कबित्त भाई गुरदास जी
Kabit Bhai Gurdas Ji

कबित्त



दरसन देखत ही सुधि की न सुधि रही
बुधि की न बुधि रही मति मै न मति है ।
सुरति मै न सुरति अउ ध्यान मै न ध्यानु रहओ
ग्यान मै न ग्यान रहयो गति मै न गति है ।
धीरजु को धीरजु गरब को गरबु गइओ
रति मै न रति रही पति रति पति मै ।
अदभुत परमदभुत बिसमै बिसम
असचरजै असचरज अति अति मै ॥९॥



जउ लउ अनरस बस तउ लउ नही प्रेम रसु
जउ लउ अनरस आपा आपु नही देखीऐ ।
जउ लउ आन ग्यान तउ लउ नही अध्यातम ग्यान
जउ लउ नाद बाद न अनाहद बिसेखीऐ ।
जउ लउ अहम्बुधि सुधि होइ न अंतरि गति
जउ लउ न लखावै तउ लउ अलख न लेखीऐ ।
सतिरूप सतिनाम सतिगुर ग्यान ध्यान
एक ही अनेकमेक एक एक भेखीऐ ॥१२॥



प्रेमरस बसि हुइ पतंग संगम न जानै
बिरह बिछोह मीन हुइ न मरि जाने है ।
दरस ध्यान जोति मै न हुइ जोती सरूप
चरन बिमुख होइ प्रान ठहराने है ।
मिलि बिछरत गति प्रेम न बिरह जानी
मीन अउ पतंग मोह देखत लजाने है ।
मानस जनम ध्रिगु धन्नि है त्रिगद जोनि
कपट सनेह देह नरक न माने है ॥१४॥



दरसन जोति न जोती सरूप हुइ पतंग
सबद सुरति मृग जुगति न जानी है ।
चरन कमल मकरन्द न मधुप गति
बिरह ब्योग हुइ न मीन मरिजानै है ।
एक एक टेक न टरत है त्रिगद जोनि
चातुर चतर गुन होइ न हिरानै है ।
पाहन कठोर सतिगुर सुख सागर मै
सुनि मम नाम जम नरक लजानै है ॥२३॥



गुरमति सति करि सिम्बल सफल भए
गुरमति सति करि बांस मै सुगंध है ।
गुरमति सति करि कंचन भए मनूर
गुरमति सति करि परखत अंध है ।
गुरमति सति करि कालकूट अंमृत हुइ
काल मै अकाल भए असथिर कंध है ।
गुरमति सति करि जीवनमुकत भए
मायआ मै उदास बास बंध निरबंध है ॥२७॥



बरन बरन बहु बरन गोबंस जैसे
एको ही बदन दुहे दूध जग जानीऐ ।
अनिक प्रकार फल फूल कै बनासपति
एकै रूप अगनि सरब मै समानीऐ ।
चतुर बरन पान चूना अउ सुपारी काथा
आपा खोइ मिलत अनूप रूप ठानीऐ ।
लोगन मै लोगाचार गुरमुखि एकंकार
सबद सुरति उनमन उनमानीऐ ॥३९॥



बिबिधि बिरख बली फल फूल साखा
रचन चरित्र चित्र अनिक प्रकार है।
बरन बरन फल बहु बिधि स्वादरस
बरन बरन फूल बासना बिथार है।
बरन बरन मूल बरन बरन साखा
बरन बरन पत सुगन अचार है।
बिबिधि बनासपति अंतरि अगनि जैसे
सकल संसार बिखै एकै एकंकार है ॥४९॥



सकल सुगंधता मिलत अरगजा होत
केटि अरगजा मिलि बिसम सुबास कै।
सकल अनूप रूप कमल बिखै समात
हेरत हिरात कोटि कमला प्रगास कै ।
सरब निधान मिलि परम निधान भए
कोटिक निधान हुइ चकित बिलास कै ।
चरन कमल गुर महमा अगाधि बोधि
गुरसिख मधुकर अनभै अभ्यास कै ॥६६॥



चीटी कै उदर बिखै हसती समाय कैसे
अतुल पहार भार भ्रिंगीन उठावयी ।
माछर कै डंग न मरत है बसित नागु
मकरी न चीतै जीतै सरि न पूजावयी ।
तमचर उडत न पहूचै आकास बास
मूसा तउ न पैरत समुन्द्र पार पावयी ।
तैसे प्रिय प्रेम नेम अगम अगाधि बोधि
गुरमुखि सागर ज्यु बून्द हुइ समावयी ॥७५॥

