बादर बरस गयो : गोपालदास नीरज

Badar Baras Gayo : Gopal Das Neeraj

1. नहीं मिला

सुख के साथी मिले हजारों ही, लेकिन
दुःख में साथ निभानेवाला नहीं मिला ।

जब तक रही बाहर उमर की बगिया में,
जो भी आया द्वार चांद लेकर आया,
पर जिस दिन झर गई गुलाबों की पंखुरी,
मेरा आंसू मुझ तक आते शरमाया,
जिसने चाहा, मेरे फूलों को चाहा,
नहीं किसी ने लेकिन शूलों को चाहा,
मेला साथ दिखानेवाले मिले बहुत,
सूनापन बहलानेवाला नहीं मिला।
सुख के साथी मिले हजारों ही, लेकिन
दुःख में साथ निभानेवाला नहीं मिला।

कोई रंग-बिरंगे कपड़ों पर रीझा,
मोहा कोई मुखड़े की गोराई से,
लुभा किसी को गई कंठ की कोयलिया,
उलझा कोई केशों की घुंघराई से,
जिसने देखी, बस मेरी डोली देखी,
नहीं किसी ने पर दुल्हन भोली देखी,
तन के तीर तैरनेवाले मिले सभी,
मन के घाट नहानेवाला नहीं मिला।
सुख के साथी मिले हजारों ही, लेकिन
लेकिन दुःख में साथ निभानेवाला नहीं मिला।

मैं जिस दिन सोकर जागा, मैंने देखा,
मेरे चारों ओर ठगों का जमघट है,
एक इधर से एक उधर से लूट रहा,
छिन-छिन रीत रहा मेरा जीवन-घट है,
सबकी आंख लगी थी गठरी पर मेरी,
और मची थी आपस में मेरा-तेरी,
जितने मिले, सभी बस धन के चोर मिले,
लेकिन हृदय चुरानेवाला नहीं मिला।
सुख के साथी मिले हजारों ही, लेकिन
दुःख में साथ निभानेवाला नहीं मिला।

रूठी सुबह डिठौना मेरा छुड़ा गयी,
गयी ले गयी, तरुणायी सब दोपहरी,
हंसी खुशी सूरज चंदा के बांट पड़ी,
मेरे हाथ रही केवल रजनी गहरी,
आकर जो लौटा कुछ लेकर ही लौटा,
छोटा और हो गया यह जीवन छोटा,
चीर घटानेवाले ही सब मिले यहां,
घटता चीर बढ़ानेवाला नहीं मिला
सुख के साथी मिले हजारों ही लेकिन
दुःख में साथ निभानेवाला नहीं मिला।

उस दिन जुगनू एक अंधेरी बस्ती में,
भटक रहा था इधर-उधर भरमाया-सा,
आसपास था अंतहीन बस अंधियारा,
केवल था सिर पर निज लौ का साया-सा,
मैंने पूछाः तेरी नींद कहां खोयी?
वह चुप रहा, मगर उसकी ज्वाला रोयी-
नींद चुरानेवाले ही तो मिले यहां,
कोई गोद सुलानेवाला नहीं मिला।
सुख के साथी मिले हजारों ही, लेकिन
दुःख में साथ निभानेवाला नहीं मिला।

2. नींद भी मेरे नयन की

प्राण ! पहले तो हृदय तुमने चुराया
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की।

बीत जाती रात हो जाता सबेरा,
पर नयन-पंक्षी नहीं लेते बसेरा,
बन्द पंखों में किये आकाश-धरती
खोजते फिरते अँधेरे का उजेरा,
पंख थकते, प्राण थकते, रात थकती
खोजने की चाह पर थकती न मन की।
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की।

स्वप्न सोते स्वर्ग तक अंचल पसारे,
डाल कर गल-बाँह भू, नभ के किनारे
किस तरह सोऊँ मगर मैं पास आकर
बैठ जाते हैं उतर नभ से सितारे,
और हैं मुझको सुनाते वह कहानी,
है लगा देती झड़ी जो अश्रु-घन की।

सिर्फ क्षण भर तुम बने मेहमान घर में,
पर सदा को बस गये बन याद उर में,
रूप का जादू किया वह डाल मुझ पर
आज मैं अनजान अपने ही नगर में,
किन्तु फिर भी मन तुम्हें ही प्यार करता
क्या करूँ आदत पड़ी है बालपन की।
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की।

पर न अब मुझको रुलाओ और ज़्यादा,
पर न अब मुझको मिटाओ और ज़्यादा,
हूँ बहुत मैं सह चुका उपहास जग का
अब न मुझ पर मुस्कराओ और ज़्यादा,
धैर्य का भी तो कहीं पर अन्त है प्रिय !
और सीमा भी कहीं पर है सहन की।

3. दिया जलता रहा

"जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।"

थक गया जब प्रार्थना का पुण्य, बल,
सो गयी जब साधना होकर विफल,
जब धरा ने भी नहीं धीरज दिया,
व्यंग जब आकाश ने हँसकर किया,
आग तब पानी बनाने के लिए-
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।

"जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।"

बिजलियों का चीर पहने थी दिशा,
आँधियों के पर लगाये थी निशा,
पर्वतों की बाँह पकड़े था पवन,
सिन्धु को सिर पर उठाये था गगन,
सब रुके, पर प्रीति की अर्थी लिये,
आँसुओं का कारवाँ चलता रहा।

"जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।"

काँपता तम, थरथराती लौ रही,
आग अपनी भी न जाती थी सही,
लग रहा था कल्प-सा हर एक पल
बन गयी थीं सिसकियाँ साँसे विकल,
पर न जाने क्यों उमर की डोर में
प्राण बँध तिल तिल सदा गलता रहा ?

"जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।"

सो मरण की नींद निशि फिर फिर जगी,
शूल के शव पर कली फिर फिर उगी,
फूल मधुपों से बिछुड़कर भी खिला,
पंथ पंथी से भटककर भी चला
पर बिछुड़ कर एक क्षण को जन्म से
आयु का यौवन सदा ढलता रहा।

"जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।"

धूल का आधार हर उपवन लिये,
मृत्यु से श्रृंगार हर जीवन किये,
जो अमर है वह न धरती पर रहा,
मर्त्य का ही भार मिट्टी ने सहा,
प्रेम को अमरत्व देने को मगर,
आदमी खुद को सदा छलता रहा।

"जी उठे शायद शलभ इस आस में
रात भर रो रो, दिया जलता रहा।"

4. पिया दूर है न पास है

ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।

बढ़ रहा शरीर, आयु घट रही,
चित्र बन रहा लकीर मिट रही,
आ रहा समीप लक्ष्य के पथिक,
राह किन्तु दूर दूर हट रही,
इसलिए सुहागरात के लिए
आँखों में न अश्रु है, न हास है।

ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।

गा रहा सितार, तार रो रहा,
जागती है नींद, विश्व सो रहा,
सूर्य पी रहा समुद्र की उमर,
और चाँद बूँद बूँद हो रहा,
इसलिए सदैव हँस रहा मरण,
इसलिए सदा जनम उदास है।

ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।

बूँद गोद में लिए अंगार है,
होठ पर अंगार के तुषार है,
धूल में सिंदूर फूल का छिपा,
और फूल धूल का सिंगार है,
इसलिए विनाश है सृजन यहाँ
इसलिए सृजन यहाँ विनाश है।

ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।

ध्यर्थ रात है अगर न स्वप्न है,
प्रात धूर, जो न स्वप्न भग्न है,
मृत्यु तो सदा नवीन ज़िन्दगी,
अन्यथा शरीर लाश नग्न है,
इसलिए अकास पर ज़मीन है,
इसलिए ज़मीन पर अकास है।

ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।

दीप अंधकार से निकल रहा,
क्योंकि तम बिना सनेह जल रहा,
जी रही सनेह मृत्यु जी रही,
क्योंकि आदमी अदेह ढल रहा,
इसलिए सदा अजेय धूल है,
इसलिए सदा विजेय श्वास है।

ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।

5. मुहूरत निकल जायेगा

देखती ही न दर्पण रहो प्राण! तुम
प्यार का यह मुहूरत निकल जाएगा।

साँस की तो बहुत तेज रफ्तार है,
और छोटी बहुत है मिलन की घड़ी,
आँजते-आँजते ही नयन बावरे,
बुझ न जाए उम्र की फुलझड़ी,

सब मुसाफिर यहाँ, सब सफर पर यहाँ,
ठहरने की इजाजत किसी को नहीं,
केश ही तुम न बैठी गुँथाती रहो,
देखते-देखते चाँद ढल जाएगा।

देखती ही न दर्पण रहो प्राण! तुम
प्यार का यह मुहूरत निकल जाएगा।

झूमती गुनगुनाती हुई यह हवा,
कौन जाने कि तूफान के साथ हो,
क्या पता इस निदासे गगन के तले,
यह हमारे लिए आख़िरी रात हो,

जिंदगी क्या समय के बियाबान में,
एक भटकती हुई फूल की गंध है,
चूड़ियाँ ही न तुम खनखनाती रहो,
कल दिए को सवेरा निगल जाएगा।

देखती ही न दर्पण रहो प्राण! तुम
प्यार का यह मुहूरत निकल जाएगा।

यह महकती निशा, यह बहकती दिशा,
कुछ नहीं है, शरारत किसी शाम की,
चाँदनी की चमक, दीप की यह दमक,
है, हँसी बस किसी एक बेनाम की,

है लगी होड़ दिन-रात में प्रिय! यहाँ,
धूप के साथ लिपटी हुई छाँह है,
वस्त्र ही तुम बदलकर न आती रहो,
यह शर्मसार मौसम बदल जाएगा।

देखती ही न दर्पण रहो प्राण! तुम
प्यार का यह मुहूरत निकल जाएगा।

होठ पर जो सिसकते पड़े गीत ये,
एक आवाज के सिर्फ मेहमान है,
ऊँघती पुतलियों में जड़े जो सपन,
वे किन्हीं आँसुओं से मिले दान हैं,

कुछ न मेरा न कुछ है तुम्हारा यहाँ,
कर्ज के ब्याज पर सिर्फ हम जी रहे,
माँग ही तुम न बैठी सजाती रहो,
आ गया जो महाजन न टल पाएगा।

देखती ही न दर्पण रहो प्राण! तुम
प्यार का यह मुहूरत निकल जाएगा।

कौन श्रृंगार पूरा यहाँ कर सका?
सेज जो भी सजी सो अधूरी सजी,
हार जो भी गुँथा सो अधूरा गुँथा,
बीन जो भी बजी सो अधूरी बजी,

हम अधूरे, अधूरा हमारा सृजन,
पूर्ण तो एक बस प्रेम ही है यहाँ,
काँच से ही न नजरें मिलाती रहो,
बिंब का मूक प्रतिबिंब छल जाएगा।

देखती ही न दर्पण रहो प्राण! तुम
प्यार का यह मुहूरत निकल जाए।

6. बहार आई

तुम आए कण-कण पर बहार आई
तुम गए, गई झर मन की कली-कली।

तुम बोले पतझर में कोयल बोली,
बन गई पिघल गुँजार भ्रमर-टोली,
तुम चले चल उठी वायु रूप-वन की
झुक झूम-झूमकर डाल-डाल डोली,
मायावी घूँघट उठते ही क्षण में
रुक गया समय, पिघली दुख की बदली।
तुम गए, गई झर मन की कली-कली॥

रेशमी रजत मुस्कानों में रँगकर।
तारे बनकर छा गए अश्रु तम पर,
फँस उरझ उनींदे कुन्तुल-जालों में,
उतरा धरती पर ही राकेन्दु मुखर,
बन गई अमावस पूनों सोने की,
चाँदी से चमक उठे पथ गली-गली।
तुम गए, गई झर मन की कली-कली॥

तुमने निज नीलांचल जब फैलाया,
दोपहरी मेरी बनी तरल छाया,
लाजारुण ऊषे झाँकी झुरमुट से,
निज नयन ओट तुमने जब मुस्काया,
घुँघरू सी गमक उठी सूनी संध्या,
चंचल पायल जब आँगन में मचली।
तुम गए, गई झर मन की कली-कली॥

हो चले गए जब से तुम मनभावन!
मेरे आँगन में लहराता सावन,
हर समय बरसती बदली सी आँखें,
जुगनू सी इच्छाएँ बुझतीं उन्मन,
बिखरे हैं बूँदों से सपने सारे,
गिरती आशा के नीड़ों पर बिजली।
तुम गए गई झर मन की कली-कली॥

7. कितने दिन चलेगा

रूप की इस काँपती लौ के तले
यह हमारा प्यार कितने दिन चलेगा ?

