जलते हुए वन का वसन्त : दुष्यन्त कुमार (हिन्दी कविता)

Jalte Hue Van Ka Vasant : Dushyant Kumar

1. योग-संयोग

मुझे-
इतिहास ने धकेलकर
मंच पर खड़ा कर दिया है,
मेरा कोई इरादा नहीं था।

कुछ भी नहीं था मेरे पास,
मेरे हाथ में न कोई हथियार था,
न देह पर कवच,
बचने की कोई भी सूरत नहीं थी।
एक मामूली आदमी की तरह
चक्रव्यूह में फंसकर--
मैंने प्रहार नहीं किया,
सिर्फ़ चोटें सहीं,
लेकिन हँसकर !
अब मेरे कोमल व्यक्तित्व को
प्रहारों ने कड़ा कर दिया है।

एक बौने-से बुत की तरह
मैंने दुनिया को देखा
तो मन ललचाया !
क्योंकि मैं अकेला था,
लोग-बाग बहुत फ़ासले पर खड़े थे,
निकट लाया,
मुझे क्या पता था--
आज दुनिया कहाँ है !
मैंने तो यों ही उत्सुकतावश
मौन को कुरेदा था,
लोगों ने तालियाँ बजाकर
एक छोटी-सी घटना को बड़ा कर दिया है ।

मैं खुद चकित हूँ,
मुझे कब गाना आता था ?
कविता का प्रचलित मुहावरा अपरिचित था,
मैं सूनी गलियों में
बच्चों के लिए एक झुनझुना बजाता था;
किसी ने पसंद किया स्वर,
किसी ने लगन को सराहा,
मुझसे नहीं पूछा,
मैंने नहीं चाहा,
इतिहास ने मुझे धकेलकर,
मंच पर खड़ा कर दिया है,
मेरा कोई इरादा नहीं था।

2. यात्रानुभूति

कितना कठिन हो गया है
किसी एक गाँव से गुज़रकर आगे जाना !

ओसारों में बैठे हुए बूढ़े बर्राते हैं,
लोटे में जल भरकर महरियाँ नहीं आतीं
स्वागत नहीं करते बच्चे-राहगीरों पर
कुत्ते लहकाते हैं।

इस ठहरी और सड़ी हुई गरमी में
कहीं भी पड़ाव नहीं मिलते।
अंधेरे में दिखते नहीं दूर तक चिराग़ !
थके हुए पाँवों के ज़ख्म
जलती हुई रेत में सुस्ताते हैं।

यक-ब-यक-तेज़ी से बदल गए हैं
गाँवों के पनघट और सुन्दरियों की तरह
-सारे रिवाज़
यात्रा में आज
अर्थ भले हो, लेकिन मज़ा नहीं।
लोग-बाग फिर भी
एक गाँव से दूसरे गाँव को जाते हैं।

3. उपक्रम

सृजन नहीं
भोग की क्षणिक अकांक्षाओं ने
उदासीन ममता के दर्द से कलपते हुए
मेरा अस्तित्व रचा : निरुपाय !
बचपन ने चलना सिखाने के लिए
मुझे पृथ्वी पर दूर तक घसीटा ।

मेरा जन्म
एक नैसर्गिक विवशता थी :
दुर्घटना :
आत्म-हत्यारी स्थितियों का समवाय !
मुझे अनुभव के नाम पर परिस्थिति ने
कोड़ों से पीटा।

मेरे भीतर और बाहर
खून के निशान छोड़ती हुई आँधियाँ गुज़रीं,
और मैं
काँधे पर सलीब की तरह
ज़िंदगी रखे...आगे बढा।

मैंने देखा-
मेरे आगे ओर पीछे किसी ने
दिशा-दंशी सर्प छोड़ दिए थे !
मैंने हर चौराहे पर रुककर
आवाज़ें दीं
खोजा
उन लोगों को
जो मुझको ईसा बनाने का वादा किए थे !

इतिहास मेरे साथ न्याय करे !
मैंने एक ऐसी तलाश को जीवन-दर्शन बनाया
जो मुझको ठेलते जाने में
सुख पाती है,
एक ऐसी सड़क को मैंने यात्रा-पथ चुना
जो मिथ्याग्रहों से निकलती हुई आती है।
एक नीम का स्वाद मेरी भाषा बना
जो सिर्फ़ तल्ख़ी का नाम है।
एक ऐसा अपवाद मेरा अस्तित्व
जो मेरे नियन्त्रण से परे
एक जंगल की शाम है।

सृष्टि के अनाथालय में मैंने
जीने के बहाने तलाशने में
मित्रों को खो दिया !
भूखे बालकों-सी बिलखती मर्यादाएँ देखीं,
बाज़ारू लड़कियों-सी सफलताएँ सीने से
चिपटा लीं,
मुझमें दहकती रहीं एक साथ कई चिताएँ,
धरती ओर आकाश के बीच
कई-कई अग्निर्यो में
गीले ईंधन की तरह मैं सुलगता रहा,
निरर्थक उपायों में अर्थवत्ता निहारता हुआ;
कंठ की समूची सामर्थ्य
और
थोड़े से शब्दों की पूँजी के बल पर
अपनी निरीहता सहलाता हुआ !
जीने से ज़्यादा तकलीफ़देह
क्या होगी मृत्यु !

इतिहास मेरे साथ न्याय करे !
मैंने हर फ़ैसला उस पर छोड़ दिया है।
मैंने स्वार्थों की वेदी पर
नर-बलियाँ दी हैं
और तीर्थों में दान भी किए हैं,
मुझसे हुई हैं भ्रुण-हत्याएँ
मैंने मूर्तियों पर जल भी चढ़ाए हैं,
परिक्रमाएँ भी की हैं,
मेरी पीड़ा यह है--
मैंने पापों को देखा है,
भोगा है,
हुआ है,
किया नहीं,
मैं हूँ अभिशप्त
उस वध-स्थल की तरह
जिसमें रक्तपात होना था : हुआ,

लेकिन
मैं कर्त्ता नहीं था कहीं !
जीवन भर उपक्रम रहा हूँ एक,
अर्थ नहीं ।
इतिहास मेरे साथ न्याय करे ।

4. एक सफ़र पर

और
मैं भी
कहीं पहुंच पाने की जल्दी में हूँ-
एक यात्री के रूप में,
मेरे भी
तलुओं की खाल
और सिर की सहनशीलता
जवाब दे चुकी है
इस प्रतीक्षा में, धूप में,
इसलिए मैं भी
ठेलपेल करके
एक बदहवास भीड़ का अंग बन जाता हूँ,
भीतर पहुँचकर
एक डिब्बे में बंद हो पाने के लिए
पूरी शक्ति आज़माता हूँ ।

