दीपशिखा : महादेवी वर्मा

Deepshikha : Mahadevi Verma

1. दीप मेरे जल अकम्पित

दीप मेरे जल अकम्पित,
घुल अचंचल!
सिन्धु का उच्छवास घन है,
तड़ित, तम का विकल मन है,
भीति क्या नभ है व्यथा का
आँसुओं से सिक्त अंचल!
स्वर-प्रकम्पित कर दिशायें,
मीड़, सब भू की शिरायें,
गा रहे आंधी-प्रलय
तेरे लिये ही आज मंगल

मोह क्या निशि के वरों का,
शलभ के झुलसे परों का
साथ अक्षय ज्वाल का
तू ले चला अनमोल सम्बल!

पथ न भूले, एक पग भी,
घर न खोये, लघु विहग भी,
स्निग्ध लौ की तूलिका से
आँक सबकी छाँह उज्ज्वल

हो लिये सब साथ अपने,
मृदुल आहटहीन सपने,
तू इन्हें पाथेय बिन, चिर
प्यास के मरु में न खो, चल!

धूम में अब बोलना क्या,
क्षार में अब तोलना क्या!
प्रात हंस रोकर गिनेगा,
स्वर्ण कितने हो चुके पल!
दीप रे तू गल अकम्पित,
चल अंचल!

2. पंथ होने दो अपरिचित

पंथ होने दो अपरिचित
प्राण रहने दो अकेला

और होंगे चरण हारे,
अन्य हैं जो लौटते दे शूल को संकल्प सारे;
दुखव्रती निर्माण-उन्मद
यह अमरता नापते पद;
बाँध देंगे अंक-संसृति से तिमिर में स्वर्ण बेला

दूसरी होगी कहानी
शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी;
आज जिसपर प्यार विस्मृत ,
मैं लगाती चल रही नित,
मोतियों की हाट औ, चिनगारियों का एक मेला

हास का मधु-दूत भेजो,
रोष की भ्रूभंगिमा पतझार को चाहे सहेजो;
ले मिलेगा उर अचंचल
वेदना-जल स्वप्न-शतदल,
जान लो, वह मिलन-एकाकी विरह में है दुकेला

3. ओ चिर नीरव

मैं सरित विकल,
तेरी समाधि की सिद्धि अकल,
चिर निद्रा में सपने का पल,
ले चली लास में लय-गौरव

मैं अश्रु-तरल,
तेरे ही प्राणों की हलचल,
पा तेरी साधों का सम्बल,
मैं फूट पड़ी ले स्वर-वैभव !

मैं सुधि-नर्तन,
पथ बना, उठे जिस ओर चरण,
दिशा रचता जाता नुपूर-स्वन,
जगता जर्जर जग का शैशव !

मैं पुलकाकुल,
पल पल जाती रस-गागर ढुल,
प्रस्तर के जाते बन्धन खुल,
लुट रहीं व्यथा-निधियाँ नव-नव !

मैं चिर चंचल,
मुझसे है तट-रेखा अविचल,
तट पर रूपों का कोलाहल,
रस-रंग-सुमन-तृण-कण-पल्लव !

मैं ऊर्म्मि विरल,
तू तुंग अचल, वह सिन्धु अतल,
बाँधें दोनों को मैं चल चल,
धो रही द्वैत के सौ कैतव !

मैं गति विह्वल,
पाथेय रहे तेरा दृग-जल,
आवास मिले भू का अंचल,
मैं करुणा की वाहक अभिनव !

4. प्राण हँस कर ले चला जब

प्राण हँस कर ले चला जब
चिर व्यथा का भार!

उभर आये सिन्धु उर में
वीचियों के लेख,
गिरि कपोलों पर न सूखी
आँसुओं की रेख।
धूलि का नभ से न रुक पाया कसक-व्यापार!

शान्त दीपों में जगी नभ
की समाधि अनन्त,
बन गये प्रहरी, पहन
आलोक-तिमिर, दिगन्त!
किरण तारों पर हुए हिम-बिन्दु बन्दनवार।

स्वर्ण-शर से साध के
घन ने लिया उर बेध,
स्वप्न-विहगों को हुआ
यह क्षितिज मूक निषेध!
क्षण चले करने क्षणों का पुलक से श्रृंगार!

शून्य के निश्वास ने दी
तूलिका सी फर,
ज्वार शत शत रंग के
फैले धरा को घेर!
वात अणु अणु में समा रचने लगी विस्तार!

अब न लौटाने कहो
अभिशाप की वह पीर,
बन चुकी स्पन्दन ह्रदय में
वह नयन में नीर!
अमरता उसमें मनाती है मरण-त्योहार!

छाँह में उसकी गये आ
शूल फूल समीप,
ज्वाल का मोती सँभाले
मोम की यह सीप
सृजन के शत दीप थामे प्रलय दीपाधार!

5. सब बुझे दीपक जला लूँ !

सब बुझे दीपक जला लूं
घिर रहा तम आज दीपक रागिनी जगा लूं

क्षितिज कारा तोडकर अब
गा उठी उन्मत आंधी,
अब घटाओं में न रुकती
लास तन्मय तडित बांधी,
धूल की इस वीणा पर मैं तार हर त्रण का मिला लूं!

भीत तारक मूंदते द्रग
भ्रान्त मारुत पथ न पाता,
छोड उल्का अंक नभ में
ध्वंस आता हरहराता
उंगलियों की ओट में सुकुमार सब सपने बचा लूं!

लय बनी मृदु वर्तिका
हर स्वर बना बन लौ सजीली,
फैलती आलोक सी
झंकार मेरी स्नेह गीली
इस मरण के पर्व को मैं आज दीवाली बना लूं!

देखकर कोमल व्यथा को
आंसुओं के सजल रथ में,
मोम सी सांधे बिछा दीं
थीं इसी अंगार पथ में
स्वर्ण हैं वे मत कहो अब क्षार में उनको सुला लूं!

अब तरी पतवार लाकर
तुम दिखा मत पार देना,
आज गर्जन में मुझे बस
एक बार पुकार लेना
ज्वार की तरिणी बना मैं इस प्रलय को पार पा लूं!
आज दीपक राग गा लूं!

6. हुए शूल अक्षत

हुए शूल अक्षत मुझे धूलि चन्दन!

अगरु धूम-सी साँस सुधि-गन्ध-सुरभित,
बनी स्नेह-लौ आरती चिर-अकम्पित,
हुआ नयन का नीर अभिषेक-जल-कण!

सुनहले सजीले रँगीले धबीले,
हसित कंटकित अश्रु-मकरन्द-गीले,
बिखरते रहे स्वप्न के फूल अनगिन!

असित-श्वेत गन्धर्व जो सृष्टि लय के,
दृगों को पुरातन, अपरिचित ह्रदय के,
सजग यह पुजारी मिले रात औ’ दिन!

परिधिहीन रंगों भरा व्योम-मंदिर,
चरण-पीठ भू का व्यथा-सिक्त मृदु उर,
ध्वनित सिन्धु में है रजत-शंख का स्वन!

कहो मत प्रलय द्वार पर रोक लेगा,
वरद मैं मुझे कौन वरदान देगा?
हुआ कब सुरभि के लिये फूल बन्धन?

व्यथाप्राण हूँ नित्य सुख का पता मैं,
धुला ज्वाल से मोम का देवता मैं,
सृजन-श्वास हो क्यों गिनूँ नाश के क्षण!

7. आज तार मिला चुकी हूँ

आज तार मिला चुकी हूँ।

सुमन में संकेत-लिपि,
चंचल विहग स्वर-ग्राम जिसके,
वात उठता, किरण के
निर्झर झुके, लय-भार जिसके,
वह अनामा रागिनी अब साँस में ठहरा चुकी हूँ!

सिन्धु चलता मेघ पर,
रुकता तड़ित् का कंठ गीला,
कंटकित सुख से धरा,
जिसकी व्यथा से व्योम नीला,
एक स्वर में विश्व की दोहरी कथा कहला चुकी हूँ!

