माता : माखनलाल चतुर्वेदी

Mata : Makhanlal Chaturvedi

1. कोमलतर वन्दीखाना

'शंकर' थी; अब कारागृह है हिमगिरि की दीवार,
हाय गले का तौक बना गंगा-यमुना का हार;
धन्य ! बंग खंभात अब्धि की लहरों की हथकड़ियां,
रामेश्वर पर चढ़ी तरंगें बनी पैर की कड़ियाँ ।
कोमलतर बन्दीखाने के तीस कोटि बन्दी हैं
हों गुलाम, जीवन की बेहोशी में आनंदी हैं ।
(1923, माता)

2. राष्ट्रीय झंडे की भेंट

माँ, रोवो मत, शीघ्र लौट घर आऊँगा, प्रस्थान करूँ
बाबा दो आशीष, पताका पर सब कुछ क़ुरबान करूँ।
लौटूँगा मैं देवी, हाथ में विजय पताका लाऊंगा।
कष्ट-प्रवास, जेल-जीवन की तुमको कथा सुनाऊँगा।

दौड़ पड़ो वीरो, माता ने संकट में की आज पुकार।
हार न होवे तेरे रहते मेरी पावन भूमि बिहार।
ले झण्डा चल पड़ा, प्राण का मोह छोड़ वह तरुण युवा।
उसकी गति पर अहा ! देश के अमरों को भी क्षोभ हुआ ।

सजा हुई, जंजीरें पहनीं, दुर्बल था, पर वार हुए,
गिट्टी, मोट, चक्कियाँ, कोल्हू हँस-हँस कर स्वीकार हुए।
'मातृ-भूमि' मैं तेरी मूरत देख सभी सह जाऊँगा।
दे लें दण्ड, आर्य-बालक हूँ, मस्तक नहीं झुकाऊँगा।

कष्ट बढ़े, दुर्बल देही थी असहनीय व्यवहार हुआ,
कैदी शैय्या पर पड़ने को गिर-पड़ कर लाचार हुआ,
सेनापति ने कहा, पताके ! अभी कौन बलिहार हुआ?
हुंकारा हरदेव, प्राण मैं दूँगा, लो तैयार हुआ।

"माफ़ी ले लो, अभी समय है," अरे न यों अपमान करो,
झण्डे पर चढ़ने दो मुझको मातृभूमि का ध्यान करो!
प्यारी माँ, मेरे बाबा-हरदेवा अन्तर्धान हुआ।
रक्षक हा भगवान प्रिये, मैं झण्डे पर क़ुरबान हुआ।

जननी बिहार प्रणाम तुम्हें, तेरे गौरव का गान रहे,
मातृभूमि ! तेरे ध्वज की मेरे प्राणों से शान रहे !
क्यों सहसा चल पड़ा? ठहर, आ रही विजय तेरे द्वारे।
'कंधे पर ले चलें' या कि चल पड़ें पूज्य पथ में प्यारे ।

(सितम्बर,1923; हरदेव=श्री हरदेव नारायण सिंह;
बिहार के सत्याग्रही 1923 में नागपुर के
झंडा-सत्याग्रह में आये हुए थे। जिस दिन
अखिल भारतीय राष्ट्र समिति के प्रतिनिधि
सरदार पटेल ने नागपुर की सभा में भाषण
दिया की आज तक कोई झंडे पर मरा नहीं,
उसी समय नागपुर जेल में हरदेव प्राण दे
रहे थे । सरदार पटेल, माखन लाल चतुर्वेदी
और अन्य देशभक्तों के कंधे पर झंडे का कफ़न
ओढ़े, हरदेव नारायण की अर्थी सहस्त्रों की जनता
के साथ निकली और सुनहला इतिहास बना गयी ।
कविता 'राष्ट्रीय झण्डे की भेंट' ;कवि ने उनके
अंतिम संस्कार के बाद लिखी थी)

3. लौटे

वह आता है किये निहाल, गर्व से उठाये भाल
पुष्य भूमि ह्रदय संभाले पथ में खड़ी;

अब जाता है हमारा शोक क्यों कर रहेगी रोक
दीन दुखी लोगों की अनी सी उमड़ी बड़ी;

सभी खीझने खिजाने और रीझने रिझाने वाले
प्रेमियों की सेना पद पूजते हुए अड़ी,

देवि, सास को सहारा दिये बालकों को गोदी लिये-
चूम, द्वार-झांकती लगाये आंसूयों की झड़ी !

(1924: फतहपुर के मुकदमे की सजा काट कर
स्व० भाई गणेश-शंकरजी के नैनी जेल से छूटने पर)

4. वह संकट पर झूल रहा है

कांटों ने संकेत दिया था शीघ्र पुष्प आने वाले हैं
सागर के वे ज्वार, तुम्हारे घर मोती लाने वाले हैं
पंखिनियाँ, प्रभु की ऊंचाई का, प्राणों में गान करेंगी;
आँसू की बूंदों से, साधें सिमिट-सिमिट पहिचान करेंगी ।

अग-जग में जो ढूंढ़ रहा हूँ वह सांसों पर फूल रहा है;
चाहा था नजरों पर झूलें वह संकट पर झूल रहा है।
एक हिलोर, लोरियाँ गाकर जाना था, गुमराह कर उठी,
किसने जाना था प्रहार की बेला उस पर वाह कर उठी !