...मैं भी
शीश को झुकाकर और
पेट को मोड़कर,
तोड़ने की हद तक
दोनों घुटने सिकोड़कर
अपने लवाज़मे के साथ
छोटी-सी खिड़की से
अंदर घुस पड़ता हूँ,
ज़रा-सी जगह के लिए
एड़ियाँ रगड़ता हूँ ।

बहुत बुरी हालत है, डिब्बे में
बैठे हुओं को
हर खड़ा हुआ व्यक्ति शत्रु,
खड़े हुओं को बैठा हुआ बुरा लगता है
पीठ टेक लेने पर
मेरे भी मन में
ठीक यही भाव जगता है ।
मैं भी धक्कम-धू में
हर आने वाले को
क्रोध से निहारता हूँ,
सहसा एक और अजनबी के बढ़ जाने पर
उठकर ललकारता हूँ।

किन्तु वह नवागंतुक
सिर्फ़ मुस्कराता है।
इनाम और लाटरियों का
झोला उठाए हुए
उसमें से टार्च और ताले निकालकर
दिखाता है ।
वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं
वह सबको भाषण पिलाता है,
बोलियाँ लगाता-लगवाता है,
पलभर में जनता पर जादू कर जाता है।
और मैं उल्लू की तरह
स्वेच्छया कटती जेबों को देखकर
खीसें निपोरता हुआ बैठ जाता हूँ ।
जैसे मेरा विवेक ठगा गया होता हैं।
वह जैसे कहीं एक ताला
मेरे भीतर भी लगा गया होता है।

थोडी देर बाद
तालों ओर टार्चों को
देखते-परखते हैं लोग
मुँह गालियों से भरकर,
जेब और सीनों पर हाथ धरकर ।
आखिर बक-झककर थक जाते हैं

फिर..
यात्रा में वक़्त काटने के लिए
बाज़ारू-साहित्य उठाते हैं,
या एक दुसरे की ओर ताकते हैं,
ज़नाने डिब्बों में झाँकते हैं।
लोग : चिपचिपाए, हुए,
पसीनों नहाए हुए,
डिब्बे में बंद लोग !
बडी उमस है-आह !
सुख से सो पाते हैं, इने-गिने चंद लोग !
पूरे का पूरा वातावरण है उदास ।
अजीब दर्द व्याप्त है :
बेपनाह दर्द
बेहिसाब आँसू
गर्मी ओर प्यास !

एक नितांत अपरिचित रास्ते से
गुज़रते हुए पा-पी पा-पी
पहियों की खड़खड़ की कर्कश आवाज़ें,
रेल की तेज़ रफ़्तार,
धक-धक धुक-धुक
चारों ओर :
जिसमें एक दूसरे की भावनाएँ क्या
बात तक न सुनी ओर समझी जा सके :
ऐसा शोर :
आपाधापी
और एक दुसरे के प्रति गहरा संशय
और उसमें
बार-बार लहराती
लंबी ओर तेज़-सी सीटी
जैसे कोई इंजन के सामने आ जाए... !
(भारतीय रेल में
हर क्षण दुर्घटना का भय)

हर क्षण ये भय...
कि अभी ऊपर से कुछ गिर पड़ेगा !
पटरी से ट्रेन उतर जाएगी !
हर क्षण ये सोच
कि अभी सामने वाला
कुछ उठाकर ले भागेगा,
मेरा स्थान कोई और छीन लेगा।
...और सुरक्षा का एकमात्र साधन
अपने स्थान से चिपक जाना,
कसकर चिपक जाना ।
बाहर के दृश्य नहीं,
ऊपर की बर्थ पर रखे सामान पर
नज़र रखना,
खुली हुई क़ीमती चीज़ों को
दिखलाकर ढंकना।
बहन और बच्चों को
फुसफुसाहट भरे उपदेशों से भर देना,
अपने प्रति
इतना सजग ओर जागरूक कर देना
कि वे भविष्य में अकेले सफ़र कर सकें।
इसी तरह अपने स्थान पर चिपके
शंकित और चौकन्ने होकर
हर अजनबी से डर सकें ।

यात्रा में लोग-बाग
सचमुच डराते हैं ।
आँखों में एक विचित्र मुलायम-सी
हिंस्र क्रूरता का भाव लिये--
एक दूसरे का गंतव्य पूछते हुए
दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं,
सहमकर मुस्कराते हैं,
सोचते हैं...
किसी पास वाले स्टेशन पर
ये सब लोग क्यों नहीं उतर जाते हैं ?

5. परवर्ती-प्रभाव

स्थान : एक युद्ध हुआ चौराहा।
दृश्य : वहाँ फूटे हुए ढोलों की चुप्पी :
लोगों की चिल्लाहट, मौन,
रक्तस्राव !
लड़ना नहीं
गर्दन झुकाए हुए पास से गुज़र जाना-;
परस्पर बधिर-भाव,
गहन शान्ति !

ध्वनि : उस अंधेरे में
वाण-विद्ध पंछी की
कातर पुकारती-सी कोई आवाज़,
बुझे लैम्पपोस्ट की चिमनियों के
पास फड़फड़ाती, पंख मारती-सी कोई आवाज़,
अनसुनी, अनुत्तरित, उपेक्षित किन्तु
दूर तक गुहारती-सी कोई आवाज़ !

अर्थ : मुझे लगता है मुझमें से आती है,
लगता है मुझसे टकराती है !
आह !
छोटी-सी उम्र में देखे हुए
किसी नाटक की छोटी-सी स्थिति वह
अब तक मुझमें
मौक़े-बेमौक़े जी जाती है ।

6. शगुन-शंका

अब इस नुमाइश की छवियाँ
आँखों में गड़ती हैं,
क्या यह बुरा शगुन है ?

पारसाल घर में
मकड़ियाँ बहुत थीं,
लेकिन जाले परेशान नहीं करते थे ।
बच्चे उद्धत तो थे-
दिन भर हल्ला मचाते थे ।
फिर भी वे कहा मान लेते थे, डरते थे।
अब तो मेरी कमीजें
उन्हें छोटी पड़ती हैं,
क्या यह बुरा शगुन है ?

पारसाल बारिश में
छत बहुत रिसी थी,
लेकिन गिरने का ख़तरा नहीं था।
जैसे सम-सामयिक विचार
मुझे अक्सर अखरते थे
लेकिन मैं उनसे इस तरह
कभी चौंका या डरा नहीं था,
अब मेरे आंगन में रोज़
बिल्लियाँ लड़ती हैं ।
क्या यह बुरा शगुन है ?