एक ही उर में पले
पथ एक से दोनों चले हैं,
पलक पुलिनों पर,
अधर-उपकूल पर दोनों खिले हैं,
एक ही झंकार में युग अश्रु-हास घुला चुकी हूँ!

रंग-रस-संसृति समेटे,
रात लौटी प्रात लौटे;
लौटते युग कल्प पल,
पतझार औ’ मधुमास लौटे;
राग में अपने कहो किसको न पार बुला चुकी हूँ!

निष्करुण जो हँस रहे थे
तारकों में दूर ऐंठे,
स्वप्न-नभ के आज
पानी हो तृणों के साथ बैठे,
पर न मैं अब तक व्यथा का छंद अंतिम गा चुकी हूँ!

8. कहाँ से आये बादल काले

कहाँ से आये बादल काले?
कजरारे मतवाले!
शूल भरा जग, धूल भरा नभ,
झुलसीं देख दिशायें निष्प्रभ,
सागर में क्या सो न सके यह
करुणा के रखवाले?

आँसू का तन, विद्युत् का मन,
प्राणों में वरदानों का प्रण,
धीर पदों से छोड़ चले घर,
दुख-पाथेय सँभाले!

लाँघ क्षितिज की अन्तिम दहली,
भेंट ज्वाल की बेला पहली,
जलते पथ को स्नेह पिला
पग पग पर दीपक वाले!

गर्जन में मधु-लय भर बोले,
झंझा पर निधियाँ धर डोले,
आँसू बन उतरे तृण-कण ने
मुस्कानों में पाले!

नामों में बाँधे सब सपने,
रूपों में भर स्पन्दन अपने
रंगों के ताने बाने में
बीते क्षण बुन डाले!

वह जड़ता हीरों से डाली,
यह भरती मोती से थाली,
नभ कहता नयनों में बस
रज कहती प्राण समा ले

9. यह सपने सुकुमार

यह सपने सुकुमार तुम्हारी स्मित से उजले!

कर मेरे सजल दृगों की मधुर कहानी,
इनका हर कण हुआ अमर करुणा वरदानी,
उडे़ तृणों की बात तारकों से कहने यह
चुन प्रभात के गीत, साँझ के रंग सलज ले!

लिये छाँह के साथ अश्रु का कुहक सलोना,
चले बसाने महाशून्य का कोना कोना,
इनकी गति में आज मरण बेसुध बन्दी है,
कौन क्षितिज का पाश इन्हें जो बाँध सहज ले।

पंथ माँगना इन्हें पाथेय न लेना,
उन्नत मूक असीम, मुखर सीमित तल देना,
बादल-सा उठ इन्हें उतरना है, जल-कण-सा,
नभ विद्युत् के बाण, सजा शूलों को रज ले!

जाते अक्षरहीन व्यथा की लेकर पाती,
लौटानी है इन्हें स्वर्ग से भू की थाती,
यह संचारी दीप, ओट इनको झंझा दे,
आगे बढ़, ले प्रलय, भेंट तम आज गरज ले!

छायापथ में अंक बिखर जावें इनके जब,
फूलों में खिल रूप निखर आवें इनके जब,
वर दो तब यह बाँध सकें सीमा से तुमको,
मिलन-विरह के निमिष-गुँथी साँसों की स्रज ले!

10. तरल मोती से नयन भरे

तरल मोती से नयन भरे!

मानस से ले, उटे स्नेह-घन,
कसक-विद्यु पुलकों के हिमकण,
सुधि-स्वामी की छाँह पलक की सीपी में उतरे!

सित दृग हुए क्षीर लहरी से,
तारे मरकत-नील-तरी से,
सुखे पुलिनों सी वरुणी से फेनिल फूल झरे!

पारद से अनबींधे मोती,
साँस इन्हें बिन तार पिरोती,
जग के चिर श्रृंगार हुए, जब रजकण में बिखरे!

क्षार हुए, दुख में मधु भरने,
तपे, प्यास का आतप हरने,
इनसे घुल कर धूल भरे सपने उजले निखरे!

11. विहंगम-मधुर स्वर तेरे

विहंगम-मधुर स्वर तेरे,
मदिर हर तार है मेरा!

रही लय रूप छलकाती
चली सुधि रंग ढुलकाती
तुझे पथ स्वर्ण रेखा, चित्रमय
संचार है मेरा!

तुझे पा बज उठे कण-कण
मुझे छू लासमय क्षण-क्षण!
किरण तेरा मिलन, झंकार-
सा अभिसार है मेरा!

धरा से व्योम का अन्तर,
रहे हम स्पन्दनों से भर,
निकट तृण नीड़ तेरा, धूलि का
आगारा है मेरा!

न कलरव मूल्य तू लेता,
ह्रदय साँसे लुटा देता,
सजा तू लहर-सा खग,
दीप-सा श्रृंगार है मेरा।

चुने तूने विरल तिनके
गिने मैंने तरल मनके,
तुझे व्यवसाय गति है,
प्राण का व्यापार है मेरा!

गगन का तू अमर किन्नर,
धरा का अजर गायक उर,
मुखर है शून्य तुझसे लय भरा
यह क्षार है मेरा।

उड़ा तू छंद बरसाता,
चला मन स्वप्न बिखराता,
अमिट छवि की परिधि तेरी,
अचल रस-पार है मेरा!

बिछी नभ में कथा झीनी,
घुली भू में व्यथा भीनी,
तड़ित उपहार तेरा, बादलों-
सा प्यार है मेरा!

12. जब यह दीप थके तब आना

जब यह दीप थके तब आना।

यह चंचल सपने भोले हैं,
दृग-जल पर पाले मैने, मृदु
पलकों पर तोले हैं;
दे सौरभ के पंख इन्हें सब नयनों में पहुँचाना!

साधें करुणा - अंक ढली है,
सान्ध्य गगन - सी रंगमयी पर
पावस की सजला बदली है;
विद्युत के दे चरण इन्हें उर-उर की राह बताना!

यह उड़ते क्षण पुलक - भरे है,
सुधि से सुरभित स्नेह - धुले,
ज्वाला के चुम्बन से निखरे है;
दे तारो के प्राण इन्हीं से सूने श्वास बसाना!

यह स्पन्दन हैं अंक - व्यथा के
चिर उज्ज्वल अक्षर जीवन की
बिखरी विस्मृत क्षार - कथा के;
कण का चल इतिहास इन्हीं से लिख - लिख अजर बनाना!

लौ ने वर्ती को जाना है
वर्ती ने यह स्नेह, स्नेह ने
रज का अंचल पहचाना है;
चिर बन्धन में बाँध इन्हें धुलने का वर दे जाना!

13. यह मन्दिर का दीप

यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो
रजत शंख घड़ियाल स्वर्ण वंशी-वीणा-स्वर,
गये आरती बेला को शत-शत लय से भर,
जब था कल कंठो का मेला,
विहंसे उपल तिमिर था खेला,
अब मन्दिर में इष्ट अकेला,
इसे अजिर का शून्य गलाने को गलने दो!

चरणों से चिह्नित अलिन्द की भूमि सुनहली,
प्रणत शिरों के अंक लिये चन्दन की दहली,
झर सुमन बिखरे अक्षत सित,
धूप-अर्घ्य नैवेद्य अपरिमित
तम में सब होंगे अन्तर्हित,
सबकी अर्चित कथा इसी लौ में पलने दो!

पल के मनके फेर पुजारी विश्व सो गया,
प्रतिध्वनि का इतिहास प्रस्तरों बीच खो गया,
सांसों की समाधि सा जीवन,
मसि-सागर का पंथ गया बन
रुका मुखर कण-कण स्पंदन,
इस ज्वाला में प्राण-रूप फिर से ढलने दो!

