गीत-अगीत : गोपालदास नीरज

Geet-Ageet : Gopal Das Neeraj

1. गीत-विश्व चाहे या न चाहे

विश्व चाहे या न चाहे,
लोग समझें या न समझें,
आ गए हैं हम यहाँ तो गीत गाकर ही उठेंगे।

हर नज़र ग़मगीन है, हर होठ ने धूनी रमाई,
हर गली वीरान जैसे हो कि बेवा की कलाई,
ख़ुदकुशी कर मर रही है रोशनी तब आँगनों में
कर रहा है आदमी जब चाँद-तारों पर चढ़ाई,
फिर दियों का दम न टूटे,
फिर किरन को तम न लूटे,
हम जले हैं तो धरा को जगमगा कर ही उठेंगे।
विश्व चाहे या न चाहे....

हम नहीं उनमें हवा के साथ जिनका साज़ बदले,
साज़ ही केवल नहीं अंदाज़ औ आवाज़ बदले,
उन फ़कीरों-सिरफिरों के हमसफ़र हम, हमउमर हम,
जो बदल जाएँ अगर तो तख़्त बदले ताज बदले,
तुम सभी कुछ काम कर लो,
हर तरह बदनाम कर लो,
हम कहानी प्यार की पूरी सुनाकर ही उठेंगे।
विश्व चाहे या न चाहे...

नाम जिसका आँक गोरी हो गई मैली सियाही,
दे रहा है चाँद जिसके रूप की रोकर गवाही,
थाम जिसका हाथ चलना सीखती आँधी धरा पर
है खड़ा इतिहास जिसके द्वार पर बनकर सिपाही,
आदमी वह फिर न टूटे,
वक़्त फिर उसको न लूटे,
जिन्दगी की हम नई सूरत बनाकर ही उठेंगे।
विश्व चाहे या न चाहे....

हम न अपने आप ही आए दुखों के इस नगर में,
था मिला तेरा निमंत्रण ही हमें आधे सफ़र में,
किन्तु फिर भी लौट जाते हम बिना गाए यहाँ से
जो सभी को तू बराबर तौलता अपनी नज़र में,
अब भले कुछ भी कहे तू,
खुश कि या नाखुश रहे तू,
गाँव भर को हम सही हालत बताकर ही उठेंगे।
विश्व चाहे या न चाहे....

इस सभा की साज़िशों से तंग आकर, चोट खाकर
गीत गाए ही बिना जो हैं गए वापिस मुसाफ़िर
और वे जो हाथ में मिज़राब पहने मुशकिलों की
दे रहे हैं जिन्दगी के साज़ को सबसे नया स्वर,
मौर तुम लाओ न लाओ,
नेग तुम पाओ न पाओ,
हम उन्हें इस दौर का दूल्हा बनाकर ही उठेंगे।
विश्व चाहे या न चाहे....

2. सारा जग बंजारा होता

प्यार अगर थामता न पथ में उँगली इस बीमार उमर की
हर पीड़ा वैश्या बन जाती, हर आँसू आवारा होता।

निरवंशी रहता उजियाला
गोद न भरती किसी किरन की,
और ज़िन्दगी लगती जैसे-
डोली कोई बिना दुल्हन की,
दुख से सब बस्ती कराहती, लपटों में हर फूल झुलसता
करुणा ने जाकर नफ़रत का आँगन गर न बुहारा होता।
प्यार अगर...

मन तो मौसम-सा चंचल है
सबका होकर भी न किसी का
अभी सुबह का, अभी शाम का
अभी रुदन का, अभी हँसी का
और इसी भौंरे की ग़लती क्षमा न यदि ममता कर देती
ईश्वर तक अपराधी होता पूरा खेल दुबारा होता।
प्यार अगर...

जीवन क्या है एक बात जो
इतनी सिर्फ समझ में आए-
कहे इसे वह भी पछताए
सुने इसे वह भी पछताए
मगर यही अनबूझ पहेली शिशु-सी सरल सहज बन जाती
अगर तर्क को छोड़ भावना के सँग किया गुज़ारा होता।
प्यार अगर...

