एक कंठ विषपायी (काव्य-नाटक) : दुष्यन्त कुमार (हिन्दी कविता)

Ek Kanth Vishpayi (Kavya Natak) : Dushyant Kumar

पात्र

1. सर्वहत, 2. शंकर, 3. ब्रह्मा, 4. विष्णु, 5. इन्द्र,
6. दक्ष, 7. वीरिणी, 8. वरुण, 9. कुबेर,
10. शेष, 11. द्वारपाल, 12. अनुचर,
13. एक सिपाही, 14. दूसरा सिपाही

वीरिणी

शिथिल व्यवस्था नहीं
हृदय की सहज-जात दुर्बलता है यह ।
जैसे हर मनुष्य
अपनी सामर्थ्य और सीमा के भीतर
जीवित
किसी सत्य से सहसा कट जाने पर
व्याकुल हो उठता
या क्रोधित हो उठता है,
वैसे ही आप भी दुखी हैं
अपने घर की
सोनचिरैया उड़ जाने पर ।

दृश्य: एक

(स्थान : प्रजापति दक्ष का राजकीय गौरव के
अनुरूप सुसज्जित निजी कक्ष जहां वे अपनी पत्नी
वीरिणी के साथ किसी अत्यन्त गंभीर प्रश्न पर
विचार-विमर्श कर रहे हैं ।)

दक्ष

शंकर !
शंकर !!
वह, जिसने घर की परम्परा तोड़ी है,
वह, जिसने मेरे यश पर कालिख पोती है,
जिसके कारण
मेरा माथा नीचा है सारे समाज में,
मेरे ही घर अतिथि-रूप में आए ?
यह तुम क्या कहती हो ?

वीरिणी

स्वामी !
हमको इच्छा के विरुद्ध भी
ऐसे बहुत कार्य करने पड़ते हैं
जिनसे
लौकिक मर्यादाओं का पालन होता है ?

शंकर अपने जामाता हैं ।

इतना बड़ा यज्ञ
इतना विशाल आयोजन
जिसमें आमंत्रित हैं
तीनों लोकों के प्रतिनिधि
समस्त ऋषि
और देव गण…
जिसमें सारे सम्बन्धी आए हैं
सबका अलग भाग है
उसमें जामाताओं का भी हक होता है ।

दक्ष

जामाता ?
मैं तो उसको सम्बन्धी कहने में
खुद को अपमानित अनुभव करता हूं
देवि !
क्या सम्बन्धी का यह अर्थ नहीं
कि हमारी कोमल

अथवा

मधुर स्नेह की धारा से
कोई संयुक्त हो ?
क्या सम्बन्धों का निर्माण
घृणा पर,
हठ पर,
और अनिच्छा पर भी संभव हो सकता है ?

वीरिणी

स्वामी, मैं तो अल्प-बुद्धि हूं,
किंतु मुझे लगता है…
लौकिक सम्बन्धों में,
इच्छा और अनिच्छा का कोई आधार
नहीं होता है ।
किसी विवश-क्षण से जुड़ जाते हैं हम यों ही
फिर उससे सम्बन्ध आप ही हो जाते हैं ।

अपनी कन्या ने भी शायद
किसी विवश-क्षण में
शंकर का वरण किया था ।

दक्ष

वरण किया था
अथवा शंकर ने उसका अपहरण किया था ?

वीरिणी

आप इसे अपहरण कहेंगे ?

दक्ष

हां, अपहरण ।
देवि !
मैं निश्चय ही इसको अपहरण कहुंगा
क्या अबोध मन को फुसलाकर
देवत्वों का जाल बिछाकर
विविध प्रलोभन देकर
उसे जीत लेना-
अपहरण नहीं है ?
सती बालिका थी
अबोध थी
और अविकसित बुद्धि किशोरों-सी
थी उसके आकर्षण में ।
तुम उसकी कैशोर्य-भूल को क्षम्य कहोगी
पर शंकर तो-
खुद को महादेव कहता है ।

वीरिणी

सभी लोग कहते हैं स्वामी
केवल कहने भर से उनकी
अपनी महिमा बढ़ जाती है ।
शंकर का देवत्व
लोक में स्वयं-सिद्ध है,
उनका संयम विश्व-विदित है
और
सती ने इसीलिए
शंकर को महादेव माना था
अपनी अनासक्ति को तजकर
दुर्वह नंदा-व्रत ठाना था
नाथ !
अगर किशोरों वाला आग्रह
होता उसके आकर्षण में,
तो वह शासन के आदेशों पर झुक जाती,
एक प्रलोभन
अथवा भय से,
उसकी सब दृढ़ता चुक जाती ।
अगर सचाई का बल
उसके साथ न होता
तो शंकर की
संयम-शिला कदापि न हिलती,
अपनी पुत्री सती,
इस तरह आत्म-तुष्ट या सुखी न मिलती ।

दक्ष

सच है देवि !
मेरी मर्यादाओं को अपमानित करके
मेरे घर की
लोक-प्रतिष्ठा की हत्या कर
मेरे ही रक्त ने सृजन का सुख पाया है ।
-यह अपवाद विरल है
लेकिन
शंकर के मोह में सती ने
अपने

अथवा अपने पति के
दुर्भाग्यों को उकसाया है ।
तुमको बतलाए देता हूँ--
सारे भद्र-लौक से उसे
बहिष्कृत करके छोड़ूंगा मैं ।

उन दोनों ने केवल मेरी
बाह्य प्रतिष्ठा खंडित की है
उनकी आत्म-प्रतिष्ठा का भ्रम तोड़ूंगा मैं ।
यह यज्ञायोजन विराट
उनके अभाव का श्रीगणेश है ।
हर अवसर
हर आयोजन पर
अपनी अवहेलना देखकर
शंकर का देवत्व स्वयं ही झुलस उठेगा
इतनी बड़ी उपेक्षा
और अवज्ञा
उसको सह्य न होगी ।

(क्रूर हँसी हँसते हुए)

उसको अपनी महाशक्ति का बड़ा दर्प है
मेरी कूटनीति भी देखे...

(हँसता है)

(सहसा कक्ष में एक भृत्य प्रवेश करता है)

भृत्य

प्रभु !
राजकुमार सुलभ ने
अपने निजी कक्ष के द्वार बन्द कर
अभी एक चिड़िया को बन्दी बना लिया है,
कहने पर भी
उसको मुक्त नहीं करते हैं ।

दक्ष

क्या कहता है ?

भृत्य

कहते हैं-
इससे खेलूंगा ।

दक्ष

तो फिर उसे खेलने दो ।

भृत्य

लेकिन प्रभु
उस चिड़िया की ची: ची: से-
उसकी कातर ध्वनि से
सारा वातावरण त्रस्त है ।
नन्हें-नन्हें पंखों की कातर आवाजें
अन्त:पुर में गूंज रही हैं ।
सारे भृत्य सहमकर
अपने कार्य छोड़कर
उसी कक्ष के निकट खड़े हैं ।
वातायन से
सारा कौतुक देख रहे हैं ।

दक्ष

उनसे कहो
कार्य पर जाएँ ।

भृत्य

मैंने सबसे कह देखा
वे मेरी बात नहीं सुनते हैं ।
कहते हैं-
कार्य के लिए है हमें शक्ति की आवश्यकता
ऐसी हाय-हाय में क्षण भर
हमसे कार्य नहीं हो सकता ।
पहले इस चिड़िया को मुक्त कराओ…

दक्ष

कौन मूर्ख ऐसा कहता है
उसको मेरे सम्मुख लाओ...

