्रा' से जो चाहो तो पूछ लेना तुम
मेरी तस्वीर में किस-किस के रंग धुँधले हैं।

गीत मैं किसके लिए लिखता हूँ यह राज़ तुम्हें
डाकिया नेहरू नगर का ही बता सकता है
परदा जो मेरे आँसुओं को ढके रहता है
वह तो बस कोई सितमगर ही उठा सकता है।

और वह शाम, आह मेरी हार जीत की शाम
आँख से आँख मिलाके जो रह गई थी खड़ी,
आज भी दिल के आइने में आठ साल के बाद
वो ही सूरत हाँ उसी नाज़ो-अदा से है जड़ी।

शोख मुस्कान वही और वही ढीठ नज़र
साथ साँसों के यहाँ तक रे चली आई है
तीन सौ मील की दूरी भी कोई दूरी है
प्रेम की गाँठ तो मरके भी न खुल पाई है ।

याद आती है बहुत छाँव वह इमली वाली
छाँह जिसकी कि दुबारा न फिर हम घूम सके
आज तक भूल न पाया वह चाँद पूनम का
चूमने को जिसे दौड़े न मगर चूम सके।

आह वह लाल हथेली वह तुनकती मेंहदी
अब भी सपनों के बियाबाँ में महक जाती है
अब भी रातों के स्याह-सुन्न से सन्नाटे में
एक है आग जो बुझ-वुझ के दहक जाती है।

6. पुर्तगाल के नाम

ढल गई रात, सितारों की लड़ी टूट गई
बुझ गई काँप के बीमार दिये की बाती
होने वाली है सुबह एक किरन पूरब से
बाल बिखराये पहाडों पै उतरती आती है।

छम छमाती है महकते हुए बागों में हवा
गीत-गाती है परिन्दों की चहक पेड़ों पर
कसमसाती है किनारे की बाँह में किश्ती
मुस्कराती है कलाई कुओं की मेंड़ों पर ।

आँख मलती हुई सड़कों के गरम आँचल में
शोर-गुल दिन का खड़ा ले रहा है जमुहाई
हाट बाज़ारों, गली कूँचों, कुटी महलों में
छेड़ती धूप है किरनों की मधुर शहनाई।

चमचमाने हैं लगी चूड़ियाँ हर देहरी पर
गुनगुनाने हैं लगी डोर हर हिन्डोल की
सुगबुगाने हैं लगी आग हर अंगीठी में
कुनमुनाने है लगी दौन हर खटोले की।

नीचे आ आके धुँआँ चिमनियों मकानों का
ऐसा लिपटा है धड़कते शहर के सीने से
श्याम घन जैसे लिपट जाते हैं बरसात की रात
व्योम मुँदरी में जड़े चाँद के नगीने से।

दूब चरती हुई गायों की घंटियों का स्वर
लौट आता है यूँ आ आके चरागाहों से
जैसे बेकार गरीबी के दिनों में कोई
नौकरी आके फिसल जाय उठी बाँहों से।

बोझ से काँपते रिक्शों के ऊँघते पहिये
दौड़ते जाते हैं रुक-रुक के सड़क पर ऐसे
एक बेवा के सुलगते हुए आँसू असहाय
खुद ही थम-थम के बरस लेते हैं जग में जैसे।

ऐसे मौसम में पढ़ी है खबर कि लिस्बन को
बात दिल्ली की किसी दम पै मंजूर नहीं
इसका मतलब तो यह है कि मेरे गोआ में
युद्ध गर पास नहीं है तो बहुत दूर नहीं।

युध्द हाँ युद्ध पुर्तगाल ज़रा होश में आ
एशिया से यह छेड़छाड़ नहीं अच्छी है
साजिशों की यह जोड़-जाड़ नहीं अच्छी है
टैंकों की यह भीड़-भाड़ नहीं अच्छी है।

ज्ञात यह तुझको नहीं है कि नये भारत की
धूल उठके तुझे चुटकी में मसल सकती है
और इस भूमि पै दिल्ली की इजाजत के बिना
क्या है बन्दूक हवा भी तो न चल सकती है।