7. सुबह : समाचार-पत्र के समय

सुनह-सुबह चाय पर
जबकि हवा होती है-खुनक,
लोग,
समाचार-पत्रों के पन्नों में,
सरसरी नज़र से
युद्ध, विद्रोह, सत्ता-परिवर्तन, अन्न संकट
और
देशी-विदेशी समस्याएँ पढ़ते हैं,
तब भी मैं पाठक नहीं होता।

आँगन में नयी खिली कली,
और द्वार पर निमंत्रण की पुर्ज़ी-सी धूप पड़ी रहती है,
बालों में खोंसकर गुलाब
घर के सामने से गुज़रती हैं सुंदरियाँ,
रंगों के साथ तैर जाते हैं आँखों में साड़ियों के
कई-कई रूप--
किन्तु मुखर नहीं होती है कल्पना :
चाय का प्याला संभाले
एक सेर गेहूँ या चावल के लिए
सस्ते अनाज की दुकान पर क़तारों में
अपने को खड़ा हुआ पाता हूँ,
अथवा
संत्रस्त और युद्धग्रस्त देशों की प्रजा की जमात में-
खड़ा हुआ सोचता हूँ-
कितने खुशकिस्मत थे पहले ज़माने के कवि
अपनी परिस्थिति से बचकर आकाश ताक सकते थे ।

सच है--
हमारे लिए भी कल्पनाओं के आश्रम खुले हैं,
किन्तु
चौंकाती नहीं हैं दुर्घटनाएँ,
कितना स्वीकार्य और सहज तो गया है परिवेश
कि सत्य
चाहे नंगा होकर आए, दिखता नहीं है।
लोग मंत्रियों के वक्तव्य पढ़ते हैं
"देश पर अब कोई संकट नहीं है'
और खुशी से उछल पड़ते हैं।
मुनाफ़े की मूर्तियाँ गढ़ते हैं।
(आह ! कल्पना पर भी मंत्रियों और व्यापारियों का
एकाधिपत्य है)
मुझमें उत्साह (कल्पना की उड़ान का)
नहीं जागता,
न मैं प्रयत्न कर पाता हूँ-!
उल्टे ये होता है
जबकि कहीं रोगों और मौतों की चर्चा निकलती है
तो सबसे पहला रोगी
और मुरदा-मैं खुद को पाता हूँ।

ईश्वर बेहतर जानता है-
मेरी कल्पना को
जाने किस दृश्य या घटना ने
विदीर्ण कर दिया है-;
आज
कोई भी, कैसे भी अधरों का संबोधन मुझे नहीं छूता,
दृष्टि नहीं बाँधता किसी का सौंदर्य
और मैं प्रकृति से भिन्न स्थिति में
भाषा को भोगता हूँ,
शब्दों और अर्थों से परे-एक भाषा
जो श्रव्य नहीं,
जिसके संदर्भ-बहुल अनुभव
मैं जीता हूँ, जीने के लिए विवश होता हूँ...सुबह-सुबह...
चाय की टेबिल पर, समाचार-पत्रों में,
जबकि लोग... ।

8. आत्मालाप

मेरे दोस्त !
मैं तुम्हें खूब जानता हूँ।
तुम-टीटी. नगर के एक बंगले में
सुख ओर सुविधा का जीवन बिताने की कल्पना
किए हो,

तुम-शासन की कुर्सी में बैठे हुए
अपने हाथों में मुझे
एक ढेले की तरह लिए हो,
और बर्र के छत्तों में फेंककर मुझे
मुसकरा सकते हो,
मौक़ा देखकर
कभी भी
मेरी पहुंच से बहुत दूर जा सकते हो।
पहले मैं भी ओर लोगों की तरह
बिलकुल यही समझता था कि मैं और तुम एक हैं,
दोनों यह युद्ध साथ-साथ लड़ रहे हैं,
अपनी जगह
अपने स्थानों से पीछे हट रहे हैं
या आगे बढ़ रहे हैं,
-सिर्फ़ तुम्हें राजपथ पसंद हैं,
गलियों की धूल में भटकना नहीं भाता,
पर मेरा नाता
इन्हीं गलियों में बसे किसी घर से है,
जिसके दरवाजे बंद हैं,
यों मैंने सोचा-यह फ़र्क़
कोई फ़र्क़ नहीं है,
क्योंकि तुम जहाँ अकेले पहुँचने का यत्न कर रहे हो,
सभी लोगों के साथ
पहुँचना मुझे भी वहीं है ।
चूँकि तुम मेरे साथ-माथ पैदा हुए थे
सोचा--
साथ ही रहोगे,
पीड़ा जैसे भी होगी
उसे मैं भी सहूँगा
और तुम भी सहोगे।
आज मुझे लगता है, पहले भी--
यद्यपि मैंने पहचाना नहीं था,
तुम्हारा सलूक
मेरे साथ दोस्ताना नहीं था;

तुमने हमेशा मुझे ऐसी लोरियों सुनाईं
कि मैं बिस्तर में पड़े-पड़े करवटें बदलता रहा,
तुमने हर घटना को इस तरह रंगा
कि मैं अपने ही सम्मुख
अपराधी की तरह हाथ मलता रहा,
मेरा विवेक तुम्हारे एक-एक संकेत का मोहताज बना रहा
मेरे और दुनिया के बीच का तनाव
ज़रा ज़्यादा ही तना रहा,
मैं अपने व्यक्तित्व को
तुम्हारे नज़रिए से देखता हुआ
झख मारकर गाता रहा,
तुमने प्रमोशन लिए
और मैं गालियाँ खाता रहा।
लेकिन-
यह हरगिज़ ज़रूरी नहीं था (न है)
कि हम एक दूसरे को उकसाते या उछालते रहें,
एक तोते की तरह
एक दूसरे को पालते रहें,
उसे खोल से बाहर निकलने न दें,
आस-पास की पहाडियों पर घूमने न दें,
याकि अपनी प्रेमिकाओं से मिलने न दें,
उन्हें छूने या चूमने न दें ।