वीरिणी

अच्छा सर्वहते !
तुम जाओ ।
सुलभे से जाकर कह देना
महाराज की आज्ञा है यह
मुक्त किया जाए पक्षी को
कहना-
स्वयं राजमाता आने वाली हैं
और तुम्हारे इस कुकृत्य पर
बहुत रुष्ट हैं ।
इस पर भी यदि कहा न माने
तो तुम बल-प्रयोग से
उसके द्वार खोलकर
मुक्त करा देना पक्षी को ।

सर्वहत

जैसी आज्ञा ।

(चला जाता है)

दक्ष

(एक पल वीरिणी की ओर देखकर)
देवि !
तुम्हारा हृदय बहुत कोमल है ।

वीरिणी

और आपका बहुत वज्र है…
जो अपने ऐसे पवित्र आयोजन द्वारा
अपने जामाता को
अपना शत्रु बनाने पर उद्यत है ।

दक्ष

मैनें नहीं देवि,
उसने ही
मुझे विवश करके,
अपमानित करके
अपना शत्रु बनाया,
मेरी भोली-भाली कन्या को बहकाया ।

वीरिणी

लेकिन स्वामी
नर-नारी के सम्बन्धों में
इससे भी ज्यादा अनहोनी घटनाएं
घटती रहती हैं
परिणय, नारी की परिणति है ।
और स्वयं आप ही बताएँ…
क्या अपनी कन्या को
शंकर से अच्छा वर मिल सकता था ?

लगता है
आपको
सती के जाने का आघात लगा है
पितृ-हृदय की ममता को
धक्का पहुँचा है ।

दक्ष

(गंभीर होकर सोचते हुए)
एक नहीं
मुझको अनेक आघात लगे हैं
देवि !
यदि शंकर की सती कामना थी
तो सीधे मुझसे कहता ।
देवलोक में
इतनी परिचर्चा की क्या आवश्यकता थी ?
क्या आवश्यकता थी बोलो
इस रूपक के आलम्बन की
व्यर्थ प्रेम के नाम
हमारी लोक-हँसाई, बदनामी की
-परम्पराओं के खंडन की…।

इस पर भी तुम
उसे यज्ञ में आमंत्रित करने की
अभिलाषा रखती हो ?

वीरिणी

मेरा तो उद्देश्य
मात्र इतना है स्वामी…
अपना आयोजन अबाध, निर्विघ्न पूर्ण हो
सबका मंगल योग प्राप्त हो ।
सबका इसमें भाग-भोग हो ।
स्वामी,
यदि कैलासनाथ रह गये उपेक्षित
तो अपनी सब प्रजा क्या कहेगी ?
...यह सोचें ।
क्या सोचेगी सती,
...आपकी पुत्री
उस पर क्या बीतेगी ?
क्या उसको मालूम न होगा…
पितृलोक में आज…
यज्ञ का आयोजन है ।
और आपने तो
उसको भी नहीं बुलाया ।

दक्ष

हाँ,
उसको भी नहीं बुलाया ।
ताकि उसे मालूम हो सके,
वे अपने को
अपमानित अनुभव कर पाएँ
इसीलिए मैंने चुन-चुनकर
हर कैलास-लोक के प्रतिवेशी को
आमंत्रण भेजा है ।

वीरिणी

क्षमा करें
पर इसमें कोई भी नैतिकता-
निहित नहीं है ।

दक्ष

मुझे मान्य है
किंतु देवि
यह राजनयिकों की भाषा है
इसकी शब्दावली अलग है ।
इसमें उत्तम या उदात्त-से
भावों के अभिव्यक्तीकरण को
समुचित शब्द नहीं होते हैं ।

वीरिणी

किंन्तु...
सती या महादेव तो इस भाषा को
नहीं जानते ।
उन दोनों की भाषा तो मेरी जैसी है ।
शायद मेरी भाषा से भी
अधिक सुकोमल !
अधिक प्रेममय !!
आप अगर उनकी भाषा-से
राजनीति के अर्थ निकालें
तो यह उन दोनों के ही प्रति
न्याय न होगा ।

सर्वहत

प्रभु,
मैंने आदेश-बद्ध हो
बल-प्रयोग से द्वार खोलकर
मुक्त कर दिया था पक्षी को...।
...तब से राजकुमार रुष्ट हैं
अपने को अपमानित अनुभव करते हैं...
भृत्यों को अपशब्द कह रहे हैं...
निजी अनुचरों को भी
अपने पास नहीं आने देते हैं ।
और कक्ष का क्रम बिगाड़कर
सभी वस्तुएँ अस्त-व्यस्त कर फेंक रहे हैं ।
शस्त्र लिए हैं
और मुझे दंडित करने को खोज रहे हैं ।

दक्ष

(सहसा कुपित होते हुए)
बिल्कुल ठीक कर रहा है वह ।
एक तनिक से बालक को
प्रसन्न रखने में अक्षम
तुम सब दंडनीय हो ।
जाओ तुम
मेरी आँखों के आगे से तत्क्षण हट जाओ
और... सुनो-
ये छोटी-छोटी बातें लेकर
फिर से मेरे पास न आना

(सर्वहत शीश झुकाकर चला जाता है)

देखा देवि !
अन्त:पुर की शिथिल व्यवस्था का यह फल है ।

वीरिणी

शिथिल व्यवस्था नहीं
हृदय की सहज-जात दुर्बलता है यह ।
जैसे हर मनुष्य
अपनी सामर्थ्य और सीमा के भीतर
जीवित
किसी सत्य से सहसा कट जाने पर
व्याकुल हो उठता
या क्रोधित हो उठता है,
वैसे ही अपना सुलभा भी
विवश दुखी है ।

(मुस्कराकर)

वैसे ही आप भी दुखी हैं
अपने घर की सोनचिरैया उड़ जाने पर ।

दक्ष

(कटुता से तिलमिलाकर)
देवि !
तुम्हें असमय परिहास याद आते हैं ।
वही पिष्टपेषित
नारियों-सरीखी
बासी
क्षुद्र उक्तियाँ ।
वे ही पिटी-पिटाई बातें…

द्वारपाल

(प्रथानुसार प्रवेश करते हुए)
प्रभु ने
आगन्तुक ऋत्विज
ऋषि, देव-गणों की
वास-व्यवस्था के जो-जो आदेश दिये थे
उनका दोष-रहित निष्पादन
महामात्य के संरक्षण में पूर्ण हो गया ।
किंतु द्वार पर
महामात्य का अनुचर
कोई गुप्त और आत्यन्तिक
उनका सन्देशा लेकर आया है…।
क्या आज्ञा है ?

दक्ष

उसको आने दो ।

द्वारपाल

जो आज्ञा ।

(प्रस्थान)

वीरिणी

मेरी दांई आँख- फरकने लगी अचानक
सहसा बैठे-बैठे
मेरा जी अकुलाया ।
अभी-अभी
मेरे हृत्कंपन की गति
कैसी तेज़ हो गई,
आंखों के सामने
अँधेरा-सा घिर आया ।

(भयभीत होकर)

...ऐसा लगता है
जैसे कोई अनिष्ट होने वाला है ।

दक्ष

देवि !
क्या यह भी परिहास-व्यंग्य की
एक विधा है ?
...अगर सत्य है
तो तुमको विश्राम चाहिये
और कुछ नहीं ।
नारी का शंकालु स्वभाव सदैव
इष्ट में भी अनिष्ट की
आशंका रचता आया है ।

(द्वारपाल के साथ महामात्य के
अनुचर का प्रवेश)

अनुचर

(झुककर प्रणाम करते हुए)
प्रभु की इच्छानुसार
यथा-योग्य
सारे अमंत्रित ऋषि,
देव और राजप्रमुख,
समुचित सत्कार
तथा सुविधा के साथ
यज्ञ-मंडप में पहुंच गए ।
सभारंभ में यद्यपि है विलम्ब
किन्तु...
वहाँ आपकी प्रतीक्षा है ।

दक्ष

क्यों ?
क्या किसी अथिति के
आवास की व्यवस्था में त्रुटि निकली ?