नील-सर में नींद की नीली लहर,
खोजती है भोर का तट रात भर,
किन्तु आता प्रात जब गाती ऊषा,
बूँद बन कर हर लहर जाती बिखर,
प्राप्ति ही जब मृत्यु है अस्तित्व की,
यह हृदय-व्यापार कितने दिन चलेगा ?

रूप की इस काँपती लौ के तले
यह हमारा प्यार कितने दिन चलेगा ?

‘ताज’ यमुना से सदा कहता अभय-
‘काल पर मैं प्रेम-यौवन की विजय’
बोलती यमुना-‘अरे तू क्षुद्र क्या-
एक मेरी बूँद में डूबा प्रणय’
जी रही जब एक जल-कण पर तृषा,
तृप्ति का आधार कितने दिन चलेगा ?

रूप की इस काँपती लौ के तले
यह हमारा प्यार कितने दिन चलेगा ?

स्वर्ग को भू की चुनौती सा अमर,
है खड़ा जो वह हिमालय का शिखर,
एक दिन हो भूविलुंठित गल-पिघल,
जल उठेगा बन मरुस्थल अग्नि-सर,
थिर न जब सत्ता पहाड़ों की यहाँ,
अश्रु का श्रृंगार कितने दिन चलेगा ?

रूप की इस काँपती लौ के तले
यह हमारा प्यार कितने दिन चलेगा ?

गूँजते थे फूल के स्वर कल जहाँ,
तैरते थे रूप के बादल जहाँ,
अब गरजती रात सुरसा-सी खड़ी,
घन-प्रभंजन की अनल-हलचल वहाँ,
काल की जिस बाढ़ में डूबी प्रकृति,
श्‍वांस का पतवार कितने दिन चलेगा ?

रूप की इस काँपती लौ के तले
यह हमारा प्यार कितने दिन चलेगा ?

विश्‍व भर में जो सुबह लाती किरण,
साँझ देती है वही तम को शरण,
ज्योति सत्य, असत्य तम फिर भी सदा,
है किया करता दिवस निशि को वरण,
सत्य भी जब थिर नहीं निज रूप में,
स्वप्न का संसार कितने दिन चलेगा ?
रूप की इस काँपती लौ के तले
यह हमारा प्यार कितने दिन चलेगा ?

8. मरण-त्यौहार

पथिक! ठहरने का न ठौर जग, खुले पड़े सब द्वार
और डोलियों का घर-घर पर लगा हुआ बाज़ार
जन्म है यहाँ मरण-त्यौहार..

देख! धरा की नग्न लाश पर नीलाकाश खड़ा है
सागर की शीतल छाती में ज्वालामुखी जड़ा है
सूर्य उठाए हुए चाँद की अर्थी निज कंधों पर
और कली के सम्मुख उपवन का कंकाल पड़ा है
खा-खाकर निज आयु जी रही जीवन की वैदेही
रे! विष पीकर नहीं, अमृत पीकर मरता संसार
जन्म है यहाँ मरण-त्यौहार..

आँजे हुए नींद का काजल सब अँखियाँ कजरारी
आलिंगन कर रहीं मृत्यु का बाहें प्यारी-प्यारी
कोई कहीं रहे पर सबकी मंज़िल एक यहाँ पर
रे! मरघट की ओर मुड़ी हैं राहें जग की सारी
एक दिवस आती है सबके जीवन में मजबूरी
और एक दिन मिट्टी सबका करती है श्रृंगार
जीवन है यहाँ मरण-त्यौहार..

काल-तिमिर के नागपाश में बन्दी किरन-परी है
और फ़ूल के नन्हे से दिल पर चट्टान धरी है
घिरी आग की लाल घटाएँ तरु-२ पर उपवन के
पात-पात पर अंगारों की धूप-छाँह छितरी है
नीड़-नीड़ पर वज्र-बिजलियों की आँधी मँडराती
तृण-तृण में करवटें ले रहा मरूस्थल का पतझार
जन्म है यहाँ मरण-त्यौहार..

लिए गोद में नाश, मर रही ई कर यहाँ अमरता
घृणित चिता की राख छिपाए जग भर की सुन्दरता
दबा लकड़ियों के नीचे पुरूषार्थ पार्थ का सारा
अरे! कृष्ण पर क्षुद्र बधिक का तीर व्यंग्य सा करता
हाय! राम का शव सरयू में नंगा तैर रहा है
सीता का सिन्दूर अवध में करता हाहाकार
जन्म है यहाँ मरण-त्यौहार..

लगा हुआ हर एक यहाँ जाने की तैयारी में
भरी हुई हर गैल, चल रहे पर सब लाचारी में
एक-एक कर होती जाती खाली सभी सरायें
एक-एक कर बिछुड़ रहे सब मीत उमर बारी में
और कह रही रो-रो कर हर सूनी सेज अटारी
सदियों का सामान किया क्यों रहना था दिन चार?
जन्म है यहाँ मरण-त्यौहार..

9. कफ़न है आसमान

मत करो प्रिय! रूप का अभिमान
कब्र है धरती, कफ़न है आसमान।

हर पखेरू का यहाँ है नीड़ मरघट पर
है बँधी हर एक नैया, मृत्यु के तट पर
खुद बखुद चलती हुई ये देह अर्थी है
प्राण है प्यासा पथिक संसार-पनघट पर
किसलिए फिर प्यास का अपमान?
जी रहा है प्यास पी-२ कर जहान।

मत करो प्रिय! रूप का अभिमान
कब्र है धरती, कफ़न है आसमान।

भूमि से, नभ से, नरक से, स्वर्ग से भी दूर
हो कहीं इन्सान, पर है मौत से मजबूर
धूर सब कुछ, इस मरण की राजधानी में
सिर्फ़ अक्षय है, किसी की प्रीति का सिन्दूर
किसलिए फिर प्यार का अपमान?
प्यार है तो ज़िन्दगी हरदम जवान।

मत करो प्रिय ! रूप का अभिमान
कब्र है धरती, कफ़न है आसमान।

रंक-राजा, मूर्ख-पंडित, रूपवान-कुरूप
साँझ बनती है सभी की ज़िन्दगी की धूप
आखिरी सब की यहाँ पर, है चिता की सेज
धूल ही श्रृंगार अन्तिम, अन्त-रूप अनूप
किसलिए फिर धूल का अपमान?
धूल हम-तुम, धूल है सब की समान।

मत करो प्रिय ! रूप का अभिमान
कब्र है धरती, कफ़न है आसमान।

एक भी देखा न ऐसा फ़ूल इस जग में
जो नहीं पथ पर चुभा हो, शूल बन पग में
सब यहीं छूटा पिया घर, जब चली डोली
एक आँसू ही रहा बस, साथ दृग-मग में
किसलिए फिर अश्रु का अपमान?
अश्रु जीवन में अमृत से भी महान।

मत करो प्रिय! रूप का अभिमान
कब्र है धरती, कफ़न है आसमान।

प्राण! जीवन क्या क्षणिक बस साँस का व्यापार
देह की दुकान जिस पर काल का अधिकार
रात को होगा सभी जब लेन-देन समाप्त
तब स्वयं उठ जाएगा यह रूप का बाज़ार
किसलिए फिर रूप का अभिमान?
फ़ूल के शव पर खड़ा है बागबान।

मत करो प्रिय! रूप का अभिमान
कब्र है धरती, कफ़न है आसमान।

10. क्यों मन आज उदास है

आज न कोई दूर न कोई पास है
फिर भी जाने क्यों मन आज उदास है?

आज न सूनापन भी मुझसे बोलता
पात न पीपल पर भी कोई डोलता
ठिठकी सी है वायु, थका-सा नीर है
सहमी-२ रात, चाँद गम्भीर है
गुपचुप धरती, गुमसुम सब आकाश है।
फिर भी जाने क्यों मन आज उदास है?

आज शाम को झरी नहीं कोई कली
आज अँधेरी नहीं रही कोई गली
आज न कोई पंथी भटका राह में
जला पपीहा आज न प्रिय की चाह में
आज नहीं पतझार, नहीं मधुमास है।
फिर भी जाने क्यों मन आज उदास है?

आज अधूरा गीत न कोई रह गया
चुभने वाली बात न कोई कह गया
मिलकर कोई मीत आज छूटा नहीं
जुड़कर कोई स्वप्न आज टूटा नहीं
आज न कोई दर्द न कोई प्यास है।
फिर भी जाने क्यों मन आज उदास है?

आज घुमड़कर बादल छाया है कहीं
बिना बुलाए सावन आया है कहीं
किसी अधजले विकल शलभ की याद में
आज किसी ने दीप जलाया है कहीं
इसीलिए शायद मन आज उदास है।
फिर भी जाने क्यों मन आज उदास है?

11. आ गई थी याद तब

आ गई थी याद तब किस शाप की?
कोयली को दे मधुर संगीत-स्वर
सृष्टि की सीमान्त में सिन्दूर भर
धूल को कुमकुम बना, बिखरा सुरा
चूम कलियों के अधर, गुंजार कर

अब धरा पर देह धर रितुपति चला
मुस्कुराए अश्रु औ’ रोई हँसी!
आ गई थी याद तब किस शाप की?

ले नयन में कामना का तृप्ति जल
डाल मुख पर प्रीति का घूँघट नवल
साज सपनों की सुहागिन चूनरी
रंग महावर से मुखर पायल चपल

जब पिया घर रूप की दुल्हन चली
मुस्कराई माँग, रोई कंचुकी!
आ गई थी याद तब किस शाप की?

अश्रु से आराध्य के धो-धो चरण
फ़ूल से निशि दिन चढ़ा उजले सपन
गूँथ गीतों का सजल गलहार-सा
वर्तिका सी बार सब साधें तरुण

भक्त जब वरदान के क्षण सो गया
मुस्कुराई मूर्ति, रोई आरती!
आ गई थी याद तब किस शाप की?

हृदय को कर चूर, सुधियों को सुला
मोतियों की हाट, मरूस्थल में गला
ओढ़ अनचाही निठुरता का कफ़न
स्नेह का काजल नयन-जल में घुला

अश्रु-पथ जब प्रीति की अर्थी उठी
मुस्कुराई नर्तकी, रोई सती!
आ गई थी याद तब किस शाप की?

