Dinesh Chandra Sharma
दिनेश चंद्र शर्मा

दिनेश चंद्र शर्मा (२० जून १९६३-) रावतभाटा (राजस्थान) के रहने वाले हैं । उनकी शैक्षणिक योग्यता अधिस्नातक गणित और इंजीनियरिंग स्नातक (रसायण) है । आज कल आप परमाणु ऊर्जा विभाग भारत सरकार में वरिष्ट वैज्ञानिक के पद पर कार्यरत हैं । आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं: चार बिस्वा जमीं, पलाश के फूल (कहानी संग्रह), ओ रित के प्रहरी, अष्टावक्र शान्ति शतक (काव्य)।

अष्टावक्र शान्ति शतक दिनेश चंद्र शर्मा

(1)
जब तुम जागे
भ्रम तो दूर से ही भागे
आत्म स्वरूप
तू जान जायेगा
फिर उससे दूर कैसे
रह पायेगा?

(2)
भोगों को भोगने
के लिए किए तूने
उपक्रम।
धन बहुत संचय किया
पर सुखी न हुआ।
सुख संचय में नहीं
त्याग, सब कुछ कर देगा।
मोह, आसक्ति, कामना
सब कुछ छूट जायेगा।
बचा रहेगा केवल
आनन्द और अपूर्व शांति।

(3)
कर्म तुमने किए।
कर्तापन का भाव,
अहंकार तुम्हारा।
इसे मिटाए
बिना चैन कहाँ।

(4)1
पानी के बुलबुले
के मानिन्द,
यह जगत बुलबुला
ज्यों ही फूटा,
फिर कुछ न रहा।
तुमने जैसा सोचा,
वैसा संसार पाया।
सच में क्या?
सत्य केवल एक वो
ब्रह्म।

(4)2
आत्म स्वरूप तो तुम हो,
बोध जिस दिन
कर लोगे।
तुम्हें तो मन की चंचलता
से पार पाना है।

(5)
अभिमान का आवरण
माना तुमने आभरण।
अब तुमने छोड़ दिया,
मोह का बंधन तोड़ दिया।
अब न बचा संसार,
सुख दुःख से तुम ऊपर
उठ चुके।
आत्म स्वरूप जानने
को तैयार।

(6)
चराचर जगत
का प्रपंच रचा,
दिखने को यहाँ हर कोई बसा।
जिसने इसको काल्पनिक माना,
ब्रह्म को सत्य सनातन जाना।
मोह तुमने छोड़ दिया,
अभिमान रूपी विषैले
दंत केा तोड़ दिया।

(7)
संसार में जो भिन्न नामरूप
है वह सब आत्मरूप।
इसके बाद कहाँ
संकल्प, विकल्प बचा।
कहाँ मैं? कहाँ तू?
सब तो उसने रचा।

(8)
परमशान्ति जब
तुमने पाई,
तब आत्मा में विक्षेप कहाँ?
वहाँ पहुँच कर आत्मा
से आत्मा के आनन्द में
ही सन्तुष्ट।
वहाँ न कोई ज्ञानी है,
और न कोई सुखी,
और न कोई दुःखी।

(9)
उसे तो जीवन जीना है।
उसकी चाहत,
उसकी पसन्द कोई नहीं।
वह किसी को न चुनता है,
जो जैसा है उसे स्वीकार्य।

(10)
वह योगी है,
वह नहीं जानता
संकल्प, विकल्प।
वह नहीं सोचता
किए व अनकिए के बारें में।
उसके लिए धर्म, अर्थकाम
का भी नहीं मायना।
वह तो इसकी अगली
सीढ़ी जा चुका।

(11)
जीवन्मुक्ति जिसने पाई,
वह क्यों सोचें,
कुछ करने की?
वह क्यों सोचें भविष्य की?
वह क्यों रखे राग विराग?
जीने की उसे लालसा नहीं,
मरने की चाहत नहीं।
डर, भय भी नहीं,
निर्लिप्त बना, जीवन
जीता है सहज होकर।

(12)
मुझे कुछ भी चाहत नहीं,
मैने कोई इच्छा नहीं की।
किससे रखूँ अपनापन,
किस से रखूँ बैर?
क्यों में ध्यान करूँ,
क्यों चाहूँ मुक्ति?
आत्मज्ञान की जब
जान ली मैने युक्ति

(13)
विश्व को तुमने देखा,
जगत को तूने परखा
और सत्य जान लिया?
वासना में तुम रम गए,
कामनाओं के पंख लगाऐं,
फिर ब्रह्म से दूर होते गए।
एक जो वह (ज्ञानी),
देखता है सुनता है
जानता है
पर मानता नहीं।
कामना वासना के
पंख उसने कब के नोंच दिए,
अब वह ब्रह्म रूप ही
देखता है।

(14)
जो ब्रह्म को जान गया,
वह कहे सोऽहम।
क्योंकि उसके सिवा
और कोई नहीं।
जब और कुछ है ही नहीं
फिर चिन्तन किसका?