और इसमें भी कोई नैतिकता नहीं है
कि जहाँ एक पुल बन सकता हो वहीं पुल बनाएँ,
विरोधी के नक्कारखाने में
तूती को ज़ोर से बजाएँ,
हवाओं के डर से घर की टीन को उतारकर फेंक दें,
आशंकाओं के बालू में घुटने टेक दें ।
राम-नाम जपें
या माला के मनकों-से सट जाएँ,
बहुत तेज़ चाकू की तरह
एक दूसरे में उतरें
एक दूसरे से कट जाएँ ।
यह हरगिज़ ज़रूरी नहीं है...
कि हम एक दूसरे से डरें,
हां, एक दूसरे को समझें
चाहे प्यार न करें ।

मैंने कहा था एक बार,-तुझे याद है-
कि तू मुझसे बचपन में खुलकर मिला है,
तेरा और मेरा क़द एक है---,
एक ही नदी है
अपने गाँव के नीचे
जिसका चौड़ा-सा पाट पार करने के बाद वह क़िला है ।
उसकी अटारी पर तू और मैं साथ ही पहुंचते थे।
किन्तु आज कहीं भी पहुंचने का रास्ता बंद है,
सिर्फ़ एक मेरी कमंद है
तू मुझे उठा,
मुझसे मत घबरा।
लेकिन तुमने कुछ सुना नहीं।

और मुझे डर है-इस बार,
तुम मुझे अकेला कर जाओगे,
मोटी-सी दुविधा
या छोटी-सी सुविधा के लिए मर जाओगे,
जीवन के सारे ख़तरे मुझे झेलने पड़ेंगे,
सिर्फ़ इस क़लम के सहारे
सारे पापड़ बेलने पड़ेंगे ।
बड़े-बड़े पर्वत धकेलने पड़ेंगे।
मैं जानता हूँ घबराकर घुटना अच्छी बात नहीं है।
लेकिन यह एक संभावना है...
और इसमें मेरा कोई हाथ नहीं है।

मैं तो अब भी कहता हूँ-आ, जी तो सही,
लेकिन एक कायर की ज़िंदगी न जी,
एक दोस्त के लिए अपनी नफ़रत को पी,
मेरे हाथों में हाथ दे,
मुझे पंजों में ढेले की तरह मत उठा
मेरा साथ दे।

9. वसंत आ गया

वसंत आ गया
और मुझे पता नहीं चला
नया-नया पिता का बुढ़ापा था
बच्चों की भूख
और
माँ की खांसी से छत हिलती थी,
यौवन हर क्षण
सूझे पत्तों-सा झड़ता था
हिम्मत कहाँ तक साथ देती
रोज मैं सपनों के खरल में
गिलोय और त्रिफला रगड़ता था जाने कब
आँगन में खड़ा हुआ एक वृक्ष
फूला और फला
मुझे पता नहीं चला...

मेरी टेबल पर फाइलें बहुत थीं
मेरे दफ्तर में
विगत और आगत के बीच
एक युद्ध चल रहा था
शांति के प्रयत्न विफल होने के बाद
मैं
शब्दों की कालकोठरी में पड़ा था
भेरी संज्ञा में सड़क रुंध गई थी
मेरी आँखों में नगर जल रहा था
मैंने बार-बार
घड़ी को निहारा
और आँखों को मला
मुझे पता नहीं चला

मैंने बाज़ार से रसोई तक
जरा सी चढ़ाई पार करने में
आयु को खपा दिया
रोज बीस कदम रखे-
एक पग बढ़ा ।
मेरे आसपास शाम ढल आई ।
मेरी साँस फूलने लगी
मुझे उस भविष्य तक पहुँचने से पहले ही रुकना पड़ा
लगा मुझे
केवल आदर्शों ने मारा
सिर्फ सत्यों ने छला
मुझे पता नहीं चला

खण्ड दो

10. देश-प्रेम

कोई नहीं देता साथ,
सभी लोग युद्ध और देश-प्रेम की बातें करते हैं।
बड़े-बड़े नारे लगाते हैं।
मुझसे बोला भी नहीं जाता।
जब लोग घंटों राष्ट्र के नाम पर आँसू बहाते हैं
मेरी आंख में एक बूँद पानी नहीं आता।

अक्सर ऐसा होता कि मातृभूमि पर मरने के लिए
भाषणों से भरी सभाओं
और प्रदर्शन की भारी भीड़ों में
लगता है कि मैं ही हूँ एक मूर्ख...
कायर-गद्दार !

मुझे ही सुनाई नहीं पड़ता है
देश-प्रेम,
जो संकट आते ही
समाचार-पत्रों में डोंडी पिटवाकर
कहलाया जाता है-
बार-बार ।

11. ईश्वर को सूली

(बस्तर गोलीकांड पर एक प्रतिक्रिया)

मैंने चाहा था
कि चुप रहूँ,
देखता जाऊँ
जो कुछ मेरे इर्द-गिर्द हो रहा है।
मेरी देह में कस रहा है जो साँप
उसे सहलाते हुए,
झेल लूँ थोड़ा-सा संकट
जो सिर्फ कडुवाहट बो रहा है।
कल तक गोलियों की आवाज़ें कानों में बस जाएँगी,
अच्छी लगने लगेंगी,
सूख जाएगा सड़कों पर जमा हुआ खून !
वर्षा के बाद कम हो जाएगा
लोगों का जुनून !
धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।
लेकिन मैंने देखा--
धीरे-धीरे सब ग़लत होता जाता है ।
इच्छा हुई मैं न बोलूँ
मेरा उस राजा से या उसकी अंध भक्त प्रजा से
क्या नाता है?

लेकिन सहसा एक व्याख्यातीत अंधेरा
ढंक लेता है मेरा जीवित चेहरा,
और भीतर से कुछ बाहर आने के लिए छटपटाता है ।
एक उप महाद्वीपीय संवेदना
सैलाब-सी उमड़ती है-अंदर ही अंदर
कहीं से उस लाश पर
अविश्वास-सी प्रखर,
सीधी रोशनी पड़ती है-
क्षत-विक्षत लाश के पास,
बैठे हैं असंख्य मुर्दे उदास ।
और गोलियों के ज़ख्म देह पर नहीं हैँ।
रक्तस्राव अस्थिमज्जा से नहीं हो रहा है ।
एक काग़ज़ का नक्शा है-
ख़ून छोड़ता हुआ ।
एक पागल निरंकुश श्वान
बौखलाया-सा फिरता है उसके पास
शव चिचोड़ता हुआ
ईश्वर उस 'आदिवासी-ईश्वर' पर रहम करे!
सता के लंबे नाखूनों ने जिसका जिस्म नोच लिया!
घुटनों पर झुका हुआ भक्त
अब क्या
इस निरंकुशता को माथा टेकेगा
जिसने-
भक्तों के साथ प्रभु को सूली पर चढ़ा दिया,
समाचार-पत्रों की भाषा बदल दी,
न्याय को राजनीति की शकल दी,
और हर विरोधी के हाथों में
एक-एक खाली बंदूक पकड़ा दी-
कि वह-
लगातार घोड़ा दबाता रहे,
जनता की नहीं, सिर्फ़ राजा की,
मुर्दे पैग़म्बर की मौत पर सभाएँ बुलाता रहे
'दिवस' मनाता हुआ,
सार्वजनिक आँसू बहाता हुआ,
नींद को जगाता हुआ,
अर्द्ध-सत्य थामे चिल्लाता रहे।