अपने खूँख्तार इरादों को कफ़न पहनादे
आग वरना यह तो घर में दहक जायेगी
लेके अँगड़ाई जो उठ बैठे हिमालय के पहाड़
मैप पर भी न तेरी शक्ल नज़र आयेगी।

तेरी तोपों के दहाने को एशिया का लहू
बात-की-बात में हाथों से फाड़ सकता है
और इस देश का यौवन यह तिरंगा झंडा
क्या है गोआ तेरे लिस्वन में गाड़ सकता है।

तूने सिन्दूर चुराया है जो कि बहिनों का
मोल हम उसका अभी चलके चुका सकते हैं
तेरी गर्दन जो गुनाहों से घमंडी है हुई
मोड़ कर हम उसे कदमों में झुका सकते हैं।

मेरी ज़रख़ेज ज़मीनों में छिपे हैं भूचाल
मेरे खेतों में अंगारों की फसल हँसती है
मेरे बाग़ों में महकती है अमन आजादी
मेरी बस्ती एक ज्वालामुखी की बस्ती है।

तूने बारिश जो निहत्थों पे की है गोली की
उसका उत्तर तो हमारे वतन के पास भी है
तूने संगीन जो भोंकी है तने सीनों में
उसका मरहम तो हमारी चुभन के पास भी है।

किन्तु प्यारी है हमें सबकी हँसी और खुशी
खून की लाल नुमाइश से हमें नफरत है
शान्ति के हम हैं पुजारी, हमारे हाथों को
विश्व नापाक बनाने की नहीं आदत है।

होश में आ वह ज़माना गया, मौसम वह फिरा
अब तो पूरब से ही पश्चिम को सबक लेना है
खून का कर्ज जो यूरुप ने लिया था हमसे
सब जो लौटा के उसे ऐशिया को देना है।

देख वह तोड़ के जंज़ीर मर्द चीन उठा
और जापान मलाया में सफर जारी है,
सालाज़ारों को ज़रा अपने बता दे जाकर
पानी सागर का यहाँ पर भी बहुत खारी है।

पीना आसान नहीं है भेरी धरती का लहू
यह ज़हर बनके तेरे तन-बदन से निकलेगा
उठके त्यौहार मनायेंगे जब हम होली का
डोला गोआ का बड़े बाँकपन से निकलेगा।

डालरों और डलेंसों की मदद से भी क्या
वक्त की आँधियाँ तूफान रुका करते हैं।
कर्ज में ली हुई दस-बीस गोलियों से अरे
उठते देशों के नहीं शीश झुका करते हैं।

गोआ आजाद तो होगा ही न इसमें शक है
किंतु यह डर है कहीं रंग यह न कुछ लाये
तेरी बेशर्म जहालत यह कहीं दुनिया को
फिर किसी मौत को वादी में न भटका आये।

वक्त अब भी है हवाओं की नज़र को पहचान
चीज़ जो हिन्द की है हिन्द को वापिस कर दे
छोड़ नफरत कि जो तुझको ही मिटा डालेगी
प्यार कर जो तेरी आँखों का अंधेरा हर दे।

7. बुझते हुए दीपकों के नाम

निशि हटने दो, तम मिटने दो, घर-घर ज्योति बुलाने दो
नई किरन को, नई लगन को, उठकर दिया जलाने दो।

धरा विकल है, गगन विकल है, व्याकुल हर चौपाल गली
हवा न चलती, शाख न हिलती, खिलती कोई नहीं कली,
गुमसुम मधुबन, उन्मन गुंजन, सावन की क्या बात कहें
नैना बादल, गीले आँचल, घायल रंगभरी कजली।
स्वप्न न टूटे, चाँद न रूठे, छूटे साथ न सूरज का
कर सोलह सिंगार, धरा को फिर दुल्हन बन जाने दो
नई किरन को, नई लगन को, उठकर दिया जलाने दो।

तुमने बाले दीप, दीप की ज्योति न पर आज़ाद हुई
उतना मिला प्रकाश न जितनी बाती हर बरबाद हुई
धरती रोई, अम्बर रोया, रोये चाँद सितारे भी
लुटी हुई फुलवारी अब तक किन्तु नहीं आबाद हुई
धुंधला जाये कहीं न युग की ज्योति बन्द कारा में ही
बन करके भारती उसे जनमन को गले लगाने दो
नई किरन को, नई लगन को, उठकर दिया जलाने दो।