(15)
मन की चंचलता
को करना वश में,
विक्षेप आत्मा का
रोकना
पर एक जो वह जहाँ
कोई विक्षेप नहीं
क्या करें?

(16)
आत्मतत्व जानने के लिए
तुम्हें क्या करना है?
तुम्हें करना है बोध।
(ज्ञानी)
तुम्हे तो चाहत नहीं,
कोई कर्तव्य बचा नहीं
तुम्हारे लिए।
पर फिर भी करते हो कर्म
लोक निर्वाह हेतु।

(17)
अहं उसने छोड़ा
पर कर्म से न नाता तोड़ा।
मैं यह करूँ,
मैं यह न करूँ
इससे होती निराशा।
बैठा नहीं रहता,
हाथ पर हाथ धरे।

(18)
वह करता है कार्य,
अपने अहम् के लिए।
उसने वासना को
सजग बनाया।
वह तो चींटे जैसे
जो चिपका पड़ा गुड़ से।
(ज्ञानी) उसने सब देखा भाला,
अहम् वासना को कभी न पाला
रहेगा संसार में
बन कर सांसारिक,
पर निस्पृह संसार से।

(19)
क्यों वह रखे
कुछ करने में उत्सुकता?
क्यों वह सोचें
यह मैं न करूँ?
प्रवृति निवृति दोनों से
उसे न कोई वास्ता।
उसके लिए सब कर्म स्वाभाविक।

(20)
उसे कर्म बंधन से न वास्ता,
उसकी तो ब्रह्म में आस्था।
उसे न कोई चाहत,
वह न जानता राहत।
कर्म वह करता,
पर अकर्म उसे बना डालता।
ज्ञानी का कर्म करना भी जरूरी
क्योंकि लोक में वह
अनुकरणीय होगा।
उसने किया कुछ भी उल्टा सीधा
लोग भटक जायेंगे,
फिर कैसे चलेगा सृष्टि का
यह क्रम।

(21)
आत्मतत्व जिसने पाया,
वासना से वह न भर पाया।
उसे न चाहिए कोई सहारा,
उसने तो कब से ढूँढ़ लिया किनारा।
उसे बांधता नहीं कोई बंधन,
वह उड़ता है कहीं
पतंग की तरह पर थोड़ा
अलग, वह लक्ष्य जानता।

(22)
वह करता है कर्म,
इससे मिले मान
या हो अपमान।
ऐसा जान वह रहता अलिप्त,
इन सबसे
वह रहता निर्लिप्त।
इन सबसे
मन में विक्षेप नहीं आता,
वह सब कुछ सह जाता।
तभी वह बना सबसे अलग।

(23)
संसार रचा तूने, अपने मन
के अन्दर।
जो तुम चाहते,
जो तुम करते वह सब
उसी का प्रतिफल है।
जब तुमने उस संसार
को मिटाया,
देह तुम्हारी रही,
कर्म तुम्हारे हुए
पर तुम न हुए कर्म में लीन।
वे कर्म तो थे फलहीन,
तुम आत्मस्वरूप पा गए
पर कभी न रहें अभिलाषी।
इसमें कोई क्या करें संदेह,
शरीर था तुम्हारा
पर हो गए विदेह।

(24)
मान सम्मान
से उसे न मिलती खुशी।
अपमान के कड़वे घूँट से
न होता दुखी।
वह तो निकल चुका है
बहुत आगे।
उसको देख बहुत लोग जागे।
आत्मज्ञान का फल उसने चखा,
मार्ग उसने औरो के लिए भी रखा।
तुमने कछुआ देखा
कैसा है सिमटा?
तू अपने को कछुआ मान
अंग प्रत्यंग को विषय जान
जब यह राज तू जान जायेगा
प्रभु भक्ति में लीन अपने को पायेगा।

(25)
वह ऊपर उठ चुका है।
भेद बहुत देखा,
अब वह भेद नहीं जानता।
न वह कुछ चाहता है,
न ही चेष्टा करता,
उसे करना है सब
पर न देखना
न सुनना और
जानते हुए न जानना है।
द्वैत से अद्वैत का सफर,
किया है उसने
कुछ सृजन।