१०

सरिता सरोवर सलिल मिल एक भए
एक मै अनेक होत कैसे निरवारो जी ।
पान चूना काथा सुपारी खाए सुरंग भए
बहुरि न चतुर बरन बिसथारो जी ।
पारस परति होत कनिक अनिक धात
कनिक मै अनिक न होत गोताचारो जी ।
चन्दन सुबासु कै सुबासना बनासपती
भगत जगत पति बिसम बीचारो जी ॥९३॥

११

पवन गवन जैसे गुडिया उडत रहै
पवन रहत गुडी उडि न सकत है ।
डोरी की मरोरि जैसे लटूआ फिरत रहै
ताउ हाउ मिटै गिरि परै हुइ थकत है ।
कंचन असुध ज्यु कुठारी ठहरात नही
सुध भए नेहचल छबि कै छकत है ।
दुरमति दुबिधा भ्रमत चतुर कुंट
गुरमति एक टेक मोनि न बकत है ॥९५॥

१२

जैसे माता पिता पालक अनेक सुत
अनक सुतन पै न तैसे होइ न आवयी ।
जैसे माता पिता चित चाहत है सुतन कउो
तैसे न सुतन चित चाह उपजावयी ।
जैसे माता पिता सुत सुख दुख सोगानन्द
दुख सुख मै न तैसे सुत ठहरावयी ।
जैसे मन बच क्रम सिखनु लुडावै गुर
तैसे गुर सेवा गुरसिख न हितावयी ॥१०१॥

१३

जैसे मात पिता केरी सेवा सरवन कीनी
सिख बिरलोयी गुर सेवा ठहरावयी ।
जैसे लछमन रघुपति भाय भगत मै
कोटि मधे काहू गुरभायी बनि आवयी ।
जैसे जल बरन बरन सरबंग रंग
बिरलो बिबेकी साध संगति समावयी ।
गुर सिख संधि मिले बीस ,इकईस ईस
पूरन क्रिपा कै काहू अलख लखावयी ॥१०३॥

१४

गांडा मै मिठासु तास छिलका न लीयो जाय
दारम अउ दाख बिखै बीजु गह डारीऐ ।
आंब खिरनी छहारा माझ गुठली कठोर
खरबूजा अउ कलीदा सजल बिकारीऐ ।
मधुमाखी मै मलीन समै पाय सफल हुइ
रस बस भए नही त्रिसना निवारीऐ ।
स्रीगुर सबद रस अंमृत निधान पान
गुरसिख साध संगि जनमु सवारीऐ ॥१०९॥

१५

चरन सरनि गुर एक पैडा जाय चल
सति गुर कोटि पैडा आगे होइ लेत है ।
एक बार सतिगुर मंत्र सिमरन मात्र
सिमरन ताह बारम्बार गुर हेत है ।
भावनी भगति भाय कउडी अग्रभागि राखै
ताह गुर सरब निधान दान देत है ।
सतिगुर दया निधि महमा अगाधि बोधि
नमो नमो नमो नेत नेत नेत है ॥१११॥

१६

नैहर कुआरि कन्न्या लाडिली कै मानियति
ब्याहे ससुरार जाय गुननु कै मानीऐ ।
बनज ब्युहार लगि जात है बिदेसि प्रानी
कहीए सपूत लाभ लभत कै आनीऐ ।
जैसे तउ संग्राम समै परदल मै अकेलो जाय
जीति आवै सोयी सूरो सुभटु बखानीऐ ।
मानस जनमु पाय चरनि सरनि गुर
साधसंगति मिलै गुरदुआरि पहचानीऐ ॥११८॥

१७

हरदी अउ चूना मिलि अरुन बरन जैसे
चतुर बरन कै तम्बोल रस रूप है ।
दूध मै जावनु मिलै दधि कै बखानियत
खांड घ्रित चून मिलि बिंजन अनूप है ।
कुसम सुगंध मिलि तिल सै फुलेल होत
सकल सुगंध मिलि अरगजा धूप है ।
दोइ सिख साधसंगु पंच परमेसर है
दस बीस तीस मिले अबिगति ऊप है ॥१२२॥

