गोवर्द्धनधारण-वृंदावन लीला : भक्त सूरदास जी

Govardhan Dharan-Varindavan Leela : Bhakt Surdas Ji

गोवर्द्धनधारण

बाजति नंद-अवास बधाई ।
बैठे खेलत द्वार आपनैं, सात बरस के कुँवर कन्हाई ॥
बैठे नंद सहित वृषभानुहिं, और गोप बैठे सब आई ।
थापैं देत घरिन के द्वारैं, गावतिं मंगल नारि बधाई ॥
पूजा करत इंद्र की जानी, आए स्याम तहाँ अतुराई ।
बार-बार हरि बूझत नंदहिं , कौन देव की करत पुजाई ॥
इंद्र बड़े कुल-देव हमारे, उनतैं सब यह होति बड़ाई ।
सूर स्याम तुम्हरे हित कारन, यह पूजा करत सदाई ॥1॥

मेरौ कह्यो सत्य करि जानौ ॥
जौ चाहौ ब्रज की कुसलाई, तौ गोबर्धन मानौ ॥
दूध दही तुम कितनौ लैहौ, गोसुत बढ़ैं अनेक ।
कहा पूजि सुरपति सैं पायौ, छाँड़ि देहु यह टेक ॥
मुँह माँगे फल जौ तुम पावहु, तो तुम मानहु मोहिं ।
सूरदास प्रभु कहत ग्वालसौं, सत्य बचन करि दोहि ॥2॥

बिप्र बुलाइ लिए नँदराइ ।
प्रथमारंभ जज्ञ कौ कीन्हौ, उठे बेद-धुनि गाइ ॥
गोबर्धन सिर तिलक चढ़ायौ, मेटि इंद्र ठकुराइ ।
अन्नकूट ऐसौ रचि राख्यौ, गिरि की उपमा पाइ ॥
भाँति-भाँति ब्यंजन परसाए, काँपै बरन्यौ जाइ ।
सूर स्याम सौं कहत ग्वाल, गिरि जेवहिं कहौ बुझाइ ॥3॥

गिरिवर स्याम की अनुहारि ।
करत भोजन अधिक रुचि यह, सहस भुजा पसारि ॥
नंद कौ कर गहे ठाढ़े, यहै गिरि कौ रूप ।
सखी ललिता राधिका सौं, कहति देखि स्वरूप ॥
यहै कुँडल, यहै माला, यहै पीत पिछौरि ।
सिखर सोभा स्याम की छबि, स्याम-छबि गिरि जोरि ॥
नारि बदरोला रही, वृषभानु-घर रखवारि ।
तहाँ तैं उहिं भोग अरप्यौ, लियौ भुजा पसारि ॥
राधिका-छवि भूली, स्याम निरखैं ताहि ।
सूर प्रभु-बस भई प्यारी, कोर-लोचन चाहि ॥4॥

ब्रज बासिनि मोकौं बिसरायौ ।
भली करी बलि जो कछु, सो सब लै परबतहिं चढ़ायौ ॥
मोसौं पर्ब कियौ लघु प्रानी, ना जानियै कहा मन आयौ ।
तैंतिस कोटि सुरनि कौ नायक, जानि-बूझि इन मोहिं भुलायौ ॥
अब गोपनि भूतल नहिं राखौं, मेरी बलि मोहिं नहिं पहुँचायौ ।
सुनहु सूर मेरै मारतत धौं, परबत कैसें होत सहायौ ॥5॥

गिरि पर बरषन लागे बादर ॥
मेघवर्त्त, जलवर्त, सैन सजि, आए लै लै आदर ॥
सलिलि अखंड धार धर टूटत, किये इंद्र मन सादर ।
मेघ परस्पर यहै कहत हैं, धोई करहु गिरि खादर ॥
देखि देखि डरपत ब्रजवासी , अतिहिं भए मन कादर ।
यहै कहत ब्रज कौन उबारै, सुरपति कियैं निरादर ॥
सूर स्याम देखैं गिरि अपनैं. मेघनि कीन्हौ दादर ।
देव आपनी नहीं सम्हारत, करत इन्द्र सौ ठादर ॥6॥

ब्रज के लोग फिरत बितताने ।
गैतनि लै बन ग्वाल गए, ते धाए आवत ब्रजहिं पराने ॥
कोउ चितवत नभ-तन, चक्रित ह्वै, कोउ गिरि परत,धरनि अकुलाने ।
कोउ लै रहत ओट वृच्छनि की, अंध-अंध दिसि -बिदिसि भुलाने ॥
कोउ पहुँचे जैसें तैसें गृह, ढूंढ़त गृह नहिं पहिचाने ।
सूरदास गोबर्धन-पूजा, कीन्हे कौ फल लेहु बिहाने ॥7॥