अनुचर

नहीं देव !
वह सब निर्दोष और उत्तम है ।
किन्तु...

वीरिणी

(उत्सुकता के साथ उसके निकट आकर)
इस प्रकार चुप क्यों हो ?
बोलो...
क्या दुविधा है ?
बोलो ना ।

अनुचर

राजसुता...
सती
महादेव शंकर के गणों और नंदी के साथ
यज्ञ-मंडप में पहुँच गईं !

दक्ष

सती ?

वीरिणी

सती !
सती आ गई ?

(वीरिणी का मुख सहज उल्लास की
आभा से दीप्त हो उठता है)

अनुचर

हां राजमाता !

वीरिणी

तो फिर उसे यहां क्यों नहीं लाए ?
क्या तुमको विदित नहीं
सारे अतिथियों को
यज्ञ-मंडप में ले जाने से पूर्व,
उनके विश्रान्ति-भवन-कक्षों में
स्नान
और यात्रा के श्रम के परिहार हेतु
लाना आवश्यक है ।

अनुचर

मुझे विदित है ।

दक्ष

(आवेश में)
क्या तुम्हें विदित है
इस यज्ञ के विराट आयोजन में
उसको आमंत्रण तक नहीं गया ?

अनुचर

मुझे विदित है प्रभु,
इसीलिए महामात्य चिंतित हैं ?
प्रभु के आदेश
प्राप्त करने के लिए मुझे भेजा है ।
राजसुता सती की व्यवस्था
क्या होगी प्रभु ?

वीरिणी

तुम उसे तुरन्त
यहाँ ले आओ ।

दक्ष

नहीं ।
उसको कैलास-लोक पहुँचा दो ।

अनुचर

उनको अन्त:पुर में आना स्वीकार्य नहीं ।
कहती हैं
अनाहूत आई हूँ
महलों में क्यों जाऊं ?
और प्रभु !
क्षमा करें
सती यज्ञ-मंडप में क्रुद्ध
महादेव पति की अवज्ञा पर क्षुब्ध
धर्म और शासन की
मर्यादा भंग कर
अतिथि
और
आतिथेय
सबको अपशब्द कह रही हैं...

वीरिणी

(सहसा क्रोध में भरकर)
चुप हो जायो असभ्य !
सत्य नहीं कहते हो तुम
हमको, मर्यादा और धर्म समझाते हो ।
जानते हो
सती के स्वभाव की कर्त्री मैं हूं
मैं !...
मैं जानती हूं...

(रुंधे कंठ से)

मैं जानती हूं-
मेरी पुत्री क्या है
और कैसी है...?

दक्ष

सत्य कह रहे हो तुम ।
समझ गया ।
ठहरो, मैं चलता हुँ ।
अनाहूत, अनिमंत्रित लोगों को क्या हक है
आकर
आलोचना करें मेरी
और
धर्म की पवित्र मर्यादाएँ तोड़ दें ।
क्या हक है
आतिथेय
अथवा अतिथियों पर क्रोधित हों
अपना विवेक और संतुलन छोड दें ।

सती से अपेक्षित था
उसका या शंकर का
कोई स्थान नहीं है जब,
तो वह चुपचाप वहाँ
प्रजा में खड़ी होकर
यज्ञ का सम्पादन देखे
या लौट जाए...।
मैं अपनी मानहानि सहन नहीं कर सकता ।

शंकर ने
सती को बनाकर गोट
चाल जो चली है
मैं समझता हूँ ।

वीरिणी

नहीं नाथ,
यह बिल्कुल मिथ्या है ।
ऐसा कदापि नहीं हो सकता ।
चाहे विद्रोही हो कितना भी
किन्तु रक्त अपना है ।

सती
स्वयं पितृ-मोह-वश ही
यहां आई है ।
आपको विदित है-
वह
वह कितना स्नेह करती थी आपसे ।
-इसीलिए मंडप में
सबका स्थान और भाग देख
बुरा लगा होगा उसे ।
यों ही कुछ कह बैठी होगी वह ।
अपना ही अधिक लाड़ देकर उसे
क्रोधी बनाया है…

दक्ष

हां ।
मैंने बनाया है ।
किन्तु में तोड़ भी सकता हुँ ।

वीरिणी

पर क्या तुम्हारा मन
यह करके
कहीं शांति पाएगा ?
ज्वाला में झुलसेगा अगर फूल
तो क्या धुँआ
डाल और वृक्ष तक न जाएगा ?

दक्ष

कुछ भी हो ।
मैं उसको वापस कैलास-लोक भेजूंगा !
देखी है सती ने यहाँ
-पति की अवज्ञा,

और
अब अपनी पत्नी की अवज्ञा भी-
देखे शिव ।

वीरिणी

नाथ !
ऐसा अविवेक पूर्ण
कोई भी कार्य यदि यज्ञ में हुआ
तो मैँ शपथपूर्वक कहती हूँ
आज
और अभी
और इसी क्षण
मैं आत्मघात कर लूंगी !
देखूंगी
कैसे करोगे यज्ञ ?

नाथ
मेरी अन्तिम विनती है यह
सती अगर आई है
तो उसको वापस न भेजें अब !
-जाने क्यों
आप भूल जाते हैं-
सती-
मात्र पत्नी नहीं है शिव शंकर की
पुत्री भी है वह किसी की
पत्नी का मान
नाथ !
पतियों की एक सहज आकांक्षा होती है ।
आप तनिक बतलाएँ
मेरे संग क्या कहीं इसी तरह हो जाए
तो क्या तुम आत्मा पर
पर्वत-सा भार वहन कर लोगे ?
मेरा अपमान सहन कर लोगे ?
बालो...

दक्ष

(अतीत कोमलता से विचारते हुए)
सच ही तुम देवि !
बहुत कोमल हो ।
अपना संदर्भ उठाकर तुमने
मेरे ही मन में दुर्बलता जाग्रत कर दी।
चुपके से अन्तर में
जाने कैसी
विवेकहीन भावना भर दी ।

अब तुम विश्वास रखो प्रिये,
शिव के प्रति मेरा आक्रोश
कभी
सती पर न उतरेगा
राजकीय गौरव के योग्य
सती
भाग-भोग पाएगी
यज्ञ में रहेगी वह ।

अनुचर

प्रभु !
यह व्यवस्था मैंने
स्थिति सँभालने के लिए स्वयं
पहले ही कर दी थी
प्रभु के आदेश बिना
बहुत बड़ा निर्णय लिया था,
किन्तु...

वीरिणी

सती ने नहीं माना ।

अनुचर

जी हाँ, प्रभु,
उन्होंने नहीं माना ।

दक्ष

क्यों ?
उसको स्थान
और मान
और यथायाग्य भाग-भोग
सबका आश्वासन मिल गया
और फिर भी वह तुष्ट नहीं

वीरिणी

स्वामी !
पत्नी की मर्यादा
पति की मर्यादा से होती है
और आपके इस आयोजन में
सभी देवताओं के बीच
कहीं शंकर का स्थान नहीं ।
सती
अथवा कोई भी नारी
यह कैसे सह सकती है ?

