हिन्दी ग़ज़लें : भारतेन्दु 'रसा'/भारतेंदु हरिश्चंद्र

Hindi Ghazals : Bharatendu Harishchandra

1. दिल आतिश-ए-हिज्राँ से जलाना नहीं अच्छा

दिल आतिश-ए-हिज्राँ से जलाना नहीं अच्छा
ऐ शोला-रुख़ो आग लगाना नहीं अच्छा

किस गुल के तसव्वुर में है ऐ लाला जिगर-ख़ूँ
ये दाग़ कलेजे पे उठाना नहीं अच्छा

आया है अयादत को मसीहा सर-ए-बालीं
ऐ मर्ग ठहर जा अभी आना नहीं अच्छा
सोने दे शब-ए-वस्ल-ए-ग़रीबाँ है अभी से
ऐ मुर्ग़-ए-सहर शोर मचाना नहीं अच्छा

तुम जाते हो क्या जान मिरी जाती है साहिब
ऐ जान-ए-जहाँ आप का जाना नहीं अच्छा

आ जा शब-ए-फ़ुर्क़त में क़सम तुम को ख़ुदा की
ऐ मौत बस अब देर लगाना नहीं अच्छा

पहुँचा दे सबा कूचा-ए-जानाँ में पस-ए-मर्ग
जंगल में मिरी ख़ाक उड़ाना नहीं अच्छा

आ जाए न दिल आप का भी और किसी पर
देखो मिरी जाँ आँख लड़ाना नहीं अच्छा

कर दूँगा अभी हश्र बपा देखियो जल्लाद
धब्बा ये मिरे ख़ूँ का छुड़ाना नहीं अच्छा

ऐ फ़ाख़्ता उस सर्व-ए-सही क़द का हूँ शैदा
कू-कू की सदा मुझ को सुनाना नहीं अच्छा


(आतिश-ए-हिज्राँ=विरह की आग, पस-ए-मर्ग=
मौत के बाद, हश्र=प्रलय,क़यामत)

2. अजब जोबन है गुल पर आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहारी है

अजब जोबन है गुल पर आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहारी है
शिताब आ साक़िया गुल-रू कि तेरी यादगारी है

रिहा करता है सैयादे सितमगर मौसिमे गुल में
असीरान-ए-क़फ़स लो तुमसे अब रुख़सत हमारी है

किसी पहलू नहीं आराम आता तेरे आशिक को
दिल-ए-मुज़्तर तड़पता है निहायत बेक़रारी है

सफ़ाई देखते ही दिल फड़क जाता है बिस्मिल का
अरे जल्लाद तेरे तेग़ की क्या आब-दारी है

दिला अब तो फ़िराक़-ए-यार में यह हाल है अपना
कि सर ज़ानू पर है और ख़ून दह आँखों से जारी है

इलाही ख़ैर कीजो कुछ अभी से दिल धड़कता है
सुना है मंज़िले औवल की पहली रात भारी है

'रसा' महव-ए-फ़साहत दोस्त क्या दुश्मन भी हैं सारे
ज़माने में तेरे तर्ज़-ए-सुख़न की यादगारी है

(आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहारी=बसंत का आगमन, गुलरू=
पुष्प्मुखी, असीरान-ए-क़फ़स=पिंजरे के कैदी,
मुज़्तर= घबराया हुआ, बिस्मिल=घायल, आब-दारी=चमक,
फ़िराक़=विरह, औवल=अव्वल)

3. असीरान-ए-क़फ़स सेहन-ए-चमन को याद करते हैं

असीरान-ए-क़फ़स सेहन-ए-चमन को याद करते हैं
भला बुलबुल पे यूँ भी ज़ुल्म ऐ सय्याद करते हैं

कमर का तेरे जिस दम नक़्श हम ईजाद करते हैं
तो जाँ फ़रमान आ कर मअनी ओ बहज़ाद करते हैं

पस-ए-मुर्दन तो रहने दे ज़मीं पर ऐ सबा मुझ को
कि मिट्टी ख़ाकसारों की नहीं बर्बाद करते हैं