राखि लेहु अब नंदकिसोर ।
तुम जो इंद्र की मेटी पूजा, बरसत है अति जोर ॥
ब्रजवासी तुम तन चितवत हैं, ज्यौं करि चंद चकोर ।
जनि जिय डरौ, नैन जनि मूँदौ, धरिहौं नख की ओर ॥
करि अभिमान इंद्र झरि लायौ, करत घटा घन घोर ।
सूर स्याम कह्यौ तुम कौं, राखौं बूँद न आवै छोर ॥8॥

स्याम लियौ गिरिराज उठाइ ।
धीर धरौ हर कहत सबनि सौं, गिरि गोबर्धन करत सहाइ ॥
नंद गोप ग्वालनि के आगैं, देव कह्यौ यह प्रगट सुनाइ ।
काहे कौं व्याकुल भएँ डोलत, रच्छा करै देवता आइ ॥
सत्य बचन गिरि-देव कहत हैं, कान्ह लेहि मोहिं कर उचकाइ ।
सूरदास नारी-नर ब्रज के, कहत धण्य तुम कुँवर कन्हाइ ॥9॥

गिरि जनि गिरै स्याम के कर तैं ।
करत बिचार ब्रजबासी, भय उपजत अति उर तैं ॥
लै-लै लकुट सब धाए करत सहाय जु तुरतैं ।
यह अति प्रबल, स्याम अति कोमल, रबकि रबकि हरबर तैं ॥
सप्त दिवस कर पर गिरि धार्‌यौ, बरसि थक्यौं अंबर तैं ।
गोपी ग्वाल नंद-सुत राख्यौ, मेघ-धार जलधर तैं ॥
जमलार्जुन दोउ सुत कुबेर के, तेउ उखारे जर तैं ।
सूरदास प्रभु इंद्र-गर्ब हरि, ब्रज राख्यौ करबर तैं ॥10॥

मेघनि जाइ कही पुकारि ।
दीन ह्वैं सुरराज आगैं, अस्त्र दीन्हे डारि ॥
सात दिन भरि बरसि ब्रज पर, गई नैकुँ न झारि ।
अखँड धारा सलित निझर्‌यौ, मिटी नाहिं लगारि ॥
धरनि नैकुँ न बूँद पहुँची, हरषे ब्रज-नर-नारि ।
सूर धन सब इंद्र आगैं, करत यहै गुहारि ॥11॥

घरनि घरनि ब्रज होति बधाई ।
सात बरष को कुँवर कन्हैया, गिरिवर धरि जीत्यौ सुरराई ॥
गर्व सहित आयौ ब्रज बोरन, वह कहि मोरी भक्ति घटाई ।
सात दिवस जल बरषि सिरान्यौ, तब आयौ पाइनि तर धाई ॥
कहाँ कहाँ नहिं संकट मेटत, नर-नारी सब करत बड़ाई ।
सूरस्याम अब कैं ब्रज राख्यौ, ग्वाल करत सब नंद दोहाई ॥12॥

(तेरे) भुजनि बहुत बल होइ कन्हैया ।
बार-बार भुज देखि तनक सै, कहति जसोदा मैया ॥
स्याम कहत नहिं भुजा पिरानी, ग्वालनि कियौ सहैया ।
लकुटिनि टेकि सबनि मिलि राख्यौ, अरु बाबा नँदरैया ॥
मोसौं क्यौं रहतौ गोबरधन, अतिहिं बड़ौ वह भारी ।
सूरस्याम यह कहि परबोध्यौ चकित देखि महतारी ॥13॥

मातु पिता इनके नहिं कोइ ।
आपहिं करता, त्रिगुन रहित हैं सोइ ॥
कितिक बार अवतार लियौ ब्रज, ये हैं ऐसे ओइ ।
जल-थल कीट-ब्रह्म के व्यापक, और न इन सरि होइ ॥
बसुधा-भार-उतारन-काजैं, आपु रहत तनु गोइ ।
सूर स्याम माता-हित-कारन, भोजन माँगत रोइ ॥14॥

सुरगन सहित इंद्र ब्रज आवत ।
धवल बरन ऐरावल देख्यौ उतरि गगन तैं धरनि धँसावत ॥
अमरा-सिव-रबि-ससि चतुरानन, हय-गय बसह हंस-मृग जावत ।
धर्मराज, बनराज, अनल, दिव, सारद, नारद, सिव-सुत भावत ॥
मेढ़ा, महिष, मगर, गुदरारौ, मोर, आखु, मनवाह गनावत गावत ।
ब्रज के लौग देखि डरपे मन, हरि आगैं कहि कहि जु सुनावत ॥
सात दिवस जल बरषि सिरान्यौ, आवत चल्यौ ब्रजहिं अतुरावत ।
घेरौ करत जहाँ तहँ ठाढ़े, ब्रजबासिन कौं नाहिं बचावत ॥
दूरहिं तैं बाहन सौ, उतर्‌यौ, देवनि सहित चल्यौ सिर नावत ।
आइ पर्‌यौ चरननि तर आतुर, सूरदास-प्रभु सीस उठावत ॥15॥

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