झंझा है दिग्भ्रान्त रात की मूर्छा गहरी
आज पुजारी बने, ज्योति का यह लघु प्रहरी,
जब तक लौटे दिन की हलचल,
तब तक यह जागेगा प्रतिपल,
रेखाओं में भर आभा-जल
दूत सांझ का इसे प्रभाती तक चलने दो!

14. धूप सा तन दीप सी मैं

धूप सा तन दीप सी मैं!

उड़ रहा नित एक सौरभ-धूम-लेखा में बिखर तन,
खो रहा निज को अथक आलोक-सांसों में पिघल मन
अश्रु से गीला सृजन-पल,
औ' विसर्जन पुलक-उज्ज्वल,
आ रही अविराम मिट मिट
स्वजन ओर समीप सी मैं!

सघन घन का चल तुरंगम चक्र झंझा के बनाये,
रश्मि विद्युत ले प्रलय-रथ पर भले तुम श्रान्त आये,
पंथ में मृदु स्वेद-कण चुन,
छांह से भर प्राण उन्मन,
तम-जलधि में नेह का मोती
रचूंगी सीप सी मैं!

धूप-सा तन दीप सी मैं!

15. तू धूल-भरा ही आया

तू धूल-भरा ही आया!
ओ चंचल जीवन-बाल! मृत्यु जननी ने अंक लगाया!

साधों ने पथ के कण मदिरा से सींचे,
झंझा आँधी ने फिर-फिर आ दृग मींचे,
आलोक तिमिर ने क्षण का कुहक बिछाया!

अंगार-खिलौनों का था मन अनुरागी,
पर रोमों में हिम-जड़ित अवशता जागी,
शत-शत प्यासों की चली बुभाती छाया!

गाढे विषाद ने अंग कर दिये पंकिल,
बिंध गये पगों में शूल व्यथा के दुर्मिल,
कर क्षार साँस ने उर का स्वर्ण उड़ाया!

पाथेय-हीन जब सपने
आख्यानशेष रह गये अंक ही अपने,
तब उस अंचल ने दे संकेत बुलाया!

जिस दिन लौटा तू चकित थकित-सा उन्मन,
करुणा से उसके भर-भर आये लोचन,
चितवन छाया में दृग-जल से नहलाया!

पालकों पर घर-घर अगणित शीतल चुम्बन,
अपनी साँसों से पोंछ वेदना के क्षण,
हिम स्निग्ध करों से बेसुध प्राण सुलाया!

नूतन प्रभात में अक्षय यति का वर दे,
तन सजल घटा-सा तड़ित-छटा-सा उर दे
हँस तुझे खेलने फिर जग में पहुँचाया!

तू धूल भरा जब आया,
ओ चंचल जीवन-बाल मृत्यु-जननी ने अंक लगाया!

16. जो न प्रिय पहिचान पाती

जो न प्रिय पहिचान पाती।

दौड़ती क्यों प्रति शिरा में प्यास विद्युत-सी तरल बन
क्यों अचेतन रोम पाते चिर व्यथामय सजग जीवन?
किसलिये हर साँस तम में
सजल दीपक राग गाती?

चांदनी के बादलों से स्वप्न फिर-फिर घेरते क्यों?
मदिर सौरभ से सने क्षण दिवस-रात बिखेरते क्यों?
सजग स्मित क्यों चितवनों के
सुप्त प्रहरी को जगाती?

मेघ-पथ में चिह्न विद्युत के गये जो छोड़ प्रिय-पद,
जो न उनकी चाप का मैं जानती सन्देश उन्मद,
किसलिये पावस नयन में
प्राण में चातक बसाती?

कल्प-युगव्यापी विरह को एक सिहरन में सँभाले,
शून्यता भर तरल मोती से मधुर सुधि-दीप बाले,
क्यों किसी के आगमन के
शकुन स्पन्दन में मनाती?

17. आँसुओं के देश में

आँसुओं के देश में

जो कहा रूक-रूक पवन ने
जो सुना झुक-झुक गगन ने,
साँझ जो लिखती अधूरा,
प्रात रँग पाता न पूरा,
आँक डाला लह दृगों ने एक सजल निमेष में!

अतल सागर में जली जो,
मुक्त झंझा पर चली जो,
जो गरजती मेघ-स्वर में,
जो कसकती तड़ित्-उर में,
प्यास वह पानी हुई इस पुलक के उन्मेष में!

दिश नहीं प्राचीर जिसको,
पथ नहीं जंजीर जिसको
द्वार हर क्षण को बनाता,
सिहर आता बिखर जाता,
स्वप्न वह हठकर बसा इस साँस के परदेश में!

मरण का उत्सव है,
गीत का उत्सव का अमर है,
मुखर कण का संग मेला,
पर चला पंथी अकेला,
मिल गया गन्तव्य, पग को कंटकों के वेष में!

यह बताया झर सुमन ने,
वह सुनाया मूक तृण ने,
वह कहा बेसुध पिकी ने,
चिर पिपासित चातकी ने,
सत्य जो दिव कह न पाया था अमिट संदेश में!

खोज ही चिर प्राप्ति का वर,
साधना ही सिद्धि सुन्दर,
रुदन में कुख की कथा हे,
विरह मिलने की प्रथा हे,
शलभ जलकर दीप बन जाता निशा के शेष में!

आँसुओं के देश में!

18. गोधूली अब दीप जगा ले

गोधूली अब दीप जगा ले!
नीलम की निस्मीम पटी पर,
तारों के बिखरे सित अक्षर,
तम आता हे पाती में,
प्रिय का आमन्त्र स्नेह-पगा ले!

कुमकुम से सीमान्त सजीला,
केशर का आलेपन पीला,
किरणों की अंजन-रेखा
फीके नयनों में आज लगा ले!

इसमें भू के राग घुले हैं,
मूक गगन के अश्रु घुले है,
रज के रंगों में अपना तू
झीना सुरभि-दुकूल रँगा ले!

अब असीम में पंख रुक चले,
अब सीमा में चरण थक चले,
तू निश्वास भेज इनके हित
दिन का अन्तिम हास मँगा ले!

किरण-नाल पर घन के शतदल,
कलरव-लहर विहग बुद्-बुद् चल,
क्षितिज-सिन्धु को चली चपल
आभा-सरि अपना उर उमगा ले!

कण-कण दीपक तृण-तृण बाती,
हँस चितवन का स्नेह पिलाती,
पल-पल की झिलमिल लौ में
सपनों के अंकुर आज उगा ले!
गोधूली, अब दीप जगा ले!

19. मैं न यह पथ जानती री!

मैं न यह पथ जानती री!

धर्म हों विद्युत् शिखायें,
अश्रु भले बे आज अग-जग वेदना की घन-घटायें!
सिहरता मेरा न लघु उर,
काँपते पग भी न मृदुतर,
सुरभिमय पथ में सलोने स्वजन को पहचानती री!

ज्वाल के हों सिन्धु तरलित,
तुहिन-विजडित मेरु शत-शत,
पार कर लूँगी वही पग-चाप यदि कर दें निमंत्रित
नाप लेगा नभ विहग-मन
बाँध लेगा प्रलय मृदु तन,
किसलिये ये फूल-सोदर शूल आज बखानती री?

20. झिप चलीं पलकें तुम्हारी पर कथा है शेष!

झिप चलीं पलकें तुम्हारी पर कथा है शेष!

अतल सागर के शयन से,
स्वप्न के मुक्ता-चयन से,
विकल कर तन,
चपल कर मन, किरण-अंगुलि का मुझे लाया बुला निर्देश!

वीचियों-सी पुलक-लहरी,
शून्य में बन कुहक ठहरी,
रँग चले दृग,
रच चले पग, श्यामले घन-द्वीप उजले बिजलियों के देश!

मौन जग की रागिनी थी,
व्यथित रज उन्मादिनी थी,
हो गये क्षण,
अग्नि के कण,
ज्वार ज्वाला का बना जब प्यास का उन्मेष!