दम-ए-रफ़्तार आती है सदा पाज़ेब से तेरी
लहद के ख़स्तगाँ उट्ठो मसीहा याद करते हैं

क़फ़स में अब तो ऐ सय्याद अपना दिल तड़पता है
बहार आई है मुर्ग़ान-ए-चमन फ़रियाद करते हैं

बता दे ऐ नसीम-ए-सुब्ह शायद मर गया मजनूँ
ये किस के फूल उठते हैं जो गुल फ़रियाद करते हैं

मसल सच है बशर की क़दर नेमत बअद होती है
सुना है आज तक हम को बहुत वो याद करते हैं

लगाया बाग़बाँ ने ज़ख़्म-ए-कारी दिल पे बुलबुल के
गरेबाँ-चाक ग़ुंचे हैं तो गुल फ़रियाद करते हैं

ब-रंग-ए-ग़ुंचा-लब मज़मूँ तिरे फ़रियाद करते हैं
'रसा' आगे न लिख अब हाल अपनी बे-क़रारी का


(असीरान-ए-क़फ़स=पिंजरे के कैदी, पस-ए-मुर्दन=
मौत के बाद, मुर्ग़ान-ए-चमन=बाग़ के परिन्दे,
नसीम-ए-सुब्ह=प्रात:काल की हवा, ग़ुंचे=कलियां)

4. फिर आई फ़स्ल-ए-गुल फिर ज़ख़्म-ए-दिल रह रह के पकते हैं

फिर आई फ़स्ल-ए-गुल फिर ज़ख़्म-ए-दिल रह रह के पकते हैं
मगर दाग़-ए-जिगर पर सूरत-ए-लाला लहकते हैं

नसीहत है अबस नासेह बयाँ नाहक़ ही बकते हैं
जो बहके दुख़्त-ए-रज़ से हैं वो कब इन से बहकते हैं

कोई जा कर कहो ये आख़िरी पैग़ाम उस बुत से
अरे आ जा अभी दम तन में बाक़ी है सिसकते हैं

न बोसा लेने देते हैं न लगते हैं गले मेरे
अभी कम-उम्र हैं हर बात पर मुझ से झिझकते हैं

वो ग़ैरों को अदा से क़त्ल जब बेबाक करते हैं
तो उस की तेग़ को हम आह किस हैरत से तकते हैं

उड़ा लाए हो ये तर्ज़-ए-सुख़न किस से बताओ तो
दम-ए-तक़दीर गोया बाग़ में बुलबुल चहकते हैं
कि मिस्ल-ए-शीशा मेरे पाँव के छाले झलकते हैं
'रसा' की है तलाश-ए-यार में ये दश्त-पैमाई

(फ़स्ल-ए-गुल=बसंत-ऋतु, अबस=व्यर्थ, नासेह=
उपदेशक, दुख़्त-ए-रज़=अंगूर की बेटी,मदिरा,
बेबाक=निडरतापूर्वक, हैरत=आश्चर्य, तर्ज़-ए-सुख़न=
कहने की शैली,बोलना, दश्त-पैमाई=जंगल में
भटकना)

5. आ गई सर पर क़ज़ा लो सारा सामाँ रह गया

आ गई सर पर क़ज़ा लो सारा सामाँ रह गया
ऐ फ़लक क्या क्या हमारे दिल में अरमाँ रह गया

बाग़बाँ है चार दिन की बाग़-ए-आलम में बहार
फूल सब मुरझा गए ख़ाली बयाबाँ रह गया

इतना एहसाँ और कर लिल्लाह ऐ दस्त-ए-जुनूँ
बाक़ी गर्दन में फ़क़त तार-ए-गरेबाँ रह गया

याद आई जब तुम्हारे रूप रौशन की चमक
मैं सरासर सूरत-ए-आईना हैराँ रह गया

ले चले दो फूल भी इस बाग़-ए-आलम से न हम
वक़्त-ए-रहलत हैफ़ है ख़ाली ही दामाँ रह गया