बाहु में वरदान भर निर्माण के
लोचनों में खण्ड शत दिनमान के
ओठ में मरू, वक्ष में ज्वालामुखी
कण्ठ में झोंके लिए तूफ़ान के

श्वास-यात्रा पर बढ़ी उठ देह जब
मुस्कुराई मृत्यु, रोई ज़िन्दगी।
आ गई थी याद तब किस शाप की?

12. सूनी-सूनी साँस की सितार पर

सूनी-सूनी साँस की सितार पर
गीले-गीले आँसुओं के तार पर

एक गीत सुन रही है ज़िन्दगी
एक गीत गा रही है ज़िन्दगी।

चढ़ रहा है सूर्य उधर, चाँद इधर ढल रहा
झर रही है रात यहाँ, प्रात वहाँ खिल रहा
जी रही है एक साँस, एक साँस मर रही
इसलिए मिलन-विरह-विहान में
इक दिया जला रही है ज़िन्दगी
इक दिया बुझा रही है ज़िन्दगी।

रोज फ़ूल कर रहा है धूल के लिए श्रंगार
और डालती है रोज धूल फ़ूल पर अंगार
कूल के लिए लहर-लहर विकल मचल रही
किन्तु कर रहा है कूल बूंद-बूंद पर प्रहार
इसलिए घृणा-विदग्ध-प्रीति को

एक क्षण हँसा रही है ज़िन्दगी
एक क्षण रूला रही है ज़िन्दगी।

एक दीप के लिए पतंग कोटि मिट रहे
एक मीत के लिए असंख्य मीत छुट रहे
एक बूंद के लिए गले-ढले हजार मेघ
एक अश्रु से सजीव सौ सपन लिपट रहे
इसलिए सृजन-विनाश-सन्धि पर

एक घर बसा रही है ज़िन्दगी
एक घर मिटा रही है ज़िन्दगी।

सो रहा है आसमान, रात हो रही खड़ी
जल रही बहार, कली नींद में जड़ी पड़ी
धर रही है उम्र की उमंग कामना शरीर
टूट कर बिखर रही है साँस की लड़ी-लड़ी
इसलिए चिता की धूप-छाँह में

एक पल सुला रही है ज़िन्दगी
एक पल जगा रही है ज़िन्दगी।

जा रही बहार, आ रही खिजां लिए हुए
जल रही सुबह बुझी हुई शमा लिए
रो रहा है अश्क, आ रही है आँख को हँसी
राह चल रही है गर्दे-कारवां लिए हुए
इसलिए मज़ार की पुकार पर

एक बार आ रही है ज़िन्दगी
एक बार जा रही है ज़िन्दगी।

13. व्यंग्य यह निष्ठुर समय का

व्यंग्य यह निष्ठुर समय का।

आँसुओं के स्नेह से जिसको जलाकर
प्राण-अंचल-छाँह में जिसको छिपाकर
चीखती निशि की गहन बीहड़ डगर को
पार कर पाता पथिक जिसको दया पर
पर बुझा देता वही दीपक बटोही
जब समय आता निकट दिन के उदय का।

व्यंग्य यह निष्ठुर समय का।

राह में जिसको बिछा कुसुमित पलक-दल
भार-तल पर आँक जिसके चरण-चंचल
सुरभि की सरभित सुरासरि से जिसे छू
हर लिया था ताप जिसकी देह का कल
आज फ़ूलों की उसी मृदु चाँदनी को
नोंचता बन काल वह झोंका मलय का।

व्यंग्य यह निष्ठुर समय का।

देखकर जिसका अबाधित वेग हर-हर
राह दे देते सहम कर शैल-भूधर
तृण सदृश बहते सघन बन साथ जिसके
घाटियाँ जिसमें पिघल जातीं मचलकर
बूंद सा लेकिन वही गतिवान निर्झर
खोजता आश्रय उदधि में अन्त लय का।

व्यंग्य यह निष्ठुर समय का।

कह रहे किस भाँति फिर तुम सत्य जीवन
लक्ष्य उसका एक जब बस नाश का क्षण
सत्य तो वह है समय हो दास जिसका
नाश जिसके सामने कर दे समर्पण
काल पर अंकित ना जीवन-चिन्ह कोई
किन्तु जीवन पर अमिट है लेख वय का।

व्यंग्य यह निष्ठुर समय का।

कुछ नहीं जीवन, अरे बस देह का ऋण
जो चुकाना ही हमें पड़ता किसी क्षण
कर रहा व्यापार पर इस ब्याज से जो
वह समय ही, काल ही शाश्वत-चिरन्तन
फ़ूल का है मूल्य, उपवन में ना कोई
सत्य मधु ऋतु ही सदा सिरजन-प्रलय का।

व्यंग्य यह निष्ठुर समय का।

14. बन्द कूलों में

बन्द कूलों में समुन्दर का शरीर
किन्तु सागर कूल का बन्धन नहीं है।

धूल ने सीमित को असीमित किया है
धूल ने अमरत्व मरघट को दिया है,
और सबको तो मिला जग में हलाहल
बस अकेली धूल ने अमृत पिया है
धूल सौ-सौ बार मिटकर भी न मिटती
क्योंकि उसके प्राण में धड़कन नहीं है।

बन्द कूलों में समुन्दर का शरीर
किन्तु सागर कूल का बन्धन नहीं है।

एक रवि है सौ प्रभातों का उजेरा
एक शशि है सौ निशाओं का सवेरा
एक पल निज में छिपाए कल्प लाखों
एक तृण है कोटि विहगों का बसेरा
और रजकण एक बाँधे मेरु उर में
मेरु का बन्दी मगर रजकण नहीं है।

बन्द कूलों में समुन्दर का शरीर
किन्तु सागर कूल का बन्धन नहीं है।

धूल की ऐसी सुहागिल है चुनरिया
ओढ़ जिसको हो गई विधवा उमरिया
और जिसको भूल से छू एक क्षण में
बन गई अंगार आँसू की बदरिया
धूल मंज़िल, धूल पंथी, धूल पथ है
क्योंकि उसका नाश और सृजन नहीं है।

बन्द कूलों में समुन्दर का शरीर
किन्तु सागर कूल का बन्धन नहीं है।

15. गीत-अब तुम्हारा प्यार भी

अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !

चाहता था जब हृदय बनना तुम्हारा ही पुजारी,
छीनकर सर्वस्व मेरा तब कहा तुमने भिखारी,
आँसुओं से रात दिन मैंने चरण धोये तुम्हारे,
पर न भीगी एक क्षण भी चिर निठुर चितवन तुम्हारी,
जब तरस कर आज पूजा-भावना ही मर चुकी है,
तुम चलीं मुझको दिखाने भावमय संसार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !

भावना ही जब नहीं तो व्यर्थ पूजन और अर्चन,
व्यर्थ है फिर देवता भी, व्यर्थ फिर मन का समर्पण,
सत्य तो यह है कि जग में पूज्य केवल भावना ही,
देवता तो भावना की तृप्ति का बस एक साधन,
तृप्ति का वरदान दोनों के परे जो-वह समय है,
जब समय ही वह न तो फिर व्यर्थ सब आधार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !

अब मचलते हैं न नयनों में कभी रंगीन सपने,
हैं गये भर से थे जो हृदय में घाव तुमने,
कल्पना में अब परी बनकर उतर पाती नहीं तुम,
पास जो थे हैं स्वयं तुमने मिटाये चिह्न अपने,
दग्ध मन में जब तुम्हारी याद ही बाक़ी न कोई,
फिर कहाँ से मैं करूँ आरम्भ यह व्यापार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !

अश्रु-सी है आज तिरती याद उस दिन की नजर में,
थी पड़ी जब नाव अपनी काल तूफ़ानी भँवर में,
कूल पर तब हो खड़ीं तुम व्यंग मुझ पर कर रही थीं,
पा सका था पार मैं खुद डूबकर सागर-लहर में,
हर लहर ही आज जब लगने लगी है पार मुझको,
तुम चलीं देने मुझे तब एक जड़ पतवार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !

16. प्यार सिखाना व्यर्थ है

अब मुझको प्यार सिखाना व्यर्थ है।

जब बहार के दिन थे बोली न कोयलिया,
जब वृन्दावन तड़प रहा था आया तब न सांवलिया,
बिलख बिलख मर गयी मगर जब विकल विरह की राधा,
नयन यमुन तट प्राण; मिलन का रास रचाना व्यर्थ है।
अब मुझको प्यार सिखाना व्यर्थ है।

एक बूँद के लिए पपीहे ने सौ सिन्धु बहाये,
किन्तु बादलों ने जी भर कर पाहन बरसाये,
तरस-तरस बन गयी मगर जब तृप्ति तृषा ही तो फिर,
पथराये अधरों पर अमृत भी बरसाना व्यर्थ है।
अब मुझको प्यार सिखाना व्यर्थ है।

अब सब सपने धूलल मर चुकी हैं सारी आशाएं,
टूटे सब विश्वास और बदली सब परिभाषाएं,
जीता हूँ इसलिए कि जीना भी है एक विवशता,
मरने के भी लिए ज़िन्दगी की है आवश्यकता,
इसलिए प्रिय प्राण ! किसी की सुधि का दीप सलोना,
मेरे अंधियारे खंडहर में आज जलाना व्यर्थ है।
अब मुझको प्यार सिखाना व्यर्थ है।

17. खेल यह जीवन-मरण का

आज तो अब बन्द कर दो खेल यह जीवन-मरण का।

थक चुका तन, थक चुका मन, थक चुकी अभिलाषा मन की
साँस भी चलती थकी सी, झूमती पुतली नयन की
स्वेद, रज से लस्त जीवन बन गया है भार पग पर
वह गरजती रात आती पोंछती लाली गगन की
झर रहा सीमान्त-मुक्ता-फ़ूल दिन-कामिनि-किरण का
आज तो अब बन्द कर दो खेल यह जीवन-मरण का।

स्वप्न-नीड़ों की दिशा में ले मधुर अरमान मन में
जा रहे उड़ते विहग संकेत सा करते गगन में
तैरती दिन भर रही जो नाव तट पर आ लगी है
और भी जग के खिलाड़ी जा रहे मधु की शरण में
वह अकेलों का सहारा चाँद भी खोया गगन का
आज तो अब बन्द कर दो खेल यह जीवन-मरण का।

प्रात से ही खेलता हूँ खेल मैं अब तक तुम्हारा
और क्षण भर भी नहीं विश्राम को मैंने पुकारा
किन्तु आखिर मैं मनुज हूँ और मुझमें मन मनुज का
बाद श्रम के चाहता जो सेज-शय्या का सहारा
खेलता कैसे रहूँ फिर खेल मैं निशि भर नयन का।
आज तो अब बन्द कर दो खेल यह जीवन-मरण का।

खेल होगा खत्म ये कल या नहीं- यह भी अनिश्चित
कौन जीतेगा सदा से सर्वथा यह बात अविदित
फिर कहो किस आस पर मैं लड़खड़ाता सा निरन्तर
खेलता ही नित रहूँ इस खेल से होकर अपिरिचित
जबकि सम्मुख हो रहा है खून मेरे सुख-सपन का।
आज तो अब बन्द कर दो खेल यह जीवन-मरण का।

"ओ सरल नादान मानव! जान क्या पाया न अब तक
खत्म हो सकता नहीं यह खेल बाकी साँस जब तक
वह नया कच्चा खिलाड़ी खेल के जो बीच ही में
पूछता है साथियों से बन्द होगा खेल कब तक
इसलिए फिर से जुटा जो खो गया उत्साह मन का।
आज तो अब बन्द कर दो खेल यह जीवन-मरण का।"