x x x

इतिहास
विद्यमान काल की परिधि में दीवारों से टिके हुए
इन मुर्दा लोगों की पीढ़ी को माफ़ करे।
(सहनशील जनता न्याय-संगत नहीं होती)
इतिहास न्याय करे--
मुझ जैसे चंद बदज़बान और बेशऊर लोगों के साथ,
जो खुद आगे बढ़ आए
अपनी कमज़ोर और सीमित भुजाओं में भर लेने के लिए
कि एक बाँध अपने कगारों पर टूट रहा है;

मैंने सोचा था-जब किसी को दिखाई नहीं देता
मैं भी बंद कर लूँ अपनी आँखें
न सोचूँ
एक ज्वालामुखी फूट रहा है।
घुल जाने दूँ लावे में

तड़प-तड़पकर एक शिशु-
प्रजातंत्र का भविष्य
जो मेरे भीतर मिठी नींद सो रहा है ।
मुझे क्या पड़ी है
जो मैं देखूँ या बोलूँ या कहूँ कि मेरे आसपास
नरहत्याओं का एक महायज्ञ हो रहा है ।

मैंने चाहा था और मैं अब भी चाहता हूँ
कि मैं चुप रहूँ, न बोलूं।
एक मोटा-सा परदा पड़ा है
उसे रहने दूँ; खिड़की न खोलूँ।

12. चिंता

आजकल मैं सोचता हूँ साँपों से बचने के उपाय
रात और दिन
खाए जाती है यही हाय-हाय
कि यह रास्ता सीधा उस गहरी सुरंग से निकलता है
जिसमें से होकर कई पीढ़ियाँ गुज़र गईं
बेबस ! असहाय !!
क्या मेरे सामने विकल्प नहीं है कोई
इसके सिवाय !
आजकल मैं सोचता हूँ...!

13. देश

संस्कारों की अरगनी पर टंगा
एक फटा हुआ बुरका
कितना प्यारा नाम है उसका-देश,
जो मुझको गंध
और अर्थ
और कविता का कोई भी
शब्द नहीं देता
सिर्फ़ एक वहशत,
एक आशंका
और पागलपन के साथ,
पौरुष पर डाल दिया जाता है,
ढंकने को पेट, पीठ, छाती और माथा।

14. जनता

जब कुछ भी
अतुल अंधकार के सिवा बचता नहीं
तब लोगों को
बाँसों की तरह इस्तेमाल किया जाता है हहराते सागर
में गहराई नापने के लिए ।

एक-दो-तीन
और सब-
यानी सभी बाँस
छोटे पड़ जाते हैं,
छोड़ दिए जाते हैं सागर में ।
यानी
फिर और नए बाँसों की आवश्यकता होती है हहराते
सागर में गहराई नापने के लिए ।

यह एक अखंड क्रम है...
और उनके अजीब विश्वास हैं
उनके हाथों में बहुत सारे बाँस हैं
बाँसों पर बाँस
हहराते सागर की गहराई नापने के लिए ।

15. मौसम

मौसम में कैसा बदलाव आ गया है।
शीत के छींटे फेंकता है
मेरे नाम ।

हर शाम
एक स्वच्छ दर्पण-सा व्योम
टुकुर-टुकुर ताके ही जाता है।

वातावरण बड़ी निराश गति से
चारों ओर रेंगता है,
कवि कहकर मुझको चिढ़ाता है ।

सच-
कैसा असहाय है ।
कितना बूढा हो गया है तुम्हारा कवि !
बदले हुए मौसम के अनुरूप
उससे
वेश तक नहीं बदला जाता है ।...

16. तुलना

गडरिए कितने सुखी हैं ।

न वे ऊँचे दावे करते हैं
न उनको ले कर
एक दूसरे को कोसते या लड़ते-मरते हैं।
जबकि
जनता की सेवा करने के भूखे
सारे दल भेड़ियों से टूटते हैं ।
ऐसी-ऐसी बातें
और ऐसे-ऐसे शब्द सामने रखते हैं
जैसे कुछ नहीं हुआ है
और सब कुछ हो जाएगा ।

जबकि
सारे दल
पानी की तरह धन बहाते हैं,
गडरिए मेंड़ों पर बैठे मुस्कुराते हैं
... भेड़ों को बाड़े में करने के लिए
न सभाएँ आयोजित करते हैं
न रैलियाँ,
न कंठ खरीदते हैं, न हथेलियाँ,
न शीत और ताप से झुलसे चेहरों पर
आश्वासनों का सूर्य उगाते हैं,
स्वेच्छा से
जिधर चाहते हैं, उधर
भेड़ों को हाँके लिए जाते हैं ।

गडरिए कितने सुखी हैं ।

17. युद्ध और युद्ध-विराम के बीच

(संदर्भ 1965 का युद्ध)

मामूली बात नहीं है
कि इन अगन भट्टियों के दहानों पर बैठे हुए
हम, तुमसे फूलों और बहारों की बात कर लेते हैं,
अपनी बाँहें आकाश की ओर उठाकर
बच्चों की तरह चिल्ला उठते हैं कभी-कभी
टैंकों और विमानों के कोलाहलों को
जीवन का नारा लगाकर
एक नए स्वर से भर देते हैं।

मामूली बात नहीं है
कि जब ज़मीन और आसमान पर
मौत धड़धड़ाती हो,
एक कोमल-सा तार पकड़े हुए
आप
अपनी आस्था आबाद रक्खें,
विषाक्त विस्फोटों के धुएँ में
खुद अपने ऊपर नेपाम बम चलाते हुए
गाँधी ओर गौतम का नाम याद रक्खें ।
शब्दों की छोटी-छोटी
तोपें लिए हुए
बम बरसाने वाले जहाजों को मोड़ लें,
भूखी साँसों को राष्ट्रीयता के चिथड़े पहनाए
अभावों का शिरस्त्राण बाँधे
चारों ओर फैली विषेली गैस ओढ़ लें,
चाहे तलुए झुलसकर काले पड़ जाएँ
आँखों में सपनों की कीलें गड़ जाएँ
पेट पीठ से सट जाए
पूरे व्यक्तित्व का सिंहासन पलट जाए ।
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अजीब बात है
कि नज़रों को घायल कर देते हैं दृश्य
जिधर पलकें उठाते हैं,
वातावरण घृणा मुस्कराता है
जिसमें भी जाते हैं,
आकाश की मुट्ठी से फिसलती हुई
बेबसी फैलती-फूटती है
फिर भी हम नहीं छटपटाते हैं
गाते हैं एक ऐसा गीत
जिसकी टेक अहिंसा पर टूटती है ।