मर गए हम पर न आए तुम ख़बर को ऐ सनम
हौसला अब दिल का दिल ही में मिरी जाँ रह गया

ना-तवानी ने दिखाया ज़ोर अपना ऐ 'रसा'
सूरत-ए-नक़्श-ए-क़दम मैं बस नुमायाँ रह गया
नातवानी[8] ने दिखाया ज़ोर अपना ऐ 'रसा'
सूरते नक्शे क़दम मैं बस नुमायाँ[9] रह गया

(क़ज़ा=मौत, फ़लक=आसमान,आकाश,
लिल्लाह=ईश्वर के लिए, जुनूँ=पाग़लपन,
वक़्त-ए-रहलत=महायात्रा, हैफ़=शोक,
ना-तवानी=कमज़ोरी)

6. गले मुझको लगा लो ऐ दिलदार होली में

गले मुझको लगा लो ऐ दिलदार होली में
बुझे दिल की लगी भी तो ऐ यार होली में

नहीं ये है गुलाले-सुर्ख उड़ता हर जगह प्यारे
ये आशिक की है उमड़ी आहें आतिशबार होली में

गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझको भी जमाने दो
मनाने दो मुझे भी जानेमन त्योहार होली में

है रंगत जाफ़रानी रुख अबीरी कुमकुम कुछ है
बने हो ख़ुद ही होली तुम ऐ दिलदार होली में

रस गर जामे-मय गैरों को देते हो तो मुझको भी
नशीली आँख दिखाकर करो सरशार होली में

(गुलाले-सुर्ख=लाल गुलाल, आतिश=आग)

7. उसको शाहनशही हर बार मुबारक होवे

उसको शाहनशही हर बार मुबारक होवे
कैसरे हिन्द का दरबार मुबारक होवे

बाद मुद्दत के हैं देहली के फिरे दिन या रब
तख़्त ताऊस तिलाकार मुबारक होवे

बाग़वाँ फूलों से आबाद रहे सहने चमन
बुलबुलो गुलशने बे-ख़ार मुबारक होवे

एक इस्तूद में हैं शेखो बिरहमन दोनों
सिजदः इनको उन्हें जुन्नार मुबारक होवे

मुज़दऐ दिल कि फिर आई है गुलिस्ताँ में बहार
मैकशो खानये खुम्मार मुबारक होवे

दोस्तों के लिए शादि हो गुलज़ार मुबारक होवे
खार उनको इन्हें गुलज़ार मुबारक होवे
ज़मज़मों ने तेरे बस कर दिए लब बंद 'रसा'
यह मुबारक तेरी गुफ़्तार मुबारक होवे

8. ख़याल-ए-नावक-ए-मिज़्गाँ में बस हम सर पटकते हैं

ख़याल-ए-नावक-ए-मिज़्गाँ में बस हम सर पटकते हैं
हमारे दिल में मुद्दत से ये ख़ार-ए-ग़म खटकते हैं

रुख़-ए-रौशन पे उस की गेसू-ए-शब-गूँ लटकते हैं
क़यामत है मुसाफ़िर रास्ता दिन को भटकते हैं

फ़ुग़ाँ करती है बुलबुल याद में गर गुल के ऐ गुलचीं
सदा इक आह की आती है जब ग़ुंचे चटकते हैं

रिहा करता नहीं सय्याद हम को मौसम-ए-गुल में
क़फ़स में दम जो घबराता है सर दे दे पटकते हैं

उड़ा दूँगा 'रसा' मैं धज्जियाँ दामान-ए-सहरा की
अबस ख़ार-ए-बयाबाँ मेरे दामन से अटकते हैं

(नावक-ए-मिज़्गाँ=पलक-वाण, ख़ार=काँटा,
गेसू-ए-शब-गूँ=रात जैसे काले बाल, क़यामत=
प्रलय, फ़ुग़ाँ=आह, गुलचीं=पुष्प चुनने वाला,
ग़ुंचे=कलियाँ, कफ़स=पिंजड़ा, दामान=अंचल,
सहरा=जंगल, अबस=व्यर्थ)