मेघदूत रचती न ज़िन्दगी
वनवासिन होती हर सीता
सुन्दरता कंकड़ी आँख की
और व्यर्थ लगती सब गीता
पण्डित की आज्ञा ठुकराकर, सकल स्वर्ग पर धूल उड़ाकर
अगर आदमी ने न भोग का पूजन-पात्र जुठारा होता।
प्यार अगर...

जाने कैसा अजब शहर यह
कैसा अजब मुसाफ़िरख़ाना
भीतर से लगता पहचाना
बाहर से दिखता अनजाना
जब भी यहाँ ठहरने आता एक प्रश्न उठता है मन में
कैसा होता विश्व कहीं यदि कोई नहीं किवाड़ा होता।
प्यार अगर...

हर घर-आँगन रंग मंच है
औ’ हर एक साँस कठपुतली
प्यार सिर्फ़ वह डोर कि जिस पर
नाचे बादल, नाचे बिजली,
तुम चाहे विश्वास न लाओ लेकिन मैं तो यही कहूँगा
प्यार न होता धरती पर तो सारा जग बंजारा होता।
प्यार अगर...

3. मैं पीड़ा का राजकुँवर हूँ

मैं पीड़ा का राजकुँवर हूँ तुम शहज़ादी रूप नगर की
हो भी गया प्यार हम में तो बोलो मिलन कहाँ पर होगा ?

मीलों जहाँ न पता खुशी का
मैं उस आँगन का इकलौता,
तुम उस घर की कली जहाँ नित
होंठ करें गीतों का न्योता,
मेरी उमर अमावस काली और तुम्हारी पूनम गोरी
मिल भी गई राशि अपनी तो बोलो लगन कहाँ पर होगा ?
मैं पीड़ा का...

मेरा कुर्ता सिला दुखों ने
बदनामी ने काज निकाले
तुम जो आँचल ओढ़े उसमें
नभ ने सब तारे जड़ डाले
मैं केवल पानी ही पानी तुम केवल मदिरा ही मदिरा
मिट भी गया भेद तन का तो मन का हवन कहाँ पर होगा ?
मैं पीड़ा का...

मैं जन्मा इसलिए कि थोड़ी
उम्र आँसुओं की बढ़ जाए
तुम आई इस हेतु कि मेंहदी
रोज़ नए कंगन जड़वाए,
तुम उदयाचल, मैं अस्ताचल तुम सुखान्तकी, मैं दुखान्तकी
जुड़ भी गए अंक अपने तो रस-अवतरण कहाँ पर होगा ?
मैं पीड़ा का...

इतना दानी नहीं समय जो
हर गमले में फूल खिला दे,
इतनी भावुक नहीं ज़िन्दगी
हर ख़त का उत्तर भिजवा दे,
मिलना अपना सरल नहीं है फिर भी यह सोचा करता हूँ
जब न आदमी प्यार करेगा जाने भुवन कहाँ पर होगा ?
मैं पीड़ा का...

4. सारा जग मधुबन लगता है

दो गुलाब के फूल छू गए जब से होठ अपावन मेरे
ऐसी गंध बसी है मन में सारा जग मधुबन लगता है।

रोम-रोम में खिले चमेली
साँस-साँस में महके बेला,
पोर-पोर से झरे मालती
अँग-अँग जुड़े जुही का मेला
पग-पग लहरे मानसरोवर, डगर-डगर छाया कदम्ब की
तुम जब से मिल गए उमर का खँडहर राजभवन लगता है।
दो गुलाब के फूल....

छिन-छिन ऐसा लगे कि कोई
बिना रंग के खेले होली,
यूँ मदमाएँ प्राण कि जैसे
नई बहू की चंदन डोली
जेठ लगे सावन मनभावन और दुपहरी साँझ बसंती
ऐसा मौसम फिरा धूल का ढेला एक रतन लगता है।
दो गुलाब के फूल....

जाने क्या हो गया कि हरदम
बिना दिये के रहे उजाला,
चमके टाट बिछावन जैसे
तारों वाला नील दुशाला
हस्तामलक हुए सुख सारे दुख के ऐसे ढहे कगारे
व्यंग्य-वचन लगता था जो कल वह अब अभिनन्दन लगता है।
दो गुलाब के फूल....