मामूली बात नहीं है दोस्तो !
कि आज जब दुनिया शक्ति के मसीहों को पूजती है
सोग घरों में भी तलवारों पर मचल रहे हैं,
हम
युद्धस्थल में
एक मुर्दे को शांति का पैग़ंबर समझकर
उठाए चल रहे हैं।
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लोग कहते हैं कि अमुक बुरा है या भला है।
लोग ये भी कहते हैं कि आत्मवंचना में
जीवन जीना कला है।
हम कुछ भी नहीं कहते।
बार-बार शांति के धोखे में विवेक पी जाते हैं।
संवेदनहीन राष्ट्रों को
सदियों से
आत्मा पर बने हुए घाव दिखलाते हैं-
यानी
बहुत हुआ तो
आत्मलीन विश्व से निवेदन करते हैं-ओर
उसी नदी में डूब जाते हैं
जिससे उबरते हैं।
xxx
मामूली बात नहीं है दोस्तो
कि हम न चीखें
न कराहें;
क्योंकि यही रास्ता शायद
हमारी नियति है,
जो यहाँ से शुरू हो
और यहीं लौट आए ।
शायद यह तटस्थता है।
शायद यह अहिंसा या शांति या सहअस्तित्व है।
यह कुछ ज़रूर है;
इसी के लिए हमने
टैंकों और बमों को शहरों पर सहा है,
प्राण गँवाए हैं ।

कच्छ में स्वाभिमान
काश्मीर में फूलों की हँसी
और छम्ब में मातृभूमि का अंग-भंग हो जाने दिया है
चाकू और छुरे खाए हैं।
...मामूली बात नहीं है दोस्तो !

18. सवाल

मुझे पता नहीं यहाँ किस ॠतु में
कौन-सा फूल खिलता है ?
वसंत कब आता है ?
बारह महीने लहलहाते हुए दोनों के क्या नाम हैं ?
वे फसलें जो तिगुनी उपज देने लगी हैं--
कहाँ हैँ?
वे खेत जो सोना उगलते हैं-किसके हैं?
ये खेत जो सूख गए
इनमें क्या बोया गया था ?
वे लोग जो फूलों को देखकर जीते हैं-कैसे हैं?
और ये लोग कौन हैं
जो पौधों को सींचते हैं
मौन हैं?
मुझे पता नहीं वर्षा की बूँदों और सूखी हुई झाडियों में
कैसा संबंध है ?
चारों तरफ फैले और
घिरे हुए लोगों की चीखें
कहाँ से निकलती हैं?
गलियों में बढ़े और पड़े हुए कुत्तों को
कौन खाना खिलाता है?
गायें दिन-ब-दिन क्यों दुबली
और आवारा घूमता बिजार, क्यों मोटा होता जाता है?
पिता होते तो मैं पूछता
इन ख़यालों से मेरा क्या नाता है?
मेरे चारों ओर
सड़कों और झोंपड़ों के जाल
और तरह-तरह के सवाल क्यों हैं ?
क्यों किसी भी सवाल का जवाब
मुझे नज़र नहीं आता ।

19. एक चुनाव-परिणाम

आओ देखें-
एक छोटी-सी पगडंडी
कहाँ पहुंच सकती है !
भय की ज़मीन पर
निश्चय की ईंट
कैसे एक सृष्टि रच सकती है ?

आओ सोचें-
कैसे घरों में बंद विद्रोह के तर्क
बाहर आ जाते हैं,
और लोकतंत्र के समर्थन में
सफल वातावरण बनाते हैं।

आओ, अंजलि में भर लें-
पराजित लहरों के मुँह से निकलता हुआ झाग ।
देखें--
लौह-पुरुष बनकर पुजने वाला पुतला
मोम का निकला।
एक फूंक से बुझ गया
सूरज समझा जाने वाला चिराग़।

20. गाते-गाते

मैं एक भावुक-सा कवि
इस भीड़ में गाते-गाते चिल्लाने लगा हूँ ।

मेरी चेतना जड़ हो गई है---
उस ज़मीन की तरह-
वर्षा में परती रह जाने के कारण-
जिसने उपज नहीं दी
जिसमें हल नहीं लगे ।
यह देखते-देखते
कि कितने भयानक भ्रम में जिए हैं बीस वर्ष ।
यह सोचते-सोचते
कि मेरा कसूर क्या है
और क्या किया है इन लोगों ने
जो जीवन-भर सभाओं में तालियाँ बजाते रहे,
भूख की शिकायत नहीं की,
बड़ी श्रद्धा से-
थालों में सजे हुए भाषण
और प्रेस की कतरनें खाते रहे,
मेरा दिमाग भन्ना गया है !

मैं एक मामूली-सा कवि
इस ग़म में गाते-गाते चिल्लाने लगा हूँ।
नेताओ!
मुझे माफ़ करना
ज़रूर कुछ सुनहले स्वप्न होंगे-
जिन्हें मैंने नहीं देखा।
मैंने तो देखा
जो मशालें उठाकर चले थे
वे तिमिरजयी,
अंधेरे की कहानियाँ सुनाने में खो गए ।
सहारा टटोलते हुए दोनों दशक
ठोकरें खा-खाकर लंगड़े हो गए।
अपंग और अपाहिज बच्चों की तरह
नंगे बदन
ठण्ड में काँपता हुआ एक-एक वर्ष
ऐन मेरी पलकों के नीचे से गुज़रा है।
तुम्हारा आभारी हूँ रहनुमाओ !
तुम्हारी बदौलत मेरा देश, यातनाओं से नहीं,
फूलमालाओं से दबकर मरा है।

मैं एक मामूली-सा कवि
इस खुशी में गाते-गाते चिल्लाने लगा हूँ।

खण्ड तीन

21. प्रतीति

एक मग्न प्यार के प्रदेश से गुज़रकर
मैं अपनी
यायावर-स्मृति से हटा नहीं पाता हूँ-
वे उदास भुतियाले खँडहर