9. ग़ज़ब है सुर्मा दे कर आज वो बाहर निकलते हैं

ग़ज़ब है सुर्मा दे कर आज वो बाहर निकलते हैं
अभी से कुछ दिल-ए-मुज़्तर पर अपने तीर चलते हैं

ज़रा देखो तो ऐ अहल-ए-सुख़न ज़ोर-ए-सनाअत को
नई बंदिश है मजनूँ नूर के साँचे में ढलते हैं

बुरा हो इश्क़ का ये हाल है अब तेरी फ़ुर्क़त में
कि चश्म-ए-ख़ूँ-चकाँ से लख़्त-ए-दिल पैहम निकलते हैं

हिला देंगे अभी ऐ संग-दिल तेरे कलेजे को
हमारी आह-ए-आतिश-बार से पत्थर पिघलते हैं

तिरा उभरा हुआ सीना जो हम को याद आता है
तो ऐ रश्क-ए-परी पहरों कफ़-ए-अफ़्सोस मिलते हैं
किसी पहलू नहीं चैन आता है उश्शाक़ को तेरे
तड़पते हैं फ़ुग़ाँ करते हैं और करवट बदलते हैं
रसा हाजत नहीं कुछ रौशनी की कुंज-ए-मरक़द में
बजाए-शम्अ याँ दाग़-ए-जिगर हर वक़्त जलते हैं

(मुज़्तर=घबराए हुए, अहल-ए-सुख़न=कविगण,
सनाअत=व्यंजना, फ़ुर्कत=विरह, चश्म-ए-ख़ूँ-चकाँ=
ख़ून टपकाने वाली आंख,लख़्त-ए-दिल=दिल का
टुकड़ा, पैहम=सदा, आतिश-बार=अग्निवर्षक,
कफ़=हथेली, उश्शाक़=आशिकों, फ़ुग़ाँ=रोना-
चिल्लाना, हाजत=ज़रूरत, कुंज-ए-मरक़द=क़ब्र)

10. उठा के नाज़ से दामन भला किधर को चले

उठा के नाज़ से दामन भला किधर को चले
इधर तो देखिए बहर-ए-ख़ुदा किधर को चले

मिरी निगाहों में दोनों जहाँ हुए तारीक
ये आप खोल के ज़ुल्फ़-ए-दोता किधर को चले

अभी तो आए हो जल्दी कहाँ है जाने की
उठो न पहलू से ठहरो ज़रा किधर को चले

ख़फ़ा हो किस पे भंवें क्यूँ चढ़ी हैं ख़ैर तो है
ये आप तेग़ पे धर कर जिला किधर को चले

मुसाफ़िरान-ए-अदम कुछ कहो अज़ीज़ों से
अभी तो बैठे थे है है भला किधर को चले

चढ़ी हैं तेवरियाँ कुछ है मिज़ा भी जुम्बिश में
ख़ुदा ही जाने ये तेग़-ए-अदा किधर को चले

गया जो मैं कहीं भूले से उन के कूचे में
तो हँस के कहने लगे हैं रसा किधर को चले

(बहर-ए-ख़ुदा=ख़ुदा के लिये, तारीक=काले,
अदम=मौत के बाद का संसार)

11.

जहाँ देखो वहाँ मौजूद मेरा कृष्ण प्यारा है
उसी का सब है जल्वा जो जहाँ में आश्कारा है

भला मख़्लूक़ ख़ालिक़ की सिफ़त समझे कहाँ क़ुदरत
उसी से नेति नेति ऐ यार दीदों ने पुकारा है

न कुछ चारा चला लाचार चारों हार कर बैठे
बिचारे बेद ने प्यारे बहुत तुम को बेचारा है

जो कुछ कहते हैं हम यही भी तिरा जल्वा है इक वर्ना
किसे ताक़त जो मुँह खोले यहाँ हर शख़्स हारा है

