कल सुनना मुझे : सुदामा पांडेय धूमिल

Kal Sunna Mujhe : Sudama Panday Dhoomil

1. कविता के द्वारा हस्त्तक्षेप

जब मै अपनें ही जैसे किसी आदमी से बात करता हूँ,
साक्षर है पर समझदार नहीं है । समझ है लेकिन
साहस नहीं है । वह अपने खिलाफ चलाने वाली
साजिश का विरोध खुल कर नही कर पाता ।
और इस कमजोरी को मैं जानता हूँ । लेकिन इसलिये
वह आम मामूली आदमी मेरा साधन नहीं है
यह मेरे अनुभव का सहभागी है, बनता है ।

जब मैं उसे भूख और नफ़रत और प्यार और ज़िंदगी
का मतलब समझाता हूँ-और मुझे कविता में
आसानी होती है-जब मैं ठहरे हुए को हरकत
में लाता हूँ -एक उदासी टूटती है,ठंडापन ख़त्म
होता है और वह ज़िंदगी के ताप से भर जाता है ।

मेरे शब्द उसे ज़िंदगी के कई-स्तरों पर खुद को
पुनरीक्षण का अवसर देते हैं, वह बीते हुये वर्षों
को एक- एक कर खोलता है ।
वर्तमान को और पारदर्शी पाता है उसके आर-पार
देखता है । और इस तरह अकेला आदमी भी
अनेक कालों और अनेक संबंधों मे एक समूह
मे बदल जाता है । मेरी कविता इस तरह अकेले को
सामूहिकता देती है और समूह को साहसिकता ।

इस तरह कविता में शब्दों के ज़रिये एक कवि
अपने वर्ग के आदमी को समूह की साहसिकता से
भरता है जब कि शस्त्र अपने वर्ग-शत्रु को
समूह से विच्छिन्न करता है । यह ध्यान
रहे कि शब्द और शस्त्र के व्यवहार का व्याकरण
अलग-अलग है शब्द अपने वर्ग-मित्रों में कारगर
होते हैं और शस्त्र अपने वर्ग-शत्रु पर ।

2. अंतर

कोई पहाड़
संगीन की नोक से बड़ा नहीं है
और कोई आँख
छोटी नहीं है समुद्र से
यह केवल हमारी प्रतीक्षाओं का अंतर है -
जो कभी
हमें लोहे या कभी लहरों से जोड़ता है

3. दिनचर्या

सुबह जब अंधकार कहीं नहीं होगा,
हम बुझी हुई बत्तियों को
इकट्ठा करेंगे और
आपस में बाँट लेंगे.

दुपहर जब कहीं बर्फ नहीं होगी
और न झड़ती हुई पत्तियाँ
आकाश नीला और स्वच्छ होगा
नगर क्रेन के पट्टे में झूलता हुआ
हम मोड़ पर मिलेंगे और
एक दूसरे से ईर्ष्या करेंगे.


रात जब युद्ध एक गीत पंक्ति की तरह
प्रिय होगा हम वायलिन को
रोते हुए सुनेंगे
अपने टूटे संबंधों पर सोचेंगे
दुःखी होंगे

4. नगर-कथा

सभी दुःखी हैं
सबकी वीर्य-वाहिनी नलियाँ
सायकिलों से रगड़-रगड़ कर
पिंची हुई हैं
दौड़ रहे हैं सब
सम जड़त्व की विषम प्रतिक्रिया :
सबकी आँखें सजल
मुट्ठियाँ भिंची हुई हैं.

व्यक्तित्वों की पृष्ठ-भूमि में
तुमुल नगर-संघर्ष मचा है
आदिम पर्यायों का परिचर
विवश आदमी
जहाँ बचा है.

बौने पद-चिह्नों से अंकित
उखड़े हुए मील के पत्थर
मोड़-मोड़ पर दीख रहे हैं
राहों के उदास ब्रह्मा-मुख
‘नेति-नेति' कह
चीख रहे हैं.