स्निग्ध चितवन प्राणदा ले,
चिर मिलन हित चिर विदा ले,
हँस घुली मैं,
मिट चली मैं,
आँक उल्का अक्षरों में सब अतीत निमेष!

अमिट क्रम में नील-किसलय,
बाँध नव विद्रुम-सुमन-चय,
रेख-अर्चित,
रूप-चर्चित,
इन्द्रधनुषी कर दिया मैंने कणों का वेश!

अब धरा के गान ऊने,
मचलते हैं गगन छूने,
किरण-रथ दो,
सुरभि-पथ दो,
और कह दो अमर मेरा हो चुका सन्देश!

21. मिट चली घटा अधीर!

मिट चली घटा अधीर!

चितवन तम-श्याम रंग,
इन्द्रधनुष भृकुटि-भंग,
विद्युत् का अंगराग,
दीपित मृदु अंग-अंग,
उड़ता नभ में अछोर तेरा नव नील चीर!

अविरत गायक विहंग,
लास-निरत किरण संग,
पग-पग पर उठते बज,
चापों में जलतरंग,
आई किसकी पुकार लय का आवरण चीर!

थम गया मदिर विलास,
सुख का वह दीप्त हास,
टूटे सब वलय-हार,
व्यस्त चीर अलक पाश,
बिंध गया अजान आज किसका मृदु-कठिन तीर?

छाया में सजल रात
जुगुनू में स्वप्न-व्रात,
लेकर, नव अन्तरिक्ष;
बुनती निश्वास वात,
विगलित हर रोम हुआ रज से सुन नीर नीर!

प्यासे का जान ग्राम,
झुलसे का पूछ नाम,
धरती के चरणों पर
नभ के धर शत प्रणाम,
गल गया तुषार-भार बन कर वह छवि-शरीर!

रूपों के जग अनन्त,
रँग रस के चिर बसन्त,
बन कर साकार हुआ,
तेरा वह अमर अन्त,
भू का निर्वाण हुई तेरी वह करुण पीर!
घुल गई घटा अधीर!

22. अलि कहाँ सन्देश भेजूँ?

अलि कहाँ सन्देश भेजूँ?
मैं किसे सन्देश भेजूँ?

एक सुधि अनजान उनकी,
दूसरी पहचान मन की,
पुलक का उपहार दूँ या अश्रु-भार अशेष भेजूँ!

चरण चिर पथ के विधाता
उर अथक गति नाम पाता,
अमर अपनी खोज का अब पूछने क्या शेष भेजूँ?

नयन-पथ से स्वप्न में मिल,
प्यास में घुल साध में खिल,
प्रिय मुझी में खो गया अब गया अब दूत को किस देश भेजूँ!

जो गया छबि-रूप का घन,
उड़ गया घनसार-कण बन,
उस मिलन के देश में अब प्राण को किस वेश भेजूँ!

उड़ रहे यह पृष्ठ पल के,
अंक मिटते श्वास चल के,
किस तरह लिख सजल करुणा की व्यथा सविशेष भेजूँ!

23. मोम सा तन घुल चुका

मोम सा तन घुल चुका अब दीप सा तन जल चुका है।

विरह के रंगीन क्षण ले,
अश्रु के कुछ शेष कण ले,
वरुनियों में उलझ बिखरे स्वप्न के सूखे सुमन ले,
खोजने फिर शिथिल पग,
निश्वास-दूत निकल चुका है!

चल पलक है निर्निमेषी,
कल्प पल सब तिविरवेषी,
आज स्पंदन भी हुई उर के लिये अज्ञातदेशी
चेतना का स्वर्ण, जलती
वेदना में गल चुका है!

झर चुके तारक-कुसुम जब,
रश्मियों के रजत-पल्लव,
सन्धि में आलोक-तम की क्या नहीं नभ जानता तब,
पार से, अज्ञात वासन्ती,
दिवस-रथ चल चुका है!

खोल कर जो दीप के दृग,
कह गया 'तम में बढा पग'
देख श्रम-धूमिल उसे करते निशा की सांस जगमग,
न आ कहता वही,
'सो, याम अंतिम ढल चुका है'!

अन्तहीन विभावरी है,
पास अंगारक-तरी है,
तिमिर की तटिनी क्षितिज की कूलरेख डुबा भरी है!
शिथिल कर से सुभग सुधि-
पतवार आज बिछल चुका है!

अब कहो सन्देश है क्या?
और ज्वाल विशेष है क्या?
अग्नि-पथ के पार चन्दन-चांदनी का देश है क्या?
एक इंगित के लिये
शत बार प्राण मचल चुका है!

मोम सा तन घुल चुका अब दीप सा तन जल चुका है।

24. कोई यह आँसू आज माँग ले जाता!

तापों से खारे जो विषाद से श्यामल,
अपनी चितवन में छान इन्हें कर मधु-जल,
फिर इनसे रचकर एक घटा करुणा की
कोई यह जलता व्योम आज छा जाता!

वर क्षार-शेष का माँग रही जो ज्वाला,
जिसको छूकर हर स्वप्न बन चला छाला,
निज स्नेह-सिक्त जीवन-बाती से कोई,
दीपक कर असको उर-उर में पहुँचाता!

तम-कारा-बन्दी सान्ध्य रँगों-सी चितवन;
पाषाण चुराए हो लहरों से स्पन्दन,
ये निर्मम बन्धन खोल तडित से कर से,
चिर रँग रूपों से फिर यह शून्य बसाता!

सिकता से तुलती साध क्षार से उर-धन,
पारस-साँसें बेमोल ले चला हर क्षण,
प्राणों के विनिमय से इनको ले कोई,
दिव का किरीट, भू का श्रृंगार बनाता!

25. मेघ सी घिर झर चली मैं!

मेघ सी घिर झर चली मैं!

फूल की रंगीन स्मित में
अश्रुकण से बाँध वेला,
बाँट अगणित अंकुरों में
धूलि का सपना अकेला,
पंथ के हर शूल का मुख
मोतियों से भर चली मैं!

कब दिवस का अग्नि-शर,
मेरी सजलता बेध पाया,
तारकों ने मुकुर बन
दिग्भ्रान्त कब मुझको बनाया?
ले गगन का दर्प रज में
उतर सहज निखर चली मैं!

बिखर यह दुख-भार धूमिल
तरल हीरक बन गया सित,
नाप कर निस्सीम को गति
कर रही आलोक चिन्हित;
साँस से तम-सिन्धु का पथ
इन्द्रधनुषी कर चली मैं!

बिखरना वरदान हर
निश्वास है निर्वाण मेरी,
शून्य में झँझा-विकल
विद्युत् हुई पहचान मेरी!
वेदना पाई धरोहर
अश्रु की निधि धर चली मैं!

भीति क्या यदि मिट चली
नभ से ज्वलित पग की निशानी,
प्राण में भू के हरी है;
पर सजल मेरी कहानी !
प्रश्न जीवन के स्वयं मिट
आज उत्तर कर चली मैं!

26. निमिष से मेरे विरह के कल्प बीते!

निमिष से मेरे विरह के कल्प बीते!

पंथ को निर्वाण माना,
शूल को वरदान जाना,
जानते यह चरण कण कण
छू मिलन-उत्सव मनाना!
प्यास ही से भर लिये अभिसार रीते!
ओस से ढुल कल्प बीते!

नीरदों में मन्द्र गति-स्वन,
वात में उर का प्रकम्पन,
विद्यु में पाया तुम्हारा
अश्रु से उजला निमन्त्रण!
छाँह तेरी जान तम को श्वास पीते!
फूल से खिल कल्प बीते!

माँग नींद अनन्त का वर,
कर तुम्हारे स्वप्न को चिर,
पुलक औ’ सुधि के पुलिन से
बाँध दुख का अगम सागर,
प्राण तुमसे हार कर प्रति बार जीते!
दीप से घुल कल्प बीते!