परिवर्तन की माँग पुरानी बुझे नई लौ मुस्काये
ढले सितारे ढले कि जिससे जग में नई सुबह आये
सम्भव सह अतित्व नहीं वृद्धापन औ तरुणाई का
सूखे पत्ते झरे शीघ्र तब बगिया में मधु रितु आये।
जो खिल चुका झरेगा ही वह उसके लिए शोक कैसा?
उगती हुई बहारों को मनमाने गीत सुनाने दो।
नई किरन को, नई लगन को, उठकर दिया जलाने दो।

बुझते दीप नहीं देते हैं गौरव नई दीवाली को
बासी फूल नहीं करते हैं तिलक नई उजियाली को
नये कंठ से ही फूटा है राग सदैव नये युग का
नये श्लोक ने ही तो उत्तर दिया पुरानी गाली को
यज्ञ न फिर से को सुलग कर कोई बेबस चिनगारी
महलों से बाहर जनता का सिंहासन ले आने दो
नई किरन को, नई लगन को, उठकर दिया जलाने दो।

8. साँसों के मुसाफ़िर

इसको भी अपनाता चल,
उसको भी अपनाता चल,
राही हैं सब एक डगर के, सब पर प्यार लुटाता चल।

बिना प्यार के चले न कोई, आँधी हो या पानी हो,
नई उमर की चुनरी हो या कमरी फटी पुरानी हो,
तपे प्रेम के लिए, धरिनी, जले प्रेम के लिए दिया,
कौन हृदय है नहीं प्यार की जिसने की दरबानी हो,

तट-तट रास रचाता चल,
पनघट-पनघट गाता चल,
प्यासी है हर गागर दृग का गंगाजल छलकाता चल।
राही हैं सब एक डगर के सब पर प्यार लुटाता चल।

कोई नहीं पराया, सारी धरती एक बसेरा है,
इसका खेमा पश्चिम में तो उसका पूरब डेरा है,
श्वेत बरन या श्याम बरन हो सुन्दर या कि असुन्दर हो,
सभी मछरियाँ एक ताल की क्या मेरा क्या तेरा है?

गलियाँ गाँव गुँजाता चल,
पथ-पथ फूल बिछाता चल,
हर दरवाज़ा राम दुआरा सबको शीश झुकाता चल।
राही हैं सब एक डगर के सब पर प्यार लुटाता चल।

हृदय हृदय के बीच खाइयाँ, लहू बिछा मैदानों में,
धूम रहे हैं युद्ध सड़क पर, शान्ति छिपी शमशानों में,
जंज़ीरें कट गई, मगर आज़ाद नहीं इन्सान अभी
दुनिया भर की खुशी कैद है चाँदी जड़े मकानों में,

सोई किरन जगाता चल,
रूठी सुबह मनाता चल,
प्यार नक़ाबों में न बन्द हो हर घूँघट खिसकाता चल।
राही हैं सब एक डगर के, सब पर प्यार लुटाता चल।

नयन-नयन तरसें सपनों को आँचल तरसें फूलों को
आँगन तरसें त्यौहारों को, गलियाँ तरसें झूलों को
किसी होंठ पर बजे न वंशी, किसी हाथ में बीन नहीं
उम्र समुन्दर की दे डाली किसने चन्द बबूलों को?
बिखरे तार मिलाता चल
ममतल धरा बनाता चल,
राही हैं यब एक डगर के सब पर प्यार लुटाता चल।

9. फिरका परस्तों के नाम

जाँति-पाँति से बड़ा धर्म है,
धर्म ध्यान से बड़ा कर्म है,
कर्म कांड से बड़ा मर्म है,
मगर अभी से बड़ा यहाँ ये छोटा-म इन्सान है
और अगर वह प्यार को तो धरती स्वर्ग समान है।