१८

जैसे करपूर मै उडत को सुभाउ ताते
अउर बासना न ताकै आगै ठहारवयी ।
चन्दन सुबास कै सुबासना बनासपती
ताही ते सुगंधता सकल सै समावयी ।
जैसे जल मिलत स्रबंग संग रंगु राखै
अगन जराय सब रंगनु मिटावयी ।
जैसे रवि ससि सिव सकत सुभाव गति
संजोगी ब्योगी द्रिसटातु कै दिखावयी ॥१३४॥

१९

खुले से बंधन बिखै भलो ही सीचानो जाते
जीव घात करै न बिकारु होइ आवयी ।
खुले से बंधन बिखै चकयी भली जाते
राम रेख मेटि निसि प्रिय संगु पावयी ।
खुले से बंधन बिखै भलो है सूआ प्रसिध
सुनि उपदेसु राम नाम लिव लावयी ।
मोख पदवी सै तैसे मानस जनम भलो
गुरमुखि होइ साधसंगि प्रभ ध्यावयी ॥१५४॥

२०

जैसे सूआ उडत फिरत बन बन प्रति
जैसे ई बिरख बैठे तैसो फलु चाखयी ।
परबसि होइ जैसी जैसी ऐ संगति मिलै
सुनि उपदेस तैसी भाखा लै सभाखयी ।
तैसे चित चंचल चपल जल को सुभाउ
जैसे रंग संग मिलै तैसे रंग राखयी ।
अधम असाध जैसे बारुनी बिनास काल
साधसंग गंग मिलि सुजन भिलाखयी ॥१५५॥

२१

जैसे जैसे रंग संगि मिलत सेतांबर हुइ
तैसे तैसे रंग अंग अंग लपटाय है ।
भगवत कथा अरपन कउ धारनीक
लिखत क्रितास पत्र बंध मोखदाय है ।
सीत ग्रीखमादि बरखा बरख मै
निसि दिन होइ लघु दीरघ दिखाय है ।
तैसे चित चंचल चपल पउन गउन गति
संगम सुगंध बिरगंध प्रगटाय है ॥१५६॥

२२

जैसे चकयी मुदित पेखि प्रतिबिम्ब निसि
सिंघ प्रतिबिम्ब देखि कूप मै परत है ।
जैसे काच मन्दर मै मानस अनन्दमई
सांनपेखि आपा आपु भूजि कै मरत है ।
जैसे रविसुति जम रूप अउ धरमराय
धरम अधरम कै भाउ भै करत है ।
तैसे दुरमति गुरमति कै असाध साध
आपा आपु चीनत न चीनत चरत है ॥१६०॥

२३

जैसे तउ सलिल मिलि बरन बरन बिखै
जाही जाही रंग मिलै सोयी हुइ दिखावयी ।
जैसे घ्रित जाही जाही पाक साक संग मिलै
तैसे तैसे साद रस रसना चखावयी ।
जैसे सांगी एकु हुइ अनेक भाति भेख धारै
जोयी जोयी सांग काछै सोयी तउ कहावयी ।
तैसे चित चंचल चपल संग दोखु लेप
गुरमुखि होइ एक टेक ठहरावयी ॥१६१॥

२४

सागर मथत जैसे निकसे अंमृत बिखु
परउपकार न बिकार समसरि है ।
बिखु अचवत होत रतन बिनास काल
अचए अंमृत मूए जीवत अमर है ।
जैसे तारो तारी एक लोसट सै प्रगट हुइ
बंध मोख पदवी संसार बिसथर है ।
तैसे ही असाध साध सन अउ मजीठ गति
गुरमति दुरमति टेवसै न टर है ॥१६२॥

२५

बरखा संजोग मुकताहल ओरा प्रगास
परउपकार अउ बिकारी तउ कहावयी ।
ओरा बरखत जैसे धान पास को बिनासु
मुकता अनूप रूप सभा सोभा पावयी ।
ओरा तउ बिकार धारि देखत बिलाय जाय
परउपकार मुकता ज्यु ठहरावयी ।
तैसे ही असाध साध संगति सुभाव गति
गुरमति दुरमति दुरै न दुरावयी ॥१६३॥

२६

जैसे घर लागै आगि भागि निकसत खान
प्रीतम परोसी धाय जरत बुझावयी ।
गोधन हरत जैसे करत पूकार गोप
गाउ मै गुहार लागि तुरत छडावयी ।
बूडत अथाह जैसे प्रबल प्रवाह बिखै
पेखत पैरऊआ वार पार लै लगावयी ।
तैसे अंत काल जम जाल काल ब्याल ग्रसे
गुरसिख साध संत संकट मिटावही ॥१६७॥