27. सब आँखों के आँसू उजले

सब आँखों के आँसू उजले
सबके सपनों में सत्‍य पला!

जिसने उसको ज्‍वाला सौंपी
उसने इसमें मकरंद भरा,
आलोक लुटाता वह घुल-घुल
देता झर यह सौरभ बिखरा!

दोनों संगी, पथ एक, किंतु
कब दीप खिला कब फूल जला?

वह अचल धरा को भेंट रहा
शत-शत निर्झर में हो चंचल,
चिर परिधि बन भू को घेरे
इसका उर्मिल नित करूणा-जल

कब सागर उर पाषाण हुआ,
कब गिरि ने निर्मम तन बदला?

नभ तारक-सा खंडित पुलकित
यह क्षुद्र-धारा को चूम रहा,
वह अंगारों का मधु-रस पी
केशर-किरणों-सा झूम रहा,

अनमोल बना रहने को
कब टूटा कंचन हीरक पिघला?

नीलम मरकत के संपुट दो
जिसमें बनता जीवन-मोती,
इसमें ढलते सब रंग-रुप
उसकी आभा स्‍पंदन होती!

जो नभ में विद्युत-मेघ बना
वह रज में अंकुर हो निकला!

संसृति के प्रति पग में मेरी
साँसों का नव अंकन चुन लो,
मेरे बनने-मिटने में नित
अपने साधों के क्षण गिन लो!

जलते खिलते जग में
घुलमिल एकाकी प्राण चला!

सपने सपने में सत्‍य ढला!

28. फिर तुमने क्यों शूल बिछाए?

फिर तुमने क्यों शूल बिछाए?

इन तलवों में गति-परमिल है,
झलकों में जीवन का जल है,
इनसे मिल काँटे उड़ने को रोये झरने को मुसकाये!

ज्वाला के बादल ने घिर नित,
बरसाये अभिशाप अपरिमित,
वरदानों में पुलके वे जब इस गीले अंचल में आये!

मरु में रच प्यासों की वेला,
छोड़ा कोमल प्राण अकेला,
पर ज्वारों की तरणी ले ममता के शत सागर लहराये!

घेरे लोचन बाँधे स्पन्दन,
रोमों से उलझाये बन्धन,
लघु तृण से तारों तक बिखरी ये साँसें तुम बाँध न पाये!

देता रहा क्षितिज पहरा-सा,
तम फैला अन्तर गहरा-सा,
पर मैंने युग-युग से खोये सब सपने इस पार बुलाये!

मेरा आहत प्राण न देखो,
टूटा स्वर सन्धान न लेखो,
लय ने बन-बन दीप जलाये मिट-मिट कर जलजात खिलाये!

फिर तुमने क्यों शूल बिछाए?

29. मैं क्यों पूछूँ यह विरह-निशा

मैं क्यों पूछूँ यह विरह-निशा,
कितनी बीती क्या शेष रही?

उर का दीपक चिर, स्नेह अतल,
सुधि-लौ शत झंझा में निश्चल,
सुख से भीनी दुख से गीली
वर्ती सी साँस अशेष रही!

निश्वासहीन-सा जग सोता,
श्रृंगार-शून्य अम्बर रोता,
तब मेरी उजली मूक व्यथा,
किरणों के खोले केश रही!

विद्युत घन में बुझने आती,
ज्वाला सागर में धुल जाती,
मैं अपने आँसू में बुझ धुल,
देती आलोक विशेष रही!

जो ज्वारों में पल कर, न बहें,
अंगार चुगें जलजात रहें,
मैं गत-आगत के चिर संगी
सपनों का कर उन्मेष रही!

उनके स्वर से अन्तर भरने,
उस गति को निज गाथा
उनके पद चिह्न बसाने को,
मैं रचती नित परदेश रही!

क्षण गूँजे औ’ यह कण गावें,
जब वे इस पथ उन्मन आवें,
उनके हित मिट-मिट कर लिखती
मैं एक अमिट सन्देश रही!

30. आज दे वरदान!

आज दे वरदान!
वेदने वह स्नेह-अँचल-छाँह का वरदान!

ज्वाल पारावार-सी है,
श्रृंखला पतवार-सी है,
बिखरती उर की तरी में
आज तो हर साँस बनती शत शिला के भार-सी है!
स्निग्ध चितवन में मिले सुख का पुलिन अनजान!

तूँबियाँ, दुख-भार जैसी,
खूँटियाँ अंगार जैसी,
ज्वलित जीवन-वीण में अब,
धूम-लेखायें उलझतीं उँगलियों से तार जैसी,
छू इसे फिर क्षार में भर करुण कोमल गान!

अब न कह ‘जग रिक्त है यह’
‘पंक ही से सिक्त है यह’
देख तो रज में अंचचल,
स्वर्ग का युवराज तेरे अश्रु से अभिसिक्त है यह!
अमिट घन-सा दे अखिल रस-रूपमय निर्वाण!

स्वप्न-संगी पंथ पर हो,
चाप का पाथेय भर हो,
तिमिर झंझावात ही में
खोजता इसको अमर गति कीकथा का एक स्वर हो!
यह प्रलय को भेंट कर अपना पता ले जान!
आज दे वरदान!

31. प्राणों ने कहा कब दूर,पग ने कब गिने थे शूल?

प्राणों ने कहा कब दूर,
पग ने कब गिने थे शूल?

मुझको ले चला जब भ्रान्त,
वह निश्वास ही का ज्वार,
मैंने हँस प्रलय से बाँध
तरिणी छोड़ दी मँझधार!
तुमसे पर न पूछा लौट,
अब होगा मिलन किस कूल?

शतधा उफन पारावार,
लेता जब दिशायें लील,
लाता खींच झंझावात,
तम के शैल कज्जल-नील,
तब संकेत अक्षरहीन,
पढ़ने में हुई कब भूल?
मेरे सार्थवाही स्वप्न
अंचल में व्यथा भरपूर,
आँखें मोतियों का देश
साँसें बिजलियों का चूर!
तुमसे ज्वाल में हो एक
मैंने भेंट ली यह धूल!

मेरे हर लहर में अंक
हर ण में पुलक के याम,
पल जो भेजते हो रिक्त
मधु भर बाँटती अविराम!
मेरी पर रही कब साध
जग होता तनिक अनुकूल?

भू की रागिनी में गूँज,
गर्जन में गगन को नाप,
क्षण में वार क्षण में पार
जाती जब चरण की चाप,
देती अश्रु का मैं अर्घ्य
घर चिनगारियों के फूल!

32. सपने जगाती आ!

श्याम अंचल,
स्नेह-उर्म्मिल,
तारकों से चित्र-उज्ज्वल,
घिर घटा-सी चाप से पुलकें उठाती आ!
हर पल खिलाती आ!

सजल लोचन,
तरल चितवन,
सरल भ्रू पर विरल श्रम-कण,
तृषित भू को क्षीर-फेनिल स्मित पिलाती आ!
कण-तृण जिलाती आ!

शूल सहते,
फूल रहते;
मौन में निज हार कहते,
अश्रु-अक्षर में पता जय का बताती आ!
हँसना सिखाती आ!

विकल नभ उर,
घूलि-जर्जर
कर गये हैं दिवस के शर,
स्निग्ध छाया से सभी छाले धुलाती आ!
क्रन्दन सुलाती आ!

लय लुटी है,
गति मिटी है,
हाट किरणों की बटी है,
धीर पग से अमर क्रम-गाथा सुनाती आ!
भूलें भुलाती आ!

व्योम में खग,
पंथ में पग,
उलझनों में खो चला जग,
लघु निलय में नींद के सबको मिलाती आ!
दूरी मिटाती आ!

कर व्यथायें,
सुख-कथायें,
तोड़ सीमा की प्रथायें,
प्रात के अभिषेक को हर दृग सजाती आ!
उर-उर बसाती आ!
सपने जगाती आ!

33. मैं पलकों में पाल रही हूँ यह सपना सुकमार किसी का!