तुम्हें चूमने का गुनाह कर
ऐसा पुण्य कर गई माटी
जनम-जनम के लिए हरी
हो गई प्राण की बंजर घाटी
पाप-पुण्य की बात न छेड़ों स्वर्ग-नर्क की करो न चर्चा
याद किसी की मन में हो तो मगहर वृन्दावन लगता है।
दो गुलाब के फूल....

तुम्हें देख क्या लिया कि कोई
सूरत दिखती नहीं पराई
तुमने क्या छू दिया, बन गई
महाकाव्य कोई चौपाई
कौन करे अब मठ में पूजा, कौन फिराए हाथ सुमरिनी
जीना हमें भजन लगता है, मरना हमें हवन लगता है।
दो गुलाब के फूल....

5. उनकी याद हमें आती है

मधुपुर के घनश्याम अगर कुछ पूछें हाल दुखी गोकुल का
उनसे कहना पथिक कि अब तक उनकी याद हमें आती है।

बालापन की प्रीति भुलाकर
वे तो हुए महल के वासी,
जपते उनका नाम यहाँ हम
यौवन में बनकर संन्यासी
सावन बिना मल्हार बीतता, फागुन बिना फाग कट जाता,
जो भी रितु आती है बृज में वह बस आँसू ही लाती है।
मधुपुर के घनश्याम...

बिना दिये की दीवट जैसा
सूना लगे डगर का मेला,
सुलगे जैसे गीली लकड़ी
सुलगे प्राण साँझ की बेला,
धूप न भाए छाँह न भाए, हँसी-खुशी कुछ नहीं सुहाए,
अर्थी जैसे गुज़रे पथ से ऐसे आयु कटी जाती है।
मधुपुर के घनश्याम...

पछुआ बन लौटी पुरवाई,
टिहू-टिहू कर उठी टिटहरी,
पर न सिराई तनिक हमारे,
जीवन की जलती दोपहरी,
घर बैठूँ तो चैन न आए, बाहर जाऊँ भीड़ सताए,
इतना रोग बढ़ा है ऊधो ! कोई दवा न लग पाती है।
मधुपुर के घनश्याम...

लुट जाए बारात कि जैसे...
लुटी-लुटी है हर अभिलाषा,
थका-थका तन, बुझा-बुझा मन,
मरुथल बीच पथिक ज्यों प्यासा,
दिन कटता दुर्गम पहाड़-सा जनम कैद-सी रात गुज़रती,
जीवन वहाँ रुका है आते जहाँ ख़ुशी हर शरमाती है।
मधुपुर के घनश्याम...

क़लम तोड़ते बचपन बीता,
पाती लिखते गई जवानी,
लेकिन पूरी हुई न अब तक,
दो आखर की प्रेम-कहानी,
और न बिसराओ-तरसाओ, जो भी हो उत्तर भिजवाओ,
स्याही की हर बूँद कि अब शोणित की बूँद बनी जाती है।
मधुपुर के घनश्याम...

6. खिड़की बन्द कर दो

अब सही जाती नहीं यह निर्दयी बरसात-
खिड़की बन्द कर दो।

यह खड़ी बौछार, यह ठंडी हवाओं के झकोरे,
बादलों के हाथ में यह बिजलियों के हाथ गोरे
कह न दें फिर प्राण से कोई पुरानी बात-
खिड़की बन्द कर दो।

वो अकेलापन कि अपनी सांस लगती फाँस जैसी,
काँपती पीली शिखा दिखती दिये की लाश जैसी,
जान पड़ता है न होगा इस निशा का प्रात-
खिड़की बन्द कर दो।

था यही वह वक्त मेरे वक्ष में जब शिर छिपाकर,
था कहा तुमने तुम्हारी प्रीति है मेरी महावर,
बन गई कालिख तुम्हें पर अब वही सौगात-
खिड़की बन्द कर दो।

अब न तुम वह, अब न मैं वह, वे न मन में कामनायें,
आँसुओं में घुल गईं अनमोल सारी भावनायें,
किसलिए चाहूँ चढे फिर उम्र की बारात-
खिड़की बन्द कर दो।

रो न मेरे मन, न गीला आँसुओं से कर बिछौना,
हाथ मत फैला पकड़ने को लड़कपन का खिलौना,
मेंह-पानी में निभाता कौन किसका साथ-
खिड़की बन्द कर दो।

7. अब सहा जाता नहीं

अब तुम्हारे बिन नहीं लगता कहीं भी मन-
बताओ क्या करूँ?