18. रुके न जब तक साँस

रुके न जब तक साँस, न पथ पर रुकना थके बटोही।

साँसों से पहले ही जो पंथी पथ पर रुक जाता
जग की नज़रों में कायर वह जीकर भी मर जाता
चलते-चलते ही जो मिट जाता है किन्तु डगर पर
उसके पथ की खाक विश्व मस्तक पर सदा चढ़ाता
पथ पर साँसों की गति से है मूल्य अधिक पग-गति का
पग के छालों से पथ पर यह लिखना थके बटोही।
रुके न जब तक साँस, न पथ पर रुकना थके बटोही।

अगणित कठिन पहाड़ नदी की राह रोकने आते
पर उसकी गति के सम्मुख सब चूर-चूर हो जाते
चलना ही, बढ़ना ही जिसके जीवन का व्रत-प्रण है
जग भर के तूफ़ान प्रलय-घन उसको रोक न पाते
साँसों की गति से, पग-गति से अधिक प्रबल गति मन की
पग-गति में मन की गति भर कर चलना थके बटोही।
रुके न जब तक साँस, न पथ पर रुकना थके बटोही।

जीवन क्या- माटी के तन में केवल गति भर देना
और मृत्यु क्या- उस गति को ही क्षण भर यति कर देना
गति-यति के जो बीच किन्तु है एक वस्तु अन्जानी
वही मनुज के हार-जीत के क्रम की अमिट निशानी
यही निशानी पथ पर जिससे जीत बनी मुस्काए
मुस्काकर स्वागत शूलों का करना थके बटोही।
रुके न जब तक साँस, न पथ पर रुकना थके बटोही।

19. मुस्कुराकर चल मुसाफिर

पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर!

वह मुसाफिर क्या जिसे कुछ शूल ही पथ के थका दें?
हौसला वह क्या जिसे कुछ मुश्किलें पीछे हटा दें?
वह प्रगति भी क्या जिसे कुछ रंगिनी कलियाँ तितलियाँ,
मुस्कुराकर गुनगुनाकर ध्येय-पथ, मंज़िल भुला दें?
ज़िन्दगी की राह पर केवल वही पंथी सफल है,
आँधियों में, बिजलियों में जो रहे अविचल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥

जानता जब तू कि कुछ भी हो तुझे ब़ढ़ना पड़ेगा,
आँधियों से ही न खुद से भी तुझे लड़ना पड़ेगा,
सामने जब तक पड़ा कर्र्तव्य-पथ तब तक मनुज ओ!
मौत भी आए अगर तो मौत से भिड़ना पड़ेगा,
है अधिक अच्छा यही फिर ग्रंथ पर चल मुस्कुराता,
मुस्कुराती जाए जिससे ज़िन्दगी असफल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर।

याद रख जो आँधियों के सामने भी मुस्कुराते,
वे समय के पंथ पर पदचिह्न अपने छोड़ जाते,
चिन्ह वे जिनको न धो सकते प्रलय-तूफान घन भी,
मूक रह कर जो सदा भूले हुओं को पथ बताते,
किन्तु जो कुछ मुश्किलें ही देख पीछे लौट पड़ते,
ज़िन्दगी उनकी उन्हें भी भार ही केवल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥

कंटकित यह पंथ भी हो जायगा आसान क्षण में,
पाँव की पीड़ा क्षणिक यदि तू करे अनुभव न मन में,
सृष्टि सुख-दुख क्या हृदय की भावना के रूप हैं दो,
भावना की ही प्रतिध्वनि गूँजती भू, दिशि, गगन में,
एक ऊपर भावना से भी मगर है शक्ति कोई,
भावना भी सामने जिसके विवश व्याकुल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥

देख सर पर ही गरजते हैं प्रलय के काल-बादल,
व्याल बन फुफारता है सृष्टि का हरिताभ अंचल,
कंटकों ने छेदकर है कर दिया जर्जर सकल तन,
किन्तु फिर भी डाल पर मुसका रहा वह फूल प्रतिफल,
एक तू है देखकर कुछ शूल ही पथ पर अभी से,
है लुटा बैठा हृदय का धैर्य, साहस बल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥

20. मेरा इतिहास नहीं है

काल बादलों से धुल जाए वह मेरा इतिहास नहीं है!

गायक जग में कौन गीत जो मुझ सा गाए,
मैंने तो केवल हैं ऐसे गीत बनाए,
कंठ नहीं, गाती हैं जिनको पलकें गीली,
स्वर-सम जिनका अश्रु-मोतिया, हास नहीं है!
काल बादलों से......!

मुझसे ज्यादा मस्त जगत में मस्ती जिसकी,
और अधिक आजाद अछूती हस्ती किसकी,
मेरी बुलबुल चहका करती उस बगिया में,
जहाँ सदा पतझर, आता मधुमास नहीं है!
काल बादलों से......!

किसमें इतनी शक्ति साथ जो कदम धर सके,
गति न पवन की भी जो मुझसे होड़ कर सके,
मैं ऐसे पथ का पंथी हूँ जिसको क्षण भर,
मंज़िल पर भी रुकने का अवकाश नहीं है!
काल बादलों से......!

कौन विश्व में है जिसका मुझसे सिर ऊँचा?
अभ्रंकष यह तुंग हिमालय भी तो नीचा,
क्योंकि खुले हैं मेरे लोचन उस दुनिया में,
जहाँ धरा तो है लेकिन आकाश नहीं है!
काल बादलों से......!

21. मैं तूफ़ानों में

मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो..

हैं फ़ूल रोकते, काटें मुझे चलाते..
मरुस्थल, पहाड चलने की चाह बढाते..
सच कहता हूं जब मुश्किलें ना होती हैं..
मेरे पग तब चलने मे भी शर्माते..
मेरे संग चलने लगें हवायें जिससे..
तुम पथ के कण-कण को तूफ़ान करो..

मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो..

अंगार अधर पे धर मैं मुस्काया हूं..
मैं मर्घट से ज़िन्दगी बुला के लाया हूं..
हूं आंख-मिचौनी खेल चला किस्मत से..
सौ बार म्रत्यु के गले चूम आया हूं..
है नहीं स्वीकार दया अपनी भी..
तुम मत मुझपर कोई एह्सान करो..

मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो..

शर्म के जल से राह सदा सिंचती है..
गती की मशाल आंधी मैं ही हंसती है..
शोलो से ही श्रिंगार पथिक का होता है..
मंज़िल की मांग लहू से ही सजती है..
पग में गती आती है, छाले छिलने से..
तुम पग-पग पर जलती चट्टान धरो..

मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो..

फूलों से जग आसान नहीं होता है..
रुकने से पग गतीवान नहीं होता है..
अवरोध नहीं तो संभव नहीं प्रगती भी..
है नाश जहां निर्मम वहीं होता है..
मैं बसा सुकून नव-स्वर्ग “धरा” पर जिससे..
तुम मेरी हर बस्ती वीरान करो..

मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो..

मैं पन्थी तूफ़ानों मे राह बनाता..
मेरा दुनिया से केवल इतना नाता..
वेह मुझे रोकती है अवरोध बिछाकर..
मैं ठोकर उसे लगाकर बढ्ता जाता..
मैं ठुकरा सकूं तुम्हें भी हंसकर जिससे..
तुम मेरा मन-मानस पाशाण करो..

मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो..

22. यह संभव नहीं

पंथ की कठिनाइयों से मान लूँ मैं हार-यह संभव नहीं है।

मैं चला जब, रोकने दीवार सी दुनिया खड़ी थी,
मैं हँसा तब भी, बनी जब आँख सावन की झड़ी थी,
उस समय भी मुस्कुराकर गीत मैं गाता रहा था,
जबकि मेरे सामने ही लाश खुद मेरी पड़ी थी।
आज है यदि देह लथपथ, रक्तमय पग, कंटकित मग,
फ़ेंक दूँ निज शीश का मैं भार – यह संभव नहीं है।
पंथ की कठिनाइयों से मान लूँ मैं हार- यह संभव नहीं है..

चल रहा हूँ मैं, इसी से चल रहीं निर्जीव राहें,
जल रहा हूँ मैं, इसी से हो गई उजली दिशाएँ
रात मेरी आँख का काजल चुरा कर ले गई है,
छीनकर उच्छवास मेरे बन गईं आँधी हवाएँ,
आज मेरी चेतना ही से कि जब चेतन प्रकृति है,
मैं बनूँ जड़ धूल का आधार- यह संभव नहीं है।
पंथ की कठिनाइयों से मान लूँ मैं हार- यह संभव नहीं है..

पूछती है एक मुझसे प्रश्न फिर-२ सृष्टि सारी-
‘क्या तुम्हारी भाँति ही व्याकुल पथिक! मंज़िल तुम्हारी?’
कौन उत्तर दूँ भला मैं सिर्फ़ इतना जानता हूँ,
राह पर चलती हमारे साथ ही मंज़िल हमारी,
आज तम में वह अगर ओझल हुई है लोचनों से,
मैं करूँ उसकी न सुधि साकार- यह संभव नहीं है।
पंथ की कठिनाइयों से मान लूँ मैं हार- यह संभव नहीं है..

मैं मुसाफिर हूँ कि जिसने है कभी रूकना न जाना,
है कभी सीखा न जिसने मुश्किलों में सर झुकाना,
क्या मुझे मंज़िल मिलेगी या नहीं- इसकी न चिन्ता,
क्योंकि मंज़िल है डगर पर सिर्फ़ चलने का बहाना,
और तो सब धूल, पथ पर चाह चलने की अमर बस,
मैं अमर पद का न लूँ अधिकार- यह संभव नहीं है!
पंथ की कठिनाइयों से मान लूँ मैं हार- यह संभव नहीं है..

कर्म रत-जग, हर दिशा से कर्म की आवाज आती,
काल की गति एक क्षण को भी नहीं विश्राम पाती,
मैं रुकूँ भी तो मगर यह रास्ता रुकने ना देगा,
राह पर चलते न हम ही, राह भी हमको चलाती
आज चलने के लिए जब धूल तक ललकारती है-
पंथ की कठिनाइयों से मान लूँ मैं हार- यह संभव नहीं है।

23. नयन तुम्हारे

बदल गये अब नयन तुम्हारे |

साथ साथ चले हम डगर पर
में रो रोकर तुम हंस हंसकर
लिए गोद में किन्तु न तुमने मेरे अश्रु विचारे |
बदल गये अब नयन तुम्हारे |

जिनमे स्नेह-सिंधु लहराया
प्रीति भरा काजल मुस्काया
देखे उनमे आज घृणा के धधक रहे अंगारे |
बदल गये अब नयन तुम्हारे |

सोच रहा मैं एकाकी मन
कितना कठिन प्रेम का बन्धन
वहीं गये हर बार जहाँ हम जीती बाजी हारे |
बदल गये अब नयन तुम्हारे |

24. ऐसे भी क्षण आते

अरे! ऐसे भी क्षण आते।

प्राण-व्यथा जिसको रो-रो कर,
हम चाहते सुनाना क्षण-भर,
जाकर पर उसके सम्मुख ही
रोते रोते हम सहसा मुस्काने लग जाते।
अरे! ऐसे भी क्षण आते।।

पागल हो तलाश में जिसकी,
हम खुद बन जाते रज मग की,
किन्तु प्राप्ति की व्याकुलता में
कभी-कभी हम मंज़िल से भी जागे बढ़ जाते।
अरे! ऐसे भी क्षण आते।।

जिसकी पूजा जीवन की गति,
पथ-पाथेय मधुर जिसकी स्मृति,
मचल उसी आराध्य से कभी
हम अपनी ही पूजा करवाने को अकुलाते।
अरे! ऐसे भी क्षण आते।।

25. इतना तो बतलाते

निष्ठुर इतना तो बतलाते!