अनुचर

ठीक यही बात देव !
राजसुता सती ने
महामात्य से कही थी ।
कहा था उन्होंने--
"मेरा घर है यह,
मेरा क्या,
मैं तो प्रजा में खड़ी होकर भी
दर्शक की तरह यज्ञ देखूं तो
मेरी मर्यादा नहीं घटती ।
पर मेरे महादेव शंकर का स्थान
वहाँ
सर्वोपरि आसन के निकट रहे ।"

दक्ष

ऐसा असंभव है ।
उसके चुप होने की अगर यही शर्त है
तो यह असंभव है ।
कह देना
मेरे आयोजन में
शंकर का कोई स्थान नहीं हो सकता ।

अनुचर

मैंने कहा था प्रभु,
इस पर वे
बिगड़ उठीं ?

दक्ष

बिगड़ उठी ?

वीरिणी

अपने इस निर्णय पर
फिर सोचें नाथ !
महादेव अपने जामाता हैं
अन्य नहीं ।
उनका अपमान स्वयं
आत्म-भर्त्सना ही है ।
मैं तो यह कहती हूँ
आप बैर ठानें तीनों लोकों के साथ,
किन्तु शंकर से नहीं ।
उनका आक्रोश वहन करने की
क्षमता त्रिलोक में नहीं है नाथ !
वे हैं साक्षात ब्रह्म…महादेव…

दक्ष

बार-बार शंकर को महादेव कहकर
उसका तेज बतलाकर
क्या तुम मुझे डराती हो ?
..तो सुन लो,
मेरा दृढ़ निश्चय है
मेरे आयोजन में
शंकर का कोई स्थान नहीं होगा ।
यही नहीं
युग-युग तक
किसी यज्ञ अथवा आयोजन में
उसको निमंत्रण तक न जाएगा ।
देखूँ, वह मेरा क्या करता है ?
अपने अतिथियों को आमंत्रित करने की
मुझको स्वतन्त्रता है ।

सती अगर चाहे
तो दर्शक की तरह रहे
वरना वह लौट जाय
मेरा उन दोनों से कोई सम्बन्ध नहीं
मैं उससे स्वयं कहे देता हूं...

(आवेश में दक्ष अनुचर को लेकर
मंच से चला जाता है)

वीरिणी

(स्तंभित सी)
नाथ !
तनिक ठहरो तो
सोचो तो-,
मेरा नहीं, अपना
और अपने इन बच्चों का भाग्य,
और राज्य का भविष्य !
आह ! चले गए !

(आकाश की ओर देखते हुए
उंगली उठाकर)

क्रूर नियति !
वह तेरे हाथों से छले गए
बोल,
मुझे बता,
मुझ पर श्राप क्यों पड़ा तेरा ?
कब मुझसे धर्म की अवज्ञा हुई है ?
कब मैंने शंकर की मानता नहीं मानी
कब मैंने सपने में
किसी अमर्यादा की छाया छुई है ?

सर्वहत

(दुखी-सा प्रवेश करते हुए)
देवि !
आप धैर्य धरें ।
आपके ललाट पर उभर आईं
पीड़ा की रेखाएँ
देखी नहीं जाती हैं ।

वीरिणी

(सर्वहत की उपस्थिति से अनभिज्ञ-सी)
आह !
मैं समझ गई ।
दुर्दिन जब आते हैं
तो पहले
व्यक्ति का स्वतन्त्र-बोध
चिंतन
औ' प्रज्ञा हर लेते हैं ।
अनायास
मन की वैचारिक स्थितियाँ
प्रतिबन्धित कर देते हैं
पार्श्व में प्रसंगों में
लघुता भर देते हैं ।

(चिंतन की आत्म-लीन मुद्रा में)

यही प्रश्न था
जो कल से अब तक
मुझे विकल करता रहा,
अपनी सम्पूर्णता सहित अक्षय
मेरे प्रतिरोध के धरातल पर
छाया सा फैलता-उतरता रहा,
नई विधा अंकित कर मेरे विचारों में
भाव-बोध में मेरे
...अकुलाहट भरता रहा;

यही प्रश्न
फिर इसका तिक्त बोध
फिर-फिरकर यही रोध !!
...इसकी अनुगूंज
मुझे और व्यथित करती है...
एक अशुभ आकृति
चक्षु-पटल पर उतरती है
शून्य में उभरती है...
आह !

(अंतर्वेदना के कारण दोनों हाथों में
शीश पकड़कर बैठ जाती है)

द्वारपाल

(घबराहट में तेजी से प्रवेश करते हुए)
महादेवि !
क्षमा करें
एक अशुभ सूचना मिली है ।

वीरिणी

(तुरन्त उठकर उसकी ओर बढ़ती हुई)
शीघ्र कहो
क्या हुआ सती को,
मेरी लाडली सती को. . . क्या हुआ
बोलो,
चुप क्यों हो ?

द्वारपाल

(निश्चल सा)
सब कुछ हो गया अभी पल भर में
महादेवी !
अब तक भी उस पर विश्वास नहीं होता ।

जैसे ही महाराज
क्रोधातुर
महादेव शंकर पर रोष व्यक्त करते
यज्ञ-मंडप में घुसे,
तैसे ही अनायास,
भगवती सती के पास
विद्युत सी कौंध गई ।
भस्म हो गया उसमें

-सुंदर सर्वाङ्ग चन्द्र-गौर वर्ण
और दूसरे ही पल
भगवती सती का अधझुलसा शव
सामने पड़ा था ।

(अनायास वीरिणी भूमि पर बैठ जाती है
और उसका सिर एक ओर ढुलक जाता है ।
द्वारपाल कहीं खोया हुआ सा, तन्मयता
से वर्णन करता चला जाता है जिसे केवल
सर्वहत, आँखें फाड़े और मुँह बाए निश्चल
सुनता जाता है ।)

भगवती सती का अधझुलसा शव
सामने पड़ा था…
और. . . उस भयावह निस्तब्धता में
महादेव का नन्दी
क्षुब्ध अंगरक्षक-सा
पागल खड़ा था ।

महादेवि !
सहस्रों झंझाओं की तरह फड़फड़ाते हुए
उनके वे नथुने
और सब ज्वालामुखियों की अग्नि लिए
उनके वे नेत्र !

महादेवि !
उसका वह रौद्र-रूप देखकर
अनेक जन्म
तत्क्षण हो गए पूर्ण
औ' फिर
जिस वेग से गया है वह
यज्ञ छोड़
महादेव शंकर के पास
असंभाव्य ऐसी दुर्घटना की
सूचना देने के लिए
उसकी कल्पना-मात्र
मेरा हर रोम कंपा जाती है;
महादेवी क्या होगा ?

महादेवी ! आज्ञा दें
मैं इन श्री चरणों में बैठ सकूं
मुझे और कहीं नहीं …
यहां तनिक शान्ति नज़र आती है ।

(ज्योंही द्वारपाल का वाक्य समाप्त
होता है सर्वहत वीरिणी को भूमि पर
पड़ी, देख चीख उठता है।)

सर्वहत

महादेवी !

(और प्रकाश के विलयन के साथ
परदा गिरता है)

सर्वहत

इस दुखान्त नाटक का पटाक्षेप
मेरे मंच पर आने से पूर्व हो चुका था ।
सारे दर्शक
सारे अभिनेता चले जा चुके थे ।
मैं तो केवल
निर्देशक की इच्छायों का अनुचर था-:
मात्र भृत्य !
मैं यह नाटक क्यों देखता भला ?
मुझसे...या हमसे
यह आशा कब की जाती है
कि हम नाटक देखें...उसमें भाग लें !