नींद तक से हो गई है आजकल अनबन-
बताओ क्या करूँ?

धूप भाती है न भाती छाँव है,
गेह तक लगता पराया गाँव है,
और इस पर रात आती है बहुत बनठन-
बताओ क्या करूँ?

चैन है दिन में न कल है रात में,
क्योंकि चिड़-चिड़ कर ज़रा-सी बात में,
हर खुशी करने लगी है दिन-ब-दिन अनशन-
बताओ क्या करूँ?

पर्व हो या तीज या त्योहार हो,
हो शरद हेमन्त या पतझार हो,
हो गई हैं सब धुनें इकबारगी बेधुन-
बताओ क्या करूँ?

तन मचलता है लजीली बाँह को,
मन तड़पता है अलक की छाँव को,
लौटकर फिर आ गया है प्रीति का बचपन-
बताओ क्या करूँ?

वक्ष जिस पर सिर तुम्हारा था टिका,
होंठ जिन पर गीत तुमने था लिखा,
हैं सुलगते आज यूँ छिन-छिन कि ज्यों ईधन-
बताओ क्या करूँ?

यह उदासी यह अकेलापन सघन
या जलन यह दाह यह उमड़न घुटन,
अब सहा जाता नहीं यह साँस का ठनगन-
बताओ क्या करूँ?

8. तुम ही नहीं मिले जीवन में

पीड़ा मिली जनम के द्वारे अपयश पाया नदी किनारे
इतना कुछ मिल गया एक बस तुम ही नहीं मिले जीवन में ।

हुई दोस्ती ऐसी दुख से
हर मुशकिल बन गई रुबाई,
इतना प्यार जलन कर बैठी
क्वाँरी ही मर गई जुन्हाई,
बगिया में न पपीहा बोला, द्वार न कोई उतरा डोला,
सारा दिन कट गया बीनते बाँटे उलझे हुए वसन में ।
पीड़ा मिली जनम के द्वारे...

कहीं चुरा ले चोर न कोई
दर्द तुम्हारा, याद तुम्हारी,
इसीलिए जगकर जीवन-भर
आँसू ने की पहरेदारी,
बरखा गई सुने बिन वंशी औ' मधुमास रहा निरवंशी,
गुजर गई हर रितु ज्यों कोई भिक्षुक दम तोड़ दे विजन में।
पीड़ा मिली जनम के द्वारे...

घट भरने को छलके पनघट
सेज सजाने दौड़ी कलियाँ,
पर तेरी तलाश में पीछे
छूट गई सब रस की गलियाँ,
सपने खेल न पाये होली, अरमानों के लगी न रोली,
बचपन झुलस गया पतझर में, जीवन भीग गया सावन में।
पीड़ा मिली जनम के द्वारे...

मिट्टी तक तो रूँदकर जग में
कंकड़ से बन गई खिलौना,
पर हर चोट ब्याह करके भी
मेरा सूना रहा बिछौना,
नहीं कहीं से पाती आई, नहीं कहीं से मिली बधाई
सूनी ही रह गई डाल इस इतने फूलों-भरे चमन में
पीड़ा मिली जनम के द्वारे...

तुम ही हो जिसकी ख़ातिर
निशि-दिन घूम रही यह तकली
तुम ही यदि न मिले तो है सब
व्यर्थ कताई असती-नकली,
अब तो और न देर लगाओ, चाहे किसी रूप में आओ,
एक सूत-भर की दूरी है बस दामन में और कफ़न में ।
पीड़ा मिली जनम के द्वारे...