(26)
मुक्ति नहीं होती
कर्म से।
कर्म का रिश्ता,
शरीर और कर्ता
भाव से।
ज्ञान केवल ब्रह्म को
मानता।
कर्म करता है पर
अपने न मानता
इसीलिए
जो करता है कर्म
पर कर्ता होने का
अहम् न पालता।

(27)
समाधि में वह बैठा,
मन की शांति के लिए।
ज्ञानी तो शान्त है, पहले से ही।
उसे न चाहत,
वह तो संसार को भ्रम मान चुका,
ब्रह्म है केवल, जान चुका।

(28)
मैं हूँ, यह मै करता।
तूने तो अपने को बहुत बड़ा माना,
यह अहं भाव, तुझे खा जायेगा।
तेरा है क्या,
तू तो उस शक्ति का,
एक छोटा पुंज भी नहीं।
वह मानता है (निरहंकारी),
जो है वह तेरा,
कर्म भी उसका।
फल से वास्ता नहीं उसका,
किए उसने अर्पण।
कर्म बन्धन से वह
मुक्त हो गया।

(29)
ज्ञानी जो करता,
न उसके पीछे चाहत,
न वह कर्म को
नकारता।
निमित्त विधान,
उसका वह मानता।
सहज रूप, सहज कर्म
उसे देते शोभा।

(30)
मूढ़, इन्द्रियों के
सुख से आगे, कुछ
जानता नहीं।
ब्रह्म का विचार
मानता नहीं।
उसे कुछ कहने वाला,
पर वह किसी की
न सुनने वाला।

(31)
चित्त उसका सदैव रहें क्लान्त,
उपाय बहुत करता पर
वह न होता शान्त।
मन भटकता, चित्त को भी
भटकाता।
(ज्ञानी) उस पर न कोई अवरोध,
वह तो पहले ही
कर चुका मन, वश में।
उसे नहीं कुछ आस,
करने या पाने की।

(32)
पहले बदले, फिर सम्भले।
प्रयत्न करते है विराग का,
कामना, मोह का फल,
ज्यों ज्यों काटे त्यौं त्यौं निपजै।
थोड़ा अंश रहा होगा बाकी।
इसीलिए सामने आती
यह झांकी।

(33)
अहं की बेड़ियाँ कटती नहीं,
वासना की बेल जलती नहीं।
राग जब
अपनाओगे,
फिर फिर कर इस भंवरजाल
में फंस जाओगे।
वह सब जानता,
इसीलिए अपने आप को
कर लिया दूर।
कभी न हुआ मजबूर।
वैराग्य था सुगम पथ,
निकल पड़ा
लेकर शपथ।
ज्ञानी तो पहले ही तैयार,
मोह कामना के वह पहुँचा पार।
वैराग्य को वह अपना चुका,
तैर कर दूसरी पार जा चूका।

(34)
शरीर को तूने अपना जाना,
इसके सुख को ही अपना माना।
इन्द्रिया रहीं, सुख की लालची।
मन ने इन्द्रियों का दिया साथ।
इतना करने से ही नहीं बनी बात।
अहं जब आया,
उसने क्रोध उपजाया,
रची, राग द्वेष की माया।
अभ्यास के बने तुम दास,
ब्रह्म को जानने की फिर
कैसे करे आस?
ब्रह्म स्वरूप तुम्हारा,
करो उसका बोध।

(35)
ज्ञानी चाहता नहीं,
वह करता है।
अज्ञानी केवल चाहता,
मन से नहीं मानता।
वह आकण्ठ डूबा,
राग रंग द्वेष में।
अहं को उसने,
कभी नहीं छोड़ा।
चाहा उसने पर,
अपना जीवन न मोड़ा।
तत्व ज्ञानी
इन सबसे हो गया परे
वह फिर संसार सागर से क्यों न तरे?

(36)
वासना, मोह, तृष्णा
का रचा संसार।
राग, द्वेष से नहीं असार।
एक संसार के भीतर,
कितनी चीजें हुई निर्मित।
अहं ने नहीं रखा इसे सीमित।
इस कृत्रिम संसार से,
पार कौन पायेगा?
जो इसकी सच्चाई जान
जायेगा।
तुम्हें तो इन सबसे
सम्बन्ध तोड़ना है।
आत्मा से अपने
को जोड़ना है।

(37)
अभ्यास करने वाला
बनेगा अभ्यासी।
तुमने अपने जीवन को
नियम में ढाला।
अमृत समझ जहर का
पिया प्याला।
समर्पण का भाव,
कभी आया नहीं।
अहं से क्या तुमने,
अपने को भरमाया नहीं।
उसे तो,
केवल जानना था।
वह तुम हो,
वह तुम में ही है।