दृश्य: दो

(स्थान : प्रजापति दक्ष का वही कक्ष किन्तु
उसकी सज्जा अस्त- व्यस्त है और सारी
वस्तुएं टूटी-फूटी पड़ी हैं । उसे देखकर ही
ऐसा आभास होता है मानो वहाँ युद्ध हुआ
हो जिससे उसका सारा क्रम नष्ट हो गया हो)

(परदा उठने के एक क्षण पश्चात् भगवान
ब्रह्मा और विष्णु वहाँ प्रवेश करते हैं)

विष्णु

जन-संकुल राजमार्ग : नीरव
जन-हीन नगर,
चिड़ियों के नोचे हुए पंखों-से
सारे घर,
सारा क्रम छिन्न-भिन्न :
पूरा परिवेश भग्न :
और ध्वस्त इन सारी स्थितियों पर
तनी हुई
वह आकृति : क्रोध-मग्न !

ब्रह्मा

आह ! बन्धु विष्णु !
वह प्रसंग मत उठायो अब,
कल्पना-फलक पर उभर आता है बार-बार
महादेव शंकर का दुर्निवार
पीड़ा से भरा हुआ नीलकंठ
पांचों मुख
दुख की अभिव्यक्ति में निरत, असफल,
मस्तक में खौल रहा गंगा-जल
औ' त्रिनेत्र ज्वाला के स्फुलिंग बरसाते
विह्वल आवेश-युक्त चतुर्भुजा
दक्ष प्रजापति के
उस यज्ञ की दिशा में उन्मुख त्रिशूल
जिसमें हम सबने,
सब देवों ने, ऋषियों ने
...भाग लिया था ।

विष्णु

और...
जिसमें सती ने
अपने पति महादेव शंकर की अनुपस्थिति
जानकर अहैतुक अपमान
अपराधी दक्ष को बताया था
पति की अवहेलना अवज्ञा का…

...जिसमें
नारी का पतिव्रत्य
सहन नहीं कर सका उपेक्षा उस शिव की
जो सार्वभौम
जगती में महासत्य,
सारे ब्रह्मांडों में सर्वोपरि
स्वयंपूर्ण !

...जिसमें सती ने
उस प्रजापति पिता के कुटिल
पति के प्रति मानहानिपूर्ण
अशुभ वाक्यों के पाप से निवृत्ति हेतु
सहज योग धारण कर
नाभि चक्र से सयत्न
प्रान अपान वायु को समान कर
उदर को उठाकर
तन का लौकिक प्रकार भस्म कर दिया था ।

(मंच पर प्रकाश व्यवस्था द्वारा उदास
वातावरण की सृष्टि होती है जिसमें
देवराज इन्द्र प्रवेश करते हैं)

इन्द्र

हाँ प्रभु,
वह दुखद दृश्य ।
उससे भी दुखद पुन:
शिव-अनुचर गणों और भृत्यों का
अनधिकार रक्तपात
क्षीर-सिन्धु-वासी इन पारब्रह्म प्रभु पर भी
वीरभद्र का प्रहार
औ' मुझ पर नन्दी का बार-बार
दुर्निवार अस्त्रों से संघातक लक्ष्य ।

हां प्रभु,
वह दुखद दृश्य
भूल नहीं पाता हूँ…

वरुण

(प्रवेश करते हुए)
यही नहीं देवराज,
महादेव शिव के गणों को स्वयं
देवों का रक्तपान करते मैंने देखा ।
वीरमुंड ने मुझ पर
आक्रमण किया था जब
भैरवीनायक रक्तपान कर रहा था वहाँ ।

इन्द्र

प्रभु,
मैंने चाहा था-
महादेव शंकर के
मदोन्मत्त भृत्यों को समझा दूं !
मैंने कहा था बन्धु-भाव से
कि "मित्रो !
भगवती सती का यह देह-त्याग
महादेव शंकर के
अथवा तुम्हारे परिताप तक नहीं सीमित,
यह तो त्रैलोक्य ताप है,
कण-कण पर उतरा है,
फिर तुम क्यों यज्ञ भङ्ग करते हो ?
इससे परिताप कम नहीं होगा ।
कोई प्रतिकार नहीं होगा ।
संभव है क्लेश मिले तुमको भी
अतिथि देव-पुत्रों से ।"

इस पर वे असुर-वृत्ति
वेदी पर टूट पड़े
वयोवृद्ध आंगिरस,
कृशाश्वमुनि,
दोनों के शीश पर
प्रहार किया पांवों से ।
दुष्टों ने भृगु जी की
दाड़्ही को नोच लिया ।
यज्ञ किया खण्डित
कर रक्तपात,
निर्जन कर दिया नगर ।

ब्रह्मा

मुझे सब विदित है बंधु देवराज ।
ऋत्विज या अतिथि
यहाँ जो-जो भी आए थे,
आहत या अपमानित होकर ही लौटे हैं ।
शेष यहाँ कुछ भी नहीं है अब...
कुछ भी नहीं !!

(उसी समय क्षत-विक्षत दशा में दक्ष का
भृत्य सर्वहत गर्दन झुकाए
लड़खड़ाता हुआ… प्रवेश करता है)

सर्वहत

(आते हुए)
कौन कहता है…
यहाँ कुछ भी नहीं है शेष ।
यहाँ शेष ही तो है सब कुछ...
देखो...
सारे नगर में ताजा
जमा हुआ रक्त है
और सड़ी हुई लाशें हैं
मुड़ी हुई हड्डियाँ हैं
क्षत-विक्षत तन हैं
और उन पर भिन्नाते हुए
चीलों और गिद्धों के झुण्ड
और मक्खियाँ हैं ।

सब कुछ तो है ।
देखो ये महल हैं
कंगूरे हैं
कलश हैं
अतिथि-भवन हैं
राजमार्ग हैं...।

सिर्फ लोग नहीं हैं तो क्या हुआ ?
लोगों के होने न होने से
क्या कोई दृश्य की महत्ता कम होती है ?

(सहसा कष्टपूर्वक सिर ऊपर उठाने का
असफल प्रयत्न करते हुए)

आह !
तुम लोग शायद अतिथि हो ।
अथवा यज्ञ देखने के लिए यहाँ आए हो ?

वरुण

हाँ, हम अतिथि हैं ।

सर्वहत

मैं समझ गया...
यज्ञ के लिए ही आये होंगे...
निश्चय ही
बहुत बड़ा
बहुत बड़ा यज्ञ हो चुका है यहाँ...
बहुत बड़ी आहुतियाँ
उसमें हुई हैं ।
पर तुमको आने में थोड़ा विलम्ब हो गया ।

ब्रह्मा

किन्तु...
तुम कौन हो ?

सर्वहत

मैं ।
मैं कौन हूँ... ?
(भूमि पर चारों और देखकर)
मैं कौन हूँ…
इस स्थिति में
मुझको यह सोचना पड़ेगा ।

(उंगली से माथा ठोकते हुए)

...शायद मैं राजा हुँ
...शायद मैं शासन का प्रतिनिधि हूँ
...या मैं इस राज्य की प्रजा हुँ
या शायद मैं कुछ भी नहीं हूँ
और सब कुछ हुँ ।
पर तुम क्यों पूछ रहे हो यह प्रश्न
मैंने तो तुमसे कुछ भी नहीं पूछा
माथा उठाकर तुम्हें अब तक
निहारा भी नहीं एक बार ।

विष्णु

पर क्यों नहीं निहारा ?