२७

प्रेम रंग समसरि पुजिसि न कोऊ रंग
प्रेम रंग पुजिसि न अनरस समानि कै ।
प्रेम गंध पुजिसि न आन कोऊऐ सुगंध
प्रेम प्रभुता पुजसि प्रभुता न आन कै ।
प्रेम तोलु तुलि न पुजसि नही बोल कतुलाधार
मोल प्रेम पुजसि न सरब निधान कै ।
एक बोल प्रेम कै पुजसि नही बोल कोऊऐ
ग्यान उनमान अस थकत कोटानि कै ॥१७०॥

२८

तनक ही जावन कै दूध दध होत जैसे
तनक ही कांजी परै दूध फट जात है ।
तनक ही बीज बोइ बिरख बिथार होइ
तनक ही चिनग परे भसम हुइ समात है ।
तनक ही खाय बिखु होत है बिनास काल
तनक ही अंमृत कै अमरु होइ गात है ।
संगति असाध साध गनिका बिवाहता ज्यु
तनक मै उपकार अउबिकार घात है ॥१७४॥

२९

घोसला मै अंडा तजि उडत अकासचारी
संध्या समै अंडा होति चेति फिरि आवयी ।
तिरिया त्याग सुत जात बन खंड बिखै
सुत की सुरति ग्रेह आइ सुक पावयी ।
जैसे जल कुंड करि छाडियत जलचरी
जब चाहे तब गह लेत मनि भावयी ।
तैसे चित चंचल भ्रमत है चतुरकुंट
सतिगुर बोहथ बेहंग ठहरावयी ॥१८४॥

३०

दीपक पतंग संग प्रीति इकअंगी होइ
चन्द्रमा चकोर घन चात्रिक नु होत है ।
चकयी अउ सूर जलि मीन ज्यु कमल अलि
कासट अगन मृग नाद को उदोत है ।
पित सुत हित अरु भामनी भतार गति
मायआ अउ संसार दुआर मिटत न छोति है ।
गुरसिख संगति मिलाप को प्रताप साचो
लोक परलोक सुखदायी ओतिपोति है ॥१८७॥

३१

उख मै प्यूख रस रसना रहत होइ
चन्दन सुबास तास नासका न होत है ।
नाद बाद सुरति बेहून बिसमाद गति
बिबिध बरन बिनु द्रिसटि सो जोति है ।
पारस परस न सपरस उसन सीत
कर चरन हीन धर अउखदी उदोत है ।
जाय पंच दोख निरदोख मोख पावै कैसे
गुरमुखि सहज संतोख हुइ अछोत है ॥१९८॥

३२

सुपन चरित्र चित्र बानक बने बचित्र
पावन पवित्र मित्र आज मेरै आए है ।
परम दयाल लाल लोचन बिसाल मुख
बचन रसाल मधु मधुर पियाए है ।
सोभित सिजासन बिलासन दै अंकमाल
प्रेमरस बिसम हुइ सहज समाए है ।
चात्रिक सबद सुनि अखिया उघरि गई
भयी जल मीन गति बिरह जगाए है ॥२०५॥

३३

बिरह ब्योग रोगु दुखति हुइ बिरहनी
कहत सन्देस पथिकन पै उसास ते ।
देखह त्रिगद जोनि प्रेम कै परेवा
पर कर नारि देखि टटत अकास ते ।
तुम तो चतुरदस बिद्या के निधान प्रिअ
त्रिय न छडावहु बिरह रिप रिप त्रास ते ।
चरन बिमुख दुख तारिका चमतकार
हेरत हिराह रवि दरस प्रगास ते ॥२०७॥

३४

जननी सुतह बिखु देत हेतु कउन राखै
घरु मुसै पाहरूआ कहो कैसे राखीऐ ।
करिया जउ बोरै नाव कहो कैसे पावै पारु
अगूआ ऊबाट पारै कापै दीनु भाखीऐ ।
खैते जउ खाय बारि कउन धाय राखनहारु
चक्रवै करै अन्याउ पूछै कउनु साखीऐ ।
रोगीऐ जउ बैदु मारै मित्र जउ कमावै द्रोहु
गुर न मुकतु का पै अभलाखीऐ ॥२२१॥