तिरा दम भरते हैं हिन्दू अगर नाक़ूस बजता है
तुझे भी शैख़ ने प्यारे अज़ाँ दे कर पुकारा है

जो बुत पत्थर हैं तो काबे में क्या जुज़-ख़ाक-ओ-पत्थर हैं
बहुत भूला है वो इस फ़र्क़ में सर जिस ने मारा है

न होते जल्वा-गर तुम तो ये गिरजा कब का गिर जाता
नसारा को भी तो आख़िर तुम्हारा ही सहारा है

तुम्हारा नूर है हर शय में कह सो कोई तक प्यारे
उसी से कह के हर हर तुम को हिन्दू ने पुकारा है

गुनह बख़्शो रसाई दो रसा को अपने क़दमों तक
बुरा है या भला है जैसा है प्यारे तुम्हारा है

(आश्कारा=दृष्टमान, दीदों=आंखें, नाक़ूस=शंख,
नसारा=ईसाई, रसाई=पहुंच)

12. दश्त-पैमाई का गर क़स्द मुकर्रर होगा

दश्त-पैमाई का गर क़स्द मुकर्रर होगा
हर सर-ए-ख़ार पए-आबला नश्तर होगा

मय-कदे से तिरा दीवाना जो बाहर होगा
एक में शीशा और इक हाथ में साग़र होगा

हल्क़ा-ए-चशम-ए-सनम लिख के ये कहता है क़लम
बस कि मरकज़ से क़दम अपना न बाहर होगा

दिल न देना कभी इन संग-दिलों को यारो
चूर होवेगा जो शीशा तह-ए-पत्थर होगा

देख लेता वो अगर रुख़ की तजल्ली तेरे
आइना ख़ाना-ए-मायूसी में शश्दर होगा

चाक कर डालूँगा दामान-ए-कफ़न वहशत से
आस्तीं से न मिरा हाथ जो बाहर होगा

ऐ 'रसा' जैसा है बरगश्ता ज़माना हम से
ऐसा बरगश्ता किसी का न मुक़द्दर होगा

(दश्त-पैमाई=जंगल में भटकना, क़स्द=कोशिश,
आबला=छाला, तजल्ली=चमक, बरगश्ता=नाराज़)

13. हज़ल (हास्य ग़ज़ल)

गाती हूँ मैं औ नाच सदा काम है मेरा
ए लोगो शुतुरमुर्ग परी नाम है मेरा

फन्दे से मेरे कोई निकलने नहीं पाता
इस गुलशने आलम में बिछा दाम है मेरा

दो-चार टके ही पै कभी रात गंवा दूं
कारुं का खजाना तभी इनआम है मेरा

पहले जो मिले कोई तो जी उसका लुभाना
बस कार यही तो सहरो शाम है मेरा

शुरफा व रूज़ला एक हैं दरबार में मेरे
कुछ खास नहीं फ़ैज तो इक आम है मेरा

बन जाएँ चुगद तब तो उन्हें मूड़ ही लेना
खाली हों तो कर देना धता काम है मेरा

ज़र मज़हबो मिल्लत मेरा बन्दी हूँ मैं ज़र की
ज़र ही मेरा अल्लाह है ज़र राम है मेरा

(आलम=संसार, ज़र=सोना)

14. हज़ल (हास्य ग़ज़ल)

नींद आती ही नहीं धड़के की बस आवाज़ से
तंग आया हूँ मैं इस पुर-सोज़ दिल के साज़ से

दिल पिसा जाता है उन की चाल के अंदाज़ से
हाथ में दामन लिए आते हैं वो किस नाज़ से

सैकड़ों मुर्दे जलाए हो मसीहा नाज़ से
मौत शर्मिंदा हुई क्या क्या तिरे एजाज़ से

बाग़बाँ कुंज-ए-क़फ़स में मुद्दतों से हूँ असीर
अब खुले पर भी तो मैं वाक़िफ़ नहीं पर्वाज़ से