9. बिन धागे की सुई ज़िन्दगी

मेरा जीवन बिखर गया है, तुम चुन लो कंचन बन जाऊँ ।

तुम पारस मेँ अयस अपावन,
तुम अमरित, मैं विष की बेली,
तृप्ति तुम्हारी चरणन चेरी
तृष्णा मेरी निपट सहेली,

तन- मन भूखा जीवन भूखा
सारा खेत पड़ा है सूखा
तुम बरसो अब तनिक तो
मैं आषाढ़ सावन बन जाऊँ
मेरा जीवन बिखर गया है…

यश की बनी अनुचरी प्रतिभा,
बिकी अर्थ के हाथ भावना,
काम-क्रोध का द्वारपाल मन,
लालच के घर रेहन कामना,

अपना ज्ञान न जग का परिचय
बिना मंच का सारा अभिनय,
सूत्रधार तुम बनो अगर तो
में अदृश्य दर्शन बन जाऊँ।
मेरा जीवन बिखर गया...

बिन धागे की सुई ज़िन्दगी
सिये न कुछ बस चुभ-चुभ जाए,
कटी पतंग समान सृष्टि यह
ललचाए, पर हाथ न आए,

रीती झोली जर्जर कंथा,
अटपट मौसम, दुस्तर पंथा,
तुम यदि साथ रहो तो फिर मैं
मुक्तक रामायण बन जाऊँ।
मेरा जीवन बिखर गया है...

बुदबुद तक मिटकर हिलोर इक
उठा गया सागर अकूल में,
पर मैं ऐसा मिटा कि अब तक
फूल न बना, न मिला धूल में,

कब तक और सहूँ यह पीड़ा
अब तो खत्म करों प्रभु! क्रीड़ा,
इतनी दो न थकान कि जब तुम
आओ; मैं दृग खोल न पाऊँ।
मेरा जीवन बिखर गया है...

10. जीवन नहीं मरा करता

छुप-छुप अश्रु बहाने वालो !
मोती व्यर्थ लुटाने वालो !
कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है ।

सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुई आँख का पानी,
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी,
गीली उमर बनाने वालो !
डूबे बिना नहाने वालो !
कुछ पानी के बह जाने से सावन नहीं मरा करता है ।

माला बिखर गई तो क्या है,
ख़ुद ही हल हो गई समस्या,
आँसू ग़र नीलाम हुए तो,
समझो पूरी हुई तपस्या,
रूठे दिवस मनाने वालो !
फ़टी कमीज़ सिलाने वालो !
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आंगन नहीं मरा करता है ।

खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी।
जैसे रात उतार चाँदनी
पहने सुबह धूप की धोती,
वस्त्र बदलकर आने वालो!
चाल बदलकर जाने वालो !
चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है ।

लाखों बार गगरियाँ फूटीं,
शिक़न न पर आई पनघट पर
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल-पहल वो ही है तट पर
तम की उमर बढ़ाने वालो !
लौ की आयु घटाने वालो !
लाख करे पतझर कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है ।

लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी न लेकिन गंध फूल की,
तूफ़ानों तक ने छेड़ा पर,
खिड़की बंद न हुई धूल की,
नफ़रत गले लगाने वालो !
सब पर धूल उड़ाने वालो !
कुछ मुखड़ों की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है ।

11. सारा बाग़ नज़र आता है

मैंने तो सोचा था तेरी छाया तक से दूर रहूँगा,
चला मगर तो जाना हर पथ तेरे ही घर को जाता है।

इतने बदले पंथ कि जीवन
ही बन गया एक चौरस्ता,
सूखा पर न कभी जो भेंटा
तूने सुधियों का गुलदस्ता,
जाने यह कौन-सा दर्द है, जाने यह कौन-सा कर्ज़ है,
जिसे चुकाने हर सौदागर कपड़े बदल-बदल आता है।

तुमसे छिपने की कोशिश में
ओढ़ गुनाह लिया हर कोई
याद न आती रात मगर जब
आँख न छिप-छिप कर हो रोई
कैसे तुझसे रिश्ता टूटे, कैसे तुझसे नाता छूटे
मरघट के रस्ते में भी तो तेरा पनघट मुस्काता है।