३५

नायकु है एकु अरु नायका असट ताकै
एक एक नायका के पांच पांच पूत है ।
एक एक पूत ग्रेह चारि चारि नाती
एकै एकै नाती दोइ पतनी प्रसूत है ।
ताहू ते अनेक पुनि एकै एकै पांच पांच
ताते चारि चारि सुति संतति संभूत है ।
ताते आठ आठ सुता सुता सुता आठ सुत
ऐसो परवारु कैसे होइ एक सूत है ॥२२८॥

३६

एक मनु आठ खंड खंड पांच टूक
टूक टूक चारि फार फार दोइ फार है ।
ताहू ते पईसे अउ पईसा एक पांच टांक
टांक टांक मासे चारि अनिक प्रकार है ।
मासा एक आठ रती रती आठ चावर की
हाट हाट कनु कनु तोल तुलाधार है ।
पुर पुर पूरि रहे सकल संसार बिखै
बसि आवै कैसे जाको एतो बिसथार है ॥२२९॥

३७

खगपति प्रबल पराक्रमी परमहंस
चातुर चतुर मुख चंचल चपल है ।
भुजबली असट भुजा ताके चालीस कर
एक सउ अर साठि पाउ चाल चला चल है ।
जाग्रत सुपन अहनिसि दहदिस धावै
त्रिभवन प्रति होइ आवै एक पल है ।
पिंजरी मै अछत उडत पहुचै न कोऊ
पुर पुर पूर गिर तर थल जल है ॥२३०॥

३८

मधुर बचन समसरि न पुजस मध
करक सबदि सरि बिख न बिखम है ।
मधुर बचन सीतलता मिसटान पान
करक सबद सतपत कट कम है ।
मधुर बचन कै त्रिपति अउ संतोख सांति
करक सबद असंतोख दोख स्रम है ।
मधुर बचन लगि अगम सुगम होइ
करक सबद लगि सुगम अगम है ॥२५६॥

३९

जैसे जल जलज अउ जल दुध सील मीन
चकयी कमल दिनकरि प्रति प्रीत है ।
दीपक पतंग अलि कमल चकोर ससि
मृग नाद बाद घन चात्रिक सुचीत है ।
नारि अउ भतारु सुत मात जल त्रिखावंत
खुध्यारथी भोजन दारिद्र धन मीत है ।
मायआ मोह द्रोह दुखदायी न सहायी होत
गुर सिख संधि मिले त्रिगुन अतीत है ॥२९२॥

४०

जैसे निरमल दरपन मै न चित्र कछू
सकल चरित्र चित्र देखत दिखावयी ।
जैसे निरमल जल बरन अतीत रीत
सकल बरन मिलि बरन बनावयी ।
जैसे तउ बसुंधरा सुआद बासना रहत
अउखधी अनेक रस गंध उपजावयी ।
तैसे गुरदेव सेव अलख अभेव गति॥
जैसे जैसो भाउ तैसी कामना पुजावयी ॥३३०॥

४१

मानसर पर जउ बैठाईऐ ले जाय बग
मुकता अमोल तजि मीठ बीनि खात है ।
असथन पान करबे कउ जउ लगाईऐ जोक
पियतन पै लै लोहू अचए अघात है ।
परमसुगंध परि माखी न रहत राखी
महादुरगंध परि बेगि चलि जात है ।
जैसे गज मजन के डारत है छारु सिरि
संतन कै दोखी संत संगु न सुहात है ॥३३२॥

४२

बून्द बून्द बरख पनारे बह चलै जलु
बहुर्यो उमगि बहै बीथी बीथी आइकै ।
ताते नोरा नोरा भरि चलत चतरकुंट
सरिता सरिता प्रति मिलत है जायकै ।
सरिता सकल जल प्रबल प्रवाह चलि
संगम समुन्द्र होत समत समायकै ।
जामै जैसीऐ समायी तैसीऐ महमा बडाई
ओछौ अउ गंभीर धीर बूझीऐ बुलायकै ॥३७२॥

४३

जैसे हीरा हाथ मै तनक सो दिखायी देत
मोल कीए दमकन भरत भंडार जी ।
जैसे बर बाधे हुंडी लागत न भार कछु
आगै जाय पाईअत लछमी अपार जी ।
जैसे बटि बीज अति सूखम सरूप होत
बोए सै बिबिधि करै बिरखा बिसथार जी ।
तैसे गुर बचन सचन गुरसिखन मै
जानीऐ महातम गए ही हरिदुआर जी ॥३७३॥