सर्वहत

क्यों नहीं निहारा ?
शायद…कुछ तो मेरा स्वभाव
कुछ मेरी अक्षमता
कुछ मेरी ग्रीवा में व्रण हैं
जिसके कारण
गर्दन नहीं उठती
शायद मैं चाहूँ भी
तो भी यह झुकी हुई गर्दन
अब यों ही रह जाएगी...
चाहूँ भी
तो भी
यह माथा नहीं उठ सकता...
चीजों को, उनके सामने पड़कर
देखने वाली दृष्टि
मुझे शायद अब
कभी न मिल पाएगी ।

ब्रह्मा

संभवत:
इस रक्तपात के रहे हो तुम साक्ष्य ।

क्या तुमने
महादेव शंकर
और देवों और दक्ष की सेना का
घमासान युद्ध
स्वयं देखा है ?

सर्वहत

युद्ध…?
और रक्तपात...।
दक्ष और देव
और शंकर की सेनाएँ...
ये तुम क्या कहते हो...
मैंने वह कुछ भी नहीं देखा ।

इस दुखान्त नाटक का पटाक्षेप
मेरे
मंच पर आने से पूर्व हो चुका था ।
सारे दर्शक
सारे अभिनेता
चले जा चुके थे ।
मैं तो केवल
निर्देशक की इच्छायों का अनुचर था :
मात्र भृत्य !
मैं यह नाटक क्यों देखता भला ?
मुझसे
या हमसे
यह आशा कब की जाती है
कि हम नाटक देखें उसमें भाग लें !

हाँ,
पटाक्षेप होने पर
मंच की सज्जा-सामग्री को संजोने के लिए
किसी भृत्य को आना चाहिए था
मैं यथा समय आया हूँ।

विष्णु

जब तुम इस नाटक में कुछ भी नहीं थे
और कहीं भी नहीं थे
तो फिर यह पीड़ा
या यह परवर्ती प्रभाव
क्यों भोग रहे हो ?

(विक्षिप्त-सी धीमी हंसी)

सर्वहत

क्योंकि यह
विधाता के नियमों की बिडम्बना है ।
चाहे न चाहे
किन्तु
शासक की भूलों का उत्तरदायित्व
प्रजा को वहन करना पड़ता है,
उसे गलित मूल्यों का दंड भरना पड़ता है ।
और मैं मनुष्य ही नहीं हूँ
मैं प्रजा भी हूँ।

इन्द्र

अच्छा
अब तुम जाओ,
जाकर विश्राम करो ।
...थके हुए लगते हो ।

सर्वहत

(आत्मीयता से फुसफुसाहट के स्वर में)

थका हुआ नहीं हूँ
बुभुक्षित हूँ...

(विक्षिप्त जैसी धीमी हंसी)

सुनो !
क्या तुम्हारे पास
एक रोटी होगी ?

ब्रह्मा

रोटी ?

सर्वहत

हाँ रोटी
जाते-जाते शिव के गणों ने
दक्षिण नगर-द्धार की गुफायों में छिपे हुए
मुझको भी पकड़ लिया...
मेरे भी तन पर व्रण छोड़ दिया
ये देखो...

(घाव दिखलाता है)

और मैं अचेत हो गया था
...किन्तु मैं बुभुक्षित भी था
इसीलिए आंख जब खुली
तो मैं
दो रोटी पाने की आशा में
इतना सब रक्तस्राव... सहकर भी
यहां तक चला आया ।

बोलो...
तुम मुझको रोटी दे मकते हो ?

(मौन से उनकी असमर्थता भांप-कर)

अच्छा न सही रोटी...
मदिरा का एक घूंट...

(फिर मौन)

वह भी नहीं !
वह भी नहीं !!
फिर तुम क्यों आए हो ?
बोलो क्यों आये हो ?
जमे हुए रक्त पर
अपनी संवेदना का अमृत छिड़कने ?
या केवल दृश्य-परिवर्तन के लिए ?
बोलो,
उत्तर दो ।

(फिर मौन)

...जाओ
मेरे राजमहल से निकल जाओ
फौरन निकल जाओ
इसी क्षण निकल जाओ
जाओ...

(वरुण और इन्द्र उसकी बातों से कुपित
होकर उस पर झपटते हैं किन्तु ब्रह्मा
और विष्णु संकेत से उन दोनों को
रोक देते हैं)

ओह !
अब समझा ।
मैं समझ गया
नगर में तुम्हें भी कहीं
मदिरा या अन्न नहीं मिल पाया-
तुम भी यहाँ इसीलिए आए हो ।
है ना ?

(उल्लास से)

तुम भी बुभुक्षित हो...
मैं भी बुभुक्षित हूँ...
हम सब बुभुक्षित हैं...
ये सारी दुनिया बुभुक्षित है... ।

(विक्षिप्त हँसी हँसते हुए)

खाओ...खूब खाओ
यहाँ सब कुछ है
सब कुछ है... ।
देखो ये महल हैं
कंगूरे हैं
कलश हैं;
अतिथि-भवन हैं
राजमार्ग हैं...
इन सबको खालो
इन सबसे भूख मिट जाती है
इन कलश-कंगूरों को खाकर ही
मेरी
और तुम्हारी
और हम सबकी
क्षुधा शान्त होगी
वरना...
भूखे रह जाओगे
हाँ .... ....

(उसी प्रकार गर्दन नीची किए, विक्षिप्त
सी हँसी हँसता हुआ चला जाता है)

वरुण

देखा प्रभु !
यह व्यक्ति
महादेव शंकर की हिंसा का जीवित प्रतिरूप है ।

विष्णु

नहीं वरुण,
यह तो युद्धोपरांत उग आई
संस्कृति के ह्रासमान मूल्यों का
एक स्तूप है- भग्नप्राय :
पथ हारा...

हिंसा नहीं है इसमें
भय है...आशंका है ।

वरुण

किंतु प्रभु
यह रचना किसकी है ?
मेरी या आपकी--
या भगवान ब्रह्मा की--
या देवराज इन्द्र की ?
यह भी तो महादेव शंकर की कृति है ।

विष्णु

कृति यह नहीं है
एक विकृति का फल है ।
एक ऐसी मरणासन्न लौकिक परम्परा का,
जिसे
जीवित रखने के लिए
प्रजापति या दक्ष ने
यज्ञ नहीं
युध्द का आयोजन किया था…

ब्रह्मा

और उस युद्ध में उसने
विधिपूर्वक
अप्रत्यक्ष माध्यम से
महादेव शंकर को निमंत्रण दिया था...
और आना पड़ा- था उन्हें
क्योंकि वे सदैव
ऐसी
कृश-परम्परायों के
भंजक रहे हैं ।

इन्द्र

माना प्रभु
दक्ष का विवेक और ज्ञान
इस परिस्थिति में छूट गया,
उसका अस्तित्व
एक जर्जर परम्परा के
पोषण के यत्नों में लगा हुआ
टूट गया ।
पर क्या अब शंकर ने
जो परम्परायों के भंजक रहे हैं
दक्ष को बनाकर माध्यम
हम सबको अपमानित नहीं किया ?
युद्ध का निमंत्रण
हमको नहीं दिया
कंधों पर शव लादे
दक्ष की तरह ही
क्या महादेव शिव भी अब
वैसा ही आचरण नहीं करते ?