जो तड़पन सा उठा, और आँसू सा बेकाबू भर आया,
जी से आँखों पर गालों पर अंगुलियों पर गीत सजाया;
जिसके जी से संकट खेले संकट से जो रह-रह खेला,
संकट के पुष्पक पर आई जिसकी पुण्य-साध की वेला!

जिसके पागलपन में एक प्रणयिनी वंदन की हलचल है,
जिसके पागलपन में, प्रतिभा के सौ-सौ हाथी का बल है,
जिसके पागलपन में, बलि पथ में भी मधुर ज्वार आता है,
अपने पागलपन में, बेदी पर शिर जो उतार आता है !

उसकी याद-याद पर, होती रहे याद कुरबान हमारी,
उसकी साँस-साँस में, कसकें--'महासांस' की 'साँसें' सारी ।
वह आँखों का मीठा धन यादों का मीठा मोहन प्यारा,
वह अरमानों का अपनापन जी की कसकों की ध्वनि-धारा ।

वह मेरे संकोचों के आँगन का शिशु, अनहोना सा धन,
वह मेरे मनसूवों की सीमा-रेखा का निर्मल यौवन,
वह बलि की बेदाग तरुण कलिका, प्रभु-तरु के चरणों झुक-झुक;
करती रहे युगों को, अपनी मृदु मरंद से युग-युग उत्सुक ।
(1926)

5. विदा

जाग रही थी,
चैन न लेती थी
मस्तानी आँखडियां,
पहरा देती थीं
पागल हो, ये---
पागलिनी पाँखडियाँ,
भौहें सावधान थीं
ओठों ने भूला
था मुसकाना,
आह न करती
डरती थी, पथ-
पाले कोई दीवाना !
सूरज की सौ-सौ किरणों में, विमल वायु के बहते,
कौन छीन ले गया मुझे अपने से, जागृत रहते ?
(1926)

6. सेनानी

तुझको लख युग मुख खोल उठा, बेबस तब स्वर में बोल उठा,
तेरा जब प्रलय-गान निकला, ले, कोटि-कोटि शिर डोल उठा ।
आशा ऊषा यह द्वार खोज विजया, का सोना ले आई !
यह भली जगा दी तरुणाई !

माँ का 'उभार' खोलती सी, जीवन में ज्वर घोलती सी,
विष-घट खाली कर अमृत में घट-घट भर, मस्त डोलती सी,
जी की ज्वाला की दीप-माल आरती बनाकर ले आई,
यह भली जगा दी तरुणाई !

तू बल दे गिरतों को उदार, तू बल दे बलि-पथ को संवार,
तू बल दे मस्तक वालों को- मस्तक देने का स्वर उचार,
जगमग-जगमग उल्लास जगा दीपों में साध उतर आई ।
यह भली जगा दी तरुणाई !

तेरे स्वर पर प्रभु है लहरा, तेरे स्वर पर सुहाग ठहरा,
तेरा स्वर वह गहरा-गहरा, तेरे स्वर पर युग का पहरा,
तू महाप्राण, तू प्रलय गान, तू अमर प्राण, तू बलि महान;
तू मेरे अमर ! उठा वंशी दे फूंक साधना स्वर भाई ।

यह भली जगा दी तरुणाई !
(1927)

7. मीर

दे प्यारे, अपनी आँखों में
आमेजान वहाँ पाऊँ,
विमल-धर्म-जयगढ़ पर
तेरे उसे समुद्र टकरा पाऊँ
भाव-पोत पर लाद, प्रेम के
पुष्प-पत्र पहुँचा पाऊँ;
अपनी क्षीण धार, उस निधि से
किसी प्रकार मिला पाऊँ;
उद्गम पर इस ओर खड़ा है
बल, विचार-गुणहीन फकीर
मजलिस सुनी देख, विकल है,
उसे मिला दे उसका मीर ।
(1927; मीर=हिन्दी के सुकवि स्वर्गीय
सैयद अमीर अली मीर, जिन्हें लेखक
जीवन भर 'पूज्य' और 'पंडित' अमीर
अली मीर लिखता रहा । लेखक के
(सन 1921 की 5 जुलाई को) जेल
जाने पर, धर्मजयगढ़ के दीवान होते
हुए, मीर साहब ने बधाई का पत्र
बिलासपुर जेल के पते पर अपने कैदी
मित्र को भेजा । उस समय 'मीर'
साहब को भेजी गई यह श्रद्धांजलि है।
जेल से लौटने पर पता चला कि मीर
साहब अपने राष्ट्रीय मनोभावों के
कारण उस राज के दीवान पद से हटा
दिये गये)

8. अमरते ! कहाँ से ?