5. गृहस्थी : चार आयाम

1
मेरे सामने
तुम सूर्य - नमस्कार की मुद्रा में
खड़ी हो
और मैं लज्जित-सा तुम्हें
चुप-चाप देख रहा हूँ
(औरत : आँचल है,
जैसा कि लोग कहते हैं - स्नेह है,
किन्तु मुझे लगता है-
इन दोनों से बढ़कर
औरत एक देह है)

2
मेरी भुजाओं में कसी हुई
तुम मृत्यु कामना कर रही हो
और मैं हूँ-
कि इस रात के अंधेरे में
देखना चाहता हूँ - धूप का
एक टुकड़ा तुम्हारे चेहरे पर

3
रात की प्रतीक्षा में
हमने सारा दिन गुजार दिया है
और अब जब कि रात
आ चुकी है
हम इस गहरे सन्नाटे में
बीमार बिस्तर के सिरहाने बैठकर
किसी स्वस्थ क्षण की
प्रतीक्षा कर रहे हैं

4
न मैंने
न तुमने
ये सभी बच्चे
हमारी मुलाकातों ने जने हैं
हम दोनों तो केवल
इन अबोध जन्मों के
माध्यम बने हैं

6. उसके बारे में

पता नहीं कितनी रिक्तता थी-
जो भी मुझमे होकर गुजरा -रीत गया
पता नहीं कितना अन्धकार था मुझमे
मैं सारी उम्र चमकने की कोशिश में
बीत गया

भलमनसाहत
और मानसून के बीच खड़ा मैं
ऑक्सीजन का कर्ज़दार हूँ
मैं अपनी व्यवस्थाओं में
बीमार हूँ

7. किस्सा जनतंत्र

करछुल...
बटलोही से बतियाती है और चिमटा
तवे से मचलता है
चूल्हा कुछ नहीं बोलता
चुपचाप जलता है और जलता रहता है

औरत...
गवें गवें उठती है...गगरी में
हाथ डालती है
फिर एक पोटली खोलती है।
उसे कठवत में झाड़ती है
लेकिन कठवत का पेट भरता ही नहीं
पतरमुही (पैथन तक नहीं छोड़ती)
सरर फरर बोलती है और बोलती रहती है

बच्चे आँगन में...
आंगड़बांगड़ खेलते हैं
घोड़ा-हाथी खेलते हैं
चोर-साव खेलते हैं
राजा-रानी खेलते हैं और खेलते रहते हैं
चौके में खोई हुई औरत के हाथ
कुछ नहीं देखते
वे केवल रोटी बेलते हैं और बेलते रहते हैं

एक छोटा-सा जोड़-भाग
गश खाती हुई आग के साथ
चलता है और चलता रहता है
बड़कू को एक
छोटकू को आधा
परबती... बालकिशुन आधे में आधा
कुछ रोटी छै
और तभी मुँह दुब्बर
दरबे में आता है... 'खाना तैयार है?'
उसके आगे थाली आती है
कुल रोटी तीन
खाने से पहले मुँह दुब्बर
पेटभर
पानी पीता है और लजाता है
कुल रोटी तीन
पहले उसे थाली खाती है
फिर वह रोटी खाता है

और अब...
पौने दस बजे हैं...
कमरे में हर चीज़
एक रटी हुई रोज़मर्रा धुन
दुहराने लगती है
वक्त घड़ी से निकल कर
अंगुली पर आ जाता है और जूता
पैरों में, एक दंत टूटी कंघी
बालों में गाने लगती है

दो आँखें दरवाज़ा खोलती हैं
दो बच्चे टा टा कहते हैं
एक फटेहाल क्लफ कालर...
टाँगों में अकड़ भरता है
और खटर पटर एक ढड्ढा साइकिल
लगभग भागते हुए चेहरे के साथ
दफ्तर जाने लगती है
सहसा चौरस्ते पर जली लाल बत्ती जब
एक दर्द हौले से हिरदै को हूल गया
'ऐसी क्या हड़बड़ी कि जल्दी में पत्नी को चूमना...
देखो, फिर भूल गया।