(38)
माया से रचित संसार
उसने बनाया।
तुम इसमें डुबकी लगाकर हुए मस्त।
सौभाग्य रूपी सूर्य हुआ
अस्त।
जिसे हुआ अपने स्वरूप
का भान,
उसने पाया ज्ञान।
जीव से ब्र्रह्म बनने की,
कोई विधि नहीं।
पहचान अपनी कर
यह सही।
संदेह जब मिट जायेंगे,
हृदय कपाट तब खुल पायेंगे।

(39)
समुद्र से उठती तरंगे,
इच्छा तृष्णा का आकर्षण,
जब तुम करते इनका वरण।
मन हो जाता अशान्त,
तुम हो क्लान्त।
तरंगों का द्वंद,
तुम्हें शान्त न होने देगा।
वह तो इन सब से परे
फिर अशान्ति से क्यों डरे?

(40)
यह शरीर, यह सृष्टि
सब उसने बनाई,
लीला उसने रचाई,
आंखें उसे कहाँ देख
पायेंगी।
जो भौतिकता से परे,
पर उसे समझने
के लिए क्या क्या न करें?
प्रत्यक्ष को तू मानता,
आत्मा को फिर
तू न जानता।
वह भौतिकता से
बहुत आगे निकल चुका
वह तो सब जानता
अनुभूत को सत्य मानता।

(41)
जोर जबरदस्ती से
क्या होने वाला है?
मन की चंचलता
को, तुमने कैसे संभाला? अहंभाव, जब
तुम्हारा घटता
जायेगा,
तब यह सब (आत्मसाक्षात)
सहज हो जायेगा।

(42)
तुम उसे सीमा में
बांधने चले।
वह यह है,
वह यह नहीं है।
तुम क्या जानते?
जो जितना है
उसका अंशमात्र भी
नही जानते।
क्या उसे तर्क की
कसौटी पर कसोगे?
वे किसी सवाल
का जवाब देते नहीं,
मन बुद्धि वाणी से परे
इसीलिए मौन से
श्रेयस्कर नहीं हो सकता
कोई उत्तर

(43)
कहना तो आसान है
पर अनुभूत करना
उस एक को।
तुम्हें बदलना होगा,
मोह माया छल छद्म
विषय रस जब
छूट जायेंगे।
तो तुम उसे पाने
के अधिकारी।
नित निरंतर उस
पथ के राही,
तब ज्ञान का अक्षय स्रोत बहेगा।
तब अभाव कुछ न रहेगा।

(44)
कल्पनाओं में खोऐ तुम,
कल्पना तो स्वयं आधारहीन
तुम्हें कैसे देगी शान्ति?
बन्धन अपने स्वयं बांधे है तुमने।
दुःख तूने ही उपजाए,
फिर इससे तुझे कौन बचाए?
बंधन जब तूने तोड़ दिए,
उससे नाता जोड़ लिए।

(45)
तुम तो वैराग्य,
ज्ञान से मोक्ष के बारे में
जानते हो।
पर ज्ञान जब तुमने पाया
फिर चेष्टा कैसी?
तुमने तो ज्ञान का धर्म
नहीं निभाया।
कोई इच्छा, कोई
तृष्णा हो तुम्हारी,
उस सीढ़ी पर चढ़कर
साँप से कटवा बैठे।
फिर तुम नीचे, बहुत
नीचे आ गए।
निरन्तर, यह सिलसिला चला।
मुक्ति की चाहत क्यों
रखते हो?
तुम क्यों यह कड़वा
फल चखते हो?

(46)
विषयों के, क्षण भर के
सुख, को तुमने अलौकिक माना।
सच्चाई का हुआ भान।
त्याग का किया मान।
विषय से तुम भागे,
पर तुम अब भी न जागे।
ऊपर से शरीर से,
इसका भाव त्यागे,
तब भी मिले वासना आगे।
अन्तः मन से जब होगा
नियंत्रण,
दृष्टा भाव से देखे क्षण क्षण।

(47)
छूट जायेगी
जब वासना,
विषय तुम्हें नहीं सतायेगें।
दूर से ही गतिमान हो
जायेंगे।
शान्ति तुम्हारी
कौन करेगा बाधित?
विषयों का अनोखा
संसार,
पहुँचे तुम जब तक,
उच्चतम अवस्था में
तब भी करते विकार।
मन का भटकाव,
तुम्हें कहीं भी नहीं छोड़ेंगे
उसका आकर्षण ध्यान
तुम्हारा मोड़ेगा
तुम जाना चाहते हो,
उससे भाग।
जंगल पर्वत निर्जन में पहुँचे तो क्या?
वह तो लगायेगा आग
हे प्राणी! जाग सके तो जाग।