उनमें थोडा बच जाता हूँ।
बहुत प्यार करता हूँ तुम्हें
बहुत... ।
लेकिन बार-बार
उस मुर्दा पीढ़ी के बीच से गुज़रने वाली राहों को
मैं जिनसे होकर तुम तक आता हूँ,
उन्हीं खँडहरों में,
उन्ही सूनी भुतियाली-सी जगहों में
बल खाते पाता हूँ;

एक संक्रांति-काल होता हे तुमसे मिलना
जिसमें कुछ अंतराल भरता है,
एक मृत्यु होती है तुमसे हट आना
जिसमें उस थकी-सी दशाब्दी का जहाज़
डगमगाता हुआ दृश्य में उभरता है ।
लेकिन मैं तोड़ डालने वाली यात्राएँ जीकर भी
तुम तक आ जाता हूँ।
बार-बार लगता है-
मैं जैसे यात्रा से लौटा हूँ
तुम जैसे यात्रा पर निकली हो।

22. गीत-कौन यहाँ आया था

कौन यहाँ आया था
कौन दिया बाल गया
सूनी घर-देहरी में
ज्योति-सी उजाल गया

पूजा की बेदी पर
गंगाजल भरा कलश
रक्खा था, पर झुक कर
कोई कौतुहलवश
बच्चों की तरह हाथ
डाल कर खंगाल गया

आँखों में तिर आया
सारा आकाश सहज
नए रंग रँगा थका-
हारा आकाश सहज
पूरा अस्तित्व एक
गेंद-सा उछाल गया

अधरों में राग, आग
अनमनी दिशाओं में
पार्श्व में, प्रसंगों में
व्यक्ति में, विधाओं में
साँस में, शिराओं में
पारा-सा ढाल गया|

23. वर्षा

दिन भर वर्षा हुई
कल न उजाला दिखा
अकेला रहा
तुम्हें ताकता अपलक |

आती रही याद :
इंद्रधनुषों की वे सतरंगी छवियाँ
खिंची रहीं जो
मानस-पट पर भरसक |

कलम हाथ में लेकर
बूँदों से बचने की चेष्टा की--
इधर-उधर को भागा
भींग गया पर मस्तक :

हाय ! भाग्य की रेखा,
मुझ पर ही आकाश अकारण बरसा
पर तुम...
बूँदें गई न शायद तुम तक |

24. विदा के बाद : प्रतीक्षा

परदे हटाकर करीने से
रोशनदान खोलकर
कमरे का फ़र्नीचर सजाकर
और स्वागत के शब्दों को तोलकर
टक टकी बाँधकर बाहर देखता हूँ
और देखता रहता हूँ मैं।

सड़कों पर धूप चिलचिलाती है
चिड़िया तक दिखायी नहीं देती
पिघले तारकोल में
हवा तक चिपक जाती है बहती-बहती,
किन्तु इस गर्मी के विषय में किसी से
एक शब्द नहीं कहता हूँ मैं।

सिर्फ़ कल्पनाओं से
सूखी और बंजर ज़मीन को खरोंचता हूँ
जन्म लिया करता है जो (ऐसे हालात में)
उसके बारे में सोचता हूँ
कितनी अजीब बात है कि आज भी
प्रतीक्षा सहता हूँ मैं।

25. एक जन्म दिन पर

एक घनिष्ठ-सा दिन
आज
एक अजनबी की तरह
पास से निकल गया।

एक और सोते-सा सूख गया !
टूट गया एक और बाजू-सा !
एक घनिष्ठ-सा दिन-
जिसे मैं चुंबनों से रचकर
और कई सार्थक प्रसंगों तक ले जाकर
तुम तक आ सकता था !
मैं जिसको होंठों पर रखकर गा सकता था
स्वरों की पकड़ में नहीं आया
गरम-गरम बालू-सा फिसल गया !

मटमैली चादर-सी
बिछी रही सड़कें
और खाली पलंग-सा शहर !
मेरी आँखों में-देखते-देखते,
बिना किसी आहट के,
पिछली दशाब्दी का
कलेण्डर बदल गया।

26. एक और प्रसंग

आँखों में भरकर आकाश
और हृदय में उमंग,
काँपती उँगलियों में सहज थरथराती हुई
छोटी-सी पतंग,
मैंने--
शीश से ऊँची उठाकर
और ऊपर निहारकर,
विस्मय, आशंका और हर्ष की प्रतीति सहित
वायु की तरंगों पर छोड़ दी-अपंग ।

कोई आवाज़ कहीं नहीं हुई।
शांत रहा संध्या का कण्ठ !
धुएँ-सा बदलता रहा आसमान रंग ।

मेरी पतंग-
मुझे नीचे से ऊपर-
और ऊपर...को जाती हुई-
पर खोले
चील से बगुला
और बगुले से छोटी-सी चिड़िया की भाँति लगी,
मुझमें उत्सुकता के साथ सहज पीड़ा की
हल्की अनुभूति जगी-
"जाने क्या होगा" ?

किंतु आह !
क्षण भर के बाद ।
वह चिड़िया और उसका पूरा परिवेश
(नभ का पूर्वी प्रदेश)
साँवली लकीरों के साँपों ने घेर लिया ।
कट गई पतंग ।
अंधकार का अजगर लील गया
एक-एक पंख ।
बाँहें फैलाकर आकाश
उसे ग्रहण नहीं कर पाया ।
बिखर गया काला-सा गाढ़ा अवसाद-निस्तरंग ।

फटी-फटी आँखों से
कटी हुई डोरी का एक छोर पकड़े
हुआ कहीं और एक स्तर पर
एक स्वप्न-भंग ।
[कितना विचित्र साम्य रखता है
जीवन
और गगन से पतंग का प्रसंग ।]

27. साँझ : एक विदा-दृश्य

एक दुखी माँ की तरह-संध्या
मैला-सा आँचल पसारे
सामने खड़ी है ।
सारा आकाश-ग्राम,
बाल-वृद्ध-बनिताएँ,
साँस रोक-
देख रहे विदा-दृश्य !
लिपे-पुते आंगन-सी
धरती पड़ी है ।
एक शोख वय वाली लड़की-सी हवा
इधर-उधर कपड़े झटकती हुई
आँगन बुहारती है ।
"थोड़े दिन और अभी रहने दो"
सलज कोयलिया बोल मारती है।
वृद्ध-वृक्ष, गर्दन हिलाते हैं।
पिता-पर्वत
काली-सी चादर में मुँह लपेट
विदा का प्रसंग टाल जाते हैं।