8. एक कविता: कुछ सूचनाएं

सबसे अधिक हत्याएँ
समन्वयवादियों ने की


दार्शनिकों ने
सबसे अधिक ज़ेवर खरीदा


भीड़ ने कल बहुत पीटा
उस आदमी को
जिस का मुख ईसा से मिलता था


वह कोई और महीना था
जब प्रत्येक टहनी पर फूल खिलता था
किंतु इस बार तो
मौसम बिना बरसे ही चला गया
न कहीं घटा घिरी
न बूँद गिरी
फिर भी लोगों में टी.बी. के कीटाणु
कई प्रतिशत बढ़ गए


कई बौखलाए हुए मेंढक
कुएँ की काई लगी दीवाल पर
चढ़ गए
और सूरज को धिक्कारने लगे
— व्यर्थ ही प्रकाश की बड़ाई में बकता है
सूरज कितना मजबूर है
कि हर चीज़ पर एक सा चमकता है


हवा बुदबुदाती है
बात कई पर्तों से आती है —
एक बहुत बारीक पीला कीड़ा
आकाश छू रहा था
और युवक मीठे जुलाब की गोलियाँ खा कर
शौचालयों के सामने
पँक्तिबद्ध खड़े हैं


आँखों में ज्योति के बच्चे मर गए हैं
लोग खोई हुई आवाज़ों में
एक दूसरे की सेहत पूछते हैं
और बेहद डर गए हैं

सब के सब
रोशनी की आँच से
कुछ ऐसे बचते हैं
कि सूरज को पानी से
रचते हैं


बुद्ध की आँख से खून चू रहा था
नगर के मुख्य चौरस्ते पर
शोकप्रस्ताव पारित हुए
हिजड़ो ने भाषण दिए
लिंग-बोध पर
वेश्याओं ने कविताएँ पढ़ीं
आत्म-शोध पर
प्रेम में असफल छात्राएँ
अध्यापिकाएँ बन गई हैं
और रिटायर्ड बूढ़े
सर्वोदयी —
आदमी की सबसे अच्छी नस्ल
युद्धों में नष्ट हो गई
देश का सबसे अच्छा स्वास्थ्य
विद्यालयों में
संक्रामक रोगों से ग्रस्त है

(मैंने राष्ट्र के कर्णधारों को
सड़को पर
किश्तियों की खोज में
भटकते हुए देखा है)

संघर्ष की मुद्रा में घायल पुरुषार्थ
भीतर ही भीतर
एक निःशब्द विस्फोट से त्रस्त है


पिकनिक से लौटी हुई लड़कियाँ
प्रेम-गीतों से गरारे करती हैं
सबसे अच्छे मस्तिष्क
आरामकुर्सी पर
चित्त पड़े हैं ।

9. रोटी और संसद

एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।

10. खेवली

वहाँ न जंगल है न जनतंत्र
भाषा और गूँगेपन के बीच कोई
दूरी नहीं है।
एक ठंडी और गाँठदार अंगुली माथा टटोलती है।
सोच में डूबे हुए चेहरों और
वहां दरकी हुई ज़मीन में
कोई फ़र्क नहीं हैं।

वहाँ कोई सपना नहीं है। न भेड़िये का डर।
बच्चों को सुलाकर औरतें खेत पर चली गई हैं।
खाये जाने लायक कुछ भी शेष नहीं है।
वहाँ सब कुछ सदाचार की तरह सपाट
और ईमानदारी की तरह असफल है।

हाय! इसके बाद
करम जले भाइयों के लिए जीने का कौन-सा उपाय
शेष रह जाता है, यदि भूख पहले प्रदर्शन हो और बाद में
दर्शन बन जाय।
और अब तो ऐसा वक्त आ गया है कि सच को भी सबूत के बिना
बचा पाना मुश्किल है।

11. लोहे का स्वाद (अंतिम कविता)

"शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज है या
मिट्टी में गिरे हुए खून
का रंग"

लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है.

(यह धूमिल की अंतिम कविता मानी जाती है)

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