मैं पलकों में पाल रही हूँ यह सपना सुकमार किसी का!

जाने क्यों कहता है कोई,
मैं तम की उलझन में खोई,
धूममयी वीथी-वीथी में,
लुक-छिप कर विद्युत् सी रोई;
मैं कण-कण में ढाल रही अलि आँसू के मिस प्यार किसी का!

रज में शूलों का मृदु चुम्बन,
नभ में मेघों का आमंत्रण,
आज प्रलय का सिन्धु कर रहा
मेरी कम्पन का अभिनन्दन!
लाया झंझा-दूत सुरभिमय साँसों का उपहार किसी का!

पुतली ने आकाश चुराया,
उर विद्युत्-लोक छिपाया,
अंगराग सी है अंगों में
सीमाहीन उसी की छाया!
अपने तन पर भासा है अलि जाने क्यों श्रृंगार किसी का!

मैं कैसे उलझूँ इति-अथ में,
गति मेरी संसृति है पथ में,
बनता है इतिहास मिलन का
प्यास भरे अभिसार अकथ में!
मेरे प्रति पग गर बसता जाता सूना संसार किसी का!

34. गूँजती क्यों प्राण-वंशी!

गूँजती क्यों प्राण-वंशी!

शून्यता तेरे हृदय की
आज किसकी साँस भरती?
प्यास को वरदान करती,
स्वर-लहरियों में बिखरती!
आज मूक अभाव किसने कर दिया लयवान वंशी?

अमिट मसि के अंक से
सूने कभी थे छिद्र तेरे,
पुलक अब हैं बसेरे,
मुखर रंगों के चितेरे,
आज ली इनकी व्यथा किन उँगलियों ने जान वंशी?

मृण्मयी तू रच रही यह
तरल विद्युत्-ज्वार-सा क्या?
चाँदनी घनसार-सा क्या?
दीपकों के हार-सा क्या?
स्वप्न क्यों अवरोह में, आरोह में दुखगान वंशी?
गूँजती क्यों प्राण-वंशी

35. क्यों अश्रु न हों श्रृंगार मुझे!

क्यों अश्रु न हों श्रृंगार मुझे!

रंगों के बादल निरतरंग,
रूपों के शत-शत वीचि-भंग,
किरणों की रेखाओं में भर,
अपने अनन्त मानस पट पर,
तुम देते रहते हो प्रतिपल, जाने कितने आकार मुझे!
हर छबि में कर साकार मुझे!

मेरी मृदु पलकें मूँद-मूँद,
छलका आँसू की बूँद-बूँद,
लघुत्तम कलियों में नाप प्राण,
सौरभ पर मेरे तोल गान,
बिन माँगे तुमने दे डाला, करुणा का पारावार मुझे!
चिर सुख-दुख के दो पार मुझे!

लघु हृदय तुम्हारा अमर छन्द,
स्पन्दन में स्वर-लहरी अमन्द,
हर स्नेह का चिर निबन्ध,
हर पुलक तुम्हारा भाव-बन्ध,
निज साँस तुम्हारी रचना का लगती अखंड विस्तार मुझे!
हर पल रस का संसार मुझे!

मैं चली कथा का क्षण लेकर,
मैं मिली व्यथा का कण देकर,
इसको नभ ने अवकाश दिया,
भू ने इसको इतिहास किया,
अब अणु-अणु सौंपे देता है, युग-युग का संचित प्यार मुझे!
कह-कह पाहुन सुकुमार मुझे!

रोके मुझको जीवन अधीर,
दृग-ओट न करती सजग पीर,
नुपुर से शत-शत मिलन-पाश
मुखरित, चरणों के आस-पास,
हर पग पर स्वर्ग बसा देती धरती की नव मनुहार मुझे!
लय में अविराम पुकार मुझे!
क्यों अश्रु न हो श्रृंगार मुझे!

36. शेषयामा यामिनी मेरा निकट निर्वाण! पागल रे शलभ अनजान!

शेषयामा यामिनी मेरा निकट निर्वाण!
पागल रे शलभ अनजान!

तिमिर में बुझ खो रहे विद्युत् भरे निश्वास मेरे,
नि:स्व होंगे प्राण मेरा शून्य उर होगा सवेरे;
राख हो उड़ जायगी यह
अग्निमय पहचान!

रात-सी नीरव व्यथा तम-सी अगम कहानी,
फेरते हैं दृग सुनहले आँसुओं का क्षणिक पानी,
श्याम कर देगी इसे छू
प्रात की मुस्कान!

श्रान्त नभ बेसुध धरा जब सो रहा है विश्व अलसित,
एक ज्वाला से दुकेला जल रहा उर स्नेह पुलकित,
प्रथम स्पन्दन में प्रथम पग
धर बढ़ा अवसान!

स्वर्ण की जलती तुला आलोक का व्यवसाय उज्जवल,
धूम-रेखा ने लिखा पर यह ज्वलित इतिहास धूमिल,
ढूँढती झँझा मुझे ले
मृत्यु का वरदान!

कर मुझे इँगित बता किसने तुझे यह पथ दिखाया,
तिमिर में अज्ञातदेशी क्यों मुझे तू खोज पाया!
अग्निपंथी मैं तुझे दूँ
कौन-सा प्रतिदान?

37. तेरी छाया में अमिट रंग-बहना जलना

तेरी छाया में अमिट रंग,
तेरी ज्वाला में अमर गान !

जड़ नीलम-श्रृंगों का वितान
मरकत की क्रूर शिला धरती,
घेरे पाषाणी परिधि तुझे
क्या मृदु तन में कम्पन भरती?
यह जल न सके,
यह गल न सके,
यह मिट कर पग भर चल न सके!
तू माँग न इनसे पंथ-दान!

जिसमें न व्यथा से ज्वलित प्राण
यह अचल कठिन उन्नत सपना,
सुन प्रलय-घोष बिखरा देगा,
इसको दुर्बल कम्पन अपना !
ढह आयेंगे,
बह जायेंगे,
यह ध्वंस कथा दुहरायेंगे !
तू घुल कर बन रचना-विधान!

घिरते नभ-निधि-आवर्त्त-मेघ,
मसि-वातचक्र सी वात चली,
गर्जन-मृदंग हरहर-मंजीर,
पर गाती दुख बरसात भली !
कम्पन मचली,
साँसें बिछलीं
इनमें कौंधी गति की बिजली!
तू सार्थवाह बस इन्हें मान !

जिस किरणांगुलि ने स्वप्न भरे,
मृदुकर-सम्पुट में गोद लिया,
चितवन में ढाला अतल स्नेह,
नि:श्वासों का आमोद दिया,
कर से छोड़ा,
उर से जोड़ा,
इंगित से दिशि-दिशि में मोड़ा !
क्या याद न वह आता अजान ?

उस पार कुहर-धूमिल कर से,
उजला संकेत सदा झरता,
चल आज तमिस्रा के उर्म्मिल
छोरों में स्वर्ण तरल भरता,
उन्मद हँस तू,
मिट-मिट बस तू
चिनगारी का भी मधुरस तू!
तेरे क्षय में दिन की उड़ान !

जिसके स्पन्दन में बढ़ा ज्वार
छाया में मतवाली आँधी,
उसने अंगार-तरी तेरी
अलबेली लहरों से बाँधी !
मोती धरती,
विद्युत् भरती,
दोनों उस पग-ध्वनि पर तरतीं!
बहना जलना अब एक प्राण !

38. तम में बनकर दीप-आँसू से धो आज

आँसू से धो आज इन्हीं अभिशापों को वर कर जाऊँगी !

शूलों से हो गात दुकेला,
तुहिन-भार-नत प्राण अकेला,
कण भर मधु ले, जीवन ने
हो निशि का तम दिन आतप झेला;
सुरभित साँसे बाँट तुम्हारे पथ में हंस-हंस बिछ जाऊँगी !