वरुण

आपको विदित है प्रभु ?
शंकर-कैलासनाथ
अपने स्कंधों पर
भगवती सती का अधझुलसा शव लटकाए
गहन मनस्ताप की विषमता से भरमाए
रह-रहकर अब तक भी
वीरिणी-सुता का मुख
देखते, बिलखते हैं ।
पर्वत के हिम-मंडित शिखरों पर
काल-सा त्रिशूल गड़ा
व्याकुल से चरण पुन:
इधर-उधर रखते हैं
औ' उनके नेत्रों से
अग्नि-वृष्टि जारी है ।

इन्द्र

(प्रच्छन्न व्यंग्य से)

हाँ प्रभु,
वे शिव शंकर !
अविनाशी शिव शंकर !!
देह-युक्त देह-मुक्त
भोग-राग-हीन, तत्त्वज्ञानी
वे संन्यासी शिव शंकर !
खोकर संतुलन आज
मानवीय पीड़ा के
साधारण पाशों में कस गए ।

ब्रह्मा

आह !
देवराज इन्द्र !
कैसी विडम्बना है

अपने बनाए हुए नियम
हमें डस गए,

निर्माता
निर्मिति के बंधनों में फंस गए !

(क्षणिक विराम)

किंतु बन्धु...
समझ नहीं पाता हूँ...
क्यों मेरे सहयोगी शिव शंकर
मृत्यु की क्षणिकता से पीड़ित हैं ?

क्यों उनकी कालजयी
दैनिक चेतनता पर
लौकिक संवेगों की रेखाएं अंकित हैं ?

क्यों वे पार्थिवता को
कंधों पर लटकाए
ज्ञानवंत होकर भी क्रोधित उद्वेलित हैं ?

देवराज !
मैं अब तक सोच नहीं पाया हूँ ।

(आवेश में चिल्लाते हुए कुबेर का प्रवेश)

कुबेर

मैं अब तक सोच नहीं पाता प्रभु,
महादेव शिव को
क्या गणों और भृत्यों का
यह कुकर्म विदित नहीं ?
क्या उनको विदित नहीं
उनके ये अनुचर, गण
वीरभद्र, नंदी औ' वीरमुण्ड
चंड, भैरवीनायक
अथवा कूष्मांड और महालोक
कितनी आचरण-हीन रीति से हुए प्रस्तुत
हम देवों के समक्ष !

मैं अब तक सोच नहीं पाता प्रभु,
महादेव शिव के इन भृत्यों ने
उनके अपमान को बढ़ाया है
अथवा प्रतिकार लिया ?

विष्णु

कौन ?
अलकापति कुबेर ?
शिव शंकर के प्रतिवेशी !

ब्रह्मा

कुबेर !
क्या तुमको यह भी मालूम नहीं-
शिव जी ने स्वयं उन्हें भेजा था,
यज्ञ ध्वंस करने
तथा
अपनी प्रिया के आत्मघात की परिस्थिति से
प्रतिकार लेने को !

कुबेर

शिव जी ने भेजा था !

(आश्चर्य से)

असुर-वृति भृत्यों को ?
वीरभद्र सदृश अहंकारी को ?
भृगु, कश्यप, पैल, गर्ग,
वैशम्पायन, अगस्त्य,
वामदेव, गौतम, त्रिक,
व्यास, अत्रि, ककुपासित,
भरद्वाज जैसे ऋषि-मुनियों की सभा मध्य ?
आप और लक्ष्मी-पति जहां विद्यमान
वहाँ ?

...आपकी अवज्ञा प्रभु,
महादेव शिव द्वारा ?
नहीं, नहीं !!

ब्रह्मा

यह सच है ।
हर कटुता सत्य न होती हो
पर यह सच है ।

वरुण

प्रभु के उद्गारों पर
विस्मय औ' प्रश्नचिह्न क्षम्य नहीं
लेकिन प्रभु
अचरज है ।
मन होता है
फिर-फिर पूछूं
क्या यह सच है !

ब्रह्मा

महादेव क्रोधित थे ।

वरुण

प्रभु,
क्या यह भी सच है…
न्याय की तुला को अपने हाथों में लिए हुए
महादेव शंकर धर रौद्र-रूप
अपने आदेश-विहित भृत्यों से
देव और ऋषि-मुनि-गण
सभी का अनादर
और दक्ष का शिरोच्छेदन करके भी
तुष्ट नहीं ?

ब्रह्मा

संभव है ।

इन्द्र

प्रभु,
जब शिव-जैसे उच्चाधिकार-युक्त हस्त
शासन की मर्यादा खो देंगे
तो क्या यह शासन चल सकता है ?
शिव के प्रतिशोध की महज्वाला
आहुति ले चुकी स्वयं दक्ष
और सभी दक्ष-पुत्रों की,
देवों के मान
और ऋषियों की तामस-मर्यादा की,
आप और लक्ष्मी-पति दोनों की
और स्वयं यज्ञ तथा धर्म की...
क्या यह औचित्य-हीन नहीं ?

मैं तो यहाँ तक कहूँगा प्रभु,
शिव द्वारा-
जिस जिस की अवज्ञा हुई है
उसका अपराधी ठहरा कर
उन्हें
उचित दंड दिया जाय
-चाहे वे महादेव हों
आपके समान-धर्म शासक हों
चाहे वे कुछ भी हों...

कुबेर

लगता है प्रभु,
उनके अन्तर के द्वन्द्व
और मन के कोलाहल का
अभी शमन नहीं हुआ ।
हम उनके कोप से अरक्षित हैं ।
मैं उनका प्रतिवेशी होने के कारण
यह निश्चय से कहता हूँ…
कुछ पता नहीं है कब
बमभोले महादेव-
वक्र दृष्टि से निहार,
कर दें संघातक कोई प्रहार ।
उनके लिए दंड की व्यवस्था
आवश्यक है ?

ब्रह्मा

(विचलित होकर स्वयं से)

दंड
और महादेव शंकर को !
आह !
कितना कृतघ्न समय होता है ।
किस हद तक अकृतज्ञ !

वरुण

नागरिक न्याय
और सहज अनुशासन के लिए
यह अपेक्षित है
शंकर को दंडित किया जाए ।

विष्णु

सुना बंधु !
अपनी सुरक्षा को
शंकर लिए दंड मांगते हैं
अलका-वासी कुबेर ।

शासन और सत्ता के नाम पर
नियमों की रक्षा के लिए
देवराज इन्द्र चाहते हैं-
शंकर को दंडित किया जाए ।
...और वरुण कहते हैं
न्याय की प्रथानुसार
ऐसा आवश्यक है ।

किंतु बंधु, बोलो
तुम क्या कहते हो ?

ब्रह्मा

मैं क्या कह सकता हूं,
संभवत:
कुछ भी कह सकने की स्थिति में
संतुलन नहीं मेरा ।
शंकर...कैलाससनाथ,
जो मेरे साथ-साथ,
सृष्टि के महान-
और गुरुतम दायित्वों के पालन में
योगदान देते हैं,
पीड़ित हैं ।

सोचता हूँ-
यही दण्ड उनको क्या कम है ?