क़ब्र में सोए हैं महशर का नहीं खटका रसा
बाज़ आए ऐ मसीहा हम तिरे एजाज़ से

वाए ग़फ़लत भी नहीं होती कि दम भर चैन हो
चौंक पड़ता हूँ शिकस्त-ए-होश की आवाज़ से

नाज़ मअशूक़ाना से ख़ाली नहीं है कोई बात
मेरे लाशे को उठाए हैं वो किस अंदाज़ से

कब्र में सोए हैं महशर का नहीं खटका ‘रसा’
चौंकने वाले हैं कब हम सूर की आवाज़ से

(महशर=क़यामत, क़फ़स=पिंजरा, असीर=कैदी,
पर्वाज़=उड़ान)

15. फ़साद-ए-दुनिया मिटा चुके हैं हुसूल-ए-हस्ती मिटा चुके हैं

फ़साद-ए-दुनिया मिटा चुके हैं हुसूल-ए-हस्ती मिटा चुके हैं
ख़ुदाई अपने में पा चुके हैं मुझे गले ये लगा चुके हैं

नहीं नज़ाकत से हम में ताक़त उठाएँ जो नाज़-ए-हूर-ए-जन्नत
कि नाज़-ए-शमशीर-ए-पुर-नज़ाकत हम अपने सर पर उठा चुके हैं

नजात हो या सज़ा हो मेरी मिले जहन्नम कि पाऊँ जन्नत
हम अब तो उन के क़दम पे अपना गुनह-भरा सर झुका चुके हैं

नहीं ज़बाँ में है इतनी ताक़त जो शुक्र लाएँ बजा हम उन का
कि दाम-ए-हस्ती से मुझ को अपने इक हाथ में वो छुड़ा चुके हैं

वजूद से हम अदम में आ कर मकीं हुए ला-मकाँ के जा कर
हम अपने को उन की तेग़ खा कर मिटा मिटा कर बना चुके हैं

यही हैं अदना सी इक अदा से जिन्हों ने बरहम है कि ख़ुदाई
यही हैं अक्सर क़ज़ा के जिन से फ़रिश्ते भी ज़क उठा चुके हैं

ये कह दो बस मौत से हो रुख़्सत क्यूँ नाहक़ आई है उस की शामत
कि दर तलक वो मसीह-ख़सलत मिरी अयादत को आ चुके हैं

जो बात माने तो ऐन शफ़क़त न माने तो ऐन हुस्न-ए-ख़ूबी
'रसा' भला हम को दख़्ल क्या अब हम अपनी हालत सुना चुके हैं

16. फिर मुझे लिखना जो वस्फ़-ए-रू-ए-जानाँ हो गया

फिर मुझे लिखना जो वस्फ़-ए-रू-ए-जानाँ हो गया
वाजिब इस जा पर क़लम को सर झुकाना हो गया

सर-कशी इतनी नहीं ज़ालिम है ओ ज़ुल्फ़-ए-सियह
बस कि तारीक अपनी आँखों में ज़माना हो गया

ध्यान आया जिस घड़ी उस के दहान-ए-तंग का
हो गया दम बंद मुश्किल लब हिलाना हो गया

ऐ अज़ल जल्दी रिहाई दे न बस ताख़ीर कर
ख़ाना-ए-तन भी मुझे अब क़ैद-ख़ाना हो गया

आज तक आईना-वश हैरान है इस फ़िक्र में
कब यहाँ आया सिकंदर कब रवाना हो गया

दौलत-ए-दुनिया न काम आएगी कुछ भी बअद-ए-मर्ग
है ज़मीं में ख़ाक क़ारूँ का ख़ज़ाना हो गया