चाहो तो दृग स्नेह-तरल दो,
वर्ती से नि:श्वास विकल दो,
झंझा पर हँसने वाले
उर में भर दीपक की झिलमिल दो !
तम में बनकर दीप, सवेरा आंखों में भर बुझ जाऊँगी !

निमिषों में संसार ढला है,
ज्वाला में उर-फूल पला है,
मिट-मिटकर नित मूल्य चुकाने-
को सपनों का भार मिला है!
जग की रेखा-रेखा में सुख-दुख का स्पन्दन भर जाऊँगी !

39. पथ मेरा निर्वाण बन गया

पथ मेरा निर्वाण बन गया !
प्रति पग शत वरदान बन गया !

आज थके चरों ने सूने तम में विद्युतलोक बसाया,
बरसाती है रेणु चांदनी की यह मेरी धूमिल छाया,
प्रलय-मेघ भी गले मोतियों
की हिम-तरल उफान बन गया !

अंजन -वन्दना चकित दिशाओं ने चित्रित अवगुंठन डाले
रजनी ने मक्रत-वीणा पर हँस किरणों के तार-संभाले,
मेरे स्पंदन से झंझा का
हर-हर लय-संधान बन गया !

पारद-सी गल हुई शिलाएं दुर्गम नभ चन्दन-आँगन-सा,
अंगराग घनसार बनी रज, आतप सौरभ -आलेपन-सा,
शूलों का विष मृदु कलियों के
नव मधुपर्क समान बन गया !

मिट-मिटकर हर सांस लिख रही शत-शत मिलन-विरह का लेखा,
निज को खोकर निमिष आंकते अनदेखे चरणों की रेखा,
पल भर का वह स्वप्न तुम्हारी
युग युग की पहचान बन गया !

देते हो तुम फेर हास मेरा निज करुणा-जलकणमय कर,
लौटाते ही अश्रु मुझे तुम अपनी स्मित के रंगों में भर,
आज मरण का दूत तुम्हें छू
मेरा पाहुन प्राण बन गया !

40. प्रिय मैं जो चित्र बना पाती

प्रिय मैं जो चित्र बना पाती !

सौरभ से जग भरने को जो
हँस अपना उर रीता करते,
नित चलने को अविरत झरते,
मैं उन मुरझाये फूलों पर
संध्या के रंग जमा जाती!

निर्जन के भ्रान्त बटोही का
जो परिचय सुनने को मचले,
पथ दिखलाने पग थाम चले,
मैं पथ के संगी शूलों के
सौरभ के पंख लगा जाती!

जो नभ की जलती साँसों पर
हिम-लोक बनाने को गलता,
कण-कण में आने को घुलता,
उस घन की हर कम्पन पर मैं
श्ता-शत निर्वाण लुटा जाती!

जिसके पाषाणी मानस से
करुणा के शत वाहक पलते,
आँसू भर उर्म्मिल रथ चलते,
मैँ ढाल चांदनी में मधु-रस
गिरि का मृदु प्राण बता जाती!

आँखों से प्रतिपल मूल्य चुका
जिनको न गया पल लौटा मिला,
जिन पर चिर दुख-जलजात खिला,
मैं जग की चल निश्वासों में
अमरों की साध जगा जाती!

जो ले कम्पित लौ की तरणी
तम-सागर में अनजान बहा,
हँस पुलक, मरन का प्यार सहा,
मैं सस्मित बुझते दीपक में
सपनों का लोक बसा जाती!

सुधि-विद्युत् की तुली लेकर
मृदु मोम फलक-सा उर उन्मन,
मैं घोल अश्रु में ज्वाला-कण,
चिरमुक्त तुम्हीं को जीवन के
बन्धन हित विकल दिखा जाती!

41. लौट जा ओ मलय-मारुत के झकोरे

लौट जा ओ मलय-मारुत के झकोरे!

अतिथि रे अब रंगमय
मिश्री-घुला मधुपर्क कैसा?
मोतियों का अर्घ कैसा?
प्यालियाँ रीती कली की,
शून्य पल्लव के कटोरे !

भ्रमर-नूपुर-रव गया थम
मूर्छित्ता भू-किन्नरी है,
मूक पिक की बंसरी है,
आज तो वानीर-वन के
भी गये निश्वास सो रे !

निठुर नयनों में दिवस के
मेघ का रच एक सपना,
तड़ित में भर पुलक अपना,
माँग नभ से स्नेह-रस, दे
विश्व की पलकें भिगो रे !

लौटना जब धूलि, पथ में
हो हरित अंचल बिछाये,
फूल मंगल-घट सजाये,
चरण छूने के लिये, हों
मृदुल तृण करते निहोरे !

42. पूछता क्यों शेष कितनी रात

पूछता क्यों शेष कितनी रात?

छू नखों की क्रांति चिर संकेत पर जिनके जला तू
स्निग्ध सुधि जिनकी लिये कज्जल-दिशा में हँस चला तू
परिधि बन घेरे तुझे, वे उँगलियाँ अवदात!

झर गये ख्रद्योत सारे,
तिमिर-वात्याचक्र में सब पिस गये अनमोल तारे;
बुझ गई पवि के हृदय में काँपकर विद्युत-शिखा रे!
साथ तेरा चाहती एकाकिनी बरसात!

व्यंग्यमय है क्षितिज-घेरा
प्रश्नमय हर क्षण निठुर पूछता सा परिचय बसेरा;
आज उत्तर हो सभी का ज्वालवाही श्वास तेरा!
छीजता है इधर तू, उस ओर बढता प्रात!
प्रणय लौ की आरती ले
धूम लेखा स्वर्ण-अक्षत नील-कुमकुम वारती ले
मूक प्राणों में व्यथा की स्नेह-उज्ज्वल भारती ले
मिल, अरे बढ़ रहे यदि प्रलय झंझावात।

कौन भय की बात।
पूछता क्यों कितनी रात?

43. तुम्हारी बीन ही में बज रहे हैं बेसुरे सब तार

तुम्हारी बीन ही में बज रहे हैं बेसुरे सब तार !

मेरी सांस में आरोह,
उर अवरोह का संचार,
प्राणों में रही घिर घूमती चिर मूर्च्छना सुकुमार !

चितवन ज्वलित दीपक-गान,
दृग में सजल मेघ-मलार;
अभिनव मधुर उज्जवल स्वप्न शत-शत राग के श्रृंगार !

सम हर निमिष, प्रति पग ताल,
जीवन अमर स्वर-विस्तार,
मिटती लहरियों ने रच दिये कितने अमिट संसार !

तुम अपनी मिला लो बीन,
भर लो उँगलियों में प्यार,
घुल कर करुण लय में तरल विद्युत् की बहे झंकार !

फूलों से किरण की रेणु,
तारों से सुरभि का भार
बरस, चढ़ चले चौंके कणों से अजर मधु का ज्वार !

44. तू भू के प्राणों का शतदल

तू भू के प्राणों का शतदल !

सित क्षीर-फेन हीरक-रज से
जो हुए चाँदनी में निर्मित,
शरद की रेखायों में चिर
चाँदी के रंगों से चित्रित,
खुल रहे दलों पर दल झलमल !

सपनों से सुरभित दृगजल ले
धोने मुख नित रजनी आती,
उड़ते रंगों के अंचल से
फिर पोंछ उषा संध्या जाती,
तू चिर विस्मित तू चिर उज्जवल !

सीपी से नीलम से घुतिमय,
कुछ पिंग अरुण कुछ सित श्यामल,
कुछ सुख-चंचल कुछ टुख-मंथर
फैले तम से कुछ तल वरल,
मंडराते शत-शत अलि बादल !

युगव्यापी अनगिन जीवन के
अर्चन से हिम-श्रृंगार किये,
पल-पल विहसित क्षण-क्षण विकसित
बिन मुरझाये उपहार लिये,
घेरे है तू नभ के पदतल !