यह क्या कम है कि आज
वे जिस स्थिति में हैं :
क्रोध के बहाने कराहते हैं ।
उन्हें किसी सत्य से जुड़े रहने
और टूट जाने का
दुविधायुत भ्रम है ।
करते हैं कुछ
किन्तु कुछ करना चाहते हैं
अपनी प्रिया के संदर्भों में
दुहरा जीवन जीते हैं शिव शंकर ।
यही दंड उनको क्या कम है
जो बार-बार
कालकूट पीते हैं शिव शंकर ।

इन्द्र

प्रभु !
चाहे गर्वोक्ति समझ क्षमा करें,
किन्तु मुझे लगा
आप इस क्षण में अनायास,
स्वयं उसी मानवीय पीड़ा से हैं उदास
पराभूत,
जिससे शिव शंकर हैं ।

विष्णु

देवराज इन्द्र !
मित्र,
साधुवाद ।
सत्य कहा ।
कुछ क्षण तक मैं भी
उस पीड़ा के साथ रहा ।

हम भी अपवाद नहीं ।
हम भी तो भूल-चूक करते हैं कहीं-कहीं

(हंस कर)

देखो तो,
ब्रह्मा ने रची स्वयं यह बाधा,
मानवीय नियमों की रचना में इन्होंने ही
ऐसी आसक्ति को
महत्त्व दिया है ज्यादा ।

इन्द्र

इसीलिए प्रभु
शंकर को दंड की व्यवस्था पर
होकर निस्संग नहीं सोच सके ।
खुद उनकी पीड़ा से पीड़ित हैं ।

लेकिन प्रभु !
ऐसे संदर्भ के धरातल पर
हम सब हैं एक ।

हम अपने शब्द और अपना प्रस्ताव
आज वापस ले लेते हैं ।
आपको विदित ही है
चिंतन को दिशा
या समस्या को समाधान देने के लिए
थोड़ी तटस्थ और वस्तुपरक दृष्टि की
अपेक्षा करता है विवेक

कुबेर

हम इस विषय पर
फिर बातें करेंगे प्रभु !
...क्योंकि
...ब्रह्मा जी थोड़े अस्वस्थ लग रहे हैं आज
क्या हम उनकी कोई सेवा कर सकते हैं ?

ब्रह्मा

धन्यवाद बन्धु !
मुझे कष्ट नहीं
थोड़े विश्राम की अपेक्षा है ।
चाहो तो अब तुम जा सकते हो ।

(कुबेर, वरुण तथा इन्द्र, ब्रह्मा को
प्रणाम कर विष्णु की ओर, जाने की
मुद्रा में उन्मुख होते हैं)

विष्णु

किन्तु
सुनो देवराज,
तुम तीनों का समाज
अपनी मर्यादा के यथा योग्य
होकर निस्संग
और शंकर से वैमनस्य
पूर्वाग्रह त्याग आज
मेरे
एक प्रश्न पर विचार करे
और मुझे बतलाए-
तत्त्वज्ञान-वेत्ता उस महाबोधि शंकर की
आत्मा क्यों रोती है ?
क्यों वे यह भूल गए
कारण,
या निमित्त
या परिस्थितियाँ नहीं,
सिर्फ मृत्यु सत्य होती है ?
और यह कि
किस प्रकार
उनको इस पीड़ा से निष्कृति मिल सकती है ?

इन्द्र

प्रभु !
हम उत्तर देंगे
यथाशक्य सार्थक औ' सही
किन्तु
चिंतन को थोड़ा अवकाश मिले ।

वरुण

प्रभु,
हमको समय मिले !

कुबेर

अपने अस्तित्व की सुरक्षा का
शंकर से अभय मिले ।
शायद इस प्रश्न पर विचार हेतु
हमको कैलास-लोक जाना हो ।

विष्णु

(दायाँ हाथ उठाकर)
एवमस्तु
एवमस्तु
उत्तर की
करेंगे प्रतीक्षा हम ।

(तीनों देवगण विनत होकर- चले जाते हैं)

ब्रह्मा

(माथे पर रखा हाथ उठाते हुए)

आह बंधु !
शंकर की पीड़ा पर
मन भर-भर आता है ।
क्यों आखिर ?
क्यों आखिर ?
मेरा कुण्ठित विवेक सोच नहीं पाता है ।

क्या इससे त्राण नहीं पाऊँगा ?
यों ही घुट-घुटकर अकुलाऊंगा ?
क्या मैं भी यों ही मर जाऊँगा ?

सर्वहत

(लड़खड़ाते हुए प्रवेश करता है)

हम सब मर जाएँगे एक रोज़
पेट को बजाते
और भूख-भूख चिल्लाते
हम सब मर जाएँगे एक रोज़...
-ठूंठें रह जाएँगी
सांसों के पत्ते झर जाएंगे एक रोज़…

(रुककर फुस्फुसाते हुए)

सुनो,
मैं तुमको सावधान करने ही आया हूँ ।
वे तीनों लोग
अभी थोड़ी देर पहले जो शोर सा मचाए थे,
और अभी गए हैं,
वे तुमको खाने के लिए यहाँ आये थे ।
मैं छिपकर सूंघ रहा था उनको ।
वे तीनों भूखे थे ।
उनकी आवाजों में भूख लिखी हुई थी ।
काश...
मैं उनके चेहरों की लिखावट पढ़ पाता ।

यों भूखा होना
कोई बुरी बात नहीं है,
दुनिया में सब भूखे होते हैं
सब भूखे…
कोई अधिकार और लिप्सा का,
कोई प्रतिष्ठा का,
कोई आदर्शों का,
और कोई धन का भूखा होता है…
ऐसे लोग अहिंसक कहाते हैं
मांस नहीं खाते
मुद्रा खाते हैं…।

(हंसता है)

किन्तु बंधु
जीवन की भूख
बहुत कम लोगों में होती है
बहो . . त कम में...
तुम
जीवन की भूख का मतलब समझते हो ?

(हँसते हुए)

तुम कुछ नहीं समझते
बहुत भोले हो...
ज़रूर भले आदमी हो
ऐसे ही लोगों में
...जीवन की भूख हुआ करती है ।

(सहसा विष्णु के पाँवों की ओर देखकर)

और यह भी
जो निकट आ रहा है
ज़रूर भला आदमी है,
भूखा है,
है ना ?
हर भला आदमी
जरूर भूखा होता है ।

(पागलों की तरह लड़खड़ा कर
मंच पर घूमता है)

आओ
आओ मेरे बच्चो
निकट आओ
आओ मुझसे सट जाओ...
जब तक ये महल
ये सोने के कलश और कंगूरे
और ये राजमार्ग
हमारे खाने के लायक़ बनें
तब तक तुम
-मुझको ही खायो ।
आओ मेरे बच्चो
डरो मत
आओ ।

(आत्मीयता से धीरे…धीरे)

हाँ
देखो,
पहले मेरा दिल निकाल कर खाना
फिर दोनों हाथ...,
इन्होंने मुझे
बहुत कष्ट दिया;
ये अगर न होते तो यह जीवन
बड़ी सुगमता से जिया जाता ।

...हाँ
फिर थोड़ा सा
अपनी उँगलियों का मांस
मुझको भी दे देना ।

(ब्रह्मा और विष्णु उसकी दयनीय दशा
पर कातर-भाव से एक दूसरे
की और देखते हैं)

अरे !
ये तो बोलते नहीं
हिलते-डुलते भी नहीं
शायद खड़े-खड़े मर गए
झर झर झर
साँसों के सब पते झर गए
...खड़े-खड़े मर गए-
...बेचारे-
भूख के मारे !
च: च: च: ।

किन्तु
मैं अकेला रह गया हूँ अब
बिल्कुल अकेला
पूरे नगर में अकेला,
आह !
इन राजमहलों से मोह
अब तोड़ना पड़ेगा मुझे
बहुत शीघ्र अब
यह नगर छोड़ना पड़ेगा मुझे
वरना क्या खाऊँगा और क्या पियूँगा यहाँ ?

छोड़ना...
ग्रहण करके
छोड़ना
कितना कठिन होता है
आह !

(सर्वहत लड़खड़ाता हुआ जाने लगता है
और उसी के साथ परदा गिरता है)

  • एक कंठ विषपायी (दृश्य: 3-4)
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण काव्य रचनाएँ : दुष्यंत कुमार
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)