(48)
योग, यम और नियम,
यह सब उस तक
पहुँचने का मार्ग बताते
पर ये वहाँ तक नहीं जाते।
बन्धन का कारण ये
बन जाते।
अगर यह नहीं तो
और पथ तुम नहीं जानते।
वह इन सबको
नहीं मानता।
बंधन किसी का नहीं जानता।
उसे तो करना है सब कुछ,
पर सरल सहज भाव से,
लिप्त होना वह नहीं जानता।

(49)
जहाँ मन वहाँ भेद है
मुझे तो मन से आगे
जाना
अभेद को पाना है।

(50)
क्या तेरे लिए शुभ?
क्या तेरे लिए अशुभ?
तूने दोनों को एक सा
माना।
ज्ञान का मर्म जाना।
तू कभी न आने दे
उद्वेग।
सब कुछ है तेरे लिए
सहज स्वाभाविक।

(51)
बन्धन में बन्धा तू,
बन्धन से जकड़ा तू।
क्यों रखता अभिमान मोह?
कामनाएँ, वासनाएँ, काम न आयेंगी।
मौका आने पर दगा दे जायेंगी।
सुख दुःख है छलावा,
यह तो मात्र है दिखावा।
बन्धन से हो आजाद,
उसे छोड़, किसी से न कर फरियाद।

(52)
चित्तवृति को करना शान्त,
नहीं आसान।
फिर कर्म बनते, कारण,
बन्धन का यह जान।
अहं जब बढ़ता,
तब तू कर्ता बनता,
तू मानता अपने को भोक्ता।
मैं, मेरेपन का भाव
करता जा तू क्षीण।
उनके सामने बन
अकिंचन, दीन।
अहं तेरा होगा गलित,
प्रभु भक्ति होगी फलित।

(53)
मैं शान्त हूँ
मैं निर्मल, स्पृहा रहित हूँ
ऐसे बहुत मिलेंगे,
कहने से क्या!
इच्छाएं उनकी भरी नहीं,
तृष्णा उनकी मरी नहीं।
मन की चंचलता
कैसे होगी शान्त?
क्यों हो तुम व्याकुल
दिखावे की शान्ति
यदि मिलती ऐसे,
हर कोई शान्त होता।

(54)
मान अपमान से परे,
अपने तुम्हें चाहे माने न माने,
करे प्रशंसा इससे क्या?
कोई कहे भला बुरा इससे क्या?
तुम तो इन सबसे
कब के ऊपर
उठ चुके।

(55)
वह किसी
दुःख से,
कभी होता नहीं दुःखी।
सुख, उसे देते नहीं खुशी,
वह तो रहता सदैव
समभाव।
जानता है सुख दुःख,
कभी निरपेक्ष नहीं
सापेक्ष होते
किसी के।

(56)
अज्ञानी जन
कर्म करने से ज्यादा
उसके बारे में सोचता है।
ज्ञानी को कर्म से काम
फल की अवधारणा को
दिया विराम।

(57)
क्या फर्क पड़ता है उन्हें?
दुनिया में रहें
या जायें दुनिया से दूर।
वे किसी में रमते नहीं,
मन की चंचलता
को वश में किया है।
जलज रहता जल में
पर उससे अलिप्त।

(58)
मेरी न कोई विशेष कामना,
मेरी न बची अब वासना
कोई मुझे क्या देगा?
राजा, हो प्रजा,
सुन्दरी मुझे क्या ललचायेगी?
रस के लोभ से क्या भरमायेगी?
मुझे इन सब से रहना दूर
अभी है मुझमें ऊर्जा भरपूर।

(59)
कर्म तुम्हारा लक्ष्य है,
चाहत नहीं स्वर्ग की,
तुमने कभी न चाहा मोक्ष।
तुम न कभी भटके,
विषय रूपी दंश कभी न चटके।
आत्म ज्ञान से भरपूर,
मोह की ज्वाला से दूर।

(60)
धीर तुम,
अधीर मत बनो।
विचलन तुम्हें शोभा नहीं देता,
सुख की घड़ी,
दुःख की घड़ी,
जो आन पड़ी,
तुम तो सदैव एक से रहे।

(61)
वह करता है सब कर्म,
उसे भी निभाना है लोक धर्म।
सब कुछ शान्त होकर,
न वह किसी से भागता,
न वह किसी से डरता।
एक सा भाव सदा,
जानता है सर्वदा।