कोई सुमन न देखा जिसमें
बसी न तेरी गंध-श्वास हो,
कोई आँसू मिला न जिसको
तेरे अंचल की तलाश हो,
चाहे हो वह किसी रंक की, चाहे हो वह किसी राव की,
तू ही तो बनकर कहार हर डोली नैहर से लाता है।

जब तक तेरा दर्द नहीं था
श्वास अनाथ, उमर थी क्वाँरी
खुशियाँ तो हैं दूर, न दुख
तक से थी कोई रिश्तेदारी,
लेकिन तेरा प्यार हृदय को जगा गया, उस दिन से मुझ को
छोटी से छोटी पत्ती में सारा बाग़ नज़र आता है।

12. रीती गागर का क्या होगा

माखन चोरी कर तूने कम तो कर दिया बोझ ग्वालिन का
लेकिन मेरे श्याम बता अब रीती गागर का क्या होगा ?

युग-युग चली उमर की मथनी
तब झलकी दधि में चिकनाई,
पिरा-पिरा हर सांस उठी जब
तब जाकर मटकी भर पाई,

एक कंकड़ी तेरे कर की
किन्तु न जाने आ किस दिशि से
पलक मारते लूट ले गई
जनम-जनम की सकल कमाई,
पर है कुछ न शिकायत तुझ से, केवल इतना ही बतला दे,
मोती सब चुग गया हंस तब मानसरोवर का क्या होगा?
माखन चोरी कर तूने…

सजने को तो सज जाती है
मिट्टी यह हर एक रतन से,
शोभा होती किन्तु और ही
मटकी की टटके माखन से,
इस द्वारे से उस द्वारे तक
इस पनघट से उस पनघट तक
रीता घट है बोझ धरा पर
निर्मित हो चाहे कंचन से,
फिर भी कुछ न मुझें दु:ख अपना चिन्ता यदि कुछ है तो यह है
वंशी धुनी बताएगा जो उस वंशीधर का क्या होगा?
माखन चोरी कर तूने...

दुनिया रस की हाट, सभी को
खोज यहाँ रस की क्षण-क्षण है,
रस का ही तो भोग जनम है,
रस का ही तो त्याग मरण है,

और सकल धन धूल, सत्य
तो धन है बस नवनीत हृदय का,
वही नहीं यदि पास, बड़े से
बड़ा धनी फिर तो निर्धन है,
अब न नचेगी यह गूजरिया, ले जा अपनी कुर्ती फरिया,
रितु ही जब रसहीन हुई तो पचरंग चूनर का क्या होगा?
माखन चोरी कर तूने…

देख समय हो गया पैंठ का
पथ पर निकल पड़ी हर मटकी
केवल मैं ही निज देहरी पर
सहमी-सकुची, अटकी-भटकी,

पास नहीं गो-रस कुछ भी
कैसे तेरे गोकुल आऊं?
कैसे इतनी ग्वालिनियों में
लाज बचाऊं अपने घट की,
या तो इसको फिर से भर दे, या इसके सौ टुकड़े कर दे
निर्गुण जब हो गया सगुन, तब इस आडम्बर का क्या होगा ?
माखन चोरी कर तूने...

जब तक थी भरपूर मटकिया,
सौ-सौ चोर खड़े थे द्वारे,
अनगिन चिंताएँ थीं मन में
गेह जड़े थे लाख किवाड़े,

किन्तु कट गई अब हर साँकल
और हो गई हल हर मुश्किल
अब परवाह नहीं इतनी भी
नाव लगे किस नदी-किनारे,
सुख-दुख हुए समान सभी पर फिर भी एक प्रश्न बाक़ी है
वीतराग हो गया मनुज तो, बूढ़े ईश्वर का क्या होगा?
माखन चोरी कर तूने...