अमरते आई दौड़ कहाँ से ।
यह यौवन, यह उभरन आली
छीनी कैसे माँ से !
अमरते

पलकें बिह्वल
प्रहर प्रतीक्षक
दिन दीवाने कैसे ?
मास मनाने
लगे, रूठकर
बैठी हूँ मैं जैसे ?
अमरते

माँ के घर-
रहना ही होगा
करके कठिन मजूरी,
मोहन देते
नहीं अभी
अपने घर की मंजूरी !
अमरते

तोड़ूंगी हिम-
शैल, बनाऊंगी-
पगडंडी पथ में !
विजय घोष
कर बैठेगा-
यौवन, झंझा के रथ में !
अमरते

जब आँखों से
दीख पड़ेगा
वह उन्मत्त जमाना
परम सुनहला
बन्ध मुक्त-
बल-वैभव का दीवाना !
अमरते


उदधि-जाधौत
चरणों पर अर्पित--
कोटि कोटि जयमाला,
कोटि कोटि
थाली जगमग की
मना रही दीवाली ।
अमरते


बैठे, चलो
समय के रथ--
किरनीली ज्योति जगा दें
और आत्म-मंथन
का कल-कल
ऊषा बनकर गा दें ।
अमरते

निर्झर, खंडहर,
तरु-कोटर में
गूंथा किसने स्वर है ?
मर्मर अमर-
अमर का गाना
सखि ! यह कौन अमर है?
अमरते

(1927)

9. उच्चत्व से पतन स्वीकार था !

मनहर, पतन स्वीकार था
मुझको, पतन स्वीकार था!
हे हिमशिखर !
तुमको लगा जो निम्न पथ,
मेरे लिए हर-द्वार था।
मुझको, पतन स्वीकार था!

मेरा उतरना, दौड़ना, पथ-पत्थरों का तोड़ना
कर हरी-हरी वसुंधरा उदंड अंग हिलोरना!
ये राह, खोवे दाह, गीता में प्रलय, तरला चाह,
मैं चल पड़ी, मेरे चरणों पर जगत भर लाचार था !
मुझको, पतन स्वीकार था!

प्रभु की तरल प्राणद झड़ी बरसी तुम्हारे घर वृथा,
तुमने बना पत्थर, बढ़ा दी कोटि तृषितों की व्यथा,
तुम देवताओं के लोक हो मैं कृषक की करुणा कथा ।
मुझको, पतन स्वीकार था!

प्रभु ने बरसता वर दिया, तुमने उसे पत्थर किया,
माना कि पंकिलता बची माना कि जगमग जग किया,
तुमको चमक की चाह- मुझको, पंक-पथ-शृंगार था ।
मुझको, पतन स्वीकार था!

तुम जगमगा कर रह गये अपनी विवशता कह गये,
लाचार दीन अधीन तृषितों के इरादे ढह गये,
मैं उच्चता को शत्रु- सबल जगत की मनुहार था ।
मुझको, पतन स्वीकार था!

तुम रोकते हो धार को ? आश्रित जगत-व्यापार को ?
तुम प्रबल गति के शत्रु हो- क्यों रोकते हो ज्वार को ?
मैं चली मूर्छित छोड़; मेरा, प्रलय-घन हुंकार था ।
मुझको, पतन स्वीकार था!

तुम विमल ऊँचों की कथा, मैं करुण दलितों की व्यथा,
तुम कर्महीना 'देवता' मैं गतिमयी, बलि की प्रथा;
जड़ उच्चता में, जन्म मम विद्रोह का अवतार था ।
मुझको, पतन स्वीकार था!

हाँ ठीक, जग तुम पर चढ़े, यह उचित, नर तुम तक बढ़े;
पर यह तुम्हारी उच्चता क्यों शाप मानव पर मढ़े ?
तरलत्व को तरलत्व दूं मेरा कठिन निर्धार था ।
मुझको, पतन स्वीकार था!

रोती रही भू प्यास से, हरिया उठूं, इस आस से,
वह बनी रेगिस्तान 'शीतल-उच्चता' के त्रास से !
मेरा 'भगीरथ' क्रान्तिमय विद्रोह सा उपचार था ।
मुझको, पतन स्वीकार था!
(1927)

10. दृढ़व्रत

बज्र बरसाने दे उन्हें तू खड़ा देखा कर,
फूल बिखराने दे लुभाते हैं लुभाने दे ।
गालियाँ सुनाने दे तू आरती उतारने दे,
दण्ड आजमाने दे या चन्दन चढ़ाने दे ।

होवे बनवास कारावास, नर्कवास
पद चूमे अमरत्व उसे पड़ा रह जाने दे,
साँवली सी सूरत को माधुरी सी मूरत को
प्राण बलि जाने दे तू आँखो से न जाने दे ।
(1913)

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