(62)
कर्म नहीं है बंधन,
कर्म तो है चंदन।
कामनाओं का मकड़जाल,
मानव बना बेहाल।
कर्म, कामनाओं से होते होते दूषित।
कामना रहित कर्म है पूजित।

(63)
लोगों ने खूब बटोरा,
अपनों से लिया बैर।
अन्त समय, किसी ने
न ली खैर।
सब रिश्ते स्वार्थ से जुड़े,
धीरे धीरे सब टूट गए।
वह तो सब रिश्ते निभा रहा था,
जीवन अपना चला रहा था।
उसने राग न रखा,
किसी से न रखी ईर्ष्या,
उसे न चाहिए थी
धन वर्षा
जो पाना था,
वह पा लिया।

(64)
वैराग्य का मायना
तूने क्या जाना?
छोड़ दिया घर,
रिश्ते नाते छोड़ दिए,
छोड़ न पाया अभिमान।
सही सटीक जिस दिन वह जान जाये,
उसके निकट अपने को पाये।

(65)
भाव
और अभाव
तो है सांसारिक,
अस्तित्व जब न हो
वैचारिक।
वह (ज्ञानी) इनको नहीं
जानता,
वह तो केवल उसे ही
मानता।

(66)
घर तूने छोड़ा,
पर मन से घर न निकला।
अपनों से दूर गया,
पर मन रहा उनके पास,
मोह के बंधन तोड़ न पाया।
एक वह था जो रहा घर में,
मन से था इन सबसे
से निर्लिप्त,
अपने रिश्तों नातों से
मोह छोड़ दिया,
वह उनकी शरण
गया, प्रभु ने उसे दूर न किया।

(67)
रस तो अलग अलग है,
यह तुमने जाना,
अब बात पते की,
जब सब रस एक से लागे।
तब समझों मन अब जागे।
द्वैत का हो जब अभाव
यही है उसका स्वभाव।

(68)
कहाँ क्या है?
यह सब तो क्रीड़ा है मन की।
यह तो दिखता है,
वह तो कांच के पीछे का, प्रतिबिम्ब
उसमें ढूँढ़ते हो बिम्ब,
(आभासी) का कहाँ अस्तित्व?
साध्य के लिए साधन खोजते रहे।
कभी साधन और साध्य
की पवित्रता में उलझते रहे।
जान न पाए,
यह तो कल्प है,
कही सुनी गल्प है।

(69)
करूँ मैं कर्म,
इसे समझूँ धर्म।
क्यों मैं अपने को उलझाऊँ,
क्यों चाहू मैं फल?
नैष्कर्म की महिमा अगाध।
जो जान गया,
जिन्दगी को लिया साध।

(70)
चाहत उसकी,
होती नहीं सबकी जैसी।
भोग में उसे रस आता नहीं,
चाहत नहीं अमृत की,
दूर नहीं विष से।
जीवन की कामना क्यों?
मृत्यु से डर कैसा?
मोक्ष के लिए साधना क्यों?
क्यों किसी को दूर जाने?
क्यों हो किसी से मोह?
क्यों चाहे किसी से बिछोह,
वह बना आत्मस्वरूप
का प्रार्थी,
राह मे मिलेंगे कई साथी।

(71)
जो है, जो दिखता है,
उसे कोई कैसे न माने?
वह एक है, तो यह सब क्या?
उसने किया विस्तार,
लिए विविध आकार।
उसने रचा प्रपंच,
पर वह सबको लगा सच।
जो जान उसे पाया,
उसे तो सबमें केवल,
वहीं नजर आया।

(72)
कहने को, वे सब से अलग।
पर न एक दूसरे से विलग।
नाम से वे जाते पहचाने,
मूल एक इसे जो जाने।
वह ब्रह्म को,
जान जायेगा,
आत्म साक्षात् पायेगा।

(73)
विश्व को देख,
तुम क्यों भरमाये?
इसमें अपने को
क्यों रमाए?
जब तुम इससे,
थोडा दूर हो जाओगे।
खड़े हो दूर, बहते पानी
को जैसे देखते जाओगे,
अपने को निर्मल पावोगे।
आत्मज्ञान की जोत,
जगमगायेगा
तमस फिर कहाँ रह पायेगा?

(74)
सृष्टि का चक्र
कौन चलाता?
सूर्य रोज क्यों निकल आता?
जानना उसे,
क्या कर्म, क्या धर्म,
क्या ध्यान, वैराग्य
उस तक नहीं पहुँचते
रास्ता, रास्ता ही
रहता है,
लक्ष्य नहीं होता।
तुम तो चिपके हो इससे,
आत्मज्ञान तो स्वतः बोध है।

(75)
जिसने आत्मसाक्षात किया,
उसे न मुक्ति से
कोई काम?
आत्मस्वरूप में लगा रहे ध्यान।
वह बंधन को क्यों जाने?
उसके सिवा किसी ओर
का अस्तित्व क्यों माने?