13. मात्र परछाईं हूँ

अब मैं तुम्हारे लिए व्यक्ति नहीं
मात्र परछाईं हूँ

जब तुम्हारे माथे पर रात थी,
पाँव तले धरती कठोर,
और सामने असीम घन-अंधकार,
तब मैं तुम्हारे लिए दीप था
तुम्हारा क्वाँरी प्रकृति का पुरुष,
और तुम्हारी प्रश्नवती आँखों का उत्तर ।
लेकिन अब तुम्हारी आँखों में
प्रश्न नहीं-स्वप्न है
पाँवों में कंप नहीं-गति है
हाथों में मेरे खत के बजाय
हीरे की अँगूठी है,
सामने सूरज
और पीछे शहनाई है।
जब मैं तुम्हारे लिए व्यक्ति नहीं
मात्र परछाईं हूँ ।

14. खिड़की खुली

खिड़की खुली,
सावन का पहला झोंका आया,
दो-चार बूँदें साथ लाया;
तन सिहरा,
मन बिखरा,
कमरा सुवास में नहा गया;
पर न जाने क्यों-
आँखों में आँसू एक आ गया ।
खिड़की खुली...

15. मोती हूँ मैं

मोती हूँ मैं,
किसी एक सीपी में बन्द
अंधे समुद्र के गर्भ में पड़ा हूँ,
तल के निकट
मगर तट से दूर ।

दिन बीते,
मास बीते,
वर्ष बीते,
मौसम आए गए;
लेकिन मैं वहीं हूँ
रख गई बी जहाँ मुझे
युगों पहले
नन्ही-सी लहर एक काल की।

असह अब अकेलापन,
खोल का सीमित व्यक्तित्व
व्यर्थ है दर्पनिका-कान्ति-
तन का वंचक कृतित्व !

जो मेरे उद्धारक !
पनडुब्बे-गोताखोर ।
इस जल-समाधि से बाहर निकाल मुझे;
ताकि मैं भी देख सकूँ-
तट पर यात्रियों के पद-चिह्न
जहाजों की क़तार,
आँधी-तूफान का खेल ।
और गुंथकर किसी माला में-
सुन सकूँ-
मृत लहरों की बजाय
हृदय का धड़कन संगीत
जीवन की आवाज़।

16. द्वैताद्वैत

हम एक किताब के दो पृष्ठ हैं--
एक में गुम्फित होकर भी हम दो हैं,
एक सूत्र में सूत्रित होकर भी हम दो हैं।

यद्यपि मुझ पर अंकित अंतिम वाक्य
तुम पर जाकर पृपुर होता है
और तुम पर अंकित पहला वाक्य
मुझ से शुरु होता है,
फिर भी हम दो हैं।

यद्यपि तुम्हारे अर्थ का संदर्भ मैं,
और मेरे अर्थ का संदर्भ तुम हो,
फिर भी हम दो हैं।

यद्यपि हमारे जिल्दसाज़ ने मोड़कर
हमें दो से एक किया है,
फिर भी हम दो हैं!

क्योंकि हम किताब के दो पृष्ठ हैं
और किताब एक पृष्ठ की नहीं होती।

17. पायदान

निर्मम पदाघात,
मिट्टी,
धूल,
कीचड़,
सभी कुछ धारण किया वक्ष पर
बिना प्रतिवाद;
(ताकि)
स्वच्छ रहे आँगन,
निरोग रहे कक्ष
जहाँ पल रहे हैं, सपने
… जिन्हें कहते हैं भविष्य ।
फिर भी
मुझे जगह मिली बाहर
देहरी के पास,
जहाँ शायद ही पहुंचे कभी
घर में महकती चमेली की सुवास ।

18. हरिण और मृगजल

जो प्यासे हरिण !
जल की खोज में तू दौड़ा,
जीवन की अन्तिम श्वास तक तू दौड़ा,
रेगिस्तान के इस छोर से उस छोर तक तू दौड़ा ।

और जब आज तू
विवश-निरुपाय
दो बूँद जल के बिना
इस जलती रेत पर
छोड़ता है दम जैसे भोर का दिया असहाय-

तब तुझे
यह सत्य जानकर
दुख है पश्चाताप है
कि जिसकी तलाश में,
जिसके सम्मोहन में
तूने यह यात्रा की,
सारी धूप सर से गुज़ार दी,
वह जल नहीं-भ्रम था,
रेत के चमकते कणों का
मोहक भुलावा था-
धोखा था, छल था ।