४४

जैसे सरि सरिता सकल मै समुन्द्र बडो
मेर मै सुमेर बडो जगतु बखान है ।
तरवर बिखै जैसे चन्दन बिरखु बडो
धात मै कनक अति उतम कै मान है ।
पंछियन मै हंस मृग राजन मै सारदूल
रागन मै सिरीरागु पारस पखान है ।
ग्यांनन मै ग्यानु अरु ध्यानन मै ध्यान गुर
सकल धरम मै ग्रेहसतु प्रधान है ॥३७६॥

४५

ब्याह समै जैसे दुहूं ओर गाईअति गीत
एकै हुइ लभति एकै हानि कानि जानीऐ ।
दुहूं दल बिखै जैसे बाजत नीसान तान
काहू कउ जै काहू कउ पराजै पहचानीऐ ।
जैसे दुहूं कूलि सरिता मै भरि नाउ चलै
कोऊ माझिधारि कोऊ पारि परवानीऐ ।
धरम अधरम करम कै असाध साध
ऊच नीच पदवी प्रसिध उनमानीऐ ॥३८२॥

४६

सोयी लोहा बिसु बिखै बिबिधि बंधन रूप
सोयी तउ कंचन जोति पारस प्रसंग है ।
सोयी तउ सिंगार अति सोभत पतिब्रिता कउ
सोयी अभरनु गनिका रचत अंग है ।
सोयी स्वांतिबून्द मिल सागर मुकताफल
सोयी स्वांतबून्द बिख भेटत भुअंग है ।
तैसे मायआ किरत बिरत है बिकार जग
परउपकार गुरसिखन स्रबंग है ॥३८५॥

४७

दैत सुत भगत प्रगटि प्रहलाद भए
देव सुत जग मै सनीचर बखानीऐ ।
मधुपुर बासी कंस अधम असुर भए
लंका बासी सेवक भभीखन पछानीऐ ।
सागर गंभीर बिखै बिख्या प्रगास भई
अह मसतकि मन उदै उनमानीऐ ।
बरन सथान लघु दीरघ जतन परै
अकथ कथा बिनोद बिसम न जानीऐ ॥४०७॥

४८

जैसे एक चीटी पाछै कोट चीटी चली जाति
इक टग पग डग मगि सावधान है ।
जैसे कूंज पाति भलीभांति सांति सहज मै
उडत आकासचारी आगै अगवान है ।
जैसे मृगमाल चाल चलत टलत नाह
जत्रतत्र अग्रभागी रमत तत ध्यान है ।
कीटी खग मृग सनमुख पाछै लागे जाह
प्रानी गुर पंथ छाड चलत अग्यान है ॥४१३॥

४९

सलिल निवास जैसे मीन की न घटै रुच
दीपक प्रगास घटै पी्रति न पतंग की ।
कुसम सुबास जैसे त्रिपति न मधुप कउ
उडत अकास आस घटै न बेहंग की ।
घटा घनघोर मोर चात्रक रिदै उलास
नाद बाद सुनि रति घटै न कुरंग की ।
तैसे प्रिय प्रेमरस रसक रसाल संत
घटत न त्रिसना प्रबल अंग अंग की ॥४२४॥

५०

खांड खांड कहै जेहबा न स्वादु मीठो आवै
अगनि अगनि कहै सीत न बिनास है ।
बैद बैद कहै रोग मिटत न काहू को
दरब दरब कहै कोऊ दरबह न बिलास है ।
चन्दन चन्दन कहत प्रगटै न सुबासु बासु
चन्द्र चन्द्र कहै उजियारो न प्रगास है ।
तैसे ग्यान गोसटि कहत न रहत पावै
करनी प्रधान भान उदति अकास है ॥४३७॥

५१

जैसे आन बिरख सफल होत समै पाय
स्रबदा फलंते सदा फल सु स्वादि है ।
जैसे कूप जल निकसत है जतन कीए
गंगा जल मुकति प्रवाह प्रसादि है ।
मृतका अगनि तूल तेल मेल दीप दिपै
जगमग जोति ससियर बिसमाद है ।
तैसे आन देव सेव कीए फलु देत जेत
सतिगुर दरस न सासन जमाद है ॥४५६॥