(76)
मै क्या हूँ,
उसे तुमने केवल
अपने तक माना।
उसका सही स्वरूप न जाना।
मैं है अनन्त,
वह मैं है, मैं अंश उसका।
अहं तुम्हारा विगलित होगा नहीं,
तुमने इतनी प्रभुता पाई नहीं।
फिर कैसे हुए तुम कर्ता,
क्या तुम नहीं जानते
काम किसी का उसके बिना नही सरता।
माया का फैला है जाल,
हर कोई बेहाल।
कुछ लोग इसी में रम गए,
बढ़ रहे थे प्रभु भक्ति
में, कदम उनके थम गए।
लगने लगा संसार मनोरम,
लेने लगे रस,
...........
......
यही अच्छा लगा करम,
कीड़ा (प्राणी) था,
वासना में रत,
जीवन उसका कब
खत्म हुआ, यह
जान न पाया।
पर यहाँ (संसार) में तो
माया को देख हर
कोई भरमाया
प्राणी, बेचारा मूढ़,
किसे रहा ढूँढ।
अँधेरी खोह में जाकर,
प्रभु को न पाकर,
बहुत पछताया।

(77)
मन और बुद्धि से परे,
जानना उसे नहीं आसान।
अहंकार, जिस दिन दूर
हो जायेगा।
ममता का बंधन टूट जायेगा।
स्वरूप, उसका जान जाओगे।
फिर उससे अलग,
कुछ न पावोगे।

(78)
तत्व की बातें,
वह क्या है?
वह क्या नहीं है?
अजर है, अमर है
निर्विकार।
उसके लिए तो सब
कुछ, भी कुछ नहीं।
अस्तित्व संसार का,
वह न मानता।
कौन क्या है, वह न जानता।

(79)
रोकते हो इन्द्रियों को,
करते हो कठिन
परिश्रम।
पर मन तो बेलगाम,
दिखावा करना है आसान।
योग करने से कोई योगी
नहीं बनता।
योग जिस दिन साधोगे,
मन की शान्ति पावोगे।

(80)
कर्म, कर्म करने का
अन्तर बहुत।
उसकी है चाहत,
उसका (आत्मज्ञान)
तो है स्वभाव।
वह क्यों माने, किसी
चीज का अभाव।
करता है कर्म जान लोक दृष्टि,
प्रभु की है उस पर कृपा वृष्टि।

(81)
संदेश आत्मज्ञान
का देने से
उसे क्या होगा?
जीवन का सार जिसे दिया,
(मूढ़) जो तुमने कहा,
क्या उसने जान लिया।
फॅसा है वह मोह
आसक्ति के जाल में,
गुड़ से चिपटा
कभी स्वाद कभी विवशता
में लिपटा
जानता है वह संसार,
मान न पाया असार।

(82)
करता है वह कर्म,
चेष्टा नही करता।
जानता है मर्म,
पाया है उसने ज्ञान,
वह गया है जान।
वह तो लोक कल्याण
के लिए, कर्म करता।
अहंकार उसे नहीं सरता।

(83)
किसी से न राग,
क्या है त्याग।
विकार, कभी न लेता आकार।
क्यों हो किसी से भय?
वह है अभय।
क्या है अंधियारा,
क्या है उजियारा?
भेद वह न जानता,
भेद वह न मानता।

(84)
क्या है स्वर्ग या नर्क?
इससे मुझे नहीं पड़ता फर्क।
चाहत नहीं है जीवनमुक्ति,
कर्म (निष्काम) है
मेरी शक्ति /भक्ति।
(85)
अमृत और जहर का डर न व्यापै,
वह प्रभु को भी न जापै।
डर और निडर का भाव
क्या?
न वह अधीर,
न वह धीर
इन सबको गया चीर।
(86)
क्या लाभ क्या हानि,
गणना इसकी बेमानी।
क्यों में रोऊँ,
क्यों में खुश होऊँ।
मेरा इनसे क्या वास्ता,
मेरा तो अलग है रास्ता।
मैने तो आत्म (स्वरूप) तत्व
पाया।
अमृत ने भी मुझे न
ललचाया।

(87)
वह न हुआ क्लान्त,
सुख दुःख में भी,
बना रहा श्रान्त।
क्यों मैं किसी को भजूँ?
क्यों मैं किसी को तजूँ?
आत्मज्ञान की राह
क्यों मैं याद करूँ?