28. सृष्टि की आयोजना

मैं-जो भी कुछ हाथ में उठाता हूँ
सपने या फूल,
मिट्टी या आग,
कर्म या विराग
मुझे कहीं नहीं ले जाता ।
सिर्फ एक दिग्भ्रम की स्थिति तक,

हल्का-सा कंपन, रोमांच
एक ठण्डा-सा स्पर्श
किसी भाव-विह्वल अतीत की तरह
मेरे भीतर
कंपता-अकुलाता है।
कोई आकार नहीं लेता, हर स्वप्न
मेरी उँगलियों में
सृजनशीलता की झनझनाहट जगाकर
टूट जाता है।

आज
मेरे हाथों में शून्य
और आँखों में अंधकार है,
तुम्हारी आँखों में सपने
और हाथों में सलाइयाँ हैं,
सोचता हूँ
इन इच्छाओं का
कोई आकाश अगर बुन भी गया
तो उसमें क्या होगा?
न चाँद...
न तारे...
न सूर्य का प्रकाश...
आखिर कहाँ सोंस लेगा
हमारा अंश?
यह नन्हा शिशु :-विश्वास ।

कितने अभागे हैं हम दोनों
कि बने एक सृष्टि की आयोजना की।

29. एक समझौता

वह...
अब मेरी प्रेमिका नहीं है।

हमें जोड़ने वाला पुल
बाहरी दबावों से टूट गया।
अब हम बिना देखे
एक दूसरे के सामने से निकल जाते हैं।

बहुत बुरे दिन हैं...कि मैं जिनकी कल्पना किए था
वे दुर्घटनाएँ
घटकर सच हो रही हैं !
वे जो बचाव के बहाने थे,
तनाव का कारण बन गए हैं।
आज सबसे अधिक ख़तरा वहाँ है
जो निरापद स्थान था।

यह नहीं कि मेरे विरुद्ध हो गए हैं सब लोग !
बल्कि मेरी कलम ही
मेरे हाथ में
मेरे विरुद्ध एक शस्त्र है।
मेरा साहित्य,
एक तंग और फटे हुए कोट की तरह
अब मेरी रक्षा नहीं करता।

चारों ओर से घिरकर
मैं एक समझौते के लिए
सहमत हो गया हूँ ।
वह...
अब मेरी कविता नहीं है।

30. होंठों के नीचे फिर

इधर और झुक गया है आकाश
एक जले हुए वन में वसंत आ गया है !
झुरमुट में, चिड़ियों का झुंड लौट आया है
मरे हुए पत्तों पर
गति थिरक उठी है।
मेरे पाँवों में
एक पगडंडी रहने लगी है।

सहसा
गर्भवती हुई है विवक्षा,
और तस्वीरें
रिश्तों की शक्ल ले रही हैं,
मेरे उत्सुकता भरे पाँव तेज़ पड़ रहे हैं,
मेरी यात्रा के पथ पर कुछ बाँहें खड़ी हैं,
मेरे कानों में खामोशी
आत्मकथा कहने लगी है।

मेरी नियति रही होगी ?
शायद भाग्य में लिखी थी एक जंगल की आग,
मेरी बाँबी से मणि खो गई थी,
मेरी प्यास कह रहे थे मेरे होंठों के झाग ।

अब इन बुझी हुई आँखों में
चमक आ गई है,
मेरे होंठों के नीचे
फिर एक नदी बहने लगी है।

31. गीत-अब तो पथ यही है

जिंदगी ने कर लिया स्वीकार,
अब तो पथ यही है|
अब उफनते ज्वार का आवेग मद्धिम हो चला है,
एक हलका सा धुंधलका था कहीं, कम हो चला है,
यह शिला पिघले न पिघले, रास्ता नम हो चला है,
क्यों करूँ आकाश की मनुहार ,
अब तो पथ यही है |

क्या भरोसा, कांच का घट है, किसी दिन फूट जाए,
एक मामूली कहानी है, अधूरी छूट जाए,
एक समझौता हुआ था रौशनी से, टूट जाए,
आज हर नक्षत्र है अनुदार,
अब तो पथ यही है|

यह लड़ाई, जो कि अपने आप से मैंने लड़ी है,
यह घुटन, यह यातना, केवल किताबों में पढ़ी है,
यह पहाड़ी, पाँव क्या चढ़ते, इरादों ने चढ़ी है,
कल दरीचे ही बनेंगे द्वार,
अब तो पथ यही है |

32. मेरे स्वप्न

मेरे स्वप्न तुप्तारे पास सहारा पाने आएँगे ।
इस बूढ़े पीपल की छाया में सुस्ताने आएँगे।

हौले-हौले पाँव हिलाओ, जल सोया है छेड़ो मत,
हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आएँगे।

थोड़ी आंच बची रहने दो, थोड़ा धुआँ निकलने दो,
कल देखोगी कई मुसाफिर इसी बहाने आएँगे।

उनको क्या मालूम निरूपित इस सिकता पर क्या बीती,
वे आए तो यहाँ शंख-सीपियाँ उठाने आएँगे ।

फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम,
अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आएँगे।

रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी,
जागे और बढ़े तो शायद दृश्य सुहाने आएँगे ।

मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता,
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएंगे ।

हम क्यों बोलें-इस आँधी में कई घरौंदे टूट गए,
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जाएंगे ।

हम इतिहास नहीं रच पाए इस पीड़ा में दहते हैं,
अब जो धाराएं पकड़ेंगे, इसी मुहाने आएँगे।

33. तुझे कैसे भूल जाऊँ

अब उम्र का ढलान उतरते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊं।

गहरा गए हैं खूब धुँधलके निगाह में
गो राहरो नहीं है कहीं, फिर भी राह में-
लगते हैं चंद साए उभरते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊँ।

फैले हुए सवाल-सा सड़कों का जाल है,
ये शहर हैं उजाड़, या मेरा ख़याल है,
सामने-सफ़ बांधते-धरते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊँ।

फिर पर्वतों के पास विछा झील का पलंग
होकर निढाल, शाम बजाती है जलतरंग,
इन रास्तों से तन्हा गुज़रते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊँ।

उन सिलसिलों की टीस अभी तक है घाव में,
थोड़ी-सी आँच और बची है अलाव में,
सजदा किसी पड़ाव में करते हुए मुझे
आती है तेरी याद, तुझे कैसे भूल जाऊँ।

  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण काव्य रचनाएँ : दुष्यंत कुमार
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