ओ पुलकाकुल, तू दे दिव को
नत भू के प्राणों का परिचय,
कम्पित, उर विजड़ित अधरों की
साधों का चिरजीवित संचय,
तू वज्र-कठिन किशलय--कोमल?
तू भू के प्राणों का शतदल?

45. पुजारी दीप कहीं सोता है

पुजारी दीप कहीं सोता है!

जो दृग दानों के आभारी
उर वरदानों के व्यापारी
जिन अधरों पर काँप रही है
अनमाँगी भिक्षाएँ सारी
वे थकते, हर साँस सौंप देने को यह रोता है।

कुम्हला चले प्रसून सुहासी
धूप रही पाषाण समा-सी
झरा धूल सा चंदन छाई
निर्माल्यों में दीन उदासी
मुसकाने बन लौट रहे यह जितने पल खोता है।

इस चितवन की अमिट निशानी
अंगारे का पारस पानी
इसको छूकर लौह तिमिर
लिखने लगता है स्वर्ण कहानी
किरणों के अंकुर बनते यह जो सपने बोता है।

गर्जन के शंखों से हो के
आने दो झंझा के झोंके
खोलो रुद्ध झरोखे, मंदिर
के न रहो द्वारों को रोके
हर झोंके पर प्रणत, इष्ट के धूमिल पग धोता है।

लय छंदों में जग बँध जाता
सित घन विहग पंख फैलाता
विद्रुम के रथ पर आता दिन
जब मोती की रेणु उड़ाता
उसकी स्मित का आदि, अंत इसके पथ का होता है।

46. घिरती रहे रात

घिरती रहे रात !

न पथ रून्धतीं ये
गगन तम शिलायें,
न गति रोक पातीं
पिघल मिल दिशायें;
चली मुक्त मैं ज्यों मलय की मधुर वात !
घिरती रहे रात !

न आंसू गिने औ',
न कांटे संजोये,
न पग-चाप दिग्भ्रांत;
उच्छ्वास खोये;
मुझे भेंटता हर पलक-प्रात में प्रात !
घिरती रहे रात !

नयन ज्योति वह
यह हृदय का सबेरा,
अतल सत्य प्रिय का,
लहर स्वप्न मेरा,
कही चिर विरह ने मिलन की नई बात !
घिरती रहे रात !

स्वजन, स्वर्ण कैसा
न जो ज्वाल-धोया ?
हँसा कब तड़ित् में
न जो मेघ रोया ?
लिया साध ने तोल अंगार-संघात !
घिरती रहे रात !

जले दीप को
फूल का प्राण दे दो,
शिखा लय-भरी,
साँस को दान दे दो,
खिले अग्नि-पथ में सजल मुक्ति-जलजात !
घिरती रहे रात !

47. जग अपना भाता है

जग अपना भाता है !
मुझे प्रिय पथ अपना भाता है ।

...............................
...............................
नयनों ने उर को कब देखा,
हृदय न जाना दृग का लेखा,
आग एक में और दूसरा सागर ढुल जाता है !
धुला यह वह निखरा आता है !

और कहेंगे मुक्ति कहानी,
मैंने धूलि व्यथा भर जानी,
हर कण को छू प्राण पुलक-बंधन में बंध जाता है ।
मिलन उत्सव बन क्षण आता है !
मुझे प्रिय जग अपना भाता है !

48. मैं चिर पथिक

मैं चिर पथिक वेदना का लिये न्यास !

कुछ अश्रु-कण पास !
चिर बंधु पथ आप,
पगचाप संलाप,
दूरी क्षितिज की परिधि ही रही नाप,
हर पल मुझे छांह हर साँस आवास !

बादल रहे खेल,
गा गीत अनमेल,
फैला तरल मोतियों की अमरबेल,
पविपात है व्योम का मुग्ध परिहास !

रोके निठुर लू,
थामे कठिन शूल,
पथ में बिछे या हँसे व्यंग्यमय फूल,
सनका चरण लिख रहे स्नेह-इतिहास !

कण हैं रजत-दीप,
तृण स्वप्न के सीप,
प्रति पग सुरभि की लहर ही रही लीप,
हर पत्र नक्षत्र हर डाल आकाश !

49. मेरे ओ विहग-से गान

मेरे ओ विहग-से गान !

सो रहे उर-नीड़ में मृदु पंख सुख-दुख़ के समेटे,
सघन विस्मृति में उनींदी अलस पलकों को लपेटे,
तिमिर सागर से धुले,
दिशि-कूल से अनजान ।

खोजता तुमको कहाँ से आ गया आलोक--सपना?
चौंक तोले पंख तुमको याद आया कौन अपना?
कुहर में तुम उड़ चले
किम छांह को पहचान?

शून्य में यह साध-बोझिल पंख रचते रश्मि-रेखा,
गति तुम्हारी रंग गई परिचित रंगों से पथ अदेखा,
एक कम्पन कर रही
शत इन्द्रधनु निर्माण!

तर तम-जल में जिन्होंने ज्योति के बुद्बुद जगाये,
वे सजीले स्वर तुम्हारे क्षितिज सीमा बाँध आये,
हंस उठा अब अरुण शतदल-
सा ज्वलित दिनमान!

नभ, अपरिमित में भले हो पंथ का साथी सबेरा,
खोज का पर अन्त है यह तृण-कणों का लघु बसेरा,
तुम उड़ो ले धूलि का,
करुणा-सजल वरदान !

50. सजल है कितना सवेरा

सजल है कितना सवेरा

गहन तम में जो कथा इसकी न भूला
अश्रु उस नभ के, चढ़ा शिर फूल फूला
झूम-झुक-झुक कह रहा हर श्वास तेरा

राख से अंगार तारे झर चले हैं
धूप बंदी रंग के निर्झर खुले हैं
खोलता है पंख रूपों में अंधेरा

कल्पना निज देखकर साकार होते
और उसमें प्राण का संचार होते
सो गया रख तूलिका दीपक चितेरा

अलस पलकों से पता अपना मिटाकर
मृदुल तिनकों में व्यथा अपनी छिपाकर
नयन छोड़े स्वप्न ने खग ने बसेरा

ले उषा ने किरण अक्षत हास रोली
रात अंकों से पराजय राख धो ली
राग ने फिर साँस का संसार घेरा

51. अलि, मैं कण-कण को जान चली

अलि, मैं कण-कण को जान चली,
सबका क्रन्दन पहचान चली।

जो दृग में हीरक-जल भरते,
जो चितवन इन्द्रधनुष करते,
टूटे सपनों के मनको से,
जो सुखे अधरों पर झरते।

जिस मुक्ताहल में मेघ भरे,
जो तारो के तृण में उतरे,
मै नभ के रज के रस-विष के,
आँसू के सब रँग जान चली।

जिसका मीठा-तीखा दंश न,
अंगों मे भरता सुख-सिहरन,
जो पग में चुभकर, कर देता,
जर्जर मानस, चिर आहत मन।

जो मृदु फूलो के स्पन्दन से,
जो पैना एकाकीपन से,
मै उपवन निर्जन पथ के हर,
कंटक का मृदु मन जान चली।

गति का दे चिर वरदान चली,
जो जल में विद्युत-प्यास भरा,
जो आतप मे जल-जल निखरा,
जो झरते फूलो पर देता,
निज चन्दन-सी ममता बिखरा।

जो आँसू में धुल-धुल उजला,
जो निष्ठुर चरणों का कुचला,
मैं मरु उर्वर में कसक भरे,
अणु-अणु का कम्पन जान चली,
प्रति पग को कर लयवान चली।

नभ मेरा सपना स्वर्ण रजत,
जग संगी अपना चिर विस्मित,
यह शूल-फूल कर चिर नूतन,
पथ, मेरी साधों से निर्मित।

इन आँखों के रस से गीली,
रज भी है दिल से गर्वीली,
मै सुख से चंचल दुख-बोझिल,
क्षण-क्षण का जीवन जान चली,
मिटने को कर निर्माण चली!

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