(88)
न कोई मेरी आशा,
न कोई अभिलाषा।
सुख और दुःख एक समान,
नहीं खुशी और उद्वेग ऐसा मान।
जीवन मृत्यु का,
वह जान चुका है सत्य।
इनसे (परे) निकल चुका है दूर।
इतना आनन्द मिला,
कभी न थक कर हुआ चूर।

(89)
स्त्री और पुत्र
कर्तव्य तुम्हारा, ढूँढ़ लो सूत्र।
उनका सुख और उनका दुःख
न हो तुम्हारे लिए प्रमुख।
अपनों के लिए मोह,
ऐसा न हो,
कि सह न पाओ बिछोह।
राग रहित हो,
क्लेष रहित हो।

(90)
क्यों मैं देखूँ सुख,
क्यों मैं जानू दुःख?
मुझे न इससे मतलब,
प्रारब्ध वश है यह सब।
जो जैसा है, मैं स्वीकारता।
एक वही है, जो सब को
तारता।

(91)
जो इस जग में आना है,
उसे तो एक न एक दिन जाना है।
जाना जिसने अपना स्वरूप,
गया वह उसमें डूब।
उसे कहाँ भाव पल पल,
तन के खोने का।
क्यों रखे वह भाव
रोने का।

(92)
अपने पराये से,
उपजता राग विराग,
विधि विधान प्रपंच
से दूर भाग।
कहाँ हुआ तू आसक्त,
इन से हटता जा दूर।
शान्त निर्विकार,
निश्चल, भाव, भरपूर।

(93)
वह जो करता,
वह तो नहीं करता।
कर्ता भाव अहंकार जगाता,
प्रभु से मानव को दूर भगाता।

(94)
तृष्णा तेरी,
हजार फण वाले नाग जैसी
जहर यह कभी खत्म नहीं
होने वाला।
अहं से कैसे मिले मुक्ति,
आसक्ति से मिले छुटकारा
निकालो ऐसी युक्ति।

(95)
क्या सोना क्या माटी।
मोल तुम क्या जानो?
सब एक जैसा मानो।

लोभ, लालच में फँसे,
तृष्णा रूपी साँप डसे।
दुनिया की माया,
उसे बिल्कुल न भायी।
वह तो है अलिप्त
इन सबसे।
प्रभु की भक्ति मे लगा कबसे?

(96)
उन्हें जानना नहीं आसान।
वह जो जानता,
वह जो कहता
नहीं मुझे पता
कि उसे क्या पता है?
जो कुछ वह जानता
उसे है पता कि
वह कितना कम जानता?

(97)
जब तूने जीता अपने को,
छल, छदम, झूठ कपट
सब छूट गए।
स्वच्छन्दता, संकोच
के बन्धन टूट गए।
अब ज्ञान के पथ पर,
निकल गया आगे।
उदय हुआ सूर्य,
अंधेरा भागे।

(98)
स्वरूप आत्म हुआ तू,
आनन्द के सागर में,
गोते लगाता तू।
वहाँ इच्छा तेरी कोई
रही नहीं,
वहाँ शोक जैसी
बात सही नहीं।

(99)
मन और तन ने किए,
दुनिया में भेद।
किया भाव अभाव का सृजन।
भौतिक जगत में है
इसका प्रयोजन।
पर तू तो चैतन्य को
जगाने चला,
भेद अभेद का तम मिटाने
चला।

(100)
तू क्या है,
तू क्या नहीं है?
चिन्ता तू,
अचिन्ता भी तू।
इन्द्रियों रहित भी तू।
अहंकार तूने जाना,
अहंकार तुझे न आना।
जो भाव है, वह
सब घुल मिल जाना है
सब एक बन जाना है।

(101)
क्यों तू सुखी हो?
क्यों तू दुःखी हो?
हर बार तूने की बाधा पार
न तू मुक्ति का आकांक्षी,
न तू मुक्ति का साक्षी।
न तू विरत,
न तू किसी में रत,
एक तू है जो हर हाल
रहता समभाव।

(102)
जो जागा, वह भी
कहीं खोया है।
जो सोया,
वह भी नहीं सोया है।
वह आत्म आनन्द रत,
साक्षी भाव से देखता सब।

(103)
दुखों में तू,
दुःखी न हो।
सुखों मे तू न हो
पगला।
ज्ञान तुझे जो मिला,
अहंकार से न फला।
हर स्थिति से तू हो
निर्विकार,
जीवन लेता नहीं आकार।
(परिवर्तन)