लेकिन, ओ हरिण !
प्यास से पीड़ित अतृप्ति के चरण !
खेद मत कर निज पराजय पर,
दोष मत दे उस जलमाया को,
बल्कि आभार मान उस मिथ्या सम्मोहन का
जिसने तुझे प्यास दी, अतृप्ति दी,
तेरे थके चरणों को गति दी,
यात्रा-अनुरक्ति दी।
वह भ्रम न होता तो
तू भी किसी कोने में पड़ा-पड़ा मर जाता,
पतझर के पात-सा अचीन्हा-
अदेखा ही बिखर जाता।

सदा तू छला गया,
वंचित अतृप्त रहा,
इसीलिए तो तू
रुकने की एवज़ में चला-
लपटों-अंगारों से भिड़ा,
बीच ही में खो गए हज़ारों जहाँ काफ़िले
उस असीम काल के मरुस्थल में
आँधी के वेग-सा बढ़ा
और यह जान सका-
मृग-जल जो भ्रम है
वह जीवन है, गति है
जल जो सत्य है
वह अगति है
मरण की स्वीकृति है ।
ओ प्यासे हरिण !
प्यास से अतृप्ति के चरण !

19. धनी और निर्धन

ढेर था मिट्टी का
रास्ते पर पड़ा हुआ
त्यक्त-अस्पृश्य !

निकला एक कुंभकार
बोला-
मैं हूँ पीड़ित अशान्त,
चल मेरे साथ,
तुझे चाक पर चढ़ाऊँगा
और कुछ बना कर तुझे रोटी कमाऊँगा ।

ढेर कुछ बोला नहीं
मौन हो लिया उसके साथ
घर जाकर कुटा-पिटा
आवे में पका,
और बाज़ार में खिलौना बनकर बिका ।
मिटा भी तो भूखे को भोजन जुटाकर मिटा-
क्योकि वह ढेर नहीं, श्रम था।
x x x

20. बेशरम समय शरमा ही जाएगा

बेशरम समय शरमा ही जाएगा

बूढ़े अंबर से माँगो मत पानी
मत टेरो भिक्षुक को कहकर दानी
धरती की तपन न हुई अगर कम तो
सावन का मौसम आ ही जाएगा

मिट्टी का तिल-तिलकर जलना ही तो
उसका कंकड़ से कंचन होना है
जलना है नहीं अगर जीवन में तो
जीवन मरीज का एक बिछौना है
अंगारों को मनमानी करने दो
लपटों को हर शैतानी करने दो
समझौता न कर लिया गर पतझर से
आँगन फूलों से छा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...

वे ही मौसम को गीत बनाते जो
मिज़राब पहनते हैं विपदाओं की
हर ख़ुशी उन्हीं को दिल देती है जो
पी जाते हर नाख़ुशी हवाओं की
चिंता क्या जो टूटा हर सपना है
परवाह नहीं जो विश्व न अपना है
तुम ज़रा बाँसुरी में स्वर फूँको तो
पपीहा दरवाजे गा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...

जो ऋतुओं की तक़दीर बदलते हैं
वे कुछ-कुछ मिलते हैं वीरानों से
दिल तो उनके होते हैं शबनम के
सीने उनके बनते चट्टानों से
हर सुख को हरजाई बन जाने दो,
हर दु:ख को परछाई बन जाने दो,
यदि ओढ़ लिया तुमने ख़ुद शीश कफ़न,
क़ातिल का दिल घबरा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...

दुनिया क्या है, मौसम की खिड़की पर
सपनों की चमकीली-सी चिलमन है,
परदा गिर जाए तो निशि ही निशि है
परदा उठ जाए तो दिन ही दिन है,
मन के कमरों के दरवाज़े खोलो
कुछ धूप और कुछ आँधी में डोलो
शरमाए पाँव न यदि कुछ काँटों से
बेशरम समय शरमा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...

  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण काव्य रचनाएँ : गोपालदास नीरज
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)