कौन भूल ऐसी की हमनें
जो यह दण्ड दिया है तुमने
थमते अश्रु न और भूलकर होंठ कभी मुस्काते।
निष्ठुर इतना तो बतलाते!

तोड़ प्रेम के बन्धन सारे
जाना था यूँ ही यदि प्यारे
ले जाते निज याद, हृदय मेरा मुझको दे जाते।
निष्ठुर इतना तो बतलाते!

तो अकुलाते प्राण न इतने
तो न बिलखते टूटे सपने
हम भी आकर द्वार तुम्हारे, तुम पर धूल उड़ाते।
निष्ठुर इतना तो बतलाते!

हैं जग में सुन्दर से सुन्दर
बहुत देवता, जो पूजा पर
कर देते खुद को न्योछावर
किन्तु हमारी कमजोरी यह-
उनको ही पूजते सदा हम, जो पूजा ठुकराते।
निष्ठुर इतना तो बतलाते!

26. तेरी भारी हार

हुई थी तेरी भारी हार !

मन बोला अब भक्ति न होगी,
पूजा में अनुरक्ति न होगी,
देने को वरदान देवता हुआ कि जब तैयार !
हुई थी तेरी भारी हार !

पग बोला क्षण-भर भी मैं अब,
चल न सकूँगा इस पथ पर जब,
मंज़िल थी रह गई दूर बस केवल पग दो-चार !
हुई थी तेरी भारी हार !

कंठ रुका सहसा यह कहकर,
रह अनसुना ही मेरा स्वर,
मुखरित होने वाला था जब गीतों का संसार !
हुई थी तेरी भारी हार !

27. पराजय भी फिर जय है

यदि मन अजित-अजेय, पराजय भी फिर जय है।

भुलुंठित भूजचक्र, किरीट, कवच, कल कुंडल,
टूक-टूक तूणीर, खंड कोदण्ड, दण्ड-बल,
श्रीहत शयित धरायित सैन्य सनी शोणित में,
क्षत-विक्षत शिर-वक्ष, न कोई साथी-सम्बल,
पर जब तक लालसा समर की शेष रक्त में,
हार - हार यह नहीं, विजय ही अमर अभय है।
यदि मन अजित-अजेय, पराजय भी फिर जय है।

अर्घ्य नहीं, आरती नहीं, हो नहीं अर्चना,
कर्म नहीं, साधना नहीं, हो नहीं वन्दना,
ध्यान नहीं, धारणा नहीं, हो नहीं देवता,
फूल न चन्दन, भोग न पूजा, नहीं प्रार्थना,
पूजा की भावना पुजारी में पर जब तक,
झुके जहाँ भी शीश यहीं तो देवालय है।
यदि मन अजित-अजेय, पराजय भी फिर जय है।

सुप्त सितारे, चाँद, गगन, भू, सुप्त दिशायें,
सुप्त विजन वन, सुप्त पात, द्रुम, सुप्त हवायें,
सपनों के जादूघर में खो गई पुतलियाँ,
सुप्त प्रणय के गान, प्राण की सुप्त व्यथायें,
पर जब तक छल रहा चकोरी को शशि निष्ठुर
यह निंद्रालस-रास जागरण का अभिनय है।
यदि मन अजित-अजेय, पराजय भी फिर जय है।

धू-धू जलती धरा उगलती आग-अंगारे,
ताप-त्रस्त नभ, खौल रहे सरि-सागर सारे,
पीत पात रूखे-सूखे तरु, नंगी डालें,
फूल, कली, मधु, गंध न, मधुकर दूर सिधारे,
बुलबुल के दिल में पर जब तक याद चमन की
यह पतझर तूफ़ान मदिर मधुवात मलय है।
यदि मन अजित-अजेय, पराजय भी फिर जय है।

शब्द न भाषा भाव, न छन्द बन्द का बन्धन,
काव्य - कल्पना नहीं, कला का नहीं प्रदर्शन,
ज्ञात नहीं स्वर-ताल, ज्ञान भी नहीं राग का,
नहीं साधना, नहीं शास्त्र का अध्ययन मन्थन,
पर जब तक तुम मेरे गीतों को गाती हो
मेरे गीतों का प्रति-प्रति अक्षर अक्षय है।
यदि मन अजित-अजेय, पराजय भी फिर जय है।

यह कैसा आश्चर्य कि युग-व्यापी जीवन का
थामे कर में सूत्र इशारा केवल मन का?
इतनी बहीं धरा पर संचालित ऋतु से बस ?
एक क्षुद्र - सा फूल रूप सारे उपवन का ?
एक बूँद ही तो समुद्र की गहराई है,
एक सत्य ही तो सौ सपनों का आश्रय है।
यदि मन अजित-अजेय, पराजय भी फिर जय है।

28. धर्म है

जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना,
उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है।

जिस वक़्त जीना गैर मुमकिन सा लगे,
उस वक़्त जीना फर्ज है इंसान का,
लाजिम लहर के साथ है तब खेलना,
जब हो समुन्द्र पे नशा तूफ़ान का
जिस वायु का दीपक बुझना ध्येय हो
उस वायु में दीपक जलाना धर्म है।

हो नहीं मंज़िल कहीं जिस राह की
उस राह चलना चाहिए इंसान को
जिस दर्द से सारी उम्र रोते कटे
वह दर्द पाना है जरूरी प्यार को
जिस चाह का हस्ती मिटाना नाम है
उस चाह पर हस्ती मिटाना धर्म है।

आदत पड़ी हो भूल जाने की जिसे
हर दम उसी का नाम हो हर सांस पर
उसकी खबर में ही सफ़र सारा कटे
जो हर नजर से हर तरह हो बेखबर
जिस आँख का आखें चुराना काम हो
उस आँख से आखें मिलाना धर्म है।

जब हाथ से टूटे न अपनी हथकड़ी
तब मांग लो ताकत स्वयम जंजीर से
जिस दम न थमती हो नयन सावन झड़ी
उस दम हंसी ले लो किसी तस्वीर से
जब गीत गाना गुनगुनाना जुर्म हो
तब गीत गाना गुनगुनाना धर्म है।

29. फूल हो जो

फूल हो जो शूल से श्रृंगार करता हूँ,
ज़िन्दगी के साथ मैं खिलवार करता हूँ।

क्योंकि है यह ज़िन्दगी रंगीन छाया-धूप,
भोर का उजियार है जग का सुनहरी रूप,
स्वप्न-वन तन है कि जिसमें प्राण का पंछी,
श्वास-तिनकों से रहा बुन मृत्यु-नीड़ अनूप,
इसलिए हँस मृत्यु भी स्वीकार करता हूँ
और विष को भी अमृत की धार करता हूँ।

जानता हूँ राह पर दो दिन रहेंगे फूल,
आज ही तक सिर्फ है यह वायु भी अनुकूल,
रात - भर के ही लिए है आँख में सपना,
आँजनी कल ही पड़ेगी लोचनों में धूल,
इसलिए हर फूल को गलहार करता हूँ
पल का भी इसलिए सत्कार करता हूँ।

प्राण ! है अपना यहाँ बस कुछ क्षणों का साथ,
कल अलग होना हमें होगा बिना कुछ बात,
रात की जब तक सजी है सेज शर्मीली,
है बँधा भुजपाश में तब तक तुम्हारा गात,
इसलिए हर रात को अभिसार करता हूँ,
और दिन में याद को साकार करता हूँ।

तुम मुझे इसके लिए चाहे करो बदनाम,
क्यों न विजने ही बुरे मेरे धरो तुम नाम,
दंड भी चाहे कठिन तुम दो मुझे इतना,
डूब जाए आँसुओं में हर सुबह, हर शाम,
पर यही अपराध मैं हर बार करता हूँ-
"आदमी हूँ, आदमी से प्यार करता हूँ।"

30. कल का करो न ध्यान

आज पिला दो जी भर कर मधु कल का करो न ध्यान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!

संभव है कल तक मिट जाए, मधु के प्रति आकर्षण मन का
मधु पीने के लिए न हो, कल संभव है संकेत गगन का
पीने और पिलाने को हम ही न रहें कल संभव यह भी
पल-पल पर झकझोर रहा है, काल प्रबल दामन जीवन का
कौन जानता है कब किस पल तार-तार क्षण में हो जाए
जीवन क्या- साँसों के कच्चे धागों का परिधान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!

क्या मालूम घिरी न घिरी कल यह मनभावन घटा गगन में
क्या मालूम चली न चली कल यह मृदु मन्द पवन मधुवन में
स्वर्ग नर्क को भूल आज जो गीत गा रही लाल परी के
क्या मालूम रही न रही कल मस्ती वह दीवानी मन में
अनमाँगे वरदान सदृश जो छलक उठा मधु जीवन-घट में
क्या मालूम वही कल विष बन, बने स्वप्न-अवसान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!

मस्त कनखियों से साकी की जहाँ सुरा हरदम झरती थी
पायल की रुनझुन धुन में, आवाज मौत की भी मरती थी
मदिरा की रंगीन ओढ़नी ओढ़ महल में मदिरालय के
कलियों की मुस्कानों से कामना सिंगार जहाँ करती थी
आज किन्तु उस तृषा-तीर्थ के शेष चिन्ह केवल दो ही थे-
मरघट-सा सूना भयावना और भूँकते श्वान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!

और इधर इस पथ पर तो कल घिरा मौत का था अँधियारा
टूक-टूक हो पड़ा धूल में सिसक रहा था मणिक प्याला
मधु तो दूर, गरल की भी दो बूंदें थीं न नयन के सम्मुख
लेता था उच्छवास तिमिर में पड़ा विसुध मन पीने वाला
आज अचानक ही पर जो तुम हो, मैं हूँ, मधु है, बदली है
इसका अर्थ यही है कि चाहता विधि भी हो मदुपान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!

जीवन में ऐसा शुभ अवसर कभी-कभी ही तो आता है
प्यासे के समीप ही जब खुद मदिरालय दौड़ा जाता है
वह अज्ञानी है इस जग के मिथ्या तर्कों में पड़कर जो
खो ऐसा वरदान अन्त तक कर मल-मल कर पछताता है
व्यर्थ न मुझे बताओ इससे पाप, पुण्य की परिभाषाएँ
किन्तु डूब मधु में सब कुछ बनने दो एक समान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!

पीकर भी यदि ध्यान रहा कल का तो व्यर्थ पिपासा मन की
व्यर्थ सुराही की गहराई, व्यर्थ सुरा सुरभित चितवन की
मदिरा नहीं, किन्तु मदिरा के प्याले में मृगजल केवल वह
पीकर जिसे न भूल सके मन, चिन्ता जीवन और मरण की
मस्ती भी वह मस्ती क्या, जो देख काल की भृकुटि-भंगिमा
भूल जाए गाना जीवन की मृदिर तृषा का गान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!

खेल ‘आज-कल’ का यह प्रेयसि! युग-युग से चलता आता है
किन्तु कभी क्या कोई जग में सीमा कल की छू पाता है?
जीवन के दो ही दिन जिनमें आज जन्म है और मरण कल
कल की आस लिए सारा जग ओर चिता की ही जाता है
प्रिय! इससे अरमानों की इस लाज भरी क्वाँरी सी निशि को
बन जाने भी दो सुहाग की रात, छोड़ हठ, मान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!