बात करने में जो लब उस के हुए ज़ेर-ओ-ज़बर
एक साअत में तह-ओ-बाला ज़माना हो गया

देख ली रफ़्तार उस गुल की चमन में क्या सबा
सर्व को मुश्किल क़दम आगे बढ़ाना हो गया

जान दी आख़िर क़फ़स में अंदलीब-ए-ज़ार ने
मुज़्दा है सय्याद वीराँ आशियाना हो गया

ज़िंदा कर देता है इक दम में ये ईसा-ए-नफ़स
खेल इस को गोया मुर्दे को जिलाना होगा

तौसन-ए-उम्र-ए-रवाँ दम भर नहीं रुकता 'रसा'
हर नफ़स गोया उसी का ताज़ियाना हो गया

17. बाल बिखेरे आज परी तुर्बत पर मेरे आएगी

बाल बिखेरे आज परी तुर्बत पर मेरे आएगी
मौत भी मेरी एक तमाशा आलम को दिखलाएगी

महव-ए-अदा हो जाऊँगा गर वस्ल में वो शरमाएगी
बार-ए-ख़ुदाया दिल की हसरत कैसे फिर बर आएगी

काहीदा ऐसा हूँ मैं भी ढूँडा करे न पाएगी
मेरी ख़ातिर मौत भी मेरी बरसों सर टकराएगी

इश्क़-ए-बुताँ में जब दिल उलझा दीन कहाँ इस्लाम कहाँ
वाइज़ काली ज़ुल्फ़ की उल्फ़त सब को राम बनाएगी

चंगा होगा जब न मरीज़-ए-काकुल-ए-शब-गूँ हज़रत से
आप की उल्फ़त ईसा की अब अज़्मत आज मिटाएगी

बहर-अयादत भी जो न आएँगे न हमारे बालीं पर
बरसों मेरे दिल की हसरत सर पर ख़ाक उड़ाएगी

देखूँगा मेहराब-ए-हरम याद आएगी अबरू-ए-सनम
मेरे जाने से मस्जिद भी बुत-ख़ाना बन जाएगी

ग़ाफ़िल इतना हुस्न पे ग़र्रा ध्यान किधर है तौबा कर
आख़िर इक दिन सूरत ये सब मिट्टी में मिल जाएगी

आरिफ़ जो हैं उन के हैं बस रंज ओ राहत एक 'रसा'
जैसे वो गुज़री है ये भी किसी तरह निभ जाएगी