जितनी देखी दुनिया सबकी देखी दुल्हन ताले में,
कोई कैद पड़ा मस्जिद् में, कोई बन्द शिवाले में
किसको अपना हाथ थमा दूँ किसको अपना मन दे दूँ?
कोई लूटे अँधियारे में, कोई ठगे उजाले में
सबका अलग-अलग ठनगन है
सबका अलग-अलग वंदन है
सबका अलग-अलग चन्दन है

लेकिन मबके सिर के ऊपर नीला एक वितान है,
फिर भी जाने क्यों यह सारी धरती लहू-लुहान है।

हर बगिया पर तार कटीले, हर घर घिरा किवाड़ों से,
हर खिड़की पर परदे, घायल आँगन हर दीवारों से,
किस दरवाज़े करूँ वन्दना, किस देहरी माथा टेकूँ,
काशी में अंधियारा सोया, मथुरा पटी बज़ारों से,

हर घुमाव पर छीन झपट है
इधर प्रेम तो उधर कपट है,
झूँठ किये सच का घूँघट है
फिर भी मनुज अश्रु की गंगा अब तक पावन प्राण है
और नहा ले उसमें तो फिर मानव ही भगवान है।

धरम द्वार पर बाम्हन बैठा, बनिये की बाँदी मंडी
ङंडी मारे एक, भुनाये दूजा किस्मत की हुंडी
हरिजन की बखरी पर पेहरा, ठाकुर का चौपालों पर
गली-गली आबाद, सिर्फ वीरान पिया की पगडण्डी;

बंटी हुई है दुनिया सारी
बंटी हुई है सेज अटारी
बंटी हुई है म्यान कटारी,

मगर अभी तक सेटी न दिल में धड़कन की जो तान है
उस पर बजे सितार अगर तो हर कोलाहल गान है।

यह तो कजराई का आशिक, उसको गरब गुराई पर
यह मोहा मटमैलेपन पर, वह रीझा चटकाई पर
उतने रंग कि चश्मे जितने, जितने दृग उतने शीशे
दुनिया की तस्वीर टंगी है सुरमा और सलाई पर

इधर अंधेरी उधर अंधेरी
आँख-आँख मोतियाँ गुहेरी
कुयला भई रतन की ढेरी
फिर भी रंगों के मेले में खोया सकल जहान है
दिन-दिन जब कुछ और बड़ा हो जाता हर शमशान है।

बंगाली को बंगला प्यारी, तामिल चाहे मदरासी
पंजाबी गुरमुखी उचारे, हिन्दी दिल्ली की दासी
इसकी शहज़ादी अंग्रेजी, उसकी पटरानी संस्कृत
मगर पेम की भाषा अब तक हाय बनी है बनवासी

जितने मुँह उतने अक्षर हैं
जितने घर उतने बिस्तर हैं
कुछ भीतर हैं कुछ बाहर हैं

सोई पर हर साँस जहाँ वह बिस्तर अभी अजान हैं
उसका तकिया बने शब्द तो हर भाषा धनवान है।

पूरब जाये पुरी और पश्चिम दौडे वृन्दावन को
उत्तर बद्रीनाथ चले, रामेश्वर भाये दक्खिन को
इसको प्यारी लगें अज़ाने उसकी कीर्तन पर श्रद्धा
पर न यहाँ कोई जो पूजे मानव औ मानवपन को

एक पेड़ पक्षी हजार हैं
एक चाक लाखों कुम्हार हैं
एक अश्व पर सौ सवार हैं।

पर न किसी को ज्ञात कि सबके ही पीछे तूफान है
ढीली हुई रक़ाब ख़तम तो फिर सब खींचातान है।

चारों ओर लगा है मेला, चल-चलाव है हर पथ पर
इसके हाथ बंधे कंगन में, उसकी लाज झुकी नथ पर
पनघट इधर बुलाता है तो मरघट उधर पुकार रहा,
बड़ी आदमी की मुश्किल है इस अनजाने तीरथ पर

दिशि-दिशि है काँटी का घेरा
उस पर यह आँधी का फेरा
उस पर जर्जर तम्बू-डेरा

फिर भी मुझको प्रिय जग का हर उदय और अवसान है
क्योंकि सभी स्वर्गों से सुन्दर यह काग़ज़ी मकान है।

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