31. अब बुलाऊँ भी तुम्हें

अब बुलाऊँ भी तुम्हें तो तुम न आना!

टूट जाए शीघ्र जिससे आस मेरी
छूट जाए शीघ्र जिससे साँस मेरी,
इसलिए यदि तुम कभी आओ इधर तो
द्वार तक आकर हमारे लौट जाना!
अब बुलाऊँ भी तुम्हें...!!

देख लूं मैं भी कि तुम कितने निठुर हो,
किस कदर इन आँसुओं से बेखबर हो,
इसलिए जब सामने आकर तुम्हारे
मैं बहाऊँ अश्रु तो तुम मुस्कुराना।
अब बुलाऊँ भी तुम्हें...!!

जान लूं मैं भी कि तुम कैसे शिकारी,
चोट कैसी तीर की होती तुम्हारी,
इसलिए घायल हृदय लेकर खड़ा हूँ
लो लगाओ साधकर अपना निशाना!
अब बुलाऊँ भी तुम्हें...!!

एक भी अरमान रह जाए न मन में,
औ, न बचे एक भी आँसू नयन में,
इसलिए जब मैं मरूं तब तुम घृणा से
एक ठोकर लाश में मेरी लगाना!
अब बुलाऊँ भी तुम्हें...!!

32. आज मेरी गोद में

आज मेरी गोद में शरमा रहा कोई
चाँद से कह दो नहीं वह मुस्कुराए।

जा बहारों से कहो बोले न बुलबुल
क्योंकि अनबोली कहानी चल रही है
जा सितारों के बुझा दो दीप सारे
क्योंकि पानी बिन जवानी जल रही है

अब पिया को और मत टेरे पपीहा
क्योंकि सीने में धड़कता दिल किसी का
करवटें बदले न लहरों की शरारत
क्योंकि डूबा जा रहा साहिल किसी का

आज सपना हो गया साकार सम्मुख
रात से बोलो न वह सपने सजाए
चाँद से कह दो नहीं वह मुस्कुराए।

आज प्यासी बाहुओं के कुंजवन में
सागरों की देह शरमाई पड़ी है
थरथराते गर्म होंठों की शरण में
आग की आँधी बुलाई-सी खड़ी है
आज लगता है कि पलकों की सतह पर
सो रहा है अनमना तूफ़ान कोई
जान पड़ता है कि सांसों से उलझकर
रह गया है एक रेगिस्तान कोई
आज जो मुझको छुएगा वह जलेगा
इसलिए कोई न अब उँगली उठाए
चाँद से कह दो नहीं वह मुस्कुराए।

आज पहली बार अपनी ज़िन्दगी में
कर रहा महसूस- मैं भी जी रहा हूँ
आज पहली बार होकर बेखबर मैं
हर कसम पर बे पिए ही पी रहा हूँ

आज पहली बार ही मानो न मानो
सो सका हूँ खोलकर मैं साँस अपनी
आज पहली बार साँसों के सफ़र में
हो सकी है एक अपनी चीज अपनी

आज मैं अनमोल हूँ बेमोल बिक कर
जग न अब मेरी कहीं कीमत लगाए
चाँद से कह दो नहीं वह मुस्कुराए।

आज मत पूछो कि मैं क्या कर रहा हूँ
और है क्या कह रहा संसार सारा
आज मुझको भय नहीं है काल का भी
आज मेरा प्राण है जलता अंगारा

प्रश्न तो संसार के हरदम हुए हैं
और होते ही रहेंगे ज़िन्दगी भर
पर न आएगी कभी यह रात फिर से
पर मिलोगी न फिर न तुम जीवन-डगर पर
इसलिए यदि द्वार आए मुक्ति भी तो
बेइज़ाज़त आज वह भी लौट जाए
चाँद से कह दो नहीं वह मुस्कुराए।

33. अभी न जाओ प्राण

अभी न जाओ प्राण ! प्राण में प्यास शेष है,
प्यास शेष है,

अभी बरुनियों के कुञ्जों मैं छितरी छाया,
पलक-पात पर थिरक रही रजनी की माया,
श्यामल यमुना सी पुतली के कालीदह में,
अभी रहा फुफकार नाग बौखल बौराया,
अभी प्राण-बंसीबट में बज रही बंसुरिया,
अधरों के तट पर चुम्बन का रास शेष है।
अभी न जाओ प्राण ! प्राण में प्यास शेष है।
प्यास शेष है।

अभी स्पर्श से सेज सिहर उठती है, क्षण-क्षण,
गल-माला के फूल-फूल में पुलकित कम्पन,
खिसक-खिसक जाता उरोज से अभी लाज-पट,
अंग-अंग में अभी अनंग-तरंगित-कर्षण,
केलि-भवन के तरुण दीप की रूप-शिखा पर,
अभी शलभ के जलने का उल्लास शेष है।
अभी न जाओ प्राण! प्राण में प्यास शेष है,
प्यास शेष है।

अगरु-गंध में मत्त कक्ष का कोना-कोना,
सजग द्वार पर निशि-प्रहरी सुकुमार सलोना,
अभी खोलने से कुनमुन करते गृह के पट
देखो साबित अभी विरह का चन्द्र -खिलौना,
रजत चांदनी के खुमार में अंकित अंजित-
आँगन की आँखों में नीलाकाश शेष है।
अभी न जाओ प्राण! प्राण में प्यास शेष है,
प्यास शेष है।

अभी लहर तट के आलिंगन में है सोई,
अलिनी नील कमल के गन्ध गर्भ में खोई,
पवन पेड़ की बाँहों पर मूर्छित सा गुमसुम,
अभी तारकों से मदिरा ढुलकाता कोई,
एक नशा-सा व्याप्त सकल भू के कण-कण पर,
अभी सृष्टि में एक अतृप्ति-विलास शेष है।
अभी न जाओ प्राण! प्राण में प्यास शेष है,
प्यास शेष है।

अभी मृत्यु-सी शांति पड़े सूने पथ सारे,
अभी न उषा ने खोले प्राची के द्वारे,
अभी मौन तरु-नीड़, सुप्त पनघट, नौकातट,
अभी चांदनी के न जगे सपने निंदियारे,
अभी दूर है प्रात, रात के प्रणय-पत्र में-
बहुत सुनाने सुनने को इतिहास शेष है।
अभी न जाओ प्राण! प्राण में प्यास शेष है,
प्यास शेष है।

34. मगर निठुर न तुम रुके

मगर निठुर न तुम रुके, मगर निठुर न तुम रुके!

पुकारता रहा हृदय, पुकारते रहे नयन,
पुकारती रही सुहाग दीप की किरन-किरन,
निशा-दिशा, मिलन-विरह विदग्ध टेरते रहे,
कराहती रही सलज्ज सेज की शिकन शिकन,
असंख्य श्वास बन समीर पथ बुहारते रहे,
मगर निठुर न तुम रुके!

पकड़ चरण लिपट गए अनेक अश्रु धूल से,
गुंथे सुवेश केश में अशेष स्वप्न फूल से,
अनाम कामना शरीर छांह बन चली गई,
गया हृदय सदय बंधा बिंधा चपल दुकूल से,
बिलख-बिलख जला शलभ समान रूप अधजला,
मगर निठुर न तुम रुके!

विफल हुई समस्त साधना अनादि अर्चना,
असत्य सृष्टि की कथा, असत्य स्वप्न कल्पना,
मिलन बना विरह, अकाल मृत्यु चेतना बनी,
अमृत हुआ गरल, भिखारिणी अलभ्य भावना,
सुहाग-शीश-फूल टूट धूल में गिरा मुरझ-
मगर निठुर न तुम रुके!

न तुम रुके, रुके न स्वप्न रूप-रात्रि-गेह में,
न गीत-दीप जल सके अजस्र-अश्रु-मेंह में,
धुआँ धुआँ हुआ गगन, धरा बनी ज्वलित चिता,
अंगार सा जला प्रणय अनंग-अंक-देह में,
मरण-विलास-रास-प्राण-कूल पर रचा उठा,
मगर निठुर न तुम रुके!

आकाश में चांद अब, न नींद रात में रही,
न साँझ में शरम, प्रभा न अब प्रभात में रही,
न फूल में सुगन्ध, पात में न स्वप्न नीड़ के,
संदेश की न बात वह वसंत-वात में रही,
हठी असह्य सौत यामिनी बनी तनी रही-
मगर निठुर न तुम रुके!

35. नारी

अर्ध सत्य तुम, अर्ध स्वप्न तुम, अर्ध निराशा-आशा
अर्ध अजित-जित, अर्ध तृप्ति तुम, अर्ध अतृप्ति-पिपासा,
आधी काया आग तुम्हारी, आधी काया पानी,
अर्धांगिनी नारी! तुम जीवन की आधी परिभाषा।
इस पार कभी, उस पार कभी.....

तुम बिछुड़े-मिले हजार बार,
इस पार कभी, उस पार कभी।

तुम कभी अश्रु बनकर आँखों से टूट पड़े,
तुम कभी गीत बनकर साँसों से फूट पड़े,
तुम टूटे-जुड़े हजार बार
इस पार कभी, उस पार कभी।
तम के पथ पर तुम दीप जला धर गए कभी,
किरनों की गलियों में काजल भर गए कभी,
तुम जले-बुझे प्रिय! बार-बार,
इस पार कभी, उस पार कभी।

फूलों की टोली में मुस्काते कभी मिले,
शूलों की बांहों में अकुलाते कभी मिले,
तुम खिले-झरे प्रिय! बार-बार,
इस पार कभी, उस पार कभी।
तुम बनकर स्वप्न थके, सुधि बनकर चले साथ,
धड़कन बन जीवन भर तुम बांधे रहे गात,
तुम रुके-चले प्रिय! बार-बार,
इस पार कभी, उस पार कभी।

तुम पास रहे तन के, तब दूर लगे मन से,
जब पास हुए मन के, तब दूर लगे तन से,
तुम बिछुड़े-मिले हजार बार,
इस पार कभी, उस पार कभी।

36. यदि मैं होता घन सावन का

यदि मैं होता घन सावन का ।

पिया पिया कह मुझको भी पपिहरी बुलाती कोई,
मेरे हित भी मृग-नयनी निज सेज सजाती कोई,
निरख मुझे भी थिरक उठा करता मन-मोर किसी का,
श्याम-संदेशा मुझसे भी राधा मँगवाती कोई,
किसी माँग का मोती बनता ढल मेरा भी आँसू,
मैं भी बनता दर्द किसी कवि कालिदास के मन का।
यदि मैं होता घन सावन का॥

आगे आगे चलती मेरे ज्योति-परी इठलाती,
झांक कली के घूंघट से पीछे बहार मुस्काती,
पवन चढ़ाता फूल, बजाता सागर शंख विजय का,
तृषा तृषित जग की पथ पर निज पलकें पोंछ बिछाती,
झूम झूम निज मस्त कनखियों की मृदु अंगड़ाई से,
मुझे पिलाती मधुबाला मधु यौवन आकर्षण का।
यदि मैं होता घन सावन का ॥