५२

सोयी पारो खाति गाति बिबिधि बिकार होत
सोयी पारो खात गात होइ उपचार है ।
सोयी पारो परसत कंचनह सोख लेत
सोयी पारो परस तांबो कनिक धारि है ।
सोयी पारो अगहु न हाथन कै गहयो जाय
सोयी पारो गुटका हुइ सिध नमसकार है ।
मानस जनमु पाय जैसीऐ संगति मिलै
तैसी पावै पदवी प्रताप अधिकार है ॥४६९॥

५३

कूआ को मेढकु निधि जानै कहा सागर की
स्वांतबून्द महमा न संख जानयी ।
दिनकरि जोति को उदोत कहा जानै उलू
सेंबल सै कहा खाय सूहा हित ठानयी ।
बायस न जानत मराल माल संगति
मरकट मानकु हीरा न पहचानयी ।
आन देव सेवक न जानै गुरदेव सेव
गूंगे बहरे न कह सुनि मनु मानयी ॥४७०॥

५४

जैसे घरि लागै आगि जागि कूआ खोदीयो चाहै
कारज न सिधि होइ रोइ पछुताईऐ ।
जैसे तउ संग्राम समै सीख्यो चाहै बीर बिद्या
अनिथा उदम जैत पदवी न पाईऐ ।
जैसे निसि सोवत संघाती चलि जाति पाछे
भोर भए भार बाध चले कत जाईऐ ।
तैसे मायआ धंध अंध अविध बेहाय जाय
अंतकाल कैसे हरिनाम लिव लाईऐ ॥४९५॥

५५

जैसे बिनु पवनु कवन गुन चन्दन सै
बिनु मल्यागर पवन कत बासि है ।
जैसे बिनु बैद अवखद गुन गोपि होत
अवखद बिनु बैद रोगह न ग्रास है ।
जैसे बिनु बोहथन पारि परै खेवट सै
खेवट बेहून्न कत बोहथ बिस्वासु है ।
तैसे गुर नामु बिनु गंम न परमपदु
बिनु गुर नाम नेहकाम न प्रगास है ॥५१६॥

५६

जैसे मेघ बरखत हरखति है क्रिसानि
बिलख बदन लोधा लोन गरि जात है ।
जैसे परफुलत हुइ सकल बनासपती
सुकत जवासो आक मूल मुरझात है ।
जैसे खेत सरवर पूरन किरख जल
ऊच थल कालर न जल फलनात है ।
गुर उपदेस परवेस गुरसिख रिदै
साकत सकति मति सुनि सकुचात है ॥५१८॥

५७

जैसे पेखै सयाम घटा गगन घमंड घोर
मोर औ पपीहा सुभ सबद सुनावही ।
जैसे तौ बसंत समै मौलत अनेक आंब
कोकला मधुर धुनि बचन सुनावही ।
जैसे परफुलत कमल सरवरु विखै
मधुप गुंजारत अनन्द उपजावही ।
तैसे पेख स्रोता सावधानह गायन गावै
प्रगटै पूरन प्रेम सहजि समावही ॥५६७॥

५८

पाय लाग लाग दूती बेनती करत हती
मान मती होइ काहै मुख न लगावती ।
सजनी सकल कह मधुर बचन नित
सीख देति हुती प्रति उतर नसावती ।
आपन मनाय प्र्या टेरत है प्र्या प्र्या
सुन सुन मोन गह नायक कहावती ।
बिरह बिछोह लग पूछत न बात कोऊ
ब्रिथा न सुनत ठाढी द्वारि बिललावती ॥५७५॥

५९

जैसे तिल पीड़ तेल काढियत कसटु कै
तांते होइ दीपक जराए उजियारो जी ।
जैसे रोम रोम करि काटीऐ अजा को तन
तांकी तात बाजै राग रागनी सो पयारो जी ।
जैसे तउ उटाय दरपन कीजै लोस सेती
ताते कर गह मुख देखत संसारो जी ।
तैसे दूख भूख सुध साधना कै साध भए
ताही ते जगत को करत निसतारो जी ॥५८०॥

६०

पेखत पेखत जैसे रतन पारुखु होत
सुनत सुनत जैसे पंडित प्रबीन है ।
सूंघत सूंघत सौधा जैसे तउ सुबासी होत
गावत गावत जैसे गायन गुनीन है ।
लिखत लिखत लेख जैसे तउ लेखक होत
चाखत चाखत जैसे भोगी रसु भीन है ।
चलत चलत जैसे पहुचै ठिकानै जाय
खोजत खोजत गुरसबदु लिवलीन है ॥५८८॥