18. बुत-ए-काफ़िर जो तू मुझ से ख़फ़ा है

बुत-ए-काफ़िर जो तू मुझ से ख़फ़ा है
नहीं कुछ ख़ौफ़ मेरा भी ख़ुदा है

ये दर-पर्दा सितारों की सदा है
गली-कूचा में गर कहिए बजा है

रक़ीबों में वो होंगे सुर्ख़-रू आज
हमारे क़त्ल का बेड़ा लिया है

यही है तार उस मुतरिब का हर रोज़
नया इक राग ला कर छेड़ता है

शुनीदा कै बवद मानिंद-ए-दीद
तुझे देखा है हूरों को सुना है

पहुँचता हूँ जो मैं हर रोज़ जा कर
तो कहते हैं ग़ज़ब तू भी 'रसा' है

19. बैठे जो शाम से तिरे दर पे सहर हुई

बैठे जो शाम से तिरे दर पे सहर हुई
अफ़्सोस ऐ क़मर कि न मुतलक़ ख़बर हुई

अरमान-ए-वस्ल यूँही रहा सो गए नसीब
जब आँख खुल गई तो यकायक सहर हुई

दिल आशिक़ों के छिद गए तिरछी निगाह से
मिज़्गाँ की नोक-ए-दुश्मन-ए-जानी जिगर हुई

पछताता हूँ कि आँख अबस तुम से लड़ गई
बर्छी हमारे हक़ में तुम्हारी नज़र हुई

छानी कहाँ न ख़ाक न पाया कहीं तुम्हें
मिट्टी मिरी ख़राब अबस दर-ब-दर हुई

ध्यान आ गया जो शाम को उस ज़ुल्फ़ का 'रसा'
उलझन में सारी रात हमारी बसर हुई

20. रहे न एक भी बेदाद-गर सितम बाक़ी

रहे न एक भी बेदाद-गर सितम बाक़ी
रुके न हाथ अभी तक है दम में दम बाक़ी

उठा दुई का जो पर्दा हमारी आँखों से
तो काबे में भी रहा बस वही सनम बाक़ी

बुला लो बालीं पे हसरत न दिल में मेरे रहे
अभी तलक तो है तन में हमारे दम बाक़ी

लहद पे आएँगे और फूल भी उठाएँगे
ये रंज है कि न उस वक़्त होंगे हम बाक़ी

ये चार दिन के तमाशे हैं आह दुनिया के
रहा जहाँ में सिकंदर न और न जम बाक़ी

तुम आओ तार से मरक़द पे हम क़दम चूमें
फ़क़त यही है तमन्ना तिरी क़सम बाक़ी

'रसा' ये रंज उठाया फ़िराक़ में तेरे
रहे जहाँ में न आख़िर को आह हम बाक़ी

21. दिल मिरा तीर-ए-सितमगर का निशाना हो गया

दिल मिरा तीर-ए-सितमगर का निशाना हो गया
आफ़त-ए-जाँ मेरे हक़ में दिल लगाना हो गया

हो गया लाग़र जो उस लैला-अदा के इश्क़ में
मिस्ल-ए-मजनूँ हाल मेरा भी फ़साना हो गया

ख़ाकसारी ने दिखाया बअद मुर्दन भी उरूज
आसमाँ तुर्बत पर मेरे शामियाना हो गया

ख़्वाब-ए-ग़फ़लत से ज़रा देखो तो कब चौंके हैं हम
क़ाफ़िला मुल्क-ए-अदम को जब रवाना हो गया

फ़स्ल-ए-गुल में भी रिहाई की न कुछ सूरत हुई
क़ैद में सय्याद मुझ को इक ज़माना हो गया

दिल जलाया सूरत-ए-परवाना जब से इश्क़ में
फ़र्ज़ तब से शम्अ पर आँसू बहाना हो गया

आज तक ऐ दिल जवाब-ए-ख़त न भेजा यार ने
नामा-बर को भी गए कितना ज़माना हो गया

पास-ए-रुस्वाई से देखो पास आ सकते नहीं
रात आई नींद का तुम को बहाना हो गया

हो परेशानी सर-ए-मू भी न ज़ुल्फ़-ए-यार को
इस लिए मेरा दिल-ए-सद-चाक शाना हो गया

बअद मुर्दन कौन आता है ख़बर को ऐ रसा
ख़त्म बस कुंज-ए-लहद तक दोस्ताना हो गया

22. दुनिया में हाथ पैर हिलाना नहीं अच्छा

दुनिया में हाथ पैर हिलाना नहीं अच्छा।
मर जाना पै उठके कहीं जाना नहीं अच्छा ।।

बिस्तर प मिस्ले लोथ पड़े रहना हमेशा।
बंदर की तरह धूम मचाना नहीं अच्छा ।।

"रहने दो जमीं पर मुझे आराम यहीं है।"
छेड़ो न नक्शेपा है मिटाना नहीं अच्छा ।।

उठा करके घर से कौन चले यार के घर तक।
‘‘मौत अच्छी है पर दिल का लगाना नहीं अच्छा ।।

धोती भी पहिने जब कि कोई गैर पिन्हा दे।
उमरा को हाथ पैर चलाना नहीं अच्छा ।।

सिर भारी चीज है इसे तकलीफ हो तो हो।
पर जीभ विचारी को सताना नहीं अच्छा ।।

फाकों से मरिए पर न कोई काम कीजिए।
दुनिया नहीं अच्छी है जमाना नहीं अच्छा ।।

सिजदे से गर बिहिश्त मिले दूर कीजिए।
दोजख़ ही सही सिर का झुकाना नहीं अच्छा ।।

मिल जाय हिंद खाक में हम काहिलों को क्या।
ऐ मीरे फर्श रंज उठाना नहीं अच्छा ।।

('भारतदुर्दशा' में से)

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