प्रेम-हिंडोले डाल झुलाती मुझे शरीर जवानी,
गा गा मेघ-मल्हार सुनाती अपनी विरह कहानी,
किरन-कामिनी भर मुझको अरुणालिंगन में अपने,
अंकित करती भाल चूम चुम्बन की प्रथम निशानी,
अनिल बिठा निज चपल पंख पर मुझे वहाँले जाती,
खिलकर जहाँन मुरझाता है विरही फूल मिलन का।
यदि मैं होता घन सावन का॥

खेतों-खलिहानों में जाकर सोना मैं बरसाता,
मधुबन में बनकर बसंत मैं पातों में छिप जाता,
ढहा-बहाकर मन्दिर, मस्जिद, गिरजे और शिवाले,
ऊंची नीची विषम धरा को समतल सहज बनाता,
कोयल की बांसुरी बजाता आमों के झुरमुट में,
सुन जिसको शरमाता साँवरिया वृन्दावन का।
यदि मैं होता घन सावन का ॥

जीवन की दोपहरी मुझको छू छाया बन जाती,
साँझ किसी की सुधि बन प्यासी पलकों में लहराती,
द्वार द्वार पर, डगर डगर पर दीप चला जुगनू के,
सजल शरबती रात रूप की दीपावली मनाती,
सतरंगी साया में शीतल उतर प्रभात सुनहला
बनता कुन्द कटाक्ष कली की खुली धुली चितवन का।
यदि मैं होता घन सावन का ॥

बिहग-बाल के नरम परों में बन कँपन बसता मैं,
उरोभार सा अंग अंग पर मुग्धा के हँसता मैं,
मदिरालय में मँदिर नशा बन प्याले में ढल जाता,
बन अनंग-अंजन अलसाई आँकों में अंजता मैं,
स्वप्न नयन में, सिरहन तन में, मस्ती मन में बनकर,
अमर बनाता एक क्षुद्र क्षण मैं इस लघु जीवन का।
यदि मैं होता घन सावन का ॥

जब मैं जाता वहाँ जहाँ मेरी निष्ठुर वह सुन्दर,
साँझ-सितारा देख रही होगी बैठी निज छत पर,
पहले गरज घुमड़ भय बन मन में उसके छिप जाता,
फिर तरंग बन बहता तन में रिमझिम बरस बरस कर,
गोल कपोलों कर ढुलका कर प्रथम बूँद वर्षा की,
याद दिलाता मिलन-प्रात वह प्रथम प्रथम चुम्बन का।
यदि मैं होता घन सावन का ॥

37. अंतिम बूँद

अंतिम बूँद बची मधु को अब जर्जर प्यासे घट जीवन में।

मधु की लाली से रहता था जहाँविहँसता सदा सबेरा,
मरघट है वह मदिरालय अब घिरा मौत का सघन अंधेरा,
दूर गए वे पीने वाले जो मिट्टी के जड़ प्याले में-
डुबो दिया करते थे हँसकर भाव हृदय का 'मेरा-तेरा',
रूठा वह साकी भी जिसने लहराया मधु-सिन्धु नयन में।
अंतिम बूँद बची मधु को अब जर्जर प्यासे घट जीवन में।।

अब न गूंजती है कानों में पायल की मादक ध्वनि छम छम,
अब न चला करता है सम्मुख जन्म-मरण सा प्यालों का क्रम,
अब न ढुलकती है अधरों से अधरों पर मदिरा की धारा,
जिसकी गति में बह जाता था, भूत भविष्यत का सब भय, भ्रम
, टूटे वे भुजबंधन भी अब मुक्ति स्वयं बंधती थी जिन में।
अंतिम बूँद बची मधु को अब जर्जर प्यासे घट जीवन में।।

जीवन की अंतिम आशा सी एक बूँद जो बाकी केवल,
संभव है वह भी न रहे जब ढुलके घट में काल-हलाहल,
यह भी संभव है कि यही मदिरा की अंतिम बूँद सुनहली-
ज्वाला बन कर खाक बना दे जीवन के विष की कटु हलचल,
क्योंकि आखिरी बूँद छिपाकर अंगारे रखती दामन में
अंतिम बूँद बची मधु को अब जर्जर प्यासे घट जीवन में।।

जब तक बाकी एक बूँद है तब तक घट में भी मादकता,
मधु से धुलकर ही तो निखरा करती प्याले की सुन्दरता,
जब तक जीवित आस एक भी तभी तलक साँसों में भी गति,
आकर्षण से हीन कभी क्या जी पाई जग में मानवता?
नींद खुला करती जीवन की आकर्षण की छाँह शरण में।
अंतिम बूँद बची मधु को अब जर्जर प्यासे घट जीवन में।।

आज हृदय में जाग उठी है वह व्याकुल तृष्णा यौवन की,
इच्छा होती है पी डालूं बूँद आखिरी भी जीवन की,
अधरों तक ले जाकर प्याला किन्तु सोच यह रुक जाता हूँ,
इसके बाद चलेगी कैसे गति प्राणों के श्वास-पवन को,
और कौन होगा साथी जो बहलाए मन दिन दुर्दिन में।
अंतिम बूँद बची मधु की अब जर्जर प्यासे घट जीवन में॥

मानव! यह वह बूँद कि जिस पर जीवन का सर्वस्व निछावर,
इसकी मादकता के सम्मुख लज्जित मुग्धा का मधु-केशर,
यह वह सुख की साँस आखिरी जिसके सम्मुख हेय अमरता-
यह वह जीवन ज्योति-किरण जो चीर दिया करती तम का घर,
अस्तु इसे पी जा मुस्कुराकर मुस्काए चिर तृषा मरण में।
अंतिम बूँद बची मधु की अब जर्जर प्यासे घट जीवन में॥

किन्तु जरा रुक ऐसे ही यह बूँद मधुरतम मत पी जाना;
इसमें वह मादकता है जो पीकर जगबनता दीवाना,
इससे इसमें वह जीवन विष की एक बूँद तू और मिला ले,
सीख सके जिससे हँस हँसकर मधु के संग विष भी अपनाना,
मधु विष दोनों ही झरते हैं जीवन के विस्तृत आँगन में।
अंतिम बूँद बची मधु की अब जर्जर प्यासे घट जीवन में॥

38. क्या यही है प्रेम का प्रतिकार?

क्या यही है प्रेम का प्रतिकार?

प्राण ! पहले तो जगाई प्यास वह मन में,
सोख ले जो सप्त सागर एक ही क्षण में,
किन्तु माँगी एक जब मधु-बूँद तुम बोले--
"रे ! तृषा का तृषित से होता नहीं श्रृंगार !"
क्या यही है प्रेम का प्रतिकार ?

आँज दी अंजन बना निज याद आँखों में,
शूल की 'भर दी विकलता प्राण-पाँखों में,
किन्तु मैंने जब तुम्हें संगीत बन टेरा,
धर दिये तुमने धधकते होठ पर अँगार ।
क्या यही है प्रेम का प्रतिकार ?

सुख तुम्हें मिलता निरख यदि अश्रु मेरे प्यार !
मैं बसा लूँगा नयन में कोटि पारावार,
और तुमको भी शपथ है मुस्कराना तुम
बन्द हो जब तक न मेरे आँसुओं की धार !
क्या यही है प्रेम का प्रतिकार ?

39. भूल जाना

भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना!

साथ देखा था कभी जो एक तारा
आज भी अपनी डगर का वो सहारा
आज भी हैं देखते हम तुम उसे पर
है हमारे बीच गहरी अश्रु-धारा
नाव चिर जर्जर नहीं पतवार कर में
किस तरह फिर हो तुम्हारे पास आना।
भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना!

सोच लेना पंथ भूला एक राही
लख तुम्हारे हाथ में लख की सुराही
एक मधु की बूंद पाने के लिए बस
रुक गया था भूल जीवन की दिशा ही
आज फिर पथ ने पुकारा जा रहा वह
कौन जाने अब कहाँ पर हो ठिकाना।
भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना!

चाहता है कौन अपना स्वप्न टूटे?
चाहता है कौन पथ का साथ छूटे?
रूप की अठखेलियाँ किसको न भातीं?
चाहता है कौन मन का मीत रूठे?
छूटता है साथ सपने टूटते पर
क्योंकि दुश्मन प्रेमियों का है जमाना।
भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना!

यदि कभी हम फिर मिले जीवन-डगर पर
मैं लिए आँसू, लिए तुम हास मनहर
बोलना चाहो नहीं तो बोलना मत
देख लेना किन्तु मेरी ओर क्षण भर
क्योंकि मेरी राह की मंज़िल तुम्हीं हो
और जीने का तुम्हीं तो हो बहाना।
भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना!

साँझ जब दीपक जलाएगी गगन में
रात जब सपने सजाएगी नयन में
पी कहाँ जब-जब पुकारेगा पपीहा
मुस्कुराएगी कली जब-जब चमन में
मैं तुम्हारी याद कर रोता रहूँगा
किन्तु मेरी याद कर तुम मुस्कुराना।
भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना!

भूल जाना किस तरह संग-संग तुम्हारे
छाँह बन कर मैं रहा संध्या-सकारे
सोचना मत किस तरह मैं जी रहा हूँ
चल रहा हूँ किस तरह सुधि के सहारे
किन्तु इतनी भीख तुमसे माँगता हूँ
यदि सुनो यह गीत इसको गुनगुनाना।
भूल पाओ तो मुझे तुम भूल जाना!

40. बन्द करो मधु की

बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

बहुत दिनों तक हुआ प्रणय का रास वासना के आंगन में,
बहुत दिनों तक चला तृप्ति-व्यापार तृषा के अवगुण्ठन में,
अधरों पर धर अधर बहुत दिन तक सोई बेहोश जवानी,
बहुत दिनों तक बंधी रही गति नागपाश से आलिंगन में,
आज किन्तु जब जीवन का कटु सत्य मुझे ललकार रहा है
कैसे हिले नहीं सिंहासन मेरे चिर उन्नत यौवन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

मेरी क्या मजाल थी जो मैं मधु में निज अस्तित्व डुबाता,
जग के पाप और पुण्यों की सीमा से ऊपर उठ जाता,
किसी अदृश्य शक्ति की ही यह सजल प्रेरणा थी अन्तर में,
प्रेरित हो जिससे मेरा व्यक्तित्व बना खुद का निर्माता,
जीवन का जो भी पग उठता गिरता है जाने-जनजाने,
वह उत्तर है केवल मन के प्रेरित-भाव-अभाव-प्रश्न का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

जिसने दे मधु मुझे बनाया था पीने का चिर अभ्यासी,
आज वही विष दे मुझको देखता कि तृष्णा कितनी प्यासी,
करता हूं इनकार अगर तो लज्जित मानवता होती है,
अस्तु मुझे पीना ही होगा विष बनकर विष का विश्वासी,
और अगर है प्यास प्रबल, विश्वास अटल तो यह निश्चित है
कालकूट ही यह देगा शुभ स्थान मुझे शिव के आसन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

आज पिया जब विष तब मैंने स्वाद सही मधु का पाया है,
नीलकंठ बनकर ही जग में सत्य हमेशा मुस्काया है,
सच तो यह है मधु-विष दोनों एक तत्व के भिन्न नाम दो
धर कर विष का रूप, बहुत संभव है, फिर मधु ही आया है,
जो सुख मुझे चाहिए था जब मिला वही एकाकीपन में
फिर लूं क्यों एहसान व्यर्थ मैं साकी की चंचल चितवन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

41. निभाना ही कठिन है

प्यार तो करना बहुत आसान प्रेयसि!
अन्त तक उसका निभाना ही कठिन है।

है बहुत आसान ठुकराना किसी को,
है न मुश्किल भूल भी जाना किसी को,
प्राण-दीपक बीच साँसों को हवा में
याद की बाती जलाना ही कठिन है