६१

जैसे पोसती सुनत कहत पोसत बुरो ।
तांके बसि भयो छाडयो चाहै पै न छूटयी ।
जैसे जूआ खेल बित हार बिलखै जुआरी ।
तऊ पर जुआरन की संगत न टूटयी ।
जैसे चोर चोरी जात ह्रिदै सहकत, पुन
तजत न चोरी जौ लौ सीस ही न फूटयी ।
तैसे सभ कहत सुनत माया दुखदाई
काहू पै न जीती परै माया जग लूटयी ॥५९१॥

६२

जैसे तौ समुन्द बिखै बोहथै बहाय दीजै ।
कीजै न भरोसो जौ लौ पहुचै न पार कौ ।
जैसे तौ क्रिसान खेत हेतु करि जोतै बोवै ।
मानत कुसल आन पैठे ग्रेह द्वार कौ ।
जैसे पिर संगम कै होत गर हार नारि ।
करत है प्रीत पेखि सुत के लिलार कौ ।
तैसे उसतति निन्दा करीऐ न काहू केरी
जानीऐ धौ कैसो दिन आवै अंतकार कौ ॥५९५॥

६३

जैसे चूनो खांड स्वेत एकसे दिखायी देत ।
पाईऐ तौ स्वाद रस रसना कै चाखीऐ ।
जैसे पीत बरन ही हेम अर पीतर ह्वै
जानीऐ महत पारखद अग्र राखीऐ ।
जैसे कऊआ कोकिला है दोनो खग सयाम तन
बूझीऐ असुभ सुभ सबद सु भाखीऐ ।
तैसे ही असाध साध चेहन कै समान होत ।
करनी करतूत लग लछन कै लाखीऐ ॥५९६॥

६४

केहरि अहार मास, सुरही अहार घास
मधुप कमल बास लेत सुख मान ही ।
मीनह निवास नीर, बालक अधार खीर
सरपह सखा समीर जीवन कै जान ही ।
चन्दह चाहै चकोर घनहर घटा मोर
चात्रिक बून्दनस्वांत धरत ध्यान ही ।
पंडित बेद बीचारि, लोकन मै लोकाचार ।
माया मोहो मै संसार, गयान गुर गयान ही ॥५९९॥

६५

जैसे धोभी साबन लगाय पीटै पाथर सै
निरमल करत है बसन मलीन कउ ।
जैसे त सुनार बारम्बार गार गार ढार ।
करत असुध सुध कंचन कुलीन कउ ।
जैसे तउ पवन झकझोरत बिरख मिल
मलय गंध करत है चन्दन प्रबीन कउ ।
तैसे गुर सिखन दिखायकै ब्रिथा बिबेक
माया मल काटिकरै निज पद चीन कउ ॥६१४॥

६६

चीकने कलस पर जैसे ना टिकत बून्द
कालर मैं परे नाज निपजै न खेत जी ।
जैसे धरि पर तरु सेबल अफल अरु
बिख्या बिरख फले जगु दुख देत जी ।
चन्दन सुबास बांस बास बास बासीऐ ना
पवन गवन मल मूतता समेत जी ।
गुर उपदेस परवेस न मो रिदै भिदे
जैसे मानो स्वांतिबून्द अह मुख लेत जी ॥६३८॥

६७

जाकै एक फन पै धरन है सो धरनीधर
तांह गिरधर कहै कउन बड्यायी है ।
जाको एक बावरो कहावत है बिस्वनाथ
ताह ब्रिजनाथ कहे कौन अधिकायी है ।
सगल अकार ओंकार के बिथारे जिन
ताह नन्द नन्द कहै कउन ठकुरायी है ।
उसतति जानि, निन्दा करत अगयान अंध
ऐसे ही अराधन ते मोन सुखदायी है ॥६७१॥

६८

राग जात रागी जानै, बैरागै बैरागी जानै
त्यागह त्यागी जानै, दीन दया दान है ।
जोग जुगत जोगी जानै, भोगरस भोगी जानै
रोग दोख रोगी जानै प्रगट बखान है ।
फूल राख माली जानै, पानह तम्बोली जानै
सकल सुगंधिगति गांधी जानउ जान है ।
रतनै जउहारी जानै, बेहारै ब्युहारी जानै
आतम प्रीख्या कोऊ बिबेकी पहचान है ॥६७५॥