प्यार तो करना बहुत आसान प्रेयसि!
अन्त तक उसका निभाना ही कठिन है।

स्वप्न बन क्षण भर किसी स्वप्निल नयन के,
ध्यान-मंदिर में किसी मीरा गगन के
देवता बनना नहीं मुश्किल, मगर सब-
भार पूजा का उठाना ही कठिन है।

प्यार तो करना बहुत आसान प्रेयसि!
अन्त तक उसका निभाना ही कठिन है।

चीख-चिल्लाते सुनाते विश्व भर को,
पार कर लेते सभी बीहड़ डगर को,
विष-बुझे पर पंथ के कटु कंटकों की
हर चुभन पर मुस्कुराना ही कठिन है।

प्यार तो करना बहुत आसान प्रेयसि!
अन्त तक उसका निभाना ही कठिन है।

छोड़ नैया वायु-धारा के सहारे,
है सभी ही सहज लग जाते किनारे,
धार के विपरीत लेकिन नाव खेकर
हर लहर को तट बनाना ही कठिन है।

प्यार तो करना बहुत आसान प्रेयसि!
अन्त तक उसका निभाना ही कठिन है।

दूसरों के मग सुगम का अनुसरण कर
है बहुत आसान बढ़ना ध्येय पथ पर
पाँव के नीचे मगर मंज़िल बसाकर
विश्व को पीछे चलाना ही कठिन है।

प्यार तो करना बहुत आसान प्रेयसि!
अन्त तक उसका निभाना ही कठिन है।

वक्त के संग-संग बदल निज कंठ-लय-स्वर
क्या कठिन गाना सुनाना गीत नश्वर
पर विरोधों के भयानक शोर-गुल में
एक स्वर से गीत गाना ही कठिन है।

प्यार तो करना बहुत आसान प्रेयसि!
अन्त तक उसका निभाना ही कठिन है।

42. तब याद किसी की

तब याद किसी की आती है!

मधुकर गुन-गुन धुन सुन क्षण भर
कुछ अलसा कर, कुछ शरमा कर
जब कमल-कली धीरे-धीरे निज घूँघट-पट खिसकाती है।
तब याद किसी की आती है!

आँगन के तरू की फ़ुनगी पर
दो तिनके सजा-सजा कर धर
जब कोई चिड़िया एकाकी निज उजड़ा नीड़ बसाती है।
तब याद किसी की आती है!

हिल-डुल कर पवन-झकोरों से
जब ओस फ़ूल के अधरों पर चल-चुम्बन सी झर जाती है।
कलिका के खुलते अधरों पर चल चुम्बन सी झर जाती है ।
तब याद किसी की आती है!

पाकर निशि का तम, सूनापन
जब शशि की एक शरीर किरण
सोते फ़ूलों के गालों को हल्के-हल्के सहलाती है।
तब याद किसी की आती है!

उस पार उतारा करती नित
जो जग के नर-नारी अगणित
निशि को जब वही नाव सूनी इस पार पड़ी अकुलाती है।
तब याद किसी की आती है!

उन्मुक्त झरोखे से आकर
सिर, मस्तक मेरा सहलाकर
जब प्रात उषा की किरण एक सोते से मुझे जगाती है।
तब याद किसी की आती है!

43. प्यार नहीं मिलता है

प्यार सभी करते जग में पर
सब को प्यार नहीं मिलता है ।

अथक प्रतीक्षा में ऋतुपति की
सभी निकुञ्ज कुञ्ज उपवन के
पत्रहीन-फल-फूलहीन हो,
सहते शर पतझार-पवन के,
पर कुंकुम सिन्दूर लिये जब दूल्हा बन बसन्त आता है
तब हर डाली को, हर बगिया को श्रृंगार नहीं मिलता है ।
सब को प्यार नहीं मिलता है ।।

यद्यपि सभी भक्त मन्दिर में
एक भावना लेकर जाते,
और एक विधि से वन्दन कर
पूजा पर सर्वस्व चढ़ाते,
देने को वरदान मगर जब होता है तैयार देवता
तब सब की पूजा को मन्दिर में सत्कार नहीं मिलता है ।
सब को प्यार नहीं मिलता है ।।

कैसी जीवन की विडम्बना
है कितनी अपनी लाचारी ?
लगा दाँव पर तन मन भी हम
जीत न पाते बाजी हारी,
सर्वस देकर भी न हमें मिलती मुट्ठी भर धूल किसी से
अमृत लुटाकर भी विष पीने का अधिकार नहीं मिलता है ।
सब को प्यार नहीं मिलता है ।।

पूछ रहा मैं आज स्वयं से
आखिर क्या इसका कारण है,
प्यास सभी की एक जगत में
पर न सुधा का सम वितरण है,
चलने को तो सब को मिल जाती हैं राहें और मुश्किलें,
पर हर पंथी को मंज़िल का दरस-दुलार नहीं मिलता है ।
सब को प्यार नहीं मिलता है ।।

सीमित जग का कोष, असीमित-
है जड़-चेतन की अभिलाषा,
इसीलिए आशा करके भी
मिलती हमको सदा निराशा
कभी कभी तो लहरें खुद हमको तट पर पहुँचा देती हैं,
कभी डूबने को भी सागर में मंझधार नहीं मिलता है ।
सब को प्यार नहीं मिलता है ।।

44. मैं तुम्हें अपना

मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

अजनबी यह देश, अनजानी यहां की हर डगर है,
बात मेरी क्या- यहां हर एक खुद से बेखबर है
किस तरह मुझको बना ले सेज का सिंदूर कोई
जबकि मुझको ही नहीं पहचानती मेरी नजर है,
आंख में इसे बसाकर मोहिनी मूरत तुम्हारी
मैं सदा को ही स्वयं को भूल जाना चाहता हूं
मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

दीप को अपना बनाने को पतंगा जल रहा है,
बूंद बनने को समुन्दर का हिमालय गल रहा है,
प्यार पाने को धरा का मेघ है व्याकुल गगन में,
चूमने को मृत्यु निशि-दिन श्वास-पंथी चल रहा है,
है न कोई भी अकेला राह पर गतिमय इसी से
मैं तुम्हारी आग में तन मन जलाना चाहता हूं।
मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

देखता हूं एक मौन अभाव सा संसार भर में,
सब विसुध, पर रिक्त प्याला एक है, हर एक कर में,
भोर की मुस्कान के पीछे छिपी निशि की सिसकियां,
फूल है हंसकर छिपाए शूल को अपने जिगर में,
इसलिए ही मैं तुम्हारी आंख के दो बूंद जल में,
यह अधूरी ज़िन्दगी अपनी डुबाना चाहता हूं।
मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

वे गए विष दे मुझे मैंने हृदय जिनको दिया था,
शत्रु हैं वे प्यार खुद से भी अधिक जिनको किया था,
हंस रहे वे याद में जिनकी हजारों गीत रोये,
वे अपरिचित हैं, जिन्हें हर सांस ने अपना लिया था,
इसलिए तुमको बनाकर आंसुओं की मुस्कराहट,
मैं समय की क्रूर गति पर मुस्कराना चाहता हूं।
मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

दूर जब तुम थे, स्वयं से दूर मैं तब जा रहा था,
पास तुम आए जमाना पास मेरे आ रहा था
तुम न थे तो कर सकी थी प्यार मिट्टी भी न मुझको,
सृष्टि का हर एक कण मुझ में कमी कुछ पा रहा था,
पर तुम्हें पाकर, न अब कुछ शेष है पाना इसी से
मैं तुम्हीं से, बस तुम्हीं से लौ लगाना चाहता हूं।
मैं तुम्हें, केवल तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

45. अब न आउँगा

अब न आउँगा तुम्हारे द्वार।

जब तुम्हारी ही हृदय में याद हरदम
लोचनों में जब सदा बैठे स्वयं तुम
फिर अरे क्या देव, दानव क्या, मनुज क्या
मैं जिसे पूजूँ जहाँ भी तुम वहीं साकार
किसलिए आऊँ तुम्हारे द्वार?

क्या कहा- सपना वहाँ साकार होगा
मुक्ति और अमरत्व पर अधिकार होगा
किन्तु मैं तो देव! अब उस लोक में हूँ
है जहाँ करती अमरता मर्त्य का श्रृंगार
क्या करूँ आकर तुम्हारे द्वार?

तृप्ति-घट दिखला मुझे मत दो प्रलोभन
मत डुबाओ हास में ये अश्रु के कण
क्योंकि ढल-ढल अश्रु मुझ से कह गए हैं
प्यास मेरी जीत, मेरी तृप्ति ही है हार
मत कहो- आओ हमारे द्वार।

आज मुझ में तुम, तुम्हीं में मैं हुआ लय
अब न अपने बीच कोई भेद संशय
क्योंकि तिल-तिल कर गला दी प्राण मैंने
थी खड़ी जो बीच अपने चाह की दीवार
व्यर्थ फिर आना तुम्हारे द्वार।

दूर कितने भी रहो तुम पास प्रतिपल
क्योंकि मेरी साधना ने पल निमिष चल
कर दिए केन्द्रित सदा को ताप बल से
विश्व में तुम, और तुम में विश्व भर का प्यार
हर जगह ही अब तुम्हारा द्वार।

46. अब तुम रूठो

अब तुम रूठो, रूठे सब संसार, मुझे परवाह नहीं है।

दीप, स्वयं बन गया शलभ अब जलते-जलते,
मंज़िल ही बन गया मुसाफिर चलते-चलते,
गाते गाते गेय हो गया गायक ही खुद
सत्य स्वप्न ही हुआ स्वयं को छलते छलते,
डूबे जहां कहीं भी तरी वहीं अब तट है,
अब चाहे हर लहर बने मंझधार मुझे परवाह नहीं है।
अब तुम रूठो, रूठे सब संसार, मुझे परवाह नहीं है।

अब पंछी को नहीं बसेरे की है आशा,
और बागबां को न बहारों की अभिलाषा,
अब हर दूरी पास, दूर है हर समीपता,
एक मुझे लगती अब सुख दुःख की परिभाषा,
अब न ओठ पर हंसी, न आंखों में हैं आंसू,
अब तुम फेंको मुझ पर रोज अंगार, मुझे परवाह नहीं है।
अब तुम रूठो, रूठे सब संसार, मुझे परवाह नहीं है।

अब मेरी आवाज मुझे टेरा करती है,
अब मेरी दुनियां मेरे पीछे फिरती है,
देखा करती है, मेरी तस्वीर मुझे अब,
मेरी ही चिर प्यास अमृत मुझ पर झरती है,
अब मैं खुद को पूज, पूज तुमको लेता हूं,
बन्द रखो अब तुम मंदिर के द्वार, मुझे परवाह नहीं है।
अब तुम रूठो, रूठे सब संसार, मुझे परवाह नहीं है।

अब हर एक नजर पहचानी सी लगती है,
अब हर एक डगर कुछ जानी सी लगती है,
बात किया करता है, अब सूनापन मुझसे,
टूट रही हर सांस कहानी सी लगती है,
अब मेरी परछाई तक मुझसे न अलग है,
अब तुम चाहे करो घृणा या प्यार, मुझे परवाह नहीं है।
अब तुम रूठो, रूठे सब संसार, मुझे परवाह नहीं है।

  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण काव्य रचनाएँ : गोपालदास नीरज
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)